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21वीं सदी की बड़ी और विकराल समस्या: अनीता देवी

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21वीं सदी की बड़ी और विकराल समस्या

अनीता देवी 
जल के बिना जीवन की कल्पना भी नही की जा सकती| जल प्रकृति का दिया एक अनुपम उपहार है जो न सिर्फ जीवन बल्कि पर्यावरण के लिए भी अमूल्य है| जैसे पानी के बिना जीवन संभव नहीं है वैसे साफ पानी के बिना स्वस्थ जीवन संभव नहीं| आज विश्व भर में स्वच्छ पेयजल के संकट की स्थिति बनी हुयी है|भारत जैसे विकासशील देश इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित हैं| “ विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 21वीं सदी की सबसे बड़ी और विकराल समस्या होगी पेयजल की| इसका विस्तार सम्पूर्ण विश्व में होगा तथा विश्व के सभी बड़े शहरों में पानी के लिए युद्ध जैसी स्थिति हो जाएगी|”¹ जल का अंधाधुंध व विवेकहीन प्रयोग वर्तमान जल संकट का सबसे प्रमुख कारण है , जो आज विश्व के सम्मुख एक गंभीर समस्या के रूप में खड़ा है| एक मूलभूत आवश्यकता होने के कारण मानवीय प्रजाति सहित जीव ,वनस्पति व सम्पूर्ण पारिस्थितिक तंत्र के लिए जल जरूरी है| जल संकट ने मानव जाति के समक्ष असितत्व का संकट पैदा कर दिया है| उसके लिए जल की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती बन गयी है|संयुक्त राष्ट्र के आकलन के अनुसार पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा लगभग 1700 मिलियन घन कि.मी. है जिससे पृथ्वी पर जल की 3000 मीटर मोटी परत बिछ सकती है ,लेकिन इस बड़ी मात्रा में मीठे जल का अनुपात अत्यंत अल्प है| पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल में मीठा जल 2.7% है|इसमें से लगभग 75.2% ध्रुवीय प्रदेशों में हिम के रूप में विद्यमान है और 22.6% जल ,भूमिगत जल के रूप में है ,शेष जल झीलों ,नदियों ,वायुमंडल में आर्द्रता व जलवाष्प के रूप में तथा मृदा और वनस्पति में उपस्थित है|घरेलू तथा औधोगिक उपयोग के लिए प्रभावी जल की उपलब्धता मुश्किल से 0.8% है|अधिकांश जल इस्तेमाल के लिए उपलब्ध न होने और इसकी उपलब्धता में विषमता होने के कारण जल संकट एक विकराल समस्या के रूप में हमारे सम्मुख आ खड़ा हुआ है|
“यद्दपि जल एक चक्रीय संसाधन है तथापि यह एक निशचित सीमा तक ही उपलब्ध होता है| मानव को उपलब्ध होने वाले जल की मात्रा उतनी है जितनी कि पहले थी| परन्तु जनसंख्या में निरंतर वृद्धि तथा कुछ जलाशयों के ह्रास से प्रति व्यक्ति जल में भारी कमी आ रही है|1947 में स्वतंत्रता के समय भारत में 6008 घन मीटर जल प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष उपलब्ध था ,1951 में यह मात्रा घट कर 5177 घन मीटर प्रति व्यक्ति रह गई तथा 2001 में 1820 घन मीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष रह गई| दसवीं योजना के मध्यवर्ती आकलन के अनुसार यह मात्रा 2025 में 1340 घन मीटर तथा 2050 में 1140 घन मीटर रह जाएगी|”²
देश का पानी सूख रहा है|धरती पर भी और धरती के नीचे भी| जलसंकट के कारण मराठवाड़ा और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों तथा आंध्र प्रदेश एवं तेलांगना के ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में लोग नगरों की तरफ पलायन कर रहें है|
“ मराठवाड़ा के परभणी कस्बे में पानी के लिए झगड़ा न हो इसलिए अप्रैल के पहले हफ्ते में धारा 144 लगा दी गई| लातूर में ट्रेन से पानी पहुंचाया जा रहा है|”³
जल संसाधन पानी के वह स्रोत हैं जो मानव के लिए उपयोगी हों या जिनके उपयोग की संभावना हो। पानी के उपयोगों में शामिल हैं कृषि, औद्योगिक, घरेलू, मनोरंजन हेतु और पर्यावरणीय गतिविधियों में । वस्तुतः इन सभी मानवीय उपयोगों में से ज्यादातर में ताजे जल की आवश्यकता होती है । आज जल संसाधन की कमी, इसके अवनयन और इससे संबंधित तनाव और संघर्ष विश्वराजनीति और राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। जल विवाद राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर महत्वपूर्ण विषय बन चुके हैं। यदि हम भारत के संदर्भ में बात करें तो भी हालात चिंताजनक है कि हमारे देश में जल संकट की भयावह स्थिति है और इसके बावजूद हम लोगों में जल के प्रति चेतना जागृत नहीं हुई है। अगर समय रहते देश में जल के प्रति अपनत्व व चेतना की भावना पैदा नहीं हुई तो आने वाली पीढ़ियां जल के अभाव में नष्ट हो जाएगी। हम छोटी छोटी बातों पर गौर करें और विचार करें तो हम जल संकट की इस स्थिति से निपट सकते हैं। विकसित देशों में जल रिसाव मतलब पानी की छिजत सात से पंद्रह प्रतिशत तक होती है जबकि भारत में जल रिसाव 20 से 25 प्रतिशत तक होता है। इसका सीधा मतलब यह है कि अगर मोनिटरिंग उचित तरीके से हो और जनता की शिकायतों पर तुरंत कार्यवाही हो साथ ही उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रकार से प्रबंधन व उपयोग किया जाए तो हम बड़ी मात्रा में होने वाले जल रिसाव को रोक सकते हैं।
विकसित देशों में जल राजस्व का रिसाव दो से आठ प्रतिशत तक है, जबकि भारत में जल राजस्व का रिसाव दस से बीस प्रतिशत तक है यानी कि इस देश में पानी का बिल भरने की मनोवृत्ति आमजन में नहीं है और साथ ही सरकारी स्तर पर भी प्रतिबंधात्मक या कठोर कानून के अभाव के कारण या यूं कहें कि प्रशासनिक शिथिलता के कारण बहुत बड़ी राशि का रिसाव पानी के मामले में हो रहा है। अगर देश का नागरिक अपने राष्ट्र के प्रति भक्ति व कर्तव्य की भावना रखते हुए समय पर बिल का भुगतान कर दे तो इस स्थिति से निपटा जा सकता है साथ ही संस्थागत स्तर पर प्रखर व प्रबल प्रयास हो तो भी इस स्थिति पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। 
प्रत्येक घर में चाहे गांव हो या शहर पानी के लिए टोंटी जरूर होती है और प्रायः यह देखा गया है कि इस टोंटी या नल या टेप के प्रति लोगों में अनदेखा भाव होता है। यह टोंटी अधिकांशत: टपकती रहती है और किसी भी व्यक्ति का ध्यान इस ओर नहीं जाता है। प्रति सेकंड नल से टपकती जल बूंद से एक दिन में 17 लीटर जल का अपव्यय होता है और इस तरह एक क्षेत्र विशेष में 200 से 500 लीटर प्रतिदिन जल का रिसाव होता है और यह आंकड़ा देश के संदर्भ में देखा जाए तो हजारों लीटर जल सिर्फ टपकते नल से बर्बाद हो जाता है। अब अगर इस टपकते नल के प्रति संवेदना उत्पन्न हो जाए और जल के प्रति अपनत्व का भाव आ जाए तो हम हजारों लीटर जल की बर्बादी को रोक सकते हैं।
  • अब और कुछ सूक्ष्म दैनिक उपयोग की बातें है जिन पर ध्यान देकर जल की बर्बादी को रोका जा सकता है।
  • फव्वारे से या नल से सीधा स्नान करने के स्थान पर बाल्टी से स्नान करने से पानी की कर सकते हैं।
  • शौचालय में फ्लश टेंक का उपयोग करने की जगह यही काम छोटी बाल्टी से किया जाए तो पानी की बचत कर सकते हैं।
अब राष्ट्र के प्रति और मानव सभ्यता के प्रति जिम्मेदारी के साथ सोचना आम आदमी को है कि वो कैसे जल बचत में अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा सकता है। याद रखें पानी पैदा नहीं किया जा सकता है यह प्राकृतिक संसाधन है जिसकी उत्पत्ति मानव के हाथ में नहीं है। पानी की बूंद-बूंद बचाना समय की मांग है और हमारी वर्तमान सभ्यता की जरूरत भी। 
इस समस्या से उबरने के लिए मात्र सरकारी प्रयास ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि जल का उपयोग सभी लोगों द्वारा किया जाता है और सभी का जीवन जल पर आश्रित है| देश के नागरिकों अपनी क्षमता के अनुसार जल संरक्षण के प्रयासों में अपना योगदान देना चाहिए तभी देश में नये लातूर को बनने से रोका जा सकता है| “वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट के अनुसार पानी को पानी की तरह बहाना बंद करना होगा| यदि समाज पानी को एक दुर्लभ वस्तु नहीं मानेगा , तो आने वाले समय में पानी हम सबके के लिए दुर्लभ हो जायेगा|”4 
ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि भी वर्तमान जल संकट का एक महत्वपूर्ण कारण है| वैश्विक तापमान में होने वाली वृद्धि से विश्व के मौसम , जलवायु , कृषि व जल स्रोतों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है| ग्लोबल वार्मिंग के कारण तापमान में होने वाली वृद्धि से ग्लेशियर तीव्रता से पिघल रहें है| इससे भविष्य में जल संकट का खतरा उत्पन्न हो सकता है|
जल संकट से निपटने के लिए : 
  • तालाबों और गड्डों का निर्माण करना चाहिए जिससे वर्षा का जल एकत्रित हो सके और प्रयोग में लाया जा सके| इससे जलस्तर में वृद्धि होगी और भूमिगत जल बना रहेगा|
  • पेड़ों को काटने से रोकना और वृक्षारोपण को बढावा देना जिससे वैश्विक तापन की समस्या कम हो| वैश्विक तापन से हिम पिघलते हैं और हिम का जल नदियों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है|
  • नदी किनारे बसने वाले नगरों द्वारा नदियों को प्रदूषित किया जाता है जिससे नदियों का जल पीने लायक नही रहता और नदियाँ सूखने की कगार पर आ खड़ी है उदाहरण के लिए दिल्ली में यमुना नदी| 
  • ·उत्तर भारत की नदियों में सदा जल बहता रहता है और दक्षिण भारत की नदियाँ सदा वाहनी नहीं रहती ऐसे में नदी जोड़ो परियोजना का सहारा लिया जा सकता है| 
  • अंत में कह सकते है कि सृष्टि के हर जीव का असितत्व पानी पर ही टिका है| जल संकट जैसी विकराल समस्या का सामना करने के लिए वयक्तिगत , सामुदायिक , सामाजिक ,राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सार्थक पहल की जरूरत है|
सन्दर्भ :
1. कुरुक्षेत्र पत्रिका , मई 2015
2. खंड – ‘घ’ 14.35 , भूगोल , डी. आर. खुल्लर 
3. पृष्ठ 26 , क्रानिकल , जून 2016
4. पृष्ठ 2 , क्रानिकल , जून 2016
5. दृष्टि The Vision ,करेंट अफेयर्स टुडे , नवम्बर 2015
शोधार्थी 
कमरा न.115/2
यमुना छात्रावास 
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
नई दिल्ली (110067)
मोबाइल न. 9013927321

राजेंद्र यादव : साहित्य-सरोवर का ‘हंस’: ओमप्रकाश कश्यप

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राजेंद्र यादव : साहित्य-सरोवर का ‘हंस’

ओमप्रकाश कश्यप

‘‘विडंबना यह है कि नितांत अधार्मिक साधन ही धर्म की रक्षा करते हैं, मानवता को बचाए रखने के लिए निरंकुश अमानवीयता का इस्तेमाल करना पड़ता है, नैतिकता की शुचिता बनाएरखने के लिए न जाने कितनी अनैतिकताओं का सहारा लेना पड़ता है. गांधी जी की ‘गरीबी’ कितनी महंगी पड़ती थी—इसे खुद सुशीला नैयर ने बताया है….सही है कि साध्य ही साधनों को ‘जस्टीफाई करता है, मगर साध्य स्वयं इतना ‘महान’ है कि उसके लिए हर तरह का साधन सही है, तो सवाल उठेगा कि साध्य की महानता तय करने वाले कौन हैं? रावण गलत है, राम सही या कौरव अधार्मिक हैं, पांडव धार्मिक—यह तय करने वाले राम और पांडव ही हैं न, बल्कि उनसे भी ज्यादा उनकी विजय उन्हें सही बनाती है. एक ही धर्म के दो संप्रदाय एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं, क्योंकि दोनों अपने-अपने कॉज के प्रति सच्चे होते हैं….अगर हम साध्य और साधन के सवाल को सिर्फ नैतिक या बौद्धिक स्तर पर ही रखेंगे, तो शायद कहीं नहीं पहुंच पाएंगे. या तो साध्य(कॉज) ही हवाई लगने लगेगा या सारे साधन अनैतिक.’’ —राजेंद्र यादव, खंड-खंड पाखंड, पृष्ठ 21. 
खुद को ‘हंस’ का पुराना पाठक मानता हूं. इधर कुछ महीनों से संबंध टूटा हुआ था. इसलिए नहीं कि राजेंद्र यादव(अगस्त 28 1929, आगरा—अक्टूबर 28 2013, मयूरविहार, दिल्ली) के लेखन या उनके द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों में अविश्वास था. बस इसलिए कि लेखन-पाठन की प्राथमिकताओं में बदलाव था. ‘हंस’ ही क्यों दूसरी साहित्यिक पत्रिकाओं के संपर्क में भी कम ही रहा. इसका कभी, कोई मलाल भी नहीं हुआ. क्योंकि सामाजिक बदलाव के जिन मुद्दों पर ‘हंस’ बात करता था, या जिन विषयों को राजेंद्र यादव अपने संपादकीय में उत्तेजक बहस के रूप में उठाते थे, उनमें भी वे जिनमें मेरी विशेष रुचि थी—उन्हें विस्तार देती दूसरी और महत्त्वपूर्ण सामग्री आसानी से अन्यत्र उपलब्ध थी. पत्रिका के रूप में ‘हंस’ की जो सीमा थी, उसमें राजेंद्र जी की तमाम सदाशयता और प्रतिबद्धता के बावजूद वैचारिक सामग्री कम ही आ पाती थी. कहानी की पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित ‘हंस’ को, उसके बड़े पाठक-लेखक वर्ग से काटकर विशुद्ध वैचारिक पत्रिका में बदल देना संभव भी नहीं था. वैसे भी राजेंद्र यादव का प्रथम अनुराग कहानी से था. साहित्य में उनकी प्रतिष्ठा नई कहानी आंदोलन के प्रवर्त्तक के रूप में भी थी. लेकिन कहानी, विशेषकर नई कहानी के नाम पर पिछले कुछ दशकों में जो लिखा जा रहा था, वह अपन के गले नहीं उतरता था.
स्वयं राजेंद्र यादव यह मानते थे कि हिंदी कहानी, कहानी की मूल विशेषता कहानीपन को बिसराकर अधिक से अधिक वर्णनात्मक होती जा रही है. इस व्यतिक्रम से कहानी ने न केवल अपने बंधे-बंधाए पाठक खोए हैं, बल्कि उसकी कसावट एवं प्रभाव में भी कमी आई है. प्रतिष्ठित कहानी-पत्रिका के संपादक की यह निराशा विचारणीय थी. इसके बावजूद ‘हंस’ अपनी सर्वाधिक चहेती पत्रिका बनी थी, तो केवल अपने लेखों तथा उनसे भी अधिक राजेंद्र जी के संपादकीय के नाते. उसमें वे ज्वलंत मुद्दों को पूरी बेबाकी और लेखकीय निष्ठा के साथ उठाते थे. ‘हंस’ के लेखों में मैं हमेशा एक अलंघ्य ऊंचाई पाता रहा. शायद इसीलिए उसमें न तो कभी छपा, न ही एकाध अवसर को छोड़कर कोई रचना प्रकाशन के लिए भेजी. उसपर ठसक यह कि ‘हंस’ या किसी अन्य पत्रिका में न छपने का कभी मलाल भी नहीं हुआ. कहानी विधा में अरुचि के बावजूद ‘हंस’ को नियमित खरीदता और पढ़ता जरूर रहा.
विचारों की डोर कहीं न कहीं ‘हंस’ की वैचारिकी से जुड़ती थी, इसलिए कभी निराश नहीं होना पड़ता था. कुछ और चाहे न हो, ‘हंस’ का संपादकीय मन को अनूठी तृप्ति दे जाता था. कुछ वर्ष पहले ‘हंस’ में आत्मस्वीकृतियों का दौर चला था. ईसाई धर्म में आत्मस्वीकृति को धार्मिक मान्यता प्राप्त है. गिरजाघर में पादरी के सामने जाकर व्यक्ति अपने अपकर्मों को स्वीकार कर बोझ मुक्त हो सकता है. आदमी देवता नहीं है. देवता नामक मिथ उसने मनुष्यता के आदर्श के रूप में गढ़े हैं. अपनी सीमाओं के चलते मनुष्य गलती भी करता है. उन गलतियों से कई बार सबक लेता है, कई बार नहीं भी लेता. फिर भी जाने-अनजाने हुई गलती या अपराध की आत्मस्वीकृति मानव-मन से अनावश्यक विकारों को दूर कर उसे तनावमुक्त करती है. ‘आत्मस्वीकृति’ अथवा ‘अपराध-स्वीकृति’ के मूल में यही अवधारणा है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पश्चिम में धर्मों का विकास अध्यात्मपरक होने से ज्यादा तत्वपरक ढंग से हुआ है. भारतीय दर्शनों में जो स्थान ब्रह्म का है, यूनानी दर्शन में वही ‘शुभ’ का है. उसके अनुसार ‘शुभ’ नैतिक उत्थान की सर्वोच्च अवस्था है. अपने जीवन को ‘शुभता’ की ओर निरंतर अग्रसर करना, मानव-मात्र का लक्ष्य है. इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य को अपनी कमजोरियों की जानकारी हो. उन गलतियों का बोध हो जो उसने जाने-अनजाने की हैं. उनके लिए क्षमा-याचना और पुन: न दोहराने का संकल्प ही आत्मस्वीकृतियों को सार्थक बनाता है. आत्मस्वीकृतियों के पीछे निहित यह दर्शन मनुष्य को अपनी दुर्बलताओं को स्वीकारने का साहस जगाकर उनमें बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा जगाता है. हिंदू धर्म में यह काम ईश्वर भरोसे छोड़ दिया जाता है. 
भारतीय प्रज्ञा ने दर्शन की अनेक ऊंचाइयों को छुआ, अपनी उपलब्धियों से विश्व-भर को चमत्कृत भी किया है. इसके बावजूद यदि समग्र रूप से देखें तो उसमें आस्था का अनुपात कुछ ज्यादा ही रहा है. अपनी उपलब्धि पर गुमान करने, आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति वैदिक मनीषियों में आरंभ से ही थी. ऋग्वेद की ऋचाओं के अस्तित्व में आने में जो समय लगा सो लगा. बाद के मनीषियों की सारी की सारी मेहनत उन्हें सहेजने तथा उनका कर्मकांडीकरण करने में नजर आती है. मौलिकता और ज्ञान के विस्तार पर बहुत कम ध्यान गया है. वैदिक ऋचाओं का गायन कैसे हो, यह सामवेद में समझाया गया. यजुर्वेद में उसके कर्मकांड पक्ष को विस्तार दिया गया. यज्ञों के प्रकार तथा उनके आयोजन पर विस्तार से लिखा गया. अथर्ववेद सहित बाकी उपनिषदों में भी उसी को आगे बढ़ाया गया है. कई स्थानों पर तो मौलिकता की चिंता किए बगैर ऋग्वेद के मंत्रों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया गया है.
आस्था को रूढ़ि अथवा जीवन की अनिवार्यता के रूप में थोपने का दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुष्य को चलने के लिए बंधी-बंधाई लीक मिली. जिसमें आदमी के अपने विवेक, निर्णय-सामर्थ्य, रुचि, स्वभाव आदि का हस्तक्षेप अनपेक्षित था. इसका कुफल यह हुआ कि सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों में मनुष्य विवेक के उपयोग से निरंतर कटता गया. धार्मिक आडंबरवाद के चलते गलतियों को सार्वजनिक रूप में स्वीकारने के बजाए उनपर पर्दा डालने की परंपरा बनी रही. जबकि धार्मिक रूप में स्वीकार्य होने के कारण पश्चिम में पश्चाताप और अपराध-स्वीकृति को साहित्यिक मान्यता प्राप्त हुई. रूसो के बाकी लेखन के साथ उसकी आत्मस्वीकृतियां भी पर्याप्त चर्चित रही हैं. भारत में ऐसे विषय उठाने की परंपरा न होने के बावजूद ‘हंस’ ने उसकी शुरुआत की थी. ये राजेंद्र जी ही थे जो नई पहल से घबराते नहीं थे. न आलोचकों की कभी परवाह करते थे. उनमें गजब का लोकतांत्रिक साहस था. अभिव्यक्ति और विचार के लिए बड़े से बड़ा खतरा उठाने को वे हरदम तैयार रहते थे. उनके सत्साहस के फलस्वरूप ‘हंस’ हिंदी-पट्टी की अनेक बौद्धिक-सामाजिक जड़ताओं पर प्रहार करने में कामयाब हुई, विशेषकर दलित और स्त्री-मुक्ति के सवालों को लेकर. इसके लिए राजेंद्र जी को सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत रूप से यथास्थितिवादियों की आलोचनाओं, यहां तक कि व्यक्तिगत हमलों का शिकार भी होना पड़ा. लेकिन वे अपने मोर्चे पर अडिग रहे. उनके समय में नई और उत्तेजक बहसों को जितना वैचारिक स्पेस ‘हंस’ ने दिया, हिंदी की दूसरी पत्रिकाएं शायद वैसा कर सकीं. 
‘हंस’ की उस बहुचर्चित श्रंखला में कई नामी-गिरामी लेखक-लेखिकाओं की आत्मस्वीकृतियां छपी थीं. तथाकथित शुद्धतावादियों को उसमें ‘अनर्थ’ ही दिखा था. आत्मस्वीकृति का साहस दिखाने वाले लेखक भी सर्वथा निर्दोष न थे. वे नैतिक और सामाजिक अपराधों को तो थोड़े-बहुत स्पष्टीकरण के साथ स्वीकारने का साहस दिखा रहे थे, किंतु कानूनी और आर्थिक भ्रष्टाचार के प्रति आत्मस्वीकृति का साहस पूरी तरह गायब था. कुल मिलाकर आत्मस्वीकृतियों का वह सिलसिला लेखिकाओं की ‘बोल्डनेस’ तथा लेखकों के विचलन तक सिमटा हुआ था. शायद इसीलिए भी आलोचकों को सवाल उठाने का अवसर मिला था. आत्मस्वीकृतियों का सिलसिला ज्यादा लंबा नहीं चल सका. यूं भी अपने अपकर्म सार्वजनिक करने के लिए शेर का कलेजा चाहिए, जो भारतीय परिवेश में कदाचित असंभव है. बहरहाल, शुद्धतावादियों के बीच राजेंद्र जी की उस पहल की भी वैसी ही आलोचना हुई जैसी ‘हंस’ के दूसरे प्रयासों को लेकर होती थी. नाराजगी के असली कारण दूसरे थे. बहाना देह-संबंधों पर बेबाक लेखन को बनाया गया. आलोचकों में अधिकांश वही थे जो अजंता-एलोरा की गुफाओं में भारतीयता का गौरव खोजते आए हैं, ‘गीत-गोविंद’ की प्रशंसा करते न अघाते थे; और जिनके लिए भारतीय कविता का श्रेष्ठतम हिस्सा ‘रीतिकाल’ से आता है. जिनके लिए वर्ण-भेद समर्थक तुलसी हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं. 
दरअसल जिस सामाजिक न्याय के प्रति ‘हंस’ समर्पित था, उसका ठोस संवैधानिक आधार था. एक संवैधानिक प्रतिबद्धता की ओर से आंखें मोड़ लेने का एकमात्र हथियार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हो सकता था. इसलिए जब-जब ‘हंस’ और राजेंद्र यादव पर उंगली उठी, मामला ‘संस्कृति पर खतरा‘ बताया गया. इसके बावजूद उनके नेतृत्व में ‘हंस’ दमित अस्मिताओं के उभार के लिए निरंतर पहल करता रहा. स्त्री और दलित स्वाभिमान की लड़ाई को उसने हिंदी पट्टी पर सबसे बड़ा मंच दिया. इससे यथास्थितिवादी शक्तियां उसके विरुद्ध लामबंध होती गईं. ‘अक्षर प्रकाशन’ और ‘हंस’ के जमाने से जो मित्र उनके साथ लगे थे, वे अपने लिए सुरक्षित कोना देखकर उसमें समाने लगे. हंस कार्यालय को ‘एक ऐसा षड्यंत्र कक्ष कहा गया, जहां हर समय किसी को उठाने-गिराने, पटाने-मिटाने की खुराफातें होती रहती हैं….’ उसे ‘अपराध डैन(मांद)’ की संज्ञा दी गई, ‘जहां काला चश्मा चढ़ाए, पाइप फूंकता एक माफिया-डॉन ठेठ फिल्मी अंदाज में साहित्यिक जालसाजियों का संचालन करता रहता है.’ इसके बावजूद अपनी लेखकीय प्रतिबद्धताओं के साथ राजेंद्र जी डटे रहे. इससे उन्हें नए मित्र और संगी-साथी मिले. फलस्वरूप कारवां बढ़ता गया. राजेंद्र जी के संपादन में ही ‘हंस’ ने कांतिकुमार जैन के संस्मरण सिलसिलेवार छापे थे, जो खूब चर्चित हुए. उनके अलावा समाजविज्ञान पर योगेंद्र यादव जी ने उसमें लिखा. स्त्री, दलित अस्मिता तथा अल्पसंख्यक मुद्दों पर ज्वलंत सामग्री ‘हंस’ में लगातार आती रही, जिसने हिंदी पट्टी में वैचारिक आंदोलनों को गति दी.
कोई भी पत्रिका अपने समय के आंदोलनों, समाजार्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों से निरपेक्ष नहीं रह सकती. साहित्यिक पत्रिका पर तो यह नियम और भी गंभीरता से लागू होता है. राजेंद्र यादव के नेतृत्व में ‘हंस’ ने सदैव समसामयिक विषयों को विमर्श का मुद्दा बनाया. प्रेमचंद के जन्मदिन 31 जुलाई 1986 से इस पत्रिका ने राजेंद्र यादव के संपादन में जब दुबारा दस्तक दी तो उसने बहुत जल्दी अपना विशिष्ट पाठक-वर्ग बना लिया. एक साहित्यिक पत्रिका की खूबी पाठक की बौद्धिक क्षुधा को शांत करना-भर नहीं है, बल्कि उसे नई परिस्थितियों और चुनौतियों को समझने तथा और उनका समाधान खोजते रहने की समझ देना भी है. ‘हंस’ ने यही किया, इसलिए वह समाज में बड़े बौद्धिक आयोजनों की गवाह और उत्प्रेरक बन सकी. आलोचकों के कटाक्ष, ‘हंस’ कार्यालय को ‘छज्जु का चौबारा’, ‘राजदरबार’ तथा वहां आनेवालों को ‘राजदरबारी’ कहने के बावजूद यह पत्रिका गत 27 वर्ष की अपनी पुनः-प्रकाशन अवधि में, जनसरोकारों से शायद ही कभी दूर गई हो. प्रेमचंद का नाम लिए बिना ही राजेंद्र जी उनकी परंपरा को निरंतर विस्तार देते रहे. जनसरोकारों के प्रति ‘हंस’ की प्रतिबद्धता का क्या कोई ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है? यह जानना भी जरूरी है, इसके लिए स्मृति में तत्कालीन दौर की कुछ यादें ताजा करनी होंगी.
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन कई मायने में अनूठा था. यह बोध कि देश के जमींदार, साहूकार, व्यापारी और पुरोहित वर्ग के स्वार्थ अंग्रेजों से जुड़े हैं, और वे सरकार के विरोध में जाने वाले नहीं हैं—जनसाधारण के संगठित विद्रोह की प्रेरणा बना था. यह वर्ग सामाजिक-राजनीति मुक्ति की आस लेकर आंबेडकर और गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम में उतरा था. उसे अंग्रेजों से उतनी शिकायत न थी, जितनी अपने ही देश के धर्म के ठेकेदारों तथा जाति के अलंबरदारों से जो हजारों वर्षों से उनका शारीरिक-मानसिक शोषण करते आए थे. उन्हें लगता था कि देश की आजादी उनके लिए राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति का संदेश भी लेकर आएगी. लेकिन आजादी मिलते ही जनता को किनारे कर वर्चस्वकारी शक्तियां पुनः सत्ता पर सवार हो गईं. इससे जनाक्रोश बढ़ना स्वाभाविक था. सत्ताओं के खेल में उनके साथ हमेशा छल हुआ है—यह एहसास उन्हें लामबंद कर रहा था. जयप्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया तो वे नई स्फूर्ति एवं प्रेरणाओं के साथ पुनः एकजुट होने लगीं. उस आंदोलन फलस्वरूप अस्तित्व में आई ‘जनता पार्टी’ अपने प्रमुख नेताओं के वर्गीय सोच का शिकार थी. असल में इंदिरा विरोध के नाम पर लोकतंत्र विरोधी, सत्ता की भूख से आकुल-व्याकुल, प्रतिक्रियावादी ताकतें एकजुट हुई थीं. उनके लिए राजनीतिक सत्ता वर्षों पुराने सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने का माध्यम थी. इस वर्ग के नेताओं द्वारा सामूहिक हितों पर स्वार्थ को वरीयता देने के कारण संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य पूरा न हो सका. क्रांति-संकल्प के साथ तेजी से उभरी ‘जनता पाटी’ कांतिविहीन होकर बिखर गई. देश को बेहतर राजनीतिक विकल्प देने का जनता पार्टी का प्रयोग असफल हुआ था. 1984 में कांग्रेस का पुनः सत्ता में आना, इंदिरा गांधी की हत्या, राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना, फिर उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार और नाकारापन के आरोप, तत्कालीन उथल-पुथल से भरपूर भारतीय राजनीति की ये प्रमुख घटनाएं थीं. इससे भारत के राजनीतिक हलकों में थोड़ी-बहुत अस्थिरता पनपी, किंतु सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि सहस्राब्दियों से शोषण, उत्पीड़न, तिरष्कार और उपेक्षा का दंश झेलती आई जातियों में आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भूख जागने लगी थी. अभी तक दूसरों के आदेश अथवा इशारों पर मतदान करने वाले लोग अपने नफा-नुकसान को देख स्वतंत्र निर्णय लेने लगे. विशेषकर स्त्री और दलित, लोकतांत्रिक माहौल का फायदा उठाने के लिए एकजुट हो रहे थे. उसके फलस्वरूप शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मायावती, एच. डी. देवगौड़ा, रवि राय, रामविलास पासवान, चौ. चरण सिंह, देवीलाल जैसे हाशिये के अनेक नेता अचानक महत्त्वपूर्ण हो उठे थे. लेकिन बहुमत के आधार पर सत्ता-शिखर पर पहुंचना एक बात है तथा शिखर पर रहकर देश का नेतृत्व करना दूसरी. शताब्दियों से शासित होते इन वर्गों में शासन करने का कोई संस्कार न था. उनकी संस्कृति ही ऐसी थी, जो सत्ता से अनुकूलन करना सिखाती थी. इसलिए लोकतंत्र के सहारे सत्ता-शिखर पहुंचे उत्पीड़ित वर्गों के नेताओं की हैसियत, विशेषकर उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में दूसरे दर्जे की थी. यदा-कदा अवसर भी मिलता था तो अनुभव और आत्मविश्वास की कमी से सरकार चला पाने में नाकाम सिद्ध होते थे. लोकतंत्र की सफलता सामान्य सहमति और विरोधों के समाहार पर टिकी होती है, उसके लिए आवश्यक अनुभव उन्हें न था. दक्षिण भारत में सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष अपेक्षाकृत पहले शुरू हो चुका था, इसलिए वहां के हालात में किंचित सुधार था. तत्कालीन परिवर्तनकामी राजनीति की वह स्वाभाविक विडंबना थी.
ऐसे ही चुनौतीपूर्ण समय में ‘हंस’ का पुनर्प्रकाशन आरंभ हुआ. एक प्रबुद्ध साहित्यकार के रूप में राजेंद्रजी सामाजिक-राजनीतिक हलचल को बहुत करीब से देख रहे थे. वे समझ भी रहे थे कि वैकल्पिक राजनीति को मुख्यधारा की राजनीति बनाने के लिए जमीनी तैयारी की जरूरत है. यह कार्य स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक सहित अन्य वंचित जमातों के प्रबोधीकरण तथा उनके आत्मविश्वास को लौटाने के साथ ही संभव है. दरअसल सांस्कृतिक पूर्वाग्रह प्रायः इतने जटिल होते हैं, कि एक बार उनके चंगुल में फंस जाने के बाद व्यक्ति की हालत अनुसरणकर्ता जैसी हो जाती है. इसके विपरीत अभिजात संस्कृति का समस्त तामझाम सत्ता से अनुकूलन पर टिका होता है. वहां शिखर पर बने रहने हेतु आवश्यक समझौता की अंदरूनी छूट होती है. ग्राम्शी ने समानता और स्वतंत्रता हेतु अभिजन वर्गों के सांस्कृतिक वर्चस्व से मुक्ति को जरूरी माना है. इसके लिए उसने अभिजन संस्कृति के समानांतर जनसंस्कृति के उभार पर जोर दिया है. उसके अनुसार दास इसलिए दास होता है, क्योंकि उसकी संस्कृति उसको दास होना सिखाती है. डॉ. आंबेडकर का कहना था कि गुलाम को उसकी गुलामी का एहसास करा दो, वह क्रांति कर देगा. राजनीतिक चेतना सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना की अनुगामी है. इसलिए अंबेडकर और ग्राम्शी दोनों, सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता जितनी ही महत्त्वपूर्ण मानते थे. ‘हंस’ द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दों में स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक आदि प्रमुख थे. राजेंद्र यादव ने पिछड़े वर्ग को छुआ तक नहीं था. न ही कभी पिछड़े साहित्य की मांग को आगे रखा था. राजेंद्र यादव स्वयं पिछड़े वर्ग से आते थे; और उनकी दमदार उपस्थिति को यदि पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व स्वीकार लिया जाए तो यह परिकल्पना आसान हो सकती है कि सदियों से उत्पीड़न का शिकार रहे वर्गों यथा पिछड़ों, स्त्री, अल्पसंख्यक आदि को लेकर ब्राह्मणवाद के विरुद्ध बड़ा मोर्चा बनाने का संकल्प ‘हंस’ की शुरुआत से ही उनके मन में था. जिस तरह से उन्होंने अकेले ही ब्राह्मणवाद के विरुद्ध मोर्चा साधा, उसके आधार पर उन्हें हिंदी का वाल्तेयर कहा जा सकता है.   
राजेंद्र यादव राजनेता न थे. उन्हें हम लेखक-विचारक कह सकते हैं, किंतु उनका पहला प्यार रचनात्मक साहित्य से था. प्रेमचंद ने लिखा था—‘साहित्य राजनीति के आगे जलने वाली मशाल है.’ यही सूत्र राजेंद्रजी का मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक सिद्ध हुआ. उम्मीदों को बचाए रखने, नए सपनों को गढ़ने की चाहत, अपने बूते आगे बढ़ने का आत्मविश्वा, घोर नैराश्य के विरुद्ध आशाबाद उनके आरंभिक उपन्यास ‘प्रेत बोलते हैं(सारा आकाश)’ की भूमिका में रामधारी सिंह दिनकर की कविता-पंक्ति के माध्यम से कुछ यों प्रकट हुआ था—‘सेनानी करो प्रयाण अभय भावी इतिहास तुम्हारा है/ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है.’ यह अनायास न होकर भविष्य की कार्ययोजना का प्रेरणा बिंदू था. अपने लेखों, संपादकियों के माध्यम से राजेंद्र यादव दमित वर्गों को इसी प्रयाण-यात्रा के लिए अनुप्रेत करते रहे.
प्रेमचंद को आदर्श मानने वाला, साहित्य को समाज और राजनीति की मशाल बनाने को उद्धत कलम का एक योद्धा यही कर सकता था. कह सकते हैं कि राजेंद्र यादव को कहानीकार आजादी के बाद के युवामन के सपनों और समाज के कड़वी हकीकतों ने बनाया था, किंतु उनके संपादक को गढ़ने में प्रेमचंद के अलावा जयप्रकाश नारायण के संघर्ष तथा उनके ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन का भी योगदान था. ‘हंस’ से पहले उन्होंने ‘अक्षर प्रकाशन’ की शुरुआत अपने कुछ मित्रों के साथ की थी. हिंदी में जहां पुस्तकों का सीधा बाजार न हो, जहां प्रकाशकों को सरकारी खरीद पर निर्भर रहना पड़ता हो, वहां एक लेखक के लिए जिसकी अपनी नैतिक प्रतिबद्धताएं भी होती हैं, प्रकाशन चलाना हंसी खेल न था. प्रकाशन की असफलता और नौकरी न करने की जिद के बीच ‘हंस’ की स्थापना, ऐसे ही संघर्षपूर्ण जिजीविषा की देन थी. आगे जैसा कि सभी जानते हैं, अपनी स्थापना के बाद ‘हंस’ ने जो डगर पकड़ी, उसकी सही-सही परिकल्पना संभवतः राजेंद्रजी को भी नहीं रही होगी. लेखकों-विचारकों के मामले में प्रायः ऐसा होता है. वे किसी नई कृति या विचार को जन्म देकर, उसे अपनी तरह विस्तार देने के लिए आगे बढ़ते हैं. मगर एक स्थिति ऐसी आती है, जब कथानक स्वयं आगे बढ़ने लगता है. लेखक की भूमिका उसकी डोर पकड़कर पीछा करने तक सिमट जाती है. यही बात विचार के भी साथ है. उसका बीज तत्व मानस में उमगता है. उसके बाद विचारक को ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता. दिमाग में पहले से मौजूद प्रत्ययों, अवधारणाओं तथा तर्कशक्ति के ताने-बाने के बीच वह स्वयं विस्तार लेने लगता है. ‘हंस’ के साथ भी यही हुआ था. एक कहानी के रूप में आरंभ हुई पत्रिका ने अपने विशिष्ट सरोकार के साथ जैसे ही जनमानस में अपनी पहचान निर्मित की, उसे वहीं से खाद-पानी मिलने लगा. उसके बाद ‘हंस’ के संपादक मंडल का काम पत्रिका को चेतना-संपन्न पाठकों की इच्छा और जनसरोकारों से जोड़कर आगे बढ़ाते रहने तक सिमट गया.
भारत में जाति व्यवस्था का प्रभाव या कहो कि कुप्रभाव इतना गहरा है कि बड़े से बड़ा लेखक विचारक उसके प्रभाव में आ ही जाता है. बचपन से बड़ा होने तक व्यक्ति जिन जातीय संस्कारों के बीच वह पलता और बड़ा होता है, उनसे एकाएक मुक्त हो पाना असंभव होता है. यदि बचना भी चाहे तो दूसरे लोग उसकी पहचान जाति नाम के पुच्छल्ले से जोड़कर करने लगते हैं. इसलिए आजाद भारत के निर्माण को जाति और संप्रदाय के प्रभावों से दूर रखने हेतु आवश्यक व्यवस्थाएं संविधान निर्माताओं द्वारा की गई थीं. इसके बावजूद कुछ जातियों की सत्ता पर पकड़ इतनी गहरी थी कि वे लोकतंत्र को भी अपने स्वार्थ और सुविधा के अनुसार हांक सकती थीं. लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करना एक ऐसा निर्णय था, जिससे जाति-व्यवस्था जो अभी तक बहुसंख्यक वर्गों के शोषण का माध्यम थी—परिवर्तन का उपकरण बनने लगी. जिस जाति के नाम पर दलितों और पिछड़ों का शोषण होता आया था उसी को हथियार बनाकर लोग संगठित होने लगे. दूसरों के लिए, दूसरों के कहने पर मतदान करते आई दमित जातियों के मतदाताओं ने पहली बार अपने जाति/वर्ग के नेताओं को संसद और विधानसभा में पहुंचाना आरंभ कर दिया. संख्या में बहुसंख्यक होने के नाते उन्हें यह अधिकार भी था. जरूरत इस अधिकार चेतना को जन-जन तक पहुंचाने की थी.
बहरहाल, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जो देश-भर में उपद्रव हुए, उसके विरोध में जैसी राजनीतिक लाठियां भांजी गईं, उससे ‘हंस’ को परिवर्तनकामी शक्तियों के बीच पैठ बनाने में मदद की. हालांकि इसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी. आरंभ में पत्रिका के साथ ऐसे बहुत से लेखक जुड़े जो राजेंद्रजी के कहानीकार को तो महत्त्व देते थे, किंतु परिवर्तनकामी विचारधारा या साहित्य की पत्रिका को वैचारिक प्रतिबद्धता जोड़ना उन्हें स्वीकार न था—वे धीरे-धीरे उनसे किनारा करने लगे. राजेंद्र यादव को उसकी कोई चिंता न थी. इस मामले में गजब के लोकतांत्रिक थे. दूसरों की असहमतियों का सम्मान करना उन्हें आता था. असहमतियों के बीच अपनी वैचारिक निष्ठा को सुरक्षित रखने हेतु उनमें पर्याप्त आत्मविश्वास भी उनमें था. उनके नेतृत्व में दमित चेतनाओं को स्वर देने की जो डगर ‘हंस’ ने पकड़ी, उसपर साथ देने के लिए नए और समर्पित यायावार पहले से ही प्रतीक्षारत थे.
1991 के बाद देश में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर पूंजी और कारपोरेट घरानों का जल-जंगल और जमीन को लूटने का खेल चला. नतीजा यह हुआ कि पूंजीवादी ताकतें समाज और सरकार पर अपनी पकड़ बनाने लगीं. मनुष्य का अवमूल्यन कर उसको महज ‘उपभोक्ता’ मान लिया गया. यह साम्राज्यवाद का नया रूप था, जिसमें राष्ट्रों को तलवार के बजाय आर्थिक नीतियों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से समर्पण के लिए मजबूर किया जाता था. ‘हंस’ ने इस मोर्चे पर भी काम किया. जहां जरूरी लगा, राजेंद्रजी ने कथित उदारीकरण के नाम पर कारपोरेटीकरण का जमकर विरोध किया.
राजेंद्र यादव के ‘हंस’ की विशेषता थी कि उसमें जो छपता था, वह विमर्श की दृष्टि से नया, बेबाक और बेलाग होगा था. उसकी गमक दिलो-दिमाग पर देर तक सवार रहती थी. चाहे वह विषय के चयन को लेकर हो या भाषा को, राजेंद्रजी सभी में मौलिक नजर आते थे. उन्होंने ‘हंस’ में महिला और दलित साहित्यकारों को खुलकर स्थान दिया. इसके लिए उन्हें लंबा विरोध भी झेलना पड़ा. ‘हंस’ को बदनाम करने के लिए लोगों ने उनपर अश्लीलता के आरोप लगाए. उसे सांस्कृतिक अपसंस्करण का वाहक कहा गया. तमाम किस्म के दबावों के बीच राजेंद्रजी अपने मूल्यों पर अडिग बने रहे. दलित-अस्मिता के संघर्ष में उन्होंने सदैव दलित साहित्यकारों, विचारकों का साथ दिया. ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को शीर्षक देने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.
राजेंद्र यादव और ’हंस’ के सरोकारों को केवल स्त्री और दलित तक सीमित कर देना, उनके योगदान को कम करके आंकना होगा. हालांकि ’हंस’ तो इतने भर से भी साहित्यिक पत्रिकाओं में शीर्ष पर बना रह सकता है. ‘हंस’ की प्रतिबद्धता पूरे जनसमाज के प्रति थी. ‘हंस’ ने जिस तरह धर्म के आडंबरवाद पर चोट की, उतनी मुखरता से शायद ही किसी और पत्रिका ने आवाज उठाई हो. राजेंद्र यादव हिंदी में स्त्री-विमर्श के सूत्रधारों में से थे. उन्होंने प्रभा खेतान को सीमोन दा बोउआर की कृति ‘दि सेकिंड सेक्स’ का हिंदी अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया, जो हिंदी में ‘स्त्री-उपेक्षिता’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. हिंदी में स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाने में जितना योगदान इस अकेली पुस्तक का है, उतना शायद ही किसी और पुस्तक का होगा. निश्चय ही इसका श्रेय राजेंद्र यादव को जाता है. भारत में लड़की को होश संभालते ही समझाया जाता है, तुम्हारा शरीर तुम्हारा नहीं है. उसपर तुम्हारे पति का अधिकार होगा. और जब तक विवाह नहीं हो जाता तब तक तुम पिता के संरक्षण में हो. राजेंद्र का स्त्री विमर्श इसी विसंगति पर केंद्रित था. वे मानते थे कि व्यक्ति होने के नाते अपने शरीर पर सबसे पहला अधिकार स्त्री का होता है. पुरुष समाज को स्त्री के इस अधिकार का सम्मान करना चाहिए.
राजेंद्र यादव के आलोचक भी कम न थे. कुछ तो मृत्यु के कुछ दिन पहले तक भी भड़ास निकालते रहे. उनपर तरह-तरह के लांछन लगाते रहे. यह उनकी मजबूरी है—यह हकीकत को राजेंद्र जी भी जानते थे. इसलिए आलोचकों की बातों की परवाह किए बगैर वे अपने काम में लगे रहते थे. इसी लिए वे राजेंद्र यादव थे. अंत में बस इतना कि राजेंद्र यादव के आलोचक आज चाहे जितना दंभ कर लें, समय की छननी में उनके नाम कहीं दूर बिला जाएंगे, मगर राजेंद्र यादव साहित्य-जगत में दीपस्तंभ की भांति रहेंगे, उनके संपादकीय अपने युग की आवाज की तरह पढ़े जाएंगे.

opkaashyap@gmail.com
[जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के ‘हिंदी पत्रिका विशेषांक’ में प्रकाशित लेख]

अमरीकी कविता: शैलेन्द्र चौहान

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अमरीकी कविता

शैलेन्द्र चौहान 

प्रथम महायुद्ध के पूर्व ही अमरीका की पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना होने लगी थी। अनेक लेखकों ने समाजवाद को मुक्ति के मार्ग के रूप में अपनाया। ऐसे लेखकों के अग्रणी थियोडोर ड्रेज़र, जैक लंडन और अप्टन सिंक्लेयर थे। एडविन मार्खम और विलयम ह्वॉन मूडी की कविताओं में भी वही स्वर है। वाल्ट ह्विटमन को छोड़कर १९वीं सदी के अंतिम और २०वीं सदी के प्रारंभ के वर्ष कविता में साधारण उपलब्धि से आगे न जा सके। अपवाद स्वरूप एमिली डिकिन्सन (१८३०-१८८६) है जो निश्चय ही अमरीका की सबसे बड़ी कवयित्री है। उसकी कविताओं का स्वर आत्मपरक है और उनमें उसके ग्रामीण जीवन और असफल प्रेम के अनुभव तथा रहस्यात्मक अनुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं। डिकिन्सन की कविता में यथार्थ, विनोद, व्यंग्य और कटाक्ष, वेदना और उल्लास की विविधता है। चित्रयोजना, सरल और क्षिप्र भाषा, खंडित पंक्तियों और कल्पना की बौद्धिक विचित्रता में वह आधुनिक कविता के अत्यंत निकट है। आधुनिक अमरीकी कविता का प्रारंभ एडविन आलिंगटन रॉबिंसन (१८६९-१९३५) और राबर्ट फ्ऱास्ट (१८७४-१९६३) से होता है। परंपरागत तुकांत और अतुकांत छंदों के बावजूद उनका दृष्टिकोण और विषयवस्तु आधुनिक है; दोनों में अवसादपूर्ण जीवन के चित्र हैं। रॉबिंसन में अनास्था का मुखर स्वर है। फ्ऱास्ट की कविता की विशेषताएँ अंतरंग शैली में साधारण अनुभव की अभिव्यक्ति, संयमित, संक्षिप्त और स्वच्छ वक्तव्य, नाटकीयता और हास्य तथा चिंतन का सम्मिश्रण है। पो और डिकिन्सन रूपवादी शैली से प्रभावित अन्य उल्लेखनीय कवि वैलेस स्टीवेंस (ज. १८७९), एलिनार वाइली (१८८५-१९२८), जॉन गोल्डफ्लेचर (१८८६-१९५०) और मेरियन मूर (ज. १८८७) हैं। हैरियट मुनरो (१८६०-१९३६) द्वारा शिकागो में स्थापित पोएट्री : ए मैगज़ीन ऑव वर्स अमरीकी कविता में प्रयोगवाद का केंद्र बन गई। इसके माध्यम से ध्यान आकर्षित करनेवाले कवियों में वैचेल लिंडसे (१८७९-१९३१), कार्ल सैंडबर्ग (ज. १८७८) और एडगर ली मास्टर्स (१८६९-१९५०) प्रमुख हैं। ये ग्रामों, नगरों और चरागाहों के कवि हैं। मास्टर्स कविता में गहरा विषाद है, लेकिन सैंडबर्ग की प्रारंभिक कविताओं में मनुष्य में आस्था का स्वर ही प्रधान है। हार्ट क्रेन (१८९९-१९३२) में ह्विट्मन का रोमानी दृष्टिकोण है। यह रोमानी दृष्टिकोण नाओमी रेप्लांस्को, जॉन गार्डन, जॉन हाल ह्विलॉक, आइवर विंटर्स और थियोडोर रोथेश्क की कविताओं में भी है। आर्किबाल्ड मैक्लीश (ज. १८९२) की कविताओं में सर्वहारा के संघर्षों का चित्र है। स्टीफेन विंसेंट बेने (१८९८-१९४३) व्यापक मानव सहानुभूति का कवि है। उसके वैलड अत्यंत सफल हैं। होरेस ग्रेगरी (ज. १८९८) और केनेथ पैचेन (ज. १९११) की कविताओं पर भी ह्विट्मन का प्रभाव स्पष्ट है। दूसरी ओर रॉबिंसन जेफर्स (ज. १८८७) है जो अपनी कविताओं में मनुष्य के प्रति आक्रोशपूर्ण घृणा और प्रकृति के दारुण दृश्यों से प्रेम के लिय प्रसिद्ध है। एमी लॉवेल (१८७४-१९२५) और एच.डी. (हिल्डा डूलिटिल : ज. १८८६) ने इमेजिस्ट काव्यधारा का नेतृत्व किया। एज़रा पाउंड (ज.१८८५) और टी.एस. इलियट (१८८८-१९६५) ने आधुनिक अमरीकी कविता में प्रयोगवाद पर गहरा असर डाला। उनसे और “मेटाफ़िज़िकल’ शैली के रूपवाद से प्रभावित कवियों में जान क्रोवे रैंसम (ज. १८८८), कॉनरॉड आइकेन (ज. १८८९), रॉबर्ट पेन वैरेन (ज. १९०५), ऐलेन टेट (ज. १८९९), पीटर वाइरेक (ज. १९१६), कार्ल शैपीरो (ज. १९१३), रिचर्ड विल्बुर (ज. १९२१), आर.पी. ब्लैकमूर (ज. १९०४) तथा अनेक अन्य कवि हैं। अभिव्यक्ति में घनत्व, चमत्कार और दीक्षागम्यता उनकी विशेषताएँ हैं। इनके अनुसार “कविता का अर्थ नहीं, अस्तित्व होना चाहिए।” प्रयोगवादियों में ई.ई. कर्मिग्ज़ (ज. १८९४) पंक्तियों के प्रारंभ में बड़े अक्षरों को हटाने तथा विरामों और पंक्तियों के विभाजन में प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध हैं। २०वीं सदी की कवयित्रियों में सारा टीज़डेल (१८९४-१९३३) और एड्ना सेंट विंसेंट मिले (१८९२-१९५०) अपने सानेटों और आत्मपरक गीतों की स्पष्टोक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। मिले में प्रखर सामाजिक चेतना है। जेम्स वेल्डेन जॉन्सन (१८७१-१९३८), लैंगस्टेन ्ह्रूाजेज़ (ज. १९०२) और काउंटी क्लैन (१९०३-४६) नीग्रो कवि हैं जिन्होंने नीग्रो जाति की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया। द्वितीय महायुद्धोत्तर कालीन अमरीकी कविता बीट अथवा बीटनिक कवियों एवं विद्योचित कवियों के पारस्परिक संघर्ष एवं विरोध को लक्षित करती है। राबर्ट लोवल के शब्दों में यह संघर्ष अनगढ़ एवं परिष्कृत कविता के बीच पारस्परिक विरोध का संघर्ष है। इस वर्गीकरण के बावजूद हम देखते हैं कि इस २५ वर्ष की अवधि में अनेक बीटनिक कवि विद्योचित बन गए तथा अनेक विद्योचित कवियों ने बीटनिक शैली को अपनाया। बीटनिक कवियों में समाज के प्रति विद्रोह की भावना है। वे सभी सामाजिक संस्थाओं को घृणा की दृष्टि से देखते हैं और अपने लिए आत्यंतिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता चाहते हैं। वे अति मुक्तछंद में मानमाने ढंग से लिखते हैं। काव्य उनकी जीवनशैली का मात्र उपफल है। वे मदिरा, नशा, यौन प्रयोगों, एवं मादक द्रव्यों की सहायता से भावोद्दीपन की तीक्ष्णता को बढ़ाने का प्रयास करते हैं एवं नीग्रो तथा जैज़ संगीतज्ञों के संत्संग में भगवद्दर्शन की आशा रखते हैं। अपनी कविताओं को वे विलियम कार्लास विलियम्ज़ अथवा जैक केरुआक को समर्पित करते हैं। जैन, बौद्ध, एवं पूर्वी संस्कृति के तांत्रिक अथवा “असामाजिक’ पक्षों से आकर्षित ये नए बोहिमियाई “आवारे’ हैं जो समाज का विरोध एवं आदिमवाद, मूलवृत्ति, शक्ति तथा रक्त की उपासना करते हैं। काव्य में बीटनेक शैली के प्रमुख लेखक हैं ऐलन गिंसबर्ग, ग्रेगोरि कोरसो, गैरी स्नाइडर तथा लारेंस फ़लिगेटी। केनेथ रेक्सराथ, केनथ पैचन, राबर्ट डंकन, डेनिस लेवरतोव, चार्ल्ज़ ओल्सन, राबर्ट क्रीली जडसन क्रूज तथा जिल आर्लोवित्स की कविताओं पर भी बीटनिक शैली का प्रभाव पड़ा है। बीट कविता की आसन्नता एवं ओज मानवी अस्तित्व के नंगे चरित्र को गति देता है।
ऐलन गिंसबर्ग की हाउल (१९५६) अमरिकी समाज के नरकवासी कवि द्वारा मनुष्य के आधुनिक अस्तित्व का उच्छेदन करती है। उनकी पंक्तियाँ प्रेम, अथवा क्रोधरूपी कोड़े की फटकार से आधुनिक जगत्‌ के सारे संत्रास एवं विभीषिका का स्पर्श कर उनसे आगे ब्रह्मांडी य पवित्रता तक पहुँचती हैं। राजनीतिक, हत्या, पागलपन, स्वापकव्यसनी, समलिंगसंबंध, अथवा तांत्रिक या ज़ेन तटस्थता की विषयवस्तु का भार उनकी पंक्तियाँ सदा ही वहन करने में समर्थ नहीं होती। गिंसबर्ग की कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसका रहस्वादी तत्व है। उसका दूसरा प्रकाशन “कैडिश’ (१९६०) भी इन्हीं गुणों से युक्त है एवं मनुष्य की संवेदना को अनुभूत यथार्थ के सीमातंक क्षेत्र तक ले जाता है। “बाट’ शब्द के प्राय: तीन अर्थ दिए जाते है-(१) समाज का निम्नस्तर जहाँ संस्थाओं एवं परिपाटियों ने दलित कवि को दबा रखा है, (२) जैज़ संगीत की लय एवं ताल जो काव्यसंगीत को उत्प्रेरित करता है, एवं (३) भगवद्दर्शन। ग्रेगरी कोर्सो के “द वेस्टल लेडी आन ब्रैटल’, “गैसोलीन’, तथा “द हैपी बर्थडे ऑव डेथ’ में छंद बीट आदर्श के संनिकट हैं। वह जैज़ के विस्फोटक प्रभाव एवं हिप्स्टर नर्तकों की भाषा तथा शब्दों का अनुकरण करता है। लारंस फलिगेटी के “अ कॉनी’ आइलंड ऑव द माइंड’ में गली काव्य लिखने का प्रयास किया गया है। कविता को अध्ययन कक्ष के बाहर गलियों में लाया गया है। अन्य बीट कवियों के नाम हैं गे स्नाइडर, फिल वेलन एवं माइकेल मक्लूअर। बीट कविता अमरीका की अंतर्भौम कविता है। बीट ही के समान दो अन्य अंतर्भोम संप्रदाय भी हैं-ब्लैक माउंटन कवि एवं न्यू पार्क कवि। पहले संप्रदाय में चार्ल्ज़ ओलसन, राबर्ट क्रीली, राबर्ट डंकन एवं जानथन विलियम्ज़ आते हैं। दूसरे संप्रदाय के अंतर्गत डेनिस लेवर्तोव, ल राय जोंज़ एवं फ्रैंक ओ’ हारा आते हैं। बहुत सारे बीट्निक कवि आत्मसंन्धान के लिये भारत में भी आये थे और हिन्दू धर्म से प्रभावित हुये थे।
२०वीं सदी के अन्य प्रयोगवादियों में मार्क ह्वॉन डोरेन, लियोनी ऐडम्स, रॉबर्ट लॉवेल, हॉबर्ट होरन, जेम्स मेरिल, डब्ल्यू. एस. मर्विन, डेलमोर श्वार्ट्‌ज, म्यूरिएल रुकेसर, विनफ़ील्‌ड टाउनले स्कॉट, एलिज़ाबेथ बिशप, मेरिल मूर, ऑगडेन नैश, पीटर वाइरेक, जान कियार्डी आदि ऐसे कवि हैं जिनपर वाल्ट ह्विट्मन की कविता का आंशिक प्रभाव है। अपेक्षाकृत नए प्रयोगवादियों में जॉन पील विशप, रैंडाल जेरेल, रिचर्ड एबरहार्ट, जॉन बैरिमैन, जॉन फ्रेडरिक निम्स, जॉन मैल्कम ब्रिनिन और हॉवार्ड नेमेरोव हैं। सामाजिक यथार्थ और स्वस्थ जनवादी चेतना को महत्व देनेवाले आधुनिक कवियों में वाल्टर लोवेनफ़ेल्स, मार्था मिलेट, मेरिडेल ले स्यूर, टॉमस मैक्ग्राथ, ईव मेरियम, केनेथ रेक्सरॉथ इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
संपर्क : 34/242, सेक्टर -3, प्रताप नगर, जयपुर – 302033 (राजस्थान)
मो. 7838897877, Email : shailendrachauhan@hotmail.com

सबसे ज़्यादा बदनाम साहित्यकार: – वीणा भाटिया

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सबसे ज़्यादा बदनाम साहित्यकार

– वीणा भाटिया

बदनाम लेखक मंटो पर उनके जीवन काल में ही कई किताबें लिखी गईं। मुहम्मद असदुल्लाह की किताब ‘मंटो-मेरा दोस्त’ और उपेन्द्रनाथ अश्क की ‘मंटो-मेरा दुश्मन’। मशहूर आलोचक मुहम्मद हसन अस्करी ने लिखा है, “मंटो की दृष्टि में कोई भी मनुष्य मूल्यहीन नहीं था। वह हर मनुष्य से इस आशा के साथ मिलता था कि उसके अस्तित्व में अवश्य कोई-न-कोई अर्थ छिपा होगा जो एक-न-एक दिन प्रकट हो जाएगा। मैंने उसे ऐसे अजीब आदमियों के साथ हफ़्तों घूमते देखा है कि हैरत होती थी। मंटो उन्हें बर्दाश्त कैसे करता है! लेकिन मंटो बोर होना जानता ही न था। उसके लिए तो हर मनुष्य जीवन और मानव-प्रकृति का एक मूर्त रूप था, सो हर व्यक्ति दिलचस्प था। अच्छे और बुरे, बुद्धिमान और मूर्ख, सभ्य और असभ्य का प्रश्न मंटो के यहां ज़रा भी न था। उसमें तो इंसानों को कुबूल करने की क्षमता इतनी अजीब थी कि जैसा आदमी उसके साथ हो, वह वैसा ही बन जाता था।”
इस विवरण से समझा जा सकता है कि मंटो कैसे उन किरदारों को अपने अफ़सानों में केंद्रीय भूमिका लाने में कामयाब हो पाए जो ज़िंदगी के सियाह हाशिये में गर्क थे। मंटो के किरदार तलछट में रहने वाले हैं, गटर में। बदबू, और सड़ांध मारते माहौल में रहने वाले लोग जिनका चरित्र बाहर से पूर्णत: घृणित दिखाई पड़ता है, पर जब हम उस किरदार के भीतर जाते हैं तो महसूस करते हैं कि वे पतित नहीं हैं, बल्कि मानवीय बोध और संवेदना से लबरेज हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि मंटो मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखते हैं, इस दृष्टि से वह महान मानवतावादी लेखक हैं। मंटो की रचनाओं के पढ़ने के बाद यह कहना कि वह प्रकृत यथार्थ का चित्रण करते हैं, सही नहीं होगा। वैसे, मंटो पर फ्रांसीसी प्रकृत यथार्थवादियों का प्रभाव है। पर मंटो में गहरी राजनीतिक अंतर्दृष्टि भी है। उनकी कई कहानियों में राष्ट्रीय आंदोलन के ऐसे जीवंत चित्रण हैं, जो आंदोलन की प्रकृति को निर्धारित करते हैं। मंटो की कई कहानियां विभाजन की त्रासदी पर हैं और उनमें स्पष्ट पॉलिटिकल टोन है। इस दृष्टि से मंटो अपने समय से काफी आगे नज़र आते हैं। 
मंटो के समग्र साहित्य का संकलन करने और उनकी कई गुमशुदा रचनाओं को ढूंढ निकालने वाले ने ‘सआदत हसन मंटो, दस्तावेज़-1’ में लिखा है, “इस सृष्टि में अंधेरे और उजाले की लड़ाई कितने युगों से जारी है। मंटो ने इस लड़ाई का दृश्य उन आदमियों के कुरुक्षेत्र में भी देखा जो अंधेरों के वासी थे। हमारे परंपराबद्ध और नैतिक मूल्यों के टिमटिमाते दीये, जिन्होंने अंधे क़ानूनों को जन्म दिया था, उस अंधेरी दुनिया तक उन दीयों की रोशनी पहुंचने में असमर्थ थी। शायद इसीलिए मंटो उर्दू भाषा का सबसे ज़्यादा बदनाम साहित्यकार है, जिसे सबसे ज़्यादा ग़लत समझा गया। क़ानून अंधे थे, मगर वे आंखें जिनसे फ़िरंगी हुकूमत या ख़ुदा की बस्ती के तथाकथित बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नैतिक उत्तरदायित्व की झूठी और पाखंडपूर्ण धारणा का झंडा ऊंचा करने वाले कथा साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों के चेहरे सजे हुए थे, क्या वे आंखें भी अंधी थीं? और वे साहित्य समालोचक, नैतिकता के वे प्रचारक जिन्होंने साहित्य को अपने विद्वेषों के प्रकाशन का एक आसानी से उपलब्ध माध्यम समझ रखा था, और जो लकड़ी की तलवारों से मंटो का सर क़लम करने की धुन में मगन रहे, आखिर वे क्या देख रहे थे? यह सवाल हमारा नहीं, और न ही नवयुग के सांस्कृतिक मूल्यों का है। यह सवाल मंटो की प्रताड़ित कहानियों, उन कहानियों के चरित्रों -‘काली शलवार’ की सुलताना और ख़ुदाबख्श और शंकर और मुख़्तार, ‘धुआं’ के मसऊद और कुलसूम, ‘बू’ के रणधीर और बेनाम घाटन लड़की, ‘ठंडा गोश्त’ के ईशर सिंह और कुलवंत कौर, ‘खोल दो’ की सकीना और सिराजुद्दीन और ‘ऊपर, नीचे और दरम्यान’ के मियां साहिब, बेगम साहिबा, मिस सिलढाना, डाक्टर जलाल, नौकर और नौकरानी – इन सबका है। और इस सवाल का रुख उन अदालतों या इंसाफ़ की कुर्सी पर बैठे हुए उन इंसानों की तरफ़ नहीं, जिन्होंने मंटो को मुजरिमों के कटघरे मे खड़ा किया, बल्कि उन सामाजिक विद्वेषों की तरफ़ है जो सच के अस्तित्व से इनकार करने के आदी थे। यह सच मंटो की अपनी कल्पना की उपज न था। यह सच हमारे सामाजिक ढांचे की देन था। मंटो ने सिर्फ़ यह किया कि इस सच पर चढ़े हुए गिलाफ़ अपने क़लम की नोक से चाक कर दिए…”
इस ‘दस्तावेज़’ का पहला खंड समर्पित किया गया ‘मोपासां के नाम सौ बरस पहले जिसके बस जिस्म को मौत आई थी।’
मोपासां भी दुनिया के बदनाम लेखकों में शुमार हैं।
मंटो ने खुद और अपने अफ़सानों के बारे में लिखा है, “ज़माने के जिस दौर से इस वक्त हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाकिफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िए। अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि यह ज़माना नाक़ाबिले-बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराइयां हैं, वो इस अहद की बुराइयां हैं। मेरी तहरीर में कोई नुक्स नहीं। जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है-मैं हंगामापंसद नहीं। मैं लोगों के ख़्यालातो-जज़्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता। मैं तहजीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं…लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और ज़्यादा नुमायां हो जाए। यह मेरा खास अंदाज़, मेरा खास तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक्कीपसंदी और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है-लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमब़ख्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती…”
अब इससे ज़्यादा एक लेखक और साफ़-साफ़ कह भी क्या सकता है! सौ बरस से ज़्यादा बीत गए जब मंटो साहब इस दुनिया में तशरीफ़ लाए थे। मक़बूल इंसान थे, बहुत जल्द ही ख़ुदा के प्यारे हो गए। महज़ 42 की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। एक छोटी-सी ज़िंदगी…और इस दरम्यान अदीबों की महफ़िलों से लेकर अदालतों के कठघरे और पागलखाने तक में नमूदार हुए। ज़िंदगी भुगतनी पड़ती है मानो जेल हो, पर मंटो ने ज़िंदगी को भोगा, देखा तहों के भीतर तक जाकर और दिखाने की पुरज़ोर कोशिश भी की…वो कड़वी सच्चाइयां जिन्हें देखकर भी हम देखना नहीं चाहते, मुंह फेर लेते हैं, पर ज़िंदगी की कड़वाहट तो खत्म नहीं होती। अपने-अपने जलवागाह हैं। मंटो कहते हैं ज़रा बाहर तो आइए जलवागाहों से, देखिए हक़ीक़त। जहां वो रोशनी डालते हैं, आंखों में चुभती है, तो क्या बंद कर लें आंखें या आंखों को फोड़ लें या फिर क्या करें?
यह दुनिया रोज़ बनती है। जैसे रोटी। दुनिया बनती रहेगी, बदलती रहेगी। सियाही बढ़ेगी या कम होगी, कह पाना मुश्किल है। पर ज़िंदगी के लिए, एक मुकम्मल ज़िंदगी के लिए जंग शायद खत्म न हो, क्योंकि समय का पहिया थमता और रुकता नहीं। मंटो का साहित्य समय से मुठभेड़ के दौरान आयद हुआ। ‘समय से मुठभेड़’ के क्रम में ही शायर अदम गोंडवी ने अपनी एक ग़ज़ल मरहूम मंटो को नज़र की है ‘जिसके अफ़साने में ठंडे गोश्त की रूदाद है।’ 
मोबाइल नं. 9013510023

आलोचना के कब्रिस्तान से…:अरुण माहेश्वरी

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आलोचना के कब्रिस्तान से…

अरुण माहेश्वरी
सन् 1984 की बात है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म शताब्दी वर्ष था। कहा जा सकता है – आज की हिन्दी आलोचना के गोमुख का शताब्दी वर्ष। जनवादी लेखक संघ को बने अभी दो साल ही हुए थे। लेखकों में भारी उत्साह था। जलेस के जन्म में प्रेमचंद शताब्दी वर्ष की बड़ी भूमिका थी। ‘84 में शुक्ल शताब्दी वर्ष के पालन से जलेस हिंदी के अकादमिक जगत की मुख्यधारा में प्रवेश करना चाहता था। और बिल्कुल वैसा ही हुआ। जलेस ने शुक्ल शताब्दी वर्ष के पालन का बिगुल बजाया और देश भर के कालेज-विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों और हिंदी-सेवी सरकारी संस्थाओं का पूरा ताना-बाना जाग उठा। जलेस ने शुक्ल जी को अपनाया और विश्वविद्यालयों-अकादमियों में बैठे हिंदी के पेशेवरों ने जलेस को। देखते ही देखते प्रेमचंद शताब्दी वर्ष के जनवादी विमर्श से उत्पन्न संगठन को शुक्ल शताब्दी वर्ष ने साहित्य की परंपरा-पोषित मुख्यधारा से जोड़ दिया। 
आज जब हम हिन्दी आलोचना की स्थिति पर विचार करते हैं तब अनायास ही जलेस के इस अभूतपूर्व ‘विस्तार’ की कहानी का वह ‘स्वर्णिम’ अध्याय याद आ जाता है। और, इसके साथ ही कौंध उठती है शुक्ल शताब्दी वर्ष को केंद्र में रखकर जलेस के अंदर, हाशिये पर चल रही बहस की एक और अंतरकथा की यादें। इस कथा के केंद्रीय नायक थे इलाहाबाद के कथाकार, आलोचक नीलकांत। 
दर्शनशास्त्र की अकादमिक पृष्ठभूमि से आए सौन्दर्यशास्त्र के अध्येता नीलकांत मार्कण्डेय की ‘कथा’ पत्रिका के पृष्ठों पर कई धारदार टिप्पणियों से सबका ध्यान अपनी ओर पहले ही खींच चुके थे। जलेस की आचार्य रामचंद्र शुक्ल राष्ट्रीय परिसंवाद समिति की ओर से भी नीलकांत को भोपाल में होने वाले राष्ट्रीय परिसंवाद (7-8 सितंबर 1984) के लिये शुक्ल जी की विश्वदृष्टि पर लेख भेजने के लिये कहा गया। नीलकांत ने वह लेख लिख लिया, तभी उनसे कहा गया कि इस विषय पर कोई दूसरा लिख रहा है, इसलिये आप उनकी सौन्दर्यानुभूति पर आलेख तैयार करके भेज दें। नीलकांत ने इस विषय पर भी अपना लेख लिख कर जैसे ही परिसंवाद समिति के पास भेजा, समिति में एक प्रकार का हड़कंप सा मच गया। उनके लेख का शीर्षक था – मृत सौन्दर्य का मसीहा आचार्य रामचंद्र शुक्ल। शुक्ल जी की विश्वदृष्टि वाले लेख को नीलकांत ने नामवर सिंह की मांग पर ‘आलोचना’ के लिये भेज दिया, जिस पर नामवर जी ने टिप्पणी की थी – ‘‘लेख मिला आज ही। एक सांस में पढ़ गया। दृष्टि निर्मम, भाषा तल्ख, निर्णय सख्त, फिर भी संपूर्ण निबंध तर्कसंगत और प्रमाण पुष्ट। बहुत दिनों बाद ऐसा प्रौढ़ निबंध पढ़ने को मिला।’’
शुक्ल जी की सौन्दर्यानुभूति पर नीलकांत का लेख, ‘मृत सौन्दर्य का मसीहा’ विश्वदृष्टि वाले लेख की बुनियादी समझ पर टिका उतना ही ‘तल्ख, तर्कसंगत और प्रमाण पुष्ट निर्मम’ लेख था। लेकिन जलेस का जो आयोजन शुक्ल जी को पूरे भक्तिभाव के साथ दोनों हाथ खोल कर अपनाने के उद्देश्य से किया जा रहा था, जो सामंती रूढि़वाद से बुरी तरह से जकड़े हुए क्षेत्र में नवजागरण के कल्पनाप्रसूत भव्य महल के संस्थापक रामविलास शर्मा से संगति रखते हुए विश्वविद्यालयों के अध्यापकों, प्राचार्यों के मनों को जीतने के लिये किया जा रहा था, उसके आयोजकों को ऐसा ‘निंदापूर्ण’ लेख कैसे रास आ सकता था। हमें अच्छी तरह से याद है, नीलकांत ने उस लेख को आयोजन समिति के पास दिल्ली भेजा था, लेकिन वहां पहुंचने के साथ ही तत्काल उसकी गूंज-अनुगूंज गुजरात, वाराणसी, कोलकाता, भोपाल – सर्वत्र सुनाई देने लगी थी। ‘’शीर्षक प्रतिमा-भंजक, मुद्दआ नकारात्मक और जलेस के रंग में भंग डालने वाला’’। डा. शिवकुमार मिश्र, चंद्रबली सिंह, डा.चंद्रभूषण तिवारी, कुंवरपाल सिंह सबने भरसक कोशिश की कि इस ‘विध्वंसक’ लेख को राष्ट्रीय परिसंवाद में न पढ़ने दिया जाएं। मामला पार्टी के प्रभारी कामरेड बी.टी.रणदिवे की अदालत तक पहुंच गया। हम वहां मौजूद थे। हमें अच्छी तरह से याद है कि कामरेड बीटआर और सुरजीत ने भी सिर्फ मत-भिन्नता के आधार पर लेख को न पढ़ने देने के विचार का सख्त विरोध किया। और अंत में, वह लेख, जलेस के कई प्रमुख नेतृत्वकारी व्यक्तियों की आपत्ति के बावजूद भोपाल में पढ़ा गया। 
कुछ निजी कारणों से हम भोपाल के उस परिसंवाद में उपस्थित नहीं हो पाये थे। लेकिन हमें आज भी, परिसंवाद के बाद हुई मुलाकात में इस विषय पर डा.चंद्रभूषण तिवारी, चंद्रबली सिंह, डा.शिवकुमार मिश्र के तमतमाये हुए चेहरे और उनकी बौखलाहट याद है। नीलकांत इन सबकी नजरों में किसी दागी व्यक्ति से कम नहीं थे। तब से तीस साल बाद, आज भी जब हमें उस पूरी घटना की याद आती है, कहना न होगा, उससे आज की हिंदी आलोचना, खास तौर पर मार्क्सवादी आलोचना की दयनीय दशा पर से जैसे एक झटके में पर्दा उठ जाता है। एक वाक्य में कहे तो आज की हिंदी आलोचना शुक्ल जी द्वारा तैयार किये गये ‘छात्रोपयोगी नोट्स’ के आधार पर निर्मित हिंदी साहित्य के इतिहास का आगे और, कोरा इतिवृत्तात्मक विस्तार बन कर रह गयी है। 
अभी, हाल में कोलकाता की ‘वागर्थ’ पत्रिका के कई अंकों में हिंदी साहित्य के पचास सालों का उत्सव जिस प्रकार के सपाट और बेजान ब्यौरों के इतिवृत्तों के आधार पर मनाया गया है, इस कलावादी कर्मकांड, समग्रत: हिंदी आलोचना की ऐसी परिणति में डा. शर्मा, नामवर सिंह और पूरे प्रगतिवादी-जनवादी साहित्य आंदोलन का योगदान किसी से कम नहीं है। प्रगतिवादियों की ‘पहल’ और जलेस की पत्रिका ‘नया पथ’ क्रमश: मुर्दा सामग्रियों को चकदक पैकेजिंग में खपाने और व्यवसायिक प्रकाशकों के लिये एक बेचने लायक किताब बन जाने से अधिक कोई भूमिका अदा करती नहीं दिखाई देती है। संकट की इस घड़ी में भी किसी नये विमर्श को पैदा करने में इनकी जरा भी दिलचस्पी नहीं है। 
सारी दुनिया में मार्क्सवाद ने ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों को उनकी आत्मलीनता, प्राकृतिक विज्ञान की तरह की सीमाबद्धताओं से मुक्त करने में प्रमुख भूमिका अदा की है। सामान्यत:, सामाजिक आंदोलनों के दबावों से साहित्य अक्सर खुद की सीमाओं से मुक्त होकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ता रहा है। हमारे यहां भक्ति काल का साहित्य रीतिकालीन आत्मलीनता से मुक्ति का इतिहास है, तो राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन ने कथा साहित्य को कोरी तिलस्मी और ऐय्यारों की किस्सागोई से मुक्त किया। छायावादी आत्मवाद ने प्रगतिवाद के लिये जगह छोड़ी। लेकिन खास तौर पर, मार्क्सवाद का स्पर्श दुनिया के पूरे साहित्य और वैचारिक विमर्श को स्थायी तौर पर उसकी आत्मलीनता से मुक्त कराने वाला स्पर्श साबित हुआ है। यह विचारों की दुनिया की एक कोपरनिकस क्रांति है। जो खगोलशास्त्र हजारों सालों से पृथ्वी-केन्द्रित धुरी पर चक्कर काट रहा था, एक कोपरनिकस की सौर-प्रणाली की खोज ने उसे उससे सदा के लिये मुक्त कर दिया। उसी प्रकार, चेतना के माध्यम से प्रतिबिंबित यथार्थ से बनने वाले विचारधारा के सभी क्षेत्रों के अध्ययन को मार्क्स ने सदा के लिये बदल डाला। माल में मूल्य के प्रवेश से जैसे उसका ठोस अस्तित्व लुप्त हो जाता है, वैसे ही यथार्थ के साहित्यिक पाठों में रूपांतरण से सामाजिक यथार्थ असंख्य विखंडित चित्रों में बदल जाता है। माल की आधिभौतिक सत्ता के ब्रह्मांड की तरह ही साहित्य और विचारधारा की दुनिया सामाजिक यथार्थ की असंख्य विरूपित सत्ताओं का एक ब्रह्मांड बन जाती है। साहित्य और कला जगत के अपने स्वतंत्र नियमों का भ्रामक संसार भी तैयार होता है। मार्क्सवादी आलोचना की भूमिका यह रही कि उसने इस विखंडित, विरूपित, चेतना से प्रतिबिंबित यथार्थ को मूल सामाजिक संरचना के आधार पर समग्रत:, परस्पर गुंथे हुए रूप में परखने के औजार दिये, यह मानते हुए कि जो दिखाई देता है, वही सच नहीं होता। मार्क्स कहते थे कि जो दिखाई देता है वही सच हो तो विज्ञान उथला हो जायेगा। उसी प्रकार, दिखाई दे रहे पाठ को ही स्वायत्त सच मान कर बढ़ा जाए तो आलोचना भी उथली हो जायेगी, संधान और सृजन की संभावनाओं का अंत हो जायेगा। यही वजह रही कि ‘कला कला के लिये’ की तरह की सारी सैद्धांतिक शेखियां सामाजिक अंतर्विरोधों की गतिशीलता से बल पाते मार्क्सवादी यथार्थवादी साहित्य विमर्श की तेज आंच के सामने कभी टिक नहीं पायीं। 
चिकित्सा विज्ञान में आत्मलीनता (autism) एक बीमारी है, मंद बुद्धि माने जाने वाले लोगों की बीमारी। यह बीमारी जीवन के सभी अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े लोगों में समान रूप से पाई जाती है। यह कमजोर आदमी का एक रक्षा कवच भी होती है, सीप में बंद दीन-हीन घोंघा बसंत। मार्क्सवाद ने साहित्य विमर्श को उसकी आत्मलीनता से मुक्त किया, जीवनोन्मुख बनाने की भूमिका अदा की। लेकिन, इसी के समानांतर, मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन से ही जुड़ा इतिहास का एक दूसरा चिंताजनक पहलू भी रहा है, जो पुन: जीवनोन्मुखता के बजाय साहित्य पर खास प्रकार की दलीय प्रतिबद्धता का दबाव पैदा करता है। लेनिन ने जब बोल्शेविक क्रांति के संदर्भ में पार्टी की सेवा करना साहित्यकारों का कत्‍​र्तव्य बताया, वही से सामाजिक क्रांति का अर्थ सीमित होते हुए बोल्शेविक पार्टी में और पार्टी के नेतृत्व और नेता में सिमट जाने की एक उल्टी यात्रा शुरू होगयी। यह पैगंबर की करुणा के गिरिजाघरों, मस्जिदों, मठों में पतित होने वाली प्रक्रिया है। मार्क्स-एंगेल्स की साहित्य संबंधी सारी बातें पृष्ठभूमि में चली गयी। एक दूसरे प्रकार की आत्मलीनता में साहित्य को डुबो देने का उपक्रम शुरू हुआ। ‘साहित्य का उद्देश्य जितना छिपा रहे इसी में साहित्य की भलाई है’ की तरह की मार्क्सवादी सीखें आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद की पूरी बहस से गायब हो गयी। लुकाच और ब्रेश्त के बीच, ब्रेश्त और बेंजामिन के बीच, अल्थूसर और लासान के बीच विचारों की जो तनातनी दिखाई देती है, उसके मूल में मार्क्सवाद के नाम पर तात्कालिक राजनीति की सेवा की इसी कुत्सित समझ की बड़ी भूमिका थी। पश्चिमी यूरोप में ग्राम्शी से लेकर लुकाच, बेंजामिन, ब्रेश्त, अल्थूसर, थामसन, कॉडवेल, अन्‍​र्सट फिशर और सार्त्र, हर्बर्ट मार्कूज, दरीदा, जेमिसन तथा एरिक हाब्सवाम और अभी के स्लावोय जिजेक और अम्बर्तो इको तक के लेखन में मार्क्सवाद से उनकी संबद्धता और कम्युनिस्ट आंदोलन के इस पहलू के दबाव की छाप को साफ तौर पर देखा जा सकता है। 
हिंदी में भी, डा. शर्मा और नामवर सिंह के लेखन का कुछ-कुछ इसी आधार स्पष्ट काल-विभाजन किया जा सकता है। जब तक वे साहित्य में कलावादियों की आत्मलीनता से लोहा ले रहे थे, उनके लेखन में एक खास प्रकार की धार थी। फिर एक दौर सीधे पार्टी की सेवा का आया। डा. शर्मा की ‘प्रगतिवाद की समस्याएं’ के लेखों को देखिये। लेकिन डा. शर्मा और नामवर सिंह पर से जैसे ही उस दौर का भूत उतरा, वे नये सामाजिक यथार्थ के साथ जुड़ कर साहित्य में स्वतंत्रता और जनतंत्र के मूल्यों के आधार पर मार्क्सवादी आलोचना को एक नये उत्कर्ष की दिशा में लेजाने के बजाय आचार्य शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की अतीतोन्मुखी इतिवृत्तात्मकता की शरण में चले गये। नामवर जी अपने ‘इतिहास और आलोचना’ के लेखन के उल्लेख से भी बचने लगे। लेखनी की पुरानी धार भी भोथरी होगयी और हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना स्वतंत्रतापूर्व की कल्पित हिंदी नवजागरण की बहस में उलझ कर रह गयी। आलोचना तालाब के ठहरे हुए बंद पानी की काई का इतिवृत्त बन गयी। धीरे-धीरे, वैचारिक सह-अस्तित्व का आलम यह होगया कि अभी अज्ञेय जन्म शताब्दी पर इसी लेखक ने टिप्पणी की – ‘नामवर का लोप ही अज्ञेय का लोप है’। 
‘‘ अज्ञेय जी का शताब्दी वर्ष पूरा होगया। हिंदी जगत में उनके लिये श्रद्धा-सुमनों की कोई कमी नहीं रही। अलग-अलग शहरों में कई आयोजन हुए। अखबारों, पत्रिकाओं में कुछ छोटी-मोटी टिप्पणियां आयीं। उनके निकट के मित्रों, संबंधियों ने एक-दो किताबें भी निकाली। कुछ स्वघोषित ‘सांस्कृतिक दूतों’ के शहर-शहर फेरे लगे। लेकिन गौर करने की बात यह है कि कुल मिला कर यह पूरा वर्ष बिना किसी वैचारिक उत्तेजना और सामाजिक-सांस्कृतिक व्यग्रता के एक स्निग्ध और शान्त, तनाव-रहित वातावरण में बीत गया। …हाल के वर्षों तक हिन्दी में सबसे विवादास्पद समझे जाने वाले अज्ञेय की शताब्दी कोई मामूली वैचारिक आलोड़न भी पैदा नहीं कर पाये, यह स्थिति किस बात का संकेत है? क्या यह अज्ञेय पर या आज के समय पर या दोनों पर ही कोई विशेष टिप्पणी है?
‘‘…कुल मिला कर इस पूरे साल ‘अज्ञेयपंथ’ और ‘नामवरपंथ’ की खूब छनी। सब कुछ भले-भले निपट गया। इस ‘भले-भले’ ने ही आज हमारे लिये यह प्रश्न छोड़ दिया है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? किसी जमाने में हिंदी में प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के बरक्स अज्ञेय का प्रयोगवाद (परिमल) विचारधारा के एक दूसरे धुर का मंच हुआ करता था। …इसीलिये स्वाभाविक तौर पर हिंदी में उस काल की सारी साहित्यिक-वैचारिक बहसों के केंद्र में अज्ञेय हुआ करते थे। लेकिन आज वह सारा विवाद कहां रफ्फू-चक्कर होगया? यही एक प्रश्न किसी को भी आज की साहित्यिक दुनिया के सच पर गहराई से नजर डालने के लिये प्रेरित कर सकता है। 
‘‘… प्रेमचंद शताब्दी के दौरान प्रेमचंद को केंद्र में रख कर चंद्रबली सिंह ने ‘आलोचनात्मक’ और ‘समाजवादी’ यथार्थवाद के साथ ही यथार्थ की एक और, तीसरी श्रेणी ‘जनवादी क्रांतिकारी यथार्थवाद’ की अवधारणा रखी। प्रगतिशील लेखक संघ वस्तुत: बिखर गया लेकिन हिंदी-उर्दू के लेखकों के एक नये संगठन, जनवादी लेखक संघ (1982) का उदय हुआ। जनतंत्र का सवाल केंद्रीय सवाल बना और भारत की जनता की जनतंत्र की लड़ाई के मोर्चे की जो इंद्रधनुषी तस्वीर पेश की गयी उसमें डा. रामविलास शर्मा से लेकर अज्ञेय तक, सबके लिये समान स्थान का आश्वासन था। …आंतरिक आपातकाल के पहले और बाद के इस दौर में अज्ञेय जीवित ही नहीं, खासे सक्रिय थे। … वह पूरा दौर भारत में जनतंत्र की रक्षा के लिये सबसे तीव्र संघर्ष का दौर था और जयप्रकाश के साथ जुड़ कर अपने अखबारों के जरिये अज्ञेय ने उस पूरी लड़ाई में अपनी एक भूमिका अदा की थी। फिर भी आज तक कोई यह प्रश्न क्यों नहीं उठाता है कि जनवादी लेखक संघ के वैचारिक परिप्रेक्ष्य के इंद्रधनुषी दायरे में अज्ञेय को उनके जीवित काल में कभी क्यों नहीं शामिल किया जा सका? 
‘‘इस एक सवाल के जवाब से जहां प्रलेस-जलेस की विचारधारात्मक प्रतिश्रुतियों और निष्ठाओं की सचाई की परख हो सकती है, वहीं अज्ञेय की भी ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ की वास्तविकता को समझा जा सकता है। कहना न होगा कि आज जहां जलेस-प्रलेस प्रकार के संगठन पार्टी की जकड़नों से बेदम होकर अस्तित्वीय संकट के गह्वर में हांफ रहे हैं, और लेखक क्रमश: जयपुर उत्सव की तरह की साहित्य-मंडियों में अपनी कीमत लगवाने को व्याकुल हो रहे हैं, वहीं अज्ञेय की ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ का भी आज कोई दो-कौड़ी का दाम लगाने के लिये तैयार नहीं है। अज्ञेय शताब्दी वर्ष के आयोजनों की रपटों से तो कम से कम यही जाहिर होता है। 
‘‘सचमुच यह एक अनोखी विडंबना है। नामवर का लोप ही अज्ञेय का भी लोप है। ऐसे ही ‘विचारधारा का अंत’ विचार मात्र के अंत का भी सबब बनता है।’’ 
इस टिप्पणी में भी जलेस का प्रसंग आया था। जलेस के निर्माण के समय सन् ‘80 के नये जनवादी उभार के साथ मार्क्सवादी आलोचना ने अपने समय के सामाजिक मुद्दों से जुड़ कर एक नयी धार अर्जित की थी। लेकिन, यह बहुत ही थोड़े से समय की चमक भर साबित हुई। इससे पश्चिम की तरह जनतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों के आधार पर यहां मार्क्सवादी आलोचना के एक दीर्घस्थायी लगातार विकासमान वैचारिक विमर्श की शुरूआत नहीं हो पायी। इसके जन्म के साथ ही इसकी सीमाएं जाहिर होने लगी थी, जैसा कि इस लेख के शुरू में ही हमने रामचंद्र शुक्ल जन्म शताब्दी पर राष्ट्रीय परिसंवाद की घटना के विषय में बताया है। संगठन का विस्तार प्रमुख लक्ष्य होगया, बदलते हुए यथार्थ के बरक्श आलोचना के औजारों का विकास नहीं। जितनी तेजी के साथ इस नये जनवादी उभार ने प्रेमचंद और मुक्तिबोध के जरिये एक वैचारिक नवोन्मेष की चमक दिखाई थी, उतनी ही तेजी से उसकी चमक बुझती हुई भी नजर आने लगी। 
चन्द्रबली सिंह ने नीलकांत को लिखा था – ‘‘ मैं समझता हूं, शुक्ल जी में कुछ ऐसे तत्व हैं जो हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं – पूरी तरह से निषेधात्मक रुख गलत है।’’ और इसप्रकार, मार्क्सवाद के नाम पर संतुलन बनाने अर्थात वैचारिक समझौता करके चलने का एक नया रास्ता खोज लिया गया – सब कुछ संगठन के हित के नाम पर। न रामविलास शर्मा, नामवर सिंह ने शुक्ल जी और द्विवेदी जी की रहस्यवाद में लिपटी भाववादी साहित्य दृष्टि को पूरी तरह से ठुकराते हुए एक नये मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की दिशा में कोई साहसपूर्ण कदम बढ़ाया, जैसा हमें हेगेल के प्रति मार्क्स की दृष्टि में, टालस्टाय के विचारों के प्रति लेनिन के नजरिये में और क्रोचे के विचारों के साथ ग्राम्शी के संघर्ष में दिखाई देती है। और, न ही ऐसी किसी टकराहट का कोई परिचय दिया परवर्ती जनवादी आंदोलन के उभार से जुड़े आलोचकों ने। नीलकांत जैसों ने जिस भिन्न धारा की ओर बढ़ने की कोशिश की, उसे शुरू में ही दबा डालने की भरसक कोशिश की गयी। मार्क्स ने हेगल से मुक्ति पाई उसके दर्शन को पूरी तरह से जानकर। हमारे यहां इस जानने की प्रक्रिया में पुराने रहस्यवाद के बंधन से मुक्ति की नहीं, बल्कि उसे अपना कर समाज में ‘परमहंस’ का सम्मान अर्जित करने की लालसा प्रमुख रही। हिंदी आलोचना हिंदी विभागों में बैठे अध्यापकों की सार-संग्रहवादिता की दासी बन कर रह गयी। 
हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना पाठ के प्रत्यक्ष को ही सच मान लेने के उथलेपन की शिकार हुई है। आचार्य शुक्ल ने कहीं ‘रहस्यवाद’ पद का तिरस्कार के साथ उल्लेख कर दिया और इतने भर से उन्हें प्रगतिशील आलोचना का गोमुख मान लिया गया। उनके सनातनपंथी, वर्णवादी पूर्वाग्रहों को देखने से इंकार कर दिया गया। शुक्लजी ने रहस्यवाद का विरोध सिर्फ कबीर के प्रति अपनी वर्णवादी नफरत को व्यक्त करने के लिये किया था, इस नग्न सचाई से भी आंखें मूंद ली गयी। 
‘‘यत्क्रतुर्मवति तत् कर्म कुरुते’’। जिसके प्रति मन में मोह होगा, वह वैसा ही कर्म करेगा। मार्क्सवाद पदार्थ की गतिशीलता का विज्ञान है। परंपरा से उसका संबंध समाज की गति को चिन्हित करने के लिये है, न कि उसे ढोने के लिये। लेनिन ने ‘प्रोलेतकुल्त’ के विध्वंसक रुख के प्रत्युत्तर में कहा था कि मानव इतिहास में जो भी श्रेष्ठ तत्व रहे हैं, हमें उन्हें सहेजना होगा। इस ‘सहेजने’ का अर्थ यह नहीं है कि हम अजायबघर को अपना घर बना लें। मार्क्स को देखिये, वे कैसे अपनी कृति ‘जर्मन विचारधारा’ में हेगेलीय दर्शन के विघटन का जश्न मनाते हैं। ‘‘अभूतपूर्व तीव्र गति से सिद्धांत एक दूसरे को धकेल कर उनका स्थान लेते रहे, मस्तिष्कों के सूरमा एक दूसरे को उलटते चले गये और 1842-45 के बीच के तीन वर्षों में जर्मनी से अतीत का जितना सफाया हुआ उतना पहली तीन शताब्दियों के दौरान नहीं हुआ था।…यकीनन यह एक दिलचस्प घटना है – यह है परमचित्त के विघटन की प्रक्रिया।’’ जैसा कि पहले ही कहा गया है, मार्क्सवाद विचारधारा की दुनिया में कोपरनिकस क्रांति है। 
जलेस से जुड़े आलोचकों ने इतिवृत्तात्मक लेखन की सबसे बुरी प्रवृत्ति, नाम-गिनाऊ आलोचना के चरम उदाहरण पेश कियें। इस संदर्भ में दृष्टव्य है उस दौर का डा. रमेश कुंतल मेघ का लेखन, जिसके नक्शे-कदम पर आज भी ‘वागर्थ’ जैसी पत्रिकाएं और नन्द किशोर नवल जैसे आलोचक पूरे उत्साह से जुटे हुए हैं। आलोचना की यह ‘सर्वजनहिताय’ वाली बीमारी अब आनुवंशिक रोग का रूप ले चुकी दिखाई देती है। शुक्ल जी और द्विवेदी जी के प्रति श्रद्धा-भक्ति ने न सिर्फ अतीत के साथ बल्कि वर्तमान के साथ भी आलोचना में किसी प्रकार के आलोचनात्मक विवेक के रिश्तों को पनपने नहीं दिया। ‘आलोचना’, ‘वागर्थ’, ‘तद्भव’, ‘वर्तमान साहित्य’ और ‘नया पथ’ जैसी तमाम पत्रिकाएं भले वे मार्क्सवादियों द्वारा निकाली जा रही हो या गैर-मार्क्सवादियों बल्कि मार्क्सवाद-विरोधियों द्वारा, सबमें आलोचना के नाम पर शुक्ल जी की गद्य-पद्य की व्याख्या वाले छात्रोपयोगी अध्यापकीय नोट्स की परंपरा बदस्तूर जारी है। इस मामले में इनके बीच रत्ती भर फर्क करना भी नामुमकिन है। 
मार्क्सवादियों की सारी जमातें अपनी पार्टी प्रतिबद्धताओं के प्रति इतनी निष्ठावान है कि भारत में वामपंथ के उदय और अस्त की इतनी प्रकट और विस्फोटक परिघटना से भी इनके कान पर जंू तक नहीं रेंगती। गैर-मार्क्सवादियों के लिये तो वैसे ही साहित्येतर सामाजिक-राजनीतिक प्रपंच सदा के लिये वर्जित है। इसका कुल जमा परिणाम यह है कि इस चक्कर में साहित्य से तात्पर्य और उसकी उत्कृष्टता के विषय भी आज हिंदी आलोचना के दायरे के बाहर जा चुके हैं। कोलकाता से ही हिंदी में भारतीय विद्याभवन की एक पत्रिका निकलती है – ‘वैचारिकी’ । पुरातत्व से लेकर रस सिद्धांत और अलंकारशास्त्र जैसे अर्वाचीन विषयों पर अध्यापकों के आधे-अधूरे नोट्स से भरी पत्रिका। इसे देख कर ऐसे पुरानेपन की अनुभूति होती है जैसे कोई ‘पुरातत्व’ साक्षात उपस्थित हो। कहना न होगा, यही है अभी की हिंदी की तमाम पत्रिकाओं का तात्विक सच। 
यह सचमुच इतिहास का परिहास ही है। अनेक बार ऐसे अवसर आते हैं जब राजा होता है, दरबारियों, मनसबदारों का राजकीय तामजाम भी बरकरार रहता है, लेकिन यथार्थ में ऐसे नाटकीय परिवर्तन होते हैं कि वह सारा लाव-लस्कर और साज-सज्जा रातो-रात प्राणहीन पुतलों के कल्पनालोक में बदल जाते हैं। भारत में रियासती राज्यों के भारत में विलय की घोषणा के ठीक बाद प्रत्येक रियासती राजाओं के राजदरबारों का यही दृश्य था। इसीप्रकार, जीवन की सचाई से कट कर जब विचारधाराएं निहायत अप्रासंगिक विषयों में रमी रहती है, लेकिन भान ऐसा करती है जैसे वही एक ऐसी अन्तरदृष्टि प्रदान कर रही है जिसपर मानवता का भविष्य निर्भर करता है, तो उनका पूरा स्वरूप इतिहास के विद्रूप का रूप ले लेता है। वे कोरी छायाओं का रंगमंच बन जाती हैं, जीवन की नपूंसक नकल का रंगमंच। साहित्य के प्रति पूजा भाव वाले ‘वागर्थ’ छाप लेखन का रंगमंच तैयार होता है और उसके अभिनेताओं के तौर पर गर्व के साथ ‘कलावादी’ होने के अनेक पुरस्कारों का तमगा लगाये असीम संधानी, शब्द-ब्रह्म के नाद में बावले रमेश चंद्र शाह जैसे आलोचक पैदा होते हैं। ध्यान से देखें तो नंदकिशोर नवल और रमेश चंद्र शाह में कोई फर्क नहीं दिखाई देगा, सिवाय इसके कि एक ‘प्रगतिशीलता’ का तमगा लगाये हुए हैं तो दूसरा ‘कलावाद’ का। प्रत्यक्ष को ही सच मान लेने की भौंडी कला दृष्टि दोनों में समान रूप से काम कर रही है। 
नामवर जी ने ‘कविता के नये प्रतिमान’ के प्रारंभ में ही अभिनव भारती को उद्धृत किया था :
‘‘श्रांति का अनुभव न करने वाली विवेचकों की बुद्धि ऊपर-ऊपर चढ़ते हुए अंत में जिस अर्थ-तत्व को देखती है उस तक पहुंचने वाली परिकल्पित विवेक के प्रारम्भिक सोपानों की परंपरा का क्या महत्व?
‘‘मानता हूं प्रमेय की सिद्धि का प्रथम प्रयास विचित्र और निराधार ही होता है; किंतु उस मार्ग में अग्रसर होने पर उसके ऊपर सेतुओ, नगरों आदि का निर्माण भी विस्मयकारी नहीं रह जाता। 
‘‘इसीलिये यहां प्राचीन आचार्यों के मतों का खंडन नहीं, बल्कि संशोधन किया गया है। पूर्व-प्रतिष्ठापित सिद्धांतों की योजना में भी मूल की प्रतिष्ठा का फल मिलता है।’’
क्या है यह आलोचना के पूर्वाधारों के रूप में प्राचीन आचार्यों के मतों में संशोधन का विधान? यही तो हैं सजीव मनुष्य और जीवन के यथार्थ को छोड़ कर शास्त्रों से शास्त्र की रचना का विधान, टीकाओं और भाष्यों का विधान।
मार्क्स जब अपने दर्शनशास्त्र की रचना करते हैं तो वे पारंपरिक जर्मन दर्शन के बिल्कुल विपरीत रास्ता अपनाते हैं। ‘स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने वाले जर्मन दर्शन के विपरीत पृथ्वी से स्वर्ग पर आरोहण का मार्ग पकड़ते हैं। वे किसी पूर्व प्रतिष्ठित सिद्धांत या कल्पना या अनुमान को आधार बनाने के बजाय अपना प्रस्थान-बिंदु बनाते हैं वास्तविक सक्रिय लोगों को, उनकी वास्तविक जीवन-प्रक्रिया को और इनके आधार पर उसकी वैचारिक प्रक्रियाओं और प्रतिध्वनियों को सामने लाते हैं। 
मार्क्स के शब्दों में, ‘‘ आदमी के दिमाग में बनने वाले काल्पनिक बिंब भी अनिवार्यत: उस भौतिक जीवन प्रक्रिया के संस्करण है, जिन्हें अनुभव द्वारा परखा जा सकता है और जो भौतिक पूर्वाधारों से संबद्ध है। नैतिकता, धर्म, तत्व मीमांसा, विचारधारा तथा चेतना के तदनुरूपी बाकी सभी रूप अब स्वतंत्रता का नकाब ओढ़े नहीं रह सकते। उनका कोई इतिहास, कोई विकास नहीं है; परंतु मनुष्य अपने भौतिक उत्पादन तथा अपने भौतिक संसर्ग के विकास से अपने इस वास्तविक अस्तित्व को और साथ ही अपने चिंतन और चिंतन के परिणामों को भी बदलता है। जीवन चेतना द्वारा निर्धारित नहीं होता बल्कि चेतना जीवन द्वारा निर्धारित होती है। निरीक्षण की पहली विधि के प्रस्थान बिंदु में चेतना को सजीव व्यक्ति मान कर चला जाता है; दूसरी विधि में स्वयं वास्तविक सजीव मनुष्य, जो वास्तविक जीवन के अनुरूप है, वही प्रस्थान बिंदु है तथा चेतना को पूरी तरह से उसकी चेतना मात्र माना जाता है। 
‘‘निरीक्षण की यह विधि पूर्वाधारों से वंचित नहीं है। वह वास्तविक पूर्वाधारों को प्रस्थान बिंदु बनाती है तथा उन्हें एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ती।’’
हिंदी के एक सबसे बड़े मार्क्सवादी आलोचक के पूर्वाधार और सोच की दिशा और मार्क्स की दिशा विपरीत है। मार्क्स अपने निरीक्षण में जीवन के वास्तविक पूर्वाधारों को प्रस्थान बिंदु ही नहीं बनाते, उसे एक क्षण के लिये भी छोड़ने को तैयार नहीं है। और नामवर जी का प्रस्थान बिंदु सिर्फ और सिर्फ विवेचकों का ‘परिकल्पित विवेक’ है और उनकी यात्रा का गंतव्य भी इसी विवेक में किंचित संशोधन भर है। कविता के नये प्रतिमानों की तलाश में तेजी से बदल रहे जीवन की ठोस परिस्थितियों और उसमें साहित्य की भूमिका कोई विचार का बिंदु हो सकता है, इसका कहीं से कोई संकेत नहीं मिलता। 
फिर नामवर जी का अशोक वाजपेयी से किस बात पर मतांतर है। अपने लेखन में उनका अद्यीत व्यक्तित्व शुद्ध रूप से साहित्य के स्वायत्त संसार का नागरिक ही होता है। उनकी सर्वसमावेशी दृष्टि में कविता के नये प्रतिमान विचारों की टकराहट से नहीं, ‘नये मूल्यों की खोज और प्रतिष्ठा के सहभागी प्रयास’ से हासिल होंगे। उनके अनुसार ‘मूल्य एक कमाया हुआ सत्य है’, अर्थात सबका समान सत्य! शास्त्रों की पैरवी में लिखते हैं – ‘‘कविता को सीधे अनुभव करने में हर पाठक स्वतंत्र और समर्थ होता तो काव्यानुशासन की जरूरत न पड़ती। …जो अपने को सामान्य पाठक कहता है वह भी काव्यानुभव में अनजाने ही किसी न किसी काव्य-सिद्धांत से अनुशासित होता है।’’ 
इसप्रकार, जाहिर है कि कविता के नये प्रतिमान में उन्होंने जिस नये शास्त्र की रचना की है, उसके दायरे से शुरू में ही कविता को सीधे अनुभव करने वाले जन-साधारण को, मजदूरों और किसानों को निकाल कर अलग कर दिया गया है। 
पाब्लो नेरुदा के ‘ममायर्स’ में एक अध्याय है – ‘कविता एक पेशा है’। उस अध्याय के शुरू के अंश को ही यहां थोड़ा विस्तार से उद्धृत करना उचित होगा। इस अध्याय की शुरूआत वे इसप्रकार करते हैं : ‘‘युद्धों, क्रांतियों और जबर्दस्त उथल-पुथल के चलते हमारे समय की विशेषता यह रही है कि जितनी किसी ने कल्पना नहीं की होगी, उससे कहीं ज्यादा कविता के लिए जमीन तैयार हुई है।’’ 
इसमें आगे वे सांतियागो के चिले के सबसे बड़े बाजार के कुलियों के बीच कविता सुनाने के अपने अनुभव का बयान करते हैं। वे लिखते है – ‘‘ जब मैं उस हॉल में घुसा तो मेरे अन्दर जोसे असुनसियन सिल्वा की कविता ‘निशाचर’ की तरह की एक सिहरन दौड़ गई, सिर्फ इसलिए नहीं कि वहां इतनी ठंड थी, बल्कि इसलिये क्योंकि वहां के परिवेश से मैं सन्न था। लगभग पचास लोग वहां टोकरों पर अथवा कामचलाऊ बेंचों पर बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ ने अपनी कमर पर ऐप्रोन की तरह बोरा बांध रखा था, अन्य पैबंद लगी गंजियां पहने हुए थे, और बाकी लोग बिल्कुल नंगे बदन चिले की जुलाई की ठंड की मार झेल रहे थे। मैं एक छोटी सी मेज के पीछे बैठ गया जो मुझे उन असामान्य श्रोताओं से अलगा रही थी। वे सभी मुझ पर, मेरे देश के लोगों की कोयले की तरह की काली आंखों को गाड़े हुए थे। 
…मैं कैसे ऐसे श्रोताओं से निपटूं ? क्या बात करूं? मेरी जिंदगी की ऐसी कौन सी चीज है, जिसमें उनकी दिलचस्पी होगी? मैं तय नहीं कर पाया, लेकिन वहां से भाग खड़े होने की अपनी इच्छा को छिपाते हुए मैंने उनसे कहा : ‘मैं कुछ दिनों पहले स्पेन में था। वहां काफी लड़ाई और गोलाबारी चल रही है। सुनिये, उसके बारे में मैंने क्या लिखा है।
‘‘खुद मुझे मेरी किताब ‘स्पेन मेरे हृदय में’ कभी कोई सरल किताब नहीं लगी। उसमें स्पष्ट होने की कोशिश है, लेकिन वह दुर्दमनीय और वेदनादायी घटनाओं के तूफान में डूबी हुई है। 
‘‘बहरहाल, मैंने सोचा कि मैं चंद कविताएं सुनाऊंगा, कुछ बातें कहूंगा और अलविदा कहके चल दूंगा। लेकिन वैसा हुआ नहीं। एक के बाद एक कविता को पढ़ते हुए, मौन के गहरे कुएं को सुनते हुए जिसमें मेरे शब्द गिर रहे थे, मेरी कविताओं को इतनी गंभीरता से पकड़ती उन आंखों और गहरी भवों को निहारते हुए मुझे लगा कि मेरी किताब सही निशाने पर लग रही है। अपनी खुद की कविता की ध्वनि से प्रभावित, उस चुंबकीय शक्ति से मुग्ध जो मेरी कविताओं और उन परित्यक्त आत्माओं को बांधे हुए थी, मैं एक के बाद एक कविता पढ़ता चला गया। 
‘‘घंटे भर तक यह पाठ चलता रहा। जब मैं जाने वाला था, उन लोगों में से एक खड़ा हुआ। वह उनमें से एक था जिसकी कमर में बोरा लपेटा हुआ था। उसने कहा, ‘‘मैं आपको हम सबकी ओर से धन्यवाद देना चाहता हूं। मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि आज तक किसी और चीज ने हमें इतना प्रभावित नहीं किया। 
‘‘उसने जब अपनी बात खत्म की, वह अपनी सुबकियां रोक नहीं पाया। और भी कईं रो रहे थे। मैं नम आंखों और खुरदरी हथेलियों के बीच से बाहर सड़क पर आया।’’
नेरुदा टिप्पणी करते हैं – ‘‘ आग और बर्फ की ऐसी परीक्षाओं से गुजरने के बाद भी क्या कोई कवि पहले जैसा ही रह सकता है।’’
कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि कविता की यह जमीन किसी काव्यानुशासन या काव्यशास्त्र से तैयार नहीं हुई थी। इसे तैयार किया था जीवन की ठोस सचाइयों ने, सजीव मनुष्यों की अनुभूतियों ने। कवि को बदलने वाली ‘आग और बर्फ’ की यह परीक्षा भी कोई काव्यशास्त्र का पारायण नहीं हैं। इसीलिये अचरज नहीं होता, आम पाठक और श्रोता को कविता के क्षेत्र के हाशिये पर ढकेल कर कविता को अभिजनों की चीज बनाने के लिये रचे गये ‘कविता के नये प्रतिमान’ वाले काव्यशास्त्र में नामवर जी बार-बार अपने लिये वर्णवादी शुक्ल जी की सेवा लेने से जरा भी परहेज नहीं करते। 
इसमें शक नहीं कि साहित्य कोई प्रयोजनमूलक वस्तु नहीं है। न यह किसी संधि का दस्तावेज है, न संपत्ति का रेकर्ड और न कानूनी कागजात या रेलवे की समय सारिणी। आदमी इसे मुख्यत: अपने आत्मिक जरूरतों के लिये रचता है और बिना किसी बाहरी मजबूरी के पढ़ता भी है। लेकिन किसी भी स्थिति में यह कोई क्रासवर्ड पजल, या सुकोडू भी नहीं है, कोरे मानसिक आरोग्य का साधन। जो अगोचर शक्तियां हमारे भौतिक संसार को घेरे रखती है, उसमें पाठों के ताने-बाने से बुने गये साहित्य के संसार का बड़ा स्थान है। यह हमारे सामूहिक भाषाई संस्कार का एक प्रमुख साधन है। भाषा यदि राजनीतिज्ञों के आदेशों का गुलाम नहीं तो आलोचकों के आदेशों की भी गुलाम नहीं होती। लाख कोशिशें भी डा.रघुवंश के तमाम गढ़े गये पदों को कोरा मजाक का विषय बनने से नहीं रोक पायी हैं। भाषा सबसे अधिक संवेदनशील होती है साहित्य के प्रति और साहित्य निर्मित होता है सजीव मनुष्य के जीवन के चित्रों और बिंबों से। जब जीवन नहीं, कृत्रिम भाषाई प्रयोगों से साहित्य रचा जाता है, उसकी वही दशा होती है, जैसी आज हिंदी के लगभग पूरे अध्यापक-वर्गीय लेखन की है – व्यापक समाज में अप्रासंगिक लेकिन अध्यापकीय मस्तिष्कों के लिये बूझों तो जाने की पहेलियां बुझाने वाला ‘मानसिक आरोग्य’ का साधन। असली हिंदी बनी हुई है टेलिविजन के लोकप्रिय बाजारू सीरियलों की भाषा में। 
बहरहाल, नामवर जी ने हाल में यह खुले आम स्वीकार कर अपने बड़प्पन का परिचय दिया है कि ‘कविता के नये प्रतिमान’ किसी पुरस्कार को लपक लेने के लिये जल्दबाजी में लिखी गयी किताब थी। लेकिन पुरस्कार पाने की हड़बड़ी में ही उन्होंने डा. शर्मा की डाली गयी लीक को कुछ ऐसा गाढ़ा कर दिया कि इस जगत के दूसरे सभी सात्विक सूरमाओं (पवित्र सीताओं) के लिये लक्ष्मण की लकीर बन गयी। 
सचमुच, यदि हम हिंदी आलोचना के इस मायाजगत की, जो कई ईमानदार साहित्य अध्येताओं तक में एक गौरव का भाव पैदा किये हुए हैं, कोई असली कीमत तय करना चाहे, यदि हम हिंदी आलोचना की तुच्छता को, उसकी अभिजनवादी संकीर्णता को और खास तौर पर इसकी सारी उपलब्धियों के बारे में इस जगत के सारे सूरमाओं के भ्रमों और उपलब्धियों के बीच के करुण वैषम्य को स्पष्ट रूप से सामने रखना चाहे तो हमें इस जगत से पूरी तरह मुक्त होकर इसका अवलोकन करना होगा। आज तक, इसके नवीनतम प्रयास ने भी शुक्ल जी का दामन नहीं छोड़ा है। शुक्ल जी के विचारों के आधार-बिंदुओं की जांच-परख करना तो दूर, इसकी कोशिशों का पूरा ढांचा उन्हीं की इतिवृत्तात्मक, छात्रोपयोगी पद्धति पर टिका हुआ है। इस मामले में मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी सभी एक ही गोत्र के दिखाई देते हैं। भले इनमें से हरेक अपने को शुक्ल जी से आगे बढ़ने का दावा क्यों न करें, इनके उत्तरों में ही नहीं, सवालों पर भी वही शुक्लवादी रहस्यवाद आच्छादित है जो ठोस आधुनिक जीवन की चुनौतियों से उन्हें कोसों दूर रखता है। शुक्ल-द्विवेदी द्वंद्व भी उसीका एक विस्तार है। यह शुक्ल जी की पद्धति के ही किसी एक पक्ष को चुन कर उसे उनकी पूरी पद्धति के खिलाफ, और दूसरे लोगों द्वारा चुने गये किसी दूसरे पहलू के खिलाफ लक्षित करके बूंदी के किले की फतह का झंडा बुलंद करते रहते हैं। चारो ओर कोरे अंधविश्वासों और जड़सूत्रों का बोलबाला है। इसमें अन्त में विद्यानिवास मिश्र-अशोक वाजपेयी- रमेश चंद्र शाह कंपनी ने शुक्ल जी को अधिक से अधिक पवित्र बनाने के उपक्रमों के बीच से उसे पूरी तरह से पवित्र घोषित कर देने और इसप्रकार आलोचना को ही सदा के लिये ठिकाने लगा देने का महान काम संपन्न किया है। 
तमाम अवांछित दबावों से मुक्ति के प्रयत्नों के बीच से मार्क्सवादी आलोचना ने पश्चिम में उदीयमान सामाजिक यथार्थ से संगति रखते हुए जनतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों के आधार पर विकास की नयी दिशा पकड़ी और उपलब्धियों के अनेक नये शिखरों को छुआ है। ग्रीस के वर्तमान वित्तमंत्री, बहुचर्चित अर्थशास्त्री यानिस वैरौफैकिस का हाल के अपने लेख “How I bacame an erratic Marxist” में मार्क्स के आर्थिक विमर्श के केंद्र में समानता और न्याय के बजाय स्वतंत्रता के विचार को रखना मार्क्सवादी वैचारिक विमर्श की इसी प्रक्रिया का अंग है। ऐसा ही है थॉमस पिकेटी का विचार। अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘21वीं सदी में पूंजी’ में वे यह कहने से नहीं चूकते कि मार्क्स ने निजी-पूंजी विहीन विश्व के सभी पक्षों पर सही ढंग से नहीं सोचा था, क्योंकि दुनिया में जो भी निजी पूंजी रहित समाज बने हैं, उन सब जगह राज्य की भूमिका बेहद दमनकारी दिखाई देती है और इसप्रकार, निजी पूंजी और नागरिक की स्वतंत्रता के संबंध के विषय को उन्होंने एक नया आयाम दिया है। 
हिंदी साहित्य जगत सजीव मनुष्य के जीवन से पैदा होने वाली चुनौतियों के बरक्स आलोचना के नये मानदंडों के विकास में ऐसी कोई नई उद्भावना के साथ सामने आने के बजाय अभी तो अध्यापकीय जकड़नों में फंसा हुआ आलोचना का एक ऐसा कब्रिस्तान है जिस पर सिर्फ मृतकों का बोलबाला और भूतों का डेरा है।

हिंदी के प्रवासी साहित्य की परम्परा: स्वर्णलता ठन्ना

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49204 L Indian Diaspora abroad

हिंदी के प्रवासी साहित्य की परम्परा 

स्वर्णलता ठन्ना 
शोध -अध्येता (हिंदी) 
हिन्दी अध्ययनशाला 
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन। 
पता- 84, गुलमोहर कॉलोनी, रतलाम 
ई-मेल- swrnlata@yahoo.in 
साहित्य के विशाल वटवृक्ष की अनेक समृद्ध और सशक्त शाखाओं में से एक शाखा प्रवासी साहित्य की भी है। जो दिन-प्रतिदिन अपनी रचनाधर्मिता से हिंदी के साहित्य को सघन बनाने के साथ-साथ पाठक वर्ग को प्रवास की संस्कृति, संस्कार एवं उस भूभाग से जुड़े लोगों की स्थिति से अवगत कराने का कार्य कर रही है। ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ हिंदी साहित्य में जुड़ती एक नवीन विधा एवं चेतना है जो प्रवासियों के मनोविज्ञान से जुड़ी है, जो न केवल एक नई विचारधारा है बल्कि एक नई अंतर्दृष्टि भी है, जिसे अपनी जगह बनाने में पर्याप्त समय लगा है। 
प्रवासी साहित्य की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है, किंतु फिर भी प्रवासी साहित्य अपनी संवेदनात्मक रचनाधर्मिता से साहित्य के क्षेत्र में गहरी जड़े जमा चुका है। भारत से दूर अन्य देशों में बसे भारतीयों के अथक प्रयासों से ही आज प्रवासी साहित्य समृद्ध और सशक्त बन पाया है। 
प्रवास शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है जोशौक या मजबूरी वश दूर देशों में बसा दिए गये थे या वे स्वयं रोजगार की तलाश में अन्य देशों की यात्रा पर निकल गए और वहीं बस गए। इन लोगों ने अपने परिश्रम से वहाँ की आबादी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं को सक्षम बनाया। इस सक्षमता से पहले प्रवासियों को अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। क्योंकि ये लोग गुलाम के रूप में वहाँ ले जाये गये थे, इसलिए इन्हें आर्थिक संकटों के साथ-साथ अपनी धरती, अपने घर-परिवार से दूरी, शा रीरिक और मानसिक गुलामी और लोगों का बेगानापन झेलना पड़ा। उन्हीं में से कुछ लोगों ने अपनी व्यथा-कथा को कलमबद्ध कर प्रवासी साहित्य की नींव रखने का कार्य किया। 
कुछ वर्षो बाद प्रवासियों का साहित्य के क्षेत्र में दखल बढ़ गया। अगले पड़ाव के साहित्यकार और प्रवासी वे लोग थे जो स्वेच्छा से प्रवास कर रहे थे। जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी और जो बंधुआ मजदूर के संताप और प्रलाप को छोड़ मानसिक रूप से स्वयं को स्थापित करने की मनोदशा बना चुके थे। पहले गए प्रवासियों से इनकी सोच, कार्य और व्यवहार भिन्न थे। इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए एवं उसे सुरक्षित रखने के लिए रचनाकर्म का सहारा लिया। वहाँ की परिस्थितियों को देखकर, मानसिक स्तर पर चेतन और सजग इन लोगों ने अपने संताप को अपनी साहित्यिक रचनाओं में अभिव्यक्त किया। इनमें से बहुत से लोग भारत में रहते हुए अपनी साहित्यिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध थे, और जो केवल स्वान्तः-सुखाय लिखते थे, वे प्रवास की समस्याओं और संवेदनाओं से सहज ही जुड़ गये और अपनी रचनाओं द्वारा प्रवासी साहित्य के पुरोधा बनकर उभरे। 
संपूर्ण विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ से लोग भारी संख्या में दूसरे देशों के लिए पलायन करते है । यह प्रक्रिया लगभग चार सौ वर्ष पुरानी है। आज भूमंडल के विभिन्न देशों में भारतवासी बसे हैं । विदेश जाना और वहाँ बसना अब कोई जटिल समस्या नहीं है, लेकिन वहाँ रहकर लेखन कार्य करना प्रवासियों को अलग ही विशिष्टता प्रदान करता है। 
साहित्य उसी भाषा लिखा जाता है जिस भाषा के संस्कार व्यक्ति को बचपन से मिलतेहै । साहित्य की अभिव्यक्ति यदि विदेशी भाषा में की जाए तो ऐसा साहित्य संवेदनशील नहीं होगा। इसलिए विदेशो में बैठे हिंदी साहित्यकारों ने अपने लेखन का माध्यम हिंदी चुना, क्योंकि इसके माध्यम से वह अपने पीछे छूट चुके देश के आंतरिक संबंध को बनाए रखना चाहतेहै । प्रवासी लेखक प्रवास के दुख-दर्द की संवेदनाओं के साथ अपने देश के संस्कारों को जोड़कर उनमें व्याप्त विषमताओं को कागज पर उतार देता है और यही संवेदनाएँ सहज ही सबसे जुड़ सबकी संवेदनाएँ बन जाती है। 
अपनी इन्हीं संवेदनाओं को सहेजने के प्रयास को प्रवासी साहित्यकारों ने जारी रखा और साहित्य की इस परम्परा को आगे बढ़ाने में अपना सहयोग दिया। उसी का प्रतिफल आज हमारे सामने हैं कि हम प्रवासियों की जिंदगी से सहज ही जुड़ कर उनके प्रवास के अनुभवों को साझा कर रहे हैं। प्रवासी साहित्यकार अपने लेखन के माध्यम से जो अनुभव और भावनाएँ अपने घर, अपने देश तक पहुँचाते हैं, वह अपने लोगों के लिए खुली खिड़की का कार्य करती है, जहाँ से वे दूसरे देश को सामाजिक, भौतिक और यथार्थ की संस्कृति को एक साथ बखूबी देख सकते हैं। प्रवासी लेखक अपने लेखन के माध्यम से देश और विदेश की संस्कृति में समन्वय का जो कार्य कर रहे हैं वह सराहनीय है। वे सभी लेखक अपने पाठक वर्ग को नवीन संस्कृति और साहित्य की उपयोगिता से अवगत कराने का कार्य कर रहे हैं। वर्तमान के प्रवासी लेखकों से ये अपेक्षाएँ की जा रही है कि वह समन्वय की रीति से कार्य करें और देश दुनिया के समस्त संकटों से उबर कर साहित्य में समन्वयात्मक दृष्टिकोण स्थापित करें। 
‘‘वह लेखक संस्कृतियों को निकट लाकर समन्वयवादी प्रवृतियों को प्रोत्साहन दे सकता है। आर्थिक जगत में वैश्वीकरण की धारणा जिस प्रकार फलीभूत हो रही है औरविश्व गाँव का स्वप्न देखा जा रहा है तथा सूचना क्रांति इस स्वप्न को साकार करती दिखाई पड़ रही है, उसी प्रकार से साहित्य जगत में भी विश्व में इस प्रकार का नैकट्य लाया जा सकता है। समन्वय सदा से साहित्य का सर्वोत्कृष्ट गुण रहा है। आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व भक्ति काल के शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने वर्ग-वर्ग में बंटे समाज, सम्प्रदायों और विचारधाराओं का समन्वय करने का युग परिवर्तनकारी कार्य किया था। अपनी इस विशिष्टता के कारण ही ‘रामचरितमानस’ एक सार्वकालिक और सार्वजनिक ग्रंथ बन गया है। आधुनिक युग में महान घुमक्कड़ और विराट व्यक्तित्व के धनी साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने देश -विदेश के अगम्य क्षेत्रों का न केवल अन्वेषण किया अपितु गंगा और वोल्गा नदियों पर अपनी दार्शनिक दृष्टि से समन्वयकारी विचारधारा को संतुष्ट किया है। आज प्रवासी हिंदी साहित्य से जुड़ी सबसे बड़ी अपेक्षा समन्वय की है।‘ 1 
वर्तमान में रचे जा रहे साहित्य में प्रवासी लेखक अपने देष के साथ-साथ संपूर्ण विश्व से अपने जुड़ाव को अभिव्यक्त कर रहे हैं। भारतीय प्रवासी लेखक भावनात्मक रूप से भारत से जुड़े हुए हैं, यही कारण है कि उनके साहित्य में प्रवासी भूमि के साथ-ही अपने देश के प्रति प्रेम की भावना भी देखने को मिलती है। वस्तुतः देखा जाए तो आज के प्रवासी साहित्य की संपूर्ण दृष्टि भारत के रंग में रंगी हुई है। साथ ही इनके साहित्य में आधुनिक दौड़ और मानसिक द्वंद्व का यथार्थ रूप देखने को मिलता है। यही विभेदक दृष्टि प्रवासियों के साहित्य को नवीनता प्रदान करती है। 
भारतीय हिंदी साहित्य की प्राचीनतम परम्परा में रचनाकर्म स्वयं की मुक्ति एवं दर्शन के साथ-साथ आत्माभिव्यक्ति का माध्यम है, किंतु प्रवासी साहित्य किसी विशेष दर्शन , चिन्तन या सिद्धांत से जुड़ा हुआ नहीं है। यह साहित्य केवल भोगे गए मानसिक संताप और प्रवासी मनुष्य के दुख को चित्रित करता है। चाहे इसमें उपलब्ध साहित्य परिवर्तित परिस्थितियों के अधीन मानव जीवन के गतिशील और क्रियात्मक रूप का रूपांतरण ही है। 
आज साहित्य सृजन सृजनशील प्रवासियों के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। जिन प्रवासी साहित्यकारों ने लिखित अभिव्यक्ति द्वारा अपने भावों को व्यक्त किया वे अधिकतर इंग्लैड, कनाडा और माॅरिशस के प्रवासी थे। इनके अतिरिक्त अमेरिका, थाइलैंड, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, कीनिया, डेनमार्क, नीदरलैंड आदि देशों में रह रहे भारतीयों ने भी प्रवासी चेतना को अभिव्यक्त किया है। आर्थिक और सामाजिक सुख स्त्रोतों से भरपूर मानसिक संताप झेल रहे इन प्रवासी लेखकों ने लेखन के माध्यम से अपने मूल से जुड़ने का प्रयत्न किया है। 
प्रवासी साहित्यकार चाहे विदेश में बसे हो किंतु उनका मन, आत्मा देश की माटी में निवास करती है। भारतीय प्रवासी आत्मिक स्तर पर स्वयं को अपने देश से अलग नहीं कर पाया, यही कारण है कि इन साहित्यकारों की रचनाओं में परदेस जाने से पहले की स्थिति और परदेस आने के बाद विदेश की स्मृति को अपनी रचनाओं में चित्रित किया है। इस प्रकार का साहित्य, साहित्य के मानदण्डों के अनुरूप नहीं होता। इसमें केवल भावनाओं और वर्षो पूर्व की स्थिति को वर्तमान में अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इनके साथ हमेशा जन्मभूमि और कर्मभूमि के बीच होने का द्वंद्व चलता रहता है। 
विगत समय के प्रवासी समाज की तुलना में वर्तमान का प्रवासी समाज एक अजीब सी कशमकश में जी रहा है। प्रवास में बसे भारतीयों की नवीन पीढ़ी को आधुनिक समय की परिवर्तित परिस्थियों का सामना करना पड़ रहा है। इनकी प्रमुख समस्या के रूप में जो चीज उभर कर आई है वह भाषा है। इनकी प्रथम भाषा अंग्रेजी है। निसंदेह हिंदी भाषा को इस संकट का सामना करना ही था। वर्तमान प्रवासी पीढ़ी के इस सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक तनाव से उत्पन्न इस खोखलेपन की अभिव्यक्ति भी प्रवासी साहित्य सृजन का आधार बन रही है। 
प्रवासियों के अनेक विरोधाभासों तथा विसंगतिपूर्ण जीवन के बारे में कई दशकों तक ब्रिटेन में रहने वाली लेखिका उषाराजे सक्सेना ने ठीक ही लिखा है कि कभी व्यक्ति खुद को थाली का बैंगन समझता है तो कभी धोबी का कुत्ता , न घर का न घाट का। नये परिवेश में अमित सुखों के बीच रहते हुए भी वह पलट-पलटकर पीछे की ओर देखता है, जहाँ से वह आया है। 
प्रवासियों द्वारा निर्मित अपनी सर्जनात्मकता साहित्य का छोटा-सा किंतु विश्व के चारों और फैल हुआ आकाश निर्मित किया है। हिंदी की एक छोटी सी दुनिया बनाई है, जिसकी आत्मा हिंदी की और भारतीयता की है। शर्तबंदी के तहत फिजी, मॉरिशस आदि देशों में बसे प्रवासियों की रचनाओं में अतीत की व्यथा, वर्तमान का तनाव और भविष्य की चिन्ता को प्रमुखता से उभारा है। किंतु नार्वे, अमेरिका, इंग्लैंड, नीदरलैंड आदि देशों के भारतवंशी हिंदी लेखकों की चिंताएँ व चुनौतियाँ इनसे कुछ भिन्न है। 
ये हिंदी लेखक प्रायः वे है जो धनार्जन व शिक्षा के लिए इन देशों में गए थे। वे अमेरिका में रहते हुए न तो अमेरिकी संस्कृति के अंग बन पाए न शुद्ध रूप से भारतीय ही रह पाए। इन भारतवंशी परिवारों की नई पीढ़ी तो भारतीय होने की अपेक्षा अमेरिकी बनने के लिए लालायित हो गई, जिससे इन भारतवंशी परिवारों की पुरानी पीढ़ियों में अपनी जड़ों को लौटने की आकांक्षा उत्पन्न हुई। अमेरिकी और यूरोप के हिंदी साहित्य की यह विशेषता है कि वह अपनी जड़ों की, अपनी अस्मिता की तथा अपनी भारतीय पहचान को अभिव्यक्त करता है। 
इन देशों में भारतवंशी लेखक अंग्रेजी में भी लिख रहे हैं तथा कुछ को तो विश्व में ख्याति और धन भी मिला है, परंतु ये भारतवंशी अंग्रेजी लेखक स्वयं को ‘भारत में पैदा हुए अमेरिकी लेखक’ मानते हैं और कैथरिन मेयो की ‘मदर इंडिया’ पुस्तक की तरह भारत का कलिमापूर्ण चित्र ही प्रस्तुत करते हैं। अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों के भारतवंशी हिंदी लेखक स्वयं को भारतीय लेखक मानते हैं और अपनी हिंदी रचनाओं में देशी पहचान और भारतीय संस्कृति को मजबूत आधार देते हैं। 2 
प्रवासी साहित्य की रचना के कारण चाहे जो भी रहे हो, उनमें चित्रित परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी रही हो, किंतु आज का सत्य यह है कि प्रवासी साहित्य, भारतीय हिंदी साहित्य का अभिन्न अंग बन गया है। प्रवास की समस्याओं और संघर्षो की वास्तविकताओं से भरा यह साहित्य हमें मानव के जुझारू होने सीख देने के साथ ही सदैव प्रयत्नषील होने की सीख भी देता है। 
‘हिंदी के प्रवासी साहित्य ने अपना एक संसार रचा, जो चाहे छोटा ही था, परंतु उसने एक अलग साहित्य-संसार की रचना की जो पूरे विश्व में निरन्तर फैलता गया और हिंदी के प्रवासी साहित्य का एक बिम्ब निर्मित हुआ। अब वह मॉरिशस तक सीमित न था, उसकापरिदृश्य वैश्विक बन गया। उसकी संरचना में कई शक्तियां काम करती रहीं – विश्व के कई देशों में विश्व हिंदी सम्मेलन हुए, भारत के हिंदी लेखकों एवं प्रवासी के हिंदी लेखकों का भारत में सम्मान होने लगा, देश की साहित्य अकादमियों ने प्रवासी हिंदी साहित्य पर गोष्ठियाँ कीं, ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ तथा ‘डास्पोरा’ आरम्भ किया गया, प्रवासी लेखकों की कृतियाँ भारत में छपती रहीं और उन पर चर्चाएँ हुईं और हिंदी विश्व में प्रवासी हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा तथा उसे हिंदी की मुख्यधारा में उचित स्थान देने की माँगें उठने लगीं और हिंदी साहित्य ने इस ओर प्रयत्न षुरू किये। 3 
आज स्थिति यह है कि माॅरिशस, अमेरिका एवं इंग्लैड तीन ऐसे प्रमुख देश है जहाँ प्रवासी भारतीयों की संख्या सर्वाधिक है और सम्भवतः इस कारण इन देशों में हिंदी लेखकों की संख्या भी सबसे अधिक है। इन प्रवासी लेखकों में अनेक ऐसे लेखक हैं जिनकी भारतीय ही नहीं वैश्विक हिंदी मंच पर प्रतिष्ठा है और जिनके पाठकों की संख्या किसी भी लोकप्रिय हिंदी लेखक से कम नहीं हैं। 
प्रवासी साहित्य लेखन की यह परम्परा दीर्घकाल तक यथावत बनी रहें। ताकि आने वाले समय की नई भारतीय पीढ़ी को प्रवास से संदर्भित सारी जानकारी सहज ही मिलती रहें। प्रवासी लेखक, अपने लेखन की परम्परा को इसी प्रकार निभाते रहे, और भारतवंशी होने के गर्व को सदा अपनी लेखनी से उद्भासित करते रहे, तभी अपने प्रवासी साहित्यकार के रूप को सहज परिभाषित कर सकेंगे। 
संदर्भ – 
1. वर्तमान साहित्य, कुंवर पाल सिंह, नमिता सिंह (संपादक), प्रवासी हिंदी लेखन तथा भारतीय हिंदी 
लेखन, उषा राजे सक्सेना (जनवरी, फरवरी 2006), पृ-62
2. डॉ. कमल किशोर गोयनका, हिंदी का प्रवासी साहित्य, प्रथम संस्करण 2011, अमित प्रकाशन, 
गाजियाबाद, पृष्ठ, 47
3. वही, पृष्ठ, 50

[जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के दिसंबर 2016 में प्रकाशित लेख]

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बाजारवाद के दौर में हिंदी पत्रकारिता: एक मूल्यांकन: शैलेन्द्र कुमार शुक्ल

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यह भूमंडलीकरण का दौर है जहां बाजारवाद अपनी चरम अवस्था में परचम लहरा रहा है। मानवीय मूल्यों का व्याकरण बराबर बदल रहा है। इस बदलने की गति में जब जीवन के उद्येश्य भी बदले हैं तो उथल-पुथल तो स्वाभाविक है, इसका फायदा लगातार बाजारवाद उठा रहा है। बाजार और बाजारवाद में घनीभूत अंतर है। बाजारवाद एक वृति है जो जीवन को मूल्यों से अलग करने का काम करती है। जहां भ्रांति ही एक पराकाष्ठा बन गई हो वहाँ निश्चित तौर पर विकल्पों की भीड़ दिखाई देगी। यह भीड़ सम्पूर्ण जीवन के पारंपरिक वितान को भाड़ में झोकने के लिए व्यापक भूमिका का निर्वहन करती है। ऐसे में मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए व्यक्ति की सामाजिक लोकवादी चेतना को जागृत करना बहुत जरूरी काम है। यह काम पत्रकारिता अपने युगानुरूप करती आई है। पत्रकारिता को जिस पक्षधरता की जमीनी ताकत मिलती है उसी के साथ खिलवाड़ करना कहाँ तक जायज है यह सोचने का विषय है। 
भारतीय पत्रकारीय मूल्य अपनी आधुनिकता के अतीत में अधिक मूल्यवान थे। स्वतन्त्रता आंदोलन का इतिहास इसकी गवाही के लिए काफी है। आज पत्रकारिता अपनी ईमानदारी से दूर एक ठगी हुई समझदारी बन कर रह गई है। यह पत्रकारिता के पुरोधाओं को सोचना चाहिए था लेकिन बौद्धिकता की नीलामी जब पत्रकारिता की आवश्यकता बन गई हो तब यह सोचना कम खतरनाक नहीं है। इस तरह आज के समय में पत्रकारिता को बाजारवाद की जड़ों में परखना बहुत जरूरी काम है। इसका मूल्यांकन होना चाहिए। 
पत्रकारीय मूल्य समाजपरक होने चाहिए। यह बात आज याद दिलाई जा सकती है। जब पूंजीवादी दौर में भूमंडलीकरण की चपेट से चरमराई हुई दुनिया हमारे सामने हो तब ऐसी बात कही जा सकती है। यह बात उस समय सोची भी नहीं जा सकती थी जब पत्रकारिता अपने आधुनिकीकरण के दौर से गुजर रही थी। आधुनिकता एक बड़ा जीवन मूल्य है। समय में जीवन्तता का विराट स्वर आधुनिकता की गहनता से आता है। यह गहनता प्रगति के पथ पर नैसर्गिक चेतना से आती है। पत्रकारिता भारतीय परिदृश्य में एक अदम्य जीवटता के साथ उभरी थी। इसके प्रश्न मनुष्यता के हित मे स्वतन्त्रता की लड़ाई में सामील थे। यहाँ स्वतन्त्रता से आशय सिर्फ आजादी की लड़ाई से नहीं, उस लड़ाई से भी था जो मनुष्यता को रूढ़ियों की जटिल संरचना से मुक्ति दिलाये। यह लड़ाई सिर्फ देश हित की नहीं मानवीय मूल्यों की पक्षधरता की भी थी। अपने शुरुआती दौर में जनमाध्यमों के अभाव में भी भारतीय पत्रकारिता ने वह सब किया जिसे आज याद किया जा सकता है। तब मीडिया निजीकरण का शिकार नहीं थी, विद्वानों की निजता समाजिकता की आकांक्षी हुआ करती थी। 
आर्थिक अभाव के युग में मूल्यों की वैज्ञानिकता का एक इतिहास भारतीय पत्रकारिता ने रचा। पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों के माली हालात पाठकों से छिपे नहीं हैं। लेकिन उनमे मानवीय जिजीविषा का अकूत उत्साह भरा था, जो पत्रकारिता को नवजीवन देता था। स्वतन्त्रता आंदोलन के दौर में राजसत्ता के समर्थन से निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति तो आर्थिक रूप से संवृद्ध थी लेकिन स्वतंत्र पत्रकारिता के जुनूनी पत्रकारों की आए दिन आर्थिक और राजनीतिक संकट की मार उन्हें घायल करती रहती थी। यह उस समय का दौर था जब पत्रकारों को पुरस्कारों के रूप मे सजाएँ मिला करती थीं, पत्र-पत्रिकाओं पर जुर्माना ठोके जाते थे, बुद्धिजीवियों पर वारंट कटे जाते थे, रचनाएँ जप्त कर ली जाती थी। यह वह दौर था जब पत्रकारिता चंदे से चलती थी। 
पत्रकारिता के इस राष्ट्रीय आंदोलन का गढ़ कलकत्ता था। यहाँ से अंग्रेजी और बंगला के ही नहीं हिंदी के अखबारों का भी चलन शुरू होता है। इन अखबारों में भारतीय पत्रकारिता के मूल्यों का विकास दिखाई देता है। उस समय जो स्थिति थी उसी का प्रस्फुटन ही भारतीय पत्रकारिता के रूप में प्रकट हुआ। विजय दत्त श्रीधर ‘पत्रकारिता-कोश’ में इसका जिक्र कुछ इस प्रकार करते हैं-“ईस्ट इंडिया कंपनी जिसका मूल उद्देश्य व्यापार-वाणिज्य था, अंततः पोर्टगीज, डच, और फ्रेंच प्रतिस्पर्धियों के संघर्ष में विजेता बन कर उभरी और प्लासी के युद्ध में विजय के बाद उसने भारत में अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया। बादशाह शाह आलम से सान 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उढ़ीसा की दीवानी मंजूर होने के बाद वैधानिक स्वरूप भी प्राप्त हो गया। सान 1835 में ईस्ट इंडिया कंपनी की वाणिज्यिक गतिविधियां एक किनारे हो गईं और वह सत्ता केंद्र के रूप में स्थापित हो गई। भारत में पत्रकारिता का प्रादुर्भाव इसी पृष्ठभूमि में हुआ। प्रारम्भिक समाचार पत्रों का प्रकाशन ईस्ट इंडिया के असंतुष्ट कर्मचारियों द्वारा किया गया। समाचार पत्रों के प्रकाशन की ओर वे इसलिए प्रवृत्त हुये क्योंकि वे अपनी घुटन को अभिव्यक्ति देना चाहते थे।”1
इस तरह हम देखते हैं कि पत्रकारिता के शुरुआती दिन भारत में एक जंतांत्रिक बन कर उभरे थे। यहाँ यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सत्ता से असंतुष्ट वर्ग की एक मजबूत आवाज बन कर पत्रकारिता का विकास भारत में हुआ। इस रास्ते के कई खतरे थे लेकिन पत्रकारिता अपने मूल्यों के साथ उभरी। पहले अंग्रेजी में पत्र निकले फिर बंगला में और हिंदी में तथा अन्य भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता कि भरपूर आवाज सुनाई पड़ने लगी। इस पत्रकारिता के साथ जनता की सत्ता के प्रति असंतुष्टता बराबर रंग लाती रही। और या अपनी जमीनी ताकत के साथ उभरी। हिंदी का प्रथम पत्र ‘उदन्त मर्तण्ड’ कलकत्ता से 1826 में पंडित युगल किशोर शुक्ल के सम्पादन में निकला। यह पत्र क्यों निकला इसका जिक्र पत्र के पहले अंक में किया गया है- “यह ‘उदन्त मर्तण्ड’ अब पहिले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेतु जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंगरेजी ओ फारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियों के जान्ने और पढ़ने वालों को ही होता है……देश के सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ ओ समझ लेंय ओपराई अपेक्षा जो अपने भावों के उपज न छोड़े, इसलिए बड़े दयावान करुणा ओ गुणिन के निधान सबके कल्याण के विषय श्रीमान गवर्नर जेनरल बहादुर की आयस से ऐसे चाहत में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट-ठाना…”2 इस तरह हिंदी का पहला पत्र अपने हितों को ध्यान में रखते हुये निकला।
हिंदी पत्रकारिता दिन प्रतिदिन अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करती हुई प्रगति के पाठ पर अग्रसर हुई। सम्पूर्ण भारत से पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन का एक सिलसिला चल पड़ा। सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं का इतिहास आज हमारे सामने है। इन पत्र-पत्रिकाओं में भारतीय पत्रकारिता के मूल्य निहित है। आजादी कि लड़ाई में इंका अभूतपूर्व योगदान है। इस दौर के संपादक और लेखक सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक स्थितियों से जनता को रूबरू करा रहे थे, धार्मिक रूढ़ियों से समाज को मुक्त करने की पक्षधरता इस दौर की बड़ी उपलब्धि है। प्रताप नारायण मिश्र के सम्पादन में निकालने वाले पत्र ‘ब्राह्मण’ में छपी एक टिप्पणी देख कर इसे समझा जा सकता है- “सरस्वती तो हमारे पेट में बसती है…जो सबका सर्वस्व हमारे पेट में ठांस-ठांस कर न भरे वही नास्तिक। जो हमारी बेसुरी तान पर वाह ! वाह ! न किए जाए वह कृश्तान और हमसे जो चूँ भी न करे वह दयानंदी।”3 इस तरह की बेबाक प्रतिक्रिया के मूल्यों के साथ हिंदी पत्रकारिता का विकास हुआ था। यह पत्र आर्थिक संकट से गुजरने के बावजूद अपनी सम्पूर्ण तत्परता से समाजिकता के पथ पर मनुष्यता के हित और अधिकारों कि लड़ाई लड़ता रहा। वर्तमान सत्ता के लगातार टकराता रहा, यह इसकी जीवटता का प्रतीक है। 
भारतीय पत्रकारिता के जीवन मूल्य क्या थे इसका एक और उदाहरण बलकृष्ण भट्ट के सम्पादन में निकलने वाले पत्र ‘हिंदी प्रदीप’ में भी देखा जा सकता है। यह पत्र भारतीयता की अटल आकांक्षाओं के लिए लड़ता हुआ जुर्माने की मार से बंद हुआ। “हिंदी प्रदीप हिंदी का एक ऐसा पत्र है जिसे एक राष्ट्रीय कविता छपने के कारण तीन हजार रुपये कि जमानत न दे पाने पर पत्र का प्रकाशन बंद कर देना पड़ा।”4 यह 31 वर्ष तक लगातार निकलता रहा।
इस तरह हम देखते हैं कि भारतीय पत्रकारिता अपने जीवंत मूल्यों में एक बड़ा वितान रचती है। आधुनिकता का यह अतीत अपना गौरवशाली इतिहास लिए हुये है। स्वतन्त्रता के बाद भारतीयता के जीवनमूल्यों में एक परिवर्तनकारी दौर की शुरुआत होती है। यह आजादी के मोहभंग के रूप में पहले कमजोर हुआ फिर जैसे जैसे देश पूंजीवादी ढांचे में अपने को तब्दील करता गया ,संचार मीडिया उनके हाथ की कठपुतली बनता चला गया। 
जिस तरह साम्राज्यवाद के गर्भ से पूंजीवाद का उदय हुआ उसी तरह पूंजीवाद से भूमंडलीकरण का रास्ता खुला। दरअसल भूमंडलीकरण वैश्वीकरण की एक चाल है। यह जो पूरी दुनिया को एक गाँव में तब्दील कर देनी की एक परिभाषा भूमंडलीकरण के पुरोधाओं ने गढ़ी है, यह पूंजीवादी स्वप्न को साकार करने की एक ओछी मानसिकता है। यह विविधता के प्राकट्य भाव को प्रकृतिक मूल्यों से अलग करना चाहते हैं। यह पूरी दुनिया को एक सूत्र में छल लेने के आकांक्षी हैं। भूमंडलीकरण का स्वप्न प्रद्योगिकी और तकनीकी को एक कल्चर के रूप में समाज में ला रहा है। जहां समाज की स्वायतता और निजता पर एक रणनीति के रूप में प्रहार किया जा रहा है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि प्रद्योगिकी और तकनीकी को एक अस्त्र के रूप में प्रयोग करना खतरनाक है, इसका उपयोग मनुष्यता के हित में भी हो सकता है। लेकिन इन सब पर जिस वर्चस्वशाली वर्ग का कब्जा है, वह साम्राज्यवादी नीतियों के अनुयाई पूंजीवादी लोग हैं। आज पत्रकारिता भी इन्हीं के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है।
इधर कुछ वर्षों से ‘बाजारवाद’ शब्द का चलन काफी बढ़ा है। यह एक नई चाल है। अर्थशाश्स्त्र का सहारा लेकर कुछ पूंजीवादी भट्टाचार्याओं ने नई भड़न्त बकनी शुरू की है कि बाजारवाद अर्थशास्त्र के शब्दकोश में ही नहीं है। यानी ये धुरंधर इस शब्द को अर्थशास्त्र में आने से रोकने के लिए पूरी ताकत से लगे हुये हैं। दरअसल बाजारवाद एक जाल का नाम है जो इधर तेजी से फैल रहा है। यह पूंजीवाद का एक धारदार हथियार है, जो अपनी चपेट में लेकर व्यक्ति की निजता और स्वायत्तता को बेचने पर मजबूर करता है। इसका उदय दुनिया के ‘डिजिटलीकरण’ के साथ हुआ है। दुनिया तेजी से जिस कदर डीजटल हुई बाजारवाद ने उसे हथिया लिया। यहीं से पत्रकारिता के मीडिया होने की कहानी शुरू होती है। पहले मीडिया शब्द इतना प्रचलित नहीं था। आज पत्रकारिता के मूल्य जनवादी नहीं रहे, इसका बड़ा कारण ‘डिजिटलीकरण’ है। आज एक पत्रकार अपनी निजता और स्वायत्तता को बेचे बिना मीडिया की दुनिया में कुछ भी नहीं कर सकता। अब पत्र-पत्रिकाओं के जमाने लदते जा रहे हैं, यह समय टेलीविज़न और इंटरनेट पर चैनल-बाजी का है। और चैनल पूंजीपतियों के उद्योग या कारखाने। जहां खबरे हॉट करके ही बेची जाती है, वहाँ विज्ञापन प्रायोजित दौर को हमारे यहाँ बजारवाद कहा जाता है। बाजारवाद के बारे में कुछ सैद्धांतिक तथ्य भी देखने जरूरी हैं। क्योंकि यह टर्म पश्चिम से ही आया। पश्चिम के धनी देशों के लिए पूरब के विकाशशील तमाम देश बाजार का मैदान बने हुये हैं। जहां वह चीजों को बेचने में सफल हो रहे हैं। बहरहाल एक महत्वपूर्ण परिभाषा को कोड करते हैं। बेंजामिन गिंसबर्ग का कहना है कि “पश्चिमी सरकारों ने बाजार कि कार्यप्रणाली का इस्तेमाल लोकप्रिय परिप्रेक्षों और भावनाओं को नियंत्रित करने में किया। ‘विचारों का बाजार’ जो उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दौरान बना था, वस्तुतः उच्च वर्गों के विश्वासों और विचारों का प्रचार और निचले वर्गों कि विचारधारात्मक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता को दबाने का काम करता है। इस बाजार के निर्माण के जरिये पश्चिमी सरकारों ने सामाजिक आर्थिक स्थिति और विचारधारात्मक शक्ति के बीच मजबूत और स्थायी कड़ियाँ निर्मित की हैं, और उच्च वर्गों को इस बात कि इजाजत दी है कि वे अपने बीच से ही किसी अन्य के पिष्टपोषण के लिए एक दूसरे का इस्तेमाल करें।…खास तौर पर तौर पर सयुंक्त राज अमेरिका में विचारों के बाजार पर छाए रहने में उच्च और उच्च-मध्यवर्गों की क्षमता ने आम तौर पर इन तबकों को इस बात की इजाजत दी है कि वे समूचे समाज के राजनीतिक यथार्थबोध को और राजनीतिक तथा सामाजिक संभावनाओं को अपने तरीके से गढ़ें। पश्चिमी लोग जहां आम तौर पर बाजार को विचारों की आम स्वतन्त्रता के बराबर मानते हैं, वहीं बाजार का गुप्त हाथ नियंत्रण के औज़ार के रूप में उतनी ही संभावनाएं लिए होता है, जितनी राज्य कि लौह भट्ठी।”5
इस तरह हम देखते हैं कि बाजार एक राजनीतिक और आर्थिक रणनीति के तहत प्रणाली के रूप में काम कर रही है। इस टिप्पणी के बारे में प्रोफेसर नोम चोमस्की लिखते हैं- “गिंसबर्ग के इस निष्कर्ष में कुछ प्रारम्भिक सत्यभास मौजूद हैं। यह एक निर्देशित मुक्त बाजार के कामकाज को लेकर उन प्रस्थापनाओं पर आधारित है जो विशेषतया विवादास्पद नहीं हैं। संचार माध्यमों के वे हिस्से, जिनकी पहुँच एक अच्छे-खासे पाठक/श्रोता वर्ग तक हो सकती है, बड़े निगम ही हैं और वे अपने से भी कहीं ज्यादा बड़े उद्द्योग समूहों से जुड़े हुये हैं। अन्य व्यापारों की तरह ही वे एक उत्पाद ख़रीदारों को बेचते हैं। उनका बाजार है विज्ञापनदाताओं का वर्ग और उनके ‘उत्पाद’ हैं पाठक-दर्शक-श्रोता। इसमें भी उनका खास पूर्वग्रह अपेक्षाकृत धनी पाठक-दर्शक-श्रोता की ओर होता है, जिनके कारण विज्ञापन की दरें बढ़ जाती हैं।”6 
इन तथ्यों के आधार पर हम देखते हैं की संचार माध्यम किस तरह बिकी हुई प्रणाली का प्रतिरूप है। आज उच्च वर्ग के पास एक अपना मध्य वर्ग है जो उसके इसरे पर नाचता है। निम्न मध्यावरग और निम्न वर्ग इन दोनों वर्गों को लगातार शिकार होता राहत है। यह ठगी का एक तंत्र है। आज प्रिंट मीडिया धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोती जा रही है, और इसमे जो दिखाई दे रहा है वह एक किस्म का चमकीला मुलम्मा बन कर रह गया है। समाचार पत्रों की जगह दिन-रात एक कर न्यूज गरम करने वाले टी वी चैनलों ने छीन ली है। इधर डी.टी.एच/डीटूएच जैसे उपकरणों ने निम्न-मध्य वर्ग पर अपना पूरा रुतबा जमा लिया है। इन पर चेनलों की पूंजीवादी दुकानों का एक अंबार लगा हुआ है जिस पर लगातार बाजारू नाटकीयता अपनी छाप इस वर्ग पर डाल कर जीवन-मूल्यों में एक भ्रम पैदा कर रही है। यह भ्रम इतना भयानक है कि इसके अगोस में एक भरी-पूरी पीढ़ी निरापद विचारशून्यता में जी रही है। और यही पीढ़ी अपने पूरे वर्ग के साथ देश के चुनाओं में बड़ा हिस्सा बन कर उभरती है। आज वार्ड मेम्बर से लेकर प्रधानमंत्री तक का चुनाव यही जनता कर रही है, जो निरापद विचारशून्यता के भयावह रोग से ग्रसित है। यह रोग जनता के बीच पैदा करने का काम हमारे उच्च-वर्ग की पूंजीवादी आकांक्षाओं का सफल परिणाम है। अब चुनावी माहौल चेनल बनाते हैं। भारत के 2014 के लोक सभा चुनाव इन्हीं टीवी चैनलों द्वारा लड़े गए। जहां इसी तैयार की गई जनता ने पक्ष के प्रतिपक्ष के लिए विपक्ष की जगह ही नहीं छोड़ी। यह सब एक बनी बनाई रणनीति के तहत हो रहा है। चैनलों का कोई भी जनपक्षधर मूल्य नहीं। एक जनता को उनके मतलब की चीजें न दिखाकर अपने प्रयोजन की सामाग्री लगातार परोसते हैं। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि इनके समाचारों में जनांदोलनों पर समाचार देने के लिए वक्ता नहीं लेकिन एक राजनेता के अंतिम संस्कार का लाइवकास्ट लगातार दिखते हैं। यह है हमारी मीडिया, यानी आज की मीडिया का दोगला चरित्र।
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि हमारे सामने बदले हुये दौर का एक विशाल ऊसर मैदान पड़ा है। अब हम इसमे कहाँ तक भारतीयता के जीवन मूल्यों को तलाशें इसकी भी एक सीमा है। जो भी हो हम अखिलेश अखिल के शब्दों में कह सकते हैं- “शायद आप को यकीन न हो, लेकिन सच्चाई यही है कि पत्रकारिता वेश्या बन गई है और पत्रकार बन गए हैं दलाल। वेश्या बनी पत्रकारिता खूब बिक रही है। लोगों के बीच इसकी काफी मांग है। ऐसी पत्रकारिता के दलालों की खूब चल रही है। पाठकों के बीच इन दलालों की इज्जत है। समाज में इनकी प्रतिष्ठा है, रौब है।”7 

संदर्भ-सूची 

1. श्रीधर,विजय.(2010).भारतीय पत्रकारिता कोश.नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन. पृष्ठ 11 
2. वहीं. पृष्ठ 55
3. वहीं. पृष्ठ 337
4. वहीं. पृष्ठ 258 
5. नोम चोमस्की (2006). जन माध्यमों का मायालोक.दिल्ली, ग्रंथ शिल्पी. पृष्ठ सं. 17 
6. वहीं पृष्ठ 17-18 
7. अखिल,अखिलेश.(2009) मीडिया: वेश्या या दलाल.नई दिल्ली,श्री नटराज प्रकाशन, पृष्ठ 229
शोध-छात्र, हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग 
म.गां.अं.हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 
Mob- 07057467780
 

 [साभार: जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका]

लोकतंत्र और सोशल मीडिया- डा. अशोक कुमार मिश्र

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लोकतंत्र और सोशल मीडिया

-डा. अशोक कुमार मिश्र
डीन एडमिनिस्ट्रेशन
रुड़की इंजीनियरिंग एंड मैनेजमेंट टेक्नोलाजी इंस्टीट्यूट, 
शामली-पानीपत राज्यमार्ग, 
निकट ग्राम मन्ना माजरा, शामली (उ.प्र.)
ई-मेल: ashokpranjan@gmail.com
मोबाइल- +91 9411444929
आधुनिक युग में सोशल मीडिया जनमानस की वैचारिक अभिव्यक्ति के सशक्त उपकरण के रूप में उभरकर सामने आया है। यह लोकतंत्र को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। सोशल मीडिया ने सभी को खुलकर बोलने का और हर मुद्दे पर अपनी राय रखने का मौका दिया है। लोकतंत्र की अवधारणा जनता का शासन, जनता के लिए और जनता के द्वारा पर आधारित है। इस दृष्टिकोण से जनता की आवाज को शासन तक पहुंचाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सोशल मीडिया यह कार्य बखूबी कर रहा है। इसलिए लोकतंत्र और सोशल मीडिया का अंतर्संबंध अत्यंत गहरा और व्यापक है। यही कारण है कि सोशल मीडिया का प्रभाव समाज के प्रत्येक वर्ग पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। पिछले कुछ वर्षों में युवा पीढ़ी इसकी तरफ जबरदस्त तरीके से आकर्षित हुई है।
दरअसल इंटरनेट के विकास के साथ ही सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से सामाजिक जीवन में संवाद के नए रूप का प्रादुर्भाव हुआ है। सोशल नेटवर्किंग के के द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को परस्पर संवाद स्थापित करने, विविध विषयों पर वैचारिक अभिव्यक्ति, भावनाओं के आदान-प्रदान और अकादमिक, साहित्यिक, राजनीतिक और सामाजिक विमर्श के लिए मंच प्रदान कर रहा है। आधुनिक युग में सोशल मीडिया केवल मनोरंजन का ही माध्यम नहीं है बल्कि समाचारों का आदान-प्रदान करते हुई इसने कई जन-आंदोलन भी खड़े किए हैं। सोशल मीडिया के दबाब के कारण ही दिल्ली के निर्भया कांड, मुजफ्फरनगर में दंगे की घटना, समाजसेवी अन्ना हजारे का आंदोलन, आरुषि हत्याकांड और नीरा राडिया कांड को मुख्यधारा की मीडिया का विषय बनाया गया और इस पर व्यापक जनसमूह ने विचार विमर्श किया। सोशल मीडिया के माध्यम से समसामयिक मुद्दों और घटनाओं के प्रमुखता से उठाया जा रहा है। विश्व फलक पर देखें तो चीन, ट्यूनीशिया और अरब देशों में जो राजनीतिक सुगबुगाहट हुई है, उसके पीछे सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है। 
वास्तव में “सामाजिक मीडिया पारस्परिक संबंध के लिए अंतर्जाल या अन्य माध्यमों द्वारा निर्मित आभासी समूहों को संदर्भित करता है। यह व्यक्तियों और समुदायों के साझा, सहभागी बनाने का माध्यम है। इसका उपयोग सामाजिक संबंध के अलावा उपयोगकर्ता सामग्री के संशोधन के लिए उच्च पारस्परिक प्लेटफार्म बनाने के लिए मोबाइल और बेब आधारित प्रौद्योगिकियों के प्रयोग के रूप में भी देखा जा सकता है। सामाजिक मीडिया के कई रूप हैं जिनमें कि इंटरनेटफोरम वेबलॉग, सामाजिक ब्लाग, माइक्रोब्लागिंग, विकीज,सोशलनेटवर्क, पॉडकास्ट, फोटोग्राफ, चित्र, चलचित्र आदि सभी आते हैं। अपनी सेवाओं के अनुसार सोशल मीडिया के लिए कई संचार प्रौद्योगिकी उपलब्ध हैं।“-1-
सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार के साथ ही सोशल मीडिया का दायरा भी बढ़ता जा रहा है। सस्ती मोबाइल तकनीक ने इसे बढ़ावा दिया है। सोशल मीडिया हर व्यक्ति को किसी भी मुद्दे पर तुरंत अपनी राय रखने का मौका देता है और इसकी सबसे बड़ी ताकत है। लोकतंत्र में जनमानस का विचार सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। यही कारण है कि लोकतंत्र में सोशल मीडिया की भूमिका अत्यंत प्रभावी हो जाती है। यही कारण है कि सरकारी तंत्र भी अब सोशल मीडिया का प्रयोग करने लगा है। सोशल मीडिया की तरफ जनता का रूझान लगातार बढ़ रहा है। “विश्वभर में लगभग 200 सोशल नेटवर्किंग साइट्स हैं जिनमें फेसबुक, ट्वीटर, आर्कुट, माई स्पेस, लिंक्डइन, फ्लिकर, इंस्टाग्राम (फोटो,वीडियो शेयरिंग साइट्स) सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। एक सर्वे के मुताबिक विश्वभर में संप्रति 1 अरब 28 करोड़ फेसबुक यूजर्स (फेसबुक इस्तेमाल करने वाले) हैं। वहीं, विश्वभर में इंस्टाग्राम यूजरों की संख्या 15 करोड़, लिंक्डइन यूजरों की संख्या 20 करोड़, माई स्पेस यूजरों की संख्या 3 करोड़ और ट्वीटर यूजरों की संख्या 9 करोड़ है।
सोशल मीडिया का जन्म 1995 में माना जाता है। उस वक्त क्लासमेट्स डॉट कॉम से एक साइट शुरू की गयी थी जिसके जरिये स्कूलों, कॉलेजों, कार्यक्षेत्रों और मिलीटरी के लोग एक दूसरे से जुड़ सकते थे। यह साइट अब भी सक्रिय है। इसके बाद वर्ष 1996 में बोल्ट डॉट कॉम नाम की सोशल साइट बनायी गयी। वर्ष 1997 में एशियन एवेन्यू नाम की एक साइट शुरू की गयी थी एशियाई-अमरीकी कम्यूनिटी के लिए। सोशल मीडिया के क्षेत्र में सबसे बड़ा बदलाव आया फेसबुक और ट्वीटर के आने से। फेसबुक का जन्म 4 फरवरी 2004 में हुआ। मार्क जकरबर्ग ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए फेसबुक को डेवलप किया था। धीरे-धीरे इसका विस्तार दूसरे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों तक हुआ और वर्ष 2005 में अमरीका की सरहद लाँघ कर यह विश्व के दूसरे देशों में पहुँच गया। ऐसी ही कहानियाँ दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स की भी हैं।“-2-
सोशल मीडिया जनजागरूकता लाने का भी प्रमुख उपकरण बनकर सामने आया है। राष्ट्र, समाज और जनहित के मुद्दों को सोशल मीडिया में प्रभावशाली ढंग से उठाया जाता रहा है। भारत में नारी सशक्तिकरण, बालिका शिक्षा, पर्यावरण, दहेज उन्मूलन, स्वच्छता अभियान, अपराध, भ्रष्टाचार का विरोध और मानवाधिकार जैसे मुद्दे सोशल मीडिया में प्रखरता से उठाए जाते रहे हैं जिससे लोकतंत्र को मजबूती मिल रही है। राजनीतिक दलों, सरकार अथवा सामाजिक कुप्रवृत्तियों का जनता सोशल मीडिया के माध्यम से प्रबल विरोध करती रही है जो किसी भी लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए आवश्यक है। किसी भी घटना की त्वरित सूचना अब लोगों को सोशल मीडिया के माध्यम से मिल जाती है।
सोशल मीडिया ने सामाजिक संबंधों की अवधारणा को भी प्रभावित किया है। पहले सामाजिक संबंधों की निरंतरता के लिए व्यक्तिगत रूप से मिलना जरूरी माना जाता था। लेकिन अब एसा नहीं है। अब लोग लंबे समय तक कई बार व्यक्तिगत रूप से नहीं मिल पाते हैं लेकिन सोशल मीडिया पर वे लगातार संपर्क में रहते हैं। “इस आभासी दुनिया के सहारे न सिर्फ मित्र बनाए जा रहे हैं,बल्कि उन्हें वोट बैंक से लेकर व्यवसाय में धनार्जन हेतु भी इस्तेमाल किया जा रहा है। वह दिन चले गये जब लोग एक दूसरे से विदा होते वक्त पता और फोन नम्बर लिया करते थे। अब तो लोग सोशल साइट्स के माध्यम से ही एक दूसरे से जुड़े हुये हैं और सोशल साइट्स के माध्यम से भी रिश्ते निभा रहे हैं। कारपोरेट कंपनियाँ अपने उत्पादों को बेचने हेतु इनका खूब इस्तेमाल कर रही हैं,आखिर ऐसी मुफ्त सेवा कहाँ मिलेगी ? फेसबुक व अन्य सोशल साइट्स ने साहित्य को भी काफी समृध्द किया है। यहाँ नवोदित से लेकर स्थापित रचनाकारों का साहित्य देखा-पढ़ा जा रहा है। पत्र-पत्रिकाओं की पहुँच भले ही हजारों मात्र तक हो, पर यहाँ तो लाखों पाठक हैं। इनमें से कई पाठकों ने तो तमाम पत्र-पत्रिकाओं का नाम भी नहीं सुना होगा, पर सोशल साइट्स के माध्यम से वे भी इनसे रूबरू हो रहे हैं। अकादमिक बहसों का विस्तार अब फेसबुक व अन्य सोशल साइट्स पर भी होने लगा है। नारी विमर्श, बाल विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, विकलांग विमर्श, सब कुछ तो यहाँ है। आप इन्हें शेयर कर सकते हैं, लाइक कर सकते हैं, कमेन्ट कर सकते हैं, वाद-प्रतिवाद कर सकते हैं और आवश्यकतानुसार नई बहसों को भी जन्म दे सकते हैं। विचारों की दुनिया में क्रांति लाने वाला सोशल मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसकी न तो कोई सीमायें हैं, न कोई बंधन। भारत सहित दुनिया के विभिन्न देशों में न सिर्फ वैयक्तिक स्तर पर बल्कि राजनैतिक दलों के साथ-साथ कई सामाजिक और गैरसरकारी संगठन भी अपने अभियानों को मजबूती देने के लिए सोशल मीडिया का बखूबी उपयोग कर रहे हैं। सोशल मीडिया सिर्फ अपना चेहरा दिखाने का माध्यम नहीं है बल्कि इसने कई पंक्तियों व वैचारिक बहसों को भी रोचक मोड़ दिये हैं। जिन देशों में लोकतत्र का गला घोंटा जा रहा है वहाँ अपनी बात कहने के लिए लोगों ने सोशल मीडिया का लोकतंत्रीकरण भी किया है।“-3-
सोशल मीडिया का सर्वाधिक प्रयोग युवा वर्ग कर रहा है। व्हाट्स अप और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया साइट्स पर अत्यधिक समय व्यतीत करने से युवा वर्ग पर इसका नकारात्मक प्रभाव भी परिलक्षित होता है। जो समय पढ़ाई करने में व्यतीत होना चाहिए, उसका काफी कुछ हिस्सा सोशल मीडिया पर चला जाता है जिसका उन्हें कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह समय का अपव्यय है। “फेसबुक पर नित्य प्रोफाइल फोटो बदलना, दिन में कई बार स्टेट्स अपडेट करना, घंटों फेसबुक मित्रों के साथ चैटिंग करना जैसी आदतों ने युवा पीढ़ी को काफी हद तक प्रभावित किया है। घंटों तक फेसबुक पर चिपके रहने से न केवल उनकी पढ़ाई प्रभावित हो रही है बल्कि कुछ नया करने की रचनात्मकता भी खत्म हो रही है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से तमाम अश्लील सामग्री और भड़काऊ बातें भी लोगों तक प्रसारित की जा रही है,जो कि लोगों के मनोमस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालती हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने लोगों को वास्तविक जीवन की बजाय आभासी जीवन में रहने को मजबूर कर दिया है। यह एक ऐसा खेल बन चुका है, जहाँ एक दूसरे के साथ लाइक और शेयर के साथ सुख-दुख और सपने बांटे जाते हैं और अगले ही क्षण रिश्तों को ब्लाक भी कर दिया जाता है।“-4- कई बार युवाओं का मानसिकता पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। इस आभासी दुनिया में अनेक काल्पनिक चरित्र भी होते हैं जिन्हें कई बार वह सत्य मान लेते हैं और जब उनका इस वास्तविकता से साक्षात्कार होता है तो वह निराशा और अवसाद से घिर जाते हैं।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि लोकतंत्र को सफल बनाने में सोशल मीडिया की प्रमुख भूमिका है। सोशल मीडिया ने हर व्यक्ति को अपनी बात जनमानस और शासन तक पहुंचाने का अधिकार प्रदान कर दिया है। सूचना के आदान-प्रदान, जनमत तैयार करने, जनचेतना जागृत करने, विभिन्न क्षेत्रों और संस्कृतियों के लोगों को आपस में जोड़ने, विविध मुद्दों और आंदोलनों में भागीदार बनाने की दृष्टि से सोशल मीडिया एक सशक्त उपकरण है। लेकिन इसका सावधानीपूर्वक उपयोग करना भी आवश्यक है। सोशल मीडिया का दुरूपयोग कई विसंगतियों को जन्म देता है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में दंगों को भड़काने में सोशल मीडिया की अहम भूमिका रही थी, जिसमें सैकड़ों परिवारों को बेघर होना पड़ा। वहीं कई लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। कई बार सोशल मीडिया के माध्यम से नारी अस्मिता से खिलवाड़ किए जाने की घटनाएं भी सामने आईं हैं। सोशल मीडिया पर अधिक व्यस्त होना व्यक्ति को लक्ष्य से भटका सकता है। इसलिए आवश्यक है कि सरकार इस तरह की नीतियां बनाएं जिससे सोशल मीडिया का सदुपयोग किया जाना सुनिश्चित हो, तब यह लोकतंत्र, समाज, राष्ट्र और व्यक्ति के लिए निसंदेह हितकारी है।
संदर्भ-
1-https://hi.wikipedia.org/wiki/सामाजिक_मीडिया
2-उमेश कुमार राय, सोशल मीडिया का बढ़ता दायरा वरदान भी अभिशाप भी, साहित्य संहिता, वाल्यूम 3 अंक 1, http://sahityasamhita.org/2015/04/16/
3-कृष्ण कुमार यादव, अभिव्यक्ति को नई धार देता सोशल मीडियाhttp://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/9387/9/193#.VqxCJtJ961s
4-उपरोक्त
निवास का पता
डा. अशोक कुमार मिश्र
26 बी/194, गली नंबर सात
शिवशक्तिनगर, मेरठ – 250002 (उ.प्र.)

वेश्या एविलन रो का उपाख्यान: ब्रेख़्त की कविताएँ – – भारत कालरा

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वेश्या एविलन रो का उपाख्यान: ब्रेख़्त की कविताएँ 

– भारत कालरा 
‘वेश्या एविलन रो’ ब्रतोल्त ब्रेख़्त की एक प्रसिद्ध कविता है। दरअसल, यह एक उपाख्यान है। इस काव्यात्मक उपाख्यान में स्त्री की पीड़ा उसकी मुक्ति की आकांक्षा के स्वरों में सामने आती है। ‘वेश्या एविलन रो’ पुस्तक में ब्रतोल्त ब्रेख़्त की 20 कविताएँ हैं। ब्रेख़्त की कविताओं और उनके नाटकों का हिन्दी में काफी अनुवाद हुआ है। ब्रेख़्त एक ऐसे कवि हैं जिनसे हिन्दी लेखकों-कवियों की कई पीढ़ियाँ बेहद लगाव महसूस करती रही हैं और उनसे रचनात्मक ऊर्जा हासिल करती रही हैं। लेकिन आम पाठकों तक ब्रेख़्त की कविताएँ कम ही पहुँच पाई हैं। इस संग्रह के आने से यह उम्मीद बँधी है कि ब्रेख़्त की कविताएँ आम पाठकों तक पहुँच सकेंगी और युवा पीढ़ी इन कविताओं से परिचित हो सकेगी। 
ब्रेख़्त की कविताओं, कहानियों और नाटकों का दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी के पाठकों के लिए विजेंद्र , अरुण माहेश्वरी, नीलाभ, सुरेश सलिल, मोहन थपलियाल,उज्ज्वल भट्टाचार्य जैसे साहित्यकारों ने ब्रेख्त की कविताओं और कहानियों के अनुवाद किए हैंl गुलज़ार ने भी ब्रेख्त के नाटक ‘ही हू सेज़ यस एंड ही हू सेज़ नो’ का बच्चों के लिए ‘ अगर और मगर‘ नाम से अनुवाद किया है। बहरहाल, वीणा भाटिया द्वारा किया गए इस अनुवाद का महत्त्व कुछ अलग है तो इसलिए, क्योंकि ब्रेख़्त की ये कविताएँ पहली बार हिन्दी पाठकों के सामने आई हैं। इन चुनिन्दा कविताओं का अनुवाद 1983-84 के दौरान किया गया। खास बात यह है कि अनुवाद के लिए कविताओं का चुनाव गोरख पाण्डेय ने किया था। इसके बारे में वीणा भाटिया ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है, “एक दिन गोरखजी आए तो मैं ब्रेख़्त की कविताएँ पढ़ रही थी। उन्होंने मुझसे ब्रेख़्त की कविता ’द ब्रेड एंड द चिल्ड्रन’ पढ़ने को कहा। मैंने कविता पढ़ी और बाद में उसका अनुवाद भी किया। कुछ दिनों बाद मिलने मैंने वह अनुवाद दिखाया। मेरे किए अनुवाद को देख कर गोरख पाण्डेय मुस्कुराते हुए बोले – वाह साथी! और फिर उन्होंने अनूदित कविता पर अपनी कलम चलाई। इसके साथ ही चल पड़ा अनुवाद का सिलसिला।” ये कविताएँ गोष्ठियों में पढ़ी जाती रहीं, सुनी-सुनाई जाती रहीं। 
पुस्तक गोरख पाण्डेय की स्मृति में प्रकाशित हुई, यह एक खास बात है। बहरहाल, अनुवाद के लिए ब्रेख़्त की जिन कविताओं का चयन गोरख पाण्डेय ने किया, उससे पता चलता है कि उन्होंने चौतरफा संकट से घिरे, अस्तित्व के लिए जूझते और संघर्ष करते लोगों की गाथा सामने लाने की कोशिश की थी। ब्रेख़्त का रचना-कर्म बहुत ही व्यापक और बहुआयामी है। उनमें से प्रासंगिक चयन गोरख पाण्डेय जैसे क्रान्तिकारी कवि ही कर सकते थे। ‘वेश्या एविलन रो’ का उपाख्यान ही पाठकों को बेचैन कर देगा। पूँजीवादी व्यवस्था में श्रमिक वर्ग के साथ स्त्री का उत्पीड़न एक ऐसा सच है, जिससे मुँह नहीं चुराया जा सकता। इस संग्रह में शामिल कई कविताओं में यह सच उभर कर सामने आया है। ब्रेख़्त की इन कविताओं से गुज़रना बहुत आसान नहीं है। यह एक यंत्रणादायी प्रक्रिया है। जहाँ शब्द नश्तर बन जाते हैं, जहाँ उदासी लगता है मानो धरती से आकाश तक छा गई है, जहाँ अंतहीन बेचैनियाँ हैं, तो ये कविताएँ पाठकों को एक भयानक संसार में लेकर जाती हैं। वहाँ सवाल हैं, सवाल हैं भूखे बच्चों के, ‘अबोध छालटी की पतित पावनी’ है। इस ‘पेचीदी दुनिया में’ ‘प्रिया के वास्ते गीत’है तो ‘माँ के लिए शोकगीत’। ‘बुढ़िया का विदागीत’ है तो ‘बच्चों की रोटी’ का भी सवाल है।‘शहर के बाहर जमा आठ हज़ार ग़रीबों का हुजूम’ है तो ‘भव्य तोरण के नीचे अज्ञात सैनिक का व्याख्यान’ भी हो रहा है। वहीं, ‘तीन सौ हलाक कुलियों का अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के नाम प्रतिवेदन’ है। ब्रेख़्त की कविताओं में ‘लोरियाँ’ हैं, ‘क्रान्ति के अनजान सिपाही की समाधि का पत्थर’ है तो ‘देशवासियों’ से ‘जनता की रोटी’ का सवाल भी है। 
ये ब्रेख़्त के विपुल रचना-संसार से एक अति संक्षिप्त चयन है, पर उनके जैसे क्रान्तिकारी कवि की रचनधर्मिता का पूरा आस्वाद कराने वाला। अनुवाद दरअसल पुनर्रचना है। कविता की पुनर्रचना असंभव-सी बात होती है। पर यह ज़रूरत है। वीणा भाटिया ने अनुवादक के धर्म का ईमानदारी से निर्वाह किया है, इसका पता कविताओं के पाठ से चलता है। उनमें जो सहज प्रवाह है, उससे कविता हमारे समय से और हमारी निजता से भी अनायास जुड़ जाती है। इस संग्रह की कुछ कविताएँ पहले पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुकी हैं। 
हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण कवि विजेन्द्र ने लिखा है, “यह सवाल बार बार उठेगा कि आखिर ब्रेख्त को आज पढ़ना समझना क्यों जरूरी है। जिन संकटापन्न तथा त्रासद हालात में ब्रेख़्त ने अपना कवि कर्म किया, आज भी हालात वैसे ही हैं। पूँजीकेंद्रित व्यवस्थाएँ अपने चरम पर मनुष्य का शोषण कर रही हैं। साम्राज्यवाद नये रूप में पहले से भी अधिक आक्रामक और एकध्रुवीय हुआ है। सर्वहारा के पक्षधर कवि के सामने बड़ी चुनौतियाँ तथा जोखिम आज भी बदस्तूर हैं। ऐसे में, ब्रेख्त को पढ़ना हमें अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग करेगा। हमें हर प्रतिकूल स्थिति में अपनी वैचारिक आस्था को बनाए रखने के लिये प्रेरित करेगा।“ उल्लेखनीय है कि विजेन्द्र ने ब्रेख़्त की कविताओं के अनुवाद किए हैं और उनकी रचनाधर्मिता पर लिखा भी है। 
ब्रेख़्त एक बेहद जटिल समय के कवि हैं। जब वे लिख रहे थे, जनपक्षधर तथा लोकधर्मी कवियों के लिए परिस्थितियाँ जानलेवा और जोखिम से भरी हुई थीं। फासिज़्म के उभार ने पूरी दुनिया के लेखकों के लिये विकल्प की चुनौती खड़ी कर दी थी। आज ये चुनौती हमारे सामने बहुत ही तल्ख़ रूप में उभर कर आई है। ब्रेख़्त के समय में सवाल था कि लेखक तटस्थ रहें, लोकतंत्र और समाजवाद के लिए जनता के साथ संघर्ष में शरीक हों या फासिज़्म को स्वीकार करें। वे इन दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों के लिये बहुत चिंतित थे। ब्रेख्त के नाटकों और कविताओं में जो यथार्थ सामने आया है, वह इतिहास की इन्हीं परिस्थितियों की देन है। 
ब्रेख़्त ने ज्यादातर छोटी कविताएँ लिखी हैं। इस संग्रह में जिन कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत किया गया है, वे अपेक्षाकृत बड़ी या लम्बी कविताएँ हैं। ये जटिल उपबंधों की कविताएँ हैं। ऐसी कविताओं का अनुवाद करना बहुत आसान नहीं होता। वीणा भाटिया ने अनुवाद के लिए इन कविताओं का चयन किया, इसके पीछे सम्भवत: एक बात यह भी है कि ज्यादातर अनुवादकों ने इन्हें छोड़ दिया था। बहरहाल, जटिल और लम्बी कविताओं के अनुवाद में भी उन्होंने सहजता और प्रवाह बनाए रखा है। कविताएँ संप्रेषणीय हैं। उनमें दुरूहता और बोझिलता नहीं है। संग्रह में शामिल तीन कविताओं के अंश – 

‘वेश्या एविलन रो’

मैं आपको

कभी नहीं मिल पाऊंगी

क्राइस्ट मेरे प्रभु

आप एक वेश्या की खातिर

तो नहीं आ सकेंगे न,

और मैं

अब एक बदनाम औरत हूँ

मस्तूलों के दरमियान

वह घंटों भागती

उसका दिल दुखता था

उसके पैर दुखते थे

जब तक कि

एक अन्धेरी रात में

जब उसे कोई नहीं देख रहा था

खुद-ब-खुद

वह उस तट को ढूंढने निकल गई।

‘बच्चों की रोटी’

धर्म के महन्तों ने

बच्चों के भूख से तड़पते हुए देखा

जिनके चेहरे पीले और कुम्हालाये हुए थे

उन्होंने

उन बच्चों के कुछ भी नहीं दिया

भूखा तड़पने दिया

संकट अब आ पहुंचा

अब वे रोटी के छिलके की खातिर लड़ेंगे

और महज गंधों से भूख शान्त करेंगे।

रोटी तो

पशुओं के खिलाई जा चुकी है

वह सड़ गई थी

और बहुत सूखी भी

इसलिए

हे ईश्वर

तुम अपनी दुनिया में

उनकी खातिर थोड़ी रोटी बचा रखना।

‘माँ के लिए शोकगीत’

उसकी वेदनाओं का ओर-छोर नहीं था

मौत जिसके जीवन से

कतई शर्मिन्दा नहीं थी

और तब

वो मर गयी

और तब उन्हें लगा

उसका जिस्म

एक बच्चा था।

वह वन में पली पुसी

उन चेहरों के बीच मरी

जिन्होंने उसे हमेशा

मरते देखा था।

और वे बेहिस थे

कौन क्षमा करता था उसे

उसके दुख लिए

फिर भी वह

घूमती फिरी

उन्हीं चेहरों के इर्द गिर्द

जब तक मर ही न गयी।

संग्रह में शामिल सभी कविताओं के अनुवाद में यह सहज बोधगम्यता दिखाई पड़ती है।

संग्रह में गोरख पाण्डेय पर एक परिशिष्ट है, जिसमें उनके दो साथियों के लेख हैं। मनोज कुमार झा ने ‘स्वप्न और क्रान्ति के कवि गोरख पाण्डेय’ लेख में उनकी रचनाधर्मिता और सरोकारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है, साथ ही प्रगतिशील-जनवादी साहित्य आन्दोलन से जुड़े कुछ ज्वलंत सवाल भी उठाए हैं। उनके दूसरे साथी प्रोफेसर ईश मिश्र ने ‘सामाजिक बदलाव के कवि गोरख’ में लिखा है कि गोरख पाण्डेय की कविताएँ आम जन को अनंत काल तक जगाती रहेंगी।

कहा जा सकता है कि ब्रेख़्त की इन कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत कर के वीणा भाटिया ने अपनी ‘लिटटरी एक्टिविस्ट’ की भूमिका का निर्वाह किया है। इससे निस्संदेह नई पीढ़ी को मानसिक खुराक और ऊर्जा मिलेगी।

पुस्तक – वेश्या एविलन रो – ब्रतोल्त ब्रेख़्त की कविताएँ

अनुवाद : वीणा भाटिया

प्रकाशक : वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर

मूल्य : 70 रुपए

प्रथम संस्करण : 2016