प्रज्ञा जी की पांच कविताएँ-
1 चंदा
कैसे बिसराउँ?
कैसे बिसराउँ?
बित्ते
भर की छोरी
भर की छोरी
आग
लगे तेरी जबान मे
लगे तेरी जबान मे
न
हैसियत देखती है न सच
हैसियत देखती है न सच
बस
तुझे चाहिए चंदा
तुझे चाहिए चंदा
कोई
खिलौना है क्या?
खिलौना है क्या?
ताड़
सी लम्बी हो गयी
सी लम्बी हो गयी
पर
जिद्द तो देखो तुझसे भी दो हाथ आगे
जिद्द तो देखो तुझसे भी दो हाथ आगे
एक
ही जिद चंदा की रट
ही जिद चंदा की रट
खिड़की
से देख ले न जी भर
से देख ले न जी भर
बाज़ार
में दाम चडा है तेरे चंदा का।
में दाम चडा है तेरे चंदा का।
रो
न बिटिया चली जा
न बिटिया चली जा
अपने
घर
घर
भूल
जा चंदा को
जा चंदा को
मै
भी भूल गयी थी देहरी लांघकर
भी भूल गयी थी देहरी लांघकर
जानती
है न
है न
रात
के चंदा को सुबह का सूरज निगल जाता है।
के चंदा को सुबह का सूरज निगल जाता है।
अम्मा
मन
में बसा आँख में चमकता
में बसा आँख में चमकता
जुबान
से फिसलता हथेली पे रचा
से फिसलता हथेली पे रचा
सपनो
में हुलसता
में हुलसता
चंदा
कैसे बिसराउँ ?
कैसे बिसराउँ ?
मेरी
आखिरी सांस की आस है
आखिरी सांस की आस है
चंदा
है
किसी देबता में हिम्मत
किसी देबता में हिम्मत
जो
निगल जाए इसे मेरे संग पूरा।
निगल जाए इसे मेरे संग पूरा।
(प्रज्ञा)
2 दो
बहनें
बहनें
एक
छोटी -सी चारपाई पर
छोटी -सी चारपाई पर
लकीरों
वाली चादर बिछाकर
वाली चादर बिछाकर
हम
खींचते थे सरहदें
खींचते थे सरहदें
तेरी
और मेरी आज़ादी की..
और मेरी आज़ादी की..
नींद
की आगोश में जाने से पहले
की आगोश में जाने से पहले
थे
हमारे अनगिनत झगड़े
हमारे अनगिनत झगड़े
आज़ादी
के।
के।
चारपाई
मन में कितना हंसती होगी
मन में कितना हंसती होगी
मुझ
पर ,तुझ पर
पर ,तुझ पर
अपने
बान को कसने वाले हर इंसान पर
बान को कसने वाले हर इंसान पर
वो
मज़बूत हाथों से बंधा बान था
मज़बूत हाथों से बंधा बान था
जो
नहीं छोड़ता था कोई झोल
नहीं छोड़ता था कोई झोल
दीखता
था एकदम कसा
था एकदम कसा
पर
था तो बान ही …कोई इस्पाती चादर नहीं
था तो बान ही …कोई इस्पाती चादर नहीं
सीमेंट
की स्लैब भी नहीं
की स्लैब भी नहीं
नींद
की आगोश में जाते -जाते
की आगोश में जाते -जाते
अचानक
झूला बन जाता था
झूला बन जाता था
हवा
हो जाती थी सारी लड़ाई
हो जाती थी सारी लड़ाई
खो
जाती थीं तमाम सरहदें
जाती थीं तमाम सरहदें
और
तेरी -मेरी आज़ादी
तेरी -मेरी आज़ादी
हमारी
आज़ादी बन जाती..
आज़ादी बन जाती..
सोते
हुए हम साथ भरते थे
हुए हम साथ भरते थे
ऊँची
..बहुत ऊँची पींगें
..बहुत ऊँची पींगें
जो
जाती सात आसमां पार
जाती सात आसमां पार
और
हमारी आज़ादी की चीख
हमारी आज़ादी की चीख
उससे
भी सात आसमां पार।
भी सात आसमां पार।
हर
सुबह माँ को मिलतीं
सुबह माँ को मिलतीं
पालना
बनी चारपाई में
बनी चारपाई में
गलबहियां
डाले
डाले
मीठे
सपनों में डूबी
सपनों में डूबी
दो
बहनें।
बहनें।
3 रॉस
आइलैंड को देखकर
आइलैंड को देखकर
तुम
घर बसाने नहीं आये थे
घर बसाने नहीं आये थे
घर
सपना होते हैं।
सपना होते हैं।
अपना
घर छोड़ हुकूमत को तुमने पैर पसारे
घर छोड़ हुकूमत को तुमने पैर पसारे
हमारी
खूबसूरत ज़मीनों को आँखों में भरा
खूबसूरत ज़मीनों को आँखों में भरा
धरती
की गंध को अपने नथुनों में
की गंध को अपने नथुनों में
लहरों
के परों पर सवार
के परों पर सवार
झट
इसे हथिया लिया।
इसे हथिया लिया।
ईंट, गारा, पत्थर
उठाने ,
उठाने ,
इमारत
बनाने को मज़दूर मुफ्त मिले
बनाने को मज़दूर मुफ्त मिले
जेलयाफ़्ता
कैदी तुम्हारे हुकुम बजाते
कैदी तुम्हारे हुकुम बजाते
तुम्हारी
बगिया सींचते
बगिया सींचते
तुम्हारे
हर ज़ुल्म के बदले फूल खिलाते।
हर ज़ुल्म के बदले फूल खिलाते।
उनके
दिमाग में चल रही क्रान्ति की उधेड़बुन से
दिमाग में चल रही क्रान्ति की उधेड़बुन से
तुम्हारा
क्या वास्ता?
क्या वास्ता?
तुम्हें
मतलब उनके हाथ और पाँव से
मतलब उनके हाथ और पाँव से
उनके
खून और पसीने से
खून और पसीने से
तुम
उनके दिमाग के दुश्मन थे
उनके दिमाग के दुश्मन थे
दिमाग
, जो
मुक्ति की राह बुनते।
, जो
मुक्ति की राह बुनते।
उधेड़ने
-बुनने वाली सलाइयां तुमने मिटा डालीं
-बुनने वाली सलाइयां तुमने मिटा डालीं
या
भौंक दीं सपने देखने वाली आँखों में।
भौंक दीं सपने देखने वाली आँखों में।
ज़िन्दगी
का बहुत छोटा -सा सच तुम नहीं जान पाए
का बहुत छोटा -सा सच तुम नहीं जान पाए
आँखें
खत्म होने पर भी सपने कहाँ मरते हैं?
खत्म होने पर भी सपने कहाँ मरते हैं?
तुम
बनाते गये इमारत दर इमारत।
बनाते गये इमारत दर इमारत।
द्वीपों
की कायनात में अपनी बस्तियां बसा लीं
की कायनात में अपनी बस्तियां बसा लीं
धरती
की सुकून भरी सुंदर गोद में
की सुकून भरी सुंदर गोद में
तुम
महफिलें सजाते
महफिलें सजाते
तुम
जीत का जश्न मनाते
जीत का जश्न मनाते
ताल, लय और मुद्राओं से भरकर
तुम
बनाते हर हफ्ते की रंगारंग सूचियां
बनाते हर हफ्ते की रंगारंग सूचियां
उनके
मुताबिक खान- पान
मुताबिक खान- पान
ऐशो
आराम।
आराम।
बिजली, पानी के संयंत्र से सुसज्जित
बन
गया ये द्वीप
गया ये द्वीप
एशिया
का पेरिस।
का पेरिस।
तुम्हारी
गिरफ्त में हमारी धरती की देन
गिरफ्त में हमारी धरती की देन
उसका
अमर कोष
अमर कोष
और
अभूतपूर्व सौंदर्य के बीच तुम राजा
अभूतपूर्व सौंदर्य के बीच तुम राजा
हम
चाकर
चाकर
हम
दास।
दास।
हर
ज़ुल्म के बाद भी बने रहे तुम धार्मिक
ज़ुल्म के बाद भी बने रहे तुम धार्मिक
बड़े
आस्थावान
आस्थावान
गिरजे
में प्रार्थना के पाबन्द।
में प्रार्थना के पाबन्द।
आज
इतने सालों बाद यहाँ कोई नहीं
इतने सालों बाद यहाँ कोई नहीं
मीलों
उजाड़ पसरा है।
उजाड़ पसरा है।
समय
मिटा देता है ऐशो आराम के सब निशाँ
मिटा देता है ऐशो आराम के सब निशाँ
क्रूरताओं
की मिसालें।
की मिसालें।
तुम
नहीं, कोई
महफ़िल नहीं
नहीं, कोई
महफ़िल नहीं
तुम्हारा
कोई नाम भी नहीं
कोई नाम भी नहीं
सिवाय
उन कब्रों के
उन कब्रों के
जिनमें
तुम्हारे नन्हें बच्चे , नौजवानऔर औरतें
तुम्हारे नन्हें बच्चे , नौजवानऔर औरतें
जाने
कबसे सो रहे हैं
कबसे सो रहे हैं
हमने
कभी नहीं जगाया उन्हें।
कभी नहीं जगाया उन्हें।
पृथ्वी
के नियम इंसान तय नहीं करता
के नियम इंसान तय नहीं करता
तुम्हारी
हर इमारत हमारी प्रकृति की गिरफ्त में है
हर इमारत हमारी प्रकृति की गिरफ्त में है
नंगी
इमारतों में छत के बिना
इमारतों में छत के बिना
आसमान
घुसा चला आया है
घुसा चला आया है
दरों
-दीवार पेड़ों ने कब्जा लिये हैं
-दीवार पेड़ों ने कब्जा लिये हैं
मिट
रहीं इमारतों में दिखती हैं पेड़ों की जड़ें
रहीं इमारतों में दिखती हैं पेड़ों की जड़ें
जड़ों
में और -और फूट आईं जड़ें
में और -और फूट आईं जड़ें
अनगिनित, अंतहीन
धरती
जैसे अन्यायी को सजा देने निकली।
जैसे अन्यायी को सजा देने निकली।
धरती
का सब क्रोध, पीड़ा
के उफान को लिए
का सब क्रोध, पीड़ा
के उफान को लिए
जड़ें
चढ़ती चली आ रही हैं
चढ़ती चली आ रही हैं
फ़ैल
गईं हैं रास्तों में,
गईं हैं रास्तों में,
खा
गई तुम्हारी महफिलों के हर नक्श
गई तुम्हारी महफिलों के हर नक्श
जमीन
फोड़कर चिल्लाती बढ़ी चली आ रही हैं
फोड़कर चिल्लाती बढ़ी चली आ रही हैं
जाने
कबसे।
कबसे।
शायद
ये प्रतिशोध है
ये प्रतिशोध है
तुम्हारी
बर्बर क्रूरताओं से भी सघन
बर्बर क्रूरताओं से भी सघन
तुम्हारे
अट्टहास के मुकाबिले शांत
अट्टहास के मुकाबिले शांत
पर
भीतर की घुटन और गुबार को पटकता
भीतर की घुटन और गुबार को पटकता
बरसों
जो दफन रहा धरती के दिल में
जो दफन रहा धरती के दिल में
तमाम
क्रंदन फ़ैल गया चहुँ ओर।
क्रंदन फ़ैल गया चहुँ ओर।
हाय!
तुम अपनी सम्पूर्ण यशगाथाओं के संग
तुम अपनी सम्पूर्ण यशगाथाओं के संग
अमर
नहीं हुए…
नहीं हुए…
धरती
, फोड़ दी
गयी आँखों का सपना लेकर
, फोड़ दी
गयी आँखों का सपना लेकर
दोबारा
जन्मी है।
जन्मी है।
मुझे
लगता है
लगता है
धरती
भी जैसे समय है
भी जैसे समय है
वो
हर ताकत को
हर ताकत को
जो
दम्भ मेंफूली इतराती है
दम्भ मेंफूली इतराती है
उसकी
माकूल जगह दिखाती है।
माकूल जगह दिखाती है।
4 कालापानी
तीन
दीवारों पर आज तलक
दीवारों पर आज तलक
चिपकी
हैं पीड़ा की अनन्त गाथाएं
हैं पीड़ा की अनन्त गाथाएं
काई
सनी दीवारों की पतली ईंटों के बारीक सुराखों
सनी दीवारों की पतली ईंटों के बारीक सुराखों
के
बीच से
बीच से
सर
उठाते हैं अनगिनत चेहरे
उठाते हैं अनगिनत चेहरे
चेहरे
बोलते नहीं
बोलते नहीं
बोलती
हैं चुप्पियां।
हैं चुप्पियां।
पानी
में रात भर डुबोई बेंत से
में रात भर डुबोई बेंत से
पीठ
पर बही आई लहू की नदियां
पर बही आई लहू की नदियां
रात
को बेतरह चीखती हैं ।
को बेतरह चीखती हैं ।
लोहे
की मज़बूत सलाखों के सामने भी
की मज़बूत सलाखों के सामने भी
सिर्फ
दीवारें ही दीवारें
दीवारें ही दीवारें
जख्म
सहलाना तो दूर, उनकी
आवाज़ भी नहीं
सहलाना तो दूर, उनकी
आवाज़ भी नहीं
पहुंचती
कहीं।
कहीं।
सुबह
से कोल्हू में तेल पिराती उँगलियों
से कोल्हू में तेल पिराती उँगलियों
की
समुद्र तल से उठती कराह
समुद्र तल से उठती कराह
आदमी
के दुस्साहस की मिसाल ही तो है ।
के दुस्साहस की मिसाल ही तो है ।
आदमी
जिसे खत्म करने को आदमी आमादा है
जिसे खत्म करने को आदमी आमादा है
वो
ज़िंदा मौत का परवाना रोज़ निकालता है
ज़िंदा मौत का परवाना रोज़ निकालता है
अट्टहास
करता है इंसानों के टूट जाने पर
करता है इंसानों के टूट जाने पर
आदमी
के अपमान की
के अपमान की
सैकडों
कहानियां यहाँ दर्ज हैं।
कहानियां यहाँ दर्ज हैं।
इस
इतिहास पर गर्व करता है जालिम।
इतिहास पर गर्व करता है जालिम।
इंसान
बेशर्मी से
बेशर्मी से
जिंदा
रहकर करता है
रहकर करता है
नाफ़रमानी।।
5 दो रंग
तुम्हारे
मन का हरा रंग
मन का हरा रंग
मेरे
मन पर पड़े बेजान पीले पत्ते बुहार देता है
मन पर पड़े बेजान पीले पत्ते बुहार देता है
तुम्हारी
उभरी नसों की नीलाई
उभरी नसों की नीलाई
कौंध
कर मेरे दिमाग में बन जाती है विचार
कर मेरे दिमाग में बन जाती है विचार
तुम्हारी
रक्ताभ हथेलियाँ
रक्ताभ हथेलियाँ
जब
थाम लेती हैं मेरी बाहें
थाम लेती हैं मेरी बाहें
खिल
जाता है विराट इंद्रधनुष।
जाता है विराट इंद्रधनुष।
रंगों
की इस दुनिया में
की इस दुनिया में
एक
रंग तेरा
रंग तेरा
एक
रंग मेरा
रंग मेरा
मिलकर
खिला देते हैं हज़ारों रंग।
खिला देते हैं हज़ारों रंग।
ये
रंग मिलकर न जाने कहाँ से ले आते हैं
रंग मिलकर न जाने कहाँ से ले आते हैं
ढेर
सा उजाला
सा उजाला
हंसी
की खनक।
की खनक।
कैसे
आँखों में उतर आती है
आँखों में उतर आती है
चिरकाल
से बहती कोई अजस्र धार।
से बहती कोई अजस्र धार।
तब
हमारे सपनों की दुनिया के रंग
हमारे सपनों की दुनिया के रंग
अचानक
कुछ
और चटख हो जाते हैं।।
और चटख हो जाते हैं।।
दुनियाँ की ताकतवर भाषाओं में हिंदी शामिल, सूची में मिला 10वां स्थान
दुनिया की 10 ताकतवर भाषाओं में अब हिंदी भी शामिल हो गई है। हिंदी को 10वें नबर पर रखा गया है। इन भाषाओं को पांच मानकों पर तय किया गया है। जिसमें भौगोलिक, आर्थिक, संचार, मीडिया और डिप्लोमेसी को आधार बनाया गया।
“वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम” के द्वारा 6 आधार पर 6000 भाषाओं का अध्ययन कर एक रिपोर्ट तैयार किया गया है, जिसमें हिंदी को 10वां स्थान प्राप्त हुआ. अंग्रेजी को इस सूची में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ, जबकि मैंडरिन को दूसरा स्थान मिला है. इस सूची में जापानी, पुर्तगाली, स्पैनिश, फ्रेंच, अरबी और रुसी भाषा शामिल है.
अभी हिंदी के समक्ष कई चुनौतियाँ है फिर भी हम आशा करते हैं कि कुछ वर्षों में हिंदी विश्व की अग्रणी भाषा बनेगी.
आयलान: हेमन्त बावनकर
आयलान
(विगत
सितंबर 2015 की एक सुबह एक तीन वर्षीय सीरियाई बालक आयलान का मृत शरीर तुर्की के
समुद्र तट पर लावारिस हालात में मिला। उसे भले ही विश्व भूल गया हो किन्तु वह जो
प्रश्न अपने पीछे छोड़ गया है उन्हें कोई नहीं भूल सकता।)
सितंबर 2015 की एक सुबह एक तीन वर्षीय सीरियाई बालक आयलान का मृत शरीर तुर्की के
समुद्र तट पर लावारिस हालात में मिला। उसे भले ही विश्व भूल गया हो किन्तु वह जो
प्रश्न अपने पीछे छोड़ गया है उन्हें कोई नहीं भूल सकता।)
धीर
गंभीर
गंभीर
समुद्र
तट
तट
और
उस पर
उस पर
औंधा
लेटा,
लेटा,
नहीं-नहीं
समुद्री
लहरों द्वारा
लहरों द्वारा
जबरन
लिटाया गया
लिटाया गया
एक
निश्चल-निर्मल-मासूम
निश्चल-निर्मल-मासूम
‘आयलान’!
वह
नहीं जानता
नहीं जानता
कैसे
पहुँच गया
पहुँच गया
इस
निर्जन तट पर।
निर्जन तट पर।
कैसे
छूट गई उँगलियाँ
छूट गई उँगलियाँ
भाई-माँ-पिता
की
की
दुनिया
की
की
सबको
बिलखता छोड़।
बिलखता छोड़।
वह
तो निकला था
तो निकला था
बड़ा
सज-धज कर
सज-धज कर
देखने
एक
नई दुनिया
नई दुनिया
सुनहरी
दुनिया
दुनिया
माँ
बाप के साये में
बाप के साये में
खेलने
नए
देश में
देश में
नए
परिवेश में
परिवेश में
नए
दोस्तों के साथ
दोस्तों के साथ
बड़े
भाई के साथ
भाई के साथ
जहां
सुनाई
न दे
न दे
गोलियों
की आवाज
की आवाज
किसी
के चीखने की आवाज।
के चीखने की आवाज।
सिर्फ
और सिर्फ
और सिर्फ
सुनाई
दे
दे
चिड़ियों
की चहचाहट
की चहचाहट
बच्चों
की किलकारियाँ।
की किलकारियाँ।
बच्चे
चाहे
वे किसी भी रंग के हों
वे किसी भी रंग के हों
चाहे
वे किसी भी मजहब के हों
वे किसी भी मजहब के हों
क्योंकि
वह
नहीं जानता
नहीं जानता
और
जानना भी नहीं चाहता
जानना भी नहीं चाहता
कि
देश
क्या होता है?
क्या होता है?
देश
की सीमाएं क्या होती हैं?
की सीमाएं क्या होती हैं?
देश
का नागरिक क्या होता है?
का नागरिक क्या होता है?
देश
की नागरिकता क्या होती है?
की नागरिकता क्या होती है?
शरण
क्या होती है?
क्या होती है?
शरणार्थी
क्या होता है?
क्या होता है?
आतंक
क्या होता है?
क्या होता है?
आतंकवादी
क्या होता है?
क्या होता है?
वह
तो सिर्फ यह जानता है
तो सिर्फ यह जानता है
कि
धरती
एक होती है
एक होती है
सूरज
एक होता है
एक होता है
और
चाँद
भी एक होता है
भी एक होता है
और
ये
सब मिलकर सबके होते हैं।
सब मिलकर सबके होते हैं।
साथ
ही
ही
इंसान
बहुत होते हैं।
बहुत होते हैं।
इंसानियत
सबकी एक होती है।
सबकी एक होती है।
फिर
पता
नहीं
नहीं
पिताजी
उसे क्यों ले जा रहे थे
उसे क्यों ले जा रहे थे
दूसरी
दुनिया में
दुनिया में
अंधेरे
में
में
समुद्र
के पार
के पार
शायद
वहाँ
गोलियों की आवाज नहीं आती हो
गोलियों की आवाज नहीं आती हो
किसी
के चीखने की आवाज नहीं आती हो
के चीखने की आवाज नहीं आती हो
किन्तु, शायद
समुद्र
को यह अच्छा नहीं लगा।
को यह अच्छा नहीं लगा।
समुद्र
नाराज हो गया
नाराज हो गया
और
उन्हें उछालने लगा
उन्हें उछालने लगा
ज़ोर
ज़ोर से
ज़ोर से
ऊंचे
बहुत
ऊंचे
ऊंचे
अंधेरे
में
में
उसे
ऐसे पानी से बहुत डर लगता है
ऐसे पानी से बहुत डर लगता है
और
अंधेरे
में कुछ भी नहीं दिख रहा है
में कुछ भी नहीं दिख रहा है
उसे
तो उसका घर भी नहीं दिख रहा था
तो उसका घर भी नहीं दिख रहा था
माँ
भी नहीं
भी नहीं
भाई
भी नहीं
भी नहीं
पिताजी
भी नहीं
भी नहीं
फिर
क्योंकि
वह सबसे छोटा था न
वह सबसे छोटा था न
और
सबसे
हल्का भी
हल्का भी
शायद
इसलिए
समुद्र
की ऊंची-ऊंची लहरों नें
की ऊंची-ऊंची लहरों नें
उसे
चुपचाप सुला दिया होगा
चुपचाप सुला दिया होगा
इस
समुद्र तट पर
समुद्र तट पर
बस
अब
पिताजी आते ही होंगे ………. !
पिताजी आते ही होंगे ………. !
हेमन्त बावनकर,
804-ए
इवी बोटानिका, इवी इस्टेट,
जे.एस.पी.एम.कॉलेज के पास, वाघोली,
पुणे -412207 भारत
इवी बोटानिका, इवी इस्टेट,
जे.एस.पी.एम.कॉलेज के पास, वाघोली,
पुणे -412207 भारत
मोबाइल
+49-16093331177/+49-1711618489/+91-9833727628
+49-16093331177/+49-1711618489/+91-9833727628
भूमण्डीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी की चुनौतियाँ और संभावनाएँ: दिग्विजय शर्मा
भूमण्डीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी की
चुनौतियाँ और संभावनाएँ
चुनौतियाँ और संभावनाएँ
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bfrgkl cgqr iqjkuk ugha gSA ijarq blds fo’k;oLrq ds Li’Vhdj.k esa tgka O;kid
Qyd miyC/k gksxk] ogha mu dkjdksa dh tkudkjh Hkh fey ldsxh] ftuls la?k’kZ ;k
lg;ksx dj fganh esa izoklh lkfgR; dk l`tukRed ys[ku vkt viuh igpku ik jgk gSA
lkfgR; dh igpku dk ,d vyx lksiku baVjusV ij izoklh fganh lkfgR; Hkh gSA bl rjg
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vuqlkj& fo”o esa fganh tkuus okyksa dh la[;k ,d vjc nks djksM+ iPphl yk[k
nl gtkj Ng lkS ianzg gSA tcfd phuh tkuus okyksa dh la[;k uCcs djksM+ pkj yk[k
Ng gtkj Ng lkS ianzg gSA Hkkjr esa bls cksyus o le>us okys vLlh djksM+ ipkl
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gh gS] u fd phuhA gjegsanz flag osnh ds vuqlkj& ßoS”ohdj.k ds bl nkSj esa
fganh cgqr cM+h Hkwfedk fuHkkus tk jgh gSA ;g Hkwfedk lkdZ ns”kksa dh ,dek=
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fuHkZj dj ldrs gSa rks og fganh gh gksxhA D;ksafd ckaXykns”k] HkwVku] usiky]
Jhyadk o ikfdLrku bl Hkk’kk dks lgt esa gh viuk ldrs gSaA
fdlh Hkh
jk’Vª ds fy, ;g xkSjo dh ckr gS fd mldh Hkk’kk dk fons”kksa esa Hkh
v/;;u&v/;kiu fd;k tk jgk gSA Hkkjr ,slk gh xkSjo”kkyh jk’Vª gSA vkt fganh
dsoy Hkkjr esa gh ugha i<+h ;k i<+kbZ tkrh oju~ fons”kh Hkh blds
v/;;u&v/;kiu esa jr gSaA vkt fo”o ds yxHkx 150 fo”ofo|ky;ksa rFkk lSdM+ksa
NksVs&cM+s dsanzksa esa fo”ofo|ky; Lrj ls ysdj vuqla/kku Lrj rd fganh ds
v/;;u&v/;kiu dh O;oLFkk gSA bruk gh ugha Hkkjr ds fganh {ks=ksa dks NksM+dj
:l fo”o dk igyk ns”k gS tgka fganh Hkk’kk vkSj lkfgR; dk O;kid vk/kkj ij v/;;u]
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gSaA lcls T;knk dgkuh] dfork] ukVd] laLej.k ,oa Kku&foKku dh fdrkcsa fganh
Hkk’kk esa gh Nirh gSaA vkt fganh Hkk’kk ,oa lkfgR; dh xfjek dks vkyksfdr djus
ds fy, ikap lkS ls vf/kd i=&if=dk,sa Ni jgh gSaA fofHkUu fo’k;ksa ij fganh
esa jkst yxHkx ipkl fdrkcsa Ni dj cktkj esa vk tkrh gSaA nqfu;k dk dksbZ ,slk
fo’k; ugha gS ftl ij fganh Hkk’kk esa nks pkj ekud iqLrdsa miyC/k u gksaA
fQft;u&fganh “kCndks”k] :lh&fganh “kCndks”k] tkikuh&fganh “kCndks”k
blh izdkj ds vU; “kCndks”kksa dk izdkf”kr gksuk ;g fl) djrk gS fd nwj ds ns”kksa
esa Hkh fganh dk izpkj&izlkj c<+k gSA uhnjySaM ls ^fganh izpkj if=dk* dk
izdkf”kr gksuk] fczVsu fganh izpkj ifj’kn }kjk ^izokfluh*] ^iqjokbZ* if=dk]
ekWjh”kl ls ^turk*] ^fo”o fganh if=dk*] ^clar*] ^vk;ksZn;*] vesfjdk ls
^lkSjHk*] ^fo”o foosd*] ukosZ ls ^”kkafrnwr*] ^niZ.k* fganh ds oSf”od :i dks
Li’V djrk gSA vkt “kh’kZ ds nl v[kckjksa dh lwph esa vaxzsth ds ugha fganh ds
v[kckj gSaA vkt ds lokZf/kd yksdfiz; ys[kd gSjh ikWVj dh iqLrdksa dh izfr;k¡
rqylh nkl dh vej d`fr ^jkepfjr ekul* dh rqyuk esa de ek=k esa fcdh gSaA
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vesfjdk
ds izfl) fo}ku lSeqvy dSykx }kjk fganh dk izFke O;kdj.k fy[kuk] Jh xzkge csyh
}kjk bldk laiknu ,oa la”kks/ku dj izdkf”kr djokuk] :l esa vusd Hkkjrh; ys[kdksa
dh d`fr;ksa ¼x| ,oa i|½ dk vuqokn gksuk] fy;ks VkWyLVkW; dk egkHkkjr ds xhrk
va”k dk viuh Mk;jh vkSj i=ksa esa mYys[k djuk] ch- vkbZ- ckfyu dh iqLrd
^miU;kldkj izsepan*] fnfE”kRl dk fganh&O;kdj.k ij “kks/kdk;Z] baXySaM ds
dSfEczt fo”ofo|ky; ls laca) ,Q- ,- vkyfpu }kjk rqylh dh ^fou; if=dk* vkSj
^dforkoyh* ij fd;k x;k dk;Z] okjkfUudkso }kjk ^jkepfjr ekul* dk vuqokn
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}kjk fganh Hkk’kk esa lkfgR; ltZu fganh dh fo”o O;kidrk dks fl) djrk gSA fganh
ds lelkef;d fons”kh fo}kuksa esa ,d izeq[k uke gS& gaxjh dh ekfj;k usT;S”kh
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ekfj;k usT;S”kh fganh esa ih,p-Mh- dj gaxjh esa cqMkisLV ds ,Yrs fo”ofo|ky; ds
Hkkjr&fo|k foHkkx esa fganh dh ofj’B jhMj gSaA vkt muds iz;Ruksa ds QyLo:i
gaxjh esa Ms<+ gtkj ls vf/kd yksx fganh tkurs gSaA ;g la[;k izfro’kZ
c<+rh tk jgh gSA ekfj;k th dks gaxjh esa fganh ds fodkl ds mRd`’V dk;ksZa ds
fy, dsanzh; fganh laLFkku }kjk 2002 bZ- esa tktZ fxz;lZu iqjLdkj ls lEekfur
fd;k x;k gSA
ds izfl) fo}ku lSeqvy dSykx }kjk fganh dk izFke O;kdj.k fy[kuk] Jh xzkge csyh
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fd;k x;k gSA
tkiku esa
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muds }kjk nks o`gn~ “kCndks”k ¼tkikuh&fganh “kCndks”k] fganh&tkikuh
“kCndks”k½ tkikuh vkSj fganh Hkk’kkvksa ds chp gh ugha cfYd Hkkjr vkSj tkiku ds
chp Hkh “kSf{kd] lkaLd`frd lsrq dk dke dj jgs gSaA gky gh esa ns”k ds ih- ,e-
eksnh }kjk tkiku esa tkdj lHkh laca/kksa dks etcwr djuk o ogka dh turk dks
ea=eqqX/k djuk fganh ds fy, ,d u;s lehdj.k dk ladsr nsrk gSA dksxk th dh fganh
O;kdj.k lekos”kh o fganh O;kdj.k laca/kh vU; jpuk,a tkikuh esa jfpr gSaA egkRek
xka/kh] jkeizlkn fcfLey] MkW- jktsUnz izlkn dh vkRedFkkvksa dk o mRrj Hkkjr dh
vU; iqLrdksa dk dksxk th us fganh ls tkikuh esa vuqokn Hkh fd;k gSA
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chp Hkh “kSf{kd] lkaLd`frd lsrq dk dke dj jgs gSaA gky gh esa ns”k ds ih- ,e-
eksnh }kjk tkiku esa tkdj lHkh laca/kksa dks etcwr djuk o ogka dh turk dks
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xka/kh] jkeizlkn fcfLey] MkW- jktsUnz izlkn dh vkRedFkkvksa dk o mRrj Hkkjr dh
vU; iqLrdksa dk dksxk th us fganh ls tkikuh esa vuqokn Hkh fd;k gSA
baXySaM
esa m’kk oekZ] fo|k ekFkqj] xkSre lpnso] m’kk jktho lDlsuk] dknEcjh esgjk]
v#.kk lCcjoky] vpyk “kekZ] “kSy vxzoky] lyek tSnh] oanuk “kekZ] rstsUnz “kekZ o
vU; fganh dFkk&lkfgR; }kjk fo”o esa fganh dk ijpe ygjk;s gq, gSaA vesfjdk
esa fo”kk[kk BDdj] jktJh] va”kq tkSgjh] MkW- lq’ks] byk izlkn] lkSfe= lDlsuk]
iq’ik lDlsuk] izfrHkk lDlsuk vkfnA uhnjySaM esa MkW- rs;ks nELR;S[k] MkW- fMd
iYdj vkSj MkW- vuSr QkWu n gqd fganh ds izpkj&izlkj fufeRr lfØ; gSaA fQth
esa izks- lqczge.;e] tksxsUnz flag daoy] deyk izlkn feJ] jkeukjk;u] MsuekdZ esa
vpZuk isU;wyh] U;wthySaM esa egs”k panz fouksn fganh esa lkfgR; ltZu dj fganh
dks fo”o Qyd ij fojkteku fd, gq, gSaA
esa m’kk oekZ] fo|k ekFkqj] xkSre lpnso] m’kk jktho lDlsuk] dknEcjh esgjk]
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esa nkl cudj x;sA os vizoklh Hkkjrh; ;g vPNh rjg tkurs gSa fd jkstxkj ds fy,
vaxzsth Hkk’kk vfuok;Z gS] ysfdu vius lekt vkSj mldh laLd`fr ls tqM+s jgus ds
fy,] vkRelEeku dks cjdjkj j[kus ds fy, viuh ekr`Hkk’kk fganh ls tqM+s jguk Hkh
vifjgk;Z gSA vizoklh Hkkjrh; viuh Hkk’kk dks ysdj Hkkjr esa jg jgs Hkkjrh;ksa
ls vf/kd tkx:d gSa vkSj fpafrr HkhA blhfy, vizoklh Hkkjrh; fganh dh vfLerk vkSj
mldh izfr’Bk ds izfr fujarj iz;kljr gSaA blh dk ifj.kke gS fd vkt fo”o esa
fganh viuh igpku cuk pqdh gSA fQth] lwjhuke] ekWjh”kl] xq;kuk] fVªuhMkM cgqr ls
,sls ns”kksa esa vizoklh Hkkjrh;ksa ds }kjk fganh dk iz;ksx fd;k tk jgk gSA
fo”o esa “kk;n gh dksbZ ,slk ns”k gks tgka vizoklh Hkkjrh; u gksa vkSj ogka
fganh Hkk’kk fo|eku u gksA lkFk gh ;g mn~?kks’k Hkh dj jgs gSa fd lkfgR; ml
Hkk’kk esa jpk tk ldrk gS tks ys[kd dh /kefu;ksa esa cgrh gksA vizoklh
lkfgR;dkjksa dh Js.kh esa vfHkeU;q vur ftUgksaus ekWjh”kl ds mRrj izkar ds
f=;ksy xk¡o esa 18 o’kksZa rd fganh esa v/;kiu dk;Z fd;kA budk pfpZr miU;kl gS
^yky ilhuk*A fganh ds fo}ku bUgsa ekWjh”kl dk izsepan Hkh dgrs gSaA
ds xka/kh f”kolkxj jke xqyke us izFke fo”o fganh lEesyu ukxiqj esa dgk Fkk&
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vaxzsth Hkk’kk vfuok;Z gS] ysfdu vius lekt vkSj mldh laLd`fr ls tqM+s jgus ds
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vifjgk;Z gSA vizoklh Hkkjrh; viuh Hkk’kk dks ysdj Hkkjr esa jg jgs Hkkjrh;ksa
ls vf/kd tkx:d gSa vkSj fpafrr HkhA blhfy, vizoklh Hkkjrh; fganh dh vfLerk vkSj
mldh izfr’Bk ds izfr fujarj iz;kljr gSaA blh dk ifj.kke gS fd vkt fo”o esa
fganh viuh igpku cuk pqdh gSA fQth] lwjhuke] ekWjh”kl] xq;kuk] fVªuhMkM cgqr ls
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Hkk’kk esa jpk tk ldrk gS tks ys[kd dh /kefu;ksa esa cgrh gksA vizoklh
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^yky ilhuk*A fganh ds fo}ku bUgsa ekWjh”kl dk izsepan Hkh dgrs gSaA
vkt fganh
fo”o esa ,d o`gn~ :i /kkj.k dj jgh gS rks mlesa fganhrj Hkk’kh yksxksa dk o
Hkkjr ljdkj] miØeksa dk fo”ks’k ;ksxnku jgk gSA Hkkjr ljdkj dh vksj ls ;wjksi
ds ns”kksa esa ,d Hkkjrh; fganh&izksQslj fganh&v/;kiu ds fy, Hkstk tkrk
gSA jk’VªHkk’kk izpkj lfefr o)kZ us Hkh fganh izpkj&izlkj ds fy,
varjkZ’Vªh; Lrj ij fganh lEesyu dk vk;kstu vkjEHk dj fn;k gSA thou chek ls
lacaf/kr vusd miØe vf/kdka”kr% dk;Z fganh esa gh dj jgs gSaA gekjs cSad Hkh
fganh Hkk’kk ds izpkj&izlkj esa egRoiw.kZ Hkwfedk fuHkk jgs gSaA vusd cqd
VªLV vius lkfgfR;d iqLrdsa izdkf”kr djds fo”o esa fganh dh HkkxhjFkh izokfgr dj
jgs gSaA mudk iz;kl ljkguh; gSA
fo”o esa ,d o`gn~ :i /kkj.k dj jgh gS rks mlesa fganhrj Hkk’kh yksxksa dk o
Hkkjr ljdkj] miØeksa dk fo”ks’k ;ksxnku jgk gSA Hkkjr ljdkj dh vksj ls ;wjksi
ds ns”kksa esa ,d Hkkjrh; fganh&izksQslj fganh&v/;kiu ds fy, Hkstk tkrk
gSA jk’VªHkk’kk izpkj lfefr o)kZ us Hkh fganh izpkj&izlkj ds fy,
varjkZ’Vªh; Lrj ij fganh lEesyu dk vk;kstu vkjEHk dj fn;k gSA thou chek ls
lacaf/kr vusd miØe vf/kdka”kr% dk;Z fganh esa gh dj jgs gSaA gekjs cSad Hkh
fganh Hkk’kk ds izpkj&izlkj esa egRoiw.kZ Hkwfedk fuHkk jgs gSaA vusd cqd
VªLV vius lkfgfR;d iqLrdsa izdkf”kr djds fo”o esa fganh dh HkkxhjFkh izokfgr dj
jgs gSaA mudk iz;kl ljkguh; gSA
lwpuk
izkS|ksfxdh ds {ks= esa fganh fujarj c<+ jgh gSA gekjs ikl fganh dks”k
fodhihfM;k miyC/k gSA vaxzsth dh rjg xwxy ij fganh esa fofHkUu fo’k;ksa ij
izdkf”kr gksus okyh iqLrdksa ds fo’k; esa tkudkjh miyC/k gks tkrh gSA orZeku
esa fganh Hkk’kh ¼djksMksa dh vkcknh½ daI;wVj dk iz;ksx viuh Hkk’kk esa dj ldrs
gSaA vkt lalkj esa daI;wVj Vkbfiax ds lokZf/kd QkWUV fganh esa gh gSaA vkt cgqr
ls lkW¶Vos;j miyC/k gSa tks fganh Hkk’kk esa daI;wVj ij dk;Z dks vklku cukrs
gSaA vr% vkt ge baVjusV ij vklkuh ls fganh esa dke dj ldrs gSaA bl izdkj fganh
us vius cycwrs bySDVªkWfud ehfM;k rFkk daI;wVj dh Hkk’kk ds :i esa Lohdk;Z
LFkku cuk fy;k gSA ckWyhoqM ds dkj.k fganh vkt fo”o eap ij igq¡p xbZ gSA fganh
xkuksa dh ;g l”kDr fo/kk vesfjdk esa Hkk’kk&f”k{k.k ds ikB~;Øeksa esa vf/kd
izHkko ds lkFk mHkjh gSA fons”kksa esa fganh ds c<+rs iz;ksx ds fy, fganh
flusek vkSj fganh nwjn”kZu o ohfM;ks VSDuksykWth dk ;ksxnku vR;ar egRoiw.kZ ,oa
ljkguh; gSA tgka ,d vksj fganh flusek fons”kksa esa fganh Kkuo)Zu esa lgk;d
gqvk gS ogha nwljh vksj fganh Hkk’kk ds dkj.k gh cktkj Hkh ykHknk;d jgkA vkt
lHkh pSuy rFkk fQYe fuekZrk vaxzsth dk;ZØeksa vkSj fQYeksa dks fganh esa Mc
djds izLrqr djus yxs gSaA
izkS|ksfxdh ds {ks= esa fganh fujarj c<+ jgh gSA gekjs ikl fganh dks”k
fodhihfM;k miyC/k gSA vaxzsth dh rjg xwxy ij fganh esa fofHkUu fo’k;ksa ij
izdkf”kr gksus okyh iqLrdksa ds fo’k; esa tkudkjh miyC/k gks tkrh gSA orZeku
esa fganh Hkk’kh ¼djksMksa dh vkcknh½ daI;wVj dk iz;ksx viuh Hkk’kk esa dj ldrs
gSaA vkt lalkj esa daI;wVj Vkbfiax ds lokZf/kd QkWUV fganh esa gh gSaA vkt cgqr
ls lkW¶Vos;j miyC/k gSa tks fganh Hkk’kk esa daI;wVj ij dk;Z dks vklku cukrs
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lqfo[;kr izlkj.k laxBu ^ch-ch-lh-* yanu ls fganh izlkj.k igyh ckj 11 ebZ 1940
dks gqvk FkkA teZuh ds izlkj.k laxBu ^Mk;ps osys* ls fganh esa 15 vxLr 1964 ls
izR;sd fnu 45 feuV dk jsfM;ks dk;ZØe izlkfjr gksrk gSA ,u,p ds oYMZ jsfM;ks]
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1959 esa fganh izlkj.k dh “kq#vkr gqbZA :l dh jktdh; jsfM;ks daiuh ^fn okbl
vkWQ ,f”k;k* ;kuh jsfM;ks :l dh fganh lsok izfrfnu nks lHkkvksa esa dqN Ms<+
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gSA fons”kksa esa fganh ds izpkj&izlkj esa Hkwfedk fganh fQYeksa dh jgh gS
oSlh gh Hkwfedk dfo lEesyuksa dh Hkh jgh gSA lu~ 1980 bZ- esa MkW- dqaoj panz
izdk”k flag us vesfjdk esa varjkZ’Vªh; fganh lfefr }kjk 1 tqykbZ 1983 dks igyk
dfo lEesyu gqvkA 2010 esa mRrjh vesfjdk esa 16 dfo lEesyu djok, x;sA bu
lEesyuksa esa LoLFk euksjatu ds lkFk&lkFk Hkk’kk dks lquus&le>us dh
“kfDr lgt :i ls Lor% iq’V gksrh gSA ;g vizoklh Hkkjrh;ksa dh ;qok ih<+h ds
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ckgj ¼fons”k esa½ yksx dkQh lkfgR; fy[krs gSaA vc tc rduhd ds fodkl ds pyrs
vf/kdrj jpukdkj bl lkfgR; dks baVjusV ij viyksM dj nsrs gSa] blls fganh ds
fodkl esa ,d u;k vk;ke vk tqM+k gSA blls fganh vius oS”ohdj.k dk :i /kkj.k dj
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yksdfiz; cukus ds dke esa yxs gSaA fons”k esa jgus okys fganh lkfgR;dkjksa dk
egRo blfy, c<+ tkrk gS D;ksafd mudh jpukvksa esa vyx&vyx ns”kksa dh
fofHkUu ifjfLFkfr;ksa ds lkFk fganh dks fodkl dk u;k ekSdk feyrk gS vkSj bl
izdkj fganh lkfgR; dk varjkZ’Vªh;dj.k gksrk gSA leLr fo”o fganh Hkk’kk ds
foLrkj esa ;ksxnku dj ikrk gSA chloha lnh ds e/; ls Hkkjr NksM+dj fons”k tk
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fo}ku Fks vkSj Hkkjr NksM+us ls igys gh ys[ku esa yxs gq, FksA ,sls ys[kd vius&vius
ns”k esa pqipki ys[ku esa yxs FksA chloha lnh dk var gksrs&gksrs yxHkx 100
izoklh Hkkjrh; vyx&vyx ns”kksa esa vyx&vyx fo/kkvksa esa lkfgR; jpuk dj
jgs FksA bDdhloha lnh ds izkjaHk gksus rd ipkl ls Hkh vf/kd lkfgR;dkj Hkkjr esa
viuh iqLrdsa izdkf”kr djok pqds Fks vkSj baVjusV ij budh rknkn ;dhuu T;knk FkhA
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^vuqHkwfr* vkSj ^ys[kuh* tSlh if=dkvksa esa ,sls lkfgR;dkjksa dh lwph ns[kh tk
ldrh gS] ftlesa izoklh lkfgR;dkjksa ds lkfgR; dks j[kk x;k gSA ,sls
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vkrk gSA
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10 tuojh
2003 ls gj o’kZ izoklh fnol euk;k tkuk bl ckr dh vksj ladsr djrk gS fd Hkkjr
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izoklh fganh mRlo esa ,sls yksxksa dks js[kkafdr djus vkSj izksRlkfgr djus ds
dke dh vksj Hkkjr dh dsanzh; vkSj izknsf”kd ljdkjksa rFkk LoSfPNd laLFkkvksa us
#fp yh] tks fons”k esa jgrs gq, fganh esa lkfgR; jp jgs FksA Hkkjr dh izeq[k
if=dkvksa tSls ^okxFkZ*] ^Hkk’kk* vkSj ^orZeku lkfgR;* us Hkh izoklh fo”ks’kkad
izdkf”kr djds bu lkfgR;dkjksa dks Hkkjrh; lkfgR; dh izeq[k /kkjk ls tksM+us dk
dke fd;k gSA bl rjg bDdhloha lnh ds izkjaHk esa vk/kqfud lkfgR; ds varxZr
izoklh fganh lkfgR; ds uke ls ,d u, ;qx dk izkjaHk gqvkA fganh lkfgR; vius vki
esa ,d xaHkhj lkfgR; gS D;ksafd bldh jpuk lkfgR;dkj }kjk /ku miktZu gsrq ugha
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fy, ,d ojnku gSA fiNys rhu&pkj n”kdksa esa rduhd ds {ks= esa fo”o esa cM+h
rsth ls cnyko vk;k gS vkSj bl cnyko us fganh lkfgR; ds fodkl esa vewY; ;ksxnku
fn;kA HkweaMyhdj.k ds bl ;qx esa baVjusV ds ek/;e ls fganh dk fodkl mYys[kuh;
gSA chchlh fganh ds fy, fy[ks ,d ys[k esa v#.k vLFkkuk us dgk gS fd& ßfganh
lkfgR; dks bu fnuksa vius ikBd c<+kus ;k u, ikBd cukus dk ,d u;k tfj;k fey
x;k gSA ns”k vkSj dky dh lhekvksa ls ijs] ;s tfj;k gS& baVjusVAÞ
2003 ls gj o’kZ izoklh fnol euk;k tkuk bl ckr dh vksj ladsr djrk gS fd Hkkjr
esa jg jgk ,d oxZ izokfl;ksa ds bl fganh lkfgR; dks lEeku nsus dks vkrqj gSA
izoklh fganh mRlo esa ,sls yksxksa dks js[kkafdr djus vkSj izksRlkfgr djus ds
dke dh vksj Hkkjr dh dsanzh; vkSj izknsf”kd ljdkjksa rFkk LoSfPNd laLFkkvksa us
#fp yh] tks fons”k esa jgrs gq, fganh esa lkfgR; jp jgs FksA Hkkjr dh izeq[k
if=dkvksa tSls ^okxFkZ*] ^Hkk’kk* vkSj ^orZeku lkfgR;* us Hkh izoklh fo”ks’kkad
izdkf”kr djds bu lkfgR;dkjksa dks Hkkjrh; lkfgR; dh izeq[k /kkjk ls tksM+us dk
dke fd;k gSA bl rjg bDdhloha lnh ds izkjaHk esa vk/kqfud lkfgR; ds varxZr
izoklh fganh lkfgR; ds uke ls ,d u, ;qx dk izkjaHk gqvkA fganh lkfgR; vius vki
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dh tkrh oju Lo;a dks larq’V djus gsrq dh tkrh gSA ;g lkfgR; gh fganh Hkk’kk ds
fy, ,d ojnku gSA fiNys rhu&pkj n”kdksa esa rduhd ds {ks= esa fo”o esa cM+h
rsth ls cnyko vk;k gS vkSj bl cnyko us fganh lkfgR; ds fodkl esa vewY; ;ksxnku
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gSA chchlh fganh ds fy, fy[ks ,d ys[k esa v#.k vLFkkuk us dgk gS fd& ßfganh
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MkW- dey
fd”kksj xks;udk ds vuqlkj 21oha lnh esa ekWjh”kl ds lkFk vesfjdk] dukMk] ukosZ]
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jgk gSA laHkor% baVjusV gh ,slk djus okyk ,d l”kDr ek/;e gks ldrk gSA egkRek
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?kj pkjksa vksj nhokjksa ls f?kjk jgsA u eSa viuh f[kM+fd;ksa dks gh dldj can
j[kuk pkgrk gwaA eSa rks lHkh ns”kksa dh laLd`fr dh gokvksa dk vius ?kj esa
csjksd Vksd lapkj pkgrk gwaAÞ viuh lkjh HkkSxksfyd lhek,sa rksMdj ^fo”oxzke*
dks lkdkj Lo:i nsdj fganh lkfgR; o laLd`fr viuk lkSE; :i fn[kkus ij ck/; gSA
fd”kksj xks;udk ds vuqlkj 21oha lnh esa ekWjh”kl ds lkFk vesfjdk] dukMk] ukosZ]
baXySaM] uhnjySaM] vkcw/kkch vkfn ns”k Hkh fganh lkfgR; jpukvksa esa izeq[k :i
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gSA fganh iksVZy ^osc nqfu;k* ds iz/kku laiknd jfoUnz “kkg dgrs gSa fd lkfgR;
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jgk gSA laHkor% baVjusV gh ,slk djus okyk ,d l”kDr ek/;e gks ldrk gSA egkRek
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dks lkdkj Lo:i nsdj fganh lkfgR; o laLd`fr viuk lkSE; :i fn[kkus ij ck/; gSA
baVjusV
ij fganh ,d l”kDr Hkk’kk cudj mHkj jgh gSA ;g vc Hkh Hkkjrh;ksa dh vfHkO;fDr dk
l”kDr ek/;e gSA U;wthySaM ls 1996 esa lcls igys fganh bZ&eSXthu lkbcj Lisl
esa vkbaZ vkSj 2000&2001 esa la;qDr vjc vehjkr ls ^vfHkO;fDr* vkSj
^vuqHkwfr* uked bZ&eSXthu baVjusV ij vkbZaA lcls cM+h ckr ;g gS fd ;g
if=dk,a vkt Hkh fujarjrk cuk, gq, gSaA baVjusV dh xfr”khyrk lkfgR; dks le; dh
lhekvksa ls vyx ys tkdj ys[kd vkSj ikBd ds chp Rofjrrk iznku djrh gSA fons”k
esa fy[kh xbZ fganh baVjusV ds ek/;e ls rRdky i<+h tk ldrh gaSA orZeku Hkkjr
esa ys[kuh ij cktkjokn gkoh gks jgk gSA Hkk’kk ,d cgrs nfj;k ds leku gksrh gSA
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^vuqHkwfr* uked bZ&eSXthu baVjusV ij vkbZaA lcls cM+h ckr ;g gS fd ;g
if=dk,a vkt Hkh fujarjrk cuk, gq, gSaA baVjusV dh xfr”khyrk lkfgR; dks le; dh
lhekvksa ls vyx ys tkdj ys[kd vkSj ikBd ds chp Rofjrrk iznku djrh gSA fons”k
esa fy[kh xbZ fganh baVjusV ds ek/;e ls rRdky i<+h tk ldrh gaSA orZeku Hkkjr
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Lo:i fcxM+us dk Mj lrkus yxrk gSA mls dsoy fo}kuksa] izdk”kdksa ds iSekus esa u
j[kk tk; rHkh og LoPNan /kkjk ls cgdj vius pjeksRd’kZ dks xzg.k dj ldsxhA
fganh
lkfgR; us le; ds cktkjoknh psruk dk vk/kkj ysdj O;fDr ds Hkhrj >kadus dk lQy
iz;kl fd;k gSA fganh us ftl izdkj ls lekt dh bPNk,a] vkdka{kk,a] lkekftd ewY;
ikBd rd igqapk, gSa mldh ljkguk Hkh dh tkuh pkfg, ij mldk lexz ewY;kadu vkSj
LoLFk psruk dk foLrkj dSlk jgk gS] vkt bldh ewY;kadu dh vis{kk gSA vkt fganh
tuekul dh Hkk’kk gksus ds dkj.k gh cktkj dh vkSj O;kikj o O;olk; dh Hkk’kk Hkh
cu xbZ gSA O;kikj dh Hkk’kk ogh gksrh gS tks vke tuekul dh Hkk’kk gksrh gS] tks
miHkksDrk dh Hkk’kk gksrh gSA vkt dksbZ Hkh fons”kh daiuh ,f”k;k esa fganh tkus
fcuk O;kikj ugha dj ldrhA blfy, vius mRikn ds izpkj&izlkj ds fy,] iSfdax o
xq.koRrk ds fy, daifu;ksa dks fganh tkuuk o viukuk mudh foo”krk gS] vkSj ;gh
foo”krk fganh dh “kfDr o lkeF;Z dh ifjpk;d gSA vr% ;g dgk tk ldrk gS fd fganh
^fganqbZ*] ^fganoh*] ^[kM+h cksyh*] ^fganqLrkuh* ls ysdj ^fgafXy”k* rd dh ;k=k
ls vkxs mRrjksRrj c<+rs gq, vkt tuHkk’kk o fo”oHkk’kk cuus dh vksj vxzlj gSA
lkfgR; us le; ds cktkjoknh psruk dk vk/kkj ysdj O;fDr ds Hkhrj >kadus dk lQy
iz;kl fd;k gSA fganh us ftl izdkj ls lekt dh bPNk,a] vkdka{kk,a] lkekftd ewY;
ikBd rd igqapk, gSa mldh ljkguk Hkh dh tkuh pkfg, ij mldk lexz ewY;kadu vkSj
LoLFk psruk dk foLrkj dSlk jgk gS] vkt bldh ewY;kadu dh vis{kk gSA vkt fganh
tuekul dh Hkk’kk gksus ds dkj.k gh cktkj dh vkSj O;kikj o O;olk; dh Hkk’kk Hkh
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miHkksDrk dh Hkk’kk gksrh gSA vkt dksbZ Hkh fons”kh daiuh ,f”k;k esa fganh tkus
fcuk O;kikj ugha dj ldrhA blfy, vius mRikn ds izpkj&izlkj ds fy,] iSfdax o
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1-
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izlkn ukSfV;ky 2005
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2-
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3-
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lDlsuk] 2002
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4-
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5-
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6-
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7-
izoklh fganh lkfgR; esa
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8-
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9- baVjusV if=dk,a Anubhuti
– hindi.org, Abhivyakti – hindi.org, bharatdarshan.co.nz, sahityakunj.net,
lekhni.net, madhumati, bhasha.
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सृजनलोक अंतरराष्ट्रीय हिंदी साहित्योत्सव: आमंत्रण पत्र
आमंत्रण
————
भारत विभिन्नता में एकता का परिचायक रहा है। यहाँ अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग बोलियाँ – भाषाएँ है। और उनमे प्रचुर मात्र में कथा-कहानी, गीत, लोकोक्तियाँ रची गयीं हैं। ये न सिर्फ हमारा मनोरंजन करती हैं बल्कि जीवन के विभिन्न सरोकारों से जुडी ये रचनाएँ विभिन्न स्तरों पर शिक्षित, प्रेरित और लोक चेतना को जागृत करने का भी काम करती रही हैं। लोक साहित्य के इसी महत्व को रेखांकित करने हेतु हम एक सेमिनार का आयोजन कर रहे हैं। आप सब आमंत्रित हैं।
इस विषय पर आलेख 10 जनवरी 2017 तक आमंत्रित है। आलेख ISBN नंबर वाले पुस्तक में प्रकाशित किया जायेगा।
————
भारत विभिन्नता में एकता का परिचायक रहा है। यहाँ अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग बोलियाँ – भाषाएँ है। और उनमे प्रचुर मात्र में कथा-कहानी, गीत, लोकोक्तियाँ रची गयीं हैं। ये न सिर्फ हमारा मनोरंजन करती हैं बल्कि जीवन के विभिन्न सरोकारों से जुडी ये रचनाएँ विभिन्न स्तरों पर शिक्षित, प्रेरित और लोक चेतना को जागृत करने का भी काम करती रही हैं। लोक साहित्य के इसी महत्व को रेखांकित करने हेतु हम एक सेमिनार का आयोजन कर रहे हैं। आप सब आमंत्रित हैं।
इस विषय पर आलेख 10 जनवरी 2017 तक आमंत्रित है। आलेख ISBN नंबर वाले पुस्तक में प्रकाशित किया जायेगा।
– संतोष श्रेयांस (संयोजक)
सुशील कुमार शैली की गज़लें
1.जो पास से गुजरा है कहीं वो तेरी परछाई तो नहीं
जो पास से गुजरा है कहीं वो तेरी परछाई तो नहीं,
देख ज़रा टटोलकर कहीं ली तूने अंगड़ाई तो नहीं ।
देख ज़रा टटोलकर कहीं ली तूने अंगड़ाई तो नहीं ।
माहौल गर्म है,
आग है कहीं तो तपस भी बहुत है,
देख ज़रा गौर से धूआँ कहीं ये तेरे घर से तो नहीं ।
आग है कहीं तो तपस भी बहुत है,
देख ज़रा गौर से धूआँ कहीं ये तेरे घर से तो नहीं ।
ठहर रहे हैं कुछ ज़ज़्बात इन दिनों तेरे भी भीतर,
देख ज़रा तेरी
बगल में कोई
मरा तो नहीं
।
देख ज़रा तेरी
बगल में कोई
मरा तो नहीं
।
ये जो
इतना शौर है
आज कल मेरे शहर में,
देख ज़रा कहीं कोई नया भगवान् बना तो
नहीं ।
इतना शौर है
आज कल मेरे शहर में,
देख ज़रा कहीं कोई नया भगवान् बना तो
नहीं ।
ये कैसा
है माहौल तेरे
शहर का तू
चुप है,
देख ज़रा कहीं ख़ंज़रों की खेती हुई तो
नहीं ।
है माहौल तेरे
शहर का तू
चुप है,
देख ज़रा कहीं ख़ंज़रों की खेती हुई तो
नहीं ।
कलम हूँ उठाता तो दूर भाग जाते हैं ज़ज़्बात,
सोचता हूँ रुक कर ज़रा, कहीं मैं शायर तो नहीं
।
सोचता हूँ रुक कर ज़रा, कहीं मैं शायर तो नहीं
।
2.
आपके शहर में कुछ ज़ज़्बात ले के आए हैं
आपके शहर में कुछ ज़ज़्बात ले के आए हैं ,
अपने नहीं हैं साहब, खैतार ले के आए हैं ।
आपके शहर में कुछ ज़ज़्बात ले के आए हैं
आपके शहर में कुछ ज़ज़्बात ले के आए हैं ,
अपने नहीं हैं साहब, खैतार ले के आए हैं ।
हम तो यूँ ही चले आये, इक आवाज़ जो सुनी,
सीधे हैं इसी
लिए, साथ ले
के आए हैं ।
सीधे हैं इसी
लिए, साथ ले
के आए हैं ।
सुना है आज कल पत्थरों का दौर है शहर में,
ख़फा मत होईये ज़नाब, दीवार ले के आए हैं ।
ख़फा मत होईये ज़नाब, दीवार ले के आए हैं ।
ख़ंजरों पर
ख़ंजर, ख़ंजरों पर खून है,
जो देख न पाये, अंधी निग़ाह ले के आए हैं ।
ख़ंजर, ख़ंजरों पर खून है,
जो देख न पाये, अंधी निग़ाह ले के आए हैं ।
कोई ख़तरा नहीं मुझसे सल्तनत को आपकी,
आप ही के शहर की ज़ुबान ले के आए हैं ।
आप ही के शहर की ज़ुबान ले के आए हैं ।
चाहिये था मुझे
कि कुछ अदब से तो आता,
फटे हाल था, वही फटे हाल ले के
आए हैं ।
कि कुछ अदब से तो आता,
फटे हाल था, वही फटे हाल ले के
आए हैं ।
3.
गुजरता हूँ सड़क से तो इश्तिहार पकड़ लेते हैं
गुजरता हूँ सड़क से तो इश्तिहार पकड़ लेते हैं
गुजरता हूँ सड़क से तो इश्तिहार पकड़ लेते हैं,
हमारे ही नाम
पर सल्तनत वो
चलाते हैं ।
हमारे ही नाम
पर सल्तनत वो
चलाते हैं ।
ये क्या बात
हुई कि हर बात पे लठियाते
हैं,
संसद की तरफ अँगुली जब भी हम उठाते हैं ।
हुई कि हर बात पे लठियाते
हैं,
संसद की तरफ अँगुली जब भी हम उठाते हैं ।
कोई गिरा है, किसी
की है चीख़ गूँजी,
लाख छुपा लो तुम उदास मौसम बतियाते हैं ।
की है चीख़ गूँजी,
लाख छुपा लो तुम उदास मौसम बतियाते हैं ।
चेहरे पर चेहरा है
चेहरों का दौर है,
चेहरों में हम अपना चेहरा छुपाते है ।
चेहरों का दौर है,
चेहरों में हम अपना चेहरा छुपाते है ।
हर तरफ
धूँआ आग है
फिर ये ख़ामोशी,
शायद इसी को दोस्त चैनो-अमन बतियाते हैं ।
धूँआ आग है
फिर ये ख़ामोशी,
शायद इसी को दोस्त चैनो-अमन बतियाते हैं ।
सरहदें ये बिछी हुई ज़मीन तक ही हैं मेरे दोस्त,
पड़ोसी मुल़्क से ये आए परिंदे बतियाते हैं ।
पड़ोसी मुल़्क से ये आए परिंदे बतियाते हैं ।
4.
है अँधेरा बहुत कुछ तो करो यारो
है अँधेरा बहुत कुछ तो करो यारो
है अँधेरा
बहुत कुछ तो करो यारो,
निगाह है रोशन तो निगाह संभालो यारो ।
ये दीवार है, दीवार का कोई धर्म नहीं होता,
इसे मेरे
घर से
निकालो यारो ।
दस्तक दे रहा हूँ कब से दरवाज़ा तो खोलो,
या इसे दहलीज़ से उठा लो यारो ।
बहुत कुछ तो करो यारो,
निगाह है रोशन तो निगाह संभालो यारो ।
ये दीवार है, दीवार का कोई धर्म नहीं होता,
इसे मेरे
घर से
निकालो यारो ।
दस्तक दे रहा हूँ कब से दरवाज़ा तो खोलो,
या इसे दहलीज़ से उठा लो यारो ।
ये जो
बैठा है आदमी
रक़्त से सना,
मैं हूँ मुझे
सड़क पर उठा
लो यारो ।
बैठा है आदमी
रक़्त से सना,
मैं हूँ मुझे
सड़क पर उठा
लो यारो ।
कोई नई बात नहीं कहता ‘शैली‘ गज़ल में,
ज़ेब में अपनी
हाथ ज़रा डालो यारो ।
ज़ेब में अपनी
हाथ ज़रा डालो यारो ।
5. ये जो धूँए का गुब्बार है छाया, कोई
घर जला है
ये जो धूँए का गुब्बार है छाया, कोई घर जला है,
अपने घर के
दीवारो दर सम्भालो यारो ।
अपने घर के
दीवारो दर सम्भालो यारो ।
घर से निकलते
ही लापता हो जाते हैं
लोग,
पहचान के लिए कोई चीज़ उठा लो
यारो ।
ही लापता हो जाते हैं
लोग,
पहचान के लिए कोई चीज़ उठा लो
यारो ।
येजो पगली घूमती है घर-घर चिल्लाती आजा़दी,
कह दो इसे कि ये वक़्त मुनासिब नहीं है यारो ।
कह दो इसे कि ये वक़्त मुनासिब नहीं है यारो ।
हाँ में हाँ मिलाना सीख लो, ये शाही फ़रमान है,
नहीं तो मुल्क से निकल जाओ यारो ।
बड़े सस्ते हैं तमगे देश-भक्ति के जहाँ, इन
दिनों,
‘भारत माता की जय बोल‘ तुम लगा लो यारो ।
नहीं तो मुल्क से निकल जाओ यारो ।
बड़े सस्ते हैं तमगे देश-भक्ति के जहाँ, इन
दिनों,
‘भारत माता की जय बोल‘ तुम लगा लो यारो ।
6.
हर तरफ भीड़ है, शोर है, दुविधा की ज़ुबान है
हर तरफ भीड़ है, शोर है, दुविधा की ज़ुबान है
हर तरफ भीड़ है,
शोर है, दुविधा की ज़ुबान है,
न आदमी है,
न आदमी का
नामो-निशां है ।
शोर है, दुविधा की ज़ुबान है,
न आदमी है,
न आदमी का
नामो-निशां है ।
ढ़ूँढता हूँ मुकम्मल आदमी, हर तरफ़ निग़ाह है,
लेकिन हर चेहरे पर एक उभरी हुई दरार है ।
लेकिन हर चेहरे पर एक उभरी हुई दरार है ।
हूँ मैं नास्तिक, ज़मीन मेरा आधार है,
हर व्यक्ति का अपना-अपना पर्वतदीगार है
।
हर व्यक्ति का अपना-अपना पर्वतदीगार है
।
मैं तुमसे
कहता हूँ सीख
अब तो लड़ना,
जहाँ हर आदमी
के हाथ में तलवार है ।
कहता हूँ सीख
अब तो लड़ना,
जहाँ हर आदमी
के हाथ में तलवार है ।
तो क्या गुनाह हुआ अगर हमने ये कह दिया,
मायूस इस बच्चे
का नाम ‘हिन्दूस्तान‘
है ।
मायूस इस बच्चे
का नाम ‘हिन्दूस्तान‘
है ।
7.
पत्थर न सही तो हाथ या फिर आँख ही उठालो
पत्थर न सही तो हाथ या फिर आँख ही उठालो
पत्थर न सही तो हाथ या फिर आँख ही उठालो,
है बहुत घना
अँधेरा इक मशाल
तो जला लो ।
है बहुत घना
अँधेरा इक मशाल
तो जला लो ।
सफ़र तो
तैय हो ही जाएगे, मुश्किल ही सही,
तबीयत से ज़रा इक कदम तो उठा
लो ।
तैय हो ही जाएगे, मुश्किल ही सही,
तबीयत से ज़रा इक कदम तो उठा
लो ।
तू न
चलेगा न सही, तेरी
नज़रे नज़र ही सही,
ज़रा इक बार रास्ते की
मट्टी तो उठा लो ।
चलेगा न सही, तेरी
नज़रे नज़र ही सही,
ज़रा इक बार रास्ते की
मट्टी तो उठा लो ।
देख मेरे
साथ इक काफ़िला है हम
सफ़र,
उदास सही, पहचान कर इक निशां तो उठा लो ।
साथ इक काफ़िला है हम
सफ़र,
उदास सही, पहचान कर इक निशां तो उठा लो ।
ये जो
गिरा पड़ा है
सड़क पर तेरा अश्क,
है या नहीं, इसे इक बार अपनी आँख से लगा लो ।
गिरा पड़ा है
सड़क पर तेरा अश्क,
है या नहीं, इसे इक बार अपनी आँख से लगा लो ।
ये दौर
कुछ ऐसा है कि तू
गिरा और गया,
तो रास्ते को ही अपना महबूब बना लो ।
कुछ ऐसा है कि तू
गिरा और गया,
तो रास्ते को ही अपना महबूब बना लो ।
8.
क्या हुआ जो खंड़हर हो गई आस्थाएँ
क्या हुआ जो खंड़हर हो गई आस्थाएँ
क्या हुआ जो खंड़हर हो गई आस्थाएँ,
दीवार पर धूप का इक टुकड़ा तो है ।
दीवार पर धूप का इक टुकड़ा तो है ।
साँझ होते
ही जग जाती हैं बत्तियाँ,
भोर की उनहें इक आश
तो है ।
ही जग जाती हैं बत्तियाँ,
भोर की उनहें इक आश
तो है ।
ये जो आ
रहा है तेरे मन में ख़्याल,
उस पर तुमहें
इक विश्वास तो
है ।
रहा है तेरे मन में ख़्याल,
उस पर तुमहें
इक विश्वास तो
है ।
ढूंढ कर
लाता हूँ मैं हाथ और हाथ,
मशाल के लिए पास तुम्हारे आग तो है ।
लाता हूँ मैं हाथ और हाथ,
मशाल के लिए पास तुम्हारे आग तो है ।
दे रहा
हूँ आवाज़ ठीक
सामने से,
मुझ पर तुम्हें
इक इतबार तो है ।
हूँ आवाज़ ठीक
सामने से,
मुझ पर तुम्हें
इक इतबार तो है ।
9. वो लिखते रहे, हम गाते रहे,
वो लिखते रहे, हम
गाते रहे,
यूँ ही गुमनाम ज़िंदगी बिताते रहे ।
गाते रहे,
यूँ ही गुमनाम ज़िंदगी बिताते रहे ।
न मलाल
रहा, न कोई
शिकवा,
बोझ था, बोझ उठाते रहे ।
रहा, न कोई
शिकवा,
बोझ था, बोझ उठाते रहे ।
न मंजिल थी, न
रास्ता था अपना,
जिधर इशारा किया,
जाते रहे ।
रास्ता था अपना,
जिधर इशारा किया,
जाते रहे ।
कहां जाए, किससे
करें फरियाद,
मजबूर थे, कि खुदा
बनाते रहे ।
करें फरियाद,
मजबूर थे, कि खुदा
बनाते रहे ।
वो लिखते रहे, हम
गाते रहे,
यूँ ही गुमनाम ज़िंदगी बिताते रहे ।
गाते रहे,
यूँ ही गुमनाम ज़िंदगी बिताते रहे ।
10.
ये शोर किस दौर का है हमें नहीं पता
ये शोर किस दौर का है हमें नहीं पता
ये शोर किस दौर का है हमें नहीं पता,
हम तो इस शोर
में जिए जा रहे
हैं ।
पुकारा हमने,
सुना या कर दिया अनसुना,
पुकारना काम है हमारा, किए जा रहे हैं ।
सुना या कर दिया अनसुना,
पुकारना काम है हमारा, किए जा रहे हैं ।
ईमारतों के साये में कुचले हुए हैं लोग,
मुश्किल है लेकिन संग लिए जा रहे हैं ।
माना कि फिजाओं
में घुटन है ऊब है,
मुश्किल है लेकिन जिये,जिए जा रहे हैं ।
में घुटन है ऊब है,
मुश्किल है लेकिन जिये,जिए जा रहे हैं ।
ये शोर किस
दौर का है हमें नहीं पता,
हम तो इस शोर
में जिए जा रहे
हैं ।
दौर का है हमें नहीं पता,
हम तो इस शोर
में जिए जा रहे
हैं ।
11.
हम मानके चले कि अलग कुछ आज होगा
हम मानके चले कि अलग कुछ आज होगा
हम मानके चले कि अलग कुछ आज होगा,
महफिल होगी, गीत होगा, साज
होगा ।
महफिल होगी, गीत होगा, साज
होगा ।
पकड़ी क्यों चूप्पी तेरी बगीया के फूलों ने,
मरा कोई गीत,
टूटा कोई साज
होगा ।
मरा कोई गीत,
टूटा कोई साज
होगा ।
ऊब है घुटन है तेरे आंगन की कलियों में,
दफ़न तेरे आंगन में कोई ख्वाब
होगा ।
दफ़न तेरे आंगन में कोई ख्वाब
होगा ।
अब कहाँ तक कहें कि सब ठीक है ठीक है,
सड़ रहा जख़्म सहलाना न आज होगा ।
सड़ रहा जख़्म सहलाना न आज होगा ।
इक ही
शब्द में कह
देते हैं हम तुम से,
ये नाटक हम
से और न
आज होगा ।
शब्द में कह
देते हैं हम तुम से,
ये नाटक हम
से और न
आज होगा ।
12.
तेरे पाँव में जन्नत है ये सोच के आया था
तेरे पाँव में जन्नत है ये सोच के आया था
(मेरे जीवन आए द्रोणाचार्य को समर्पित)
तेरे पाँव में जन्नत है ये सोच के आया था,
तू तो बिना
पाँव का इंसान
निकला ।
तू तो बिना
पाँव का इंसान
निकला ।
तेरे हर शब्द से इतिहास लिखूंगा ये सोचा,
तू तो हर
शब्द से मोहताज
निकला ।
तू तो हर
शब्द से मोहताज
निकला ।
इस थोथे साज से आवाज़ आए तो कैसे,
साज तेरा बेहया, बेहया हर राग निकला ।
साज तेरा बेहया, बेहया हर राग निकला ।
ये जो अकड़ के खड़ा है ठीक मेरे सामने ,
न रीढ़ है, न रीढ़ का कोई निशान निकला ।
न रीढ़ है, न रीढ़ का कोई निशान निकला ।
इक बार तो बता मेरा कसूर क्या था जो,
हर बार तेरे हाथ कत्ल का सामां निकला ।
हर बार तेरे हाथ कत्ल का सामां निकला ।
13.
देख मेरी आवाज़ में असर को देख
देख मेरी आवाज़ में असर को देख
देख मेरी आवाज़ में असर को देख,
उठ रही हैं नज़रें , नज़रों को देख ।
उठ रही हैं नज़रें , नज़रों को देख ।
इन ख़ामोश राहों में, अँधेरों के बीच,
सुलगती हैं नज़रें, नज़रों को देख ।
सुलगती हैं नज़रें, नज़रों को देख ।
हैं लाखों सर
तकिए पर तो क्या,
दिमाग में उबलते विचारों को देख ।
तकिए पर तो क्या,
दिमाग में उबलते विचारों को देख ।
ज़ालिम है
ये रात तो क्या हुआ,
उठ रहे हैं सर इन सरों को देख ।
ये रात तो क्या हुआ,
उठ रहे हैं सर इन सरों को देख ।
मैंने राह में मिलते हरिक को कहा,
आवाज तो दो फिर असर को देख ।
आवाज तो दो फिर असर को देख ।
14.
हर दर्द की दवा नहीं होती
हर दर्द की दवा नहीं होती
हर दर्द
की दवा नहीं
होती,
हमसे और वफ़ा
नहीं होती ।
की दवा नहीं
होती,
हमसे और वफ़ा
नहीं होती ।
हर रात
की सुबह है
होती,
सुबह की कभी रात नहीं होती ।
की सुबह है
होती,
सुबह की कभी रात नहीं होती ।
हमने अपना हक है मांगा,
इस खता की सजा नहीं होती ।
इस खता की सजा नहीं होती ।
इस हादसे
से मायूस न
हो,
जिंदगी यहीं ख़त्म नहीं होती ।
से मायूस न
हो,
जिंदगी यहीं ख़त्म नहीं होती ।
महफ़िल में आके बैठ तो सही,
ज्हाँ शराबे-हुस्न चर्चा नहीं होती ।
ज्हाँ शराबे-हुस्न चर्चा नहीं होती ।
15.
घर से चले इक आँख की तलाश में
घर से चले इक आँख की तलाश में
घर से चले इक आँख की तलाश में,
और रोशनी में ही उलझ
गए ।
और रोशनी में ही उलझ
गए ।
पास वाले
से जब वक्त
पूछा तो,
पता चला हम
कब के बीत
गए ।
से जब वक्त
पूछा तो,
पता चला हम
कब के बीत
गए ।
बस तेरा जाना ही सहा न गया इक,
नहीं तो कई
आए गए आए गए ।
नहीं तो कई
आए गए आए गए ।
वो शख़्स
जिसने सिखाया लड़ना,
आए कलम उठाई चले गए चले गए ।
जिसने सिखाया लड़ना,
आए कलम उठाई चले गए चले गए ।
संसद से जब भी सवाल किया हमने,
दुतकारे गए लठियाए गए दबाए गए ।
दुतकारे गए लठियाए गए दबाए गए ।
परिचय
सुशील कुमार शैली
जन्म तिथि – ०२/०२/१९८६
शोधार्थी- भाषा विज्ञान एवं पंजाबी कोशकारी विभाग
पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला
रचनात्मक कार्य :- कविता संग्रह- तल्खियां (पंजाबी में ),
समय से संवाद ( हिन्दी में ), कविता
अनवरत-1, काव्यांकुर-3, सारांश समय का
(सांझा संकलन)
विभिन्न पंजाबी, हिन्दी पत्रिकाओं में रचनाएं
व शोधालेख प्रकाशित |
घर का पता :- एफ. सी. आई. कॉलोनी, नया बस
स्टैंड़, करियाना भवन, सामने
-एफ.सी.आई. गोदाम, नाभा, जिला –
पटियाला 147201 (पंजाब)
मो – 9914418289
ई.मेल- shellynabha01@gmail.com
सुशील कुमार शैली
जन्म तिथि – ०२/०२/१९८६
शोधार्थी- भाषा विज्ञान एवं पंजाबी कोशकारी विभाग
पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला
रचनात्मक कार्य :- कविता संग्रह- तल्खियां (पंजाबी में ),
समय से संवाद ( हिन्दी में ), कविता
अनवरत-1, काव्यांकुर-3, सारांश समय का
(सांझा संकलन)
विभिन्न पंजाबी, हिन्दी पत्रिकाओं में रचनाएं
व शोधालेख प्रकाशित |
घर का पता :- एफ. सी. आई. कॉलोनी, नया बस
स्टैंड़, करियाना भवन, सामने
-एफ.सी.आई. गोदाम, नाभा, जिला –
पटियाला 147201 (पंजाब)
मो – 9914418289
ई.मेल- shellynabha01@gmail.com
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की रचनाएं
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविताएँ-
एक सवाल
………………………………….
तुम मुझे कहानी सुनाते हो
राजा-रानी की
क्या मतलब है तुम्हारा
कहानी सुनाने का
सोचता हूँ
और तुम घबराते हो
मेरे सोचने को लेकर
…फिर भी मैं पूछ ही लेता हूँ
अपने सैकड़ों सवालों में से एक
क्यों छला तुम्हारे ‘राजा‘ ने
मेरी ‘रानी‘
को
को
और तुम एक ठहरे हुए हठात मौन के बाद
कहते हो
‘इस तरह सोचना पाप है‘
…………………………………….
ऐसी भी क्या जल्दी थी…
……..
मन रुकता है तो
ठिठुर सा जाता है
ठंड से नहीं
भय से नहीं
भूख से नहीं
सोचता हूँ ऐसी भी क्या जल्दी थी…
सुंदर तुम थीं या तुम्हारे सपने
अधखुली पलकों में घनेरी रात का काजर
सुबह की उजली भोर
कौन जानता था इन दोनों के बीच
एकदम से संधि की कोमलता को
जला देगा निर्मोही…
चलो सूरज से ही पूछ लेता हूँ
क्या महसूस किया है तुमने कभी वेदनाओं का ताप
धुधुआकर सुलगना तुम्हारी नियति नहीं
मेरे अंदर बिना धुएँ के आग नहीं है
इसी लिए सोचता हूँ
ऐसी भी क्या जल्दी थी
यूँ ही चले जाने की
अभी-अभी
जैसे तुमने किया था ब्याह
अभी कल ही तो तुमने ओढ़ी थी चूनर
वो फूलों की महक
अभी बासी नहीं हुई है भाई की छाती पर
जो तुमने फूलमाला पहनाई थी
अभी तो तुम्हारी महक पूरे घर में
गमकती है
तुम अभी कल ही तो माँ बनी थीं
प्रेमचंद की ‘संपूर्ण
स्त्री‘
स्त्री‘
फिर…
मन के अज्ञात पन्ने पर
तुम्हारे हिलते-काँपते ओष्ठ और अधर
जैसे कभी न मिलने की बात कहकर
ठिठुर कर खामोश हो गए
सोचता हूँ ऐसी भी क्या जल्दी थी…
यूँ ही चले जाने की।
( प्रियंका भाभी के नाम…)
……………………………………………
कौवा और आचार्य
……
नीम के एक पुराने दरख्त
की डाल पर
बैठा है एक कौवे का जोड़ा
कर रहा है हास परिहास और लास्य भी
हालाँकि इनकी जींस में हैं तांडव के गुण
गाँव की बूढ़ी आँखों से देखूँ
तो कह सकता हूँ कि ये नर-मादा हैं
यानी दुलहिन-दुलहा
विश्वविद्यालय के धुरंधर आचार्य
इन्हें देख कर खड़ा करते हैं यक्ष प्रश्न
दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का
और सेमिनार में करते हैं डिबेट
स्वानुभूति और सहानुभूति के बारे में
बहरहाल मैं तो
गँवार हूँ !
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खरखइंचा
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सागर की लहरों की तरह
ऊपर-नीचे, नीचे-ऊपर
उड़ने वाले पंछी
तुम्हें खरखइंचा मामा कहते थे ना
मेरे गाँव के भोले-भाले बच्चे
पूछते थे कि नदी कितनी गहरी है
तुम तरंगित होकर उड़ते थे ना
‘इत्ती ऽऽ … इत्ती ss ‘
‘स्वेत-श्याम‘ रंग
वाले पंछी
वाले पंछी
तुम कितने चंचल होते थे
फुदक-फुदक कर चलते थे ना
कविता करने वाले ये कवि
तुम्हारी आकार वृत्ति पर
रीझते-रीझते रीझ गए
उन्हें क्या पता था कि
‘खंजन नयन‘ को कविता
में देखकर
में देखकर
कल के लोग
इसे काव्य-रूढ़ि कहेंगे
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टुनई काका
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टुनई काका गाय-भैंस की चरवाही में
रखते थे मशगूल अपने आप को
खरिया-खुरपा,
बंदर-छाप तमाखू के साथ चूने की गोली
और बीड़ी-माचिस लुंगी की गुलेट मे रख कर
हार-पात घूमा करते थे टुनई काका
लोग कहते थे बड़ा औगुनी है
टुनइया !
टुनइया !
जाड़े-पाले की ठंड में रात-रात जाग कर अपने
गेंहूँ-मटर के खेतों की सिचौनी करते थे टुनई
काका
काका
आधी रात में भी ट्यूवेल-बोर के 15 फीट
गहरे गड्ढे में पट्टा चढ़ाने पैठ जाते थे टुनई
काका
काका
लोग कहते थे बड़ा हिम्मती है
टुनइया !
टुनइया !
‘बेला का गौना‘, ‘ऊदल
का ब्याह‘, ‘माड़ौ की लड़ाई‘
का ब्याह‘, ‘माड़ौ की लड़ाई‘
कजरी, चइता,
सरिया, सोहर और न जाने क्या-क्या गाते थे टुनई
काका
सरिया, सोहर और न जाने क्या-क्या गाते थे टुनई
काका
मेला-मिसरिख में सलीमा और नौटंकी
रात-रात भर देखा करते थे टुनई काका
लेकिन भोर भए घर भाग आते थे टुनई काका
दादा कहते थे बड़ा मिजाजी है टुनइया !
इस साल पहले सूखा फिर बाढ़ ने सब चौपट कर दिया
गाँव-घर में त्राहि-त्राहि मची है बड़े दुखी
हैं टुनई काका
हैं टुनई काका
अब दिल्ली जा रहें हैं बनिज कमाने टुनई काका
आँसू भरी आँखों से गाँव की ओर मुड़-मुड़ कर
देखते हैं टुनई काका
देखते हैं टुनई काका
लोग कहते हैं बेईमान नहीं है
टुनइया !
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बाबा का समय
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बाबा के न रहने के बाद
लाठी का कद सिर्फ
डंडे भर रह गया है
लेकिन लाठी को डंडा कहने में उन्हें संकोच
होता है
होता है
बाबा के हाथ में लाठी देखी थी जिसने
बाबा के न रहने के बाद
दो-दो भादों पड़े एक साथ
उन कलमुँही रातों को मैंने रोते हुए देखा है
निबिया की छाँहीं कुछ सिमट सी गई है
कि गुमसुम खड़ा है दरख्त
पागलों की तरह मुँह लटकाए
अपने पतझार होने के इंतजार में
बाबा के न रहने के बाद
तरवाहे तरे
खूँटी में टँगा है बाबा का लाल कुर्ता
आले में रखी है बाबा के जूतों की जोड़ी
सुरमदनी पड़ी है लुढ़कती हुई
बूढ़ी आँखों का स्पर्श पाने के लिए
तिदवारी के सामने पसरा पड़ा है
फूटी खपरैल से गिरा हुआ धूप का एक छोटा टुकड़ा
जैसे पूछ रहा हो घर के लोगों से
क्या बुढ़ऊ नहीं रहे !
बाबा के न रहने के पहले ही
नहीं रहे थे बाबा के तेलियाए सींगों वाले बैल
अब वह लढ़ी भी नहीं थी
जिसकी चंदोई में बांधा करते थे बाबा
लाल-हरी रस्सियाँ
उन दिनों की एक फटी हुई पखारी पड़ी है
भुसौरी के कोने में
कि पड़ी है एक जाजिम
और गलीचा
धूल-माटी को समेटे उन दिनों की
बाबा के न रहने के बाद
पड़ा है बाबा के जमाने का समय
बैलों के खाली पड़े मुसिक्के चढ़ाए हुए
खारे में अपने जिस्म को कसे हुए
सफरे पर सिमटा पड़ा है बाबा के जमाने का समय
बाबा के न रहने के बाद।
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माफीनामा
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एकलव्य-पथ* पर चढ़ते हुए
मैंने कई बार सोचा
गिन लूँ सीढ़ियाँ
अचानक माँ याद आई
वह कहती थी
पौधों की लंबाई नापने से उनकी बाढ़ रुक जाती है
दोस्त !
मैंने कभी नहीं गिनीं
एकलव्य-पथ की सीढ़ियाँ !!
कभी नहीं !!!
मै माफी माँगता हूँ
उस स्त्री से
जो मेरी दादी, माँ,
बहन और मेरी बेटी है
बहन और मेरी बेटी है
तुम हँसोगे मुझ पर, ‘भिखमंगा‘ जानते हुए
कसोगे फब्ती
‘सरवा बांभन भीख ही माँगेगा न‘
मैं आप सबसे माफी माँगता हूँ
इस जाति में पैदा होने पर
मैं नहीं जानता मेरा दोष क्या है
मैं फिर माफी माँगता हूँ
बरसों पहले माता-पिता ने
मुझे पुरुष बच्चे के रूप में जना
मैं अपराधी हूँ…
हो सके मुझे माफ कर देना…
मैं उस लड़की से भी माफी माँगता हूँ
जिसने मुझे बिना कारण बताए
अभी कल ही सारे-बाजार फटकारा
जैसे मैंने की हो कोई अश्लील हरकत !
मै धरती की गोद में पाला हुआ एक बच्चा
आकाश पिता को साक्षी मानकर
कहता हूँ
‘मैंने कुछ नहीं कहा‘
‘मैंने नहीं की कोई हरकत‘
फिर भी मै माफी माँगता हूँ
उस लड़की से
जो मेरी माँ, बहन
या बेटी है
या बेटी है
जिसे हजारों बरस तक
डाटा जाता रहा
पीटा जाता रहा
जान से मारा जाता रहा
बिना गलती बताए !
मैं माफी माँगता हूँ
मैं
शर्म से गड़ा जा रहा हूँ
शर्म से गड़ा जा रहा हूँ
मुझ पर थूको
मुझे गोली मार दो
मेरी लाश चौराहे पर टाँग दो
मै माफी माँगता हूँ
मैंने कोई गलती नहीं की
मैं एकलव्य-पथ की सीढ़ियाँ नहीं गिनूँगा
मैं कहता हूँ तुम मुझे फाँसी दे दो
मेरे बाप-दादों के किए पर…
मै
माफी माँगता हूँ
माफी माँगता हूँ
मेरे बच्चों को यह सजा मत देना
मै एकलव्य-पथ की सीढ़ियाँ नहीं गिनूँगा।
* एकलव्य-पथ हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में
बेतरतीब सीढ़ियों वाला मार्ग जो पठार की ऊँचाई पर ले जाता है।
बेतरतीब सीढ़ियों वाला मार्ग जो पठार की ऊँचाई पर ले जाता है।
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रहमत मास्टर
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पिता के लिए
तंजेब की जेबदार बनियानी
सिलते थे रहमत मास्टर
दादा के लिए
मारकीन की झँगिया ताखी
और कुर्ता सिलते थे रहमत मास्टर
मेरे लिए
सिर्फ पटरा की नेकर
सिलते थे रहमत मास्टर
और परधान जी के लिए
सिलते थे रहमत मास्टर
कुर्ता-पाजामा
सदरी
मिर्जई
और न जाने क्या क्या
बचनू काका ने भी जिंदगी मे सिर्फ एक बार
सिलवाई थी एक फतुही
रहमत मास्टर से
… …
सुना है कि इधर भूख से मर रहे हैं
रहमत मास्टर
क्योंकि अब कोई भी नहीं जाता
उनके पास
कुछ भी सिलवाने
[बया, वागर्थ, संवेद, जनपथ और परिचय आदि पत्रिकाओं में अनेक कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित, मेल- shailendrashuklahcu@gmail.com]
हिन्दी साहित्य सृजन में स्त्रियों की भूमिका विषय पर केन्द्रित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
अनुक्रम
- 1
- 2
- 3
- 4
- 5 हिन्दी साहित्य सृजन में स्त्रियों की भूमिका विषय पर केन्द्रित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठीस्थान : हिन्दी विभाग, भाषा एवं मानविकी संकाय , जामिया मिल्लिया इस्लामिया , नई दिल्ली – 110025
- 6 दिनांक: 16 – 11 -2016, सायं : 4.00 बजेउद्घाटन सत्र एवं हिन्दी कथा साहित्य और स्त्री का प्रतिनिधित्व
- 7 दिनांक: 17 – 11 -2016,
- 8 प्रथम सत्र – प्रातः 9.30 से 11.00 बजेविषय : हिन्दी उपन्यास और स्त्री चेतना
- 9 दूसरा सत्र – पूर्वाहन 11.30 से 1.30 बजे तकविषय : हिन्दी कहानी और स्त्री छवियां
- 10 तृतीय सत्र – पूर्वाहन 2.00 से सायं 4.00 बजे तकविषय : पितृसत्ता का विद्रूप और स्त्री की कलम