28.1 C
Delhi
होम ब्लॉग पेज 80

निदा नवाज़ की कविताएँ

0
405735 528575880532605 350592308 n

1-हमारी अम्मा की ओढ़नी

वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाजे़
और घुस आते हैं हमारे घरों में
वे दाढ़ी से घसीटते हैं
हमारे अब्बू को
छिन जाती है
हमारी अम्मा की ओढ़नी
या हम एक दूसरे के सामने
नंगे किए जाते हैं
सिसकती है शर्म
बिखर जाते हैं रिश्ते
वे नकाबपोश होते हैं
केकिन
हम खोज ही लेते हैं उनके चेहरे
अतीत की पुस्तक के एक एक पन्ने से
बचपन बिताए आंगन से
दफ़्तर में रखी सामने वाली कुर्सी से
एक साथ झुलाये हुए झूले से
स्कूल की कक्षा में बैठे लड़कों से
हमारे बचपन के आंगन पर
रेंगते हैं सांप
यमराज दिखाई देता है
हमारी सामने वाली कुर्सी पर
जल जाती है
हमारे बचपन के झूले की रस्सी
हम उस काली नक़ाब के पीछे छिपे
कभी उस लड़के का चेहरा भी देखते हैं
जिसको हमने पढ़ाया होता है
पहली कक्षा में
वे जब आते हैं रात-समय
ले जाते हैं जिसको वे चाहें घर-परिवार से
और कुछ दिनों के बाद
मिलती हे उसकी लाश
किसी सेब के पेड़ से लटकी
या किसी चौराहे पर लुथडी
मारने से पहले वे
लिख देते हैं अपना नाम
उसकी पीठ पर
आतंक की भाषा में
दहकती सलाखों से
आग के अक्षरों में
वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाज़े
रोंदते हैं पाव तले
हमारी संस्कृति को
हमारे रिश्तों को
हमारी शर्म को .

2-विद्रोह

मैंने काले घनघोर मेघों से
कभी रास्तों का पता नहीं पूछा
मैंने रेबीज़ से ग्रस्त कुत्तों से
कभी यारी नहीं गांठी
मैंने कसी भगवान के आगे
कभी नहीं किया कोई मन्त्र पाठ
और न ही मांगी
किसी अंधविश्वास के देवता से
कोई जीवनदान की दुआ
मैं धर्म के दलालों को
सदैव जज़िया१ देने से इनकारी हुआ
अपनी उम्र के सूर्योदय से लेकर
आज तक
मैं समेटता रहा
रौशनी की एक एक किरन
अपने विवेक का आहार
मैं दर्ज करना चाहता हूँ
रात के गहरे अँधेरे के ख़िलाफ़
एक मशाल भर विद्रोह .
———————————
जज़िया:- इस्लामी शासन में गेर-मुस्लिमों से लिया जाने वाला टेक्स.

3-एहतिजाज का पोस्टर
(दुनिया भर के शरणार्थियों के नाम)

तुम्हारे घरों पर बोल दिया है
पागल कुत्तों ने धावा
कहीं ताना शाहों के रूप में
तो कहीं आईएसआईएस के
क्रूर आतंकियों के रूप में
जिनकी पीठ थपथपा रहें हैं
साम्राज्यवाद के सफ़ेद भेड़िये
और कट्टरवाद के कायर कौए
एक नाटकीय षड्यंत्र
कुत्तों, कौओं और भेड़ियों के बीच
मानवता को लहुलुहान करने का
प्रागैतिहासिक पाखंडी घुफाओं में
मानव को वापस धकेलने का
अंधविश्वास के गहरे अँधेरे में
फैंक देने का
तुम सब निकल पड़े हो
अपने बचे-खुचे परिवारों सहित
सांस भर जीवन
और आँख भर सपनों को तलाशते
अपने सिरों और कांधों पर
बच्चों भर भविष्य
और आशा-भर पोटलियाँ लिए
सफ़र-भर शंकाएं और सागर-भर डर के साथ ,
अतीत-वसंत और वर्तमान-पतझड़ की
यादों के कारवाँ को हांकते
छाओं-भर आकाश
और बैठने-भर ज़मीन की तलाश में.
तुम्हारे साथ ही निलका था ऐलान कुर्दी भी
अपने अब्बू.अम्मी और बड़े भाई के साथ
अपने नन्हे पांव से फलांगता
सीरिया और तुर्की की कंटीली सीमाएं
तीन वर्षीय ऐलान कुर्दी
जो बीच सागर में डूब कर मर गया
अपनी अम्मी और बड़े भाई के साथ
लाखों अनाम शरणार्थियों के साथ
मानवता के चेहरे पर एक नासूर बनकर
जिसका ओंधे मुंह पड़ा मृत शरीर
और नन्हे जूतों के घिसे तलवे
अल्हड लहरों और रेतीले साहिल पर
हम सब के ख़िलाफ़ दर्ज कर गये
एहतिजाज का एक मुखर पोस्टर.

4- मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ

मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां मशकूक होना ही होता है
मर जाना
जहां घरों से निकलना ही होता है
ग़ायब हो जाना
जहां हर ऊँचा होता सिर
महाराजा के आदेश पर
काट लिया जाता है
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां की उपजाव मिटटी में
अब केसर की घुन्डियाँ नहीं
बारूदी सुरंगे बोई जाती हैं
जहां के बर्फ़ीले पहाड़
लहू-रंग विलाप में बदल जाते हैं
जहां के पहाड़ी झरनों में
लोगों के आंसुओं का बहाव है
जहां सिमटते जा रहे हैं खेत
फ़ैलती जा रही हैं छावनियां
जहां देखते ही देखते
सड़कें हो जाती हैं रक्तिम-लाल
और मिर्ची-गैस की शलिंग से
आँखें हो जाती हैं सुर्ख़-अंधी
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां झूठ की आँखों में आँखें डालना ही
होता हैं अपनी आँखें निकलवाना
सिर उठा के चलना ही
होता है अपना सिर कटवा लेना
और सच के हक़ में बोलना ही
होता है
सदैव के लिए बेज़ुबान हो जाना
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां घर से निकलते समय माएँ
अपने बच्चों के गले में
परिचय-पत्र डालना कभी नहीं भूलती
भले ही वह भूल जाए
टिफन या कतबों के बस्ते
अपने नन्हों के परिचय की ख़ातिर नहीं
बल्कि
उनका शव घर के ही पत्ते पर पहुंचे
इस की ही चिंता रहती है उन्हें
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जिसकी सीमाओं की फ़ज़ाओं पर
वर्षों से मण्डलाते रहते हैं
चील,कोए और गिद्ध
और जहां मानव कंकाल का
लगा हुआ है अंतहीन-पर्व
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां महाराजा की शर्तों पर जीवन
और अपनी शर्तों पर
केवल मौत चुनी जासती है
जहां के बाज़ारों में
होती है ख़ौफ़ की चहल-पहल
और लोग लेप लेते हैं चेहरों पर
झूठी मुस्कुराहटों के फीके रंग
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां के जनगणना-दफ़्तरों में
आधी-माओं और आधी-विदवाओं की
बढ़ती जा रही हैं सूचियाँ
जितनी बढ़ती जा रही है
ग़ायब किये गए लोगों की संख्या
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां चेहरों पर खिलता है सोग
पांवों में पड़ती हैं ज़ंजीरें
दिलों में धड़कतीं हैं दहशतें
आँखों में अटकते(मरते) हैं सपने
और
उँगलियों पर उगती हैं हैरतें
*
मैं उस स्वर्ग में रहता हूँ
जहां बच्चा होना होता है सहम जाना
जवान होना होता है मर जाना
औरत होना होता है लुट जाना
और बूढ़ा होना होता है
अपनी ही सन्तान का
क़ब्रिस्तान हो जाना
*
मैं उस नर्क में रहता हूँ
जो शताब्दियों से भोग रहा है
स्वर्ग होने का एक
कड़ुआ और झूठ आरोप।

5- दमख़ोर कानून की आड़ में
(इरोम शर्मिला के नाम)

ओ मेरे देश की लौह स्त्री
हम सब जानते हैं
जानते हैं जब चीते और चील करने लगते हैं सांठ-गांठ
होती है तब किसी देह की ही चीर फाड़
जब संविधान के हाशिये पर होने लगती है दलाली
जब कोई ज़ालिम,साधू या मौलवी
तानाशाह का रूप करने लगता है धारण
आरम्भ हो जाता है मृत्यु का तांडव
चौराहों पर लग ही जाता है नफ़रत का पर्व
हम जानते हैं इरोम शर्मिला
जब धर्म और राजनीति में होने लगती है यारी
इतिहास के पन्नों पर
बिखर ही जातीं हैं लाल तरल की छींटें
आँखों में उमड़ ही आती हैं दुखों की बूंदें
कुछ लोग अपने घरों,रिश्तों और जड़ों को समेटे
निकल ही जाते हैं अपनी मातृभूमि को छोड़ कर
फ़ज़ाओं पर फैल ही जाता है
टियर-गैस या मर्चि-गैस का ज़हरीला धुँआ
जनसंख्या होने लगती है कम
और सैनिकों की बढ़ने लगती है तादाद
अफ्स्पा१की आदमख़ोर आड़ में
आरंभ हो जाता है फ़र्जी झड़पों का मृत्यु-काल
कहीं सजने लगते हैं निर्दोषों के कब्रिस्तान
तो कहीं मज़लूमों की असंख्य चिताएं
चाहे वे तुर्की और इराक़ के कुरूद क्षेत्र हों
या हों अफ़्रीका के एलबिनोज़ बाशिंदे
जकारताई या पाकिस्तानी अल्पसंख्यक हों
या हों फ़लस्तीन के आम लोग
वे बर्मा के मुसलमान हों
या हों इस्लामी देशों की औरतें
वह कश्मीर की बर्फ़ीली घाटी हो
या हो पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासी गांव
वह कुन्नि-पोषपोरा२ की सहमी औरतें हों
या हों मणिपुर की मसली गईं महिलाएं
या हो इरोम शर्मिला तुम्हारा
अपना क्रन्तिकारी निड़र मन
उनहोंने अपने साम्राज्य को
लोकतन्त्र का मन भावन पोशाक पहना दिया
और दुनिया भर में ढंढोरा पीटने लगे
अपने साम्राज्य की महानता का
कितने मुर्ख हैं वे इरोम शर्मिला
जो अपनी आँखों पर कट्टरवाद की पट्टियां बांधें
पूरी दुनिया को अँधा समझने लगे हैं
उनहोंने अपने तन्त्र को ढाल दिया
जनरल डायर के ही सांचे में
वे हमारे देश को ही बदलने लगे हैं
एक विशाल जलियांवाला बाग़ में
आम लोगों को नाममात्र जिन्दा रखकर
वही साम्राज्यवाद की मक्कार-मानसिकता
और वही क्रूर इरादें
वही इंसानी ख़ून के प्यासे क़ानून
और वही हिटलर मसालोनी का फ़ौजी नशा
लेकिन इरोम शर्मिला हम सब जानते हैं
कि आम लोग मिटटी से जुड़े होते हैं
जुड़े होते हैं साहस से और संघर्ष से
जुड़े होते हैं क्रांति से और प्रतिरोध से
उनकी पृवृति में होते हैं लौह-मनुष्य बनने के सारे गुण
उनकी सांसों में होती है विद्रोह की सारी महक
उनकी पलकों में बस्ते हैं शांति के सपने
जिसका सुंदर उदाहरण स्वयं तुम हो इरोम शर्मिला
जिसने लोगों के जीवन के पूरे अधिकार-प्राप्ति की ख़ातिर
अपने लिए नाममात्र जीवन चुन लिया
तुम्हारी “अमन की खुशबू
फैल जायेगी
सारी दुनिया में”३
पराजित हो जाएंगे चीते और चील
इनका यह आदमख़ोर क़ानून
बह जायेगा किसी गटर के रास्ते से
हम सब दुनिया के शांतिप्रिय लोग
नमन करते हैं तुम्हें इरोम शर्मिला
और नमन करते हैं तुम्हारे ऐहतिजज को भी।
—————————————————-

१- अफ्सपा-(आर्म्ड फोर्सिज़ स्पेशल पावर एक्ट)-सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून 1958 में संसद द्वारा पारित किया गया था और तब से यह कानून के रूप में काम कर रहा है. आरंभ में अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा में भी यह कानून लागू किया गया।जम्‍मू-कश्‍मीर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफ्सपा) 1990 में लागू किया गया। इस क़ानून के तहत संदेह के आधार पर जबरन किसी घर या व्यक्ति की तलाशी और किसी भी व्यक्ति को गोली मारने का अधिकार प्राप्‍त है और कोई भी निर्दोष मरे तो फ़ौजियों को कोई जवाबदेही नहीं।इस आदमख़ोर क़ानून के चलते कश्मीर घाटी और उत्तर पूर्वी राज्यों में फ़ौज द्वारा फ़र्जी झड़पों की आड़ में लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएँ की गईं।इरोम शर्मिला पिछले लगभग 16 वर्षों से इस क़ानून के ख़िलाफ़ भूख हड़ताल पर हैं।
२-कुन्नि पोशपोरा- कश्मीर घाटी के कपवारा ज़िले के दो जुड़वाँ गांव जहां 23 और 24 फ़रवरी 1991 की मध्य-रात्र को 68 ब्रिगेड से संबंधित 4-राजपुताना राइफल्स की एक टुकड़ी द्वारा लगभग एक सौ कश्मीरी लड़कियों/औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया।इनमें 80 साल की एक बूढ़ी औरत और 7 वर्ष की एक छोटी बच्ची भी थी।

३-“——–” इरोम शर्मिला की एक कविता की चन्द पंक्तियाँ।

निदा नवाज़
संपर्क :- निदा नवाज़ ,निकट टेलीफ़ोन एक्सचेंज ,एक्सचेंज कोलोनी ,पुलवामा – 192301
फोन :- 09797831595
e.mail :- nidanawazbhat@gmail.com
nidanawaz27@yahoo.com

मॉरिशस में कवि सम्मेलन

0
16508136 10208680614632901 2403885030666005055 n

16681621 10208680614752904 255989063512891194 n

जनकृति अब विभिन्न भाषाओं में…

0
jankriti page 001

जनकृति विश्वहिंदीजन की तर्ज पर शीघ्र ही अन्य भारतीय भाषाओं में भी उपक्रम जारी करने जा रही है, जिसका सम्पादन एवं संचालन संबंधित भाषी व्यक्ति द्वारा किया जाएगा. इन उपक्रम की घोषणा शीघ्र ही होगी कुछ भाषाओं पर कार्य प्रारंभ कर दिया गया है. इन उपक्रम में आप विभिन्न भाषाओं के साहित्य, कला इत्यादि क्षेत्रों की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे. यदि आप भारतीय भाषा में से किसी भी भाषा के उपक्रम का संचालन करना चाहते हैं तो अपना परिचय हमें jankritipatrika@gmail.com पर मेल करें.
इसके अंतर्गत जनकृति के विभिन्न भाषाओं में उपक्रम है जैसे 
जनकृति पंजाबी 
जनकृति मराठी 
जनकृति बंगाली 
जनकृति राजस्थानी 
जनकृति गुजराती 
जनकृति कन्नड़ 
जनकृति तेलगू 
जनकृति मलयालम 
जनकृति मैथली 


इसके अतिरिक्त विभिन्न लोकभाषाओं में भी जनकृति के उपक्रम है
जनकृति अवधी 
जनकृति बघेली 
जनकृति बुंदेली 
जनकृति मगही 
जनकृति भोजपुरी 
जनकृति छत्तीसगढ़ी 
जनकृति कुमाउनी 
जनकृति ब्रज 
जनकृति मालावी, निमाड़ी 
यह सभी उपक्रम जनकृति से जुड़े हैं, जिनका प्रचार-प्रसार जनकृति के सार्वजनिक मंचों से किया जाएगा. इन उपक्रम में सबंधित भाषा से संबंधित साहित्य, कला इत्यादि क्षेत्रों की सामग्री प्रकाशित की जायेगी. इनके माध्यम से हम विभिन्न भाषाओं को सृजनात्मक लेखन को आगे लायेंगे.

संतोष चतुर्वेदी की कविता ‘मोछू नेटुआ’: समीर कुमार पाण्डेय

0
13418860 1183415878389456 8437471569240418208 n
समकालीन कविता का कैनवास काफी विस्तृत है। समकालीन कवियों ने अपनी कविता में केवल प्रेम, सौंदर्य और प्रकृति को ही महत्त्व नहीं दिया है बल्कि उन्होंने समय के अनुरूप आम जन की स्थिति को भी परखने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया है। प्राचीन काल से ही उच्चवर्गीय समाज द्वारा दलित एवं पिछड़े हुए समाज का शोषण होता आया है। साहित्य के अन्तर्गत दलित यथार्थ का सत्य, आदिवासी का जीवन और वनों-जंगलों में घुमकर अपना जीवन बिताने वाली घुमंतू जैसी जनजातियों का चित्रण उस मात्रा में नहीं है जितना होना चाहिए।
संतोष चतुर्वेदी की कविता ‘मोछू नेटुआ’ पढ़ते वक्त उस कर्मठ घुमन्तु व्यक्तित्व से मिलना हुआ जो हमारे बीच रहते हुए भी ठीक से हमारे समाज का हिस्सा नही बन पाया था। इस कविता में सांप पकड़ने वाली जनजाति के चरित्र की अदम्य साहस तथा उपेक्षित चरित्र को कविता का विषय बनाया गया है। यह कविता अपने कथ्य के साथ-साथ लोक, समयबोध और सामाजिक यथार्थ के नए पहलुओं को उजागर करते हुए संवेदना का सम्यक चित्र प्रस्तुत तो करती ही है ग्रामीण जीवन के श्रम-सौंदर्य का आख्यान भी रचती है। संतोष चतुर्वेदी की कविताओं का सौन्दर्यशास्त्र लोक दृष्टि की चेतना से व्याप्त है। यह कविता लोक जीवन से संपृक्त कविता है। जिसे कवि ने अपने समय यानि आज के जनजीवन में इस लुप्तप्राय वंचित चरित्र को कविता में उतारा है।
ग्रामीण जीवन में मोछू नेटुआ जैसे चरित्र अत्यंत जीवंत तथा प्राणवान होते हैं। वे अभावों और कष्टों में जीते हुए तमाम कठिनाइयों को झेलकर कुंदन सा निखरते हुए भी सामाजिक जीवन जीते हैं। मोछू नेटुआ जो सदियों से हमारे समाज में जितना उपेक्षित है उतना ही वह साहित्य में भी है। जिसको कविता में उतार कर संतोष चतुर्वेदी ने साहित्य के उस खाली जगह को भरने का सफल प्रयास किया है। इस अर्थ युग को ध्यान में रखते हुए यह कविता यह इशारा करती है कि हमारे समस्त सामाजिक संबंधों का आधार भी आर्थिक है। इसीलिए हुनरमंद मोछू भी सजगता से अपना काम निपटाने के पहले ही मोल-भाव कर लेता है। मोछू को पता है कि यह सुविधाभोगी समाज इतना डरपोक है कि उसे और खींचा और झुकाया जा सकता है। यही इस कविता की ताकत है और मूल उद्देश्य भी-
‘सौ रुपये और एक धोती से कम न लूँगा
मोल तोल के बाद आखिर मामला फिर
बीस कम सौ पर पट जाता
वह कविता में कहता है कि कुलीन वर्ग ने ही हमें अपराधी घोषित किया है तथा सरकार उसकी पुष्टि करने वाली एक मजबूत संस्था है। जब वह अपना सर उठाने की कोशिश करता है तो उसे प्रतिबंधित संगठन का गुर्गा बता कर उसपर अत्याचार शुरू कर दिया जाता है-
‘हाँ मालिक यह ससुरी सरकार तो
कभी हमें आतंकवादी बताती है
तो कभी घोषित कर देती है नक्सलवादी’
यह परम्परागत बोझ मोछू सदियों से ढो रहा है। वह देश के उन तमाम गरीब तबके का प्रतिनिधित्व करता है जो इस लोकतंत्र में आज भी वह अछूत और उपेक्षित है। उसके ईमानदार कर्तव्यों में भी सभ्य समाज कुछ न कुछ खमियाँ ढूंढ कर इतिहास से च्युत करता आया है। जो इस देश की सबसे बड़ी त्रासदी है। मोछू नेटुआ सही ही कहता है कि –
‘आज के समय में सबसे बड़ा अपराध है गरीबी’
यह कविता ग्रामीण परिवेश का सफल चित्रण करते हुए अपने पूरे परिवेश को भी आच्छादित करती है। उसे चिंता है कि साँपों से भी अधिक जहरीला आज का मनुष्य होता चला जा रहा है। मोछू नेटुआ राजनेताओं के द्वारा ओढ़े मुखौटों को पहचान गया है। इस दुनिया का आदमी उसे साँपों से भी खतरनाक प्रतीत होता है जिस पर उसके मन्त्र का भी कोई असर नही होता। वह उनकी कुटिलता और उनके छद्म पर तीखे व्यंग्य करता है-
‘जहरीली होती जाती इस दुनिया में से 
बेज़हर लोगों को वह कैसे सामने लाये’
लोक जीवन की सच्चाई से गहरे जुड़ा कवि ही जान पाता है कि गाँवों के जीवन में निरन्तर कितना कुछ टूट-फूट-बिखर रहा है। गाँवों से किस कदर हँसती खेलती ज़िन्दगियाँ गायब होती जा रही हैं-
‘जैसे खूँटों से एक-एक कर गायब होते गए बैल
गायों से खाली होते गए दुआर
अपनी सख्त कवच के बावजूद
कछुए नहीं बचा पाए खुद को
और हमारे देखते-देखते गायब हो गए
दूर तक नज़र रखने वाले गिद्ध
ठीक उसी तरीके से गायब होते जा रहे हैं
साँप’
कविता मोछू नेटुआ के माध्यम से उन जैसों के जीवन के दुख सुख, प्रताड़ना व विषाद के चित्रण के साथ साथ बाजारीकरण के इस दौर में सांपों तथा अन्य जानवरों पर हो रहे अत्याचारों का खुलासा भी इस कविता में किया गया है…
‘सांपों को पकड़ कर
बड़ी बेरहमी से निकाल लिया जाता है उनका जहर
सुना है कि उस जहर से बनायी जाती हैं
एक से बढ़ कर एक महंगी दवाइयां
फिर वे अपने कहर के जहर से मार डालते हैं सांप को
महज उसकी खाल के लिए
सुना है जिससे तैयार होते है। कारखानों में
महंगे-महंगे कोट
महंगे-महंगे बैग
बाजारों में बेचने के लिए’
कविता इस विडंबनात्मक स्थिति से उपजी बेरोजगारी के कारण गाँवों से हो रहे पलायन को भी सशक्त रूप से अभिव्यंजित करती है जो वर्तमान राजनीति की असफलता को व्यक्त करती है। साथ ही ग्रामीण जीवन की विकल्पहीनता में इसके जैसे लोग कैसे अपना जीवन यापन करें यह यक्ष प्रश्न भी उठती है। आज के वैज्ञानिक युग में पूंजीवादी व्यवस्था के हावी होने से पारम्परिक श्रमसाध्य आजीविका के संकट को भी कविता मुखरता से उठाती है। भारत में विश्व व्यापार संगठन के इशारे पर विश्व बाजार के लिए खुली अर्थव्यवस्था, कारपोरेट वर्चस्ववादी भूमंडलीकृत बाजार, बाज़ारवाद व उपभोक्तावाद की मनुष्यविरोधी क्रूर स्थितियों और कठिन समय में यह कविता ग्रामीण जीवन के इस घुमन्तु चरित्र के माध्यम से उनके हाहाकार और प्रतिरोध की आवाजों को दर्ज करती है। साथ ही विकास के क्रम में उस ग्रामीण द्वंद से निर्गत नई पीढ़ी द्वारा सामाजिक विकास प्रक्रिया में अपने लिये नया रास्ता भी खोज लेती है। इसीलिऐ मोछू के बेटे अपना पुश्तैनी काम छोड़ शहर चले जाते हैं और नया विकल्प चुनते हैं…
‘अपनी फाँकाकशी में भटकते-फिरते हम
सोच ही नहीं पाते कोई फितूर
और होते रहते हैं लगातार दर-बदर
घूमते फिरते हैं रोज इधर उधर
यही देख समझ कर आखिर एक दिन
अपना काँवर अपनी झॅंपोली फेंक-फाँक कर
भाग गए हमारे दोनों बेटुए
बाहर कहीं मेहनत मजूरी करने’
अपने जड़ों से उखड़ने की इस त्रासद स्थिति को भी मोछू वर्तमान भयंकर संकट के हल के रूप में देखते हुए मारक व्यंग्य प्रस्तुत करता है। कविता में इसे आजीविका के संकट से मुक्ति के रूप में देखना उसकी व्यंजना को और बढ़ा देता है। यह एक बहुआयामी कविता है। कविता में विकास के नाम पर हो रहे विस्थापन और मशीनीकरण के चलते परंपरागत पेशों पर मंडरा रहे खतरे की चिंता स्प्ष्ट झलकती है। वह खुद की चिंता इसीलिए नही करता क्योंकि उसे संतुष्टि है कि उसका बुढ़ापा जैसे-तैसे कट ही जायेगा। शायद यह कर्तव्यबोध उसके भविष्य के प्रति चिंता को दर्शाता है…
‘ठीक ही तो किया उन दोनों ने
दर-दर भटकना तो नहीं पड़ेगा उन्हें हमारी तरह
दो जून की रोटी जुटाने के लिए
और हम बूढ़ा-बूढ़ी की जिनगी ही कितनी बची है
कट ही जाएगी जैसे-तैसे’
लौकिकता पर गहरा विश्वास और जीवन के खुरदुरेपन के प्रति मोह कविता को बेहद पठनीय और रोचक बना देता है। जमीन से जुड़े कवि का जीवन के यर्थाथ से विषय उठाना ही कविता में एक नये सौंदर्यशास्त्र की रचना करता है। हाशिये की आवाज को उठाने वाली पूरी की पूरी कविता इस वंचित और अछूते चरित्र की त्रासदी को अभिव्यंजित करते हुए मनुष्यों में आयी गिरावट और राजनितिक विडम्बनाओं का चित्रण तो करती ही है साथ ही साथ आज की कुलीन संवेदना और सामाजिक जड़ता के क्षद्म सौंदर्य पर तीखा प्रहार भी है।
अनगढ़ शिल्पगत सौंदर्य, सुघड़ आंचलिक रचाव , अनुकूल देशी ठसक, भोजपुरी के शब्दों का सहज, सरल और सटीक प्रयोग से कविता बहुत ही शानदार बन पड़ी है। साथ ही इसमें ग्रामीण परिवेश के चाक्षुष और ऐंद्रिक बिंब बहुत ही प्रभावी बन पड़े हैं जो इस कविता की मूल शक्ति है। कविता में सीधे, सपाट लहजे और बोलचाल की भाषा में कही गयी बात एकदम से पाठक तक पहुँचती है। 
तो आइए देखते हैं कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी जी की यह लोकधर्मी कालजयी रचना….
मोछू नेटुआ 
**********
हरखम दरखम गोने नाझा मारे फू
परेछेत केलस कोता जेनेमेजा घाते छू
अलकम बलकम बिल कतेरा नारे कू
मेरेस नाते घोर कराते छाड़े छू
अबूझ भाषा के इस
साँप पकड़ने वाले मंत्र को बुदबुदाने के बाद
एक रसम जैसे वह किरिया खाता था
माई किरिया, बाप किरिया, बेटा किरिया
बेटी किरिया, दामाद किरिया
गाँव किरिया, सीवान किरिया
डीह किरिया, डिहवार किरिया…
और तब एक सधे अंदाज में डंडा नचाते
घुस जाता वह घर में साँप पकड़ने
साँप से बाहर निकलने की गुहार करते हुए
मान-मनुहार करते हुए
कि निकलि आओ जहाँ भी छुपे बैठे हो वहाँ से
निकलि आओ कोने से अँतरे से
धरनि से, सरदर से, कोरो से, मलिकथम से
निकलि आओ पटनी से, डेहर से, दियरखा से
खपरा से, नरिया से
बिल से, बिलवार से
निकलि आओ जहाँ कहीं छुपे हुए हो
वहीं से जल्दी से जल्दी
भरे गलमुच्छों वाले मोछू नेटुआ के करतब के स्थापत्य को
हम आश्चर्य के शिल्प की तरह निहारते
कुछ ही देर में हम तब वाकई
अपने पास ही मोछू नेटुआ के डंडा फटकारने
और साँप के फुँफकार की आवाज साथ-साथ सुनते
और तब मोछू के हथेलियों के कसाव में
अपने फन को और चौड़ा करने की नाकाम कोशिश करते
आँखें लाल-पीला करते बेवश पड़े साँप को पाते
जिसे ला कर रख देता वह सुरक्षित अपनी झँपोली में
अपने वादे के मुताबिक जंगल में छोड़ने के लिए
उसी की जुबान से तमाम बातें
तभी जाने हमने साँपों के बारे में
मसलन यह कि गेंहुवन का डॅंसा नहीं बच पाता कभी
कि अजगर तो लील लेता है हिरन तक को समूचा
कि नाग के जहर का कोई
तोड़ नहीं खोज पाया अभी तक आदमी
कि अपनी पर आ जाय तो
करैत भी कम खतरनाक नहीं होता
कि एक दोमुँहा साँप भी होता है थुत्थुर
जो छह महीने एक तरफ से साँस लेता है
तो छह महीने दूसरी तरफ से
भारी भरकम विशेषणों से सँवार कर
जितना बतलाता वह किसी साँप के बारे में
उतना ही डरावना नजर आता तब वह साँप हमें
डाक्यूमेंट्री फिल्मों से बाहर निकल कर
सरकारी दस्तावेजों से इतर
ठेठ अपनी जिंदगी जीते हुए
गाँवों की गलियों की खाक छानते हुए
जोर-जोर से आवाज लगाता मोछू नेटुआ
कोवे जैसा महक रहा है मालिक इस घर में
कोवे की इस महक को सूँघ पाता केवल मोछू नेटुआ
जिसके बारे में वह इतराते हुए बतलाता
कि जिसे साध पाते हैं
कठिनाइयों को झेलने वाले
केवल कुछ लोग ही इस दुनिया में
वही सूँघ पाते हैं कोवे की इस गंध को
कोवे की इस तथाकथित महक से घबराए घर वाले
कुछ कदम आगे बढ़ गए
मोछू नेटुआ को फौरन बुलाते फरमाते
मोछू नेटुआ तब किसी ज्योतिषी के अंदाज में बतलाता
बहुत खतरनाक है बड़ा जहरीला
बाबूजी जान की बाजी लगा कर निकालना पड़ेगा
सौ रुपये और एक धोती से कम न लूँगा
मोल तोल के बाद आखिर मामला फिर
बीस कम सौ पर पट जाता
मोछू नेटुआ तब फौरन अपने काम पर जुट जाता
अपने सिर पर पगड़ी बाँधते
कान में जड़ी खोसते
डंडा फटकारते… अबूझ सा मंत्र पढ़ते
तमाम संबंधों की कसमें खाते
वह घुस जाता तब किसी एक कमरे में
और निकाल लाता सचमुच
अपने हाथों की पकड़ में साँप
अक्सर जो उसके मुताबिक
पुराना और बहुत जहरीला हुआ करता
तब सहज ही यकीन कर लिया करते थे लोग
मोछू नेटुआ की बातों और उसके इस करतब पर
घर के लोगों को पड़ती थी उस रात चैन की नींद
और ठीक उसी दिन
मोछू नेटुआ का घर भी जगमगाता
बहुत दिनों के बाद
उसका पूरा घर जी भर खाता-पीता-सोता
ठमक जाता ठिठक जाता अक्सर भीड़ देख कर वह
फिर घर की ओर जा कर बतलाता विशेषज्ञ मुद्रा में
भीड़ से बिदक कर
पास-पड़ोस में हवा खाने कहीं निकल गए नागराज
और इस तरह बढ़ जाता वह कन्नी काट कर आगे
किसी ऐसे घर की तलाश में
जहाँ कम से कम लोगों के बीच
अपना हुनर दिखा कर
कोई साँप पकड़ सके वह
वैसे कुछ जानकार लोग यह बतलाते
कि मोछू नेटुआ के कमाई-धमाई का जरिया है यह
और जहाँ तक साँप की बात है
खोंसे रहता है उसे वह अपनी कमर
या धोती के पोछिटे में पहले से ही
कुछ लोग साँप पकड़ने के इस उपक्रम को
जाँचने-परखने के लिए
घर के जंगलों-रोशनदानों से
ताक-झाँक करने की तमाम कोशिशें करते
और फिर अपने अपने अनुभव सुनाते बतलाते
फिर भी रहस्य का एक पर्दा तना रहता
पूरी खामोशी के साथ अपनी जगह
जस का तस
कुछ लोगों का यह भी कहना था
कि साँप के बहाने घरों में घुस कर
सामानों की थाह लेता फिरता है मोछू
और फिर रात-बिरात
अपने साथियों समेत सेंध मार कर
चुरा ले जाता है सारा मालो-असबाब
एक बार जब हमने पूछा मोछू से
उसके गाम-धाम के बारे में
तब उसने बताया कि हम खानाबदोश हैं बाबूजी
पीढ़ियों से हमारे पास नहीं कोई घर
नहीं एक भी धुर जगह जमीन कहीं कोई
जहाँ रुक गए वहीं बसेरा
जब जग गए तभी सबेरा
हमीं हैं असली रमता जोगी बहता पानी
कभी हमारे देश को गुलाम बनाने वाले फिरंगियों ने
हम जैसी तमाम घुमंतू जातियों को
घोषित कर दिया था अपराधी
और तब से यह लेबेल अपने चेहरे पर लगाए
मरते हुए जीने की कोशिशों में
लगातार लगे हुए हैं हम
एक समय तो आलम यह था कि
चाहें जहाँ चोरी-डकैती पड़े जिला-जवार में
हम ही पकड़ लिए जाते पूरे कुनबे समेत
तब पिछउँड़ चढा कर बाँध दिया जाता था हमें खंभे में
और बेरहमी से तब तक इतना मारा पीटा जाता
जब तक बेसुध न हो जाते
बेहोश न पड़ जाते हम मार से
मालिक सही बताऊँ आपको
मुझे तो लगता है कि
आज के समय में सबसे बड़ा अपराध है गरीबी
और तुलसी बाबा भी बहुत पहिलवे
केतना सही कह गए हैं मालिक
समरथ को नहीं दोष गोसाईं
और आज अपने जिस लोकतंत्र पर
गर्व करते हम नहीं अघाते
उसी की पहरुआ अपनी यह सरकार भी
राई-रत्ती कम नहीं फिरंगियों से
बातचीत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए
जब यह कहा मैने मोछू से
तो लगा कि जैसे
उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो मैंने
तब बेसाख्ता बोल पड़ा वह
हाँ मालिक यह ससुरी सरकार तो
कभी हमें आतंकवादी बताती है
तो कभी घोषित कर देती है नक्सलवादी
पता नहीं कहाँ से
ढूँढ़ लाती है एक से एक शब्द
अपनी भाषा में
हमें तो सूझी नहीं रहा कुछ
अब आपे बताइए मालिक
कि कैसे धोएँ हम
अपने माथे पर जबरिया लादा गया
बेमतलब का कलंक
दिक्कत की बात तो यह कि
कभी कोई समझ ही नहीं पाया हमें
अब देखिए न आपे हमारी नियति
कि पुराने जमाने का अछूत मैं
इस जमाने का अपराधी हो गया हूँ
होता रहा हमारे साथ
हमेशा बदतर सलूक
उठती रही बराबर मन में
एक अजीब सी हूक
छेड़ने के अंदाज में
अपनी बात रखते हुए कहा मैंने
हकीकत में अपराधी तो हैं
लाखों-करोड़
बिना किसी आवाज के घोट जाने वाले
हमारे नेता और अधिकारी
तमाम अपराधों के बावजूद बने रहते हैं
नेता और अधिकारी ही जो जीवनपर्यंत
मेरा इतना कहना था कि
तिलमिलाते हुए बोल पड़ा मोछू नेटुआ
मुँहदेखी बात नहीं
आप बिल्कुल साँचे कह रहे हैं मालिक
कभी इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखाई पड़ता
लाज-शरम तो जैसे घोल कर पी गए हैं ये
दरअसल असली विषधर हैं ये समाज के
अमिट कलंक हैं ये हमारे आज के
जिन्हें बाहर नहीं निकाल पा रहा कोई तंत्र-मंत्र
इन मायावियों के सामने
सारे हरवा-हथियार पड़ते जा रहे हैं बेअसर
तंत्र-मंत्र पड़ते जा रहे हैं बाँझ
और सरकार भी तो इन्हीं के पास गिरवी होती है
अब तो खोजना ही पड़ेगा हमीं लोगों को
इनसे निपटने के लिए
जमाने के मुताबिक कोई नया ब्रह्मास्त्र
एक बात बताएँ मालिक
अच्छा जाने दीजिए छोड़िए
यह कह कर अचानक
चुप्पी के समंदर में डूब गया मोछू नेटुआ
मैंने फिर बहुत कुरेदा उसे
तब हमारे बीच पसरी हुई खामोशी को
चीरते हुए बोल पड़ा वह
दरअसल अपने समय की हँसमुख दुनिया का ही
एक उदास चेहरा हैं हम
अपनी उदासी के लिए जैसे हमेशा से अभिशप्त
अब देखिए ना कि
तरह तरह की तरकीबों से
नहीं जुटा पा रहे हम आज भी
तमाम लोगों की ही तरह दूसरे टैम का भोजन
कपड़ा लत्ता भी मुश्किले से चढ़ पाता है तन पर
हमारे बाल-बच्चे जान नहीं पाए कि
जीवन का कोई अनुभव होता है बचपन
अपनी फाँकाकशी में भटकते-फिरते हम
सोच ही नहीं पाते कोई फितूर
और होते रहते हैं लगातार दर-बदर
घूमते फिरते हैं रोज इधर उधर
यही देख समझ कर आखिर एक दिन
अपना काँवर अपनी झॅंपोली फेंक-फाँक कर
भाग गए हमारे दोनों बेटुए
बाहर कहीं मेहनत मजूरी करने
बाबूजी अब तो दोनो हो गए एकदमे से बहरवाँसू
मोछू नेटुआ फख्र से बतलाते
चलो अच्छे से गुजर-बसर तो हो जाती है न उनकी
ठीक ही तो किया उन दोनों ने
दर-दर भटकना तो नहीं पड़ेगा उन्हें हमारी तरह
दो जून की रोटी जुटाने के लिए
और हम बूढ़ा-बूढ़ी की जिनगी ही कितनी बची है
कट ही जाएगी जैसे-तैसे
फिर मोछू की आँखों में एक चमक दिखाई पड़ी
बोल उठा वह अपने पर गर्व करते हुए जैसे
तमाम तंगहाली के बावजूद भी
मालिक हमरा एक पक्का उसूल है
आज भी जिस साँप को पकड़ते हैं हम अपने हाथों
बुलाते-बझाते हैं जिन्हें पुचकार कर
अपने सगे-संबंधियों की किरिया खा-खा कर
उन्हें छोड़ आते हैं दूर जंगल में
अपने वादे के मुताबिक
कि जिओ-खाओ घूमो-फिरो आजाद हो कर
जंगल की इस दुनिया में नागराजा
किसी को डॅंसने-मारने से बहुत बेहतर है
जिनगी जीने का यह सलीका
मालिक एक जगह कहीं सुना हमने कि
खतम होते जा रहे हैं बड़ी तेजी से साँप भी
अब तो नहीं रहे वे साँप
ना ही रहे वो सॅपधरवे
प्रश्न की शक्ल में पूछे गए
उसकी बात को बीच में ही काटते हुए बोल पड़ा मैं
जानते हो अब तो
एक मशीन ईजाद हो गई है साँप पकड़ने की
जो बड़ी आसानी से खोज लेती है
साँपों को दूरदराज से ही
हाँ मालिक हमने भी सुना है कहीं कि
साँपों को पकड़ कर
बड़ी बेरहमी से निकाल लिया जाता है उसका जहर
सुना है कि उस जहर से बनाई जाती हैं
एक से बढ़ कर एक महँगी दवाइयाँ
फिर वे अपने कहर के जहर से मार डालते हैं साँप को
महज उसकी खाल के लिए
सुना है जिससे तैयार होते हैं कारखानों में
महँगे-महँगे कोट
महँगे-महँगे बैग
बाजारों में बेचने के लिए
जैसे खूँटों से एक-एक कर गायब होते गए बैल
गायों से खाली होते गए दुआर
अपनी सख्त कवच के बावजूद
कछुए नहीं बचा पाए खुद को
और हमारे देखते-देखते गायब होते गए
दूर तक नजर रखने वाले गिद्ध
ठीक उसी तरीके से गायब होते जा रहे हैं साँप
दुनिया जहान से एक-एक कर
मेरी इस बात को पूरा करते हुए बोल पड़ा वह
देखिए ना अब तो हालत यह है कि
किसी गाँव घर से
एक अरसे से
नहीं हो रही कोई बुलाहट
और मेरी परेशानी है कि
बढ़ती ही जा रही है दिन-ब-दिन
और अब वे जंगल भी तो नहीं रहे अब
जिसमे बिना किसी डर भय के आजादी से
विचरते फिरते थे साँप अपने संगी साथियों के साथ
और जहाँ हम भी अपने वादे के मुताबिक
छोड़ आते थे पकड़े गए साँपों को
खाँसते-खखारते
देह का ही अब अंग बन गए अपने दर्द से कराहते
बूढ़े हो चले मोछू नेटुआ
अब पूछते फिरते हैं एक ही सवाल
पागलपन की हद तक जा कर
गायब करते-करते सारे जीवों को वनस्पतियों को
क्या कायम रख पाएगा आदमी
धरती के अपने इस ठिकाने पर खुद को सही सलामत
कहीं से नहीं मिलता उसे कोई जवाब
कोई जहमत नहीं उठाता अब
इस मुददे पर कुछ भी सोचने की विचारने की
सब जगह दिखाई पड़ता है उसे
मरघट सा सन्नाटा
पीढ़ियों से धंधा करते आए मोछू नेटुआ
चिंतित है अब इस बात पर
कि बेअसर पड़ता जा रहा है साँप का जहर
और लगातार जहरीला हो़ता जा रहा है आदमी
मोछू खुद भी तस्दीक करते हैं इस बात की
कि साँपों को तो आसानी से चीन्ह लेते थे हम
कि कौन गेंहुवन है कौन करैत
लेकिन आदमी को आदमी की भीड़ से बीन कर
जहरीले तौर पर अलगा पाना
एकदमे से असंभव है मालिक
और सबसे दिक्कत तलब यह कि
अभी तक के सारे तंत्र-मंत्रों को धता बताता
काँइयाँ किस्म का आदमी ऊपर से कुछ और
अंदर से कुछ और हुआ जा रहा है
अब मोछू किसका खाए किसका गाए
का ले के परदेशे जाए
बदलती हुई परिस्थितियों में
उसकी समस्या अब यह है कि
लगातार जहरीली होती जा रही इस दुनिया में से
कुछ बेजहर लोगों को वह कैसे सामने लाए
कैसे इन्हें बचा कर सुरक्षित रखे छोड़े कहीं
किस तरह अपना वचन निभाए
कैसे वह अपनी चाहत का कुछ रंग जुटा कर
अपने समय की
एक सुखद तस्वीर बनाए….।

समय की विसंगतियों पर तंज़ कसते हुए व्यंग्य: द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

0
a 1
समय की विसंगतियों पर तंज़ कसते
हुए व्यंग्य
–द्वारिका प्रसाद
अग्रवाल
व्यंग्य
करना आसान है
व्यंग्य
लिखना नहीं। हंसी उड़ाना आसान है
, लेकिन हंसी का पात्र बनना नहीं। खिल्ली उड़ानामज़ाक उड़ानाफब्ती कसनाखिंचाई करनामुखालिफत करना जैसी क्रियाएँ सबको आती हैं, लेकिन
इनका विषयबद्ध लेखन दक्ष
 कारीगरी का काम है। अपने जीवन
के शुरुआती दिनों में हमने शंकर
रंगालक्ष्मण जैसे व्यंग्यकारों की कारीगरी देखी जो रेखाओं से बने एक चित्र के माध्यम से ऐसा तंज़ कस लेते थे कि बिना कुछ लिखे महाभारत महाकाव्य जैसा प्रभाव उत्पन्न हो जाता था। ‘धर्मयुग‘ के पन्नों में आबिद सुरती अपने पात्र ढब्बू जी
के चुटकुलों के जरिये व्यवहार विज्ञान का विश्वविद्यालय चलाया
 करते थे।
      व्यंग्य लेखन में सर्वाधिक
चर्चित हुए
कृशनचंदरहरिशंकर
परसाई और
 के॰पी॰सक्सेना जिन्होंने समाज की हर
गतिविधियों पर अपनी पैनी नज़र गड़ाई और
 पैने व्यंग्य
लिखे। बेचन पाण्डेय
 ‘उग्र‘ की
परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इनलेखकों ने  व्यंग्य लेखन को अपने किस्म की नई विधा
से सजाया-संवारा और
 लोकप्रिय बनाया। हरिशंकर परसाई का लेखन वामपंथी झुकाव के कारण अक्सर एकांगी हो
जाता था लेकिन उनकी लेखन की तलवार किसी को नहीं बख्शती। उनके बाद रवीन्द्रनाथ
त्यागी
शरद जोशीश्रीलाल शुक्लडा॰ ज्ञान चतुर्वेदी जैसे अनेक महारथी
व्यंग्य-संग्राम में उतरे और
 हिन्दी भाषा में
व्यंग्यलेखन को पाठकों से जोड़ने में अभूतपूर्व सफलता
 प्राप्त
की।

      व्यंग्य की विधा में इन दिनों
जिन हस्ताक्षरों की साहित्य जगत में चर्चा है
उनमें से
एक हैं
अरविंद कुमार तिवारी जो अब घटकर अरविंद कुमार
रह गए हैं।
 उनकी सद्य प्रकाशित व्यंग्य-पुस्तक  में उनकी 52 व्यंग्य रचनाएँ संकलित हैं,
जिनमें अधिकतर व्यंग्य भारत की राजनीति
में समाहित विद्रूपता पर केन्द्रित हैं। शायद इसीलिये उन्होंने इस संग्रह का नाम
भी
राजनीतिक किराना स्टोररखा है। मतलब यह कि एक ऐसा किराना स्टोरजहाँ राजनीति
से सम्बंधित हर चीज़ उपलब्द्ध हो जाये। जैसे कि टोपी
झंडाडंडाबैनरहोर्डिंगबिल्लाकट आउट्सकुरता-पैजामाधोतीसाड़ीजैकेटमफलर,चाय वालों और दूध वालों की ड्रेस और तमाम
पोलिटिकल सिम्बल्स। हर पार्टी की ज़रुरत का हर सामान। और वह भी एक ही छत के
नीचे।…आप की टोपी
केसरिया टोपीसफ़ेद टोपीलाल टोपीनीली टोपी। झाड़ू की बिक्री खूब हो रही है।….बुर्के शेरवानी की बिक्री
में भी काफी इजाफा हुआ है। भाई साहब
मेरा किराना स्टोर
एक एक्सटेंडेड स्टोर होगा। वहां हर पार्टी को अपनी ज़रुरत की हर चीज़ मिलेगी।
तम्बू-कनात से लेकर झंडियाँ
कुर्सी-मेज़बल्लियाँलाईटमाईक
और टीवी-सीवी तक। और ज़रुरत पड़ी तो जय-जय कारी भीड़ से लेकर नारा और भाषण लिखने
वाले बन्दे और प्रवक्ता तक।
’    
      राजनीति राज्य को संचालित करने की नीति होती है लेकिन अब वह सिंहासन बचाने
की
  नीति में तब्दील हो गई है। जिस  बुद्धि का उपयोग प्रजा के कल्याण के लिए किया जाना थाउसका उपयोग अब स्वयं के  बचाव के लिए किया
जाने लगा है। राजनीति यानी दाँव पेंच
दाँव पेंच यानी छल-प्रपंच रचनाधोखा या झांसा देनाटेढ़ी चाल चलना या विरोधी को परास्त करने के
प्रयत्न करना आदि।
 शतरंज के खेल में प्रयुक्त होने वाले
मोहरे राजनीति के उन क्रियाकलापों केप्रतीक हैं जो देश की जनता की छाती पर बिसात
बिछाकर इस तरह खेले जाते हैं
जिसे केवल खिलाड़ी देख और
जान सकते हैं
उनके अतिरिक्त किसी और को कुछ नहीं दिखने वालान समझ आने वाला। जनता को सिर्फ यह
सुनाई पड़ता है कि जो खेल
 खेला जा रहा है वह उसके कल्याण
के लिए है।
 इसलिए खिलाड़ियों पर भरोसा करो। शतरंज की बिसात को मत देखो। हम हैं नहम तुम्हारी धरती को स्वर्ग बनाकर दिखाएंगे।
प्रजा जन उसी स्वर्ग की कल्पना करते अपनी छाती खोलेआपरेशन थियेटर के बेहोश मरीज की
तरह निश्चिंत लेटे हैं-
 ‘जो करेगाडाक्टर करेगा।‘ अरविन्द
कुमार इन स्थितियों-परिस्थितियों पर गहरा तंज़ कसते हैं।
 

      व्यंग्य लिखने के लिए लेखक में
साहसी होने का गुण आवश्यक है। जनतंत्र में
 व्यंग्यकार
की हैसियत सत्ता और समाज की कमतरी को उजागर करने वाले अघोषित
 विरोध-नेता जैसी होती है। आजादी के बाद अपने देश के गैर-लोकतंत्रीय मिज़ाज के बदले लोकतान्त्रिक व्यवस्था लागू की गई। गौर से देखा जाए तो यह प्रयोग चुनाव करवाने तक ही सफल रहा,आमजन का मिज़ाज बदलने में
असफल रहा। विरोध में
 कुछ कहना या लिखना खतरे से खाली
नहीं है।
 इसलिए लेखक खुलकर लिख नहीं पाता। इसके बावजूद मजबूत कलेजे वाले लिखते हैंभले
ही संभल-संभल कर। अरविंद
 कुमार ऐसे ही साहसी व्यंग्य
लेखकों में से एक प्रतीत होते हैं। मान-बेटे के इस संवाद को देखिये—‘भैंस
बहुत अच्छी होती है। गाय की बहन। गाय की तरह वह भी हमें दूध देती है। हमें पालती
है। अगर गाय हमारी माँ है
, तो भैंस हमारी मौसी। —पर
हम लोग तो गाय की पूजा करते हैं। भैंस की पूजा क्यों नहीं करते
? गाय का गोबर तो बहुत पवित्र माना जाता है, भैंस का
क्यों नहीं माना जाता
? गोमूत्र तो पंचामृत और न जाने कितनी
दवाइयों में डाला जाता है
, पर भैंस का क्यों नहीं? और तो और लोग-बाग़ तो हमेशा गौ रक्षागौ रक्षा की
बातें करते हैं
, पर भैंस रक्षा की बातें कोई क्यों नहीं करता?
क्या जानवरों के बीच भी कोई वर्ण या जाति व्यवस्था लागू होती है?
बेटा, मैं यह सब नहीं जानती। यह सब धर्म और
राजनीति की बड़ी और ऊंची बाते हैं। मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ कि जिस तरह गाय
हमारे लिए ज़रूरी है
, उसी तरह से भैंस भी ज़रूरी है।

      ‘राजनीतिक किराना स्टोर‘ में समाज में व्याप्त
विसंगतियों पर जम कर कटाक्ष किया गया है। अरविन्द कुमार लिखते हैं—
अगर इंसान भूखा हो तो भगवान के भजन में भी उसका मन नहीं लगतापर नई पीढ़ी के हमारे नए भगवान चाहते
हैं की भजन हो न हो पर सपने
 अवश्य देखो। बंद आँखों से न
सही
खुली आँखों से सपने देखो।…..सपने देखोगे तो सफल हो जाओगे। सपने देखोगे तो अमीर बन जाओगे। सपना ही सब कुछ
है।
 हमारे भाग्यविधाताहमारे
कर्णधार आजकल उसी सिद्धान्त का अनुकरण कर रहे
 हैं। उनके
अनुसार
देश की गरीबी का मूल कारण सामाजिकआर्थिक और राजनीतिकव्यवस्था की विसंगतियाँ नहीं हैं। यह नया विकासवाद नहीं
है। भ्रष्टाचार तो
 बिल्कुल ही नहीं है। गरीबी भौतिक
नहीं भावात्मक होती है। भूख वस्तु नहीं
एक एहसास है।
अपनी मनोदशा सुधारो
दशा अपने-आप सुधार जाएगी। सोच बदलो,गरीबी खुद-ब-खुद दूर हो जाएगी।


      वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर
अरविंद कुमार की यह टिप्पणी भी एक करारा
 तंज़ है—अभी भी हमारे देश में तीन ऐसे तगड़े-तगड़े जिन्न
मौजूद हैं जो रिश्ते में अब तक के
 सारे जिन्नों के बाप
लगते हैं। ये तीन जाइण्ट-किलर टाइप के जिन्न हैं
उन्नीस
सौ चौरासी
दो हजार दो और दामादजी की कमाई की मलाई।
इनको ठीक
 चुनावों के समय मौका देखकर छक्का मारने के लिए
निकाला जाता है। बोतलों से
 इनके निकलते ही अच्छे-अच्छों
की हवा खराब हो जाती है। कोई बगलें झाँकने
 लगता है तो
कोई कानून की दुहाई देने लगता है। न उन्नीस सौ चौरासी का कोई हल
 निकलता है और न ही दो हजार दो का। जांच-फांच होने-कराने की तो छोड़िएलोगों के छलछला आए घावों पर फिर से उनकी मजबूरी की पपड़ियाँ जमाई जाने लगती हैं। औरदामाद जी तो दामाद जी ही हैंवे फिर एक राष्ट्रीय दामाद बनकर वीआईपी
ट्रीटमेंट पाने लगते हैं।

 
कुल मिला कर राजनीतिक किराना स्टोरएक अवश्य ही पढ़ने लायक पुस्तक है, जिसका मूल्य
है—रू0
 185/-,पृष्ठ संख्या : 151, प्रकाशक : मनसा पब्लिकेशन, लखनऊ। 
लेखक- अरविन्द कुमार, मेरठ, मोबाईल:9997944066
12994317 1093285487359381 1881184527396292175 n



समीक्षक-

b



द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
बिलासपुर में जन्महिन्दी साहित्य में एम॰ए॰बी॰कॉम॰एल॰ एल बी॰, ‘धर्मयुग‘,
दिनमान‘ ‘नवभारत टाइम्स‘ व अनेक पत्रिकाओं में लेखों का प्रकाशनब्लॉगर एवं फेसबुक में सक्रियप्रकाशित :
आत्मकथा (
1) : ‘कहाँ शुरू कहाँ खत्म‘, आत्मकथा (2) : ‘पल पल ये पल‘,आत्मकथा
(
3) : शीघ्र प्रकाश्य : ‘दुनिया
रंग बिरंगी
‘, अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षक : जूनियर चेम्बर
इन्टरनेशनल
 प्रशिक्षक : व्यवहार विज्ञानव्यक्तित्व विकास और प्रबंधनविभिन्न सरकारी गैर सरकारी संस्थानोंसामाजिक संगठनोंशैक्षणिक संस्थानों में युवाओंअधिकारियोंप्रबन्धकोंकार्मिकों को प्रशिक्षण देने का
विगत तीस वर्षों
 का अनुभव.
लेखक का परिचय 

पंकज चतुर्वेदी की रचनाएँ

0
10540855 914318118581938 5791551619717228604 n

अतीत का इस्तेमाल
————————-

सत्ता-पक्ष के बुद्धिजीवी
विपक्ष की आलोचना करते हैं :
आज जो देश का हाल है
वह इसी विपक्ष के
कारनामों का नतीजा है
क्योंकि पहले इनकी सरकार थी

और आज जो कुछ भी है
भ्रष्टाचार, अन्याय, हिंसा :
क्या वह पहले नहीं थी
बल्कि पहले तो अधिक ही थी

सरकार करना तो
बहुत चाहती है
पर सिस्टम इतना
बिगड़ा हुआ मिला है
कि उसे ठीक करने में
बहुत वक़्त लगेगा

इस तरह लोकतंत्र में
अतीत का इस्तेमाल
उससे कुछ सीखने के लिए नहीं
वर्तमान को सह्य बनाने के लिए
किया जाता है

………………………..

असम्मानित
————–

अपमानित करनेवाला
सोचता है
कि वह विजेता है

पर अपकृत्य वह
इसी कुंठा में करता है
कि उसका कोई
सम्मान नहीं है

…………………………….

सौन्दर्य
———

नदी गहन है करुणा से
उत्साह से गतिमान्

उसके प्रवाह का कारण
सजलता है
और इनकी संहति
उसका सौन्दर्य

………………………

नीदरलैंड्स से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘‘अम्स्टेल गंगा’ का अक्टूबर – दिसम्बर 2016 अंक

0
नीदरलैंड्स से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘‘अम्स्टेल गंगा’ का अक्टूबर – दिसम्बर 2016 अंक 
13100936 10153433565031160 6883651710496174780 n

पत्रिका के अनुभाग: अक्टूबर – दिसम्बर २०१६ (अंक १७ , वर्ष ५ )

अम्स्टेल गंगा के इस फुलवारी में आपका स्वागत है।

रंग बिरंगे फूलों की इस बगीया में विचरण करे और हमें अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत करायें।

सम्पादक मंडल

अम्स्टेल गंगा
पत्रिका के अनुभाग: विषय सूची

हिंदी साहित्य:::
काव्य साहित्य:

दोहे:

दीपावली–दोहावली – डॉ.पूनम माटिया

हाइकु:

हाइकु – ज्योत्स्ना प्रदीप

नवगीत:

रह गए अनुवाद केवल – अवनीश त्रिपाठी
ग़ज़ल:

ग़ज़लें – शिज्जु शकूर

ग़ज़ल – कृष्णा कुमारी

ग़ज़ल – सौरभ पाण्डेय
कविता:

एक कमज़ोर औरत – कादंबरी मेहरा

राधा प्रेम(सार छंद) – सपना मांगलिक

रंग है बिखरे-बिखरे – डा.कल्पना गवली

कविता लिखता हूँ… – विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’

नदी के उस ओर – अशोक बाबू माहौर

गुमशुदा की तलाश – आनन्द बाला शर्मा

इंसानियत – शील निगम

लेख::

कबीर के ध्वज वाहक परसाई : व्यंग बनाम बहू की सास द्वारा ली जाने वाली रेगिंग – विवेक रंजन श्रीवास्तव विनम्र

अन्तर्मन् – सरिता राठौड़

व्यंग्य::

टर्राने का मोसम – राजेश भंडारी “बाबु”

बाबा ,बाजार और करतार – अशोक गौतम

बच्चों का कोना::

बाल एकांकी: लालच की सजा – बलराम अग्रवाल

चींटी की कसरत – नीरज त्रिपाठी

लघुकथा::

आपकी हिंदी – सुभाष चंद्र लखेड़ा

सौंदर्य – सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

मेन इन यूनिफ़ॉर्म – विजय कुमार

मोबाईल – प्रा.एस.के.आतार

अहमियत – चंद्रेश कुमार छतलानी

कहानी::

डोंट टेल टू आंद्रे – सुमन सारस्वत

तीसरा वज्रपात – मुरलीधर वैष्णव

कहानी में कशिश – डॉ. मनोज मोक्षेंद्र

प्यार का इंतजार – डॉ. सुनिल जाधव

नाटक::

एक फ़िल्मी दृश्य – प्राण शर्मा

समीक्षा::

यशधारा – महिला रचनाकार विशेषांक मील का पत्थर – संजय वर्मा “दृष्टी ”

भोजपुरी हिंदी साहित्य:::

मनोज सिंह ‘भावुक’ की कवितायेँ

भाखा के मेल आ दुरदुरावल भोजपुरी – प्रिंस रितुराज

अप्रवासीय रोजनामचा:::

भूल गये – डॉ शिप्रा शिल्पी

अम्स्टेल गंगा समाचार:::

टीसीएस एम्सटर्डम मैराथन – एक अंतराष्ट्रीय महोत्सव – अम्स्टेल गंगा समाचार ब्यूरो

साहित्यिक समाचार :::

हिंदी चेतना::

हिन्दी चेतना का अक्टूबर – दिसंबर २०१६ अंक – अम्स्टेल गंगा समाचार ब्यूरो

प्रस्तावित पुस्तकें:::

गर्भ की उतरन : डॉ पुष्पिता अवस्थी

बंधन : मनोज सिंह

कला दीर्घा:::

प्यारा भइया – दिया अरोड़ा

प्राकृतिक सुंदरता – एड्रियन बाकर

मातृत्व – स्वाति सिंह देव

श्रद्धा और सबूरी – ऋतु श्रीवास्तव सिन्हा

अलंकारिक फव्वारा – कृशानु रॉय

[यह सम्पूर्ण आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं- अक्टूबर-दिसंबर 2016]

[पत्रिका हेतु लिंक- http://amstelganga.org/]

‘अम्स्टेल गंगा ‘ का उद्देश्य हिंदी साहित्य को विश्व के हर कोने में सुलभ कराना है जिससे विश्व भर में फैले हिंदी प्रेमी अपनी सुविधानुसार इसका रसास्वादन और अध्ययन कर सकें।
हमारा उद्देश्य होगा कि विश्व के हर कोने में हिंदी साहित्य की रचना में संलग्न लेखकों को एक मंच पर लाया जा सके जहाँ वे अपने अनुभवों और रचना प्रतिभा का आदान प्रदान कर सकें और इस प्रकार हिंदी के विकास में सहायक बनें।
हिंदी साहित्य की लोकप्रियता को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना तथा नए लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित कर के उन्हें प्रोत्साहित करना भी हमारा उद्देश्य है ।

– अमित कुमार सिंह , अखिलेश कुमार एवं डॉ पुष्पिता अवस्थी

सांस्कृतिक धरोहर के संवाहक –प्रवासी भारतीय: शशि पाधा

0

सांस्कृतिक धरोहर के संवाहक –प्रवासी भारतीय

13343157 10205394017004609 7422928368869783696 n
शशि पाधा
Email; shashipadha@gmail.com
भारतीय संस्कृति के प्रचार और प्रसार का सर्वाधिक श्रेय उन साहसी एवं उत्साही भारतवासियों को जाता है जिन्होंने समय समय पर विदेश गमन करके विभिन्न देशों में भारतीय उपनिवेशों की स्थापना की| भारत से सुदूर उन उपनिवेशों में भारतीय संस्कृति, सभ्यता और धर्म प्रचारं को दृष्टि में रख कर कई केन्द्र स्थापित किए और अपने सम्पर्क में आने वाले विदेशियों के मन में भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रति विशेष आकर्षण जाग्रत किया| बरसों पहले सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्मं के प्रचार-प्रसार के लिए अपने पुत्र, पुत्री को श्री लंका भेजा और अपने भाई एवं अन्य दूतों को मिस्र, सीरिया, अफगानिस्तान, इण्डोनेशिया आदि देशों में भेजा| इस तरह भारतीय संस्कृति इन देशों में पहुँची और पुष्पित-पल्लवित होती रही| इसी प्रकार हमारी संस्कृति, भाषा, साहित्य और धर्म विश्व के कोने कोने में पहुँच गया| जापान, मंगोलिया, फिलीपाइन, इण्डोनेशिया, साइबेरिया, चीन, जावा, सुमात्रा आदि देशों के निवासियों ने हमारी संस्कृति को सराहा और उसके मुख्य अंशों को अपने दौनिक जीवन एवं अपनी संस्कृति में सहर्ष सम्मिलित कर लिया|
सर्व विदित है कि मौरेशियस, फिजी, त्रिनिदाद, सूरीनाम आदि देशों में जब भारतीय आजीविका कमाने के लिए गए तो वे अपने धार्मिक ग्रन्थों के साथ अपनी परम्पराएँ, रीति-रिवाज़ और संस्कृति को भी ले गए| सुना है कि उन्हें अपने धार्मिक त्योहारों को मनाने का अधिकार नहीं था किन्तु फिर भी चोरी छिपे वे लोग पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी संस्कृति की रक्षा करते रहे और इसके प्रचार में सदैव प्रयत्नरत रहे| आज जब इन देशों के लोगों से मिलना होता है इनके पास भाषा और सांस्कृतिक सम्पदा की निधियाँ देख कर सुखद आश्चर्य होता है|
इस सन्दर्भ में मेरे पास यही तर्क है कि विदेशों में जाने वाले भारतीय वहाँ केवल शारीरिक रूप से नहीं जाते, अपने भौतिक सामान के साथ वे अपने मन की गठरी में चुपचाप अपनी संस्कृति, जीवन मूल्य और परम्पराएँ बाँध के ले जाते हैं और विदेशी धरती पर बड़े यत्न से इस धरोहर के रक्षण और संवर्धन में जुटे रहते हैं|
अमेरिका जैसे विशाल देश में भी भारत के विभिन्न प्रान्तों से बुद्धिजीवी आजीविका कमाने, व्यापार के कारण अथवा उच्च शिक्षा प्राप्ति के ध्येय से आते हैं| पाश्चात्य संस्कृति भारतीय संस्कृति से बिलकुल भिन्न है| आते ही उनकी मन:स्थिति अपनी मिट्टी से उखड़े हुए और दूसरे स्थान पर आरोपित किये हुए पेड़ की तरह हो जाती है| कुछ दिन नई जगह, नये वातावरण में व्यवस्थित हो कर खोज आरम्भ हो जाती है, उन संस्थाओं, समुदायों की जहाँ वो अपने मन की गठरी को खोल कर अपनी परम्पराओं के साथ पूर्णतया जी सकें| पाँच हजार वर्ष पुरानी हमारी संस्कृति ही हम भारतीयों की आत्मा है और मैंने उस अमूर्त आत्मा का अमेरिका में शाश्वत और मूर्त रूप देखा है| चाहे कोई समुदाय हो, कोई प्रांतीय त्योहार हो, कोई धार्मिक पर्व हो, इस देश में प्रवासी भारतीय मिलजुल कर, बड़े उत्साह के साथ उसे मना कर विदेशी धरती पर “वसुधैव कुटुम्बकम” और “सर्वधर्म सद्भाव” जैसे समरसता और एकता का पाठ पढ़ाने वाली भारतीय संस्कृति की धरोहर को और समृद्ध करने में एकरूप हो जाते हैं| 
चूँकि अमेरिका में भारत की तरह हर भारतीय त्योहार पर छुट्टी नहीं होती, इसीलिए हर त्योहार शनिवार या रविवार को मनाया जाता है| लोग अधिकतर मन्दिरों के प्रांगण, किसी कम्युनिटी सेंटर, स्थानीय चर्च या स्कूल के खेल-मैदान में एकत्रित होते हैं| सभी परिवार पूरी भारतीय वेशभूषा में सजधज कर आते हैं और त्योहार का आनन्द लेते हैं| यहाँ भारतीय पोशाकें और मिठाइयाँ प्रचुर मात्रा में बिकती हैं, यहाँ तक कि पूजा की सामग्री और व्रत में खाई जाने वाली चीज़ें हर भारतीय स्टाल में आसानी से उपलब्ध हो जाती है| होली, दीवाली, गणेश चतुर्थी, उगाधि, बीहू, कृष्ण जन्माष्टमी, दुर्गा पूजा, ईद, गुरपूरब आदि भारतीय त्योहार मनाने की तैयारी कई सप्ताह पहले ही बड़े जोर शोर के साथ हो जाती है| 
अमेरिका में गुजराती समुदाय के लोग बहुत मात्रा में बसे हुए हैं| नवरात्रि इस समुदाय का महत्वपूर्ण त्योहार है| इस अवसर पर पूरे सात दिन लोग संध्या के समय एकत्रित होकर डांडिया और गरबा नृत्य का आयोजन करते हैं| केवल गुजराती ही नहीं, अन्य प्रान्तों के लोगों के साथ यहाँ के निवासी भी इस मनमोहक नृत्य में भाग लेते हैं| ऐसे भव्य आयोजनों को देख कर लगता है कि जैसे छोटा सा भारत कुछ दिनों के लिए अतिथि रूप में अमेरिका में आ बसा हो|
होली के दिनों में तो अधिकतर अमेरिका के राज्यों में हिमपात हो रहा होता है, फिर भी हिम की शीतलता प्रवासी भारतीयों के उत्साह को ठंडा नहीं कर पाती और लोग स्वेटर–जैकेट पहन कर भी सामूहिक रूप से अबीर-गुलाल के रंगों में रंग जाते हैं| यहाँ के बहुत से राज्यों में “हरे रामा हरे कृष्णा” समुदाय के मंदिर बने हुए हैं| इन मंदिरों में गौशालाएँ भी बनी हुई हैं| ऐसे पवित्र स्थान पर भारतीय और इस धर्म को मानने वाले अमेरिकी भी पीली धोती और कुरते में सजे हुए सर पर चोटी रखे हुए कृष्ण लीलाएँ करते दिखाई देते हैं| ऐसे समारोहों में जाकर लगता है मानों हम गोकुल-वृन्दावन की गलियों में घूम रहे हों|
कुछ वर्षों से अमेरिका के मुख्य राज्यों में दशहरे का उत्सव बहुत ही उत्साह के साथ मनाया जाता है| इस महाद्वीप के दक्षिण दिशा के टेक्सस प्रान्त में और नॉर्थ केरोलाईना राज्य में दशहरे की धूम की छटा तो कई दिनों तक लोगों के मन-मस्तिष्क में घर लेती है| नॉर्थ केरोलाईना के मुख्य नगर मोरिसविल्ल के मंदिर के भव्य हॉल में पहले राम लीला का आयोजन होता है और फिर उसी शाम को रावण और लंका दहन की रस्म निबाही जाती है| कई दिन पहले ही राम लीला के लिए तैयारियाँ होती है, रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले बनाए जाते हैं| सूर्यास्त के समय स्थानीय मंदिर के विशाल पार्किंग परिसर में लंका दहन का मंचन होता है| पटाखे –आतिशबाजियों से भरे इन पुतलों को जलाया जाता है| इस आयोजन में लगभग 20 हज़ार लोग भाग लेते हैं| उत्सवों के इन सामूहिक आयोजनों से एक बात तो स्पष्ट है कि प्रवासी भारतीयों की नई पीढ़ी अपनी परम्पराओं, रीति रिवाजों से पूरी तरह परिचित हैं और आगे आने वाली पीढ़ी के लिए जीवित रखना चाहते हैं| इस प्रकार वे विदेश में रहते हुए भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहते हैं| 
उत्सव मेलों की तरह यहाँ शादी ब्याह भी पूरे पारम्परिक तरीके से सम्पूर्ण होते हैं| दुल्हे के लिए घोड़ी, दुल्हन के लिए डोली और बारातियों के लिए ढोल नगाड़े आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं| सम्पूर्ण भारतीय स्वादिष्ट व्यंजनों की सुगंध से भरी भारतीय थालियों में ही भोजन परोसा जाता है| प्रवासी भारतीय इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि शादी ब्याह पर पूरा भारतीय वातावरण ही संजोया जाए| जहाँ तक कि विवाह मंडप, वेदी, मंगल कलश आदि सजावट की सामग्री पर विशेष ध्यान दिया जाता है| 
प्रवासी भारतीयों के लिए चिंता का एक प्रमुख कारण है कि किस प्रकार राष्ट्रीय भाषा हिन्दी, मातृ भाषा और हमारी धनी भारतीय संस्कृति को विदेशी धरती पर भी अक्षुण्ण रखा जाए, उसका संवर्धन हो और इसे नई पीढ़ी तक पहुँचाया जाए| अगर साहित्य समाज का दर्पण होता है तो भाषा उसका माध्यम| अमेरिका में विश्व हिन्दी समिति, विश्व हिन्दी न्यास, हिन्दी यू एस ए, हिन्दी विकास मंडल, आदि अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो हिन्दी को नई पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए अथक प्रयत्न करती हैं| इन संस्थाओं के द्वारा मंदिरों में शनिवार –रविवार को कक्षाएँ चलाई जाती हैं जहाँ बच्चे भाषा के साथ साथ अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों से भी जुड़े रहते हैं| विदेशियों में भारत के धर्म, संस्कृति, योग, ध्यान, आयुर्वेद और ज्योतिष विद्या को समझने की जिज्ञासा है और वे इन चीजों को भारत की मूल भाषा में ही समझना चाहते हैं। इस आकर्षण का आभास मुझे तब हुआ जब अमेरिका में ‘नार्थ केरोलाईना विश्वविध्यालय एट चैपल हिल’ के दक्षिण एशिया विभाग के हिन्दी विभाग में मेरी हिन्दी प्रोफेसर की नियुक्ति हुई| वहां भारतीय मूल के विद्यार्थियों के साथ विश्व के अन्य देशों के विद्यार्थियों को अपनी सुसंस्कृत, वैज्ञानिक भाषा को पढ़ाते हुए मुझे अत्यंत संतोष का अनुभव हुआ| कई पीढिय़ों से विदेशों में बस चुके भारतीय अपनी संस्कृति की भाषा को संरक्षित रखने का सदैव प्रयत्न करते रहते है| उनके रोजगार की भाषा चाहे जो भी हो लेकिन घर की भाषा हिंदी या, मातृ भाषा ही होती है।
“योग” भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है| भारतीय मूल के लोगों के साथ अमेरिका के मूल निवासियोंऔर इस महाद्वीप में बसे अन्य प्रवासियों में भी “योग साधना” को ठीक तरह से सीखने का विशेष उत्साह है| अमेरिका के कई स्थानों पर भारतीयों द्वारा “योग शिक्षा” का आयोजन किया जाता है| गर्मी की छुट्टियों में यौगिक शिविर लगते हैं जहाँ शिक्षार्थी यौगिक क्रियाओं को सीखते हैं| “योग” मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बिना औषधि का इलाज है| इसके प्रति सार्वभौमिक आकर्षण को समझते हुए 11 दिसम्बर 2014 को सँयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 21 जून का दिन “विश्व योग दिवस” के रूप में घोषित किया था । संयुक्त राष्ट्र की उस घोषणा में कहा गया था “योग व्यक्ति के तन और मन को स्वस्थ बनाता है| योग के प्रसार से दुनिया के निवासी अधिक स्वस्थ रहेंगे|”
प्रवासी अपने साथ अपना संगीत, नृत्य और अन्य ललित कलाएँ भी तो उस गठरी में बांध के लाए हैं| अगर भारत से सोफ्टवेयर इंजीनियर और चिकित्सक यहाँ जीविका कमाने आए हैं तो उनके साथ इन ललित कलाओं में पारंगत उनकी पत्नियाँ भी तो घर बसाने आई हैं| इनके द्वारा बहुत सी ऐसी शिक्षण संस्थाएँ चलाई जा रही हैं जहाँ नन्हें नन्हें बच्चों को संगीत के साथ साथ नृत्य की विभिन्न शैलियों में शिक्षा दी जाती है| विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रसार में संगीत एक महत्वपूर्ण कड़ी है| यहाँ के भारत-वंशी अपनी नई पीढ़ी को संगीत की शिक्षा देने में उत्साहित रहते हैं| वर्ष में कई बार भारत से भी प्रसिद्ध गायकों, नाट्यकारों और नृत्यशास्त्र में धनी कलाकारों को आमंत्रित किया जाता है| इन कार्यक्रमों में बहुत से अमेरिका में बसे अन्य देशों के निवासी भी भाग लेते हैं| बहुत से अमेरिकी युवा भारतीय वाद्य जैसे सितार, तबला, बांसुरी सीखते हैं| इस प्रकार हम भारतीयों का मधुर संगीत बहुत से अमेरिकी संस्थानों में गूंजता सुनाई देता है|
कुछ दिन पहले मैंने टीवी पर केनेडा के युवा प्रधानमंत्री को शुद्ध भारतीय परिधान में अन्य भारतीयों के साथ भांगड़ा नृत्य करते देखा| उस समय मेरे मन में विचार आया कि राजनैतिक या साम्प्रदायिक उपनिवेशवाद के दिन अब बदल रहे हैं । एक विश्व की बात सोचने के साथ ही एक संस्कृति को भी ध्यान में रखना होगा । प्रचलित अनेकानेक संस्कृतियों के उपयोगी एवं महत्वपूर्ण अंश यदि एक स्थान पर एकत्रित कर दिये जायें तो उसका स्वरूप एक देवसंस्कृति जैसा बन जाएगा| 
“वसुधैव कुटुम्बकम्” भारतीय संस्कृति का मूल मन्त्र है और वो दिन दूर नहीं कि इस महामंत्र की विश्व के हर छोर पर गूँज होगी| प्रवासी भारतीय धरती के किसी भी देश में जा बसें उनका मन अपनी सभ्यता और संस्कृति में ही रचा–बसा रहेगा| इसी सन्दर्भ में अंत में मैं अपनी रचना के कुछ अंश प्रस्तुत करना चाहूँगी —
“तन जो हो सुदूर कहीं भी
मन तो बसता अपने देश|
तेरी माटी कुंकुम चन्दन
मस्तक रोज़ लगाऊँ मैं
जहाँ रहूँ ,जिस छोर भी जाऊँ
तुझको शीश नवाऊँ मैं|
मेरे तो मन मन्दिर बसता
देव समान मेरा देश
भक्ति वंदन का यह देश
पूजा अर्चन का यह देश|”


 

नवनीत पाण्डे जी की रचना

0
13903318 1325769234107881 2015945475375661583 n

भले घर की लड़कियां
————————–
भले घर की लड़कियां
बहुत भली होती हैं
यह बात अलग है
भले घर की लड़कियां
नहीं जानतीं
भला क्या होता है
सिवाय इसके कि
जो घरवालों द्वारा
उनके दिमाग में
ठोंक_ ठोंक
बैठा दिया जाता है
तरह- तरह से
सिखा, पढ़ा
समझा दिया जाता है
अनचाहा कराया जाता है
उसी को भला कहा जाता है

भले घर की
लड़कियों के मुंह में
ज़ुबान नहीं होती
होती भी हैं तो
उन्हें रोक- टोक
दिया जाता है
बिना पूछे
कुछ भी बोलना
कहना मना होता है
भले घर की लड़कियों के
सिर्फ कान होते हैं
उन्हें सिर्फ कहा हुआ
सुनना, गुनना और
करना होता है

भले घर की
लड़कियों की
न हंसी
गालों पर दिखती है
न आंसू
हंसना- रोना
दोनों ही
बेआवाज़
चुपचाप होता है
भले घर की
लड़कियों की आंखों
और ज़ुबान पर
पहला हाथ
उनकी मांओं का ही होता है

भले घर की लड़कियों को
उनकी मांए
अपनी ही तरह
उन्हें सबसे पहले उठने
और सबके बाद
सोने की घुटी पिला देती है
भले घर की
लड़कियों के घर
घर नहीं
धर्म, नैतिकता,
आदर्शों युक्त
स्नेह, प्रेम भरे
आदेशों, कानूनों की
खाप होते हैं

भले घर की
लड़कियों के घरों में
भले घर की लड़कियों के लिए
सिर्फ दूर दर्शन होता है
उन्हें केवल
धार्मिक स्थलों, मेलों
भजन, कीर्तन, कथाओं में ही
जाने की अनुमति होती है
वह भी परिवार-जनों के साथ
उन्हें हर खबर से
बेखबर रखा जाता है
मोबाइल तो बहुत बड़ी बात है
वें घर में रखे टेलीफोन की
घंटी भी नहीं सुन सकतीं

भले घर की लड़कियां
झाड़ू- मसौदे
चौका- बासन
कपड़े-लत्ते
धोने से लेकर
सीने- पिरोने
कढ़ाई- बुनाई
गृहिणी के
हर काम में
पारंगत होती हैं
भले घर की
लड़कियों की पढ़ाई
घर में ही या
उतनी ही होती है
जितनी में वें
भली रह सकें

भले घर की लड़कियां
अपने नहीं
अपने परिवार
समाज की
सोच से जीती है
उन्हीं के इशारे
चलती- फिरती
उठती- बैठती
ओढ़ती- पहनती
जीती-मरती हैं

भले घर की
लड़कियों के
घर में अलग से
कमरे नहीं होते
होते भी हैं तो
उनकी खिड़कियां
चौकस बंद होती हैं
और उन पर
मोटे- मोटे पर्दे भी

भले घर की
लड़कियां
हमेशा
निगरानी में रहती हैं
अकेली कहीं नहीं
आती- जाती
भेजीं जाती
भले घर की लड़कियां
घर से बाहर सिर्फ
घर के काम के लिए
आती- जाती हैं
अपने काम से
जाने के लिए
सबको बताना पड़ता है
क्या काम है
कितनी देर लगेगी
साथ में कौन जा रहा है

भले घर की लड़कियों की
बहुत कम सहेलियां होती हैं
वे भी गली-मुहल्ले
रिश्तेदारी की
लड़कों के तो
पास भी नहीं फटकने दिया जाता
भले घर की लड़कियां
अपने मन का कुछ नहीं करती
अपने वर्तमान-भविष्य
यहां तक कि
जीवन- साथी का चयन
जीवन के इससे भी बड़े
अहम फैसले भी
घर- परिवार पर
छोड़ देती हैं

भले घर की लड़कियां
लड़कियां नहीं
खूंटें बंधी गाएं हैं
जिन्हें बहुत प्रेम, डर से
एक उम्र तक
उनके पालक दुहते हैं
और अनचाही उम्र में
जननी-जनकों द्वारा
अक्ल निकाल, बुध्दु बना
साज- श्रृंगार कर
गुड़िया बना
गाजे- बाजे के साथ
अग्नि को साक्षी मान
सात चक्कर कटा
डोली में बैठा
उन अनजान
नितांत अपरिचित
गुड्डों के साथ
(जो हकीकतन अधिकतर भले गुंडे होते हैं)
चलती कर दी जाती हैं

इस तरह
भले घर की लड़कियां
एक कारा
एक नरक से निकल
दूसरी कारा
दूसरे नरक में पहुंच जाती है
और इस तरह
भले घर की लड़कियां
सौभाग्यवती कहलाती हैं
जन्म से मृत्यु तक
वरदान के रूप
अपने भले होने की
सज़ा पाती हैं

भले घर की लड़कियां
इतनी भली होती हैं
कि आखिर में
जब थक- हार जाती हैं
असहनीय हो जाता है
बोझ भलेपन का
कानोकान खबर नहीं होती
झूल जाती हैं फंदों से
खा लेती हैं ज़हर
खतम कर लेती हैं
अपनी इह लीला

भले घर की लड़कियां
जब लेती हैं लोह
करती हैं विद्रोह
भलेपन के खिलाफ
पत्थरों से
सिर फोड़ने की बजाय
भाग जाती हैं
भलेपन की काराएं तोड़
वें नहीं रहतीं भली
ठहरा दी जाती हैं
पापिन, कुलच्छनी
घर -परिवार
धर्म- समाज
कोसता है उन्हें
उनके जन्म को
“काहे की भली
बदनाम कर दिया
नाक कटा दिया
बड़ी बेहया
नालायक निकली”
*******

[साभार:जनकृति]

महाजनी सभ्यता: मुंशी प्रेमचंद [दस्तावेज]

0

महाजनी सभ्यता

premchand writer htphoto c731054a 4aa8 11e6 90e0 482a513bad8b


(इस लेख में मुंशी प्रेमचंद ने पूंजीवादी
व्यवस्था (महाजनी सभ्यता) द्वारा अनिवार्य रूप से पैदा होने वाली व्यक्तिगत
स्वार्थ
, कपट, लोभ-लालच,
बेरोज़गारी,
वेश्यावृत्ति,
भ्रष्टाचार
आदि समस्याओं पर चर्चा की है. साथ ही रूसी क्रांति के बाद वहाँ  की बेहतरीन सामाजिक संरचना की एक झलक भी
प्रस्तुत की है.)
महाजनी सभ्यता

मुज़द: ए दिल कि मसीहा
नफ़से मी आयद
;
कि जे़ अनफ़ास खुशश बूए
कसे मी आयद।


( ह्रदय तू प्रसन्न हो
कि पीयूषपाणि मसीहा सशरीर तेरी ओर आ रहा है। देखता नहीं कि लोगों की साँसों से
किसी की सुगन्धि आ रही है।)
जागीरदारी सभ्यता में
बलवान भुजाएँ और मजबूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओें में परिगणित थे
,
और
साम्राज्यवाद में 
बुद्धि और वाणी के
गुण तथा मूक आज्ञापालन उसके आवश्यक साधन थे। पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के
साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लुप्त नहीं हो गये थे। जागीरदार अगर
दुश्मन के खून से अपनी प्यास बुझाता था
, तो
अकसर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाजी भी लगा देता था। बादशाह अगर
अपने हुक्म को कानून समझता था और उसकी अवज्ञा को कदापि सहन न कर सकता था
,
तो
प्रजापालन भी करता था
, न्यायशील भी होता था।
दूसरे के देश पर चढ़ार्इ वह या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था
या अपनी आन-बान
, रोब-दाब कायम करने के लिए या
फिर देश-विजय और राज्य-विस्तार की वीरोचित महत्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उसकी
विजय का उददेश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट
जनसाधारण को अपने स्वार्थसाधन और धन-शोषण की भटठी का र्इंधन न समझते थे। किन्तु
उनके दुख-सुख में शरीक होते थे और उनके गुण की कद्र करते थे।
मगर इस महाजनी सभ्यता
में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है
,
तो
इसलिए कि महाजनों
, पूँजीपतियों को ज़्यादा
से ज़्यादा नफ़ा हो। इस दृष्टि से मानों आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है।
मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है
,
और
बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का
, जो
अपनी शकित और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किये हुए हैं। इन्हें इस बड़े
भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं
, ज़रा
भी रू-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना
बहाये
, खून गिराये और एक दिन चुपचाप
इस दुनिया से विदा हो जाय। अधिक दुख की बात तो यह है कि शासक वर्ग के विचार और
सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं
, जिसका
फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उसका शरीर है समाज। वह खुद
समाज से बिल्कुल अलग है। अगर कोर्इ संबंध है
, तो
यह कि किसी चाल या युकित से वह समाज का उल्लू बनावे और उससे जितना लाभ उठाया जा
सकता हो
, उठा ले।
धन-लोभ ने मानव भावों
को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफ़त
, गुण
और कमाल की कसौटी पैसा
, और
केवल पैसा है। जिसके पास पैसा है
, वह
देवता स्वरूप है
, उसका अन्त:करण कितना ही
काला क्यों न हो। साहित्य
, संगीत
और कला-सभी धन की देहली पर माथा टेकने वालों में है। यह हवा इतनी ज़हरीली हो गर्इ
है कि इसमें जीवित रहना कठिन होता जा रहा हैं डाक्टर और हकीम है कि वह बिना लम्बी
फ़ीस लिये बात नहीं करता। वकील और बारिस्टर है कि वह मिनटों को अशर्फियों से तौलता
है। गुण और योग्यता की सफलता उसके आर्थिक मूल्य के हिसाब मानी जा रही है। मौलवी
साहब और पणिडत जी भी पैसे वालों के बिना पैसे के गुलाम हैं
,
अखबार
उन्हीं का राग अलापते हैं। इस पैसे ने आदमी के दिलोदिमाग़ पर इतना कब्ज़ा जमा लिया
है कि उसके राज्य पर किसी ओर से भी आक्रमण करना कठिन दिखार्इ देता है। वह दया और
स्नेह
, सचार्इ और सौजन्य का पुतला
मनुष्य दया-ममताशून्य जड़ यन्त्र बनकर रह गया है। इस महाजनी सभ्यता ने नये-नये
नीति-नियम गढ़ लिये हैं जिन पर आज समाज की व्यवस्था चल रही है। उनमें से एक यह है
कि समय ही धन है। पहले समय जीवन था
, और
उसका सर्वोत्तम उपयोग विधा-कला का अर्जन अथवा दीन-दुखी जनों की सहायता था। अब उसका
सबसे बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। डाक्टर साहब हाथ मरीज की नब्ज़ पर रखते हैं और
निगाह घड़ी की सुर्इ पर। उनका एक-एक मिनट एक-एक अषर्फी है। रोगी ने अगर केवल एक
अशर्फी नज़र की है
, तो वह उसे मिनट से
ज़्यादा वक्त नहीं दे सकते। रोगी अपनी दुख-गाथा सुनाने के लिए बेचैन हैं
;
पर
डाक्टर साहब का उधर बिल्कुल ध्यान नहीं। उन्हें उससे ज़रा भी दिलचस्पी नहीं। उनकी
निगाह में उस व्यक्ति का अर्थ केवल इतना ही है कि वह उन्हें फ़ीस देता है। वह
जल्द-से-जल्द नुस्ख़ा लिखेंगे और दूसरे रोगी को देखने चले जायेेंगे। मास्टर साहब
पढ़ाने आते हैं
, उनका एक घण्टा वक्त बंधा है।
वह घड़ी सामने रख लेते हैं
, जैसे
ही घण्टा पूरा हुआ
, वह उठ खड़े हुए। लड़के
का सबक अधूरा रह गया तो रह जाय
, उनकी
बला से
, वह घण्टे से अधिक समय कैसे दे
सकते हैं
; क्योंकि समय रुपया है। इस
धन-लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम शेष कर डाला है। पति को पत्नी-बच्चों से बात
करने की फुर्सत नहीं
, मित्र और संबंधी किस
गिनती में हैं। जितनी देर वह बातें करेगा
, उतनी
देर में तो कुछ कमा लेगा। कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है
,
शेष
सब कुछ समय-नाश है। बिना खाये-सोये काम नहीं चलता
, बेचारा
इससे लाचार है और इतना समय नष्ट करना ही पड़ता है।
आपका कोर्इ मित्र या
सम्बन्धी अपने नगर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है
, तो
समझ लीजिए उसके यहाँ अब आपकी रसार्इ मुमकिन नहीं। आपको उसके दरे-दौलत पर जाकर
कार्ड भेजना होगा। उन महाशय को बहुत से काम होंगे
, मुशिकल
से आपसे एक-दो बातें करेंगे या साफ जवाब दे देंगे कि आज फुर्सत नहीं है। अब वह
पैसे के पुजारी हैं
, मित्रता और शील-संकोच
के नाम पर कब की तिलांजलि दे चुके हैं।
आपका कोर्इ दोस्त वकील
है और आप किसी मुकदमे में फँस गये हैं
, तो
उससे किसी प्रकार की सहायता की आशा न रखिए। अगर वह मुरौवत को गंगा में डुबो नहीं
चुका है
, तो आपसे देन-लेन की बात शायद न
करेगा
, पर आपके मुकदमें की ओर तनिक भी
ध्यान न देगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि आप किसी अपरिचित के पास जायँ और उसकी पूरी
फ़ीस अदा करें। र्इश्वर न करे कि आज किसी को किसी चीज़ में कमाल हासिल हो जाय
,
फिर
उसमें मनुष्यता नाम को न रह जायगी
, उसका
एक-एक मिनट कीमती हो जाएगा।
इसका अर्थ यह नहीं कि
व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट किया जाय
, पर
यह अर्थ अवश्य है कि धन-लिप्सा को इतना बढ़ने न दिया जाय कि वह मनुष्यता
,
मित्रता,
स्नेह-सहानुभूति
सबको निकाल बाहर करे।

पर आप उस पैसे के गुलाम
को बुरा नहीं कर सकते। सारी दुनिया जिस प्रवाह में बह रही है
,
वह
भी उसी में बह रहा है। मान-प्रतिष्ठा सदा से मानवीय आकांक्षाओं का लक्ष्य रहा है।
जब विद्या-कला मान-प्रतिष्ठा का साधन थी
, उस
समय लोग इन्हीं का अर्जन-अभ्यास करते थे। जब धन उसका एकमात्र उपाय है
,
तब
मनुष्य मजबूर है कि एकनिष्ठ भाव से उसकी उपासना करे। वह कोर्इ साधु-महात्मा
,
सन्यासी-उदासी
नहीं
; वह देख रहा है कि उसके पेशे
में जो सौभाग्यशाली सफलता की कठिन यात्रा पूरी कर सके हैं
, वह
उसी राजमार्ग के पथिक थे
, जिस
पर वह खुद चल रहा है। समय धन है एक सफल व्यकित का। वह उसको इस सिद्धान्त का अनुसरण
करते देखता है
, फिर वह भी उसी के पद-चिन्हों
का अनुसरण करता है
, तो उसका क्या दोष?
मान-प्रतिष्ठा
की लालसा तो दिल से मिटार्इ नहीं जा सकती। वह देख रहा है कि जिनके पास दौलत नहीं
,
और
इसलिए नहीं कि उन्होंने वक्त को दौलत नहीं समझा
, उनको
कोर्इ पूछने वाला नहीं। वह अपने पेषे में उस्ताद है फिर भी उसकी कहीं पूछ नहीं।
जिस आदमी में तनिक भी जीवन की आकांक्षा है वह तो इस उपेक्षा की सिथति को सहन नहीं
कर सकता। उसे तो मुरौवत
, दोस्ती
और सौजन्य को धता बताकर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा
,
तभी
इस देवी का वरदान उसे मिलेगा
, और वह
कोर्इ इच्छाकृत कार्य नहीं किन्तु सर्वथा बाध्यकारी है। उसके मन की अवस्था अपने आप
कुछ इस तरह की हो गर्इ है कि उसे धनार्जन के सिवा किसी काम से लगाव नहीं रहा। अगर
उसे किसी सभा या व्याख्यान में आधा घण्टा बैठना पड़े
, तो
समझ लो
, वह कैद की घड़ी काट रहा है।
उसकी सारी मानसिक
, भौतिक और सांस्कृतिक
दिलचसिपयाँ इसी केन्द्र बिन्दु पर आकर एकत्र हो गर्इ हैं। और क्यों न हों
?
वह
देख रहा है कि पैसे के सिवा उसका और कोर्इ अपना नहीं। स्नेही मित्र भी अपनी गरज
लेकर ही उसके पास आते हैं
, स्वजन-सम्बन्धी
भी उसके पैसे के ही पुजारी हैं। वह जानता है कि अगर वह निर्बल होता
,
तो
वह जो दोस्तों का जमघट लग रहा है
, उसमें
से एक के भी दर्शन न होते
, इन
स्वजन-सम्बन्धियों में से एक भी पास न फटकता। उसे समाज में अपनी एक हैसियत बनानी
है
, बुढ़ापे के लिए कुछ बचाना है,
लड़कों
के लिए कुछ कर जाना है जिसमें उन्हें दर-दर ठोकरें न खानी पड़ें। इस निष्ठुर
,
सहानुभूति
शून्य दुनिया का उसे पूरा अनुभव है। अपने लड़कों को वह उन कठिन अवस्थाओं में नहीं
पड़ने देना चाहता
, जो सारी आशाओं-उमंगों
पर पाला गिरा देती है
, हिम्मत-हौसले को तोड़कर
रख देती है। उसे वह सारी मंजि़लें जो एक साथ जीवन के आवश्यक अंग हैं
,
खुद
तय करनी होगी और जीवन को व्यापार के सिद्धान्त पर चलाये बिना वह इनमें से एक भी मंजि़ल
पार नहीं कर सकता।

इस सभ्यता का दूसरा
सिद्धान्त है
बिजनेस इज़ बिजनेस
अर्थात
व्यवसाय व्यवसाय है
, उसमें भावुकता के लिए
गुंजाइश नहीं। पुराने जीवन-सिद्धान्त में वह लठमार साफगोर्इ नहीं है
,
जो
निर्लज्जता कही जा सकती है और जो इस नवीन सिद्धान्त की आत्मा है। जहाँ लेन-देन का
सवाल है
, रुपये-पैसे का मामला है,
वहां
न दोस्ती का गुज़र है
, न मुरौवत का,

इन्सानियत का
, ‘बिजनेस
में
दोस्ती कैसी। जहाँ किसी ने इस सिद्धान्त की आड़ ली और आप लाजवाब हुए। फिर आपकी
जबान नहीं खुल सकती। एक सज्जन ज़रूरत से लाचार होकर अपने किसी महाजन मित्र के पास
जाते हैं और चाहते हैं कि वह उनकी कुछ मदद करें। वह भी आशा रखते हैं कि शायद सूद
के दर में वह कुछ रियायत कर दें
; पर जब
देखते हैं कि वह महानुभाव मेरे साथ भी वही कारबारी बर्ताव कर रहे हैं
,
तो
कुछ रियायत की प्रार्थना करते हैं
, मित्रता
और घनिष्ठता के आधार पर आँखों में आँसू भरकर बड़े करुण स्वर में कहते हैं-महाशय
,
मैं
इस समय बड़ा परीशान हूँ
, नहीं
तो आपको कष्ट न देता
, र्इश्वर के लिए मेरे
हाल पर रहम कीजिए। समझ लीजिए कि एक पुराने दोस्त…. वहीं बात काटकर आज्ञा के स्वर
में फ़रमाया जाता है: लेकिन जनाब
, आप बिजनेस
इज़ बिजनेस
इसे भूल जाते हैं। उस दिन कातर
प्रार्थी पर मानों बम का गोला गिरा। अब उसके पास कोर्इ तर्क नहीं
,
कोर्इ
दलील नहीं। चुपके से उठकर अपनी राह लेता है या फिर अपने व्यवसाय-सिद्धान्त के भक्त
मित्र की सारी शर्तें कबूल कर लेता है।

इस महाजनी सभ्यता ने
दुनिया में जो नर्इ रीति-नीतियाँ चलार्इ हैं
, उनमें
सबसे अधिक और रक्तपिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धान्त है। मियाँ-बीवी में बिजनेस
,
बाप-बेटे
में बिजनेस
, गुरु-शिष्य में बिजनेस। सारे
मानवी आध्यातिमक और सामाजिक नेह-नाते समाप्त। आदमी-आदमी के बीच बस कोर्इ लगाव है
,
तो
बिजनेस का। लानत है इस
बिजनेस
पर।
लड़की अगर दुर्भाग्यवश क्वाँरी रह गर्इ और अपनी जीविका का कोर्इ उपाय न निकाल सकी
,
तो
अपने बाप के घर में ही लौंडी बन जाना पड़ता है। यों लड़के-लड़कियाँ सभी घरों में
काम-काज करते ही हैं
पर
उन्हें कोर्इ टहलुआ नहीं समझता
; पर इस
महाजन सभ्यता में लड़की एक खास उम्र के बाद लौंडी और अपने भाइयों की मजदूरनी हो
जाती है। पूज्य पिताजी भी अपने पितृ-भक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं और माँ अपने
सपूत की टहलुर्इ। स्वजन-सम्बन्धी तो किसी गिनती में नहीं। भार्इ भी भार्इ के घर
आये तो मेहमान है। अकसर तो उसे मेहमानी का बिल भी चुकाना पड़ता है। इस सभ्यता की
आत्मा है व्यक्तिवाद
, आप स्वार्थी बना सब कुछ
अपने लिए।

पर यहाँ भी हम किसी को
दोषी नहीं ठहरा सकते। वही मान प्रतिष्ठा
, वही
भविष्य की चिन्ता
, वही अपने बाद
बीवी-बच्चों के गुज़र का सवाल
, वही
नुमाइश और दिखावे की आवश्यकता हर एक की गरदन पर सवार है
, और
वह हिल तक नहीं सकता। वह इस सभ्यता के नीति-नियमों का पालन न करे तो उसका भविष्य
अन्धकारमय है।

अब तक इस दुनिया के लिए
सभ्यता की रीति-नीति का अनुसरण करने के सिवा और कोर्इ उपाय न था। उसे झख मारकर
उसके आदेशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था। महाजन अपने जोम से फूला फिरता था। सारी
दुनिया उसके चरणों पर नाक रगड़ रही थी। बादशाह उसका बन्दा
, वजीर
उसके गुलाम
, संधि-विग्रह की कुंजी उसके हाथ
में
, दुनिया उसकी महत्वाकांक्षाओं के सामने सिर
झुकाए हुए
, हर मुल्क में उसका बोलबाला।
परन्तु अब एक नर्इ
सभ्यता (रूस में समाजवाद-सं0) का सूर्य सुदूर पश्चिम में उदय हो रहा है
,
जिसने
इस नाटकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है
, जिसका
मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यकित
, जो
अपने शरीर या दिमाग़ से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है
, राज्य
और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है
, और
जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रर्इस बना फिरता है
,
वह
पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबन्ध में राय देने का हक नहीं और वह नागरिकता के
अधिकारों का भी पात्र नहीं। महाजन इस नर्इ लहर से अति उद्विग्न होकर बौखलाया हुआ
फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शामिल आवाज उस नर्इ सभ्यता को कोस रही है
,
उसे
शाप दे रही है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य
, धर्म-विश्वास
की स्वाधीनता
, अपनी अन्तरात्मा के आदेश पर
चलने की आज़ादी वह इन सबकी घातक
, गला
घोंट देने वाली बतायी जा रही है। उस पर नये-नये लांछन लगाये जा रहे हैं
,
नर्इ-नर्इ
हुरमतें तराशी जा रही हैं। वह काले से काले रंग में रँगी जा रही है
,
कुत्सित
रूप में चित्रित की जा रही है। उन सभी साधनों से जो पैसे वालों के लिए सुलभ है
,
काम
लेकर उसके विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है
; पर
सचार्इ है जो इस सारे अन्धकार को चीरकर दुनिया में अपनी ज्योति का उजाला फैला रही
है।

निस्सन्देह इस नर्इ
सभ्यता ने व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के पंजे नाखून और दाँत तोड़ दिये हैं। उसके राज्य
में अब एक पूँजीपति लाखों मज़दूरों का ख़ून पीकर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह
आज़ादी नहीं कि अपने नफ़े के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके
,
अपने
माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे
, गोला-बारूद
और युद्ध सामग्री बनाकर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। अगर इसकी स्वाधीनता ही
स्वाधीनता का अर्थ है कि यह जनसाधारण को हवादार मकान
, पुष्टिकर
भोजन
, साफ-सुथरे गाँव,
मनोरंजन
और व्यवसाय की सुविधाएँ
, बिजली
के पंखे और रोशनी
, सस्ता और सध:सुलभ न्याय
की प्राप्ति हो
, तो इस समाज-व्यवस्था में जो
स्वाधीनता और आज़ादी है
, वह
दुनिया की किसी सभ्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं है। धर्म की स्वतंत्रता का
अर्थ अगर पुरोहितों
, पादरियों,
मुल्लाओं
की मुफ्तखोर ज़मात के दंभमय उपदेशों और अन्धविश्वास-जनित रूढि़यों का अनुसरण है
,
तो
निस्संदेह वहाँ इस स्वातन्त्र्य का अभाव है
; पर
धर्म-स्वातन्त्र्य का अर्थ यदि लोक-सेवा
, सहिष्णुता,
समाज
के लिए व्यकित का बलिदान
, नैकनीयती,
शरीर
और मन की पवित्रता है
, तो इस सभ्यता में
धर्माचरण की जो स्वाधीनता है
, और
किसी देश को उसके दर्शन भी नहीं हो सकते।

जहाँ धन की कमी-बेशी के
आधार पर असमानता है वहाँ ईर्ष्या
, ज़ोर,
जबर्दस्ती,
बेर्इमानी,
झूठ,
मिथ्या
अभियोग-आरोप
, वेश्या-वृतित,
व्यभिचार
और सारी दुनिया की बुराइयाँ अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं
,
अधिकाँश
मनुष्य एक ही स्थिति में है
, वहाँ
जलन क्यों हो और जब्र क्यों हो
? सतीत्व-विक्रय
क्यों हो और व्यभिचार क्यों हो
? झूठे
मुकदमे क्यों चलें और चोरी-डाके की वारदातें क्यों हों
? ये
सारी बुराइयाँ तो दौलत की देन हैं
, पैसे
के प्रसाद हैं
, महाजनी सभ्यता ने इनकी सृष्टि
की है। वही इनको पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित
,
पीडि़त
और विजित हैं
, वे इसे र्इश्वरीय विधान समझकर
अपनी स्थिति पर सन्तुष्ट रहें। उनकी ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया
गया
, तो उनका सिर कुचलने के लिए-पुलिस है,
अदालत
है
, काला पानी है। आप शराब पीकर उसके नशे से बच
नहीं सकते। आग लगाकर चाहें कि लपटें न उठें
, असम्भव
है। पैसा अपने साथ यह सारी बुराइयाँ लाता है
, जिन्होंने
दुनिया को नरक बना दिया है। इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए
, सारी
बुराइयाँ अपने-आप मिट जायँगी
, जड़ न
खोदकर केवल फुनगी की पत्तियां तोड़ना बेकार है। यह नर्इ सभ्यता धनाढयता को हेय और
लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहाँ कोर्इ आदमी अमीरी ढंग से रहे तो लोगों की
ईर्ष्या का पात्र नहीं होता
; बल्कि
तुच्छ और हेय समझा जाता है। गहनों से लदकर कोर्इ स्त्री सुन्दरी नहीं बनती
,
घृणा
की पात्र बनती है। साधारण जन-समाज से ऊँचा रहन-सहन रखना वहाँ बेहूदगी समझी जाती
है। शराब पीकर वहाँ बहका नहीं जा सकता
, अधिक
मधपान वहाँ दोष समझा जाता है
, क्योंकि
शराबखोरी से आदमी में धैर्य और कष्ट-सहन
, अध्यवसाय
और श्रमशीलता का अन्त हो जाता है।

हाँ,
इस
समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी
महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाये और तरह-तरह के बहानों से उनकी मेहनत का
फ़ायदा उठाये
, या सरकारी पद प्राप्त करके मोटी-मोटी
रकमें उड़ाये और मूछों पर ताव देता फिरे। वहाँ ऊँचे से ऊँचे अधिकारी की तनख़्वाह
भी उतनी ही है
, जितनी एक कुशल कारीगर की। वह
गगनचुम्बी प्रासादों में नहीं रहता
, तीन-चार
कमरों में ही उसे गुजर करना पड़ता है। उसकी श्रीमती जी रानी साहबा या बेगम बनी
हुर्इ स्कूलों में इनाम बाँटती नहीं फिरतीं
; बलिक
अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर 
में काम करती हैं। सरकारी पद पाकर वह अपने को लाट साहब नहीं बलिक जनता का
सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज-व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा
जिसमें उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चाँदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ
नहीं
? पूँजीपति और ज़मींदार तो इस
सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं। उनकी जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं। पर जब
वह लोग भी उसकी खिल्ली उड़ाने और उस पर फबतियाँ कसने लगते हैं जो अनजान में महाजनी
सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे हैं
, तो
हमें उनकी दास-मनोवृतित पर हँसी आती है। जिसमें मनुष्यता
, आध्यात्मिकता,
उच्चता
और सौन्दर्यबोध है
, वह कभी ऐसी
समाज-व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता
, जिसकी
नींव लोभ
, स्वार्थपरता और दुर्बल
मनोवृत्ति  पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें
विद्या और कला की संपत्ति दी है
, तो उस
का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन-समाज की सेवा में लगाओ
,
यह
नहीं कि उससे जन-समाज पर हुकूमत चलाओ
, उसका
खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ।

धन्य है वह सभ्यता,
जो
मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अन्त कर रही है
, और
जल्दी या देर से दुनिया उसका पदानुसरण अवश्य करेगी। यह सभ्यता अमुक देश की
समाज-रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है-यह
तर्क नितान्त असंगत है। र्इसार्इ मजहब का पौधा यरूशलम में उगा और सारी दुनिया उसके
सौरभ से बस गर्इ। बौद्ध-धर्म ने उत्तर भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने
उसे गुरुदक्षिणा दी। मानव-स्वभाव अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में
अन्तर हो सकता है
; पर मूलस्वरूप की दृष्टि
से सम्पूर्ण जाति में कोर्इ भेद नहीं। जो शासन-विधान और समाज -व्यवस्था एक देश के
लिए कल्याणकारी है
, वह दूसरे देशों के लिए
भी हितकारी होगी। हाँ
, महाजनी सभ्यता और उसके
गुर्गे अपनी शक्ति भर उसका विरोध करेंगे
, उसके
बारे में भ्रमजनक बातों का प्रचार करेंगे
, जन-साधारण
को बहकावेंगे
, उनकी आँखों में धूल झोकेंगे;
पर
जो सत्य है एक न एक दिन उसकी विजय होगी और अवश्य होगी।