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आलोचना के कब्रिस्तान से…:अरुण माहेश्वरी

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आलोचना के कब्रिस्तान से…

अरुण माहेश्वरी
सन् 1984 की बात है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म शताब्दी वर्ष था। कहा जा सकता है – आज की हिन्दी आलोचना के गोमुख का शताब्दी वर्ष। जनवादी लेखक संघ को बने अभी दो साल ही हुए थे। लेखकों में भारी उत्साह था। जलेस के जन्म में प्रेमचंद शताब्दी वर्ष की बड़ी भूमिका थी। ‘84 में शुक्ल शताब्दी वर्ष के पालन से जलेस हिंदी के अकादमिक जगत की मुख्यधारा में प्रवेश करना चाहता था। और बिल्कुल वैसा ही हुआ। जलेस ने शुक्ल शताब्दी वर्ष के पालन का बिगुल बजाया और देश भर के कालेज-विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों और हिंदी-सेवी सरकारी संस्थाओं का पूरा ताना-बाना जाग उठा। जलेस ने शुक्ल जी को अपनाया और विश्वविद्यालयों-अकादमियों में बैठे हिंदी के पेशेवरों ने जलेस को। देखते ही देखते प्रेमचंद शताब्दी वर्ष के जनवादी विमर्श से उत्पन्न संगठन को शुक्ल शताब्दी वर्ष ने साहित्य की परंपरा-पोषित मुख्यधारा से जोड़ दिया। 
आज जब हम हिन्दी आलोचना की स्थिति पर विचार करते हैं तब अनायास ही जलेस के इस अभूतपूर्व ‘विस्तार’ की कहानी का वह ‘स्वर्णिम’ अध्याय याद आ जाता है। और, इसके साथ ही कौंध उठती है शुक्ल शताब्दी वर्ष को केंद्र में रखकर जलेस के अंदर, हाशिये पर चल रही बहस की एक और अंतरकथा की यादें। इस कथा के केंद्रीय नायक थे इलाहाबाद के कथाकार, आलोचक नीलकांत। 
दर्शनशास्त्र की अकादमिक पृष्ठभूमि से आए सौन्दर्यशास्त्र के अध्येता नीलकांत मार्कण्डेय की ‘कथा’ पत्रिका के पृष्ठों पर कई धारदार टिप्पणियों से सबका ध्यान अपनी ओर पहले ही खींच चुके थे। जलेस की आचार्य रामचंद्र शुक्ल राष्ट्रीय परिसंवाद समिति की ओर से भी नीलकांत को भोपाल में होने वाले राष्ट्रीय परिसंवाद (7-8 सितंबर 1984) के लिये शुक्ल जी की विश्वदृष्टि पर लेख भेजने के लिये कहा गया। नीलकांत ने वह लेख लिख लिया, तभी उनसे कहा गया कि इस विषय पर कोई दूसरा लिख रहा है, इसलिये आप उनकी सौन्दर्यानुभूति पर आलेख तैयार करके भेज दें। नीलकांत ने इस विषय पर भी अपना लेख लिख कर जैसे ही परिसंवाद समिति के पास भेजा, समिति में एक प्रकार का हड़कंप सा मच गया। उनके लेख का शीर्षक था – मृत सौन्दर्य का मसीहा आचार्य रामचंद्र शुक्ल। शुक्ल जी की विश्वदृष्टि वाले लेख को नीलकांत ने नामवर सिंह की मांग पर ‘आलोचना’ के लिये भेज दिया, जिस पर नामवर जी ने टिप्पणी की थी – ‘‘लेख मिला आज ही। एक सांस में पढ़ गया। दृष्टि निर्मम, भाषा तल्ख, निर्णय सख्त, फिर भी संपूर्ण निबंध तर्कसंगत और प्रमाण पुष्ट। बहुत दिनों बाद ऐसा प्रौढ़ निबंध पढ़ने को मिला।’’
शुक्ल जी की सौन्दर्यानुभूति पर नीलकांत का लेख, ‘मृत सौन्दर्य का मसीहा’ विश्वदृष्टि वाले लेख की बुनियादी समझ पर टिका उतना ही ‘तल्ख, तर्कसंगत और प्रमाण पुष्ट निर्मम’ लेख था। लेकिन जलेस का जो आयोजन शुक्ल जी को पूरे भक्तिभाव के साथ दोनों हाथ खोल कर अपनाने के उद्देश्य से किया जा रहा था, जो सामंती रूढि़वाद से बुरी तरह से जकड़े हुए क्षेत्र में नवजागरण के कल्पनाप्रसूत भव्य महल के संस्थापक रामविलास शर्मा से संगति रखते हुए विश्वविद्यालयों के अध्यापकों, प्राचार्यों के मनों को जीतने के लिये किया जा रहा था, उसके आयोजकों को ऐसा ‘निंदापूर्ण’ लेख कैसे रास आ सकता था। हमें अच्छी तरह से याद है, नीलकांत ने उस लेख को आयोजन समिति के पास दिल्ली भेजा था, लेकिन वहां पहुंचने के साथ ही तत्काल उसकी गूंज-अनुगूंज गुजरात, वाराणसी, कोलकाता, भोपाल – सर्वत्र सुनाई देने लगी थी। ‘’शीर्षक प्रतिमा-भंजक, मुद्दआ नकारात्मक और जलेस के रंग में भंग डालने वाला’’। डा. शिवकुमार मिश्र, चंद्रबली सिंह, डा.चंद्रभूषण तिवारी, कुंवरपाल सिंह सबने भरसक कोशिश की कि इस ‘विध्वंसक’ लेख को राष्ट्रीय परिसंवाद में न पढ़ने दिया जाएं। मामला पार्टी के प्रभारी कामरेड बी.टी.रणदिवे की अदालत तक पहुंच गया। हम वहां मौजूद थे। हमें अच्छी तरह से याद है कि कामरेड बीटआर और सुरजीत ने भी सिर्फ मत-भिन्नता के आधार पर लेख को न पढ़ने देने के विचार का सख्त विरोध किया। और अंत में, वह लेख, जलेस के कई प्रमुख नेतृत्वकारी व्यक्तियों की आपत्ति के बावजूद भोपाल में पढ़ा गया। 
कुछ निजी कारणों से हम भोपाल के उस परिसंवाद में उपस्थित नहीं हो पाये थे। लेकिन हमें आज भी, परिसंवाद के बाद हुई मुलाकात में इस विषय पर डा.चंद्रभूषण तिवारी, चंद्रबली सिंह, डा.शिवकुमार मिश्र के तमतमाये हुए चेहरे और उनकी बौखलाहट याद है। नीलकांत इन सबकी नजरों में किसी दागी व्यक्ति से कम नहीं थे। तब से तीस साल बाद, आज भी जब हमें उस पूरी घटना की याद आती है, कहना न होगा, उससे आज की हिंदी आलोचना, खास तौर पर मार्क्सवादी आलोचना की दयनीय दशा पर से जैसे एक झटके में पर्दा उठ जाता है। एक वाक्य में कहे तो आज की हिंदी आलोचना शुक्ल जी द्वारा तैयार किये गये ‘छात्रोपयोगी नोट्स’ के आधार पर निर्मित हिंदी साहित्य के इतिहास का आगे और, कोरा इतिवृत्तात्मक विस्तार बन कर रह गयी है। 
अभी, हाल में कोलकाता की ‘वागर्थ’ पत्रिका के कई अंकों में हिंदी साहित्य के पचास सालों का उत्सव जिस प्रकार के सपाट और बेजान ब्यौरों के इतिवृत्तों के आधार पर मनाया गया है, इस कलावादी कर्मकांड, समग्रत: हिंदी आलोचना की ऐसी परिणति में डा. शर्मा, नामवर सिंह और पूरे प्रगतिवादी-जनवादी साहित्य आंदोलन का योगदान किसी से कम नहीं है। प्रगतिवादियों की ‘पहल’ और जलेस की पत्रिका ‘नया पथ’ क्रमश: मुर्दा सामग्रियों को चकदक पैकेजिंग में खपाने और व्यवसायिक प्रकाशकों के लिये एक बेचने लायक किताब बन जाने से अधिक कोई भूमिका अदा करती नहीं दिखाई देती है। संकट की इस घड़ी में भी किसी नये विमर्श को पैदा करने में इनकी जरा भी दिलचस्पी नहीं है। 
सारी दुनिया में मार्क्सवाद ने ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों को उनकी आत्मलीनता, प्राकृतिक विज्ञान की तरह की सीमाबद्धताओं से मुक्त करने में प्रमुख भूमिका अदा की है। सामान्यत:, सामाजिक आंदोलनों के दबावों से साहित्य अक्सर खुद की सीमाओं से मुक्त होकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ता रहा है। हमारे यहां भक्ति काल का साहित्य रीतिकालीन आत्मलीनता से मुक्ति का इतिहास है, तो राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन ने कथा साहित्य को कोरी तिलस्मी और ऐय्यारों की किस्सागोई से मुक्त किया। छायावादी आत्मवाद ने प्रगतिवाद के लिये जगह छोड़ी। लेकिन खास तौर पर, मार्क्सवाद का स्पर्श दुनिया के पूरे साहित्य और वैचारिक विमर्श को स्थायी तौर पर उसकी आत्मलीनता से मुक्त कराने वाला स्पर्श साबित हुआ है। यह विचारों की दुनिया की एक कोपरनिकस क्रांति है। जो खगोलशास्त्र हजारों सालों से पृथ्वी-केन्द्रित धुरी पर चक्कर काट रहा था, एक कोपरनिकस की सौर-प्रणाली की खोज ने उसे उससे सदा के लिये मुक्त कर दिया। उसी प्रकार, चेतना के माध्यम से प्रतिबिंबित यथार्थ से बनने वाले विचारधारा के सभी क्षेत्रों के अध्ययन को मार्क्स ने सदा के लिये बदल डाला। माल में मूल्य के प्रवेश से जैसे उसका ठोस अस्तित्व लुप्त हो जाता है, वैसे ही यथार्थ के साहित्यिक पाठों में रूपांतरण से सामाजिक यथार्थ असंख्य विखंडित चित्रों में बदल जाता है। माल की आधिभौतिक सत्ता के ब्रह्मांड की तरह ही साहित्य और विचारधारा की दुनिया सामाजिक यथार्थ की असंख्य विरूपित सत्ताओं का एक ब्रह्मांड बन जाती है। साहित्य और कला जगत के अपने स्वतंत्र नियमों का भ्रामक संसार भी तैयार होता है। मार्क्सवादी आलोचना की भूमिका यह रही कि उसने इस विखंडित, विरूपित, चेतना से प्रतिबिंबित यथार्थ को मूल सामाजिक संरचना के आधार पर समग्रत:, परस्पर गुंथे हुए रूप में परखने के औजार दिये, यह मानते हुए कि जो दिखाई देता है, वही सच नहीं होता। मार्क्स कहते थे कि जो दिखाई देता है वही सच हो तो विज्ञान उथला हो जायेगा। उसी प्रकार, दिखाई दे रहे पाठ को ही स्वायत्त सच मान कर बढ़ा जाए तो आलोचना भी उथली हो जायेगी, संधान और सृजन की संभावनाओं का अंत हो जायेगा। यही वजह रही कि ‘कला कला के लिये’ की तरह की सारी सैद्धांतिक शेखियां सामाजिक अंतर्विरोधों की गतिशीलता से बल पाते मार्क्सवादी यथार्थवादी साहित्य विमर्श की तेज आंच के सामने कभी टिक नहीं पायीं। 
चिकित्सा विज्ञान में आत्मलीनता (autism) एक बीमारी है, मंद बुद्धि माने जाने वाले लोगों की बीमारी। यह बीमारी जीवन के सभी अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े लोगों में समान रूप से पाई जाती है। यह कमजोर आदमी का एक रक्षा कवच भी होती है, सीप में बंद दीन-हीन घोंघा बसंत। मार्क्सवाद ने साहित्य विमर्श को उसकी आत्मलीनता से मुक्त किया, जीवनोन्मुख बनाने की भूमिका अदा की। लेकिन, इसी के समानांतर, मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आंदोलन से ही जुड़ा इतिहास का एक दूसरा चिंताजनक पहलू भी रहा है, जो पुन: जीवनोन्मुखता के बजाय साहित्य पर खास प्रकार की दलीय प्रतिबद्धता का दबाव पैदा करता है। लेनिन ने जब बोल्शेविक क्रांति के संदर्भ में पार्टी की सेवा करना साहित्यकारों का कत्‍​र्तव्य बताया, वही से सामाजिक क्रांति का अर्थ सीमित होते हुए बोल्शेविक पार्टी में और पार्टी के नेतृत्व और नेता में सिमट जाने की एक उल्टी यात्रा शुरू होगयी। यह पैगंबर की करुणा के गिरिजाघरों, मस्जिदों, मठों में पतित होने वाली प्रक्रिया है। मार्क्स-एंगेल्स की साहित्य संबंधी सारी बातें पृष्ठभूमि में चली गयी। एक दूसरे प्रकार की आत्मलीनता में साहित्य को डुबो देने का उपक्रम शुरू हुआ। ‘साहित्य का उद्देश्य जितना छिपा रहे इसी में साहित्य की भलाई है’ की तरह की मार्क्सवादी सीखें आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद की पूरी बहस से गायब हो गयी। लुकाच और ब्रेश्त के बीच, ब्रेश्त और बेंजामिन के बीच, अल्थूसर और लासान के बीच विचारों की जो तनातनी दिखाई देती है, उसके मूल में मार्क्सवाद के नाम पर तात्कालिक राजनीति की सेवा की इसी कुत्सित समझ की बड़ी भूमिका थी। पश्चिमी यूरोप में ग्राम्शी से लेकर लुकाच, बेंजामिन, ब्रेश्त, अल्थूसर, थामसन, कॉडवेल, अन्‍​र्सट फिशर और सार्त्र, हर्बर्ट मार्कूज, दरीदा, जेमिसन तथा एरिक हाब्सवाम और अभी के स्लावोय जिजेक और अम्बर्तो इको तक के लेखन में मार्क्सवाद से उनकी संबद्धता और कम्युनिस्ट आंदोलन के इस पहलू के दबाव की छाप को साफ तौर पर देखा जा सकता है। 
हिंदी में भी, डा. शर्मा और नामवर सिंह के लेखन का कुछ-कुछ इसी आधार स्पष्ट काल-विभाजन किया जा सकता है। जब तक वे साहित्य में कलावादियों की आत्मलीनता से लोहा ले रहे थे, उनके लेखन में एक खास प्रकार की धार थी। फिर एक दौर सीधे पार्टी की सेवा का आया। डा. शर्मा की ‘प्रगतिवाद की समस्याएं’ के लेखों को देखिये। लेकिन डा. शर्मा और नामवर सिंह पर से जैसे ही उस दौर का भूत उतरा, वे नये सामाजिक यथार्थ के साथ जुड़ कर साहित्य में स्वतंत्रता और जनतंत्र के मूल्यों के आधार पर मार्क्सवादी आलोचना को एक नये उत्कर्ष की दिशा में लेजाने के बजाय आचार्य शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की अतीतोन्मुखी इतिवृत्तात्मकता की शरण में चले गये। नामवर जी अपने ‘इतिहास और आलोचना’ के लेखन के उल्लेख से भी बचने लगे। लेखनी की पुरानी धार भी भोथरी होगयी और हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना स्वतंत्रतापूर्व की कल्पित हिंदी नवजागरण की बहस में उलझ कर रह गयी। आलोचना तालाब के ठहरे हुए बंद पानी की काई का इतिवृत्त बन गयी। धीरे-धीरे, वैचारिक सह-अस्तित्व का आलम यह होगया कि अभी अज्ञेय जन्म शताब्दी पर इसी लेखक ने टिप्पणी की – ‘नामवर का लोप ही अज्ञेय का लोप है’। 
‘‘ अज्ञेय जी का शताब्दी वर्ष पूरा होगया। हिंदी जगत में उनके लिये श्रद्धा-सुमनों की कोई कमी नहीं रही। अलग-अलग शहरों में कई आयोजन हुए। अखबारों, पत्रिकाओं में कुछ छोटी-मोटी टिप्पणियां आयीं। उनके निकट के मित्रों, संबंधियों ने एक-दो किताबें भी निकाली। कुछ स्वघोषित ‘सांस्कृतिक दूतों’ के शहर-शहर फेरे लगे। लेकिन गौर करने की बात यह है कि कुल मिला कर यह पूरा वर्ष बिना किसी वैचारिक उत्तेजना और सामाजिक-सांस्कृतिक व्यग्रता के एक स्निग्ध और शान्त, तनाव-रहित वातावरण में बीत गया। …हाल के वर्षों तक हिन्दी में सबसे विवादास्पद समझे जाने वाले अज्ञेय की शताब्दी कोई मामूली वैचारिक आलोड़न भी पैदा नहीं कर पाये, यह स्थिति किस बात का संकेत है? क्या यह अज्ञेय पर या आज के समय पर या दोनों पर ही कोई विशेष टिप्पणी है?
‘‘…कुल मिला कर इस पूरे साल ‘अज्ञेयपंथ’ और ‘नामवरपंथ’ की खूब छनी। सब कुछ भले-भले निपट गया। इस ‘भले-भले’ ने ही आज हमारे लिये यह प्रश्न छोड़ दिया है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? किसी जमाने में हिंदी में प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के बरक्स अज्ञेय का प्रयोगवाद (परिमल) विचारधारा के एक दूसरे धुर का मंच हुआ करता था। …इसीलिये स्वाभाविक तौर पर हिंदी में उस काल की सारी साहित्यिक-वैचारिक बहसों के केंद्र में अज्ञेय हुआ करते थे। लेकिन आज वह सारा विवाद कहां रफ्फू-चक्कर होगया? यही एक प्रश्न किसी को भी आज की साहित्यिक दुनिया के सच पर गहराई से नजर डालने के लिये प्रेरित कर सकता है। 
‘‘… प्रेमचंद शताब्दी के दौरान प्रेमचंद को केंद्र में रख कर चंद्रबली सिंह ने ‘आलोचनात्मक’ और ‘समाजवादी’ यथार्थवाद के साथ ही यथार्थ की एक और, तीसरी श्रेणी ‘जनवादी क्रांतिकारी यथार्थवाद’ की अवधारणा रखी। प्रगतिशील लेखक संघ वस्तुत: बिखर गया लेकिन हिंदी-उर्दू के लेखकों के एक नये संगठन, जनवादी लेखक संघ (1982) का उदय हुआ। जनतंत्र का सवाल केंद्रीय सवाल बना और भारत की जनता की जनतंत्र की लड़ाई के मोर्चे की जो इंद्रधनुषी तस्वीर पेश की गयी उसमें डा. रामविलास शर्मा से लेकर अज्ञेय तक, सबके लिये समान स्थान का आश्वासन था। …आंतरिक आपातकाल के पहले और बाद के इस दौर में अज्ञेय जीवित ही नहीं, खासे सक्रिय थे। … वह पूरा दौर भारत में जनतंत्र की रक्षा के लिये सबसे तीव्र संघर्ष का दौर था और जयप्रकाश के साथ जुड़ कर अपने अखबारों के जरिये अज्ञेय ने उस पूरी लड़ाई में अपनी एक भूमिका अदा की थी। फिर भी आज तक कोई यह प्रश्न क्यों नहीं उठाता है कि जनवादी लेखक संघ के वैचारिक परिप्रेक्ष्य के इंद्रधनुषी दायरे में अज्ञेय को उनके जीवित काल में कभी क्यों नहीं शामिल किया जा सका? 
‘‘इस एक सवाल के जवाब से जहां प्रलेस-जलेस की विचारधारात्मक प्रतिश्रुतियों और निष्ठाओं की सचाई की परख हो सकती है, वहीं अज्ञेय की भी ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ की वास्तविकता को समझा जा सकता है। कहना न होगा कि आज जहां जलेस-प्रलेस प्रकार के संगठन पार्टी की जकड़नों से बेदम होकर अस्तित्वीय संकट के गह्वर में हांफ रहे हैं, और लेखक क्रमश: जयपुर उत्सव की तरह की साहित्य-मंडियों में अपनी कीमत लगवाने को व्याकुल हो रहे हैं, वहीं अज्ञेय की ‘जनतांत्रिक प्रतिबद्धताओं’ का भी आज कोई दो-कौड़ी का दाम लगाने के लिये तैयार नहीं है। अज्ञेय शताब्दी वर्ष के आयोजनों की रपटों से तो कम से कम यही जाहिर होता है। 
‘‘सचमुच यह एक अनोखी विडंबना है। नामवर का लोप ही अज्ञेय का भी लोप है। ऐसे ही ‘विचारधारा का अंत’ विचार मात्र के अंत का भी सबब बनता है।’’ 
इस टिप्पणी में भी जलेस का प्रसंग आया था। जलेस के निर्माण के समय सन् ‘80 के नये जनवादी उभार के साथ मार्क्सवादी आलोचना ने अपने समय के सामाजिक मुद्दों से जुड़ कर एक नयी धार अर्जित की थी। लेकिन, यह बहुत ही थोड़े से समय की चमक भर साबित हुई। इससे पश्चिम की तरह जनतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों के आधार पर यहां मार्क्सवादी आलोचना के एक दीर्घस्थायी लगातार विकासमान वैचारिक विमर्श की शुरूआत नहीं हो पायी। इसके जन्म के साथ ही इसकी सीमाएं जाहिर होने लगी थी, जैसा कि इस लेख के शुरू में ही हमने रामचंद्र शुक्ल जन्म शताब्दी पर राष्ट्रीय परिसंवाद की घटना के विषय में बताया है। संगठन का विस्तार प्रमुख लक्ष्य होगया, बदलते हुए यथार्थ के बरक्श आलोचना के औजारों का विकास नहीं। जितनी तेजी के साथ इस नये जनवादी उभार ने प्रेमचंद और मुक्तिबोध के जरिये एक वैचारिक नवोन्मेष की चमक दिखाई थी, उतनी ही तेजी से उसकी चमक बुझती हुई भी नजर आने लगी। 
चन्द्रबली सिंह ने नीलकांत को लिखा था – ‘‘ मैं समझता हूं, शुक्ल जी में कुछ ऐसे तत्व हैं जो हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं – पूरी तरह से निषेधात्मक रुख गलत है।’’ और इसप्रकार, मार्क्सवाद के नाम पर संतुलन बनाने अर्थात वैचारिक समझौता करके चलने का एक नया रास्ता खोज लिया गया – सब कुछ संगठन के हित के नाम पर। न रामविलास शर्मा, नामवर सिंह ने शुक्ल जी और द्विवेदी जी की रहस्यवाद में लिपटी भाववादी साहित्य दृष्टि को पूरी तरह से ठुकराते हुए एक नये मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की दिशा में कोई साहसपूर्ण कदम बढ़ाया, जैसा हमें हेगेल के प्रति मार्क्स की दृष्टि में, टालस्टाय के विचारों के प्रति लेनिन के नजरिये में और क्रोचे के विचारों के साथ ग्राम्शी के संघर्ष में दिखाई देती है। और, न ही ऐसी किसी टकराहट का कोई परिचय दिया परवर्ती जनवादी आंदोलन के उभार से जुड़े आलोचकों ने। नीलकांत जैसों ने जिस भिन्न धारा की ओर बढ़ने की कोशिश की, उसे शुरू में ही दबा डालने की भरसक कोशिश की गयी। मार्क्स ने हेगल से मुक्ति पाई उसके दर्शन को पूरी तरह से जानकर। हमारे यहां इस जानने की प्रक्रिया में पुराने रहस्यवाद के बंधन से मुक्ति की नहीं, बल्कि उसे अपना कर समाज में ‘परमहंस’ का सम्मान अर्जित करने की लालसा प्रमुख रही। हिंदी आलोचना हिंदी विभागों में बैठे अध्यापकों की सार-संग्रहवादिता की दासी बन कर रह गयी। 
हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना पाठ के प्रत्यक्ष को ही सच मान लेने के उथलेपन की शिकार हुई है। आचार्य शुक्ल ने कहीं ‘रहस्यवाद’ पद का तिरस्कार के साथ उल्लेख कर दिया और इतने भर से उन्हें प्रगतिशील आलोचना का गोमुख मान लिया गया। उनके सनातनपंथी, वर्णवादी पूर्वाग्रहों को देखने से इंकार कर दिया गया। शुक्लजी ने रहस्यवाद का विरोध सिर्फ कबीर के प्रति अपनी वर्णवादी नफरत को व्यक्त करने के लिये किया था, इस नग्न सचाई से भी आंखें मूंद ली गयी। 
‘‘यत्क्रतुर्मवति तत् कर्म कुरुते’’। जिसके प्रति मन में मोह होगा, वह वैसा ही कर्म करेगा। मार्क्सवाद पदार्थ की गतिशीलता का विज्ञान है। परंपरा से उसका संबंध समाज की गति को चिन्हित करने के लिये है, न कि उसे ढोने के लिये। लेनिन ने ‘प्रोलेतकुल्त’ के विध्वंसक रुख के प्रत्युत्तर में कहा था कि मानव इतिहास में जो भी श्रेष्ठ तत्व रहे हैं, हमें उन्हें सहेजना होगा। इस ‘सहेजने’ का अर्थ यह नहीं है कि हम अजायबघर को अपना घर बना लें। मार्क्स को देखिये, वे कैसे अपनी कृति ‘जर्मन विचारधारा’ में हेगेलीय दर्शन के विघटन का जश्न मनाते हैं। ‘‘अभूतपूर्व तीव्र गति से सिद्धांत एक दूसरे को धकेल कर उनका स्थान लेते रहे, मस्तिष्कों के सूरमा एक दूसरे को उलटते चले गये और 1842-45 के बीच के तीन वर्षों में जर्मनी से अतीत का जितना सफाया हुआ उतना पहली तीन शताब्दियों के दौरान नहीं हुआ था।…यकीनन यह एक दिलचस्प घटना है – यह है परमचित्त के विघटन की प्रक्रिया।’’ जैसा कि पहले ही कहा गया है, मार्क्सवाद विचारधारा की दुनिया में कोपरनिकस क्रांति है। 
जलेस से जुड़े आलोचकों ने इतिवृत्तात्मक लेखन की सबसे बुरी प्रवृत्ति, नाम-गिनाऊ आलोचना के चरम उदाहरण पेश कियें। इस संदर्भ में दृष्टव्य है उस दौर का डा. रमेश कुंतल मेघ का लेखन, जिसके नक्शे-कदम पर आज भी ‘वागर्थ’ जैसी पत्रिकाएं और नन्द किशोर नवल जैसे आलोचक पूरे उत्साह से जुटे हुए हैं। आलोचना की यह ‘सर्वजनहिताय’ वाली बीमारी अब आनुवंशिक रोग का रूप ले चुकी दिखाई देती है। शुक्ल जी और द्विवेदी जी के प्रति श्रद्धा-भक्ति ने न सिर्फ अतीत के साथ बल्कि वर्तमान के साथ भी आलोचना में किसी प्रकार के आलोचनात्मक विवेक के रिश्तों को पनपने नहीं दिया। ‘आलोचना’, ‘वागर्थ’, ‘तद्भव’, ‘वर्तमान साहित्य’ और ‘नया पथ’ जैसी तमाम पत्रिकाएं भले वे मार्क्सवादियों द्वारा निकाली जा रही हो या गैर-मार्क्सवादियों बल्कि मार्क्सवाद-विरोधियों द्वारा, सबमें आलोचना के नाम पर शुक्ल जी की गद्य-पद्य की व्याख्या वाले छात्रोपयोगी अध्यापकीय नोट्स की परंपरा बदस्तूर जारी है। इस मामले में इनके बीच रत्ती भर फर्क करना भी नामुमकिन है। 
मार्क्सवादियों की सारी जमातें अपनी पार्टी प्रतिबद्धताओं के प्रति इतनी निष्ठावान है कि भारत में वामपंथ के उदय और अस्त की इतनी प्रकट और विस्फोटक परिघटना से भी इनके कान पर जंू तक नहीं रेंगती। गैर-मार्क्सवादियों के लिये तो वैसे ही साहित्येतर सामाजिक-राजनीतिक प्रपंच सदा के लिये वर्जित है। इसका कुल जमा परिणाम यह है कि इस चक्कर में साहित्य से तात्पर्य और उसकी उत्कृष्टता के विषय भी आज हिंदी आलोचना के दायरे के बाहर जा चुके हैं। कोलकाता से ही हिंदी में भारतीय विद्याभवन की एक पत्रिका निकलती है – ‘वैचारिकी’ । पुरातत्व से लेकर रस सिद्धांत और अलंकारशास्त्र जैसे अर्वाचीन विषयों पर अध्यापकों के आधे-अधूरे नोट्स से भरी पत्रिका। इसे देख कर ऐसे पुरानेपन की अनुभूति होती है जैसे कोई ‘पुरातत्व’ साक्षात उपस्थित हो। कहना न होगा, यही है अभी की हिंदी की तमाम पत्रिकाओं का तात्विक सच। 
यह सचमुच इतिहास का परिहास ही है। अनेक बार ऐसे अवसर आते हैं जब राजा होता है, दरबारियों, मनसबदारों का राजकीय तामजाम भी बरकरार रहता है, लेकिन यथार्थ में ऐसे नाटकीय परिवर्तन होते हैं कि वह सारा लाव-लस्कर और साज-सज्जा रातो-रात प्राणहीन पुतलों के कल्पनालोक में बदल जाते हैं। भारत में रियासती राज्यों के भारत में विलय की घोषणा के ठीक बाद प्रत्येक रियासती राजाओं के राजदरबारों का यही दृश्य था। इसीप्रकार, जीवन की सचाई से कट कर जब विचारधाराएं निहायत अप्रासंगिक विषयों में रमी रहती है, लेकिन भान ऐसा करती है जैसे वही एक ऐसी अन्तरदृष्टि प्रदान कर रही है जिसपर मानवता का भविष्य निर्भर करता है, तो उनका पूरा स्वरूप इतिहास के विद्रूप का रूप ले लेता है। वे कोरी छायाओं का रंगमंच बन जाती हैं, जीवन की नपूंसक नकल का रंगमंच। साहित्य के प्रति पूजा भाव वाले ‘वागर्थ’ छाप लेखन का रंगमंच तैयार होता है और उसके अभिनेताओं के तौर पर गर्व के साथ ‘कलावादी’ होने के अनेक पुरस्कारों का तमगा लगाये असीम संधानी, शब्द-ब्रह्म के नाद में बावले रमेश चंद्र शाह जैसे आलोचक पैदा होते हैं। ध्यान से देखें तो नंदकिशोर नवल और रमेश चंद्र शाह में कोई फर्क नहीं दिखाई देगा, सिवाय इसके कि एक ‘प्रगतिशीलता’ का तमगा लगाये हुए हैं तो दूसरा ‘कलावाद’ का। प्रत्यक्ष को ही सच मान लेने की भौंडी कला दृष्टि दोनों में समान रूप से काम कर रही है। 
नामवर जी ने ‘कविता के नये प्रतिमान’ के प्रारंभ में ही अभिनव भारती को उद्धृत किया था :
‘‘श्रांति का अनुभव न करने वाली विवेचकों की बुद्धि ऊपर-ऊपर चढ़ते हुए अंत में जिस अर्थ-तत्व को देखती है उस तक पहुंचने वाली परिकल्पित विवेक के प्रारम्भिक सोपानों की परंपरा का क्या महत्व?
‘‘मानता हूं प्रमेय की सिद्धि का प्रथम प्रयास विचित्र और निराधार ही होता है; किंतु उस मार्ग में अग्रसर होने पर उसके ऊपर सेतुओ, नगरों आदि का निर्माण भी विस्मयकारी नहीं रह जाता। 
‘‘इसीलिये यहां प्राचीन आचार्यों के मतों का खंडन नहीं, बल्कि संशोधन किया गया है। पूर्व-प्रतिष्ठापित सिद्धांतों की योजना में भी मूल की प्रतिष्ठा का फल मिलता है।’’
क्या है यह आलोचना के पूर्वाधारों के रूप में प्राचीन आचार्यों के मतों में संशोधन का विधान? यही तो हैं सजीव मनुष्य और जीवन के यथार्थ को छोड़ कर शास्त्रों से शास्त्र की रचना का विधान, टीकाओं और भाष्यों का विधान।
मार्क्स जब अपने दर्शनशास्त्र की रचना करते हैं तो वे पारंपरिक जर्मन दर्शन के बिल्कुल विपरीत रास्ता अपनाते हैं। ‘स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने वाले जर्मन दर्शन के विपरीत पृथ्वी से स्वर्ग पर आरोहण का मार्ग पकड़ते हैं। वे किसी पूर्व प्रतिष्ठित सिद्धांत या कल्पना या अनुमान को आधार बनाने के बजाय अपना प्रस्थान-बिंदु बनाते हैं वास्तविक सक्रिय लोगों को, उनकी वास्तविक जीवन-प्रक्रिया को और इनके आधार पर उसकी वैचारिक प्रक्रियाओं और प्रतिध्वनियों को सामने लाते हैं। 
मार्क्स के शब्दों में, ‘‘ आदमी के दिमाग में बनने वाले काल्पनिक बिंब भी अनिवार्यत: उस भौतिक जीवन प्रक्रिया के संस्करण है, जिन्हें अनुभव द्वारा परखा जा सकता है और जो भौतिक पूर्वाधारों से संबद्ध है। नैतिकता, धर्म, तत्व मीमांसा, विचारधारा तथा चेतना के तदनुरूपी बाकी सभी रूप अब स्वतंत्रता का नकाब ओढ़े नहीं रह सकते। उनका कोई इतिहास, कोई विकास नहीं है; परंतु मनुष्य अपने भौतिक उत्पादन तथा अपने भौतिक संसर्ग के विकास से अपने इस वास्तविक अस्तित्व को और साथ ही अपने चिंतन और चिंतन के परिणामों को भी बदलता है। जीवन चेतना द्वारा निर्धारित नहीं होता बल्कि चेतना जीवन द्वारा निर्धारित होती है। निरीक्षण की पहली विधि के प्रस्थान बिंदु में चेतना को सजीव व्यक्ति मान कर चला जाता है; दूसरी विधि में स्वयं वास्तविक सजीव मनुष्य, जो वास्तविक जीवन के अनुरूप है, वही प्रस्थान बिंदु है तथा चेतना को पूरी तरह से उसकी चेतना मात्र माना जाता है। 
‘‘निरीक्षण की यह विधि पूर्वाधारों से वंचित नहीं है। वह वास्तविक पूर्वाधारों को प्रस्थान बिंदु बनाती है तथा उन्हें एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ती।’’
हिंदी के एक सबसे बड़े मार्क्सवादी आलोचक के पूर्वाधार और सोच की दिशा और मार्क्स की दिशा विपरीत है। मार्क्स अपने निरीक्षण में जीवन के वास्तविक पूर्वाधारों को प्रस्थान बिंदु ही नहीं बनाते, उसे एक क्षण के लिये भी छोड़ने को तैयार नहीं है। और नामवर जी का प्रस्थान बिंदु सिर्फ और सिर्फ विवेचकों का ‘परिकल्पित विवेक’ है और उनकी यात्रा का गंतव्य भी इसी विवेक में किंचित संशोधन भर है। कविता के नये प्रतिमानों की तलाश में तेजी से बदल रहे जीवन की ठोस परिस्थितियों और उसमें साहित्य की भूमिका कोई विचार का बिंदु हो सकता है, इसका कहीं से कोई संकेत नहीं मिलता। 
फिर नामवर जी का अशोक वाजपेयी से किस बात पर मतांतर है। अपने लेखन में उनका अद्यीत व्यक्तित्व शुद्ध रूप से साहित्य के स्वायत्त संसार का नागरिक ही होता है। उनकी सर्वसमावेशी दृष्टि में कविता के नये प्रतिमान विचारों की टकराहट से नहीं, ‘नये मूल्यों की खोज और प्रतिष्ठा के सहभागी प्रयास’ से हासिल होंगे। उनके अनुसार ‘मूल्य एक कमाया हुआ सत्य है’, अर्थात सबका समान सत्य! शास्त्रों की पैरवी में लिखते हैं – ‘‘कविता को सीधे अनुभव करने में हर पाठक स्वतंत्र और समर्थ होता तो काव्यानुशासन की जरूरत न पड़ती। …जो अपने को सामान्य पाठक कहता है वह भी काव्यानुभव में अनजाने ही किसी न किसी काव्य-सिद्धांत से अनुशासित होता है।’’ 
इसप्रकार, जाहिर है कि कविता के नये प्रतिमान में उन्होंने जिस नये शास्त्र की रचना की है, उसके दायरे से शुरू में ही कविता को सीधे अनुभव करने वाले जन-साधारण को, मजदूरों और किसानों को निकाल कर अलग कर दिया गया है। 
पाब्लो नेरुदा के ‘ममायर्स’ में एक अध्याय है – ‘कविता एक पेशा है’। उस अध्याय के शुरू के अंश को ही यहां थोड़ा विस्तार से उद्धृत करना उचित होगा। इस अध्याय की शुरूआत वे इसप्रकार करते हैं : ‘‘युद्धों, क्रांतियों और जबर्दस्त उथल-पुथल के चलते हमारे समय की विशेषता यह रही है कि जितनी किसी ने कल्पना नहीं की होगी, उससे कहीं ज्यादा कविता के लिए जमीन तैयार हुई है।’’ 
इसमें आगे वे सांतियागो के चिले के सबसे बड़े बाजार के कुलियों के बीच कविता सुनाने के अपने अनुभव का बयान करते हैं। वे लिखते है – ‘‘ जब मैं उस हॉल में घुसा तो मेरे अन्दर जोसे असुनसियन सिल्वा की कविता ‘निशाचर’ की तरह की एक सिहरन दौड़ गई, सिर्फ इसलिए नहीं कि वहां इतनी ठंड थी, बल्कि इसलिये क्योंकि वहां के परिवेश से मैं सन्न था। लगभग पचास लोग वहां टोकरों पर अथवा कामचलाऊ बेंचों पर बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ ने अपनी कमर पर ऐप्रोन की तरह बोरा बांध रखा था, अन्य पैबंद लगी गंजियां पहने हुए थे, और बाकी लोग बिल्कुल नंगे बदन चिले की जुलाई की ठंड की मार झेल रहे थे। मैं एक छोटी सी मेज के पीछे बैठ गया जो मुझे उन असामान्य श्रोताओं से अलगा रही थी। वे सभी मुझ पर, मेरे देश के लोगों की कोयले की तरह की काली आंखों को गाड़े हुए थे। 
…मैं कैसे ऐसे श्रोताओं से निपटूं ? क्या बात करूं? मेरी जिंदगी की ऐसी कौन सी चीज है, जिसमें उनकी दिलचस्पी होगी? मैं तय नहीं कर पाया, लेकिन वहां से भाग खड़े होने की अपनी इच्छा को छिपाते हुए मैंने उनसे कहा : ‘मैं कुछ दिनों पहले स्पेन में था। वहां काफी लड़ाई और गोलाबारी चल रही है। सुनिये, उसके बारे में मैंने क्या लिखा है।
‘‘खुद मुझे मेरी किताब ‘स्पेन मेरे हृदय में’ कभी कोई सरल किताब नहीं लगी। उसमें स्पष्ट होने की कोशिश है, लेकिन वह दुर्दमनीय और वेदनादायी घटनाओं के तूफान में डूबी हुई है। 
‘‘बहरहाल, मैंने सोचा कि मैं चंद कविताएं सुनाऊंगा, कुछ बातें कहूंगा और अलविदा कहके चल दूंगा। लेकिन वैसा हुआ नहीं। एक के बाद एक कविता को पढ़ते हुए, मौन के गहरे कुएं को सुनते हुए जिसमें मेरे शब्द गिर रहे थे, मेरी कविताओं को इतनी गंभीरता से पकड़ती उन आंखों और गहरी भवों को निहारते हुए मुझे लगा कि मेरी किताब सही निशाने पर लग रही है। अपनी खुद की कविता की ध्वनि से प्रभावित, उस चुंबकीय शक्ति से मुग्ध जो मेरी कविताओं और उन परित्यक्त आत्माओं को बांधे हुए थी, मैं एक के बाद एक कविता पढ़ता चला गया। 
‘‘घंटे भर तक यह पाठ चलता रहा। जब मैं जाने वाला था, उन लोगों में से एक खड़ा हुआ। वह उनमें से एक था जिसकी कमर में बोरा लपेटा हुआ था। उसने कहा, ‘‘मैं आपको हम सबकी ओर से धन्यवाद देना चाहता हूं। मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि आज तक किसी और चीज ने हमें इतना प्रभावित नहीं किया। 
‘‘उसने जब अपनी बात खत्म की, वह अपनी सुबकियां रोक नहीं पाया। और भी कईं रो रहे थे। मैं नम आंखों और खुरदरी हथेलियों के बीच से बाहर सड़क पर आया।’’
नेरुदा टिप्पणी करते हैं – ‘‘ आग और बर्फ की ऐसी परीक्षाओं से गुजरने के बाद भी क्या कोई कवि पहले जैसा ही रह सकता है।’’
कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि कविता की यह जमीन किसी काव्यानुशासन या काव्यशास्त्र से तैयार नहीं हुई थी। इसे तैयार किया था जीवन की ठोस सचाइयों ने, सजीव मनुष्यों की अनुभूतियों ने। कवि को बदलने वाली ‘आग और बर्फ’ की यह परीक्षा भी कोई काव्यशास्त्र का पारायण नहीं हैं। इसीलिये अचरज नहीं होता, आम पाठक और श्रोता को कविता के क्षेत्र के हाशिये पर ढकेल कर कविता को अभिजनों की चीज बनाने के लिये रचे गये ‘कविता के नये प्रतिमान’ वाले काव्यशास्त्र में नामवर जी बार-बार अपने लिये वर्णवादी शुक्ल जी की सेवा लेने से जरा भी परहेज नहीं करते। 
इसमें शक नहीं कि साहित्य कोई प्रयोजनमूलक वस्तु नहीं है। न यह किसी संधि का दस्तावेज है, न संपत्ति का रेकर्ड और न कानूनी कागजात या रेलवे की समय सारिणी। आदमी इसे मुख्यत: अपने आत्मिक जरूरतों के लिये रचता है और बिना किसी बाहरी मजबूरी के पढ़ता भी है। लेकिन किसी भी स्थिति में यह कोई क्रासवर्ड पजल, या सुकोडू भी नहीं है, कोरे मानसिक आरोग्य का साधन। जो अगोचर शक्तियां हमारे भौतिक संसार को घेरे रखती है, उसमें पाठों के ताने-बाने से बुने गये साहित्य के संसार का बड़ा स्थान है। यह हमारे सामूहिक भाषाई संस्कार का एक प्रमुख साधन है। भाषा यदि राजनीतिज्ञों के आदेशों का गुलाम नहीं तो आलोचकों के आदेशों की भी गुलाम नहीं होती। लाख कोशिशें भी डा.रघुवंश के तमाम गढ़े गये पदों को कोरा मजाक का विषय बनने से नहीं रोक पायी हैं। भाषा सबसे अधिक संवेदनशील होती है साहित्य के प्रति और साहित्य निर्मित होता है सजीव मनुष्य के जीवन के चित्रों और बिंबों से। जब जीवन नहीं, कृत्रिम भाषाई प्रयोगों से साहित्य रचा जाता है, उसकी वही दशा होती है, जैसी आज हिंदी के लगभग पूरे अध्यापक-वर्गीय लेखन की है – व्यापक समाज में अप्रासंगिक लेकिन अध्यापकीय मस्तिष्कों के लिये बूझों तो जाने की पहेलियां बुझाने वाला ‘मानसिक आरोग्य’ का साधन। असली हिंदी बनी हुई है टेलिविजन के लोकप्रिय बाजारू सीरियलों की भाषा में। 
बहरहाल, नामवर जी ने हाल में यह खुले आम स्वीकार कर अपने बड़प्पन का परिचय दिया है कि ‘कविता के नये प्रतिमान’ किसी पुरस्कार को लपक लेने के लिये जल्दबाजी में लिखी गयी किताब थी। लेकिन पुरस्कार पाने की हड़बड़ी में ही उन्होंने डा. शर्मा की डाली गयी लीक को कुछ ऐसा गाढ़ा कर दिया कि इस जगत के दूसरे सभी सात्विक सूरमाओं (पवित्र सीताओं) के लिये लक्ष्मण की लकीर बन गयी। 
सचमुच, यदि हम हिंदी आलोचना के इस मायाजगत की, जो कई ईमानदार साहित्य अध्येताओं तक में एक गौरव का भाव पैदा किये हुए हैं, कोई असली कीमत तय करना चाहे, यदि हम हिंदी आलोचना की तुच्छता को, उसकी अभिजनवादी संकीर्णता को और खास तौर पर इसकी सारी उपलब्धियों के बारे में इस जगत के सारे सूरमाओं के भ्रमों और उपलब्धियों के बीच के करुण वैषम्य को स्पष्ट रूप से सामने रखना चाहे तो हमें इस जगत से पूरी तरह मुक्त होकर इसका अवलोकन करना होगा। आज तक, इसके नवीनतम प्रयास ने भी शुक्ल जी का दामन नहीं छोड़ा है। शुक्ल जी के विचारों के आधार-बिंदुओं की जांच-परख करना तो दूर, इसकी कोशिशों का पूरा ढांचा उन्हीं की इतिवृत्तात्मक, छात्रोपयोगी पद्धति पर टिका हुआ है। इस मामले में मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी सभी एक ही गोत्र के दिखाई देते हैं। भले इनमें से हरेक अपने को शुक्ल जी से आगे बढ़ने का दावा क्यों न करें, इनके उत्तरों में ही नहीं, सवालों पर भी वही शुक्लवादी रहस्यवाद आच्छादित है जो ठोस आधुनिक जीवन की चुनौतियों से उन्हें कोसों दूर रखता है। शुक्ल-द्विवेदी द्वंद्व भी उसीका एक विस्तार है। यह शुक्ल जी की पद्धति के ही किसी एक पक्ष को चुन कर उसे उनकी पूरी पद्धति के खिलाफ, और दूसरे लोगों द्वारा चुने गये किसी दूसरे पहलू के खिलाफ लक्षित करके बूंदी के किले की फतह का झंडा बुलंद करते रहते हैं। चारो ओर कोरे अंधविश्वासों और जड़सूत्रों का बोलबाला है। इसमें अन्त में विद्यानिवास मिश्र-अशोक वाजपेयी- रमेश चंद्र शाह कंपनी ने शुक्ल जी को अधिक से अधिक पवित्र बनाने के उपक्रमों के बीच से उसे पूरी तरह से पवित्र घोषित कर देने और इसप्रकार आलोचना को ही सदा के लिये ठिकाने लगा देने का महान काम संपन्न किया है। 
तमाम अवांछित दबावों से मुक्ति के प्रयत्नों के बीच से मार्क्सवादी आलोचना ने पश्चिम में उदीयमान सामाजिक यथार्थ से संगति रखते हुए जनतंत्र और स्वतंत्रता के मूल्यों के आधार पर विकास की नयी दिशा पकड़ी और उपलब्धियों के अनेक नये शिखरों को छुआ है। ग्रीस के वर्तमान वित्तमंत्री, बहुचर्चित अर्थशास्त्री यानिस वैरौफैकिस का हाल के अपने लेख “How I bacame an erratic Marxist” में मार्क्स के आर्थिक विमर्श के केंद्र में समानता और न्याय के बजाय स्वतंत्रता के विचार को रखना मार्क्सवादी वैचारिक विमर्श की इसी प्रक्रिया का अंग है। ऐसा ही है थॉमस पिकेटी का विचार। अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘21वीं सदी में पूंजी’ में वे यह कहने से नहीं चूकते कि मार्क्स ने निजी-पूंजी विहीन विश्व के सभी पक्षों पर सही ढंग से नहीं सोचा था, क्योंकि दुनिया में जो भी निजी पूंजी रहित समाज बने हैं, उन सब जगह राज्य की भूमिका बेहद दमनकारी दिखाई देती है और इसप्रकार, निजी पूंजी और नागरिक की स्वतंत्रता के संबंध के विषय को उन्होंने एक नया आयाम दिया है। 
हिंदी साहित्य जगत सजीव मनुष्य के जीवन से पैदा होने वाली चुनौतियों के बरक्स आलोचना के नये मानदंडों के विकास में ऐसी कोई नई उद्भावना के साथ सामने आने के बजाय अभी तो अध्यापकीय जकड़नों में फंसा हुआ आलोचना का एक ऐसा कब्रिस्तान है जिस पर सिर्फ मृतकों का बोलबाला और भूतों का डेरा है।

नलिन विलोचन शर्मा : शताब्दी स्मरण- अजय आनंद

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नलिन विलोचन शर्मा : शताब्दी स्मरण- अजय आनंद 

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आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का जन्म 18फरवरी 1916 को बदरघाट, पटना सिटी में हुआ । उन्हें विद्वता, धीरता और गंभीरता विरासत में मिली थी । जर्मन विद्वान विंटरनित्स ने जिस भारतीय मनीषी को ‘आधुनिक बृहस्पति’ कहा था, वे उसी दर्शन और संस्कृत के प्रख्यात मनीषी महामहोपाध्याय पं. रामावतार शर्मा के ज्येष्ठ पुत्र थे । उनकी माता का नाम रत्नावती था । बचपन में इन्हें प्यार से ‘बबुआ’बुलाया जाता था । बचपन से ही नलिन जी की शिक्षा-दीक्षा पिता के देख-रेख में हुयी । पिता के निधन के बाद वे पहली बार स्कूल(पटना कॉलेजिएट) में दाखिल हुए, उस समय उनकी उम्र तेरह वर्ष थी । 1931 में यही से उन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की । उच्च शिक्षा पटना विश्वविद्यालय में पूरी हुयी ।1938 में इन्होंने संस्कृत से एम. ए. किया । एम. ए. करने के बाद प्रो. अनंत प्रसाद बनर्जी के निर्देशन में ‘कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दंड-विधान’ विषय पर शोध-कार्य शुरू किया लेकिन यह शोध-कार्य पूरा नहीं हो सका ।
नलिन जी आइ. सी. एस. की परीक्षा में भी शामिल हुए थे, उनका ध्येय अधिकारी बनना नहीं, व्यापक अध्ययन करना भर था । डॉ. नगेन्द्र ने अपने संस्मरण में लिखा है, “आई. सी. एस. के योग्य व्यक्तित्व–संपत्ति उन्हें सहज ही प्राप्त थी । किन्तु, उनके पास कुछ ऐसा भी था, जो आई. सी. एस. के लिए अपेक्षित योग्यता की परिधि में नहीं समा पाता था—पांडित्य का आत्मगौरव और स्वाधीनचेतना कलाकार के मन की मस्ती । थाड़े से ही परिचय के बाद परीक्षा के प्रति उनका उपेक्षा-भाव मुझपर अनायास ही व्यक्त हो गया—परीक्षा केवल व्यापक अध्ययन के लिए व्याज-मात्र थी ।’’
1942 ई. में नलिन जी की नियुक्ति आरा( बिहार) के हरप्रसाद जैन, कॉलेज के संस्कृत विभाग में हुयी । यहाँ अध्यापन- कार्य करते हुए उन्होंने हिन्दी में एम. ए. किया । एक बार फिर उन्होंने ‘रंगमंच तथा नाटक’ विषय पर शोध-कार्य शुरू किया, लेकिन यह शोध-प्रबंध भी पूरा नहीं हुआ । 24 सितंबर 1946 को पटना कॉलेज में इनकी नियुक्ति हिन्दी के अध्यापक के रूप में हुयी । अक्तूबर,1947को इनका ट्रांसफर राँची कॉलेज में हो गया । अप्रैल,1948में पुनः पटना कॉलेज आ गये । 1959 में पटना विश्वविद्यालय के अध्यक्ष नियुक्त हुए और ताउम्र यहीं रहे । 
जून 1941 में नलिन जी ने श्रीमती कुमुद शर्मा के साथ प्रेम विवाह किया, जो नवोदित चित्रकार थीं । कहते हैं वे जितनी रूपवती थीं, उतनी ही सुरुचि-सम्पन्न भी थीं । नलिन जी की विकास में उनकी बड़ी भूमिका है ।नलिन जी उनके लिए ‘गृहिणी-सचिव-सखी’ जैसे सम्बोधन प्रयुक्त करते हैं । नलिन जी के असमय निधन (12सितंबर 1961) के पश्चात इन्हीं की सजगता के कारण उनका अधिकांश साहित्य बच सका । राजीव शर्मा ( कुग्गू) इनके एक मात्र पुत्र थे ।
“नलिनजी हिन्दी की वर्तमान पीढ़ी के सर्वतोमुखी (All-rounder) लेखक थे । विज्ञान और दर्शन के मिलन विंदु के विरल कवि थे, दुर्लभ मनोवैज्ञानिक उपलब्धि के कहानीकार थे,प्रत्येक रचना के भीतर से ही उसके मूल्यांकन का निष्कर्ष निकालने वाले और इस प्रकार अपनी उद्भभावनाओं से रचनात्मक संभावनाओं के विकसित स्तर के उपजीव्य बनाते हुए आलोचना को सर्जनात्मक स्थापत्य देनेवाले समीक्षा-शिल्पी थे, वेश्मनाट्य के व्याख्याता और सर्वतोभावेन गीतिनाट्य के एक मात्र अधिकारी प्रणेता थे, व्यंजक गद्य के निर्माता थे और एक ऐसे सुधी साहित्यिक संपादक थे, जिन्हें विषय से लेकर लतीफे एवं आवरणसज्जा पर कुछ-न-कुछ बिलकुल नया और बहुत महत्त्वपूर्ण कहना था । पर, बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कुशल चित्रकार भी थे ।” नलिन जी के कृतित्व पर उनके सहयोगी केसरी कुमार की टिप्पणी कहीं से अतियुक्ति नहीं है । उन्होंने कुल 45 वर्ष और 6 माह खर्च करके विपुल साहित्य लिखा है । इनके व्यक्तित्व पर पर यदि ध्यान दें तो आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति जो सफ़ल अध्यापक हो, बिहार साहित्य सम्मेलन का प्रधानमंत्री हो, बिहार राष्ट् भाषा परिषद का शोध –निर्देशक हो,‘साहित्य’,‘दृष्टिकोण’ और ‘कविता’ का यशस्वी संपादक भी हो— वह एक साथ इतना काम कैसे करता थे !
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19वीं शती के अंतिम दशक और 20वीं शती के आरंभिक तीन दशकों में काशी नागरी प्रचारणी सभा में जैसा योगदान श्यामसुंदर दास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है, वही योग पाँचवें और छठे दशक में आचार्य शिवपूजन सहाय और आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का है, कहना असंगत नहीं है । हिन्दी में तात्त्विक शोध का आज भी अभाव है, नलिन जी पहले आलोचक हैं, जिन्होंने ‘तात्त्विक शोध’ के प्रति लोगों का ध्यान दिलाया । सिर्फ़ दिलाया ही नहीं, किया भी । सूफी कवि किफायत की रचना, लालचन्द्र–कृत हरिचरित्र गोस्वामी, लोककथा कोश(1959), लोककथा परिचय(1959), प्राचीन हस्तलिखित पोथियों का विवरण, छः खंडों में(1959), सदलमिश्र ग्रंथावली(1960),तुलसीदास(1961), संत परंपरा और साहित्य (1960), अयोध्या प्रसाद खत्री–स्मारक ग्रंथ(1960),‘भारतीय साहित्य परिशीलन तथा अन्वेषण’,‘हिन्दी साहित्य परिशीलन तथा अन्वेषण’—आदि ग्रन्थों का सम्पादन, जो तात्त्विक शोध ही है ।अपने आप में उपलब्धि है । इस कार्य के फलस्वरूप बिहार के कई प्राचीन और गुमनाम साहित्यकार प्रकाश में आये । 
शोध में पाठानुसंधान और भाषा-विज्ञान विशेषकर भाषा की बोलियों के अध्ययन में भी नलिनजी की रुचि थी, बोलियों के भाषा वैज्ञानिक महत्त्व पर वे ‘साहित्य’ के संपादकीय में समय-समय पर लिखा करते थे,उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ पद्मराग नाम से भी लिखीं हैं । इनकी पुस्तक-समीक्षाएँभी आधुनिक दृष्टि से लैश होती थीं । अपनी आधुनिक-दृष्टि और प्रयोगशीलता के कारण ही वे‘मैला आँचल’,‘बाणभट्ट की आत्मकथा’,‘सुनीता’ और ‘घेरे के बाहर’जैसे उपन्यासों के पक्ष में डटे रहे जो कथ्य और शिल्प दोनों में लीक से अलग थे । फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ के ऐतिहासिक उपन्यास मैला आँचल’ पर पहली समीक्षा इन्होंने ही लिखी, जिसके कारण हिन्दी संसार का ध्यान ‘मैला आँचल’ की तरफ गया ।
कविता में ‘प्रपद्यवाद’ के प्रवर्तन का श्रेय इन्हीं को है । ‘प्रपदयवाद’ को ‘नकेनवाद’ भी कहा जाता है । ‘नकेन’ शब्द नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और श्री नरेश के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना है । ‘नकेन के प्रपद्य’(1956) और ‘नकेन-2’ (1982) प्रपद्य के दो संकलन हैं । दोनों संकलनों में नलिन जी कुल39कविताएँ शामिल हैं । अप्रकाशित कविताओं कि संख्या 86 है । इन कविताओं में वैज्ञानिकता और बौद्धिकता की प्रधानता है , जो उस समय बिलकुल नई बात थी । कहानीकार के रूप में भी नलिनजी उपस्थिति महत्त्वपूर्ण है । यौन मनोविज्ञान पर इन्होंने अनूठी कहानियाँ लिखीं हैं ।‘विष के दाँत’ (1951),‘सत्रह असंगृहीत पूर्व छोटी कहानियाँ’(1960)इनके कहानी संग्रह हैं ।
नलिन जी का हिन्दी आलोचना में प्रवेश आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अवसान के बाद होता है । आचार्य शुक्ल की समीक्षा चौथे दशक में पूर्ण होती है और आचार्य नलिन विलोचन शर्मा की शुरुआत इसी दशक से होती है । यह दशक अनेक दृष्टियों से देश और दुनिया में महत्त्वपूर्ण था। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका और स्वतंत्रता आंदोलन का जो स्वस्थ–अस्वस्थ प्रभाव पड़ रहाथा उससे हिन्दी साहित्य भी अछूता नहीं था।मार्क्सवाद,फ्रायडवाद, अस्तित्ववाद, गाँधीवाद और समाजवाद आदि जो देश-दुनिया के ज्ञान और दर्शन की प्रमुख धाराएँ थीं । इसका प्रभाव बुद्धिजीवियों पर पड़ना स्वाभाविक है, नलिन जी पर भी इन विचारों का प्रभाव पड़ा। भारतीय संदर्भ में देखें तो, नेहरू और नलिन—दोनों आधुनिकता के प्रबल प्रवक्ता थे, लेकिन परंपरा के भी उतने ही गहरे जानकार थे। पहले ने भारतीय राजनीति में आधुनिकता का सफ़ल प्रयोग किया, दूसरे ने साहित्य में । नलिन जी ने संस्कृत की शास्त्रीय आलोचना और पश्चिम की आलोचना पद्धति का गहन अध्ययन किया था, लेकिन उन्होंने अनुसरण करने के बजाय अपने लिए नई आलोचनात्मक पद्धति की ख़ोज की है । वे हिन्दी के पहले आधुनिक आलोचक थे । उनमें परंपरा के नाम पर जड़ विचारों का त्याग करने और नए आधुनिक विचारों को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता थी ।इसी कारण साहित्य में हो रहे नए प्रयोगों के साथ खड़े रह पाये ।उनका आलोचनात्मककार्यक्षेत्र का फैला हुआ है । ‘दृष्टिकोण’ (1947),‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ (1960),‘मानदंड’ (1963),‘हिन्दी उपन्यास : विशेषतः प्रेमचंद’ (1968),‘साहित्य: तत्त्व और आलोचना’ (1995) उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें हैं ।हिंदी में इतिहास-दर्शन जैसे गंभीर विषय पर लिखने वाले वे पहले व्यक्ति हैं । सभी तरह के नए-पुराने विषयों और विश्व के श्रेष्ठ साहित्य पर उनकी एक समान पकड़ थी । जिस अधिकार से वे कालिदास पर लिखते थे, उसी अधिकार से अपने समकालीन अज्ञेय आदि पर भी । रूसी कथाकार तुर्गनेव,दास्ताव्स्की, फ्रांसीसी उपन्यासकार आन्द्रे जींद, इंग्लैंड के गल्पकार आर्थर कोयस्लर और टी.एस. एलियट जैसे बड़े रचनाकारों पर लिखने वालों में भी संभवतः वे हिन्दी के पहले आलोचक हैं । यहाँ हमारा उद्देश्य उनके उपलब्धियों की सूची पेश करना नहीं है, बल्कि जन्मशताब्दी वर्ष में उनकी याद दिलाना है ताकि उनकी कृतियों का पुनर्पाठ किया जा सके, उनके योगदानों पर विचार-विमर्श हो सके।

हिंदी के प्रवासी साहित्य की परम्परा: स्वर्णलता ठन्ना

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49204 L Indian Diaspora abroad

हिंदी के प्रवासी साहित्य की परम्परा 

स्वर्णलता ठन्ना 
शोध -अध्येता (हिंदी) 
हिन्दी अध्ययनशाला 
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन। 
पता- 84, गुलमोहर कॉलोनी, रतलाम 
ई-मेल- swrnlata@yahoo.in 
साहित्य के विशाल वटवृक्ष की अनेक समृद्ध और सशक्त शाखाओं में से एक शाखा प्रवासी साहित्य की भी है। जो दिन-प्रतिदिन अपनी रचनाधर्मिता से हिंदी के साहित्य को सघन बनाने के साथ-साथ पाठक वर्ग को प्रवास की संस्कृति, संस्कार एवं उस भूभाग से जुड़े लोगों की स्थिति से अवगत कराने का कार्य कर रही है। ‘प्रवासी हिंदी साहित्य’ हिंदी साहित्य में जुड़ती एक नवीन विधा एवं चेतना है जो प्रवासियों के मनोविज्ञान से जुड़ी है, जो न केवल एक नई विचारधारा है बल्कि एक नई अंतर्दृष्टि भी है, जिसे अपनी जगह बनाने में पर्याप्त समय लगा है। 
प्रवासी साहित्य की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है, किंतु फिर भी प्रवासी साहित्य अपनी संवेदनात्मक रचनाधर्मिता से साहित्य के क्षेत्र में गहरी जड़े जमा चुका है। भारत से दूर अन्य देशों में बसे भारतीयों के अथक प्रयासों से ही आज प्रवासी साहित्य समृद्ध और सशक्त बन पाया है। 
प्रवास शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है जोशौक या मजबूरी वश दूर देशों में बसा दिए गये थे या वे स्वयं रोजगार की तलाश में अन्य देशों की यात्रा पर निकल गए और वहीं बस गए। इन लोगों ने अपने परिश्रम से वहाँ की आबादी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं को सक्षम बनाया। इस सक्षमता से पहले प्रवासियों को अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। क्योंकि ये लोग गुलाम के रूप में वहाँ ले जाये गये थे, इसलिए इन्हें आर्थिक संकटों के साथ-साथ अपनी धरती, अपने घर-परिवार से दूरी, शा रीरिक और मानसिक गुलामी और लोगों का बेगानापन झेलना पड़ा। उन्हीं में से कुछ लोगों ने अपनी व्यथा-कथा को कलमबद्ध कर प्रवासी साहित्य की नींव रखने का कार्य किया। 
कुछ वर्षो बाद प्रवासियों का साहित्य के क्षेत्र में दखल बढ़ गया। अगले पड़ाव के साहित्यकार और प्रवासी वे लोग थे जो स्वेच्छा से प्रवास कर रहे थे। जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी और जो बंधुआ मजदूर के संताप और प्रलाप को छोड़ मानसिक रूप से स्वयं को स्थापित करने की मनोदशा बना चुके थे। पहले गए प्रवासियों से इनकी सोच, कार्य और व्यवहार भिन्न थे। इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए एवं उसे सुरक्षित रखने के लिए रचनाकर्म का सहारा लिया। वहाँ की परिस्थितियों को देखकर, मानसिक स्तर पर चेतन और सजग इन लोगों ने अपने संताप को अपनी साहित्यिक रचनाओं में अभिव्यक्त किया। इनमें से बहुत से लोग भारत में रहते हुए अपनी साहित्यिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध थे, और जो केवल स्वान्तः-सुखाय लिखते थे, वे प्रवास की समस्याओं और संवेदनाओं से सहज ही जुड़ गये और अपनी रचनाओं द्वारा प्रवासी साहित्य के पुरोधा बनकर उभरे। 
संपूर्ण विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ से लोग भारी संख्या में दूसरे देशों के लिए पलायन करते है । यह प्रक्रिया लगभग चार सौ वर्ष पुरानी है। आज भूमंडल के विभिन्न देशों में भारतवासी बसे हैं । विदेश जाना और वहाँ बसना अब कोई जटिल समस्या नहीं है, लेकिन वहाँ रहकर लेखन कार्य करना प्रवासियों को अलग ही विशिष्टता प्रदान करता है। 
साहित्य उसी भाषा लिखा जाता है जिस भाषा के संस्कार व्यक्ति को बचपन से मिलतेहै । साहित्य की अभिव्यक्ति यदि विदेशी भाषा में की जाए तो ऐसा साहित्य संवेदनशील नहीं होगा। इसलिए विदेशो में बैठे हिंदी साहित्यकारों ने अपने लेखन का माध्यम हिंदी चुना, क्योंकि इसके माध्यम से वह अपने पीछे छूट चुके देश के आंतरिक संबंध को बनाए रखना चाहतेहै । प्रवासी लेखक प्रवास के दुख-दर्द की संवेदनाओं के साथ अपने देश के संस्कारों को जोड़कर उनमें व्याप्त विषमताओं को कागज पर उतार देता है और यही संवेदनाएँ सहज ही सबसे जुड़ सबकी संवेदनाएँ बन जाती है। 
अपनी इन्हीं संवेदनाओं को सहेजने के प्रयास को प्रवासी साहित्यकारों ने जारी रखा और साहित्य की इस परम्परा को आगे बढ़ाने में अपना सहयोग दिया। उसी का प्रतिफल आज हमारे सामने हैं कि हम प्रवासियों की जिंदगी से सहज ही जुड़ कर उनके प्रवास के अनुभवों को साझा कर रहे हैं। प्रवासी साहित्यकार अपने लेखन के माध्यम से जो अनुभव और भावनाएँ अपने घर, अपने देश तक पहुँचाते हैं, वह अपने लोगों के लिए खुली खिड़की का कार्य करती है, जहाँ से वे दूसरे देश को सामाजिक, भौतिक और यथार्थ की संस्कृति को एक साथ बखूबी देख सकते हैं। प्रवासी लेखक अपने लेखन के माध्यम से देश और विदेश की संस्कृति में समन्वय का जो कार्य कर रहे हैं वह सराहनीय है। वे सभी लेखक अपने पाठक वर्ग को नवीन संस्कृति और साहित्य की उपयोगिता से अवगत कराने का कार्य कर रहे हैं। वर्तमान के प्रवासी लेखकों से ये अपेक्षाएँ की जा रही है कि वह समन्वय की रीति से कार्य करें और देश दुनिया के समस्त संकटों से उबर कर साहित्य में समन्वयात्मक दृष्टिकोण स्थापित करें। 
‘‘वह लेखक संस्कृतियों को निकट लाकर समन्वयवादी प्रवृतियों को प्रोत्साहन दे सकता है। आर्थिक जगत में वैश्वीकरण की धारणा जिस प्रकार फलीभूत हो रही है औरविश्व गाँव का स्वप्न देखा जा रहा है तथा सूचना क्रांति इस स्वप्न को साकार करती दिखाई पड़ रही है, उसी प्रकार से साहित्य जगत में भी विश्व में इस प्रकार का नैकट्य लाया जा सकता है। समन्वय सदा से साहित्य का सर्वोत्कृष्ट गुण रहा है। आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व भक्ति काल के शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने वर्ग-वर्ग में बंटे समाज, सम्प्रदायों और विचारधाराओं का समन्वय करने का युग परिवर्तनकारी कार्य किया था। अपनी इस विशिष्टता के कारण ही ‘रामचरितमानस’ एक सार्वकालिक और सार्वजनिक ग्रंथ बन गया है। आधुनिक युग में महान घुमक्कड़ और विराट व्यक्तित्व के धनी साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने देश -विदेश के अगम्य क्षेत्रों का न केवल अन्वेषण किया अपितु गंगा और वोल्गा नदियों पर अपनी दार्शनिक दृष्टि से समन्वयकारी विचारधारा को संतुष्ट किया है। आज प्रवासी हिंदी साहित्य से जुड़ी सबसे बड़ी अपेक्षा समन्वय की है।‘ 1 
वर्तमान में रचे जा रहे साहित्य में प्रवासी लेखक अपने देष के साथ-साथ संपूर्ण विश्व से अपने जुड़ाव को अभिव्यक्त कर रहे हैं। भारतीय प्रवासी लेखक भावनात्मक रूप से भारत से जुड़े हुए हैं, यही कारण है कि उनके साहित्य में प्रवासी भूमि के साथ-ही अपने देश के प्रति प्रेम की भावना भी देखने को मिलती है। वस्तुतः देखा जाए तो आज के प्रवासी साहित्य की संपूर्ण दृष्टि भारत के रंग में रंगी हुई है। साथ ही इनके साहित्य में आधुनिक दौड़ और मानसिक द्वंद्व का यथार्थ रूप देखने को मिलता है। यही विभेदक दृष्टि प्रवासियों के साहित्य को नवीनता प्रदान करती है। 
भारतीय हिंदी साहित्य की प्राचीनतम परम्परा में रचनाकर्म स्वयं की मुक्ति एवं दर्शन के साथ-साथ आत्माभिव्यक्ति का माध्यम है, किंतु प्रवासी साहित्य किसी विशेष दर्शन , चिन्तन या सिद्धांत से जुड़ा हुआ नहीं है। यह साहित्य केवल भोगे गए मानसिक संताप और प्रवासी मनुष्य के दुख को चित्रित करता है। चाहे इसमें उपलब्ध साहित्य परिवर्तित परिस्थितियों के अधीन मानव जीवन के गतिशील और क्रियात्मक रूप का रूपांतरण ही है। 
आज साहित्य सृजन सृजनशील प्रवासियों के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। जिन प्रवासी साहित्यकारों ने लिखित अभिव्यक्ति द्वारा अपने भावों को व्यक्त किया वे अधिकतर इंग्लैड, कनाडा और माॅरिशस के प्रवासी थे। इनके अतिरिक्त अमेरिका, थाइलैंड, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, कीनिया, डेनमार्क, नीदरलैंड आदि देशों में रह रहे भारतीयों ने भी प्रवासी चेतना को अभिव्यक्त किया है। आर्थिक और सामाजिक सुख स्त्रोतों से भरपूर मानसिक संताप झेल रहे इन प्रवासी लेखकों ने लेखन के माध्यम से अपने मूल से जुड़ने का प्रयत्न किया है। 
प्रवासी साहित्यकार चाहे विदेश में बसे हो किंतु उनका मन, आत्मा देश की माटी में निवास करती है। भारतीय प्रवासी आत्मिक स्तर पर स्वयं को अपने देश से अलग नहीं कर पाया, यही कारण है कि इन साहित्यकारों की रचनाओं में परदेस जाने से पहले की स्थिति और परदेस आने के बाद विदेश की स्मृति को अपनी रचनाओं में चित्रित किया है। इस प्रकार का साहित्य, साहित्य के मानदण्डों के अनुरूप नहीं होता। इसमें केवल भावनाओं और वर्षो पूर्व की स्थिति को वर्तमान में अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इनके साथ हमेशा जन्मभूमि और कर्मभूमि के बीच होने का द्वंद्व चलता रहता है। 
विगत समय के प्रवासी समाज की तुलना में वर्तमान का प्रवासी समाज एक अजीब सी कशमकश में जी रहा है। प्रवास में बसे भारतीयों की नवीन पीढ़ी को आधुनिक समय की परिवर्तित परिस्थियों का सामना करना पड़ रहा है। इनकी प्रमुख समस्या के रूप में जो चीज उभर कर आई है वह भाषा है। इनकी प्रथम भाषा अंग्रेजी है। निसंदेह हिंदी भाषा को इस संकट का सामना करना ही था। वर्तमान प्रवासी पीढ़ी के इस सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक तनाव से उत्पन्न इस खोखलेपन की अभिव्यक्ति भी प्रवासी साहित्य सृजन का आधार बन रही है। 
प्रवासियों के अनेक विरोधाभासों तथा विसंगतिपूर्ण जीवन के बारे में कई दशकों तक ब्रिटेन में रहने वाली लेखिका उषाराजे सक्सेना ने ठीक ही लिखा है कि कभी व्यक्ति खुद को थाली का बैंगन समझता है तो कभी धोबी का कुत्ता , न घर का न घाट का। नये परिवेश में अमित सुखों के बीच रहते हुए भी वह पलट-पलटकर पीछे की ओर देखता है, जहाँ से वह आया है। 
प्रवासियों द्वारा निर्मित अपनी सर्जनात्मकता साहित्य का छोटा-सा किंतु विश्व के चारों और फैल हुआ आकाश निर्मित किया है। हिंदी की एक छोटी सी दुनिया बनाई है, जिसकी आत्मा हिंदी की और भारतीयता की है। शर्तबंदी के तहत फिजी, मॉरिशस आदि देशों में बसे प्रवासियों की रचनाओं में अतीत की व्यथा, वर्तमान का तनाव और भविष्य की चिन्ता को प्रमुखता से उभारा है। किंतु नार्वे, अमेरिका, इंग्लैंड, नीदरलैंड आदि देशों के भारतवंशी हिंदी लेखकों की चिंताएँ व चुनौतियाँ इनसे कुछ भिन्न है। 
ये हिंदी लेखक प्रायः वे है जो धनार्जन व शिक्षा के लिए इन देशों में गए थे। वे अमेरिका में रहते हुए न तो अमेरिकी संस्कृति के अंग बन पाए न शुद्ध रूप से भारतीय ही रह पाए। इन भारतवंशी परिवारों की नई पीढ़ी तो भारतीय होने की अपेक्षा अमेरिकी बनने के लिए लालायित हो गई, जिससे इन भारतवंशी परिवारों की पुरानी पीढ़ियों में अपनी जड़ों को लौटने की आकांक्षा उत्पन्न हुई। अमेरिकी और यूरोप के हिंदी साहित्य की यह विशेषता है कि वह अपनी जड़ों की, अपनी अस्मिता की तथा अपनी भारतीय पहचान को अभिव्यक्त करता है। 
इन देशों में भारतवंशी लेखक अंग्रेजी में भी लिख रहे हैं तथा कुछ को तो विश्व में ख्याति और धन भी मिला है, परंतु ये भारतवंशी अंग्रेजी लेखक स्वयं को ‘भारत में पैदा हुए अमेरिकी लेखक’ मानते हैं और कैथरिन मेयो की ‘मदर इंडिया’ पुस्तक की तरह भारत का कलिमापूर्ण चित्र ही प्रस्तुत करते हैं। अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों के भारतवंशी हिंदी लेखक स्वयं को भारतीय लेखक मानते हैं और अपनी हिंदी रचनाओं में देशी पहचान और भारतीय संस्कृति को मजबूत आधार देते हैं। 2 
प्रवासी साहित्य की रचना के कारण चाहे जो भी रहे हो, उनमें चित्रित परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी रही हो, किंतु आज का सत्य यह है कि प्रवासी साहित्य, भारतीय हिंदी साहित्य का अभिन्न अंग बन गया है। प्रवास की समस्याओं और संघर्षो की वास्तविकताओं से भरा यह साहित्य हमें मानव के जुझारू होने सीख देने के साथ ही सदैव प्रयत्नषील होने की सीख भी देता है। 
‘हिंदी के प्रवासी साहित्य ने अपना एक संसार रचा, जो चाहे छोटा ही था, परंतु उसने एक अलग साहित्य-संसार की रचना की जो पूरे विश्व में निरन्तर फैलता गया और हिंदी के प्रवासी साहित्य का एक बिम्ब निर्मित हुआ। अब वह मॉरिशस तक सीमित न था, उसकापरिदृश्य वैश्विक बन गया। उसकी संरचना में कई शक्तियां काम करती रहीं – विश्व के कई देशों में विश्व हिंदी सम्मेलन हुए, भारत के हिंदी लेखकों एवं प्रवासी के हिंदी लेखकों का भारत में सम्मान होने लगा, देश की साहित्य अकादमियों ने प्रवासी हिंदी साहित्य पर गोष्ठियाँ कीं, ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ तथा ‘डास्पोरा’ आरम्भ किया गया, प्रवासी लेखकों की कृतियाँ भारत में छपती रहीं और उन पर चर्चाएँ हुईं और हिंदी विश्व में प्रवासी हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा तथा उसे हिंदी की मुख्यधारा में उचित स्थान देने की माँगें उठने लगीं और हिंदी साहित्य ने इस ओर प्रयत्न षुरू किये। 3 
आज स्थिति यह है कि माॅरिशस, अमेरिका एवं इंग्लैड तीन ऐसे प्रमुख देश है जहाँ प्रवासी भारतीयों की संख्या सर्वाधिक है और सम्भवतः इस कारण इन देशों में हिंदी लेखकों की संख्या भी सबसे अधिक है। इन प्रवासी लेखकों में अनेक ऐसे लेखक हैं जिनकी भारतीय ही नहीं वैश्विक हिंदी मंच पर प्रतिष्ठा है और जिनके पाठकों की संख्या किसी भी लोकप्रिय हिंदी लेखक से कम नहीं हैं। 
प्रवासी साहित्य लेखन की यह परम्परा दीर्घकाल तक यथावत बनी रहें। ताकि आने वाले समय की नई भारतीय पीढ़ी को प्रवास से संदर्भित सारी जानकारी सहज ही मिलती रहें। प्रवासी लेखक, अपने लेखन की परम्परा को इसी प्रकार निभाते रहे, और भारतवंशी होने के गर्व को सदा अपनी लेखनी से उद्भासित करते रहे, तभी अपने प्रवासी साहित्यकार के रूप को सहज परिभाषित कर सकेंगे। 
संदर्भ – 
1. वर्तमान साहित्य, कुंवर पाल सिंह, नमिता सिंह (संपादक), प्रवासी हिंदी लेखन तथा भारतीय हिंदी 
लेखन, उषा राजे सक्सेना (जनवरी, फरवरी 2006), पृ-62
2. डॉ. कमल किशोर गोयनका, हिंदी का प्रवासी साहित्य, प्रथम संस्करण 2011, अमित प्रकाशन, 
गाजियाबाद, पृष्ठ, 47
3. वही, पृष्ठ, 50

[जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के दिसंबर 2016 में प्रकाशित लेख]

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न्यूज़ीलैंड की हिंदी पत्रकारिता- रोहित कुमार ‘हैप्पी’

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न्यूज़ीलैंड की हिंदी पत्रकारिता

रोहित कुमार ‘हैप्पी’
संपादक, भारत-दर्शन, न्यूज़ीलैंड

न्यूज़ीलैंड की लगभग 46 लाख की जनसंख्या में फीजी भारतीयों सहित भारतीयों की कुल संख्या डेढ लाख से अधिक है। 2013 की जनगणना के अनुसार हिंदी न्यूज़ीलैंड में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषाओं में चौथे नम्बर पर है। 
यूँ तो न्यूजीलैंड में अनेक पत्र-पत्रिकाएँ समय-समय पर प्रकाशित होती रही हैं सबसे पहला प्रकाशित पत्र था ‘आर्योदय’ जिसके संपादक थे श्री जे के नातली, उप संपादक थे श्री पी वी पटेल व प्रकाशक थे श्री रणछोड़ क़े पटेल। भारतीयों का यह पहला पत्र 1921 में प्रकाशित हुआ था परन्तु यह जल्दी ही बंद हो गया।
एक बार फिर 1935 में ‘उदय’ नामक पत्रिका श्री प्रभु पटेल के संपादन में आरम्भ हुई जिसका सह-संपादन किया था कुशल मधु ने। पहले पत्र की भांति इस पत्रिका को भी भारतीय समाज का अधिक सहयोग नहीं मिला और पत्रिका को बंद कर देना पड़ा।
उपरोक्त दो प्रकाशनों के पश्चात लम्बे अंतराल तक किसी पत्र-पत्रिका का प्रकाशन नहीं हुआ। 90 के दशक में पुनः संदेश नामक पत्र प्रकाशित हुआ व कुछ अंकों के प्रकाशन के बाद बंद हो गया। इसके बाद द इंडियन टाइम्स, इंडियन पोस्ट, पेस्फिक स्टार, ईस्टएंडर और द फीजी-इंडिया एक्सप्रैस का प्रकाशन हुआ किन्तु एक के बाद एक बंद हो गए।
90 के दशक में आई इन पत्र-पत्रिकाओं में से अधिकतर बंद हो गई। न्यूजीलैंड की भारतीय पत्रकारिता में हिन्दी का अध्याय 1996 में ‘भारत-दर्शन’ पत्रिका के प्रकाशन से आरम्भ हुआ। 1921 से 90 के दशक का न्यूजीलैंड भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का गहन अध्ययन करने के पश्चात पुनः एक हिन्दी लेखक व पत्रकार ने ‘भारत-दर्शन’ पत्रिका के प्रकाशन व संपादन का बीड़ा उठाया। न्यूजीलैंड भारतीय पत्रकारिता में हिन्दी प्रकाशन का अध्याय यद्यपि ‘द इंडियन टाइम्स’ में 1992 में हस्तलिखित हिन्दी रिर्पोटों के प्रकाशन से आरम्भ होता है तथापि वास्तविक हिन्दी प्रकाशन का श्रेय ‘भारत-दर्शन’ पत्रिका को जाता है चूंकि यही पत्रिका पूर्ण रूप से न्यूजीलैंड का पहला हिन्दी प्रकाशन है।
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1996 में प्रकाशित भारत-दर्शन का पहला अँक
हिन्दी भाषा का प्रेम व भारतीय समाज की आवश्यकताओं हेतु यह नन्हीं सी यह पत्रिका निरंतर प्रयासरत रहती है। बिना किसी सरकारी या गैर-सरकारी आर्थिक सहायता के पत्रिका का प्रकाशन यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है लेकिन हिन्दी प्रेमियों का स्नेह हर दिन नई उर्जा उत्पन्न करता रहा है।
1996-97 में ‘भारत-दर्शन’ का इंटरनेट संस्करण उपलब्ध करवाया गया, इसके साथ ही पत्रिका को ‘इंटरनेट पर विश्व की पहली हिन्दी साहित्यिक पत्रिका’ होने का गौरव प्राप्त हुआ और विश्वभर में फैले भारतीयों ने ‘भारत-दर्शन’ की हिन्दी सेवा की सराहना की। 1997 में पहली बार सभी भारतीयों को ‘भारतीय स्वतंत्रता दिवस के स्वर्ण जयंती समारोह’ में इसी पत्रिका ने एक मंच प्रदान किया।
‘इंटरनेट पर आधारित हिन्दी-टीचर’ विकसित करके भारत-दर्शन ने हिन्दी जगत में एक नया अध्याय जोड़ा। हमारे लिए बडे़ गर्व कि बात है कि आज भारत-दर्शन विश्व के अग्रणी हिन्दी अन्तरजालों ( इंटरनेट साइट ) में से एक है।
पहली बार न्यूजीलैंड में ‘दीवाली मेले’ का आयोजन 1998 में महात्मा गांधी सेंटर में ‘भारत-दर्शन’ व एक गैर-भारतीय न्यूजीलैंडर के सह-आयोजन से आरम्भ हुआ जो बाद में इतना प्रसिद्व हुआ कि ऑकलैंड सिटी कौंसिल ने इसके प्रबंधन की जिम्मेवारी स्वयं उठा ली। ‘भारत-दर्शन’ के इस मेले के आयोजन का ध्येय हिन्दी व अन्य भाषाओं का प्रचार करना भी था।
हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने में कुछ अन्य संस्थाओं में हिन्दी रेडियो तराना, अपना एफ एम, प्लैनेट एफ एम ( पूर्व में एक्सेस कम्युनिटी रेडियो ) और ट्रायंगल टी वी का योगदान भी सराहनीय रहा है।
विश्व हिन्दी मानचित्र पर न्यूजीलैंड का नाम ‘भारत-दर्शन’ ने अंकित किया है। भारत-दर्शन इस समय हिंदी की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली ऑनलाइन पत्रिका है।

बाजारवाद के दौर में हिंदी पत्रकारिता: एक मूल्यांकन: शैलेन्द्र कुमार शुक्ल

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यह भूमंडलीकरण का दौर है जहां बाजारवाद अपनी चरम अवस्था में परचम लहरा रहा है। मानवीय मूल्यों का व्याकरण बराबर बदल रहा है। इस बदलने की गति में जब जीवन के उद्येश्य भी बदले हैं तो उथल-पुथल तो स्वाभाविक है, इसका फायदा लगातार बाजारवाद उठा रहा है। बाजार और बाजारवाद में घनीभूत अंतर है। बाजारवाद एक वृति है जो जीवन को मूल्यों से अलग करने का काम करती है। जहां भ्रांति ही एक पराकाष्ठा बन गई हो वहाँ निश्चित तौर पर विकल्पों की भीड़ दिखाई देगी। यह भीड़ सम्पूर्ण जीवन के पारंपरिक वितान को भाड़ में झोकने के लिए व्यापक भूमिका का निर्वहन करती है। ऐसे में मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए व्यक्ति की सामाजिक लोकवादी चेतना को जागृत करना बहुत जरूरी काम है। यह काम पत्रकारिता अपने युगानुरूप करती आई है। पत्रकारिता को जिस पक्षधरता की जमीनी ताकत मिलती है उसी के साथ खिलवाड़ करना कहाँ तक जायज है यह सोचने का विषय है। 
भारतीय पत्रकारीय मूल्य अपनी आधुनिकता के अतीत में अधिक मूल्यवान थे। स्वतन्त्रता आंदोलन का इतिहास इसकी गवाही के लिए काफी है। आज पत्रकारिता अपनी ईमानदारी से दूर एक ठगी हुई समझदारी बन कर रह गई है। यह पत्रकारिता के पुरोधाओं को सोचना चाहिए था लेकिन बौद्धिकता की नीलामी जब पत्रकारिता की आवश्यकता बन गई हो तब यह सोचना कम खतरनाक नहीं है। इस तरह आज के समय में पत्रकारिता को बाजारवाद की जड़ों में परखना बहुत जरूरी काम है। इसका मूल्यांकन होना चाहिए। 
पत्रकारीय मूल्य समाजपरक होने चाहिए। यह बात आज याद दिलाई जा सकती है। जब पूंजीवादी दौर में भूमंडलीकरण की चपेट से चरमराई हुई दुनिया हमारे सामने हो तब ऐसी बात कही जा सकती है। यह बात उस समय सोची भी नहीं जा सकती थी जब पत्रकारिता अपने आधुनिकीकरण के दौर से गुजर रही थी। आधुनिकता एक बड़ा जीवन मूल्य है। समय में जीवन्तता का विराट स्वर आधुनिकता की गहनता से आता है। यह गहनता प्रगति के पथ पर नैसर्गिक चेतना से आती है। पत्रकारिता भारतीय परिदृश्य में एक अदम्य जीवटता के साथ उभरी थी। इसके प्रश्न मनुष्यता के हित मे स्वतन्त्रता की लड़ाई में सामील थे। यहाँ स्वतन्त्रता से आशय सिर्फ आजादी की लड़ाई से नहीं, उस लड़ाई से भी था जो मनुष्यता को रूढ़ियों की जटिल संरचना से मुक्ति दिलाये। यह लड़ाई सिर्फ देश हित की नहीं मानवीय मूल्यों की पक्षधरता की भी थी। अपने शुरुआती दौर में जनमाध्यमों के अभाव में भी भारतीय पत्रकारिता ने वह सब किया जिसे आज याद किया जा सकता है। तब मीडिया निजीकरण का शिकार नहीं थी, विद्वानों की निजता समाजिकता की आकांक्षी हुआ करती थी। 
आर्थिक अभाव के युग में मूल्यों की वैज्ञानिकता का एक इतिहास भारतीय पत्रकारिता ने रचा। पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों के माली हालात पाठकों से छिपे नहीं हैं। लेकिन उनमे मानवीय जिजीविषा का अकूत उत्साह भरा था, जो पत्रकारिता को नवजीवन देता था। स्वतन्त्रता आंदोलन के दौर में राजसत्ता के समर्थन से निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति तो आर्थिक रूप से संवृद्ध थी लेकिन स्वतंत्र पत्रकारिता के जुनूनी पत्रकारों की आए दिन आर्थिक और राजनीतिक संकट की मार उन्हें घायल करती रहती थी। यह उस समय का दौर था जब पत्रकारों को पुरस्कारों के रूप मे सजाएँ मिला करती थीं, पत्र-पत्रिकाओं पर जुर्माना ठोके जाते थे, बुद्धिजीवियों पर वारंट कटे जाते थे, रचनाएँ जप्त कर ली जाती थी। यह वह दौर था जब पत्रकारिता चंदे से चलती थी। 
पत्रकारिता के इस राष्ट्रीय आंदोलन का गढ़ कलकत्ता था। यहाँ से अंग्रेजी और बंगला के ही नहीं हिंदी के अखबारों का भी चलन शुरू होता है। इन अखबारों में भारतीय पत्रकारिता के मूल्यों का विकास दिखाई देता है। उस समय जो स्थिति थी उसी का प्रस्फुटन ही भारतीय पत्रकारिता के रूप में प्रकट हुआ। विजय दत्त श्रीधर ‘पत्रकारिता-कोश’ में इसका जिक्र कुछ इस प्रकार करते हैं-“ईस्ट इंडिया कंपनी जिसका मूल उद्देश्य व्यापार-वाणिज्य था, अंततः पोर्टगीज, डच, और फ्रेंच प्रतिस्पर्धियों के संघर्ष में विजेता बन कर उभरी और प्लासी के युद्ध में विजय के बाद उसने भारत में अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया। बादशाह शाह आलम से सान 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उढ़ीसा की दीवानी मंजूर होने के बाद वैधानिक स्वरूप भी प्राप्त हो गया। सान 1835 में ईस्ट इंडिया कंपनी की वाणिज्यिक गतिविधियां एक किनारे हो गईं और वह सत्ता केंद्र के रूप में स्थापित हो गई। भारत में पत्रकारिता का प्रादुर्भाव इसी पृष्ठभूमि में हुआ। प्रारम्भिक समाचार पत्रों का प्रकाशन ईस्ट इंडिया के असंतुष्ट कर्मचारियों द्वारा किया गया। समाचार पत्रों के प्रकाशन की ओर वे इसलिए प्रवृत्त हुये क्योंकि वे अपनी घुटन को अभिव्यक्ति देना चाहते थे।”1
इस तरह हम देखते हैं कि पत्रकारिता के शुरुआती दिन भारत में एक जंतांत्रिक बन कर उभरे थे। यहाँ यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सत्ता से असंतुष्ट वर्ग की एक मजबूत आवाज बन कर पत्रकारिता का विकास भारत में हुआ। इस रास्ते के कई खतरे थे लेकिन पत्रकारिता अपने मूल्यों के साथ उभरी। पहले अंग्रेजी में पत्र निकले फिर बंगला में और हिंदी में तथा अन्य भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता कि भरपूर आवाज सुनाई पड़ने लगी। इस पत्रकारिता के साथ जनता की सत्ता के प्रति असंतुष्टता बराबर रंग लाती रही। और या अपनी जमीनी ताकत के साथ उभरी। हिंदी का प्रथम पत्र ‘उदन्त मर्तण्ड’ कलकत्ता से 1826 में पंडित युगल किशोर शुक्ल के सम्पादन में निकला। यह पत्र क्यों निकला इसका जिक्र पत्र के पहले अंक में किया गया है- “यह ‘उदन्त मर्तण्ड’ अब पहिले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेतु जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंगरेजी ओ फारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियों के जान्ने और पढ़ने वालों को ही होता है……देश के सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ ओ समझ लेंय ओपराई अपेक्षा जो अपने भावों के उपज न छोड़े, इसलिए बड़े दयावान करुणा ओ गुणिन के निधान सबके कल्याण के विषय श्रीमान गवर्नर जेनरल बहादुर की आयस से ऐसे चाहत में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट-ठाना…”2 इस तरह हिंदी का पहला पत्र अपने हितों को ध्यान में रखते हुये निकला।
हिंदी पत्रकारिता दिन प्रतिदिन अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करती हुई प्रगति के पाठ पर अग्रसर हुई। सम्पूर्ण भारत से पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन का एक सिलसिला चल पड़ा। सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं का इतिहास आज हमारे सामने है। इन पत्र-पत्रिकाओं में भारतीय पत्रकारिता के मूल्य निहित है। आजादी कि लड़ाई में इंका अभूतपूर्व योगदान है। इस दौर के संपादक और लेखक सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक स्थितियों से जनता को रूबरू करा रहे थे, धार्मिक रूढ़ियों से समाज को मुक्त करने की पक्षधरता इस दौर की बड़ी उपलब्धि है। प्रताप नारायण मिश्र के सम्पादन में निकालने वाले पत्र ‘ब्राह्मण’ में छपी एक टिप्पणी देख कर इसे समझा जा सकता है- “सरस्वती तो हमारे पेट में बसती है…जो सबका सर्वस्व हमारे पेट में ठांस-ठांस कर न भरे वही नास्तिक। जो हमारी बेसुरी तान पर वाह ! वाह ! न किए जाए वह कृश्तान और हमसे जो चूँ भी न करे वह दयानंदी।”3 इस तरह की बेबाक प्रतिक्रिया के मूल्यों के साथ हिंदी पत्रकारिता का विकास हुआ था। यह पत्र आर्थिक संकट से गुजरने के बावजूद अपनी सम्पूर्ण तत्परता से समाजिकता के पथ पर मनुष्यता के हित और अधिकारों कि लड़ाई लड़ता रहा। वर्तमान सत्ता के लगातार टकराता रहा, यह इसकी जीवटता का प्रतीक है। 
भारतीय पत्रकारिता के जीवन मूल्य क्या थे इसका एक और उदाहरण बलकृष्ण भट्ट के सम्पादन में निकलने वाले पत्र ‘हिंदी प्रदीप’ में भी देखा जा सकता है। यह पत्र भारतीयता की अटल आकांक्षाओं के लिए लड़ता हुआ जुर्माने की मार से बंद हुआ। “हिंदी प्रदीप हिंदी का एक ऐसा पत्र है जिसे एक राष्ट्रीय कविता छपने के कारण तीन हजार रुपये कि जमानत न दे पाने पर पत्र का प्रकाशन बंद कर देना पड़ा।”4 यह 31 वर्ष तक लगातार निकलता रहा।
इस तरह हम देखते हैं कि भारतीय पत्रकारिता अपने जीवंत मूल्यों में एक बड़ा वितान रचती है। आधुनिकता का यह अतीत अपना गौरवशाली इतिहास लिए हुये है। स्वतन्त्रता के बाद भारतीयता के जीवनमूल्यों में एक परिवर्तनकारी दौर की शुरुआत होती है। यह आजादी के मोहभंग के रूप में पहले कमजोर हुआ फिर जैसे जैसे देश पूंजीवादी ढांचे में अपने को तब्दील करता गया ,संचार मीडिया उनके हाथ की कठपुतली बनता चला गया। 
जिस तरह साम्राज्यवाद के गर्भ से पूंजीवाद का उदय हुआ उसी तरह पूंजीवाद से भूमंडलीकरण का रास्ता खुला। दरअसल भूमंडलीकरण वैश्वीकरण की एक चाल है। यह जो पूरी दुनिया को एक गाँव में तब्दील कर देनी की एक परिभाषा भूमंडलीकरण के पुरोधाओं ने गढ़ी है, यह पूंजीवादी स्वप्न को साकार करने की एक ओछी मानसिकता है। यह विविधता के प्राकट्य भाव को प्रकृतिक मूल्यों से अलग करना चाहते हैं। यह पूरी दुनिया को एक सूत्र में छल लेने के आकांक्षी हैं। भूमंडलीकरण का स्वप्न प्रद्योगिकी और तकनीकी को एक कल्चर के रूप में समाज में ला रहा है। जहां समाज की स्वायतता और निजता पर एक रणनीति के रूप में प्रहार किया जा रहा है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि प्रद्योगिकी और तकनीकी को एक अस्त्र के रूप में प्रयोग करना खतरनाक है, इसका उपयोग मनुष्यता के हित में भी हो सकता है। लेकिन इन सब पर जिस वर्चस्वशाली वर्ग का कब्जा है, वह साम्राज्यवादी नीतियों के अनुयाई पूंजीवादी लोग हैं। आज पत्रकारिता भी इन्हीं के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है।
इधर कुछ वर्षों से ‘बाजारवाद’ शब्द का चलन काफी बढ़ा है। यह एक नई चाल है। अर्थशाश्स्त्र का सहारा लेकर कुछ पूंजीवादी भट्टाचार्याओं ने नई भड़न्त बकनी शुरू की है कि बाजारवाद अर्थशास्त्र के शब्दकोश में ही नहीं है। यानी ये धुरंधर इस शब्द को अर्थशास्त्र में आने से रोकने के लिए पूरी ताकत से लगे हुये हैं। दरअसल बाजारवाद एक जाल का नाम है जो इधर तेजी से फैल रहा है। यह पूंजीवाद का एक धारदार हथियार है, जो अपनी चपेट में लेकर व्यक्ति की निजता और स्वायत्तता को बेचने पर मजबूर करता है। इसका उदय दुनिया के ‘डिजिटलीकरण’ के साथ हुआ है। दुनिया तेजी से जिस कदर डीजटल हुई बाजारवाद ने उसे हथिया लिया। यहीं से पत्रकारिता के मीडिया होने की कहानी शुरू होती है। पहले मीडिया शब्द इतना प्रचलित नहीं था। आज पत्रकारिता के मूल्य जनवादी नहीं रहे, इसका बड़ा कारण ‘डिजिटलीकरण’ है। आज एक पत्रकार अपनी निजता और स्वायत्तता को बेचे बिना मीडिया की दुनिया में कुछ भी नहीं कर सकता। अब पत्र-पत्रिकाओं के जमाने लदते जा रहे हैं, यह समय टेलीविज़न और इंटरनेट पर चैनल-बाजी का है। और चैनल पूंजीपतियों के उद्योग या कारखाने। जहां खबरे हॉट करके ही बेची जाती है, वहाँ विज्ञापन प्रायोजित दौर को हमारे यहाँ बजारवाद कहा जाता है। बाजारवाद के बारे में कुछ सैद्धांतिक तथ्य भी देखने जरूरी हैं। क्योंकि यह टर्म पश्चिम से ही आया। पश्चिम के धनी देशों के लिए पूरब के विकाशशील तमाम देश बाजार का मैदान बने हुये हैं। जहां वह चीजों को बेचने में सफल हो रहे हैं। बहरहाल एक महत्वपूर्ण परिभाषा को कोड करते हैं। बेंजामिन गिंसबर्ग का कहना है कि “पश्चिमी सरकारों ने बाजार कि कार्यप्रणाली का इस्तेमाल लोकप्रिय परिप्रेक्षों और भावनाओं को नियंत्रित करने में किया। ‘विचारों का बाजार’ जो उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दौरान बना था, वस्तुतः उच्च वर्गों के विश्वासों और विचारों का प्रचार और निचले वर्गों कि विचारधारात्मक और सांस्कृतिक स्वतन्त्रता को दबाने का काम करता है। इस बाजार के निर्माण के जरिये पश्चिमी सरकारों ने सामाजिक आर्थिक स्थिति और विचारधारात्मक शक्ति के बीच मजबूत और स्थायी कड़ियाँ निर्मित की हैं, और उच्च वर्गों को इस बात कि इजाजत दी है कि वे अपने बीच से ही किसी अन्य के पिष्टपोषण के लिए एक दूसरे का इस्तेमाल करें।…खास तौर पर तौर पर सयुंक्त राज अमेरिका में विचारों के बाजार पर छाए रहने में उच्च और उच्च-मध्यवर्गों की क्षमता ने आम तौर पर इन तबकों को इस बात की इजाजत दी है कि वे समूचे समाज के राजनीतिक यथार्थबोध को और राजनीतिक तथा सामाजिक संभावनाओं को अपने तरीके से गढ़ें। पश्चिमी लोग जहां आम तौर पर बाजार को विचारों की आम स्वतन्त्रता के बराबर मानते हैं, वहीं बाजार का गुप्त हाथ नियंत्रण के औज़ार के रूप में उतनी ही संभावनाएं लिए होता है, जितनी राज्य कि लौह भट्ठी।”5
इस तरह हम देखते हैं कि बाजार एक राजनीतिक और आर्थिक रणनीति के तहत प्रणाली के रूप में काम कर रही है। इस टिप्पणी के बारे में प्रोफेसर नोम चोमस्की लिखते हैं- “गिंसबर्ग के इस निष्कर्ष में कुछ प्रारम्भिक सत्यभास मौजूद हैं। यह एक निर्देशित मुक्त बाजार के कामकाज को लेकर उन प्रस्थापनाओं पर आधारित है जो विशेषतया विवादास्पद नहीं हैं। संचार माध्यमों के वे हिस्से, जिनकी पहुँच एक अच्छे-खासे पाठक/श्रोता वर्ग तक हो सकती है, बड़े निगम ही हैं और वे अपने से भी कहीं ज्यादा बड़े उद्द्योग समूहों से जुड़े हुये हैं। अन्य व्यापारों की तरह ही वे एक उत्पाद ख़रीदारों को बेचते हैं। उनका बाजार है विज्ञापनदाताओं का वर्ग और उनके ‘उत्पाद’ हैं पाठक-दर्शक-श्रोता। इसमें भी उनका खास पूर्वग्रह अपेक्षाकृत धनी पाठक-दर्शक-श्रोता की ओर होता है, जिनके कारण विज्ञापन की दरें बढ़ जाती हैं।”6 
इन तथ्यों के आधार पर हम देखते हैं की संचार माध्यम किस तरह बिकी हुई प्रणाली का प्रतिरूप है। आज उच्च वर्ग के पास एक अपना मध्य वर्ग है जो उसके इसरे पर नाचता है। निम्न मध्यावरग और निम्न वर्ग इन दोनों वर्गों को लगातार शिकार होता राहत है। यह ठगी का एक तंत्र है। आज प्रिंट मीडिया धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोती जा रही है, और इसमे जो दिखाई दे रहा है वह एक किस्म का चमकीला मुलम्मा बन कर रह गया है। समाचार पत्रों की जगह दिन-रात एक कर न्यूज गरम करने वाले टी वी चैनलों ने छीन ली है। इधर डी.टी.एच/डीटूएच जैसे उपकरणों ने निम्न-मध्य वर्ग पर अपना पूरा रुतबा जमा लिया है। इन पर चेनलों की पूंजीवादी दुकानों का एक अंबार लगा हुआ है जिस पर लगातार बाजारू नाटकीयता अपनी छाप इस वर्ग पर डाल कर जीवन-मूल्यों में एक भ्रम पैदा कर रही है। यह भ्रम इतना भयानक है कि इसके अगोस में एक भरी-पूरी पीढ़ी निरापद विचारशून्यता में जी रही है। और यही पीढ़ी अपने पूरे वर्ग के साथ देश के चुनाओं में बड़ा हिस्सा बन कर उभरती है। आज वार्ड मेम्बर से लेकर प्रधानमंत्री तक का चुनाव यही जनता कर रही है, जो निरापद विचारशून्यता के भयावह रोग से ग्रसित है। यह रोग जनता के बीच पैदा करने का काम हमारे उच्च-वर्ग की पूंजीवादी आकांक्षाओं का सफल परिणाम है। अब चुनावी माहौल चेनल बनाते हैं। भारत के 2014 के लोक सभा चुनाव इन्हीं टीवी चैनलों द्वारा लड़े गए। जहां इसी तैयार की गई जनता ने पक्ष के प्रतिपक्ष के लिए विपक्ष की जगह ही नहीं छोड़ी। यह सब एक बनी बनाई रणनीति के तहत हो रहा है। चैनलों का कोई भी जनपक्षधर मूल्य नहीं। एक जनता को उनके मतलब की चीजें न दिखाकर अपने प्रयोजन की सामाग्री लगातार परोसते हैं। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि इनके समाचारों में जनांदोलनों पर समाचार देने के लिए वक्ता नहीं लेकिन एक राजनेता के अंतिम संस्कार का लाइवकास्ट लगातार दिखते हैं। यह है हमारी मीडिया, यानी आज की मीडिया का दोगला चरित्र।
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि हमारे सामने बदले हुये दौर का एक विशाल ऊसर मैदान पड़ा है। अब हम इसमे कहाँ तक भारतीयता के जीवन मूल्यों को तलाशें इसकी भी एक सीमा है। जो भी हो हम अखिलेश अखिल के शब्दों में कह सकते हैं- “शायद आप को यकीन न हो, लेकिन सच्चाई यही है कि पत्रकारिता वेश्या बन गई है और पत्रकार बन गए हैं दलाल। वेश्या बनी पत्रकारिता खूब बिक रही है। लोगों के बीच इसकी काफी मांग है। ऐसी पत्रकारिता के दलालों की खूब चल रही है। पाठकों के बीच इन दलालों की इज्जत है। समाज में इनकी प्रतिष्ठा है, रौब है।”7 

संदर्भ-सूची 

1. श्रीधर,विजय.(2010).भारतीय पत्रकारिता कोश.नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन. पृष्ठ 11 
2. वहीं. पृष्ठ 55
3. वहीं. पृष्ठ 337
4. वहीं. पृष्ठ 258 
5. नोम चोमस्की (2006). जन माध्यमों का मायालोक.दिल्ली, ग्रंथ शिल्पी. पृष्ठ सं. 17 
6. वहीं पृष्ठ 17-18 
7. अखिल,अखिलेश.(2009) मीडिया: वेश्या या दलाल.नई दिल्ली,श्री नटराज प्रकाशन, पृष्ठ 229
शोध-छात्र, हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग 
म.गां.अं.हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा 
Mob- 07057467780
 

 [साभार: जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका]

लोकतंत्र और सोशल मीडिया- डा. अशोक कुमार मिश्र

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लोकतंत्र और सोशल मीडिया

-डा. अशोक कुमार मिश्र
डीन एडमिनिस्ट्रेशन
रुड़की इंजीनियरिंग एंड मैनेजमेंट टेक्नोलाजी इंस्टीट्यूट, 
शामली-पानीपत राज्यमार्ग, 
निकट ग्राम मन्ना माजरा, शामली (उ.प्र.)
ई-मेल: ashokpranjan@gmail.com
मोबाइल- +91 9411444929
आधुनिक युग में सोशल मीडिया जनमानस की वैचारिक अभिव्यक्ति के सशक्त उपकरण के रूप में उभरकर सामने आया है। यह लोकतंत्र को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। सोशल मीडिया ने सभी को खुलकर बोलने का और हर मुद्दे पर अपनी राय रखने का मौका दिया है। लोकतंत्र की अवधारणा जनता का शासन, जनता के लिए और जनता के द्वारा पर आधारित है। इस दृष्टिकोण से जनता की आवाज को शासन तक पहुंचाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सोशल मीडिया यह कार्य बखूबी कर रहा है। इसलिए लोकतंत्र और सोशल मीडिया का अंतर्संबंध अत्यंत गहरा और व्यापक है। यही कारण है कि सोशल मीडिया का प्रभाव समाज के प्रत्येक वर्ग पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। पिछले कुछ वर्षों में युवा पीढ़ी इसकी तरफ जबरदस्त तरीके से आकर्षित हुई है।
दरअसल इंटरनेट के विकास के साथ ही सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से सामाजिक जीवन में संवाद के नए रूप का प्रादुर्भाव हुआ है। सोशल नेटवर्किंग के के द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को परस्पर संवाद स्थापित करने, विविध विषयों पर वैचारिक अभिव्यक्ति, भावनाओं के आदान-प्रदान और अकादमिक, साहित्यिक, राजनीतिक और सामाजिक विमर्श के लिए मंच प्रदान कर रहा है। आधुनिक युग में सोशल मीडिया केवल मनोरंजन का ही माध्यम नहीं है बल्कि समाचारों का आदान-प्रदान करते हुई इसने कई जन-आंदोलन भी खड़े किए हैं। सोशल मीडिया के दबाब के कारण ही दिल्ली के निर्भया कांड, मुजफ्फरनगर में दंगे की घटना, समाजसेवी अन्ना हजारे का आंदोलन, आरुषि हत्याकांड और नीरा राडिया कांड को मुख्यधारा की मीडिया का विषय बनाया गया और इस पर व्यापक जनसमूह ने विचार विमर्श किया। सोशल मीडिया के माध्यम से समसामयिक मुद्दों और घटनाओं के प्रमुखता से उठाया जा रहा है। विश्व फलक पर देखें तो चीन, ट्यूनीशिया और अरब देशों में जो राजनीतिक सुगबुगाहट हुई है, उसके पीछे सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है। 
वास्तव में “सामाजिक मीडिया पारस्परिक संबंध के लिए अंतर्जाल या अन्य माध्यमों द्वारा निर्मित आभासी समूहों को संदर्भित करता है। यह व्यक्तियों और समुदायों के साझा, सहभागी बनाने का माध्यम है। इसका उपयोग सामाजिक संबंध के अलावा उपयोगकर्ता सामग्री के संशोधन के लिए उच्च पारस्परिक प्लेटफार्म बनाने के लिए मोबाइल और बेब आधारित प्रौद्योगिकियों के प्रयोग के रूप में भी देखा जा सकता है। सामाजिक मीडिया के कई रूप हैं जिनमें कि इंटरनेटफोरम वेबलॉग, सामाजिक ब्लाग, माइक्रोब्लागिंग, विकीज,सोशलनेटवर्क, पॉडकास्ट, फोटोग्राफ, चित्र, चलचित्र आदि सभी आते हैं। अपनी सेवाओं के अनुसार सोशल मीडिया के लिए कई संचार प्रौद्योगिकी उपलब्ध हैं।“-1-
सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार के साथ ही सोशल मीडिया का दायरा भी बढ़ता जा रहा है। सस्ती मोबाइल तकनीक ने इसे बढ़ावा दिया है। सोशल मीडिया हर व्यक्ति को किसी भी मुद्दे पर तुरंत अपनी राय रखने का मौका देता है और इसकी सबसे बड़ी ताकत है। लोकतंत्र में जनमानस का विचार सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। यही कारण है कि लोकतंत्र में सोशल मीडिया की भूमिका अत्यंत प्रभावी हो जाती है। यही कारण है कि सरकारी तंत्र भी अब सोशल मीडिया का प्रयोग करने लगा है। सोशल मीडिया की तरफ जनता का रूझान लगातार बढ़ रहा है। “विश्वभर में लगभग 200 सोशल नेटवर्किंग साइट्स हैं जिनमें फेसबुक, ट्वीटर, आर्कुट, माई स्पेस, लिंक्डइन, फ्लिकर, इंस्टाग्राम (फोटो,वीडियो शेयरिंग साइट्स) सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। एक सर्वे के मुताबिक विश्वभर में संप्रति 1 अरब 28 करोड़ फेसबुक यूजर्स (फेसबुक इस्तेमाल करने वाले) हैं। वहीं, विश्वभर में इंस्टाग्राम यूजरों की संख्या 15 करोड़, लिंक्डइन यूजरों की संख्या 20 करोड़, माई स्पेस यूजरों की संख्या 3 करोड़ और ट्वीटर यूजरों की संख्या 9 करोड़ है।
सोशल मीडिया का जन्म 1995 में माना जाता है। उस वक्त क्लासमेट्स डॉट कॉम से एक साइट शुरू की गयी थी जिसके जरिये स्कूलों, कॉलेजों, कार्यक्षेत्रों और मिलीटरी के लोग एक दूसरे से जुड़ सकते थे। यह साइट अब भी सक्रिय है। इसके बाद वर्ष 1996 में बोल्ट डॉट कॉम नाम की सोशल साइट बनायी गयी। वर्ष 1997 में एशियन एवेन्यू नाम की एक साइट शुरू की गयी थी एशियाई-अमरीकी कम्यूनिटी के लिए। सोशल मीडिया के क्षेत्र में सबसे बड़ा बदलाव आया फेसबुक और ट्वीटर के आने से। फेसबुक का जन्म 4 फरवरी 2004 में हुआ। मार्क जकरबर्ग ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए फेसबुक को डेवलप किया था। धीरे-धीरे इसका विस्तार दूसरे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों तक हुआ और वर्ष 2005 में अमरीका की सरहद लाँघ कर यह विश्व के दूसरे देशों में पहुँच गया। ऐसी ही कहानियाँ दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स की भी हैं।“-2-
सोशल मीडिया जनजागरूकता लाने का भी प्रमुख उपकरण बनकर सामने आया है। राष्ट्र, समाज और जनहित के मुद्दों को सोशल मीडिया में प्रभावशाली ढंग से उठाया जाता रहा है। भारत में नारी सशक्तिकरण, बालिका शिक्षा, पर्यावरण, दहेज उन्मूलन, स्वच्छता अभियान, अपराध, भ्रष्टाचार का विरोध और मानवाधिकार जैसे मुद्दे सोशल मीडिया में प्रखरता से उठाए जाते रहे हैं जिससे लोकतंत्र को मजबूती मिल रही है। राजनीतिक दलों, सरकार अथवा सामाजिक कुप्रवृत्तियों का जनता सोशल मीडिया के माध्यम से प्रबल विरोध करती रही है जो किसी भी लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए आवश्यक है। किसी भी घटना की त्वरित सूचना अब लोगों को सोशल मीडिया के माध्यम से मिल जाती है।
सोशल मीडिया ने सामाजिक संबंधों की अवधारणा को भी प्रभावित किया है। पहले सामाजिक संबंधों की निरंतरता के लिए व्यक्तिगत रूप से मिलना जरूरी माना जाता था। लेकिन अब एसा नहीं है। अब लोग लंबे समय तक कई बार व्यक्तिगत रूप से नहीं मिल पाते हैं लेकिन सोशल मीडिया पर वे लगातार संपर्क में रहते हैं। “इस आभासी दुनिया के सहारे न सिर्फ मित्र बनाए जा रहे हैं,बल्कि उन्हें वोट बैंक से लेकर व्यवसाय में धनार्जन हेतु भी इस्तेमाल किया जा रहा है। वह दिन चले गये जब लोग एक दूसरे से विदा होते वक्त पता और फोन नम्बर लिया करते थे। अब तो लोग सोशल साइट्स के माध्यम से ही एक दूसरे से जुड़े हुये हैं और सोशल साइट्स के माध्यम से भी रिश्ते निभा रहे हैं। कारपोरेट कंपनियाँ अपने उत्पादों को बेचने हेतु इनका खूब इस्तेमाल कर रही हैं,आखिर ऐसी मुफ्त सेवा कहाँ मिलेगी ? फेसबुक व अन्य सोशल साइट्स ने साहित्य को भी काफी समृध्द किया है। यहाँ नवोदित से लेकर स्थापित रचनाकारों का साहित्य देखा-पढ़ा जा रहा है। पत्र-पत्रिकाओं की पहुँच भले ही हजारों मात्र तक हो, पर यहाँ तो लाखों पाठक हैं। इनमें से कई पाठकों ने तो तमाम पत्र-पत्रिकाओं का नाम भी नहीं सुना होगा, पर सोशल साइट्स के माध्यम से वे भी इनसे रूबरू हो रहे हैं। अकादमिक बहसों का विस्तार अब फेसबुक व अन्य सोशल साइट्स पर भी होने लगा है। नारी विमर्श, बाल विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, विकलांग विमर्श, सब कुछ तो यहाँ है। आप इन्हें शेयर कर सकते हैं, लाइक कर सकते हैं, कमेन्ट कर सकते हैं, वाद-प्रतिवाद कर सकते हैं और आवश्यकतानुसार नई बहसों को भी जन्म दे सकते हैं। विचारों की दुनिया में क्रांति लाने वाला सोशल मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसकी न तो कोई सीमायें हैं, न कोई बंधन। भारत सहित दुनिया के विभिन्न देशों में न सिर्फ वैयक्तिक स्तर पर बल्कि राजनैतिक दलों के साथ-साथ कई सामाजिक और गैरसरकारी संगठन भी अपने अभियानों को मजबूती देने के लिए सोशल मीडिया का बखूबी उपयोग कर रहे हैं। सोशल मीडिया सिर्फ अपना चेहरा दिखाने का माध्यम नहीं है बल्कि इसने कई पंक्तियों व वैचारिक बहसों को भी रोचक मोड़ दिये हैं। जिन देशों में लोकतत्र का गला घोंटा जा रहा है वहाँ अपनी बात कहने के लिए लोगों ने सोशल मीडिया का लोकतंत्रीकरण भी किया है।“-3-
सोशल मीडिया का सर्वाधिक प्रयोग युवा वर्ग कर रहा है। व्हाट्स अप और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया साइट्स पर अत्यधिक समय व्यतीत करने से युवा वर्ग पर इसका नकारात्मक प्रभाव भी परिलक्षित होता है। जो समय पढ़ाई करने में व्यतीत होना चाहिए, उसका काफी कुछ हिस्सा सोशल मीडिया पर चला जाता है जिसका उन्हें कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह समय का अपव्यय है। “फेसबुक पर नित्य प्रोफाइल फोटो बदलना, दिन में कई बार स्टेट्स अपडेट करना, घंटों फेसबुक मित्रों के साथ चैटिंग करना जैसी आदतों ने युवा पीढ़ी को काफी हद तक प्रभावित किया है। घंटों तक फेसबुक पर चिपके रहने से न केवल उनकी पढ़ाई प्रभावित हो रही है बल्कि कुछ नया करने की रचनात्मकता भी खत्म हो रही है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से तमाम अश्लील सामग्री और भड़काऊ बातें भी लोगों तक प्रसारित की जा रही है,जो कि लोगों के मनोमस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालती हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने लोगों को वास्तविक जीवन की बजाय आभासी जीवन में रहने को मजबूर कर दिया है। यह एक ऐसा खेल बन चुका है, जहाँ एक दूसरे के साथ लाइक और शेयर के साथ सुख-दुख और सपने बांटे जाते हैं और अगले ही क्षण रिश्तों को ब्लाक भी कर दिया जाता है।“-4- कई बार युवाओं का मानसिकता पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। इस आभासी दुनिया में अनेक काल्पनिक चरित्र भी होते हैं जिन्हें कई बार वह सत्य मान लेते हैं और जब उनका इस वास्तविकता से साक्षात्कार होता है तो वह निराशा और अवसाद से घिर जाते हैं।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि लोकतंत्र को सफल बनाने में सोशल मीडिया की प्रमुख भूमिका है। सोशल मीडिया ने हर व्यक्ति को अपनी बात जनमानस और शासन तक पहुंचाने का अधिकार प्रदान कर दिया है। सूचना के आदान-प्रदान, जनमत तैयार करने, जनचेतना जागृत करने, विभिन्न क्षेत्रों और संस्कृतियों के लोगों को आपस में जोड़ने, विविध मुद्दों और आंदोलनों में भागीदार बनाने की दृष्टि से सोशल मीडिया एक सशक्त उपकरण है। लेकिन इसका सावधानीपूर्वक उपयोग करना भी आवश्यक है। सोशल मीडिया का दुरूपयोग कई विसंगतियों को जन्म देता है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में दंगों को भड़काने में सोशल मीडिया की अहम भूमिका रही थी, जिसमें सैकड़ों परिवारों को बेघर होना पड़ा। वहीं कई लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। कई बार सोशल मीडिया के माध्यम से नारी अस्मिता से खिलवाड़ किए जाने की घटनाएं भी सामने आईं हैं। सोशल मीडिया पर अधिक व्यस्त होना व्यक्ति को लक्ष्य से भटका सकता है। इसलिए आवश्यक है कि सरकार इस तरह की नीतियां बनाएं जिससे सोशल मीडिया का सदुपयोग किया जाना सुनिश्चित हो, तब यह लोकतंत्र, समाज, राष्ट्र और व्यक्ति के लिए निसंदेह हितकारी है।
संदर्भ-
1-https://hi.wikipedia.org/wiki/सामाजिक_मीडिया
2-उमेश कुमार राय, सोशल मीडिया का बढ़ता दायरा वरदान भी अभिशाप भी, साहित्य संहिता, वाल्यूम 3 अंक 1, http://sahityasamhita.org/2015/04/16/
3-कृष्ण कुमार यादव, अभिव्यक्ति को नई धार देता सोशल मीडियाhttp://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/9387/9/193#.VqxCJtJ961s
4-उपरोक्त
निवास का पता
डा. अशोक कुमार मिश्र
26 बी/194, गली नंबर सात
शिवशक्तिनगर, मेरठ – 250002 (उ.प्र.)

न्यू मीडिया में हिंदी साहित्य की उभरती प्रवृत्तियाँ: शैलेश

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न्यू मीडिया में हिंदी साहित्य की उभरती प्रवृत्तियाँ

– शैलेश 
हिंदी अधिकारी, सिक्किम विश्वविद्यालय, गंगटोक, सिक्किम एवं 
पीएचडी शोध छात्र, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक, हरियाणा 

विषय परिचय

आज की पीढ़ी सूचना-विस्फोट के युग में जी रही है. और आज का हिंदी साहित्यकार यदि स्वयं को इस सूचना क्रांति से अलग रखता है तो वह स्वयं अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारता है. जो साहित्यकार – लेखक, कवि, कहानीकार, नाटककार आदि इस सूचना तकनीक का लाभ उठाते हुए इसके माध्यम से अपने द्वारा रचित साहित्य को अभिव्यक्त कर रहे हैं वे निश्चित रूप से ऐसा न करने वालों के तुलना में अधिक पाठकों तक पहुँच रहे हैं. इस सूचना क्रांति का प्रयोग व्यक्तिगत और संस्थागत, दोनों ही स्तरों पर, एक हथियार के तौर पर किया जा रहा है जो कि इस जीवन-समर के लिए लगभग अनिवार्य हो चला है. 
सूचना विस्फोट के साथ ही वर्तमान युग सूचना-आक्रमण, सूचना-आघात और सूचना-प्रतिघात का भी है. अब मात्र सूचना जैसे हथियार से बड़ी-से-बड़ी लड़ाई और बड़े-से-बड़ा युद्ध लड़ा जा सकता है. आज के साहित्यकार, साहित्य एवं पत्रकारिता के छात्र और पेशेवर सूचना नाम के इस नए हथियार का प्रयोग जितनी कुशलता से सीखेंगे उतनी ही अधिक सफलता वे पा सकते हैं. हालाँकि, वो और बात है कि इस हथियार को वे मिशनरी साहित्य एवं मिशनरी पत्रकारिता के आदर्श स्थापित करने के लिए एक आदर्श सेनापति बनकर चलाएँ या घी में डूबी रोटी और मनमाफिक-मोटी-बोटी सुनिश्चित करने के लिए लाभ-केन्द्रित व्यावसायिक मीडिया समूहों की सूचना-सेना के प्यादे मात्र बनकर या फिर राजनैतिक-आर्थिक स्वार्थ साधने लिए किसी व्यक्ति या पार्टी विशेष के भोंपू बनकर. 
वर्तमान युग में सूचना नामक इस हथियार से तेजी से लक्ष्य भेदने के लिए तीव्र- मिसाइल का काम किया है इन्टरनेट आधारित न्यू मीडिया ने. इस न्यू मीडिया ने जहाँ एक ओर सूचना को तेज रफ़्तार से पहुँचाना संभव किया वहीँ यह भी सुनिश्चित किया है कि सूचना के इस हथियार का प्रयोग अधिकाधिक लोग कर सकें. अब सूचना कुछ गिने-चुने सम्पन्न लोगों के इशारे पर चलने वाला प्यादा नहीं रहा. सूचना का जोरदार तरीके से लोकतंत्रीकरण हो रहा है और सूचना अब उन्मुक्त रूप से विचरण कर रही है. सूचना की इस उन्मुक्तता को इस स्तर तक संभव बनाया है ‘न्यू मीडिया’ ने. 
न्यू मीडिया क्या है?
“न्यू मीडिया क्या है?” इस सवाल का जवाब जानने के लिए जब न्यू मीडिया को ही खंगाला गया तो हिदी में इस सवाल के जवाब में न्यू मीडिया के गूगल गुरु की खोज में 26,20,000 (छब्बीस लाख बीस हजार) परिणाम प्राप्त हुए. यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि यही प्रश्न जब गूगल खोज में अंग्रेजी भाषा में (What is New Media) पूछा गया तो 1,61,00,00,000 (एक अरब इकसठ करोड़) परिणाम प्राप्त हुए. गौरतलब है कि हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी में प्राप्त होने वाले परिणाम 614 गुना ज्यादा हैं. कारण बिलकुल स्पष्ट है कि फ़िलहाल इस न्यू मीडिया जगत में अंग्रेजी का वर्चस्व कायम है. हालाँकि, न्यू मीडिया का प्रयोग करने वाले उपकरण बनाने वाली कम्पनियां अब अपने उपकरणों में अधिक-से-अधिक भाषाओँ में उपयोग करने की सुविधा दे रही हैं. खैर यह एक अलग विषय है.
न्यू मीडिया का एक बहुत ही महत्वपूर्ण मंच और अब तक के मानव इतिहास का सबसे बड़ा, सबसे ज्यादा लोगों द्वारा तैयार किया गया, सबसे अधिक भाषाओँ में उपलब्ध, और सब से अधिक पढ़ा जाने वाला इनसाइक्लोपीडिया – ‘विकीपीडिया’ हिंदी खोज में पहले नंबर पर और अंग्रेजी में दूसरे नम्बर पर रहा. अंग्रेजी में (What is New Media) खोजने पर परिणामों में पहले नंबर पर www.newmedia.org का लिंक www.newmedia.org/what-is-new-media.html रहा. वो और बात है कि न्यू मीडिया का परिभाषा के लिए इस वेबसाईट को भी विकिपीडिया की शरण में जाना पड़ता है. 
विकिपीडिया (हिंदी) के अनुसार “इंटरनेट के प्रचार-प्रसार और निरंतर तकनीकी विकास ने एक ऐसी वेब मीडिया को जन्म दिया, जहाँ अभिव्यक्ति के पाठ्य, दृश्य, श्रव्य एवं दृश्य-श्रव्य सभी रूपों का एक साथ क्षणमात्र में प्रसारण संभव हुआ। यह वेब मीडिया ही ‘न्यू मीडिया’ है, जो एक कंपोजिट मीडिया है, जहाँ संपूर्ण और तत्काल अभिव्यक्ति संभव है, जहाँ एक शीर्षक अथवा विषय पर उपलब्ध सभी अभिव्यक्‍तियों की एक साथ जानकारी प्राप्त करना संभव है, जहाँ किसी अभिव्यक्ति पर तत्काल प्रतिक्रिया देना ही संभव नहीं, बल्कि उस अभिव्यक्ति को उस पर प्राप्त सभी प्रतिक्रियाओं के साथ एक जगह साथ-साथ देख पाना भी संभव है। इतना ही नहीं, यह मीडिया लोकतंत्र में नागरिकों के वोट के अधिकार के समान ही हरेक व्यक्ति की भागीदारी के लिए हर क्षण उपलब्ध और खुली हुई है। (न्‍यू मीडिया ‘कंपोजिट मीडिया’ है : देवेन्‍द्र कुमार देवेश(
पत्रकारिताजगत.वर्डप्रेस.कॉम के अनुसार वेब मीडिया ही ‘न्यू मीडिया’ है, जो एक कंपोजिट मीडिया है, जहाँ संपूर्ण और तत्काल अभिव्यक्ति संभव है, जहाँ एक शीर्षक अथवा विषय पर उपलब्ध सभी अभिव्यक्यिों की एक साथ जानकारी प्राप्त करना संभव है, जहाँ किसी अभिव्यक्ति पर तत्काल प्रतिक्रिया देना ही संभव नहीं, बल्कि उस अभिव्यक्ति को उस पर प्राप्त सभी प्रतिक्रियाओं के साथ एक जगह साथ-साथ देख पाना भी संभव है। इतना ही नहीं, यह मीडिया लोकतंत्र में नागरिकों के वोट के अधिकार के समान ही हरेक व्यक्ति की भागीदारी के लिए हर क्षण उपलब्ध और खुली हुई है।
‘न्यू मीडिया’ पर अपनी अभिव्यक्ति के प्रकाशन-प्रसारण के अनेक रूप हैं। कोई अपनी स्वतंत्र ‘वेबसाइट’ निर्मित कर वेब मीडिया पर अपना एक निश्चित पता आौर स्थान निर्धारित कर अपनी अभिव्यक्तियों को प्रकाशित-प्रसारित कर सकता है। अन्यथा बहुत-सी ऐसी वेबसाइटें उपलब्ध हैं, जहाँ कोई भी अपने लिए पता और स्थान आरक्षित कर सकता है। अपने निर्धारित पते के माध्यम से कोई भी इन वेबसाइटों पर अपने लिए उपलब्ध स्थान का उपयोग करते हुए अपनी सूचनात्मक, रचनात्मक, कलात्मक अभिव्यक्ति के पाठ्य अथवा ऑडियो/वीडियो डिजिटल रूप को अपलोड कर सकता है, जो तत्क्षण दुनिया में कहीं भी देखे-सुने जाने के लिए उपलब्ध हो जाती है।
विकिपीडिया (अंग्रेजी) पर न्यू मीडिया (New Media) के बारे में दी गई जानकारी के अनुसार “न्यू मीडिया सामान्यत: वह सामग्री है जो इन्टरनेट के माध्यम से जब चाहो तब उपलब्ध हो जाती है, जिस तक किसी भी डिजिटल उपकरण के माध्यम से पहुंचा जा सकता है, और इसमें आमतौर पर प्रयोक्ता की ओर से अंतर्क्रियात्मक फीडबैक और सृजनात्मक भागीदारी होगी है. न्यू मीडिया के आम उदाहरणों में ऑनलाइन समाचार पत्र, ब्लॉग, विकी, विडियो गेम, कंप्यूटर मल्टीमीडिया, सीडी रोम, डीवीडी और सोशल मीडिया जैसी वेब साईट शामिल हैं. न्यू मीडिया की एक खास विशेषता संवाद है. न्यू मीडिया संपर्कों और वार्तालाप के माध्यम से सामग्री प्रसारित करता है. यह विश्व भर के लोगों को विभिन्न विषयों पर विचारों को साझा करने, उन पर टिपण्णी करने और चर्चा करने में सक्षम बनाता है. पुरानी तकनीको से बिलकुल अलग, न्यू मीडिया अंतर्क्रियात्मक समुदाय पर आधारित है.”
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि न्यू मीडिया वह संवादात्मक डिजिटल मीडिया है जिसे इन्टरनेट का प्रयोग करते हुए कंप्यूटर और मोबाइल जैसे डिजिटल उपकरणों के माध्यम से प्रयोग में लाया जाता है. इसके प्रयोक्ता को सामग्री का सृजन करने, सुधार करने, चयन करने, प्रतिक्रिया करने की सुविधा होती है. 
न्यू मीडिया में हिंदी साहित्य 
इन्टरनेट पर विश्व की सबसे पहली हिंदी साहित्यिक पत्रिका –‘भारत-दर्शन’ न्यूजीलैंड से रोहित कुमार (हैप्पी) ने शुरू की. दैनिक जागरण ने न्यू मीडिया पर अपने आरम्भिक दौर में साहित्य के अंतर्गत कुछ समय तक भारत-दर्शन की कड़ी (लिंक) जोड़े रखी थी. यह बड़ा रोचक विषय है कि हिंदी वेब साहित्यिक-पत्रकारिता विदेश से आरंभ हुई और इसको आगे बढ़ाने वाली अन्य मुख्य पत्र-पत्रिकाएँ भी विदेश की धरती से ही वेब पर आईं. भारत-दर्शन के बाद बोलो जी (अमरीका) तदोपरांत अनुभूति अभिव्यक्ति (शारजहा) का प्रकाशन आरंभ हुआ.
आज का सहित्यकार इन्टरनेट पर मौजूद न्यू मीडिया के विभिन्न मंचों – पॉडकास्ट, आर एस एस फीड, सोशल नेटवर्क फेसबुक, वाट्सऐप, इन्स्टाग्राम, माई स्पेस, ट्वीटर, ब्लाग्स, विक्किस, इत्यादि का प्रयोग करते हुए अपनी रचना को विश्व भर में फैले अपने पाठकों, श्रोताओं और दर्शकों तक पहुंचा सकता है. अभिव्यक्ति के इतने अधिक प्रारूप समकालीन साहित्यकार के पास मौजूद हैं कि बिलकुल नया साहित्यकार भी अपने द्वारा रचित साहित्य को यदि अभिव्यक्ति के इन विभिन्न प्रारूपों में व्यक्त करे तो उसकी पहुँच एक पारंपरिक साहित्यकार की तुलना में कहीं अधिक हो सकती है. 
न्यू मीडिया में समकालीन हिंदी साहित्य की पहुँच विश्व के हर उस हिस्से तक हो गई है जहाँ पर इन्टरनेट के माध्यम से हिंदी साहित्य का सृजनकर्ता साहित्यकार या पाठक मौजूद है. और यही कारण है कि समकालीन हिंदी साहित्य विश्व के तमाम देशों से लिखा जा रहा है और तमाम देशो में पढ़ा जा रहा है. और यकीनन आप सब इस बात से सहमत होंगे कि समकालीन हिंदी साहित्य की इतनी व्यापक पहुँच बनाने में न्यू मीडिया एक खासी भूमिका निभा रहा है.
गूगल पर हिंदी साहित्य खोजने पर 3,95,000 ( तीन लाख पिचानवे हजार) परिणाम प्राप्त होते हैं. हिंदी कविता खोजने पर 5,23,000 (पांच लाख तेईस हजार), हिंदी गीत खोजने पर 4,90,000 (चार लाख नब्बे हजार), हिंदी ग़ज़ल खोजने पर 1,37,000 (एक लाख सैंतीस हजार), हिंदी कहानी खोजने पर 5,61,000 (पांच लाख इकसठ हजार), हिंदी उपन्यास खोजने पर 8,650 (आठ हजार छ: सौ पचास), हिंदी नाटक खोजने पर 10,20,000 (दस लाख बीस हजार), हिंदी व्यंग्य खोजने पर 4,66,000 (चार लाख छियासठ हजार) परिणाम प्राप्त होते हैं. हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं से सम्बंधित पेजों की ये संख्याएं न्यू मीडिया के माध्यम से हिंदी साहित्य की वैश्विक पहुँच को दर्शाती हैं. ये संख्याएं तब और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं जब हम हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं की पुस्तकों और पत्रिकाओं की प्रकाशित होने वाली प्रतियों की संख्या से इसकी तुलना करते हैं.
हिंदी साहित्य आधारित वेबसाइट्स 
समकालीन हिंदी साहित्य साहित्य का प्रचार प्रसार करने और विश्वभर में उसकी पहुँच बनाने में हिंदी साहित्य से सम्बंधित वेबसाईट महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं हैं. साहित्यकार को पाठकों तक और पाठकों को साहित्यकारों तक, पाठकों को पाठकों तथा साहित्यकारों को साहित्यकारों तक पहुँचाने का काम यही वेबसाईट कर रहीं हैं. हिंदीइन्टरनेट.कॉम (http://www.hindiinternet.com/2008/08/blog-post_4275.html) के मुताबिक हिंदी साहित्य की प्रमुख वेबसाइट्स निम्नलिखित हैं 
1. अभिव्यक्ति, एक पत्रिका – http://www.abhivyakti-hindi.org
2. हिन्दी नेस्ट – http://www.hindinest.com/index.htm
3. भारत दर्शन – http://www.bharatdarshan.co.nz/
4. यह भी खूब रही – http://pryas.wordpress.com
5. उद्गम – http://www.udgam.com/
6. वर्चुअल हिन्दी – http://www.nyu.edu/gsas/dept/mideast/hindi/
7. मल्हार – http://www-personal.umich.edu/~pehook/mindex.html
8. बच्चों की कहानियाँ – http://www.4to40.com/folktales/default.asp?article=folktales_index
9. साहित्य कुञ्ज – http://www.sahityakunj.net
10. तद्भव पत्रिका – http://www.tadbhav.com
11. पिटारा – बच्चों का कहानियाँ – http://www.pitara.com/talespin/story_hindi.asp
बच्चों की कहानियों का संग्रह।
12. उज्ज्वल भट्टाचार्य – http://www.geocities.com/ujjwalkr/
13. हिन्दी की सभी साहित्यिक विधाओं की रचना स्थल-http://www.srijangatha.com
14. कलायन पत्रिका – http://www.kalayan.org
15. सी डॅक चल पुस्तकालय – http://mobilelibrary.cdacnoida.com/indexHindi.html
16. हिन्दी इलेक्ट्रौनिक साहित्य मैगज़ीन – http://www.hindielm.co.uk
17. साहित्य अमृत – http://indianabooks.com/sahityaamrit/book.html
18. अन्यथा – http://www.anyatha.com
19. कफ़न – http://www-personal.umich.edu/~pehook/kafan.html
20. कविताएँ और उपन्यास – http://www.childplanet.com/hindi/index.html
21. हिन्दीसेवा.कॉम – http://www.hindisewa.com/
22. ताप्तिलोक – http://taptilok.com
23. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और उनकी पत्रकारिता – http://sampadakmahoday.blogspot.com/
24. हिन्दी साहित्य – http://krishnashankar.wordpress.com/
25. याहू गुट : हिन्दी फ़ोरम – http://groups.yahoo.com/group/hindi-forum/
26. साहित्य संग्रह – http://www.iiit.net/ltrc/script_html/
27. भगवद्गीता – http://www.geocities.com/simplypari_m/
28. अट्टहास – http://www.avadh.com/atthas/index.htm
29. ललित निबंधों का संग्रह स्थल – http://jayprakashmanas.info
30. वेबदुनिया साहित्य – http://www.webdunia.com/literature/
31. सुकीर्ति शेखर – http://sukirti-shekhar.blogspot.com
32. शून्य – http://hindionlinenovel.blogspot.com
33. छाया – http://www.angelfire.com/poetry/chaya/ 
34. याहू गुट : विश्वभाषा – http://groups.yahoo.com/group/vishwabhasha/
इनके अतिरिक्त भी तमाम ऐसी वेबसाइट्स हैं जो इस सूची में नहीं हैं. इन वेबसाइट्स के साथ-साथ फेसबुक जैसी सोशल मीडिया वेबसाईट पर हिंदी साहित्य लिखने-पढ़ने वालों के छोटे-बड़े सैकड़ों की संख्या में समूह हैं. इनमे से प्रमुख हैं – साहित्यकार संसद, हिंदी साहित्य, साहित्यशिल्पी, साहित्यिक मधुशाला – हाइकु कार्यशाला, साहित्य सृजन, नवोदित साहित्यकार मंच, साहित्य नभ, साहित्य सलिला आदि. फेसबुक के इन समूहों में सदस्यों की संख्या एक हजार से चौदह हजार तक है.
व्हाट्सऐप पर भी साहित्यिक समूह सैकड़ों-हजारों की संख्या में हैं. पर इस विषय में विश्वसनीय रूप से कुछ भी कहना इस लिए मुश्किल है कि हम व्हाट्सऐप के केवल उसी समूह के बारे में जान सकते हैं जिसके हम सदस्य हैं. भले ही वो हमने स्वयं बनाया हो अथवा किसी साथी ने समूह बनाकर हमें उसमे शामिल किया हो. भले ही व्हाट्सऐप के साहित्यिक समूहों की संख्या और उनके नामों की सूचि बनाना संभव नहीं है लेकिन फिर भी हमें यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि व्हाट्सऐप के माध्यम से सैकड़ों-हजारों साहित्यकार और उनके पाठक आपस में जुड़े हुए हैं और अपनी रचनाओं को साझा कर रहे हैं.
वेबसाइट्स और सोशल मीडिया पर समूहों की संख्या और उनके सदस्यों की संख्या से ही इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि न्यू मीडिया के माध्यम से समकालीन साहित्य की पहुँच का कितना अधिक विस्तार हो रहा है.
न्यू मीडिया में समकालीन साहित्य की उभरती प्रवृत्तियाँ 
देशकाल.कॉम पर संजय द्विवेदी लिखते हैं, “नई तकनीक ने साहित्य का कवरेज एरिया तो बढ़ा ही दिया ही साथ ही साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों के प्रति हमारी पहुंच का विस्तार भी किया है। दुनिया की तमाम भाषाओं में रचे जा रहे साहित्य और साहित्यकारों से अब हमारा रिश्ता और संपर्क भी आसान बना दिया है। भारत जैसे महादेश में आज भी श्रेष्ठ साहित्य सिर्फ महानगरों तक ही रह जाता है। छोटे शहरों तक तो साहित्य की लोकप्रिय पत्रिकाओं की भी पहुंच नहीं है। ऐसे में एक क्लिक पर हमें साहित्य और सूचना की एक वैश्विवक दुनिया की उपलब्धता क्या आश्चर्य नहीं है। हमारे सामने हिंदी को एक वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने की चुनौती शेष है।“ 
न्यू मीडिया एक नया माध्यम है. इसे प्रयोग करने वाले भी अधिकांशत: नई पीढ़ी के नए लोग या फिर फिर पुरानी पीढ़ी के नई सोंच वाले लोग हैं. इसके माध्यम से मिलने वाले अभिव्यक्ति के मंच – वेबसाईट, ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर आदि भी नए हैं. तो इस नए माध्यम ‘न्यू मीडिया’ के द्वारा उपलब्ध करवाए गए नए मंचो पर अधिकांशत: नए प्रयोक्ताओं द्वारा जिस साहित्य का सृजन, पठन, श्रवण और दर्शन हो रहा है उसमे उभरने वाली अधिकांश प्रवृत्तियाँ भी निसंदेह नई ही हैं फिर चाहे वो कथ्य के स्तर पर हो या फिर शिल्प के स्तर पर, भाषा के स्तर पर हो या फिर पहुँच के स्तर पर. न्यू मीडिया में समकालीन साहित्य में उभरती हुई कुछ मुख्य प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं :-
1. प्रकाशक/संपादक पर निर्भरता से मुक्ति : न्यू मीडिया का प्रयोक्ता साहित्यकार आज जब चाहे, जैसे चाहे, जिस भाषा में चाहे अपनी रचना का प्रकाशन कर सकता है. उसे किसी संपादक के आगे दीन-हीन बनने या निवेदन करने की आवश्यकता नहीं है. न्यू मीडिया की इस प्रवृत्ति ने सैकड़ों-हजारों युवा लेखकों, कवियों, पत्रकारों को मंच प्रदान किया है. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के समय में यदि न्यू मीडिया होता या ‘निराला’ आज के समय में होते तो उन्हें अपनी कविता ‘जूही की कली’ को सरस्वती के संपादक द्वारा प्रकाशन योग्य न समझ के लौटा दिए जाने का दुःख यकीनन न होता. और न ही केदार नाथ सिंह को अपनी कविता ‘पांडुलिपियाँ’ में नए कवि की अप्रकाशित कविता की वेदना लिखनी पड़ती.
2. नितांत नए विषयों पर रचनाओं की स्वतंत्रता : न्यू मीडिया का प्रयोक्ता साहित्यकार अपनी रचना के लिए विषय चुनने को लेकर जितना स्वतंत्र आज है निश्चित रूप से वह इतना स्वतंत्र कभी नहीं था. अभिव्यक्ति में खतरे तो बाद की बात है पहले तो अपने चुनाव के विषय पर अभिव्यक्ति का मंच मिलना आवश्यक है. यह मंच दिया है न्यू मीडिया ने. और इस मंच पर ऐसे तमाम विषयों पर लिखा-पढ़ा जा रहा है जो पारंपरिक मीडिया में नितांत वर्जित विषय माने जाते रहे हैं.
3. विभिन्न प्रारूप : न्यू मीडिया के माध्यम से साहित्य को पाठ, ऑडियो, वीडियो आदि प्रारूपों में साहित्य तैयार किया जा सकता है और संप्रेषित किया जा सकता है. एक ही साहित्यिक कृति को कई फोर्मट्स का प्रयोग करके सुविधा पूर्वक अभिव्यक्त किया जाना न्यू मीडिया ने संभव किया है. इस स्वतंत्रता से जहाँ साहित्य को विभिन्न प्रारूपों में तैयार करने में आसानी होती है वहीँ विभिन्न प्रारूपों में एवं उनके मिश्रण से तैयार यह साहित्य आकर्षक और अधिक प्रभावशाली बन पड़ता है. डॉ चन्द्रप्रकाश मिश्र अपने लेख ‘नया मीडिया बनाम पुराना मीडिया’ में कहते हैं, – “नया मीडिया व्यापक है. वह पाठ्य, दृश्य और श्रव्य तीनों से युक्त है और समवेत प्रभाव अपने प्रयोक्ताओं पर डालता है जबकि पुराने मीडिया में इस संबंध में सीमा रेखा है.”
4. विभिन्न लिपियों में एक साथ प्रकाशन : न्यू मीडिया में यह एक विशेष उल्लेखनीय बात है कि बहुत से रचनाकार अपनी रचनाओं को एक से अधिक लिपियों में प्रकाशित कर रहे हैं. इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि ऐसा करने से रचना उन सभी पाठकों तक पहुँच जाती है जो उन विभिन्न लिपियों में से एक को भी जानता समझता है. रेख्ता.ओर्ग (rekhta.org) इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण वेबसाइट है जिस पर विभिन्न रचनाकारों की रचनाएं तीन लिपियों देवनागरी, रोमन और अरबी में प्रकाशित की जा रही हैं. 
5. तीव्र और आसान : मिसाईली गति की सूचना वाले इस न्यू मीडिया के युग में साहित्य को मूर्त रूप देना इतना आसान है की कोई भी साहित्यकार मात्र कुछ ही घंटों के प्रशिक्षण से इस योग्य हो जाता है कि वो न्यू मीडिया का उपभोक्ता होने के साथ-साथ उत्पादक भी बन सके. अपने लिखे साहित्य को ब्लॉग या वेबसाईट पर पोस्ट कर के ग्रुप ईमेल और सोशल नेटवर्किंग साईट्स के माध्यम से उसके प्रचार प्रसार के द्वारा अपनी रचना को अधिकाधिक ऑडियंस तक पहुँचाना अब बच्चों के खेल जैसा है. और ये खेल विद्यालय, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र रचनाकार भी कुशलतापूर्वक खेल रहे हैं. 
6. भौतिक सीमा-बंधन से मुक्ति : न्यू मीडिया के युग में पत्रकारिता एवं साहित्य रचना कहीं से भी बैठ कर जा सकती है. अब ये अनिवार्य नहीं कि साहित्यकार अपनी रचना को अपने पाठकों तक पहुंचाने के लिए प्रकाशकों के दफ्तर के चक्कर लगता रहे या फिर पत्राचार करता रहे. पाठकों तक अपनी रचना पहुंचाने का यह काम अब साहित्यकार अपने घर के ड्राईंग-रूम, बैड-रूम, यहाँ तक कि वाश-रूम में बैठकर भी कर सकता है. न्यू मीडिया के इस दौर में एक साहित्यकार विश्वभर में फैले अपने पाठकों तक अपनी रचना पालक झपकते ही पहुंचा सकता है। 
7. तत्काल प्रतिक्रिया : साहित्यकार की किसी रचना पर उसके पाठकों क़ी क्या प्रतिक्रिया रही, पारंपरिक मीडिया में ये जानना तत्काल संभव नहीं था. प्रतिक्रिया या प्रभाव जानने में काफी समय और संसाधनों की आवश्यकता होती थी. परन्तु न्यू मीडिया ने साहित्य पर तत्काल प्रतिक्रिया जानना संभव बना दिया है. साहित्यिक रचना के पोस्ट होते ही उस पर प्रतिक्रियाएँ आने लगती है. ‘जनशब्द’ नामक ब्लॉग पर देवेन्द्र कुमार देवेश कहते हैं, – “…जहाँ एक शीर्षक अथवा विषय पर उपलब्ध सभी अभिव्यक्‍तियों की एक साथ जानकारी प्राप्त करना संभव है, जहाँ किसी अभिव्यक्ति पर तत्काल प्रतिक्रिया देना ही संभव नहीं, बल्कि उस अभिव्यक्ति को उस पर प्राप्त सभी प्रतिक्रियाओं के साथ एक जगह एक साथ देख पाना भी संभव है.”
8. पाठक तक पाठक की पहुँच : आज के पाठक को किसी रचना पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए डाक खाने से पोस्ट कार्ड या अंतर्देशीय पत्र लाने और उसे पत्र-पेटिका में डालने जाने का कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं रही. न्यू मीडिया का एक विशेष गुण यह है कि इसके माध्यम से किसी रचना का पाठक उस रचना के अन्य पाठकों क़ी व्यक्त प्रतिक्रियाओं और विचारों को भी जान सकता है जो कि पारंपरिक मीडिया में संभव नहीं था. इसका फायदा और नुकसान अपनी जगह है. रचना पर प्रतिकृया देना अब आसान है और त्वरित भी। 
9. एक साथ कई मंच : न्यू मीडिया का प्रयोगकर्ता साहित्यकार अपनी रचना को न्यू मीडिया के कई मंचों के माध्यम से अपने पाठकों एवं श्रोताओं तक पहुंचा सकता है. उदहारण के लिए न्यू मीडिया का प्रयोगकर्ता साहित्यकार अपनी रचना को ब्लॉग पर पोस्ट करके उसे फेसबुक, व्हाट्सऐप और ट्विटर के माध्यम से जुड़े हुए लोगों तक पहुंचा सकता है.
10. साहित्य-अतिरेक : आज न्यू मीडिया के प्रयोक्ता पाठक के पास साहित्य-अतिरेक की स्थिति है. साहित्यिक रचनाएँ इतनी अधिक हैं कि पाठक के लिए यह तय कर पाना दुष्कर हो जाता है कि किस रचना को पढे और किसे छोड़े?. इस कारण अधिकांश ऐसी रचनाएँ होती हैं जो कि बहुत कम पाठकों द्वारा पढ़ी जाती हैं।
11. साहित्यिक चोरी : समकालीन साहित्यकार को न्यू मीडिया में अक्सर साहित्यिक चोरी का शिकार होना पड़ता है. अक्सर यह सुनने में आता है कि किसी एक की रचना किसी दूसरे ने अपने नाम से पोस्ट कर दी. बहुत से मामलों में तो यह पता ही नहीं लग पाता कि रचना का वास्तविक लेखक लेखक कौन है. इस शोध-पत्र का लेखक स्वयं न्यू मीडिया में हो रही इस साहित्यिक चोरी का शिकार हुआ है. 
12. साहित्य के साथ छेड़-छाड़ : साहित्य के साथ छेड़-छाड़ करना न्यू मीडिया ने काफी आसन कर दिया है. न्यू मीडिया में साहित्यकार द्वारा रचित रचना के साथ छेड़-छाड़ के मामले भी सामने आते हैं. रचना को कुछ ऐसे आपत्तिजनक बदलाव कर दिए जाते हैं जिससे रचनाकार को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है. जिस किसी ने आमिर खान अभिनीत हिंदी फिल्म 3 इडियट्स देखी है उन्हें अवश्य याद होगा कि दो शब्दों को बदल देने से कैसे अर्थ का अनर्थ हो गया था. 
13. साहित्य का गिरता स्तर : हालांकि इस बारे में कोई एक राय नहीं है कि न्यू मीडिया में आने वाला समकालीन साहित्य निम्न स्तर का है और पारंपरिक मीडिया के माध्यम से सामने आने वाला साहित्य उच्च स्तर का. एक बात जो गौर करने वाली है वो यह कि करीब एक दशक पहले जब हिंदी रचनाकार न्यू मीडिया में साहित्य रचना शुरू कर रहे थे तो ऐसे कई स्थापित साहित्यकार थे जिन्होंने उस न्यू मीडिया के माध्यम से अभिव्यक्त होने वाले साहित्य को निम्न स्तर का कहा. वो और बात है कि समय बीतते-बीतते उन स्थापित साहित्यकारों में से अधिकांशत: खुद भी न्यू मीडिया की शरण में आ गए और दिल्ली के एक कवि, लेखक और शिक्षक डॉ हरीश अरोड़ा को लिखना पड़ा ‘ब्लॉगम शरणम गच्छामि’ 
सन्दर्भ :
1. पत्रकारिता का बदलता स्वरुप और न्यू मीडिया, डॉ हरीश अरोड़ा (स.), पृष्ठ : 16 व 18
2. वही, पृष्ठ : 50
3. हिंदी ब्लॉगिंग स्वरुप व्याप्ति और संभावनाएँ, डॉ मनीष कुमार मिश्रा (स.) पृष्ठ : 83
4. www.google.com
5. www.hi.wikipedia.org/wiki/न्यू_मीडिया, 19 मार्च 2016, 14:10
6. https://patrakaritajagat.wordpress.com/2012/11/16/न्यू-मीडिया-क्या-है
7. https://en.wikipedia.org/wiki/New_media, 19 मार्च 2016, 14:14
8. www.newmedia.org/what-is-new-media.html, 4 मार्च 2016, 10:02
9. www. hi.wikipedia.org/wiki/समकालीन , 4 मार्च 2016, 11:10 
10. www.hi.wikipedia.org/w/index.php?search=समकालीन+साहित्य&title=विशेष%3Aखोज&fulltext=1, 4 मार्च 2016, 11:12
11. www.hi.wikipedia.org/w/index.php?search=समकालीन+हिंदी+साहित्य&title=विशेष%3Aखोज&fulltext=1, 4 मार्च 2016, 11:14
12. http://www.hindiinternet.com/2008/08/blog-post_4275.html
13. http://samixa.blogspot.in/2011/07/blog-post_15.html
14. http://mukulmedia.blogspot.in
15. http://janshabd.blogspot.in/2011/06/blog-post_29.html
16. http://www.deshkaal.com/Details.aspx?nid=17820098385597
[साभार: जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका]

लन्दन के बहुचर्चित प्रवासी साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा जी से डॉ.सुमन सिंह की बातचीत

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साक्षात्कार

लन्दन के बहुचर्चित प्रवासी साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा जी से डॉ.सुमन सिंह की बातचीत

हम प्रवासी लेखक होने के फायदे भी चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि हमें प्रवासी लेखक न कहा जाय
प्रवासी साहित्य जगत का चर्चित, प्रतिष्ठित और बहुपठित नाम है ‘तेजेन्द्र शर्मा ‘। लन्दन में रहकर विगत कई वर्षों से साहित्य-सेवा के साथ-साथ कथा -यूके की स्थापना करके हिन्दी-उर्दू और पंजाबी साहित्य के प्रचार -प्रसार में तेजेन्द्र जुटे हैं। शांति जैसे टी. वी सीरियल के लेखन में भी आपका योगदान रहा है। लेखन के साथ ही साथ अभिनय, बीबीसी में समाचार वाचन आदि अनेक गतिविधियों से जुड़े रहने वाले, अपराजेय जीवनी शक्ति से ओत-प्रोत, अल्हड़-अलमस्त व्यक्तित्व के स्वामी, तेजेन्द्र शर्मा के व्यक्तित्व-कृतित्व के अन्य अनदेखे पहलुओं को उजागर करने की छोटी सी कोशिश है, डॉ.सुमन सिंह से उनकी यह बातचीत—।
आपके व्यक्तित्व को गढ़ने में आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि ने किस प्रकार मदद की ?
तेजेन्द्र– परिवार और परवरिश हर इन्सान के व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। पिता उर्दू में लिखा करते थे। घर में साहित्य का माहौल था मगर खुला नहीं था। पिता ने अपने शौक़ को घर के संघर्ष की भेंट चढ़ा दिया था। लिखते थे मगर कहीं छपते नहीं थे। उनका लिखा बहुत कम छपा। मगर उनकी कहानियां, ग़ज़लें, गीत सब सुनता था। उनके पूरे- पूरे उपन्यास उनसे सुने। ज़ाहिर है कि साहित्य में शौक़ जागा। मगर मेरी भाषा ना तो उर्दू थी ना हिन्दी और पंजाबी। अंग्रेज़ी में एम.ए. था उसी भाषा में सोचता और लिखता था। पहली दो किताबें भी अंग्रेज़ी में थीं। पहली लॉर्ड बॉयरन पर और दूसरी जॉन कीट्स पर। दोनों आलोचनात्मक कृतियां थीं। फिर इन्दु से विवाह हो गया। इन्दु एम.ए. हिन्दी में थी और पीएच. डी. शुरू की थी। उसके चुने सभी उपन्यास पढ़ डाले तो हिन्दी साहित्य से परिचय हुआ। एक समय था मेरे लिये धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता हिन्दी का सबसे महान उपन्यास होता था। इन्दु ने मेरी सोच को परिष्कृत किया और हिन्दी की महत्वपूर्ण कृतियों से परिचित करवाया। मेरे शुरूआती हिन्दी साहित्यिक जीवन पर नरेन्द्र कोहली का बहुत असर रहा। मगर लेखन शुरू करने के बाद सब छंटता गया। इन्दु मेरी पहली पाठक और आलोचक होती। मेरी पहली करीब बीस से अधिक कहानियों की भाषा और व्याकरण इन्दु ने ही सही की। सच तो यह है कि यदि इन्दु ना होती तो मैं हिन्दी का लेखक ना होता। जब उसने ‘देह की कीमत’ कहानी पढ़ी तो बोली, “अब मैं आसानी से मर सकती हूं। अब आपको अपनी कहानी मुझ से ठीक करवाने की ज़रूरत नहीं।” हां उन दिनों कैंसर उसके शरीर को खोखला कर चुका था। मेरा पुत्र हिन्दी के मुक़ाबले अंग्रेज़ी में अधिक लिखता है। और पुत्री टीवी सीरियल कलाकार है… वैसे लिखती वह भी अंग्रेज़ी में है मगर मेरी लिखी हिन्दी कहानियां पढ़ लेती है।
लन्दन प्रवास का संयोग कैसे बना ?
तेजेन्द्र—लन्दन प्रवास का संयोग बना… सच कहा कि संयोग बना… किसी सोची समझी नीति के तहत यह नहीं हुआ। मेरे जीवन के हर निर्णय में इन्दु का बहुत महत्वपूर्ण हाथ रहा है। इसमें भी उसका परोक्ष हाथ तो कहा ही जा सकता है। इन्दु जब कैंसर से अपनी लड़ाई हार गई और हमें छोड़ गई तो सामने बहुत बड़ी समस्या खड़ी थी। मैं एअर इण्डिया में फ़्लाइट परसर के पद पर काम कर रहा था। कई -कई दिनों तक देश से बाहर जाना पड़ता था। इन्दु के बाद ना तो मेरी मां और ना ही इन्दु की मां इस स्थिति में थीं कि हमारे पास मुंबई आकर रह पातीं। मैं अपने बच्चों को फ़रीदाबाद में रख कर पढ़ाना नहीं चाहता था। बच्चों को दिल्ली के एक बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करवाया मगर दोनों बच्चे साल भर बाद ही वापस मुंबई आ गये। फिर वही दिक्कत। मैं मुंबई में रह कर ग्राऊण्ड जॉब नहीं करना चाहता था। सेलेरी का बहुत अंतर था। ऐसे में यह निर्णय लिया गया कि मैं लन्दन में बस कर कोई नौकरी करूं और बच्चे वहीं अपनी पढ़ाई पूरी करें और बस मैं पहुंच गया लन्दन। पहले बीबीसी रेडियो पर काम किया और फिर रेलवे में।यह भी सच है कि लन्दन के मेरे अनुभवों ने मेरे लेखन में एक नया रंग पैदा किया। यहां रह कर ही क़ब्र का मुनाफ़ा, बेतरतीब ज़िन्दगी, कोख का किराया, ज़मीन भुरभुरी क्यों है, ओवरफ़्लो पार्किंग, होमलेस वगैरह जैसी कहानियां लिख पाया।
अक्सर ऐसा देखने में आता है कि रचनाकारों की उपलब्धियों को रेखांकित करते समय उनकी “पत्नियाँ ” छूट जाती हैं या छोड़ दी जाती हैं। क्या आपका भी इस ओर कभी ध्यान गया है ?
तेजेन्द्र –हर पति-पत्नी का आपस में एक ईक्वेशन होता है। मैनें कभी इस ओर विशेष तौर से ध्यान देने का प्रयास नहीं किया कि कौन लेखक अपनी पत्नी के बारे में और कौन लेखिका अपने पति के बारे में क्या कहती है। जहां तक मेरा सवाल है मैं एक बात दावे से कह सकता हूं कि यदि मैं इन्दु का पति नहीं होता तो हिन्दी का लेखक कभी ना होता। उसने ना केवल मेरे लेखन को तराशा बल्कि एक इन्सान के रूप में भी डेवेलप करने में भी महत्वपूर्ण किरदार निभाया। उसकी सबसे बड़ी कुरबानी की तो अभी चर्चा ही नहीं हुई। इन्दु को मुंबई के रुईया कालेज में लेक्चरर की नौकरी का ऑफ़र मिला था मगर घर के हालात और मेरी एअरलाइन की नौकरी के मद्दे-नज़र इन्दु ने ऐसी बेहतरीन नौकरी की ऑफ़र ठुकरा दी। जब कैंसर से उसकी मृत्यु हुई है तब हमारा साथ करीब १७ साल का था। हर साल, हर महीना, हर दिन हर पल अविस्मरणीय।
क्या मृत्युशैय्या पर पड़ी पत्नी की पीड़ा भी आपकी किसी रचना में मूर्तिमान हुयी है ?
तेजेन्द्र– हां हुई है… भला इससे बच कैसे सकता था…. कैंसर, अपराधबोध का प्रेत, रेत का घरोंदा कुछ ऐसी कहानियां हैं जो सीधे उसकी मृत्यु शैय्या से जुड़ी हैं।…अगर वो दर्द मेरे भीतर से बाहर नहीं निकलता तो जीना मुश्किल हो जाता। उसी दुःख का सकारात्मक रूप है इंदु शर्मा कथा सम्मान। बस एक ही चाहत है कि किसी भी तरह इन्दु का नाम आकाश पर लिख दूं। इसीलिये टुकड़ा- टुकड़ा इन्दु हिन्दी कथा साहित्य में बांट रहा हूं। इन कहानियों में मैनें अपने दर्द को महसूस करते हुए उसे समाज का मैक्रॉकॉस्म बनाने का प्रयास किया है। नहीं मालूम कहां तक सफल हुआ हूं मगर प्रयास ईमानदारी से किये थे। हां कुछ एक कविताएं भी लिखी थीं। ख़ास तौर पर जब अहसास हुआ कि रूहों के चलने से आवाज़ नहीं होती।
वह पहली रचना जिसके प्रकाशित होने के बाद की प्रतिक्रियाओं ने आपको पुलकित कर दिया था ?
तेजेन्द्र–वैसे तो हर लेखक को अपनी प्रकाशित पहली कहानी का सुख जीवन भर याद रहता है। मगर मुझे अपनी कहानी उड़ान ने पहली बार विशेष सुख दिया क्योंकि डॉ. देवेश ठाकुर ने उसे 1982 की श्रेष्ठ कहानियों में शामिल किया था। यह कहानी एक एअर हॉस्टेस के धराशाई होने वाले सपनों की कहानी थी। नरेन्द्र कोहली ने कहा था कि जब हिन्दी कहानी का इतिहास लिखा जाएगा तो कहा जाएगा कि हिन्दी में एअरलाइन से जुड़ी कहानियां लिखने की शुरूआत तेजेन्द्र शर्मा ने की थी। इस कहानी पर भारत के बहुत से शहरों के अतिरिक्त विदेशों से भी पत्र आए थे जिनमें अभिमन्यु अनत भी शामिल थे। लेकिन जिस कहानी ने मुझे सच में पहली बार लेखक होने का अहसास दिलाया वह कहानी थी- काला सागर , 1985 की कनिष्क विमान दुर्घटना पर आधारित। इस कहानी ने मुझे बहुत से पाठकों के दिलों के करीब ला खड़ा किया। यहां तक कि कुछ ने इस कहानी की तुलना प्रेमचन्द की कफ़न कहानी से की। यही कहानी मेरे पहले कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी थी। इस कहानी के बाद मेरे कहानी लेखन की यात्रा तय हो चुकी थी।
क्या आपकी प्रेरणा इन्दु जी थीं तब?
तेजेन्द्र– इन्दु मेरी प्रेरणा हमेशा थी… और बनी भी रहेगी। कभी -कभी तो लगता है कि शायद इंदु को ख़ुश करने के लिये ही लिखता था। आज भी जब कभी किसी कहानी के किसी मोड़ पर उलझ जाता हूं तो सोचता हूं अगर इन्दु होती तो मुझे किस तरह का सुझाव देती…. वह आज भी मुझे ऐसी स्थितियों में राह दिखाती है। I can say that she is the light-house for my journey into darkness.
लेखन की कौन सी विधा में आप ख़ुद को सहज महसूस करते हैं ?
तेजेन्द्र –मैं अपने आपको मूलतः कहानीकार ही मानता हूं,और मैं इस बात में कतई विश्वास नहीं रखता कि कहानीकार को संपूर्ण लेखक बनने के लिये उपन्यास लिखना आवश्यक है। कहानी उपन्यास का सारांश नहीं होता।… अपने आप में एक संपूर्ण विधा है… वैसे कहने को मैनें कविताएँ भी लिखी हैं और ग़ज़लें भी। मगर मेरा व्यक्तित्व एक कवि या शायर का व्यक्तित्व नहीं है। मैं एक कहानीकार की तरह सोचता हूं। कविता आप केवल प्रतिभा से लिख सकते हैं मगर कहानी लिखने के लिये प्रतिभा के साथ – साथ मेहनत की ज़रूरत होती है। कहानी दरअसल हर विधा की मां होती है। क्योंकि साहित्यकार कुछ कहना चाहता है इसलिये वह क़लम उठाता है। वही उसकी कहानी होती है फिर विधा चाहे कविता हो, कहानी हो, नाटक हो, या उपन्यास… कहता वह कहानी ही है। अंग्रेज़ी औऱ हिन्दी के बहुत से कहानीकारों की कहानियां पढ़ कर अपनी ज़मीन पुख़्ता की है। बहुत से कहानीकारों को तूफ़ान की तरह आते देखा है और फिर ग़ायब होते भी देखा है। एक अच्छे कहानीकार को गुणवत्ता के साथ- साथ निरंतरता का भी ध्यान रखना चाहिये। वैसे केवल लिखने के लिये भी नहीं लिखना चाहिये। जब तक कहने के लिये कुछ ख़ास ना हो तब तक क़लम को कष्ट ना ही दें तो अच्छा है।
लेखन और एअर इण्डिया की नौकरी में तालमेल कैसे बिठाथे ?
तेजेन्द्र– सुमन, सच तो यह है कि मैने हिन्दी में लिखना एअर इण्डिया की नौकरी के दौरान ही शुरू किया था। एअर इण्डिया ने मुझे कुछ ऐसे अनुभव दिये जो आम हिन्दी लेखक के लिये उपलब्ध नहीं थे। उड़ान,काला सागर, ईंटों का जंगल, ढिबरी टाईट, देह की कीमत, भंवर, जैसी कहानियां संभव ही नहीं हो पातीं यदि मैं एअर इण्डिया में नौकरी ना कर रहा होता। एक सच यह भी है कि मैनें बहुत सी कहानियां विदेशों में अपने दौरे के दौरान ही पांच सितारा होटलों में रहते हुए लिखीं। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैनें कहानी काला सागर अम्स्टर्डम (हॉलैण्ड) में लिखी थी। मेरा दोस्त अरुण दीवान मेरे लिये भोजन बनाया करता था और मैं उसे रोज़ कहानी लिख कर सुनाया करता था। मैने तो शांति सीरियल के कई एपिसोड भी विदेशों में रहते हुए ही लिखे। ठीक इसी तरह कड़ियां मॉस्कों में लिखी और उड़ान रोम में। इंदु के बाद मेरे लेखन पर सबसे अधिक प्रभाव एअर इंडिया का ही है। कुछ कहानियां तो एअर इण्डिया की उड़ान में एक यात्री की तरह सफ़र करते हुए लिखी गईं.
लेखकीय जीवन में कई बार ऐसे भी क्षण आते हैं जब रचनाकार विचारशून्य स्थिति में पहुँच जाता है।कई -कई दिन बीत जाते हैं एक अदद हर्फ़ रचे। क्या आपको भी कभी ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा है ?
तेजेन्द्र— सुमन तुम्हारा इशारा Writer’s Block की तरफ़ है। शायद ही को ऐसा लेखक होगा जो इस स्थिति से ना गुज़रा हो। दरअसल ऐसा हर क्रिएटिव कलाकार के साथ होता है… संगीतकार, गीतकार, एक्टर,निर्देशक… सभी इस स्थिति से गुज़रते हैं। मेरे साथ भी ऐसा हुआ कि लगभग एक साल तक कुछ नहीं लिख पाया। दिमाग़ में कहानी बनती थी मगर पन्नों पर उतरती नहीं थी। कितनी बार कहानी लिखने का प्रयास किया होगा मगर फ़्रस्टेशन के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा।फिर एक दिन मैनें अपने आप को समझाया कि क्यों ना इसी स्थिति पर अपनी फ़्रस्टेशन को ही कहानी में ढालने का प्रयास करूं। और फिर यही किया भी । कहानी लिखी ,यह सन्नाट कब टूटेगा। इससे बहुतफ़र्क पड़ा। क़लम चलने लगी।मगर मैं तब तक कहानी लिखना शुरू नहीं करता जब तक मेरे पास कहने के लिये कुछ नया ना हो। 
ग़ज़ल के सिलसिले में मैं आजकल कुछ ऐसी ही स्थिति से गुज़र रहाहूं। वैसे इस बारे में एक दिलचस्प स्थिति तुम्हारे साथ शेयर करनाचाहूंगा। कुछ अर्सा पहले तक मैं रेलगाड़ी चलाया करता था। रेलगाड़ी की चलने की धुन के हिसाब से दिमाग़ में ग़ज़ल उतरती थी और मैं शेर उतारता जाता था। ऐसी ज़बरदस्त आमद होती थी कि कई बार तो एक -एक दिन में दो -दो ग़ज़लें लिखी जाती थीं। मैनें अपनी अधिकांश ग़ज़लें बार्किंग स्टेशन पर लिखी हैं। फिर उसकी नक्काशी बाद में हो जाया करती थी। फिर मेरा एक एक्सीडेण्ट हो गया जिससे मुझे ड्राइविंग छोड़नी पड़ी, यकीन मानों तीन साल से एक ग़ज़ल नहीं लिख पाया हूं। जब दूसरे मित्रों को धड़ाधड़ ग़ज़लें लिखते देखता हूं तो अपने आप पर बहुत कोफ़्त होती है। कभी यह सन्नाटा भी टूटेगा।
अब तक कुल कितनी पुस्तकें प्रकाश में आयीं हैं ?
तेजेन्द्र— इस सवाल का जवाब तो तुम्हें मेरे परिचय से ही पता चल जाता। फिर भी तुमने पूछा है तो बता देता हूं कि प्रतिनिधि और श्रेष्ठ कहानियां टाइप संग्रह मिला कर हिन्दी के बारह कहानी संग्रह, दो कविता एवं ग़ज़ल संग्रह। पांच संपादित कृतियां और बांग्ला , उर्दू, पंजाबी, नेपाली और अंग्रेज़ी को मिला कर छः अनूदित कहानी संग्रह।
कथा यू. के. की स्थापना का उद्देश्य क्या था, इसकी उपलब्धियों के बारे में कुछ बताना चाहेंगे ?
तेजेन्द्र — इंदु की मृत्यु के तुरन्त बाद मुंबई में इंदु शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना की थी। इस ट्रस्ट के मुख्य उद्देश्यों में शामिल था 40 वर्ष से कम उम्र के हिन्दी कथाकारों को वार्षिक इंदु शर्मा कथा सम्मान से अलंकृत करना और कैंसर पीड़ित रोगियों की धन अथवा दवा से सहायता करना।मेरे लन्दन में बस जाने के बाद मेरे लिये बार -बार मुंबई आकर गतिविधियां जारी रखना संभव नहीं था। इन्दु शर्मा कथा सम्मान को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दिया और ट्रस्ट की गतिविधियां लन्दन में चलाने के लिये उसे कथा यूके का नया स्वरूप भी दिया। हमारे वर्तमान अध्यक्ष श्री कैलाश बुधवार हैं और संरक्षक हैं काउंसलर ज़किया ज़ुबैरी। अंतरराष्ट्रीय होते ही कहानी के साथ -साथ सम्मान के लिये उपन्यास को भी जोड़ा गया और आयु सीमा भी हटा दी गई। पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मान चित्रा मुद्गल को आवां के लिये दिया गया। इस सम्मान का आयोजन ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स में किया जाता है। कथा यू.के. के माध्यम से हम कथा गोष्ठियों का आयोजन ब्रिटेन के भिन्न शहरों में करते हैं। बहुत से शहरों में कहानी कार्यशालाएं भी आयोजित की गई हैं। भारत या किसी अन्य देश से लन्दन आए हिन्दी साहित्यकारों के साथ भी कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कथा यूके ने भारतीय उच्चायोग के साथ मिल कर भी कई कार्यक्रमों का आयोजन किया है। लन्दन के अतिरिक्त भारत में यमुना नगर, दिल्ली और मुंबई में कथा यू.के. ने प्रवासी हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन भी किया है।
आजकल किन रचनात्मक गतिविधियों में व्यस्त हैं ?
तेजेन्द्र—अभी हाल ही में दिल्ली के पत्रिका प्रवासी संसार के साथ मिल कर तीन दिवसीय प्रवासी साहित्य सम्मेलन का आयोजन कथा यू.के. ने किया है। पहले दिन के कार्यक्रम ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स में किये गये जिसमें ब्रिटेन के अध्यापकों, साहित्यकारों,मीडिया कर्मियों एवं संस्थाओं को सम्मानित किया गया। इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि थीं गोवा की गवर्नर श्रीमती मृदुला सिन्हा और मेज़बान थे हमारे ब्रिटिश सांसद विरेन्द्र शर्मा। दूसरे दिन का कार्यक्रम भारतीय उच्चायोग के सांस्कृतिक केन्द्र नेहरू सेन्टर में आयोजित किया गया जहां यह प्रस्ताव पारित किया गया कि – “जब तक हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा ना बन जाए, देवनागरी में लिखी जाने वाली किसी भी बोली को संविधान की आठवीं सूचि में शामिल ना किया जाए। इस मामले में यथास्थिति बनाई रखी जाए।” औऱ आख़री दिन हैरो काउंसिल के चेम्बर में एक हिन्दी उर्दू पंजाबी और गुजराती भाषाओं का कवि सम्मेलन किया गया। इसकी मेज़बान रहीं हैरो की मेयर महामहिम रेखा शाह। अब एक ऐसा ही कार्यक्रम टोरोण्टो (कनाडा) में करने की तैयारी चल रही है।
क्या आप प्रवासी लेखक कहलाना पसंद करते हैं ?
तेजेन्द्र— यह सवाल बहुत ही कम्पलेक्स है। हम प्रवासी लेखक होने के फ़ायदे भी चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि हमें प्रवासी ना कहा जाए बल्कि मुख्यधारा का हिन्दी लेखक माना जाए। मगर सच तो यह है कि मुझे यू.पी. हिन्दी संस्थान, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, हरियाणा साहित्य अकादमी के साथ साथ बीसियों पुरस्कार एवं सम्मान प्रवासी लेखक होने के नाते मिले हैं। बहुत से विश्वविद्यालयों में मेरी कहानियां पाठ्यक्रम में लगी हैं। बहुत से विश्वविद्यालय मुझे लेक्चर देनें के लिये बुलाते हैं…. इस सबके पीछे मंशा एक ही है कि मैं प्रवासी लेखक हूं। अब सवाल मेरे अच्छा लगने तक का नहीं है… बात यह है कि इस ब्राण्ड पर इतना ख़र्च हो चुका है और इस इन्वेस्टमेण्ट को कोई भी सत्ता बेकार नहीं जाने देगी। बस मेरा एक प्रयास रहता है कि मैं किसी भी पत्रिका को उसके प्रवासी विशेषांक के लिये कोई रचना ना दूं। बस उनके साधारण अंक में मेरी रचना छपती रहे… सम्मान और पुरस्कार चाहे कहीं से आते रहें।

डॉ.सुमन सिंह

अस्सिटेंट प्रोफ़ेसर(हिन्दी-विभाग)

हरिश्चन्द्र पी. जी कॉलेज, वाराणसी-221002
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वेश्या एविलन रो का उपाख्यान: ब्रेख़्त की कविताएँ – – भारत कालरा

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वेश्या एविलन रो का उपाख्यान: ब्रेख़्त की कविताएँ 

– भारत कालरा 
‘वेश्या एविलन रो’ ब्रतोल्त ब्रेख़्त की एक प्रसिद्ध कविता है। दरअसल, यह एक उपाख्यान है। इस काव्यात्मक उपाख्यान में स्त्री की पीड़ा उसकी मुक्ति की आकांक्षा के स्वरों में सामने आती है। ‘वेश्या एविलन रो’ पुस्तक में ब्रतोल्त ब्रेख़्त की 20 कविताएँ हैं। ब्रेख़्त की कविताओं और उनके नाटकों का हिन्दी में काफी अनुवाद हुआ है। ब्रेख़्त एक ऐसे कवि हैं जिनसे हिन्दी लेखकों-कवियों की कई पीढ़ियाँ बेहद लगाव महसूस करती रही हैं और उनसे रचनात्मक ऊर्जा हासिल करती रही हैं। लेकिन आम पाठकों तक ब्रेख़्त की कविताएँ कम ही पहुँच पाई हैं। इस संग्रह के आने से यह उम्मीद बँधी है कि ब्रेख़्त की कविताएँ आम पाठकों तक पहुँच सकेंगी और युवा पीढ़ी इन कविताओं से परिचित हो सकेगी। 
ब्रेख़्त की कविताओं, कहानियों और नाटकों का दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी के पाठकों के लिए विजेंद्र , अरुण माहेश्वरी, नीलाभ, सुरेश सलिल, मोहन थपलियाल,उज्ज्वल भट्टाचार्य जैसे साहित्यकारों ने ब्रेख्त की कविताओं और कहानियों के अनुवाद किए हैंl गुलज़ार ने भी ब्रेख्त के नाटक ‘ही हू सेज़ यस एंड ही हू सेज़ नो’ का बच्चों के लिए ‘ अगर और मगर‘ नाम से अनुवाद किया है। बहरहाल, वीणा भाटिया द्वारा किया गए इस अनुवाद का महत्त्व कुछ अलग है तो इसलिए, क्योंकि ब्रेख़्त की ये कविताएँ पहली बार हिन्दी पाठकों के सामने आई हैं। इन चुनिन्दा कविताओं का अनुवाद 1983-84 के दौरान किया गया। खास बात यह है कि अनुवाद के लिए कविताओं का चुनाव गोरख पाण्डेय ने किया था। इसके बारे में वीणा भाटिया ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है, “एक दिन गोरखजी आए तो मैं ब्रेख़्त की कविताएँ पढ़ रही थी। उन्होंने मुझसे ब्रेख़्त की कविता ’द ब्रेड एंड द चिल्ड्रन’ पढ़ने को कहा। मैंने कविता पढ़ी और बाद में उसका अनुवाद भी किया। कुछ दिनों बाद मिलने मैंने वह अनुवाद दिखाया। मेरे किए अनुवाद को देख कर गोरख पाण्डेय मुस्कुराते हुए बोले – वाह साथी! और फिर उन्होंने अनूदित कविता पर अपनी कलम चलाई। इसके साथ ही चल पड़ा अनुवाद का सिलसिला।” ये कविताएँ गोष्ठियों में पढ़ी जाती रहीं, सुनी-सुनाई जाती रहीं। 
पुस्तक गोरख पाण्डेय की स्मृति में प्रकाशित हुई, यह एक खास बात है। बहरहाल, अनुवाद के लिए ब्रेख़्त की जिन कविताओं का चयन गोरख पाण्डेय ने किया, उससे पता चलता है कि उन्होंने चौतरफा संकट से घिरे, अस्तित्व के लिए जूझते और संघर्ष करते लोगों की गाथा सामने लाने की कोशिश की थी। ब्रेख़्त का रचना-कर्म बहुत ही व्यापक और बहुआयामी है। उनमें से प्रासंगिक चयन गोरख पाण्डेय जैसे क्रान्तिकारी कवि ही कर सकते थे। ‘वेश्या एविलन रो’ का उपाख्यान ही पाठकों को बेचैन कर देगा। पूँजीवादी व्यवस्था में श्रमिक वर्ग के साथ स्त्री का उत्पीड़न एक ऐसा सच है, जिससे मुँह नहीं चुराया जा सकता। इस संग्रह में शामिल कई कविताओं में यह सच उभर कर सामने आया है। ब्रेख़्त की इन कविताओं से गुज़रना बहुत आसान नहीं है। यह एक यंत्रणादायी प्रक्रिया है। जहाँ शब्द नश्तर बन जाते हैं, जहाँ उदासी लगता है मानो धरती से आकाश तक छा गई है, जहाँ अंतहीन बेचैनियाँ हैं, तो ये कविताएँ पाठकों को एक भयानक संसार में लेकर जाती हैं। वहाँ सवाल हैं, सवाल हैं भूखे बच्चों के, ‘अबोध छालटी की पतित पावनी’ है। इस ‘पेचीदी दुनिया में’ ‘प्रिया के वास्ते गीत’है तो ‘माँ के लिए शोकगीत’। ‘बुढ़िया का विदागीत’ है तो ‘बच्चों की रोटी’ का भी सवाल है।‘शहर के बाहर जमा आठ हज़ार ग़रीबों का हुजूम’ है तो ‘भव्य तोरण के नीचे अज्ञात सैनिक का व्याख्यान’ भी हो रहा है। वहीं, ‘तीन सौ हलाक कुलियों का अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण के नाम प्रतिवेदन’ है। ब्रेख़्त की कविताओं में ‘लोरियाँ’ हैं, ‘क्रान्ति के अनजान सिपाही की समाधि का पत्थर’ है तो ‘देशवासियों’ से ‘जनता की रोटी’ का सवाल भी है। 
ये ब्रेख़्त के विपुल रचना-संसार से एक अति संक्षिप्त चयन है, पर उनके जैसे क्रान्तिकारी कवि की रचनधर्मिता का पूरा आस्वाद कराने वाला। अनुवाद दरअसल पुनर्रचना है। कविता की पुनर्रचना असंभव-सी बात होती है। पर यह ज़रूरत है। वीणा भाटिया ने अनुवादक के धर्म का ईमानदारी से निर्वाह किया है, इसका पता कविताओं के पाठ से चलता है। उनमें जो सहज प्रवाह है, उससे कविता हमारे समय से और हमारी निजता से भी अनायास जुड़ जाती है। इस संग्रह की कुछ कविताएँ पहले पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुकी हैं। 
हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण कवि विजेन्द्र ने लिखा है, “यह सवाल बार बार उठेगा कि आखिर ब्रेख्त को आज पढ़ना समझना क्यों जरूरी है। जिन संकटापन्न तथा त्रासद हालात में ब्रेख़्त ने अपना कवि कर्म किया, आज भी हालात वैसे ही हैं। पूँजीकेंद्रित व्यवस्थाएँ अपने चरम पर मनुष्य का शोषण कर रही हैं। साम्राज्यवाद नये रूप में पहले से भी अधिक आक्रामक और एकध्रुवीय हुआ है। सर्वहारा के पक्षधर कवि के सामने बड़ी चुनौतियाँ तथा जोखिम आज भी बदस्तूर हैं। ऐसे में, ब्रेख्त को पढ़ना हमें अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग करेगा। हमें हर प्रतिकूल स्थिति में अपनी वैचारिक आस्था को बनाए रखने के लिये प्रेरित करेगा।“ उल्लेखनीय है कि विजेन्द्र ने ब्रेख़्त की कविताओं के अनुवाद किए हैं और उनकी रचनाधर्मिता पर लिखा भी है। 
ब्रेख़्त एक बेहद जटिल समय के कवि हैं। जब वे लिख रहे थे, जनपक्षधर तथा लोकधर्मी कवियों के लिए परिस्थितियाँ जानलेवा और जोखिम से भरी हुई थीं। फासिज़्म के उभार ने पूरी दुनिया के लेखकों के लिये विकल्प की चुनौती खड़ी कर दी थी। आज ये चुनौती हमारे सामने बहुत ही तल्ख़ रूप में उभर कर आई है। ब्रेख़्त के समय में सवाल था कि लेखक तटस्थ रहें, लोकतंत्र और समाजवाद के लिए जनता के साथ संघर्ष में शरीक हों या फासिज़्म को स्वीकार करें। वे इन दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों के लिये बहुत चिंतित थे। ब्रेख्त के नाटकों और कविताओं में जो यथार्थ सामने आया है, वह इतिहास की इन्हीं परिस्थितियों की देन है। 
ब्रेख़्त ने ज्यादातर छोटी कविताएँ लिखी हैं। इस संग्रह में जिन कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत किया गया है, वे अपेक्षाकृत बड़ी या लम्बी कविताएँ हैं। ये जटिल उपबंधों की कविताएँ हैं। ऐसी कविताओं का अनुवाद करना बहुत आसान नहीं होता। वीणा भाटिया ने अनुवाद के लिए इन कविताओं का चयन किया, इसके पीछे सम्भवत: एक बात यह भी है कि ज्यादातर अनुवादकों ने इन्हें छोड़ दिया था। बहरहाल, जटिल और लम्बी कविताओं के अनुवाद में भी उन्होंने सहजता और प्रवाह बनाए रखा है। कविताएँ संप्रेषणीय हैं। उनमें दुरूहता और बोझिलता नहीं है। संग्रह में शामिल तीन कविताओं के अंश – 

‘वेश्या एविलन रो’

मैं आपको

कभी नहीं मिल पाऊंगी

क्राइस्ट मेरे प्रभु

आप एक वेश्या की खातिर

तो नहीं आ सकेंगे न,

और मैं

अब एक बदनाम औरत हूँ

मस्तूलों के दरमियान

वह घंटों भागती

उसका दिल दुखता था

उसके पैर दुखते थे

जब तक कि

एक अन्धेरी रात में

जब उसे कोई नहीं देख रहा था

खुद-ब-खुद

वह उस तट को ढूंढने निकल गई।

‘बच्चों की रोटी’

धर्म के महन्तों ने

बच्चों के भूख से तड़पते हुए देखा

जिनके चेहरे पीले और कुम्हालाये हुए थे

उन्होंने

उन बच्चों के कुछ भी नहीं दिया

भूखा तड़पने दिया

संकट अब आ पहुंचा

अब वे रोटी के छिलके की खातिर लड़ेंगे

और महज गंधों से भूख शान्त करेंगे।

रोटी तो

पशुओं के खिलाई जा चुकी है

वह सड़ गई थी

और बहुत सूखी भी

इसलिए

हे ईश्वर

तुम अपनी दुनिया में

उनकी खातिर थोड़ी रोटी बचा रखना।

‘माँ के लिए शोकगीत’

उसकी वेदनाओं का ओर-छोर नहीं था

मौत जिसके जीवन से

कतई शर्मिन्दा नहीं थी

और तब

वो मर गयी

और तब उन्हें लगा

उसका जिस्म

एक बच्चा था।

वह वन में पली पुसी

उन चेहरों के बीच मरी

जिन्होंने उसे हमेशा

मरते देखा था।

और वे बेहिस थे

कौन क्षमा करता था उसे

उसके दुख लिए

फिर भी वह

घूमती फिरी

उन्हीं चेहरों के इर्द गिर्द

जब तक मर ही न गयी।

संग्रह में शामिल सभी कविताओं के अनुवाद में यह सहज बोधगम्यता दिखाई पड़ती है।

संग्रह में गोरख पाण्डेय पर एक परिशिष्ट है, जिसमें उनके दो साथियों के लेख हैं। मनोज कुमार झा ने ‘स्वप्न और क्रान्ति के कवि गोरख पाण्डेय’ लेख में उनकी रचनाधर्मिता और सरोकारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है, साथ ही प्रगतिशील-जनवादी साहित्य आन्दोलन से जुड़े कुछ ज्वलंत सवाल भी उठाए हैं। उनके दूसरे साथी प्रोफेसर ईश मिश्र ने ‘सामाजिक बदलाव के कवि गोरख’ में लिखा है कि गोरख पाण्डेय की कविताएँ आम जन को अनंत काल तक जगाती रहेंगी।

कहा जा सकता है कि ब्रेख़्त की इन कविताओं का अनुवाद प्रस्तुत कर के वीणा भाटिया ने अपनी ‘लिटटरी एक्टिविस्ट’ की भूमिका का निर्वाह किया है। इससे निस्संदेह नई पीढ़ी को मानसिक खुराक और ऊर्जा मिलेगी।

पुस्तक – वेश्या एविलन रो – ब्रतोल्त ब्रेख़्त की कविताएँ

अनुवाद : वीणा भाटिया

प्रकाशक : वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर

मूल्य : 70 रुपए

प्रथम संस्करण : 2016