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पीडीऍफ़ को वर्ड में कैसे बदलें जानिये हिंदी में …(एसआरके टेक्नीकल)

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पीडीऍफ़ को वर्ड में कैसे बदलें जानिये हिंदी में

कई बार हमको इन्टरनेट पर लेख इत्यादि पीडीऍफ़ में मिलते हैं ऐसे में यदि आप इसे वर्ड फाईल में बदलना चाहें तो कैसे बदलेंगे वह भी बिना किसी सॉफ्टवेयर के. आइये जानते हैं हिंदी में एसआरके टेक्नीकल द्वारा. वीडियो के साथ चैनल को सब्सक्राईब अवश्य करें ताकि यह जानकारी आपको मिलती रहे-
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बाबा नागार्जुन की कविता ‘ मंत्र’ यहाँ पढ़ें एवं स्ट्रिंग बैंड द्वारा सुने

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ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है..
ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द, और श‌ब्द, और श‌ब्द
ॐ प्रण‌व‌, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें
ॐ व‌क्तव्य‌, ॐ उद‌गार्, ॐ घोष‌णाएं
ॐ भाष‌ण‌…
ॐ प्रव‌च‌न‌…
ॐ हुंकार, ॐ फ‌टकार्, ॐ शीत्कार
ॐ फुस‌फुस‌, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार
ॐ आस्फाल‌न‌, ॐ इंगित, ॐ इशारे
ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे
ॐ स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, स‌ब कुछ
ॐ कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं
ॐ प‌त्थ‌र प‌र की दूब, ख‌रगोश के सींग
ॐ न‌म‌क-तेल-ह‌ल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेड़ी, क‌नेर के पात
ॐ डाय‌न की चीख‌, औघ‌ड़ की अट‌प‌ट बात
ॐ कोय‌ला-इस्पात-पेट्रोल‌
ॐ ह‌मी ह‌म ठोस‌, बाकी स‌ब फूटे ढोल‌
ॐ इद‌मान्नं, इमा आपः इद‌म‌ज्यं, इदं ह‌विः
ॐ य‌ज‌मान‌, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ क‌विः
ॐ क्रांतिः क्रांतिः स‌र्व‌ग्वंक्रांतिः
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः स‌र्व‌ग्यं शांतिः
ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः स‌र्व‌ग्वं भ्रांतिः
ॐ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ
ॐ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ
ॐ द‌लों में एक द‌ल अप‌ना द‌ल, ॐ
ॐ अंगीक‌रण, शुद्धीक‌रण, राष्ट्रीक‌रण
ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टीक‌रण
ॐ ऎत‌राज़‌, आक्षेप, अनुशास‌न
ॐ ग‌द्दी प‌र आज‌न्म व‌ज्रास‌न
ॐ ट्रिब्यून‌ल‌, ॐ आश्वास‌न
ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌
ॐ छ‌ल‌-छंद‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़
ॐ ब‌क‌वास‌, ॐ उद‌घाट‌न‌
ॐ मारण मोह‌न उच्चाट‌न‌
ॐ काली काली काली म‌हाकाली म‌हकाली
ॐ मार मार मार वार न जाय खाली
ॐ अप‌नी खुश‌हाली
ॐ दुश्म‌नों की पामाली
ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
ॐ अपोजीश‌न के मुंड ब‌ने तेरे ग‌ले का हार
ॐ ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ
ॐ ह‌म च‌बायेंगे तिल‌क और गाँधी की टाँग
ॐ बूढे की आँख, छोक‌री का काज‌ल
ॐ तुल‌सीद‌ल, बिल्व‌प‌त्र, च‌न्द‌न, रोली, अक्ष‌त, गंगाज‌ल
ॐ शेर के दांत, भालू के नाखून‌, म‌र्क‌ट का फोता
ॐ ह‌मेशा ह‌मेशा राज क‌रेगा मेरा पोता
ॐ छूः छूः फूः फूः फ‌ट फिट फुट
ॐ श‌त्रुओं की छाती अर लोहा कुट
ॐ भैरों, भैरों, भैरों, ॐ ब‌ज‌रंग‌ब‌ली
ॐ बंदूक का टोटा, पिस्तौल की न‌ली
ॐ डॉल‌र, ॐ रूब‌ल, ॐ पाउंड
ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड
ॐ ॐ ॐ
ॐ ध‌रती, ध‌रती, ध‌रती, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌
ॐ अष्ट‌धातुओं के ईंटो के भ‌ट्टे
ॐ म‌हाम‌हिम, म‌हम‌हो उल्लू के प‌ट्ठे
ॐ दुर्गा, दुर्गा, दुर्गा, तारा, तारा, तारा
ॐ इसी पेट के अन्द‌र स‌मा जाय स‌र्व‌हारा
ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त, ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त‌
[साभार: कविता कोष]

मीना चोपड़ा की कविताएँ

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कविता

वक्त की सियाही में
तुम्हारी रोशनी को भरकर
समय की नोक पर रक्खे शब्दों का

कागज़ पर कदम-कदम चलना।

एक नए वज़ूद को मेरी कोख में रखकर
माहिर है कितना
इस कलम का
मेरी उँगलियों से मिलकर
तुम्हारे साथ-साथ
यूँ सुलग सुलग चलन

अघटनीय

बिना रफ्तार

दौड़ते अँधेरों और

दीवारों से चिपकते सायों का

शहर की तंग गलियों में

दुबकते जाना कब तक?

झिरीठों से निकलती

नुकीली किरणे पकड़े

बंद दरवाज़ों और खिड़कियों में

सिसकती उदासी का

डबडबाना कब तक?

बेबस सी —

बेरुख और सुन्न निगाहों का

आँगन के अँधेरे कोनों

और खुदे आलों में

फड़फड़ाना कब तक?

कहाँ है — ?

कहाँ है — ?

रोशनी का वह छलकता पानी

बुहार देती जिसे बहाकर मैं

अपने आँगन का

हर एक दर और ज़मीं

धो देती कोना-कोना इसका |

सजा देती

एक -एक आला और झरोखा

जलते दियों की श्रृखलाएँ रखकर।

खड़ी हो जाती मैं

इस साफ़ सुथरे आँगन के बीच

उठाए हुए

अचंभित सी नज़रें

और तब — !

घट के रह जाता

रिक्त आँखों के

स्तम्भित शून्य में

एक निरा,

साफ़ और स्पष्ट

नीला आसमान।

उन्मुक्त

कलम ने उठकर
चुपके से कोरे कागज़ से कुछ कहा
और मैं स्याही बनकर बह चली
मधुर स्वछ्न्द गीत गुनगुनाती,
उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती।
उल्लसित जोशीले से
ये चल पड़े हवाओं पर
अपनी कहानियाँ लिखने।
सितारों की धूल
इन्हें सहलाती रही।
कलम मन ही मन
मुस्कुराती रही
गीत गाती रही।

शून्य की परछाईं

सितारों में लीन हो चुके हैं स्याह सन्नाटे
ख़लाओं को हाथों में थामें
दिन फूट पड़ा है लम्हा – लम्हा
रोशनी को अपनी
ढलती चाँदनी की चादर पर बिखराता|
अंधेरों की गहरी मौत
शून्य की परछाईं में धड़कती है अब तक
जिंदा है

मीना चोपड़ा : लेखिका, चित्रकार एवं शिक्षिका
मीना एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कवयित्री एवं चित्रकार हैं और चार कविता संकलनो की रचयिता हैं। इनकी कविताओं का अनुवाद एवं प्रकाशन जर्मन एवं उर्दू भाषाओं में भी हो चूका है। इन्होंने हाल ही में कनाडा में बसे हिदी और उर्दू में प्रवासी रचनाकारों का एक ई कविता संकलन सम्पादित एवं प्रकाशित किया है। यह हिंदी को मुख्य धरा के साथ जोड़ने में तत्पर हैं। इन्हें इनके लेखन एवं विभिन्न समुदायों को एक साथ मिलाकर आगे ले जाने के उत्कृष्ट प्रयास के लिए कई बार कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। ये कनाडा में स्थित कई कला, सांस्कृतिक एवं हिंदी भाषा के प्रचार की संस्थओं के निदेशक मंडलों पर महत्वपूर्ण पद संभालती रही हैं। 
कविताएँ: http://prajwalitkaun.blogspot.ca अंग्रेजी की कविताएँ : http://ignitedlines.blogspot.ca/

दख़ल पुस्तक उत्सव के अंतर्गत पहाड़ से कविता: चार महत्वपूर्ण कविता संकलन

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१. खांटी कठिन कठोर अति: शिरीष कुमार मौर्य
२. हिंदी का नमक: कमलजीत चौधरी
३. उदास बखतों का रामोलिया: डॉ. अमित
४. इन सपनों को कौन गायगा: अजेय

यह कविता संकलन आप दखल प्रकाशन से प्राप्त कर सकते हैं. संकलन प्राप्त करने हेतु संपर्क करें-

कुमार अशोक
ashokk34@gmail.com

आशीष कंधवे की कविताएँ

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मैं भी “अभिमन्यु” ही तो हूँ .

…………..
कई दिन हो गए 
मेरे शब्दों को आवाज मिले 
कई दिन हो गए 
वक्त के आईने में मुझे 
चक्कर काटते 
कई दिन हो गए 
रोशनी के बहाब में बहे हुए ।
सिर्फ एक जिंदगी के लिए 
ये सब जरूरी है क्या ?
दर्द और जीवन के दोपहर 
में ज्यादा अंतर नहीं होता
रथ के पहिये के टूटने का दर्द 
“कर्ण” से भला 
कौन बेहतर जनता होगा
लेकिन इस अनुभव को 
कौन याद रखता है ?
सुनो …
जरा रुको…
अपना चेहरा एक बार 
अपनी आखों से देखो 
जान जाओगे
अपना भविष्य 
एक पल में
मुझे पहली बार लगा 
मैं भी “अभिमन्यु” ही तो हूँ !
रास्ते तो मेरे लिए भी सरे बंद है 
बस ये अफवाह फ़ैल गई है कि
मेरे पास विकल्प है 
मैं वीर हूँ
कई दिन हो गए 
शतरंज का खेल खेलते 
पर ढाई चाल का रहस्य 
नहीं जान पाया 
अपना बचाव नहीं कर पाया 
अपना रास्ता नहीं चुन पाया 
बहरहाल,
मैं नहीं जान पाया की
मैं स्वमं के लिए ही 
एक चुनौती हूँ
सच 
कई दिन हो गए 
मेरे शब्दों को आवाज मिले 
कई दिन हो गए 
वक्त के आईने में मुझे 
चक्कर काटते 
कई दिन हो गए …..
…………………………….

मैं त्रिलोचन हो गया हूँ …..
मुझे रोज मिलते है 
नए चेहरे 
नए चौराहे
नई मुस्कान 
नई पहचान
पग-पग 
बाहें फैलाये 
मिलते है 
नए दोस्त 
नए सपने 
नए दर्पण
कदम-कदम पर
नए गीत 
नए मीत 
नए संगीत
हर दिन झेलता हूँ 
नए दुःख 
नए शाप
और 
नए पाप को
फिर भी 
मैं नहीं बदलता हूँ 
संवत दर संवत 
चलता रहता हूँ 
भाव ,आचरण ,भाषा 
कुछ भी तो नहीं बदलती 
प्रेम,रूप,सौंदर्य,स्वर
कुछ भी तो नहीं छुटती
अविरल,अनंत प्रवाह में 
बहे जा रहा हूँ 
शब्दों के टुकड़े 
गहे जा रहा हूँ 
प्रदक्षिणा सूर्य की
किये जा रहा हूँ
क्षत-विक्षत हूँ मैं 
पर रोष- जोश 
दोनों को समेटे 
दुर तक फैली 
क्षितज़ की छाया में 
कर रहा हूँ समर्पित 
रोज 
अपने हिस्से की आयु 
अपने हिस्से की वायु
अपने हिस्से का प्रेम 
अपने हिस्से का राग
अपने हिस्से का आग 
क्योंकि 
हाँ,क्योंकि 
मैं त्रिलोचन हो गया हूँ !!

चौपाल के लिए शोध आलेख आमंत्रित

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चौपाल की घोषणा –

चौपाल के दो अंकों पर तेजी से काम चल रहा है। एक अंक सामान्य है जिसके लिए शोध आलेख आमन्त्रित हैं।
दूसरा अंक कथाकार स्वयं प्रकाश के अवदान पर केंद्रित है।
यदि आप रचना सहयोग देना चाहते हैं तो निम्न मेल अथवा फोन पर संपर्क करें – kameshwarprasadsingh60@gmail.com
094100689874

धन्यवाद।
डॉ कामेश्वर प्रसाद सिंह
संपादक चौपाल

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काशीनाथ सिंह के प्रसिद्ध उपन्यास ‘रेहन पर रग्घू’ पर आधारित एक बहुत ही महत्वपूर्ण कृति…
मूल्य: मात्र 400/- रूपये

काशीनाथ सिंह के बहुप्रशंसित–पुरस्कृत उपन्यास रेहन पर रग्घू पर आधारित इस पुस्तक को विशिष्ट कहा जाएगा जहाँ हिंदी के श्रेष्ठ आलोचक नामवर सिंह के साथ-साथ युवतम आलोचक विमलेन्दु तीर्थकर और राजीव कुमार भी शामिल है. इस पुस्तक में स्वयं लेखक और उनके निकट के लोगों ने भागीदारी की है जो अनूठा और आत्मीयता से भरा है. 
संजय राय ने जिस तरह उपन्यास का सार दिया है वह उन पाठकों को भी उपन्यास पढने के लिए आमंत्रित करता है जो आलोचना तक ठहरे हैं, इस किताब को आलोचना की जड़ता तोड़ने के लिए पढ़ा जाना आवश्यक है. 
(नवल किशोर, वरिष्ठ आलोचक)

http://www.amazon.in/Chaupal-Mein-Rehan-Par-Raghu/dp/9380613512/ref=pd_rhf_se_p_img_1?ie=UTF8&refRID=0GX0XT4SKNPZGVHN5MK6


[पुस्तक-समीक्षा] देशज चिन्ताओं की बेचैन छवियाँ-“विज्ञप्ति भर बारिश”: सवाई सिंह शेखावत

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पुस्तक-समीक्षा

देशज चिन्ताओं की बेचैन छवियाँ-“विज्ञप्ति भर बारिश”: सवाई सिंह शेखावत

वरिष्ठ कवि राजेश जोशी ने राजस्थान के उभरते और अपनी बेहतर कविताओं के जरिए राष्ट्रीय-स्तर पर अलग पहचान बनाते युवा कवि ओम नागर के नये कविता-संग्रह ‘विज्ञप्ति भर बारिश’ को लेकर लिखा हैः एक ऐसे समय में जब गाँवों की बदहाली से नज़र फेर कर सारा विमर्श और रचना-कर्म शहरों पर केन्द्रित हो गया हो, ऐसे में ओम नागर हमारे समाज की बड़ी आबादियों के जीवन पर छाये और छाते जा रहे अँधेरों की ओर हमारी आँख को मोड़ने की कोशिश करते हैं। हिन्दी और राजस्थानी में काव्य-सृजन के लिए राजस्थान साहित्य अकादमी और केन्द्रीय साहित्य अकादमी से सम्मानित कवि ओम नागर का ‘देखना एक दिन’ के बाद यह दूसरा काव्य-संग्रह है। इसमें उन्होंने गाँव और कस्बों के जीवन में फैली बेरोजगारी, विस्थापन, गडबड़ाता पर्यावरण, पाताल में समाता पानी, छिनती जमीनें, सिकुड़ती जोत, तासीर खोती मिट्टी, औंधे मुँह गिरते अनाज के दाम और गाँवों के माहौल को लगातार खराब करती राजनीति की बेचैन छवियाँ दर्ज की हैं।
इन कविताओं में आज के गाँव-कस्बों के जीवन की यथार्थ तस्वीर के साथ ही उसका व्यापक केनवास भी काबिले-गौर है। यहाँ बैंक के नोड्यूज और खाद के लिए पंक्तिबद्ध किसान, रासायनिक उर्वरकों से पश्त होती खेतों की उर्वरता, लगातार गहराता पानी का संकट किसान का क्या बोयें क्या ना बोए वाला धर्म-संकट, व्यापारिक फसलें लेने के चक्कर में धरती के पेंदे में बच रहे अमृत को निचोड़ लेेने की किसान की आतुरता, बिस्वों में सिकुड़ती जोत, किसानों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति, मनरेगा मस्टररोल में नाम तलाशते युवाओं की लम्बी कतारों के साथ ही अब गाँवों में भी धर्म, जाति, आरक्षण और वोट के नाम पर फैलते दंगे हैं। लेकिन खेद की बात है कि राष्ट्रीय खबरों में देहात के इस असली संकट को कोई जगह नहीं है, वहाँ अब भी रियलिटी शोज और चकाचैंध भरे आयोजनों को तरजीह दी जा रही है। ऐसे में कवि अपनी गहरी चिन्ता का इज़हार करते हुए लिखता हैः जितना कठिन लगता है जरा से जीवन में/उस कठिनाई भरे रिशते को ढूंढना/उससे भी कठिन होता है/जरा सी कठिनता से भिड़ना। ओम नागर इस तरह जीवन की जरूरी चिन्ताओं के साथ ही, जरूरी जीवन-संघर्ष के भी कवि हैं।
इन कविताओ में ओम नागर जीवन को बदतरी की ओर धकेलते कारकों की पड़ताल कर उन्हें लगातार प्रश्नांकित करते चलते हैं। आज और अब के सामाजिक जीवन में दिखावे के बढ़ते ढोंग को लेकर वे लिखते हैंः ‘मुखौटों से घिरा हूँ मैं इन दिनों।’ उधर कभी हमारी अर्थव्यवस्था का आधार रही कृषि भूमि पर लगातार खड़े हो रहे कंकरीट के जंगलों को उन्होंने ‘जमीन और जमनालाल’ कविता में बहुत गहरे से रेखांकित किया है। ओछे राजनीतिक हथकण्डों के चलते हमारा सामाजिक ताना-बाना जिस तरह इन दिनो छिन्न-भिन्न हुआ है और लोगों के दिलों के फासले बढ़े है ऐसे में उन्हे पिछली बेहतर बातों का स्मरण आना स्वाभाविक हैं। जब हज का शवाब और पीली कनेर की मालाएं गाँव के सामाजिक माहौल को समरस बनाती थी, जिसके चलते हमारी सामाजिक सौहार्द्रता पूरी तरह सुरक्षित थी। जब पूजा और परवीन की टाटपट्टियों के बीच किसी किस्म का कोई विभाजन नहीं था। इसीलिए शहर से गाँव लौटते हुए उन्हें गाँव का सहजीवन, हथाई, खेल-तमाशे, भूले-बिसरे भजन, मंजीरों की ताल, ठिठोली और मसखरियाँ याद आते हैं। नहीं, यह अतीत का गदलश्रु भावुकता भरा स्मरण या महिमा-मण्डन नहीं है, बल्कि गाँव -कस्बों के सामाजिक जीवन की संवदेना को गहराने वाले स्रोतों की फिर से तलाश है।
जीवन की इसी तरफ़दारी में उन्हें सूरज से आँख चुरा कर पंखुड़ी में समा जाती ओस की बूँद, जीवन के ऊबड़-खाबड़ को समरस बनाती मिलन की अपनी सी राह, अपने हिस्से का प्रेम, पलकों की कोर में बँधी स्मृतियों की मिठास के साथ ही गाँवों की सड़कों के किनारे गन्ने पेर कर उसके रस का रोजगार करती ‘रसवालियाँ’ भी याद आती है। जो कृत्रिम पेयों के विरूद्ध जैसे एक सार्थक लड़ाई लड़ रही है और इस तरह जीवन की देसी मिठास को बचाने का एक महत्वपूर्ण उपक्रम कर रही है। देसज संभावनाओं की इसी तलाश में वे यह भी देख पाते हैं कि आज का कथित आधुनिक डरा हुआ आदमी सिर्फ गमलों में रचता है सौन्दर्यशास्त्र/लेकिन जीवन के असली रंगों को बचाने की बात आती है तो वह स्थानीयताओं पर ओढ़ लेता है चुप्पियाँ/दूर के सवालों पर हो जाता है वाचाल/और रचता रहता है जुमलों का छन्द शास्त्र।
कविताओं में ओम नागर जीवनानुभवों को तवज्जों देने के पक्षधर हैं। इसीलिए उनके यहाँ आज भी ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ रहे पिता शब्द बीज बोते हैं और वर्णमाला काटते हैं। कवि कहता हैः बारहखड़ी आज भी खड़ी है/हाथ बाँधे पिता के समक्ष। जीवन को तरह देती जरूरी कोमलता को हलकान होते देख ‘गिद्धों की चाँदी के दिन’ कविता में वे लिखते हैं तहखानों में कोई शैतान बसा लेता है गिद्धों की बस्ती और चुन-चुन कर खाता है आँख, नाक, कान/गुलाब की पंखुड़ियों से होंठ/दिल की धड़कन को अनसुनी कर नोंच लेते हैं/कलाइयों पर गुदे हो हरे जोड़ेदार नाम। इसी तरह भूख के अधिनियम में उन्हें भूख से बेकल अपनी ही सन्तानों को निगल चुकी कुतिया के साथ, कफन का घीसू, काल कोठरी से निकल कर आती बूढ़ी काकी के साथ ही भूख का दशक पूरा करती इरोम शर्मिला और माँ के नाराज होने से क्षण भर को ठिठकती धरती के साथ ही सैंकड़ों प्रकाश वर्ष नीचे चले गये सूरज की याद आती है। जीवन के प्रति गहरी उद्दाम आत्मीयता के चलते ही ऐसी कविताएं संभव होती है। निश्चय ही यह संकलन अपनी देशज चिन्ताओं में गहरे से जुड़ा है।
संग्रह के अंत में ‘एक गाँव की चिट्ठी शहर के नाम’ में 8 उपखण्डों में वर्णित एक ऐसी कविता है जो अलग-अलग आयामों से लगातार पिछड़ते जा रहे गाँवों, व्यवस्था द्वारा की जा रही उनकी अनदेखी, उसके दर्द-शिकवों और उसके जवाबदेह कारकों की पड़ताल करती है। लेकिन अपने कथ्य में वह लगभग उन्हीं तमाम मुद्दों को दुहराती है जो संग्रह में पहले ही बेहतर ढंग से वर्णित हो चुके हैं। इस तरह यह धूमिल की ‘पटकथा’ की तरह एक बेहतर कविता बनते-बनते रह जाती है-कविता में सब कुछ समेट लेने के ऐसे आग्रह से ओम नागर को बचना होगा।
कविता-संग्रह: विज्ञप्ति भर बारिश
कवि। : ओम नागर
प्रकाशक। : सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर ( राज )

बदलते समय में साहित्य शिक्षण की प्रविधियाँ और चुनौतियाँ: संपादक मुकेश बर्नवाल

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पुस्तक: दलते समय में साहित्य शिक्षण की प्रविधियाँ और चुनौतियाँ
सम्पादक: मुकेश बर्नवाल
प्रकाशक: अनन्य प्रकाशन 

कश्मीर में बाबा नागार्जुन का वो दुर्लभ सानिध्य:-अग्निशेखर

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कश्मीर में बाबा नागार्जुन का वो दुर्लभ सानिध्य 

-अग्निशेखर

कश्मीर में क्षमा कौल के घर में बाबा नागार्जुन का एक दुर्लभ चित्र । चित्र में नागार्जुन से मिलने और उन्हें सुनने आए जो चुनिंदा हिंदी रचनाकार दिख रहे हैं वे हैं -बाँए से उपेंद्र रैना,डाॅ त्रिलोकीनाथ गंजू ,नागार्जुन, पिछली पंक्ति में डाॅ रतन लाल शांत ,भारत भारद्वाज, संजना कौल ,क्षमा कौल तथा दाएँ से महाराज शाह और डाॅ शशि शेखर तोषखानी ।
इस बैठक में बाबा नागार्जुन का एकल काव्यपाठ और उनके साथ सब उपस्थित हिंदी रचनाकारों की बातचीत रिकार्ड हो रही है ।
कश्मीर में उनका यह लंबा प्रवास था जो कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । विशेषकर उनकी कश्मीर में लिखी कविताओं की दृष्टि से ।
नागार्जुन अस्सी के दशक के प्रारंभिक वर्षों में कश्मीर में युवा कवयित्री क्षमा कौल के घर में रहे । उनकी स्मृतियों का एक बड़ा खजाना है क्षमा के पास। उनकी माँ, बहनों ,भाभी सहित अनेक करीबी संबंधियों के पास । उन अंतरंग विविधवर्णी स्मृतियों को क्षमा जी को कभी विस्तार से लिखना चाहिए ।
जहाँ तक मुझे याद है नागार्जुन के साथ उन दिनों श्रीनगर में कभी वरिष्ठ कवि शशिशेखर तोषखानी के यहाँ, कभी क्षमा जी के यहाँ, तो कभी रेडियो कश्मीर, श्रीनगर में रिकार्डिंग के दौरान कितनी चर्चा -गोष्ठियां ,काव्य गोष्ठियां हुईं थीं । एक उत्सवधर्मी साहित्यिक हलचल थी शहर में ।
कहते हैं कश्मीर आने की उनकी तीन शर्तें थीं ।कश्मीरी कवि दीनानाथ नादिम से भेंट करना,चिनार का पत्ता चूमना और वितस्ता के घाट पर उसके जल की आचमन करना ।
इसलिए कभी उन्हें कवि दीनानाथ नादिम के घर ले जाया जाता ।कभी प्रयाग (शादीपुर ) की यात्रा कर आते वह क्षमा की छोटी बहन गुड्डी कौल के साथ ।गुड्डी का नाम बदलकर बाबा ने हिमा कर दिया था। मूर्तिशिल्पी गुड्डी बाद में मृत्युपर्यंत कला जगत में हिमा कौल नाम से ही जानी गईं ।
यह जानकारी नागार्जुन के पाठकों, प्रशंसकों और शोधकर्ताओं के लिए रोचक हो सकती है कि इसी कश्मीर प्रवास के दौरान नागार्जुन ने चिनार, जिसे कश्मीरी भाषा में ‘बूञ्य ‘ (भुवन व्यापिनी ) कहते हैं, पर गजब की कवताएं रचीं।जैसे ‘बच्चा चिनार’ आदि ।
स्व. हिमा के अनुसार हुआ यह कि जब शादीपुर प्रयाग में बाबा ने विशाल और वयोवृद्ध ‘बूञ्य’ ( चिनार) देखी तो उसकी भव्यता और गरिमा से अभिभूत हो गये । उसी परिसर में संगम के किनारे जब उन्हें एक डेढ दो-सौ बरस के एक चिनार के बारे में पता चला कि यह तो बाकी बड़े चिनारों की तुलना में बच्चा है तो आश्चर्यचकित रह गये बताया था हिमा ने।
बाबा ने कहा था,” इस डेढ़ दो-सौ साल के बच्चे चिनार को मैं आशीर्वाद भी नहीं दे सकता । यह तो मुझसे इतना बड़ा है।”
बाबा ने एक गोष्ठी में हमें चिनार कविताएँ ही नहीं सुनाई थीं बल्कि संस्कृत मे भी ताजा रची कई अद्भुत कविताएँ चाव से सुनाई थीं । ऐसी एक कविता में पार्वती का एक मौलिक बिंब विस्मयकारी था।यह गोष्ठी डाॅ शशि शेखर तोषखानी के इंदिरा नगर निवास पर हुई थी।
मुझे याद है वह कल्हण की राजतरंगिणी के जिक्र आने पर एक वरिष्ठ साहित्यिक मनीषी के ज़रा सा टोके जाने पर उनपर कुपित हो गये थे। देर तक शांत नहीं हुए थे।
” यह तुम कह रहे हो ? और कश्मीरी हो ?” वह नाराज़ होकर वहाँ से चलने को हुए ।तब शायद हमारे सब आदरणीयों ने उन्हें क्षमा भाव से मना लिया था।बोले थे ,” मैंने कल्हण को पी डाला है …”
तब उन्होंने संस्कृत कविताओं का भी पाठ किया था।
नागार्जुन ने कश्मीर की धरती के नीचे पनप रही साम्प्रदायिक और अलगाववादी धीमी धीमी आँच उन्हीं दिनों महसूस की थी।यह बात 1990 में हुए हमारे सामूहिक विस्थापन के बाद एकबार भारत भारद्वाज ने भी बताई थी -” मैं उन्हीं दिनों जान गया था 1981-82 में ही जब मेरी पोस्टिंग बारामुला में थी कि कश्मीर अब आपके रहने लायक नहीं रहा..आपको नहीं रहने देंगे वहाँ।”
क्षमा विस्थापन के जानलेवा आरंभिक दिनों में इलाहाबाद के बाद जब दिल्ली के शकरपुर मुहल्ले में एक छोटे से कमरे में गुज़र-बसर कर रही थीं तो एकदिन कहीं से पता जुटाकर बाबा नागार्जुन उनके पास आए थे। खुमि ( क्षमा को बाबा इसी नाम से बुलाते थे) और बच्चों का हाल जानने ।
मुझे भी खूब खूब ढूँढने रहे ।यह बात मुझे कहानीकार हरिकृष्ण कौल ने बताई थी कि बारबार पूछते थे मेरे बारे में ।कहां है ।क्या कर रहा है ।
और एक दिन कवि वीरेन डंगवाल को दिए जाने वाले रघुवीर सहाय पुरस्कार समारोह में बाबा मुझे अत्यंत वात्सल्य से मिले। यह कार्यक्रम ‘कान्स्टिट्यूशन क्लब ,नई दिल्ली में था। समारोह के अंत में मैं उनके पास गया ।वह मंच से उतर रहे थे।मैंने अभिवादन के साथ ही उन्हें अपना परिचय दिया, ” बाबा, मैं अग्निशेखर हूँ! “
उनके आंखे एक चमक उठीं। खींचकर गले से लगा लगाकर जिस तिस से कहते रहे, “यह अग्निशेखर है..अग्निशेखर है यह…यह है अग्निशेखर …”
मेरे लिए उस पल का वह अनिर्वचनीय अनुभव है।वह मेरी बाँह को पकड़े रहे और खींच खींच कर अपने सीने से लगाते रहे। बारबार मुझे निहारते। मैं स्तब्ध था। निःशब्द । तभी आयोजक उन्हें अपने साथ ले गये ।मैं उन्हें देखता रहा और आज भी इतने बरसों के बाद इन शब्दों में जैसे उन्हें साफ देख रहा हूँ सामने ।

पत्रकारों से खबर तो चाहिए पर उनकी कोई खबर नहीं लेता

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दुनिया भर में जो पत्रकार, लोगों की खबर लेते और देते रहते हैं वो कब खुद खबर बन जाते हैं इसका पता नहीं चलता है। पत्रकारिता के परम्परगत रेडियो, प्रिंट और टीवी मीडिया से बाहर, ख़बरों के नए आयाम और माध्यम बने हैं। जैसे जैसे ख़बरों के माध्यम का विकास हो रहा है, ख़बरों का स्वरूप और पत्रकारिता के आयाम भी बदल रहे हैं। फटाफट खबरों और 24 घंटे के चैनल्स में कुछ एक्सक्लूसिव दे देने की होड़, इतनी बढ़ी हैं कि ख़बरों और विडियो फुटेज के संपादन से ही खबर का अर्थ और असर दोनों बदल जा रहा है। पत्रकारों और पत्रकारिता में रूचि रखने वालों के लिए ब्लॉग, वेबसाइट, वेब पोर्टल, कम्युनिटी रेडियो, मोबाइल न्यूज़, एफएम, अख़बार, सामयिक और अनियतकालीन पत्रिका समूह के साथ-साथ आज विषय विशेष के भी चैनल्स और प्रकाशन उपलब्ध हैं। कोई ज्योतिष की पत्रिका निकल रहा है तो कोई एस्ट्रो फिजिक्स की, कोई यात्रा का चैनल चला रहा है तो कोई फैशन का। फिल्म, संगीत, फिटनेस, कृषि, खान-पान, स्वास्थ्य, अपराध, निवेश और रियलिटी शो के चैनल्स अलग-अलग भाषा में आ चुके हैं। धर्म आधारित चैनल्स के दर्शकों की संख्या बहुतायत में होने का परिणाम ये हुआ कि पिछले 10-15 वर्षों में, दुनिया के लगभग सभी धर्मों के अपने अपने चैनल्स की बाढ़ आ गई। जैसे-जैसे दर्शक अपने पसंद के चैनल्स की ओर गए, जीवन में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं के विज्ञापन भी उसी तर्ज़ पर अलग-अलग चैनल्स और भाषा बदल कर उन तक पहुँच गए। संचार क्रांति के आने और मोबाइल के प्रचार-प्रसार से ख़बरों का प्रकाश में आना आसान हो गया है। सोशल मीडिया के आने से एक अच्छी शुरुआत ये हुयी है कि ख़बरों को प्रसारित करने के अख़बार समूहों और चैनल्स के सीमित स्पेस के बीच आम लोगों को असीमित जगह मिली है। ख़बरें अब देश की सीमाओं की मोहताज नहीं रही हैं। ख़बरों की भरमार है। मोबाइल ने ‘सिटीजन जर्नलिज्म’ को बढ़ावा दिया है और आज मोबाइल रिकॉर्डिंग और घटना स्थल का फोटो, ख़बरों की दुनिया में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ की तरह उपयोग में आ रहा है। लेकिन मीडिया की इस विकास यात्रा में, पत्रकारों के जीवन में क्या बदलाव आया है? दुनिया के स्तर पर सबके अधिकारों की बात करने वाले, पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ी हैं। जर्नलिस्ट्स विदाउट बॉर्डर की रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में 66 पत्रकार मारे गए थे और इस तरह पिछले एक दशक में मारे जाने वाले पत्रकारों की संख्या 700 से ऊपर बताई जाती है। 66 मारे गए पत्रकारों में, बड़ी संख्या सीरिया, उक्रेन, इराक़, लीबिया जैसे देशों में मारे गए नागरिक पत्रकार और मीडिया कर्मियों की थी।
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लेख़क-​अश्विनी कुमार मिश्र
पत्रकार, राजगढ़, मीरजापुर!