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आयरिश कहानी-छिपा हुआ निशानची

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road under cloudy sky
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                        ( अनूदित आयरिश कहानी )
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                                 # छिपा हुआ निशानची
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                                                            — मूल लेखक : लायम ओ’ फ़्लैहर्टी
                                                            — अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

             जून की शाम का लम्बा झुटपुटा रात में विलीन हो गया । डब्लिन अँधेरे के आवरण में लिपटा था , हालाँकि चाँद की मद्धिम रोशनी ऊन जैसे बादलों के बीच से झाँककर गलियों और लिफ़े के काले जल पर एक फीका प्रकाश डाल रही थी । इस प्रकाश से पौ फटने का आभास हो रहा था । घिरी हुई चार अदालतों के आसपास तोपें गरज रही थीं । शहर में यहाँ-वहाँ मशीनगन और राइफ़ल की गोलियों के चलने की आवाज़ें रात की नीरवता को तोड़ रही थीं , जैसे अलग-थलग पड़े खेत-खलिहानों में कुत्ते रुक-रुक कर भौंक रहे हों । गणतंत्रवादियों और राष्ट्रवादियों के बीच गृह-युद्ध चल रहा था ।
               ओ’ कॉनेल पुल के पास की एक छत पर गणतंत्रवादी पक्ष का एक छिपा हुआ निशानची लेट कर चारों ओर नज़र रखे हुआ था । उसकी बगल में उसकी राइफ़ल पड़ी थी और उसके कंधे से दूरबीन लटक रही थी । उसका चेहरा किसी छात्र के चेहरे जैसा दुबला-पतला , तपस्वी-सा था  किंतु उसकी आँखें किसी कट्टरपंथी की
ठंडी , चमक भरी आँखों-सी लग रही थीं । वे चिंतन करने वाली गहरी आँखें थीं — एक ऐसे व्यक्ति की आँखें जो मौत को क़रीब से देखता रहा है ।
                भूखा होने की वजह से वह जल्दी-जल्दी एक सैंडविच खा रहा था । सुबह से बहुत उत्तेजित होने के कारण वह कुछ भी नहीं खा सका था । अपना सैंडविच पूरा खा कर उसने अपनी जेब में रखी बोतल में से व्हिस्की का एक घूँट लिया । फिर उसने वह बोतल वापस अपनी जेब में रख ली । यह सोचते हुए वह कुछ देर के लिए रुका कि क्या उसे सिगरेट जलाने का ख़तरा मोल लेना चाहिए । यह बेहद ख़तरनाक स्थिति थी । अँधेरे में रोशनी की चमक दिख सकती थी , जबकि शत्रु का छिपा हुआ निशानची चारों ओर नज़र रखे हुए था । पर फिर उसने यह ख़तरा उठाने का फ़ैसला किया ।
                 अपने होठों के बीच एक सिगरेट दबा कर उसने माचिस की तीली सुलगाई , धुएँ को जल्दी-जल्दी अंदर लिया और तीली बुझा दी । लगभग उसी समय एक गोली छत की मुँडेर से आ कर टकराई । छिपे हुए निशानची ने एक कश और लिया और सिगरेट बुझा दी । फिर उसने धीरे से गाली दी और रेंग कर बाईं ओर चला गया ।
                  बहुत सावधानी से वह थोड़ा-सा उठा और उसने मुँडेर के ऊपर झाँका । तभी एक रोशनी चमकी और एक गोली उसके सिर के ठीक ऊपर से सनसनाती हुई निकल गई । वह उसी समय नीचे झुक गया । उसने चमक देख ली थी । वह गली के दूसरी ओर की छत से आई थी ।
                  छत पर लुढ़कता हुआ वह पीछे स्थित एक बड़ी चिमनी के पास पहुँचा और धीरे से उसके पीछे उतना खड़ा हो गया जिससे कि उसकी आँखें मुँडेर से ऊँची स्थिति में आ जाएँ । वहाँ देखने के लिए कुछ भी नहीं था — सामने केवल नीले आकाश की पृष्ठभूमि में गली के उस पार स्थित मकान की छत की धुँधली रूपरेखा
थी । उसका शत्रु छिपा हुआ था ।
                  तभी एक बख़्तरबंद गाड़ी पुल पार करके इस ओर आई और धीरे-धीरे गली में आगे बढ़ने लगी । वह गली के दूसरी ओर पचास गज़ की दूरी पर आ कर रुक गई । छत पर छिपा हुआ निशानची गाड़ी के इंजन की मंद घुरघुराहट सुन सकता था । उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा । यह शत्रु की गाड़ी थी । वह गोली चलाना चाहता था , पर वह जानता था कि इससे कोई फ़ायदा नहीं होगा । उसके राइफ़ल की गोलियाँ उस दैत्याकार बख़्तरबंद गाड़ी के स्टील के कवच को कभी नहीं भेद पाएँगी ।
                   तभी बगल वाली गली के किनारे से होती हुई एक वृद्धा वहाँ पहुँची । उसका सिर एक फटी हुई शॉल से ढँका हुआ था । वह बख़्तरबंद गाड़ी में मौजूद एक आदमी से बात करने लगी । वह उस छत की ओर इशारा कर रही थी जहाँ छिपा हुआ निशानची लेटा था । एक भेदिया ।
                   बख़्तरबंद गाड़ी का द्वार खुला । एक आदमी का सिर और कंधे नज़र आए । वह छिपे हुए निशानची की ओर देख रहा था । निशानची ने अपनी राइफ़ल उठाई और गोली दाग दी । उस आदमी का सिर ज़ोर से बख़्तरबंद गाड़ी के किनारे से जा टकराया । वृद्धा तेज़ी से बगल वाली गली की ओर भागी । निशानची ने एक बार फिर गोली चलाई । वृद्धा गोल घूमी और एक चीख़ के साथ नाली में गिर गई ।
                   तभी गली के उस पार स्थित सामने वाली छत पर से एक गोली चली । निशानची के मुँह से एक गाली निकली और राइफ़ल उसके हाथ से छूटकर खड़खड़ाहट के साथ छत पर गिर गई । निशानची को लगा जैसे यह शोर मुर्दों को भी जगा देगा । वह अपनी राइफ़ल उठाने के लिए झुका । पर वह उसे नहीं उठा पाया । उसकी बाँह का ऊपरी हिस्सा बेकार हो गया था । ” मुझे गोली लगी है , ” वह बुदबुदाया ।
                  वह छत पर पेट के बल लेट कर रेंगता हुआ वापस मुँडेर तक पहुँचा । अपने बाएँ हाथ से उसने अपने दाएँ बाज़ू में लगी चोट को महसूस किया । ख़ून उसके कोट की आस्तीन में से रिस कर बाहर आ रहा था । कोई दर्द नहीं था । केवल एक भोथर-सी अनुभूति थी , जैसे उसका बाज़ू काट दिया गया हो ।
                  उसने जल्दी से जेब से अपना चाकू निकाला और मुँडेर के निचले  हिस्से पर रखकर उसे खोल लिया । गोली के लगने की जगह पर एक छोटा-सा छेद था । लेकिन बाज़ू के दूसरी ओर कोई छेद नहीं था । यानी गोली जा कर हड्डी में धँस गई
थी । गोली लगने से हड्डी ज़रूर टूट गई होगी । उसने ज़ख़्म के नीचे से बाँह मोड़ी ।  बाँह आसानी से मुड़ गई । दर्द सहने के लिए उसने अपने दाँत भींच लिए ।
                 उसने चाकू से मरहम-पट्टी वाली थैली फाड़ दी । आयोडीन की बोतल खोलकर उसने उस द्रव्य को घाव में रिसने दिया । दर्द की एक असह्य लहर उसकी देह में फैल गई । ज़ख़्म पर रुई और पट्टी रख कर उसने उसे बाँध दिया और अपने दाँतों की मदद से पट्टी में गाँठ लगा दी ।
                 फिर वह बिना हिले-डुले अपनी आँखें मूँदकर मुँडेर के निचले हिस्से से टिक कर  बैठ गया । वह अपने आत्म-बल के सहारे दर्द से उबरने की कोशिश कर रहा था ।
                 नीचे गली में सन्नाटा था । बख़्तरबंद गाड़ी तेज़ी से पुल के उस पार लौट गई थी । मशीनगन चलाने वाले का निर्जीव सिर गाड़ी के बाहर लटका हुआ था । वृद्धा का शव नाली में स्थिर पड़ा हुआ था ।
                 छिपा हुआ निशानची बहुत देर तक बिना हिल-डुले अपनी जगह पर पड़ा रहा । वह अपनी घायल बाँह को आराम देने के साथ ही अपने बच कर निकलने की योजना बना रहा था । वह इस घायल अवस्था में सुबह छत पर पड़ा हुआ नहीं पाया जाना चाहता था । लेकिन सामने वाली छत पर छिपा बैठा शत्रु निशानची उस के बच कर निकलने की राह में बाधा था । उस शत्रु को मार दिया जाना ज़रूरी था , पर घायल निशानची अपने ज़ख़्मी हाथ की वजह से भारी राइफ़ल नहीं उठा पा रहा था । अब उसके पास केवल एक रिवॉल्वर बचा था जिसकी मदद से उसे इस काम को अंजाम देना था । तब उसे एक योजना सूझी ।
                  अपनी टोपी उतार कर उसने उसे अपनी राइफ़ल की नली पर टाँग दी । फिर उसने धीरे-धीरे राइफ़ल को मुँडेर के ऊपर उठाया ताकि वह टोपी गली के उस पार की छत से दिखाई दे । ठीक उसी समय प्रतिक्रिया हुई । सामने की छत से चली एक गोली टोपी को बीच में से चीरती हुई निकल गई । छिपे हुए निशानची ने राइफ़ल टेढ़ी कर दी । टोपी मुँडेर के ऊपर से फिसल कर गली में जा गिरी । फिर राइफ़ल को बीच में से पकड़ कर उसने अपना बायाँ हाथ मुँडेर के ऊपर निर्जीव लगने वाली अवस्था में लटका दिया । कुछ पलों के बाद उसने राइफ़ल को फिसल कर गली में गिर जाने दिया । फिर उसने अपना हाथ घसीट कर खुद छत पर लुढ़क जाने का अभिनय किया ।
                    इसके बाद वह जल्दी से रेंगकर उठा और छिप कर गली के उस पार स्थित छत की ओर देखने लगा । उसकी चाल सफल हो गई थी । शत्रु के छिपे हुए निशानची ने टोपी और राइफ़ल को गली में गिरते हुए देख कर यह सोचा कि उसने अपने शत्रु को मार गिराया था । अब वह अपने छिपने की जगह से बाहर निकल कर चिमनियों की एक क़तार के सामने खड़ा था । वह दूसरी ओर देख रहा था । पश्चिमी आकाश की पृष्ठभूमि में उसका सिर साफ़ नज़र आ रहा था ।
                     छिपा हुआ गणतंत्रवादी निशानची मुस्कराया और उसने अपना रिवॉल्वर मुँडेर से ऊपर उठा कर निशाना लगाया । शत्रु के निशानची की उससे दूरी लगभग पचास गज की थी । धुँधली रोशनी में यह एक मुश्किल निशाना था । उसकी ज़ख़्मी दाईं बाँह में भयानक दर्द हो रहा था । पर उसने दम साध कर निशाना लगाया । अधीरता की वजह से उसके हाथों में कँपकँपी हो रही थी । होठों को आपस में दबाते हुए उसने एक लम्बी साँस ली और गोली दाग दी । एक कानफोड़ू आवाज़ हुई और उसकी बाँह झटका लगने की वजह से हिल गई ।
                     जब धुआँ छँटा तब सामने की छत की ओर झाँककर निशानची खुशी से चिल्लाया । उसके शत्रु को गोली लग गई थी । वह गली के उस पार स्थित सामने वाली छत की मुँडेर पर मरणासन्न अवस्था में लटका हुआ था । वह अपने लड़खड़ाते पैरों से खुद को सम्भालने का निरर्थक प्रयत्न कर रहा था , पर ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी सपने में आगे की ओर गिरता जा रहा था । उसकी पकड़ से छूट कर उसकी राइफ़ल मुँडेर से टकराई और फिर नीचे स्थित नाई की दुकान के डंडे से टकरा कर वह ज़ोर की आवाज़ के साथ ज़मीन पर जा गिरी ।
                      फिर सामने वाली छत की मुँडेर से फिसल कर शत्रु का वह मरणासन्न निशानची आगे की ओर गिरा । उसकी देह ने हवा में कई कलाबाज़ियाँ खाईं और अंत में वह ज़मीन पर एक भारी , भोथर आवाज़ के साथ धप्प् से गिरी । फिर वह वहीं स्थिर पड़ी रही ।
                      छिपे हुए निशानची ने अपने शत्रु को छत से नीचे गिरते हुए देखा और वह भीतर तक काँप गया । उसके भीतर युद्ध की लालसा नहीं रही , बल्कि अब उसे पछतावा महसूस हुआ । उसके माथे पर पसीने की बूँदें छलक आईं । अपने ज़ख़्म की वजह से वह पहले ही कमज़ोरी महसूस कर रहा था । यह गर्मी का एक लम्बा दिन
था । जब बिना ज़्यादा कुछ खाए-पिए छत पर लगातार छिप कर निगरानी करने की थकी हालत में उसने अपने मृत शत्रु की क्षत-विक्षत गिरी देह को देखा , तो उसके भीतर जुगुप्सा-सी उठी । उसके दाँत खुद-ब-खुद किटकिटाने लगे । वह कुछ-कुछ बड़बड़ाने लगा । वह युद्ध को कोसने लगा , अपने-आप को कोसने लगा , सब को कोसने लगा ।
                       उसने अपने हाथ में मौजूद रिवॉल्वर की ओर देखा जिसमें से अब भी धुआँ निकल रहा था । गाली देते हुए उसने रिवॉल्वर को छत पर अपने पैरों के पास फेंक दिया । छत से टकराते ही धाँय की आवाज़ के साथ रिवॉल्वर चल गया और उसमें से चली एक गोली निशानची के सिर के क़रीब से सनसनाती हुई निकल गई । इस घटना से वह स्तब्ध रह गया । डर के मारे उसकी अक़्ल ठिकाने आ गई । उसने अपनी उत्तेजना को क़ाबू किया । जल्दी ही उसके ज़हन में मौजूद भय के बादल छँट गए और वह हँसने लगा ।
                        अपनी जेब से व्हिस्की की बोतल निकाल कर उसने एक ही घूँट में बोतल ख़ाली कर दी । व्हिस्की के प्रभाव से वह बेपरवाह महसूस करने लगा । फिर उसने छत से हट कर अपने कम्पनी कमांडर को ढूँढ़ने का फ़ैसला किया ताकि वह उन्हें यहाँ घटी घटनाओं के बारे में बता सके । चारों ओर एक सघन चुप्पी थी । अब गलियों में से गुज़रने पर ज़्यादा ख़तरा नहीं था । निशानची ने अपना रिवॉल्वर उठा कर अपनी जेब में डाल लिया । फिर वह रोशनदान में से रेंगकर नीचे के मकान में दाख़िल हो
गया ।
                        मकान में से निकल कर जब निशानची बाहर गली में पहुँचा तो अचानक उसे शत्रु के उस निशानची को देखने की उत्सुकता हुई जिसे उसने मार गिराया था । उसने मन-ही-मन यह माना कि शत्रु का वह निशानची जो कोई भी था , वह एक सधा हुआ निशानेबाज़ था । उसने सोचा , क्या मैं उसे जानता था । शायद सेना के दोफाड़ होने से पहले वह मेरी ही कम्पनी में होगा । उसने शत्रु के निशानची की लाश को पलट कर उसे देखने का ख़तरा उठाने का फ़ैसला किया । उसने ओ’ कॉनेल गली की ओर झाँककर देखा । गली के उस ओर भारी गोलीबारी हो रही थी , पर इस ओर सब कुछ शांत था । निशानची ने तेज़ी से दौड़कर गली पार की । तभी उसके आस-पास किसी मशीनगन से चली गोलियाँ बरसने लगीं । गोलियों से बचने के लिए उसने शत्रु के निशानची के शव के पास मुँह के बल छलाँग लगा दी । मशीनगन से चलने वाली गोलियों की बौछार बंद हो गई ।
                       तब निशानची ने शत्रु निशानची के शव को पलट कर देखा । वह सन्न रह गया क्योंकि उसके सामने उसके अपने मृत भाई का चेहरा था ।

                        ————०————

प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
           A-5001 ,
           गौड़ ग्रीन सिटी ,
           वैभव खंड ,
           इंदिरापुरम ,
           ग़ाज़ियाबाद – 201014
           ( उ.प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com

लातिनी अमेरिकी कहानी -एक पीला फूल

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    अनूदित लातिनी अमेरिकी कहानी
                 
                                #  एक पीला फूल
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                                                     — मूल : जूलियो कोर्टाज़ार
                                                     — अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

         हम अमर हैं । मैं जानता हूँ , सुनने में यह किसी चुटकुले जैसा लगता है । मैं जानता हूँ क्योंकि मैं इस नियम के अपवाद से मिला । मैं एकमात्र नश्वर व्यक्ति से मिला । उसने मुझे अपनी कहानी कैम्ब्रॉन के एक शराबख़ाने में सुनाई । वह पिए हुए था इसलिए वह बिना फ़िक्र किए मुझे सच्चाई बता सका , हालाँकि शराबख़ाने का मालिक , वहाँ काम करने वाले लोग और वहाँ नियमित रूप से आने वाले पियक्कड़ — सभी उसकी बातें सुन कर इतना हँस रहे थे कि हँसते-हँसते उनकी आँखों से दारू बाहर आने लगी थी । मेरे चेहरे को देखकर उसे लगा होगा कि मुझे उसकी कहानी अच्छी लग रही है । इसलिए धीरे-धीरे वह मेरी ओर खिसक आया । अंत में हम दोनों कोने की एक मेज़ की ओर चले गए ताकि हम वहाँ बैठकर पी सकें और आराम से बातें कर सकें ।
          उसने मुझे बताया कि वह नौकरी से अवकाश ग्रहण कर चुका था और उसकी पत्नी गर्मी के इस मौसम में अपने माता-पिता के पास रहने चली गई थी । हालाँकि उसके यह कहने के लहज़े से मुझे ऐसा लगा जैसे उसकी पत्नी उसे छोड़ गई थी । दिखने में वह ज़्यादा बूढ़ा नहीं लग रहा था और बेवक़ूफ़ तो बिलकुल नहीं । उसका चेहरा सूखा हुआ-सा था और उसकी आँखें तपेदिक के मरीज़ जैसी थीं । सच कहूँ तो वह ग़म ग़लत करने के लिए पी रहा था , जैसा कि उसने शराब का अपना पाँचवॉं गिलास शुरू करते हुए बताया । लेकिन मैं उस शख़्स में पेरिस की गंध नहीं ढूँढ़ पाया — पेरिस की वह ख़ास गंध जिसे हम विदेशी आसानी से ढूँढ़ लेते हैं । उसके नाख़ून क़रीने से कटे हुए थे और उन पर कोई दाग-धब्बे नहीं थे ।
         उसने मुझे बताया कि कैसे उसने इस लड़के को पंचानवे नम्बर की बस में देखा था । वह लगभग तेरह साल का लड़का था । वह बूढ़ा कुछ देर तक उसे टकटकी बाँधे देखता रहा और तब अचानक उसे यह हैरानी भरा अहसास हुआ कि दिखने में वह लड़का हू-ब-हू उसी की तरह लगता था , कम-से-कम उस लड़के की उम्र में वह जैसा दिखता था , ठीक वैसा । धीरे-धीरे वह पक्के तौर पर इस नतीजे पर पहुँचा कि वह लड़का उसकी किशोरावस्था का हमशक्ल ही था । लड़के की एक-एक चीज़ हू-ब-हू उस के जैसी थी — उसका चेहरा , उसके हाथ , माथे पर गिर आए उसके घुँघराले बाल , उसकी आँखें । और इनसे भी ज़्यादा उसका शर्मीलापन , कहानियों की किताब में शरण ढूँढ़ने का उसका ढंग , पीछे की ओर सिर झटक कर अपने माथे पर गिर आई लटों को हटाने का उसका तरीका , और अनाड़ियों जैसी उसकी हरकतें । लड़के की शक़्ल-सूरत और हाव-भाव उससे इतना ज़्यादा मिलते थे कि उसे इस बात पर हँसी आ गई , लेकिन जब वह लड़का रेनेस नाम की जगह पर बस से उतरा तो वह बूढ़ा भी उसके पीछे-पीछे वहीं बस से उतर गया , हालाँकि उसे मौंटपारनैसे जाना था जहाँ उसका एक दोस्त उसका इंतज़ार कर रहा था ।
        लड़के से बात करने का बहाना ढूँढ़ते हुए बूढ़े ने उससे किसी ख़ास सड़क के बारे में पूछा और जवाब में उसने वह आवाज़ सुनी जो ठीक उसकी किशोरावस्था की आवाज़ जैसी थी । वह लड़का भी उधर ही जा रहा था और कुछ देर तक वे दोनों चुपचाप एक साथ चलते रहे । तनाव से भरे उस पल में अचानक उसके ज़हन में जैसे कोई रहस्योद्घाटन हो गया ।
       मोटे तौर पर बात यह थी कि उसने उस लड़के का घर देख लेने का बहाना ढूँढ़ लिया । साथ ही उसने क़िले जैसे बने उस फ़्रांसीसी घर में बेरोक-टोक आने-जाने का तरीक़ा भी ढूँढ़ लिया । दरअसल , वह कुछ समय तक एक गुप्तचर के रूप में काम कर चुका था । फिर भला उसकी यह ख़ूबी कब काम आती ।
        उस लड़के के घर में बदहाली की एक मर्यादित गंध थी । वहाँ अपनी उम्र से बूढ़ी दिखने वाली उसकी माँ थी , काम से अवकाश ग्रहण कर चुके उसके मामा थे और दो पालतू बिल्लियाँ थीं । बाद में उनसे घुलना-मिलना ज़्यादा मुश्किल नहीं रहा । संयोग से बूढ़े के चचेरे भाई का बेटा उस लड़के का अच्छा दोस्त था और वह बूढ़ा इसी बहाने उस लड़के ल्यूक से मिलने हर हफ़्ते उसके घर जाने लगा । लड़के की माँ बूढ़े को गरम-गरम कॉफ़ी पिलाती और वे दोनों युद्ध , नौकरी और ल्यूक के बारे में बातें करते रहते ।
         जो बात एक आकस्मिक खोज से शुरू हुई थी वह अब रेखागणित के प्रमेय-सी विकसित हो रही थी । यह एक ऐसी शक़्ल ले रही थी जिसे लोग किस्मत कहते
हैं । यदि रोज़मर्रा के शब्दों में कहें तो ल्यूक दोबारा अस्तित्व में आया उसी बूढ़े का रूप था । यानी नश्वरता जैसी कोई चीज़ नहीं थी । हम सभी अमर थे ।
         ” हम सब के सब अमर हैं , बुज़ुर्गवार ! हालाँकि कोई इसे साबित नहीं कर सका था , किंतु इसे मेरे साथ होना था — पंचानवे नम्बर की बस पर । जैसे पूरे तंत्र में थोड़ा-सा खोट । जैसे लहरदार समय का दोहराव। मेरा मतलब है , हू-ब-हू वही ।
जैसे उसने किशोरावस्था की मेरी देह धारण कर ली हो । जैसे वह मेरा अवतार हो । लेकिन उसी समय में । मेरे बाद नहीं । यदि ढंग से सोचा जाए तो जब तक मेरी मृत्यु नहीं हो जाती , ल्यूक को पैदा ही नहीं होना चाहिए था । और फिर उस अनोखे हादसे के बारे में आप क्या कहेंगे जब शहर की भीड़ भरी बस में मेरी मुलाक़ात अपने ही पुराने प्रतिरूप से हो गई ! है न हैरानी की बात ? लेकिन ऐसे मामले में आप भौंचक्के रह जाते हैं । आपको लगता है कि ऐसा कैसे हो सकता है । कहीं आपका दिमाग़ तो नहीं घूम गया । हालत यह हो जाती है कि आपको अपने चित्त को शांत करने के लिए दवाइयाँ खानी पड़ती हैं ।
          ” जब मैं अपने मन की बात लोगों से कहता तो वे मुझ पर हँसते । मैं साफ़ देख सकता था कि वह मेरी किशोरावस्था का प्रतिरूप था , बल्कि वह भविष्य में भी ठीक मेरी ही तरह बनने वाला था । यह सिरफिरा जो अभी आप से बात कर रहा है ,
ठीक उसकी तरह । उस के हाव-भाव , उसका व्यवहार , उसका पूरा व्यक्तित्व हू-ब-हू
मेरा ही था । वह ठीक मेरी तरह खेलता था । वैसे ही गिरता और चोट खाता था ।
मेरी ही तरह उसके पैरों में भी मोच आ जाती थी । और वह मेरी ही तरह घबराता और शर्माता था ।
            ” ल्यूक की माँ मुझे अपने बेटे की हर बात बताती जबकि वह बेचारा लज्जित या परेशान-सा वहीं खड़ा हो कर यह सब सुन रहा होता । उसकी नितांत निजी और अंतरंग बातें भी … उसके बचपन की घटनाएँ — उसके पहले दाँत के उगने का क़िस्सा , जब वह आठ साल का था तो कैसे चित्र बनाता था , उसकी बीमारियाँ … उसकी माँ को बातें करना अच्छा लगता था । एक बात तो तय थी कि उसे कभी मुझ पर संदेह नहीं हुआ । उसके मामा मेरे साथ शतरंज खेलते थे । दरअसल मैं उसके परिवार का हिस्सा बन गया था । यहाँ तक कि कभी-कभी महीने के अंत में तंगी के दिनों में मैं उन्हें घर चलाने के लिए पैसे भी उधार दे देता था ।
             ” ल्यूक के अतीत के बारे में जानना आसान था । घर के बुज़ुर्गों से बातचीत के दौरान मासूम से सवाल पूछने भर की देर थी । चाचा जी के गठिया , देश की राजनीति और बढ़ती बेईमानी की बातों के बीच ल्यूक का ज़िक्र भी आ जाता ।
इसलिए शतरंज की चालों और मांस की क़ीमत में वृद्धि की गम्भीर चर्चा के बीच मुझे ल्यूक के बचपन की घटनाओं के बारे में भी पता चला और छोट-छोटे साक्ष्य मिलकर ठोस सबूत बन गए । लेकिन मैं चाहता हूँ कि आप मेरी बात ठीक से समझें । इस बीच हम बैरे से कुछ और मँगवाते हैं ।
             ” तो मैं कह रहा था कि बचपन में मैं जैसा था , ल्यूक इस समय ठीक वैसा ही था । लेकिन वह हू-ब-हू मेरा प्रतिरूप नहीं था । उसे समरूप कह सकते हैं ,
 समझे ? मेरा मतलब है , जब मैं सात साल का था तो मेरी कलाई की हड्डी उतर गई थी जबकि उस उम्र में ल्यूक के कंधे की हड्डी उतर गई थी । नौ की उम्र में मुझे
‘खसरा’ हो गया था जबकि उसे इसी उम्र में ऐसा बुखार हो गया था जिसमें उसकी देह पर लाल चकत्ते निकल आए थे । ‘ खसरा ‘ की वजह से मैं दो हफ़्तों तक बीमार रहा था जबकि ल्यूक पाँच दिनों में ठीक हो गया था । देखिए , समय के साथ विज्ञान तरक़्क़ी करता ही है । तो यह सारा मामला एक दोहराव था ।
            ” चलिए , मैं आपको एक और उदाहरण देता हूँ । कोने पर जो बेकरी की दुकान है , उसका मालिक नेपोलियन का प्रतिरूप है । लेकिन वह यह बात नहीं जानता क्योंकि प्रतिरूप में कोई बदलाव नहीं हुआ है । मेरा मतलब है , नानबाई की दुकान का वह मालिक कभी भी शहर की किसी बस में असली नेपोलियन से नहीं मिल पाएगा ; पर यदि किसी तरह उसे इस सच्चाई का पता चला तो शायद वह यह जान पाए कि वह नेपोलियन का दोहराव है , कि वह अब भी नेपोलियन को ही दोहरा रहा है । बर्तन धोने वाले व्यक्ति से एक ठीक-ठाक बेकरी का मालिक बनने तक की उसकी यात्रा में कॉर्सिका से फ़्रांस के सिंहासन तक की नेपोलियन की यात्रा का साम्य ढूँढ़ा जा सकता है । और यदि उस बेकरी के मालिक ने ध्यान से अपने जीवन की घटनाओं का अध्ययन किया तो उसे अपने जीवन में भी नेपोलियन के जीवन से मेल खाती घटनाओं का अंबार दिखने लगेगा — मिस्र का अभियान , वाणिज्य-दूतावास की घटना , ऑस्टरलिट्ज़ का युद्ध आदि । सम्भवत: उसे इस बात का आभास भी हो जाए कि कुछ बरसों के बाद उसकी बेकरी के साथ कुछ गड़बड़ होने वाली है । हो सकता है , उसका अंत भी नेपोलियन की तरह ही सेंट हेलेना जैसी किसी जगह में हो — छठे माले पर स्थित किसी एक कमरे वाली तंग जगह में । क्या उसके लिए यह भी नेपोलियन की पराजय की तरह नहीं होगा ? चारो ओर एकाकीपन के जल से घिरा हुआ । तब भी उस बेकरी पर गर्व करता हुआ जो उसके जीवन में किसी राजसी ठाठ से कम नहीं थी । आप समझे ? “
              देखिए , मैं सब कुछ समझ रहा था , लेकिन मुझे यह भी लगा कि हम सभी लगभग उसी उम्र में बचपन में बीमार हुए होंगे और फ़ुटबॉल खेलते हुए तक़रीबन हम सभी ने कुछ-न-कुछ तोड़ा होगा ।
              ” मैं जानता हूँ , मैंने प्राय: दिखने वाले सामान्य संयोगों के अलावा और किसी चीज़ का उल्लेख नहीं किया है । उदाहरण के लिए , यदि आप बस में हुए रहस्योद्घाटन पर विचार करें तो भी ल्यूक का मेरे जैसा दिखना किसी गम्भीर महत्त्व की बात नहीं कही जा सकती । लेकिन जो बात महत्त्वपूर्ण थी वह थी घटनाओं का क्रम । और इसे समझा पाना मुश्किल है क्योंकि इसमें चरित्र और स्वभाव शामिल हैं , ग़ैर-सटीक स्मृतियाँ शामिल हैं , बचपन की पौराणिक कथाएँ शामिल हैं । जब मैं ल्यूक की उम्र का था , तो मैं एक बहुत बुरे समय से गुज़र रहा था जिसकी शुरुआत एक लम्बी बीमारी से हुई थी । स्वास्थ्य-लाभ के बीच में ही कुछ मित्रों के साथ खेलते हुए मेरी बाँह टूट गई । जैसे ही मेरी बाँह ठीक हुई , मुझे अपने स्कूल के एक मित्र की बहन से बेइंतहा प्यार हो गया । हे ईश्वर , यह ऐसा दुखदायी था जैसे आप उस लड़की से नज़रें नहीं मिला पा रहे हों क्योंकि वह आपका मज़ाक उड़ा रही है । ल्यूक भी बीमार पड़ा और जब वह कुछ ठीक होने लगा था , वे उसे लेकर सर्कस देखने गए जहाँ वह फिसल कर गिर गया और उसके टखने का जोड़ उखड़ गया । इस घटना के कुछ ही समय बाद एक दिन दोपहर में ल्यूक की माँ ने संयोग से उसके हाथों में लिपटा हुआ एक छोटा-सा रुमाल देखा जब वह खिड़की के सामने खड़ा रो रहा था। । उसकी माँ ने वह रुमाल पहले कभी नहीं देखा था । “
                 चूँकि किसी को तो इस चर्चा को आगे बढ़ाना ही था , इसलिए मैंने कहा कि छिछला प्यार चोटों , टूटी हड्डियों और सीने में दर्द का अपरिहार्य सहगामी होता
है । लेकिन मुझे यह मानना पड़ा कि खिलौने वाले हवाई जहाज का मामला अलग क़िस्म का था । वह हवाई जहाज ल्यूक को अपने जन्म-दिन पर मिला था जिसके नोदक को रबड़-बैंड चलाता था ।
                 ” जब ल्यूक को यह तोहफ़ा मिला तो मुझे उत्थापक-यंत्र वाला अपना उपहार याद आ गया जो मेरी माँ ने मुझे तब दिया था जब मैं चौदह साल का था । और मुझे याद आ गया कि उसका क्या हुआ था । मैं बाहर बगीचे में था हालाँकि आँधी आने वाली थी । बादलों की गड़गड़ाहट साफ़ सुनाई दे रही थी । गली से लगे मुख्य दरवाज़े के पास उगे पेड़ के नीचे पड़ी मेज पर मैं उस समय मशीन को जोड़ रहा था । तभी किसी ने मुझे मकान में से पुकारा और मुझे एक मिनट के लिए भीतर जाना
पड़ा । किंतु जब मैं लौटा तो मैंने पाया कि मेरा बक्सा और उत्थापक-यंत्र ग़ायब थे और मुख्य द्वार पूरा खुला हुआ था । निराशोन्मत्त हो कर चीख़ता हुआ मैं बाहर गली की ओर भागा लेकिन वहाँ कोई भी नहीं था । उसी पल सड़क के उस पार मकान पर बिजली गिरी ।
               ” यह सब एक झटके में हो गया और मैं यही सब याद कर रहा था जब ल्यूक अपने हवाई-जहाज के खिलौने को उतनी ही खुशी से देख रहा था जितनी खुशी से मैंने अपने उत्थापक-यंत्र को देखा था । उसकी माँ मेरे लिए कॉफ़ी ले आई और हम आपस में सामान्य बातचीत करने लगे । तभी हमें एक चीख़ सुनाई दी । ल्यूक दौड़ कर कमरे की खिड़की तक गया था और वहाँ ऐसे खड़ा था जैसे वह खिड़की में से बाहर कूद जाना चाहता था । उसका चेहरा पीला पड़ गया था और उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे । किसी तरह वह हमें बता पाया कि उसका हवाई जहाज वाला खिलौना हवा में मुड़ा था और आधी खुली खिड़की में से होता हुआ बाहर जा कर ग़ायब हो गया था । वह हवाई जहाज हमें अब कभी नहीं मिलेगा — ल्यूक बुदबुदाता रहा । वह तब भी सुबक रहा था जब हमें निचली मंज़िल पर शोर सुनाई दिया । तभी उसके चाचा यह ख़बर ले कर दौड़ते हुए आए कि गली के उस पार स्थित मकान में आग लग गई थी । अब आप समझे ? जी हाँ , थोड़ी शराब और लेना उचित होगा । “
               बाद में जब मैंने कुछ नहीं कहा तो उस बूढे ने आगे कहना जारी रखा । अब वह केवल ल्यूक के बारे में सोच रहा था , ल्यूक की किस्मत के बारे में । उसकी माँ ने यह फ़ैसला किया था कि उसे शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक व्यावसायिक विद्यालय में भेजा जाएगा । उसकी माँ जिसे ‘ उसके जीवन का मार्ग ‘ बता रही थी और कह रही थी कि यह दिशा अच्छी और संतोषजनक होगी , वह मार्ग तो पहले से ही उसके लिए खुला था । यदि वह ल्यूक के बारे में उन्हें कुछ कहता तो उसकी माँ और उसके मामा — दोनों उसे पागल समझते और ल्यूक को उससे दूर कर देते । किंतु केवल वह , जो अपनी ज़बान नहीं खोल सकता था , केवल वह ही उन्हें यह बता सकता था कि ल्यूक के बारे में कुछ भी करने का कोई फ़ायदा नहीं था । वे कुछ भी करते , नतीजा वही रहने वाला था । अपमान , एक भयंकर दिनचर्या , एक के बाद एक आने वाले नीरस बरस , दुखद विपत्तियाँ — ये सभी उसके कपड़ों और उसकी आत्मा को लगातार कुतरते रहने वाले थे । इनकी वजह से कुढ़ा हुआ और एकाकी ल्यूक किसी रात्रिकालीन क्लब की शरण में चला जाने वाला था ।
                लेकिन इस सारे मामले में ल्यूक की नियति ही सबसे बुरी बात नहीं थी । सबसे ख़राब बात यह थी कि समय आने पर ल्यूक की मृत्यु हो जानी थी , और फिर कोई और व्यक्ति ल्यूक के और अपने जीवन के नमूने को फिर से जीने वाला था , जब तक कि उसकी भी मृत्यु नहीं हो जाती और फिर कोई अन्य व्यक्ति इस चक्र का हिस्सा नहीं बन जाता । ऐसा लग रहा था जैसे उस बूढ़े के लिए ल्यूक अभी से महत्त्वहीन हो गया था । अनिद्रा-रोग से ग्रस्त वह बूढ़ा रात में ल्यूक के अलावा उन सभी व्यक्तियों के बारे में सोचता रहता था जो इस चक्र का हिस्सा बनने वाले थे — वे अन्य जिनके नाम रॉबर्ट या क्लॉड या माइकेल होने थे । जैसे यह सब किसी अनंत विस्तार का सिद्धांत हो । जैसे बिना जाने बेचारे अनंत लोग किसी नमूने को दोहरा रहे हों , हालाँकि उन्हें अपनी इच्छाशक्ति और कुछ भी चुनने की आज़ादी पर पूरा भरोसा हो । बूढ़े के आँसू उसके बीयर के गिलास में घुल रहे थे , हालाँकि उस गिलास में बीयर नहीं , शराब पड़ी थी । आप इसके बारे में कर ही क्या सकते थे , कुछ भी नहीं ।       
                  ” जब मैं उन्हें यह बताता हूँ कि कुछ माह बाद ल्यूक की मृत्यु हो गई तो वे मुझ पर हँसते हैं । वे मूढ़ यह सब समझने में असमर्थ हैं … जी हाँ , अब आप मेरी ओर ऐसी निगाहों से मत देखिए । कुछ महीनों के बाद ल्यूक की मृत्यु हो गई । उसकी बीमारी फेफड़ों की सूजन के रूप में शुरू हुई । इसी उम्र में मुझे जिगर की सूजन की बीमारी हो गई थी । मुझे अस्पताल में भर्ती करवाया गया था जबकि ल्यूक की माँ ने उसे घर पर ही रख कर उसकी देख-भाल करने की ज़िद की ।
                ” मैं उससे मिलने हर रोज़ जाता था । कभी-कभी ल्यूक के साथ खेलने के लिए मैं अपने भतीजे को भी अपने साथ ले जाता । उस घर में इतनी बदहाली और दुख-तकलीफ़ें थीं कि मेरा वहाँ जाना उन लोगों के लिए हर तरह से सांत्वना का काम करता था । मैं ल्यूक के साथ ज़्यादा-से-ज़्यादा समय बिताता । कभी-कभी मैं उसके लिए सूखी हिल्सा मछलियाँ या फल , कचौरियाँ वग़ैरह ले जाता ।
               ” एक बार मैंने उसकी माँ से उस दवाई की दुकान का ज़िक्र किया जो मुझे विशेष छूट देती थी । फिर तो ल्यूक की दवाइयाँ ख़रीदने की इजाज़त भी मुझे मिल गई । अंत में उन्होंने ल्यूक की सेवा-सुश्रुषा की पूरी ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी । आप समझ सकते हैं कि ऐसे किसी मामले में , जब डॉक्टर बिना किसी विशेष फ़िक्र के कभी भी आ-जा सकता है , कोई भी इस बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं देता कि रोगी की बीमारी के अंतिम लक्षणों का उसके पहले इलाज से कोई लेना-देना है या नहीं … आप मेरी ओर ऐसे क्यों देख रहे हैं ? क्या मैंने कोई ग़लत बात की है ? “
              नहीं , नहीं । उसने कुछ भी ग़लत नहीं कहा था , ख़ास करके तब जब वह शराब पीने की वजह से नशे में था । बल्कि यदि आप ख़ास तौर पर किसी भयंकर दृश्य की कल्पना न करें तो बेचारे ल्यूक की मृत्यु से यही साबित होता था कि यदि किसी की कल्पना-शक्ति उर्वर हो , तो वह पंचानवे नम्बर की बस से एक स्वप्न-चित्र शुरू कर सकता है जिसकी परिणति शांतिपूर्वक मर रहे किसी लड़के के बिस्तर के किनारे हो सकती है । मैंने केवल उसे शांत करने के लिए ‘नहीं’ कहा था । अपनी कहानी दोबारा शुरू करने से पहले वह कुछ देर तक शून्य में ताकता रहा ।
              ” ठीक है , आप जो चाहे समझें । सच्चाई यह है कि ल्यूक की अंत्येष्टि के कुछ हफ़्ते बाद पहली बार मुझे कुछ ऐसा महसूस हुआ , जिसे आप प्रसन्नता कह सकते हैं । मैं अब भी कभी-कभार उसकी माँ से मिलने जाता रहता । अपने साथ कभी-कभी मैं महँगे बिस्किट का पैकेट भी ले जाता , किंतु अब मेरे जीवन में न ल्यूक की माँ का , न ही उस मकान का कोई अर्थ रह गया था । यह ऐसा था जैसे मैं पहला नश्वर व्यक्ति होने की अद्भुत निश्चितता में डूब गया था , यह महसूस करते हुए कि शराब पीते हुए दिन-प्रतिदिन मेरे जीवन का क्षरण हो रहा था । अंत में किसी-न-किसी समय , किसी-न-किसी जगह इस जीवन की इति हो जानी थी ।
              ” मेरा जीवन किसी अन्य अज्ञात वृद्ध के जीवन की नियति का दोहराव भर था जिसके बारे में मुझे छोड़ कर किसी को नहीं पता था , किंतु केवल मैं जानता था कि अब कोई और ल्यूक इस मूढ़ता के चक्र का हिस्सा बन कर इस मूर्खतापूर्ण जीवन को नहीं दोहराने वाला था । इस अनुभूति के पूरे अर्थ को समझिए , बुज़ुर्गवार , और मेरी खुशी के मेरे साथ रहने तक मुझसे रश्क कीजिए । “
              ज़ाहिर तौर पर यह खुशी ज़्यादा समय तक क़ायम नहीं रह सकी थी । सामान्य रेस्त्रां और देसी शराब से यह साबित होता था । उसकी आँखें भी ऐसी चमक से दीप्त थीं जिसका देह से कोई लेना-देना नहीं था । जो भी हो , उस बूढ़े ने अपनी रोज़मर्रा की सामान्यता का पूरा मज़ा लेते हुए कुछ महीने जिए थे । हालाँकि उसकी पत्नी उसे छोड़ गई थी और उसका पचास बरस का जीवन किसी खंडहर-सा था , वह अपनी न छीनी जा सकने वाली नश्वरता के प्रति आश्वस्त था । एक दोपहर लग्ज़ेम्बौर्ग बाग़ से गुज़रते हुए उसने एक पीला फूल देखा ।
              ” वह क्यारी के किनारे पर था , एक सामान्य पीला फूल । मैं सिगरेट जलाने के लिए वहाँ रुका और उसे देख कर मेरा ध्यान भंग हुआ । ऐसा लगा जैसे वह फूल भी मेरी ओर देख रहा था । आप समझ सकते हैं न , कभी-कभी चीज़ों के बीच कैसा सम्पर्क स्थापित हो जाता है … आप समझ रहे हैं न । कभी-न-कभी सभी इसे महसूस करते हैं । शायद इसे ही लोग सुंदरता कहते हैं । दरअसल मुझे वह फूल बेहद सुंदर लगा । और तब यह अहसास मुझ पर शिद्दत से हावी हुआ कि एक दिन मैं मर कर सदा के लिए ख़त्म हो जाने वाला था । वह फूल बेहद सुंदर था और भविष्य में आने वाले लोगों के लिए फूल हमेशा मौजूद होंगे । और तभी मैं अनस्तित्व और नगण्यता के बारे में सब कुछ जान गया । मुझे लगा था कि मुझे शांति मिल गई थी । मेरे साथ ही इस श्रृंखला का अंत हो जाना था । मेरी मृत्यु के साथ ही । ल्यूक की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी । भविष्य में मेरे किसी समरूप के लिए किसी फूल को मौजूद नहीं रहना था । कहीं कुछ भी नहीं रहना था । कुछ भी नहीं । असल बात यह थी कि यह फूल दोबारा कभी अस्तित्व में नहीं आने वाला था ।
               सिगरेट का जल रहा हिस्सा मेरी उँगलियों को जला रहा था । मुझे जलन और टीस महसूस हुई । अगले चौराहे पर मैं एक बस में चढ़ गया जो कहीं जा रही थी — कहाँ जा रही थी , यह महत्वपूर्ण नहीं था । मेरी बेवक़ूफ़ी देखिए कि मैं चारो ओर हर चीज़ को ग़ौर से देखने लगा । सड़क पर दिखाई दे रहे हर आदमी को । बस में मौजूद हर व्यक्ति को । जब बस का अंतिम स्टॉप आया तो मैं उस बस से उतर कर किसी और बस में चढ़ गया जो उपनगर की ओर जा रही थी ।
                पूरी दोपहर , बल्कि रात होने तक मैं बसों पर से चढ़ता-उतरता रहा । सारा समय मैं उस फूल और ल्यूक के बारे में सोचता रहा । मैं यात्रियों के बीच ल्यूक से मिलते-जुलते चेहरे ढूँढ़ता रहा । कोई ऐसा व्यक्ति जिसका चेहरा मुझसे या ल्यूक से मिलता-जुलता हो । कोई ऐसा व्यक्ति जो दोबारा मेरा प्रतिरूप बन सके । कोई ऐसा व्यक्ति जिसे देख कर मैं जान जाऊँ कि मैं खुद को ही देख रहा हूँ । कोई हो जो मेरे जैसा हो । और मैं उससे कुछ भी कहे बिना उसे चला जाने दूँ । लगभग उसे बचा कर सुरक्षित रखते हुए ताकि वह जा कर बेचारगी से भरा अपना मूर्खतापूर्ण जीवन जी सके । अपना मूढ़ , निष्फल जीवन । तब तक जब तक कोई और ऐसे ही मूढ़ , निष्फल जीवन को दोहराने न आ जाए । और फिर कोई और ऐसे ही मूढ़ , निष्फल जीवन को दोहराए । और फिर कोई और …
                 मैंने बिल के पैसे अदा कर दिए ।

                           ————०————

प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
           A-5001 ,
           गौड़ ग्रीन सिटी ,
           वैभव खंड ,
           इंदिरापुरम् ,
           ग़ाज़ियाबाद – 201014
           ( उ. प्र. )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

इतालवी कहानी-अनावृत उरोज

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अनूदित इतालवी कहानी
                     
                               अनावृत उरोज
                             —————
                                                       — मूल लेखक : इतैलो कैलविनो
                                                       — हिंदी अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

               श्री पालोमर एक लगभग सुनसान समुद्र-तट पर चले जा रहे हैं । उन्हें वहाँ इक्के-दुक्के स्नान करने वाले ही दिखते हैं । तट की रेत पर अनावृत उरोजों वाली एक युवती धूप सेंकती हुई लेटी है । श्री पालोमर स्वभाव से ही एक सतर्क व्यक्ति हैं । वे समुद्र और क्षितिज की ओर देखने लगते हैं । वे जानते हैं कि ऐसे अवसर पर किसी
अजनबी के अचानक क़रीब आ जाने पर स्त्रियाँ जल्दी से स्वयं को ढँक लेती हैं । पर उन्हें यह बात इसलिए सही नहीं लगती क्योंकि यह शांति से धूप सेंक रही स्त्री के लिए एक मुसीबत होती है , जबकि वहाँ से गुज़र रहा पुरुष यह महसूस करता है जैसे वह वहाँ एक घुसपैठिया हो । और नग्नता के विरुद्ध जो वर्जना है , अप्रत्यक्ष रूप से उसकी पुष्टि हो जाती है । किसी भी परिपाटी का अधूरा सम्मान करने से आज़ादी और स्पष्टवादिता की बजाए असुरक्षा और व्यवहार की असंगतता को बल मिलता
है ।
              इसलिए जैसे ही श्री पालोमर कुछ दूरी पर युवती के नग्न धड़ की धुँधली कांस्य-गुलाबी रूप-रेखा देखते हैं , वे जल्दी से अपना सिर इस तरह मोड़ लेते हैं कि उनकी दृष्टि का कोण शून्य में लटका हुआ दिखे । इस तरह वे लोगों के गिर्द मौजूद अदृश्य सीमा के प्रति शिष्ट सम्मान की गारंटी देते हुए लगते हैं ।
              अब क्षितिज साफ़ दिख रहा है । श्री पालोमर अब बिना हिचके अपनी आँखों की पुतलियाँ घुमा सकते हैं । जब वे आगे बढ़ना शुरू करते हैं तो वे सोचते हैं कि इस तरह का अभिनय करके वे अनावृत उरोजों को देखने की अपनी अनिच्छा का प्रदर्शन कर रहे हैं । पर दूसरे शब्दों में वे अंतत: उसी परिपाटी को सुदृढ़ कर रहे हैं जो अनावृत उरोजों के किसी भी दृश्य को निषिद्ध क़रार देती है । यानी वे उरोजों और अपनी आँखों के बीच एक तरह की लटकी हुई मानसिक चोली की सृष्टि कर लेते हैं ,
क्योंकि उनकी दृष्टि के घेरे के किनारे तक जो चमक पहुँची थी , वह उनकी आँखों को हरी-भरी और सुखकर लगी थी । दूसरे शब्दों में कहें तो उनका अनावृत उरोजों को न देखने का प्रयत्न करना पहले से यह मान लेना है कि दरअसल वे उसी नग्नता के बारे में सोच रहे हैं और उससे आक्रांत हैं । यह एक अविवेकी और प्रतिगामी रवैया है ।
               सैर करके लौटते समय श्री पालोमर धूप-स्नान कर रही अनावृत उरोजों वाली युवती के बगल से दोबारा गुज़रते हैं । इस बार वे अपनी दृष्टि बिल्कुल सीधी रखते हैं । इसलिए उनकी निगाह एक निष्पक्ष एकरूपता के साथ तट से टकरा कर लौटती हुई लहरों के झाग पर , किनारे पर लगी नावों पर , रेत पर बिछे बड़े-से तौलिये पर , हल्की त्वचा के चंद्राकार उभार और कुचाग्रों के गहरे प्रभा-मंडल पर , तथा हल्की धुँध में आकाश की पृष्ठभूमि में तट की धूसर रूप-रेखा पर पड़ती है ।
               हाँ , यह ठीक है — टहलते-टहलते अपने कृत्य से प्रसन्न हो कर श्री पालोमर सोचते हैं : उरोजों को पूरे परिदृश्य में समाहित कर देने में मैं सफल हो गया
हूँ । इसलिए मेरी टकटकी किसी समुद्री पक्षी की टकटकी से अधिक कुछ भी नहीं ।
               पर क्या यह तरीका सही है — वे आगे सोचते हैं । क्या यह ऐसा नहीं है जैसे किसी मनुष्य को वस्तु के स्तर पर ला दिया गया हो , उसे महज़ सामान बना दिया गया हो ? और उससे भी बुरी बात यह कि किसी महिला के विशिष्ट अंग को वस्तु का दर्ज़ा दे दिया गया हो । क्या शायद मैं पुरुष श्रेष्ठता-मनोग्रंथि की पुरानी आदत को ही क़ायम नहीं रख रहा , उस मनोग्रंथि को जो सैकड़ों-हज़ारों बरसों से गुस्ताख़ी की आदत में रूढ़ हो गई है — वे सोचते हैं ।
               श्री पालोमर मुड़ते हैं और धूप-स्नान कर रही उस युवती की ओर दोबारा चल पड़ते हैं । वे अपनी निगाह को समूचे समुद्र-तट पर एक तटस्थ निष्पक्षता के साथ डालते हैं । वे अपनी निगाह को इस तरह सँवारते हैं कि जैसे ही युवती के उरोज उनकी दृष्टि के क्षेत्र में आते हैं , उनकी निगाह में एक विचलन स्पष्ट हो जाता है । जैसे निगाह उस दृश्य से थोड़ा हट गई हो । जैसे दृष्टि लगभग झपट कर खिसक गई हो । वह निगाह नग्न युवती की कसी हुई त्वचा को छूती है , फिर लौट आती है , गोया एक विशेष गरिमा प्राप्त कर लेने वाली दृष्टि को वह थोड़ा चौंक कर सराह रही हो । कुछ पलों के लिए वह सरसरी दृष्टि बीच हवा में मँडराती है , फिर एक निश्चित दूरी से उरोजों की उभरी गोलाई के साथ मुड़ जाती है । एहतियात के साथ बच कर निकलती हुई वह दृष्टि फिर अपने रास्ते पर ऐसे चल पड़ती है , जैसे कुछ हुआ ही न हो ।
                 मुझे लगता है कि इस तरह से मेरी स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो गई है और अब कोई संभावित ग़लतफ़हमी नहीं होगी — श्री पालोमर सोचते हैं । लेकिन क्या अनावृत युवती के उरोजों के चंद्राकार उभार को छू कर लौटने वाली निगाहों को अंतत: श्रेष्ठता-मनोग्रंथि का परिचायक ही नहीं माना जाएगा ? एक ऐसी मनोग्रंथि जो उरोजों के अस्तित्व और उनके अर्थ को कम करके आँक रही है ? उन्हें हाशिए पर या कोष्ठक में रख रही है ? यानी उन उरोजों को मैं दोबारा उस नीम-अँधेरे के सुपुर्द कर रहा हूँ जहाँ यौन-सनक से भरी सदियों की अतिनैतिकता ने कामना को पाप का दर्ज़ा दे कर रख छोड़ा है …
                  यह व्याख्या श्री पालोमर के सर्वोत्तम इरादे के विरुद्ध जाती है । हालाँकि वे मनुष्यों की उस पीढ़ी से आते हैं जिसके लिए नारी के उरोजों की नग्नता का संबंध
कामुक आत्मीयता के विचार से जुड़ा है , किंतु फिर भी वे रिवाजों में आए इस परिवर्तन का स्वागत करते हैं और इसे सराहते हैं । यह एक अधिक उदारवादी समाज का प्रतिबिम्ब है , उसका सूचक है । इसके अलावा उनके लिए यह दृश्य विशेष रूप से सुखकर है । यही वह तटस्थ प्रोत्साहन है जो वे अपनी दृष्टि के माध्यम से व्यक्त करना चाहते हैं ।
                  अचानक श्री पालोमर अपना रंग बदलते हैं । वे धूप सेंक रही अनावृत उरोजों वाली लेटी हुई युवती की ओर दोबारा दृढ़ क़दमों से चल पड़ते हैं । अब उनकी दृष्टि भू-दृश्य पर एक सरसरी चपल निगाह डाल कर युवती के अनावृत उरोजों पर विशेष सम्मान के साथ देर तक ठहरेगी । किंतु वह निगाह जल्दी से अनावृत उरोजों
को सद्भाव और कृतज्ञता के आवेग के साथ सम्पूर्ण परिदृश्य में समाहित कर लेगी । उस परिदृश्य में जिसमें सूर्य और आकाश होंगे , चीड़ और देवदार के झुके हुए दरख़्त होंगे , रेत का टीला होगा , समुद्र-तट होगा , पत्थर होंगे , बादल होंगे , समुद्री शैवाल होंगे , और वह ब्रह्मांड होगा जो उन कुचाग्रों के प्रभा-मंडल के गिर्द परिक्रमा करेगा ।
                   यह क़दम उस अकेली धूप सेंकने वाली युवती को स्थायी रूप से आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए और सभी पतित पूर्व-धारणाओं का क्षरण हो जाना चाहिए । किंतु जैसे ही श्री पालोमर अनावृत उरोजों वाली उस युवती के क़रीब पहुँचते हैं , वह अचानक चिहुँक कर उठती है , एक बेचैन झुँझलाहट के साथ खुद को ढँक लेती है और अपने कंधे उचका कर चिढ़ी हुई हालत में वहाँ से चलती बनती है , गोया वह किसी लम्पट के कष्टकर दुराग्रह से बचने का प्रयत्न कर रही हो ।
                   असहिष्णु परम्परा का महाभार सबसे प्रबुद्ध इरादों को भी समझने की योग्यता के मार्ग में बाधक होता है — अंतत: श्री पालोमर कड़वाहट के साथ इस नतीजे पर पहुँचते हैं ।

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प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
           A-5001 ,
           गौड़ ग्रीन सिटी ,
           वैभव खंड ,
           इंदिरापुरम ,
            ग़ाज़ियाबाद – 201014
             ( उ.प्र. )
मो : 8512070086
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रूसी कहानी -मारेय नाम का किसान

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gold mosque during sunset
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अनूदित रूसी कहानी
                         
                              मारेय नाम का किसान
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                                                        — मूल कथाकार : फ़्योदोर दोस्तोयव्स्की
                                                        — अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

               वह ईस्टर के हफ़्ते का दूसरा दिन था । हवा गर्म थी , आकाश नीला था । सूरज गर्माहट देता हुआ देर तक आकाश में चमक रहा था , पर मेरा अंतर्मन बेहद अवसाद-ग्रस्त था । टहलता हुआ मैं जेल की बैरकों के पीछे जा निकला । सामान स्थानांतरित करने वाली मशीनों को गिनते हुए मैं बंदी-गृह की मज़बूत चारदीवारी को घूरता रहा । हालाँकि उनको गिनने का मेरा कोई इरादा नहीं था , पर यह मेरी आदत ज़रूर थी । बंदी-गृह में यह मेरी ‘ छुट्टियों ‘ का दूसरा दिन था । आज बंदियों को काम करने के लिए नहीं ले जाया गया था । बहुत सारे लोग ज़्यादा पी लेने के कारण नशे में थे । हर कोने से लगातार गाली-गलौज और लड़ने-झगड़ने की ऊँची आवाज़ें आ रही थीं । बिस्तरों के साथ बने चबूतरों पर ताश-पार्टियों और बेहूदा , घटिया गानों का प्रबंध किया गया था । हिंसा में लिप्त होने की वजह से कई क़ैदियों को उनके सहकर्मियों ने अधमरे होने तक पीटे जाने की सज़ा सुनाई थी । पूरी तरह ठीक हो जाने तक वे सभी भेड़ों की खालें लपेटे बिस्तरों पर निढाल पड़े थे ।
              लड़ाई-झगड़ों के दौरान यहाँ बात-बात पर चाकू-छुरे निकल जाते थे । पिछले दो दिनों की छुट्टियों के दौरान मुझे इन सब ने इतना उत्पीड़ित कर दिया कि मैं बीमार हो गया । नशेड़ियों का इतना ज़्यादा घृणित शोर-शराबा और इतनी अव्यवस्था मैं वाकई कभी नहीं सह सकता था ,  विशेष कर के इस जगह पर । ऐसे दिनों के दौरान बंदी-गृह के अधिकारी भी बंदी-गृह की कोई सुध नहीं लेते थे । इन दिनों वे यहाँ कोई तलाशी नहीं लेते थे , न वोदका की अवैध बोतलें ढूँढ़ निकालने के लिए छान-बीन ही करते थे । उनका मानना था कि इन बहिष्कृत लोगों को भी साल में एकाध बार मौज-मस्ती करने की अनुमति मिलनी चाहिए । यदि ऐसा नहीं हुआ तो स्थिति और ख़राब हो सकती है । आख़िरकार मेरा मन इस स्थिति के विरुद्ध ग़ुस्से से भर उठा ।
              इस बीच एम. नाम का एक राजनीतिक बंदी मुझे मिला । उसने मुझे विषाद भरी आँखों से देखा । अचानक उसकी आँखों में एक चमक आई और उसके होठ
काँपे । ” सब के सब डाकू-बदमाश हैं ” , गुस्से से उसने कहा और आगे बढ़ गया । मैं बंदी-कक्ष में लौट आया , हालाँकि केवल पंद्रह मिनट पहले मैं दौड़कर यहाँ से बाहर निकल गया था , जैसे मुझ पर पागलपन का दौरा पड़ा हो । दरअसल छह हट्टे-कट्टे बंदी नशे में धुत्त तातार गज़िन पर टूट पड़े थे । उसे नीचे दबा कर उन्होंने उसकी पिटाई शुरू कर दी थी । वे उसे जिस बेवक़ूफ़ाना ढंग से मार रहे थे  उससे तो किसी ऊँट की भी मौत हो सकती थी । पर वे जानते थे कि हरक्यूलिस जैसे इस तगड़े आदमी को मार पाना इतना आसान नहीं था । इसलिए वे उसे बिना किसी संकोच या घबराहट के पीट रहे थे ।
              अब वापस लौटने पर मैंने पाया कि सबसे दूर वाले कोने के बिस्तर पर गज़िन लगभग बिना किसी जीवन के चिह्न के बेहोश पड़ा था । उसके ऊपर भेड़ की खाल डाल दी गई थी । सभी बंदी बिना कुछ बोले उसके चारो ओर से आ-जा रहे थे ।
हालाँकि उन सभी को पूरी उम्मीद थी कि अगली सुबह तक वह होश में आ जाएगा , पर यदि उसकी किस्मत ख़राब रही होती तो यह भी सम्भव था कि इतनी मार खाने के बाद वह मर जाता । मैं किसी तरह जगह बनाता हुआ लोहे की छड़ों वाली खिड़की के सामने मौजूद अपने बिस्तर तक पहुँचा , जहाँ मैंने अपने हाथ अपने सिर के पीछे रख लिए और पीठ के बल लेट कर अपनी आँखें मूँद लीं । मुझे इस तरह लेटना पसंद था ; सोए हुए आदमी को आप तंग नहीं कर सकते । और इस अवस्था में आप सोच सकते हैं और सपने देख सकते हैं ।
              लेकिन मैं सपने नहीं देख सका । मेरा चित्त अशांत था । बार-बार एम. के कहे शब्द मेरे कानों में गूँज रहे थे । पर मैं अपने विचारों की चर्चा क्यों करूँ ? अब भी कभी-कभी रात में मुझे उन दिनों के बारे में सपने आते हैं , और वे बेहद यंत्रणादायी होते हैं । शायद इस बात पर ध्यान दिया जाएगा कि आज तक मैंने बंदी-गृह में बिताए अपने जीवन के बारे में लिखित रूप में शायद ही कभी कोई बात की है। पंद्रह वर्ष पूर्व मैंने ‘ मृतकों का घर ‘ नामक किताब एक ऐसे काल्पनिक व्यक्ति के चरित्र पर लिखी थी जो अपराधी था और जिसने अपनी पत्नी की हत्या की थी । यहाँ मैं यह बता दूँ कि तब से बहुत सारे लोगों ने यह मान लिया है कि मुझे बंदी-गृह इसलिए भेजा गया क्योंकि मैंने ही अपनी पत्नी की हत्या कर दी थी !
              धीरे-धीरे मैं भुलक्कड़पन की अवस्था में चला गया , और फिर यादों में डूब गया । बंदी-गृह में बिताए अपने पूरे चार साल के दौरान मैं लगातार अपने अतीत की घटनाओं को याद करता रहता , और लगता था जैसे उन यादों के सहारे मैं अपना पूरा जीवन दोबारा जी रहा था । दरअसल ये स्मृतियाँ खुद-ब-खुद मेरे ज़हन में उमड़-घुमड़ आती थीं , मैं जान-बूझकर इन्हें याद करने की कोशिश नहीं करता था । कभी-कभी किसी अलक्षित घटना से इनकी शुरुआत होती , और धीरे-धीरे ज़हन में इनकी पूरी जीवंत तसवीर बन जाती । मैं इन छवियों का विश्लेषण करता , बहुत पहले घटी किसी घटना को नया रूप दे देता , और सबसे अच्छी बात यह थी कि मैं अपने मज़े के लिए इन्हें लगातार सुधारता रहता ।
               इस अवसर पर किसी कारणवश मुझे अचानक अपने बचपन का एक अलक्षित पल याद आया जब मैं नौ वर्ष का था । यह एक ऐसा पल था जिसके बारे में मुझे लगा था कि मैं इसे भूल चुका था । पर उस समय मुझे अपने बचपन की स्मृतियों से विशेष लगाव था । मुझे गाँव में बने अपने घर में बिताए अगस्त माह की याद आई ।
वह एक शुष्क , चमकीला दिन था जब तेज़ , ठंडी हवा चल रही थी । गर्मी का मौसम अपने अंतिम चरण में था और जल्दी ही हमें मास्को चले जाना था , जहाँ ठंड के महीनों में हम फ़्रांसीसी भाषा के पाठ याद करते हुए ऊब जाने वाले थे । इसलिए मुझे ग्रामीण इलाक़े में बने अपने घर को छोड़ने का बेहद अफ़सोस था । मैं मूसल से कूट-पीट कर अनाज निकालने वाली जगह के बगल से चलता हुआ गहरी , संकरी घाटी की ओर निकल गया । वहाँ मैं घनी झाड़ियों के झुरमुट तक गया जिसने उस संकरी घाटी को कौप्से तक ढँका हुआ था । मैं सीधा उन झाड़ियों के बीच घुस गया , और वहाँ मुझे लगभग तीस मीटर दूर बीच की ख़ाली जगह में खेत को जोतता हुआ एक किसान दिखा । मैं जानता था कि वह खड़ी ढलान वाली पहाड़ी पर जुताई कर रहा
था , और उसके हाँफ़ते हुए घोड़े को बहुत प्रयास करना पड़ रहा था । अपने घोड़े का हौसला बढ़ाने वाली किसान की आवाज़ हर थोड़ी देर बाद तैरती हुई मेरी ऊँचाई तक पहुँच रही थी ।
                मैं अपने इलाक़े में रहने वाले लगभग सभी गुलाम किसानों को जानता
था । पर इस समय कौन-सा किसान खेत जोत रहा था , यह मुझे नहीं पता था । सच पूछिए तो मैं यह जानना भी नहीं चाहता था क्योंकि मैं अपने काम में डूबा हुआ था । आप कह सकते हैं कि मैं अखरोट के पेड़ की डंडियाँ तोड़ने में व्यस्त था । मैं उन डंडियों से मेंढकों को पीटता था । अखरोट के पेड़ की पतली डंडियाँ अच्छे चाबुक का काम करती हैं , लेकिन वे ज़्यादा दिनों तक नहीं चलती हैं । पर भोज-वृक्ष की पतली टहनियों का स्वभाव इससे ठीक उलट होता है । मेरी रुचि भौंरों और अन्य कीड़ों में भी थी ; मैं उन्हें एकत्र करता था । इनका उपयोग सजावटी था । काले धब्बों वाली लाल और पीले रंग की छोटी , फुर्तीली छिपकलियाँ भी मुझे बहुत पसंद थीं , लेकिन मैं साँपों से डरता था । हालाँकि साँप छिपकलियों से ज़्यादा विरल थे ।
               वहाँ बहुत कुकुरमुत्ते होते थे । खुँबियों को पाने के लिए आपको भोज-वृक्षों के जंगल में जाना पड़ता था और मैं वहाँ जाने ही वाला था । पूरी दुनिया में मुझे और किसी चीज़ से उतना प्यार नहीं था जितना उस जंगल से और उसमें पाई जाने वाली चीज़ों और जीव-जंतुओं से — कुकुरमुत्ते और जंगली बेर , भौंरे और रंग-बिरंगी चिड़ियाँ , साही और गिलहरियाँ । जंगल में ज़मीन पर गिरी नम , मरी पत्तियों की गंध मुझे अच्छी लगती थी । इतनी अच्छी कि यह पंक्ति लिखते समय भी मैं भोज-वृक्षों के उस जंगल की गंध को सूँघ रहा हूँ । ये छवियाँ जीवन भर मेरे साथ रहेंगी । उस गहरी स्थिरता के बीच अचानक मैंने स्पष्ट रूप से किसी के चिल्लाने की आवाज़ सुनी — ” भेड़िया ! ” यह सुनकर मैं बुरी तरह डर गया और ज़ोर से चीख़ते-चिल्लाते हुए मैं सीधा बीच के ख़ाली जगह में खेत जोत रहे उस किसान की ओर भागा ।
                अरे , वह तो मारेय नाम का हमारा गुलाम किसान था । मुझे नहीं पता कि ऐसा कोई नाम होता भी है , किंतु सभी उसे मारेय नाम से ही बुलाते थे । वह गठीले बदन वाला पचास साल का मोटा-तगड़ा किसान था , जिसकी भूरी दाढ़ी के कई बाल पके हुए थे । मैं उसे जानता था , हालाँकि मुझे पहले कभी उससे बात करने का मौक़ा नहीं मिला था । मेरी चीख़ सुनकर उसने अपना घोड़ा रोक लिया और हाँफ़ते हुए जब मैंने एक हाथ से उसके हल को और दूसरे हाथ से उसकी क़मीज़ के कोने को पकड़ा , तब उसने देखा कि मैं कितना डरा हुआ था ।
                  ” यहाँ कहीं एक भेड़िया है । ” मैं हाँफ़ते हुए चिल्लाया ।
                  एक पल के लिए उसने अपना सिर चारो ओर ऐसे घुमाया जैसे उसे मेरी बात पर लगभग यक़ीन हो गया हो ।
                   ” कहाँ है भेड़िया ? “
                   ” कोई चिल्लाया था — ‘ भेड़िया ‘ … । ” मैं हकलाते हुए बोला ।
                   ” बकवास । बिल्कुल बेकार बात । भेड़िया ? अरे , वह तुम्हारी कल्पना होगी ! यहाँ भेड़िया कैसे हो सकता है ? ” मुझे आश्वस्त करते हुए वह बोला । लेकिन मैं अभी भी डर के मारे थर-थर काँप रहा था और मैंने अभी भी उसकी क़मीज़ का कोना पकड़ रखा था । मैं काफ़ी डरा हुआ लग रहा हूँगा । उसने मेरी ओर एक फ़िक्र-
भरी मुस्कान दी । ज़ाहिर है , मेरे कारण वह तनाव-ग्रस्त और चिंतित महसूस कर रहा था ।
                  ” अरे , तुम तो बेहद डर गए हो ! ” वह सिर हिलाते हुए बोला । ” मेरे प्यारे बच्चे … सब ठीक होगा ! ” अपना हाथ आगे बढ़ा कर वह मेरे गालों को थपथपाने लगा ।
                  ” आओ , आओ ; ईश्वर सब ठीक करेगा । ईश्वर का नाम लो ! “
                  लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया । मेरे मुँह के कोने अब भी फड़क रहे थे , और उसने इसे देख लिया । उसने अपनी काले नाख़ून वाली मोटी , मिट्टी लगी उँगली आगे बढ़ाई और हल्के-से मेरे फड़कते हुए होठों को छुआ ।
                  ” चलो , शाबाश , शाबाश , ” माँ-जैसी कोमल , हल्की मुस्कान देते हुए उसने कहा , ” प्यारे बच्चे , कुछ नहीं होगा । चलो , शाबाश ! “
                  आख़िर मैं समझ गया कि वहाँ कोई भेड़िया नहीं था , और जो चीख़ मैंने सुनी थी वह महज़ मेरी कल्पना की उपज थी । हालाँकि वह चीख़ बेहद स्पष्ट थी , पर मैं ऐसी चीख़ों ( केवल भेड़ियों के बारे में ही नहीं ) की कल्पना पहले भी एक-दो बार कर चुका था । मैं यह बात जानता था । ( जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया , मेरे ये निर्मूल भ्रम ख़त्म होते गए । )
                   ” ठीक है , तो अब मैं चलूँगा , ” मैंने सहमी आवाज़ में उससे कहा ।
                   ” ठीक है , मैं तुम्हें जाते हुए दूर तक देखता रहूँगा । मैं भेड़िये को तुम्हारे पास नहीं आने दूँगा । ” वह अब भी माँ-जैसी कोमल मुस्कान बिखेरता हुआ
बोला , ” ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें । चलो शाबाश , भागो । ” फिर उसने ज़ोर से ईश्वर का नाम लिया । मैं हर दसवें क़दम पर मुड़ कर पीछे देखते हुए आगे बढ़ने लगा । मारेय अपने घोड़े के साथ वहीं स्थिर खड़ा था । जितनी बार मैं पीछे मुड़ कर उसे देखता , वह सिर हिला कर मेरा हौसला बढ़ाता । मुझे यह मानना होगा कि मारेय के सामने खुद को इतना डरा हुआ पा कर मैं शर्मिंदा महसूस कर रहा था । पर सच्चाई यही थी कि मैं अब भी भेड़िए के बारे में सोच कर डरा हुआ था । चलते-चलते उस सँकरी घाटी की आधी ढलान पार करके मैं पहले भुसौरे तक पहुँचा । वहाँ पहुँच कर मेरा डर पूरी तरह ग़ायब हो गया । उसी समय मेरा झबरा कुत्ता वॉल्तचोक पूँछ हिलाते हुए दौड़ कर मेरे पास पहुँचा । कुत्ते के आ जाने से मैं खुद को सुरक्षित महसूस करने लगा । मैंने मुड़ कर अंतिम बार मारेय की ओर देखा । हालाँकि अब मुझे उसका चेहरा साफ़-साफ़ नहीं दिख रहा था , पर मुझे लगा जैसे वह अब भी मेरी ओर देख कर सिर हिला रहा था और प्यार से मुस्करा रहा था । मैंने उसकी ओर अपना हाथ हिलाया । जवाब में उसने भी मेरी ओर अपना हाथ हिलाया और फिर वह अपने घोड़े से मुख़ातिब हो गया , ” चल, शाबाश ! ” दूर वहाँ मैंने दोबारा उसकी आवाज़ सुनी और फिर उसके घोड़े ने खेत जोतना शुरू कर दिया ।
                 पता नहीं क्यों , मुझे ये सारी छोटी-छोटी बातें भी असाधारण रूप से अचानक याद आ गईं । कोशिश करके मैं अपने बिस्तर पर उठ कर बैठ गया । मुझे याद है , अपनी स्मृतियों के बारे में सोच कर मैंने स्वयं को चुपचाप मुस्कराता हुआ पाया । मैं उस सब के बारे में थोड़ी देर और सोचता रहा ।
                  जब उस दिन मैं घर वापस आया तो मैंने किसी को भी मारेय के साथ हुए अपने ‘ संकटपूर्ण ‘ अनुभव के बारे में कुछ नहीं बताया । और सच कहूँ तो इसमें संकटपूर्ण जैसा कुछ भी नहीं था । और वास्तविकता यही है कि जल्दी ही मैं मारेय और इस घटना के बारे में भूल गया । यदा-कदा जब भी मेरी उससे मुलाक़ात हो जाती तो मैं उससे भेड़िये या उस दिन की घटना के बारे में कभी बात नहीं करता । पर बीस बरस बाद अचानक आज साइबेरिया में मुझे मारेय के साथ हुई अपनी वह मुलाक़ात और उसकी एक-एक बात बिल्कुल स्पष्ट रूप से याद आई । इस घटना की याद अवश्य ही मेरी आत्मा में कहीं छिपी हुई थी , हालाँकि ऊपर-ऊपर से मुझे इसके बारे में कुछ भी नहीं पता था । और जब मुझे इसकी ज़रूरत महसूस हुई तो यह अचानक मेरी स्मृति में पूरी शिद्दत से उठ खड़ी हुई ।
                 मुझे उस बेचारे गुलाम कृषक के चेहरे पर मौजूद माँ-जैसी मृदु मुस्कान याद आई , और यह भी याद आया कि कैसे उसने अपनी उँगलियों से मुझ पर ईसाई धर्म के क्रॉस का चिह्न बनाया ताकि मैं हर मुसीबत से बचा रहूँ । मुझे उसका यह कहना भी याद आया , ” अरे , तुम तो बेहद डर गए हो । मेरे प्यारे बच्चे , सब ठीक होगा । ” और मुझे विशेष रूप से मिट्टी लगी उसकी उँगलियाँ याद आईं जिनसे उसने संकोचपूर्ण कोमलता से भर कर मेरे फड़फड़ाते होठों को धीरे से छुआ था । यदि मैं उसका अपना बेटा रहा होता तो भी वह इससे अधिक स्नेह-भरी चमकती आँखों से मुझे नहीं देखता । और किस चीज़ ने उसे ऐसा बना दिया था ? वह तो हमारा गुलाम कृषक था और कहने के लिए मैं उसका छोटा मालिक था । वह मेरे प्रति दयालु था , इस बात का पता न किसी को चलना था , न ही कोई उसे इसके लिए इनाम देने वाला था । क्या शायद छोटे बच्चों से उसे बहुत प्यार था ? कुछ लोगों का स्वभाव ऐसा होता है । वीरान खेत में यह मुझसे उसकी अकेली मुलाक़ात थी । शायद यह केवल ईश्वर ने ही ऊपर से देखा होगा कि एक रूसी गुलाम कृषक का हृदय कितने गहरे , मानवीय और सभ्य भावों से और कितनी कोमल , लगभग स्त्रियोचित मृदुता से भरा था । यह वह गुलाम किसान था जिसे अपनी आज़ादी का न कोई ख़्याल था , न उसकी कोई उम्मीद थी । क्या यही वह चीज़ नहीं थी जब कौंस्टैंटिन अक्साकोव ने हमारे देश के कृषकों में मौजूद उच्च कोटि की शिष्टता और सभ्यता की बात की थी ?
                  और जब मैं अपने बिस्तर से उतरा और मैंने अपने चारो ओर देखा तो मुझे याद है , मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं इन दुखी ग़ुलामों को बिल्कुल अलग क़िस्म की निगाहों से देख सकता हूँ । जैसे अचानक किसी चमत्कार की वजह से मेरे भीतर मौजूद सारी घृणा और क्रोध पूरी तरह ग़ायब हो गए थे । चलते हुए मैं मिलने वाले लोगों के चेहरे देखता रहा । वह किसान जिसने दाढ़ी बना रखी है , जिसके चेहरे पर अपराधी होने का निशान दाग दिया गया है , जो नशे में धुत्त कर्कश आवाज़ में गाना गा रहा है , वह वही मारेय हो सकता है । मैं उसके हृदय में झाँक कर नहीं देख सकता ।
                उस शाम मैं एम. से दोबारा मिला । बेचारा ! उसकी स्मृतियों और उसके विचारों में रूसी किसानों के प्रति केवल यही भाव था — ” सब के सब डाकू-बदमाश हैं । ” हाँ , पोलैंड के बंदियों को मुझसे कहीं ज़्यादा कटुता का बोझ उठाना पड़ रहा था ।

                        ————०————

प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
          A-5001 ,
          गौड़ ग्रीन सिटी ,
          वैभव खंड ,
          इंदिरापुरम ,
          ग़ाज़ियाबाद – 201014
          ( उ. प्र. )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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फ़्रांसीसी कहानी-इरोस्ट्रेटस

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 ( अनूदित फ़्रांसीसी कहानी )
           
                              इरोस्ट्रेटस
                           ( Erostratus )

                       
                                                — मूल लेखक : ज़्याँ पाल सार्त्र
                                                — अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

              लोगों को ऊँचाई से देखना चाहिए । बत्तियाँ बुझाकर कमरे की खिड़की के पास खड़े हो जाइए । किसी को एक पल के लिए भी शक नहीं होगा कि आप उन्हें वहाँ ऊपर से देख सकते हैं । लोग अपने सामने की चीज़ों के बारे में सचेत होते
हैं । कभी-कभार पीठ पीछे की चीज़ों के बारे में भी , किंतु उनका सारा ध्यान पाँच फ़ुट आठ इंच की ऊँचाई तक के दर्शकों तक ही सीमित होता है । आठवीं मंज़िल से डर्बी टोपी कैसी दिखाई देती है , इस पर कब किसने ध्यान दिया है ? चटकीले रंगों और भड़कीली पोशाकों का इस्तेमाल करके अपने सिरों और कंधों को सुरक्षित रखने के बारे में वे सावधान नहीं होते । उन्हें नहीं पता कि मानवता के इस बड़े शत्रु —
 ‘ नीचे के दृश्य ‘ का सामना कैसे किया जाए । मैं अकसर खिड़की की चौखट पर झुककर हँसने लगता । वह सीधी मुद्रा कहाँ है जिस पर उन्हें इतना गर्व है — वे पटरियों से चिपके होते थे और उनके कंधों के नीचे से दो लम्बी टाँगें निकल आती
थीं ।
              आठवीं मंज़िल की बाल्कनी — यही वह जगह है , जहाँ मुझे अपना सारा जीवन बिता देना चाहिए था । आपको भौतिक प्रतीकों के साथ-साथ नैतिक श्रेष्ठताओं को थामना होता है , नहीं तो वे ढह जाती हैं । पर दूसरे लोगों की तुलना में मुझमें क्या श्रेष्ठता है ? स्थिति की श्रेष्ठता , और कुछ नहीं । मैंने खुद को अपने भीतर के मनुष्य से ऊपर स्थापित कर लिया है और मैं इसका अध्ययन करता हूँ । यही कारण है कि नौत्रेदेम की मीनारें , आइफ़िल टावर के छज्जे , साक्रे-कोऊर और रुए दे लांबे पर स्थित आठवीं मंज़िल — ये सब मुझे हमेशा पसंद रहे हैं । ये बहुत बढ़िया प्रतीक हैं ।
              कभी-कभी मुझे सड़क पर जाना पड़ता , जैसे दफ़्तर जाने के लिए , तो मेरा दम घुटने लगता । यदि आप उनके बराबर खड़े हों तो लोगों को चींटी मानना बहुत मुश्किल होता है । वे आपसे टकराते हैं । एक बार मैंने सड़क पर एक मरा हुआ आदमी देखा था । वह मुँह के बल गिरा हुआ था लोगों ने उसे सीधा किया । उससे ख़ून बह रहा था । मैंने उसकी खुली आँखें और चौकन्नी निगाह देखी । उसका ढेर-सा ख़ून देखा । मैंने खुद से कहा , ” यह कुछ भी नहीं है । यह गीले रोगन जैसा लगता
है , गोया उन्होंने उसकी नाक पर लाल रोगन फेर दिया हो । बस । ” पर मुझे अपने पैरों और गर्दन में एक घिनौनी शिथिलता महसूस हुई । मैं बेहोश हो गया । लोग मुझे दवाइयों की एक दुकान पर ले गए । उन्होंने मेरे मुँह पर कुछ थप्पड़ लगाए और पीने के लिए कुछ दिया । मैं उनकी हत्या भी कर सकता था ।
              मुझे मालूम था कि वे मेरे शत्रु हैं , पर वे यह नहीं जानते थे । वे एक-दूसरे को पसंद करते थे । वे कोहनियाँ रगड़ते थे । वे यहाँ-वहाँ मेरी मदद भी कर देते थे क्योंकि वे सोचते थे कि मैं भी उन जैसा हूँ । पर यदि वे सच का ज़रा-सा भी अंदाज़ा लगा पाते तो वे मुझे पीट देते । बाद में उन्होंने ऐसा किया भी । जब उन्हें पता चल गया कि मैं कौन हूँ तो उन्होंने मुझे पकड़ लिया और मेरी खूब पिटाई की । उन्होंने दो घंटे तक स्टेशन-हाउस में मुझे मारा , मुझे थप्पड़ रसीद किए , घूँसे चलाए और मेरे हाथ मरोड़े । उन्होंने मेरी पतलून फाड़ दी और अंत में मेरा चश्मा ज़मीन पर फेंक दिया । जब मैं घुटनों और कोहनियाँ के बल झुक कर उसे ढूँढ़ रहा था तो वे हँसे और उन्होंने मुझे ठोकरें मारीं । शुरू से ही मैं जानता था कि वे मेरी धुनाई करेंगे । मैं हट्टा-कट्टा नहीं हूँ और अपना बचाव नहीं कर सकता । उनमें से जो बड़ी डील-डौल वाले
थे , वे लम्बे अरसे से मेरी तलाश में थे । यह देखने के लिए कि मैं क्या करूँगा , सड़क पर चलते हुए वे जानबूझकर मुझसे टकरा जाते । मैं उन्हें कुछ नहीं कहता । मैं
ऐसा जताता जैसे मैं कुछ भी समझा ही नहीं । लेकिन उन्होंने मुझे फिर भी पकड़ लिया । मैं उनसे डरता था , पर ऐसा नहीं है कि उनसे नफ़रत करने के लिए मेरे पास और गंभीर कारण नहीं थे ।
                 जहाँ तक इस सब का संबंध है , उस दिन से सब कुछ बेहतर हो गया , जिस दिन मैंने रिवॉल्वर ख़रीद लिया । जब आप अपने पास विस्फोट और ज़ोरदार आवाज़ करने वाली कोई चीज़ रख लेते हैं तो आप खुद को मज़बूत महसूस करते
हैं । मैं हर रविवार को रिवॉल्वर साथ ले कर बाहर निकलता । मैं उसे अपनी पतलून की जेब में रख लेता और घूमने निकल जाता । मैं उसे अपनी पैंट पर केकड़े की तरह रेंगता महसूस करता । वह मेरी जाँघ पर ठंडी लगती , लेकिन धीरे-धीरे शरीर के स्पर्श से वह गरम होने लगती । मैं कुछ दृढ़ता के साथ चलता । मैं जेब में हाथ डाल लेता और उस चीज़ को महसूस करता । हर थोड़ी देर बाद मैं पेशाब करने के बहाने शौचालय जाता । वहाँ भी मुझे सावधान रहना पड़ता , क्योंकि मेरे अग़ल-बगल लोग होते । वहाँ मैं सावधानी से रिवॉल्वर बाहर निकालता । उसका भार महसूस करता ।
उसके चारखानेदार काले हत्थे और ट्रिगर को निहारता , जो अधखिली पलक की तरह दिखाई देता था । दूसरे लोग , जो मुझे बाहर से देख रहे होते , वे सोचते कि मैं पेशाब कर रहा हूँ । पर मैं शौचालय में कभी पेशाब नहीं करता ।
                 एक रात मुझे लोगों को गोली से उड़ा देने का विचार सूझा । वह शनिवार की शाम थी । मैं ली से मिलने गया था । वह रूए मोंतपारनास्से पर स्थित एक होटल में धंधा करती थी । मैं कभी किसी औरत के साथ सोया नहीं था । इस क्रिया में मैं खुद को लुटा हुआ महसूस करता । हालाँकि आप ऊपर होते हैं , किंतु जो कुछ मैंने सुना है , उससे स्पष्ट है कि इस व्यापार में कुल मिला कर वे ही फ़ायदे में रहती हैं । मैं किसी से कुछ माँगता नहीं , पर मैं किसी को कुछ देता भी नहीं । अन्यथा मेरे पल्ले भी कोई ठंडी , पवित्र स्त्री पड़ती , जो मेरे सामने घृणा से आत्म-समर्पण  करती ।
                 मैं हर शनिवार को ली के साथ इकेंसे होटल में जाता और वहाँ एक कमरा लेता । वहाँ वह अपने कपड़े उतार देती और मैं बिना छुए उसे देखता रहता । उस रात वह मुझे नहीं मिली । मैंने कुछ देर इंतज़ार किया । चूँकि वह आती हुई नहीं दिखाई दी , मैंने अंदाज़ा लगाया कि उसे ज़ुकाम हो गया है । वह जनवरी की शुरुआत थी और बेहद ठंड पड़ रही थी । मैं कल्पनाशील व्यक्ति हूँ और मैंने उस सारे आनंद को अपने सामने चित्रित कर लिया जो मुझे उस शाम मिलता । रूए ओडिसा
पर काले बालों वाली एक गठीली और मोटी औरत मौजूद थी । मैं उसे अकसर वहाँ देखता । मैं प्रौढ़ स्त्रियों से घृणा तो नहीं करता , लेकिन वे जब कपड़े उतार देती हैं तो
दूसरी औरतों की तुलना में ज़्यादा नंगी लगने लगती हैं । दरअसल वह मोटी औरत मेरी ज़रूरतों के बारे में कुछ नहीं जानती थी , और मैं एकदम से उससे वह सब कहते हुए डर रहा था । हालाँकि मैं नए परिचितों के बारे में ज़्यादा फ़िक्र नहीं करता , लेकिन यह भी तो हो सकता है कि ऐसी औरत ने दरवाज़े के पीछे किसी उचक्के को
छिपा रखा हो , जो अचानक ही झपट पड़े और मुझसे मेरे रुपए-पैसे छीन ले । फिर भी , उस शाम मुझमें साहस था । मैंने तय किया कि मैं वापस घर जाऊँगा , रिवॉल्वर उठाऊँगा और फिर वहाँ जा कर अपनी किस्मत आज़माऊँगा ।
                  पंद्रह मिनट बाद जब मैं इस औरत के पास पहुँचा तो मेरा रिवॉल्वर मेरी जेब में था और मैं किसी चीज़ से भयभीत नहीं था । क़रीब से देखने पर वह बेचारी लगी । वह सड़क पार वाली मेरी पड़ोसन , पुलिस सार्जेंट की बीवी जैसी लग रही थी । मैं बेहद खुश था क्योंकि मैं लंबे अर्से से उसे नंगा देखना चाहता था । जब सार्जेंट घर में नहीं होता था तो वह खिडकी खोल कर कपड़े पहनती थी और मैं अकसर उसे एक नज़र देखने के लिए परदे के पीछे खड़ा रहता था । पर वह हमेशा कमरे के कोने में कपड़े पहनती थी ।
                  होटल स्तेला में छठी मंज़िल पर केवल एक कमरा ख़ाली था । हम ऊपर गए । वह औरत काफ़ी भारी थी और हर सीढ़ी पर साँस लेने के लिए रुकती
थी । मुझे अच्छा लगा । तोंद के बावजूद मेरी देह हल्की-फुल्की है और मुझे थकाने के लिए छह से ज़्यादा मंज़िलों की ज़रूरत है । छठी मंज़िल पर पहुँचकर वह रुकी और अपने दिल पर दायाँ हाथ रखकर उसने गहरी साँस ली । उसके बाएँ हाथ में कमरे की चाबी थी ।
                 मेरी ओर देखकर मुस्कराने का प्रयास करते हुए उसने कहा , ” बहुत ऊपर है । ” मैंने बिना कोई जवाब दिए उसके हाथ से चाबी ले ली और दरवाज़ा खोल दिया । जेब में डाले अपने बाएँ हाथ में मैंने रिवॉल्वर पकड़ रखा था । मैंने उसे तब तक नहीं छोड़ा जब तक मैंने बत्ती नहीं जला दी । उन्होंने वाश-बेसिन पर हरे साबुन की एक टिकिया रख दी थी , जो एक ग्राहक के लिए काफ़ी थी । मैं मुस्कराया । नहाने के पीढ़ों और साबुन के टुकड़ों की मुझे ज़्यादा ज़रूरत नहीं पड़ती । वह औरत अब भी मेरी पीठ के पीछे गहरी साँसें ले रही थी । और यह सब मुझे उत्तेजित कर रहा था । मैं घूमा और उसने अपने होठ मेरी ओर बढ़ा दिए , लेकिन मैंने उसे दूर धकेल दिया ।
                  ” अपने कपड़े उतारो । ” मैंने उससे कहा ।
                   कमरे में एक आरामकुर्सी थी जो कपड़े से मढ़ी हुई थी । मैं उस पर बैठकर आराम की मुद्रा में आ गया । ऐसे ही समय मुझे सिगरेट की तलब होती है ।
उस औरत ने अपने कुछ कपड़े उतार दिए और मुझे अविश्वास से देखते हुए रुक
गई ।
                    ” तुम्हारा नाम क्या है ? “
                    ” रेनी । “
                    ” अच्छी बात है रेनी , जल्दी करो । मैं इंतज़ार कर रहा हूँ । “
                    ” तुम कपड़े नहीं उतारोगे ? “
                    ” तुम चालू रहो । ” मैंने कहा , ” मेरी फ़िक्र मत करो । “
                    उसने अपने अधोवस्त्र उतार दिए और उन्हें कपड़ों के ढेर पर सावधानी से डाल दिया ।
                    ” तुम थोड़े सुस्त हो , प्रिये । क्या तुम अपनी प्रेमिका से ही सब कुछ करवाना चाहते हो ? “
                    यह कहते हुए वह एकदम मेरी ओर बढ़ी और अपने हाथों के सहारे कुर्सी के हत्थे पर झुकते हुए उसने मेरे सामने घुटनों के बल बैठने की कोशिश की । मैं झटके से उठ खड़ा हुआ ।
                    ” ऐसा कुछ नहीं है । ” मैंने कहा ।
                    ” तो तुम मुझसे क्या चाहते हो ? “
                    ” कुछ नहीं । केवल चहलक़दमी । आस-पास घूमो । इससे ज़्यादा मैं तुमसे कुछ नहीं चाहता । “
                    वह भद्दी चाल से कमरे में इधर-उधर घूमने लगी । औरतों को नग्न हालत में चहलक़दमी करने से ज़्यादा कोई बात नहीं क्रोधित करती । एड़ियाँ ज़मीन पर सीधी रखने की उनकी आदत नहीं होती । उस वेश्या ने अपनी कमर धनुषाकार कर ली और अपनी बाँहें लटका लीं । मैं जैसे स्वर्ग में था — गले तक कपड़े पहने मैं आरामकुर्सी पर शांत बैठा था । मैं अपने दस्ताने तक पहने हुए था , जबकि वह औरत मेरी आज्ञा से कपड़े उतार कर नग्न हो गई थी और मेरे सामने इधर-उधर घूम रही
थी । उसने अपना सिर मेरी ओर घुमाया और दिखावे के लिए कुटिलता से मुस्कराई ।
अचानक मैंने उससे कुछ कहा ।
                   ” हरामी कहीं के ! ” वह शर्माते हुए होठों में बुदबुदाई ।
                   लेकिन मैं ज़ोर से हँसा । तब वह उछली और कुर्सी से अपने अधोवस्त्र उठाने लगी ।
                   ” ठहरो ! ” मैंने कहा , ” अभी समय नहीं हुआ । थोड़ी देर बाद ही मुझे तुम्हें पचास फ़्रैंक देने हैं लेकिन मुझे अपने पैसों की क़ीमत चाहिए । “
                   अपने अधोवस्त्र पकड़ कर घबराए स्वर में वह बोली , ” बहुत हो
गया , समझे ? मुझे नहीं पता , तुम क्या चाहते हो ? अगर तुम मुझे बेवक़ूफ़ बनाने के लिए यहाँ लाए हो , तो … “
                   तब मैंने अपना रिवॉल्वर निकाल कर उसे दिखा दिया । उसने गम्भीरता से मुझे देखा और बिना एक भी शब्द बोले अपने अधोवस्त्र वापस नीचे डाल दिए ।
                  ” शुरू हो जाओ , ” मैंने उससे कहा , ” कमरे में टहलती रहो । “
                  वह नग्न हालत में ही और पाँच मिनट तक कमरे में घूमती रही । फिर मैंने उसे अपनी छड़ी दी । वह चुपचाप वह सब करती रही जो मैंने उससे कहा । उसके बाद मैं उठा और मैंने उसे पचास फ़्रैंक का नोट थमा दिया । उसने वह नोट ले लिया ।
                 ” फिर मिलेंगे , ” मैंने कहा , ” उम्मीद है , इन पैसों के बदले मैंने तुम्हें ज़्यादा नहीं थकाया । “
                 पर उस रात मैं अचानक ही उठ बैठा । उसका चेहरा , उसे रिवॉल्वर दिखाते समय उसकी आँखों का भाव और हर सीढ़ी पर हिलता हुआ उसका थुलथुल पेट मुझे बीच रात में याद आने लगे ।
                 क्या बेवक़ूफ़ी है , मैंने सोचा । मुझे बेहद अफ़सोस हुआ । जब मैं उसके साथ था , मुझे तब उसे गोली मार देनी चाहिए थी ।  उसके पेट में अनेक छेद कर देने चाहिए थे । उस रात और अगली तीन रातें अपने सपने में मैंने उसकी नाभि के चारो ओर छह गोल छोटे-छोटे लाल छेद देखे ।

     ***          ***           ***           ***           ***           ***           ***   

                 इस सब का नतीजा यह हुआ कि मैं रिवॉल्वर लिए बिना कहीं बाहर नहीं निकलता । मैं लोगों की पीठ देखता और उनकी चाल से यह कल्पना करता कि       
यदि मैं इन्हें गोली मार दूँ तो ये कैसे लगेंगे । मेरी आदत थी कि हर रविवार को शास्त्रीय संगीत सभा ख़त्म होने के बाद मैं शातेले के आस-पास घूमता था ।
                 छह बजे के क़रीब मैंने घंटी की आवाज़ सुनी और फिर वहाँ काम करने वाले लोगों को शीशे के दरवाज़ों को खोलकर हुक से बाँधते हुए देखा । यह शुरुआत थी । धीरे-धीरे भीड़ बाहर निकली । लोग मानो तैरते हुए क़दमों से चल रहे थे । आँखों में अभी भी सपने सँजोए , दिलों में सुंदर भावनाएँ लिए वे जैसे एक दुनिया से दूसरी दुनिया में आ रहे थे । मैंने अपना दाहिना हाथ जेब में डालकर पूरी ताकत से रिवॉल्वर का हत्था पकड़ लिया । कुछ पल बाद मैंने खुद को उन पर गोलियाँ चलाते देखा । मैंने उन्हें मिट्टी के मटकों की तरह तोड़ दिया । गोली से उड़ा दिया । वे एक-एक करके उड़ते गए और बचे हुए भयभीत लोग दरवाज़ों पर लगे शीशे को तोड़कर वापस थिएटर में भागने लगे । यह बहुत उत्तेजक खेल था । जब खेल ख़त्म हुआ तो मेरे हाथ काँप रहे थे । मुझे अपना होश सँभालने के लिए त्रेहेर के शराबख़ाने में जा कर कोन्याक पीनी पड़ी ।
                  मैं स्त्रियों को जान से नहीं मारता । मैं या तो उनके गुर्दे में गोली मारता या उनकी पिंडलियों में , ताकि वे नाचने लगें ।
                  मैंने अभी तक कोई फ़ैसला नहीं किया था । पर मैंने हर काम ध्यान से किया । मैंने छोटे-छोटे ब्योरों से शुरुआत की। मैं डेन्फ़र्ट-रोशेरो की ‘शूटिंग-गैलरी’ में अभ्यास करने गया । मेरा निशाना ज़्यादा सधा हुआ नहीं था ,  लेकिन आदमी बड़ा लक्ष्य होता है । ख़ास करके तब जब आप नली सटा कर गोली मारते हैं । फिर मैंने अपने विज्ञापन का प्रबंध किया । मैंने ऐसा दिन चुना जब मेरे सभी सहकर्मी दफ़्तर में इकट्ठे हों । सोमवार की सुबह । मेरे उनके साथ हमेशा दोस्ताना संबंध रहे हैं , हालाँकि मैं उनसे हाथ मिलाते हुए डरता था । वे अभिवादन करने के लिए अपने दस्ताने उतार लेते । हाथों को नंगा करने , दस्तानों को फिर से पहनने और उँगलियों पर धीरे-धीरे सरकाने तथा झुर्रियों से भरी नग्नता को प्रदर्शित करने का उनका तरीका बेहद अश्लील था । मैं अपने दस्ताने हमेशा पहने रहता ।
                  सोमवार को हम ज़्यादा काम नहीं करते थे । व्यापारिक सेवा विभाग से टाइपिस्ट हमारे लिए पावतियाँ ले आती थी । लोमोर्सिस खुश होकर उससे मज़ाक करता और उसके चले जाने के बाद वे सब तृप्त भाव से उसकी सुंदरता की चर्चा करते । फिर वे लिंडबर्ग के बारे में बात करते । मैंने उनसे कहा , ” मुझे काले नायक पसंद हैं । “
                 ” नीग्रो ? ” मसी ने पूछा ।
                 ” नहीं , काले । जैसे काला जादू में । लिंडबर्ग श्वेत नायक है । मुझे उसमें कोई रुचि नहीं है ।
                 ” हाँ , अटलांटिक पार करना बहुत आसान है न । ” बूखसिन ने खट्टे मन से कहा ।
                 ” मैंने उन्हें काले नायक की अपनी संकल्पना से परिचित करवाया ।
                 ” अराजकतावादी ? “
                 ” नहीं , ” मैंने शांत भाव से कहा । ” देखा जाए तो अराजकतावादी मनुष्य से प्रेम करते हैं । “
                 ” फिर वह कोई पागल होगा । “
                 मसी कुछ पढ़ा-लिखा था । उसने हस्तक्षेप किया । ” मैं तुम्हारे पात्र को जानता हूँ । ” उसने मुझसे कहा , ” उसका नाम इरोस्ट्रेटस है । वह प्रसिद्ध होना चाहता था और उसे दुनिया के आश्चर्यों में से एक इफ़ीसस के मंदिर को जलाने से बेहतर कोई काम नहीं सूझा । “
                 ” और उस मंदिर को बनवाने वाले व्यक्ति का क्या नाम था ? “
                 ” मुझे याद नहीं , ” उसने स्वीकार किया । ” शायद कोई भी उसका नाम नहीं जानता है । “
                 ” सच ? लेकिन तुम्हें इरोस्ट्रेटस का नाम याद है । क्या तुम जानते हो , चीज़ों के बारे में उसकी कल्पना ज़्यादा बुरी नहीं थी । “
                 इन्हीं शब्दों के साथ बातचीत ख़त्म हो गई , पर मैं एकदम शांत था ।
समय आने पर उन्हें ये बातें याद आएँगी । मैंने इससे पहले इरोस्ट्रेटस का नाम नहीं सुना था । पर मेरे लिए उसकी कथा प्रेरणा का स्रोत थी । वह दो हज़ार साल से भी पहले मर चुका था , पर उसका कृत्य अब भी काले हीरे-सा चमक रहा था । मैंने सोचना शुरू किया कि मेरी नियति लघु और त्रासद होगी । पहले मुझे डर लगा , किंतु फिर मैं इसका आदी हो गया । यदि आप इस बारे मे विशेष दृष्टिकोण से सोचें तो यह भयानक लग सकता है , पर दूसरी ओर यह बीत रहे पल को काफ़ी शक्ति और सुंदरता प्रदान करता है । सड़क पर चलते हुए मुझे अपने भीतर एक अजीब-सी ताकत का अहसास होता । रिवॉल्वर मेरे पास था — वह चीज़ जो , जो विस्फोट और आवाज़ करती है । लेकिन अब मुझे वह चीज़ शक्ति नहीं देती थी । दरअसल शक्ति और विश्वास मेरे भीतर से उत्पन्न हो रहा था । जैसे मैं खुद किसी रिवॉल्वर की तरह था , तारपीडो की तरह था , बम की तरह था । मैं भी अपने शांत जीवन के अंत में एक दिन फट जाऊँगा और मैग्नीशियम की तरह लघु और तेज चमक से विश्व को प्रकाशमय कर दूँगा । उस समय मुझे कई रातों तक एक ही सपना आया । मैं अराजकतावादी था । मैंने खुद को ज़ार के रास्ते में डाल दिया था और मेरे पास आग उगलने वाला एक यंत्र था । निश्चित समय पर जुलूस निकला , बम फटा और हम भीड़ के सामने हवा में उछाल दिए गए — मैं , ज़ार और सुनहरे फ़ीतों वाले तीन अधिकारी ।
                 इसके बाद मैंने कई हफ़्तों तक दफ़्तर में अपनी शक्ल नहीं दिखाई । मैं मुख्य मार्गों पर अपने भावी शिकारों के बीच घूमता या कमरे में बंद होकर अपनी योजनाएँ बनाता । अक्टूबर के शुरू में उन्होंने मुझे नौकरी से निकाल दिया । तब मैंने आराम से यह पत्र लिखा , जिसकी मैंने एक सौ दो प्रतियाँ बनाईं —

                   ” श्रीमन्
                             आप प्रसिद्ध व्यक्ति हैं और आपकी रचनाएँ हज़ारों की संख्या में बिकी हैं । मैं आपको बताता हूँ , क्यों — क्योंकि आप मनुष्य से प्यार करते हैं । आपके लहू में मानवतावाद है । आप भाग्यशाली हैं । जब आप लोगों के साथ होते हैं तो अपना विस्तार कर लेते हैं । जब भी आप अपने जैसा कोई इंसान देखते हैं , आपमें उसके लिए सहानुभूति उमड़ आती है , भले ही आप उसे जानते भी न हों । आपमें उसके शरीर के प्रति , उसकी टाँगों के प्रति , और इन सबसे ज़्यादा उसके हाथों के प्रति रुचि है — इससे आपको ख़ुशी होती है , क्योंकि उसके हर हाथ में पाँच उँगलियाँ हैं और वह बाक़ी उँगलियों के साथ अपना अँगूठा भिड़ा सकता है । जब आपका पड़ोसी मेज़ से क़लम उठाता है तो आप खिल उठते हैं , क्योंकि उसे उठाने का एक तरीका है जो बेहद मानवीय है और जिसका वर्णन अकसर आपने अपनी रचनाओं में किया है । यह किसी बंदर के तरीके से कम लचीला और कम तेज है , लेकिन उससे कहीं ज़्यादा समझदार तरीका है । आप भी आदमी की गहरे ज़ख़्म खाई मुद्रा से और उसकी प्रसिद्ध दृष्टि से प्यार करते हैं । यह जंगली पशु के तौर-तरीक़ों से अलग है । इसलिए आपके लिए इंसान से उसी के बारे में बात करने के लिए सही लहज़ा ढूँढ़ना आसान है — मर्यादित , किंतु उन्माद से भरा हुआ । लोग आपकी किताबों पर लालचियों की तरह टूट पड़ते हैं । उन्हें ख़ूबसूरत आरामकुर्सियों पर बैठकर पढ़ते हैं । वे महान प्रेम के बारे में सोचते हैं — शांत और त्रासद प्रेम , जो आप उनके सामने प्रस्तुत करते हैं । वह उनकी अनेक कमियों , जैसे बदसूरत होने , रिश्तों में धोखेबाज़ी और पहली जनवरी को वेतन वृद्धि न होने की भरपाई कर देता है । तब वे ख़ुशी से आपकी नई पुस्तक के बारे में कहते हैं — अच्छी रचना है ।
                   मुझे लगता है , आप यह जानने को उत्सुक होंगे कि वह व्यक्ति कैसा होगा जो मनुष्य से प्यार नहीं करता । ठीक है , मैं वैसा ही आदमी हूँ और मैं उनसे इतना कम प्यार करता हूँ कि जल्दी ही मैं बाहर जाकर उनमें से आधा दर्जन की हत्या कर दूँगा । शायद आप हैरान होंगे कि केवल आधा दर्जन ही क्यों ? क्योंकि मेरे रिवॉल्वर में केवल छह गोलियाँ हैं । अमानवीयता है न ? और एकदम असभ्य कृत्य ? लेकिन मैं आप को बताता हूँ कि मैं उनसे प्यार नहीं करता । मैं समझता हूँ , आप क्या महसूस करते हैं । किंतु जो कुछ आपको अपनी ओर खींचता है , वही मुझमें घृणा उत्पन्न करता है । मैंने आप ही की तरह लोगों को हर वस्तु पर निगाह रखे , बाएँ हाथ से इकोनॉमिक रिव्यू के पन्ने धीरे-धीरे पलटते हुए देखा है । क्या यह मेरी ग़लती है कि मैं समुद्री सिंहों को भोजन करते हुए देखना अधिक पसंद करता हूँ ? इंसान अपने चेहरे को शरीर-विज्ञान के खेल में बदले बिना उससे कोई काम नहीं ले सकता । जब वह मुँह बंद करके कुछ चबाता है तो उसके जबड़े के कोने ऊपर-नीचे होते रहते हैं । मैं जानता हूँ , आप इस दुख भरे आश्चर्य को पसंद करते हैं । पर मुझे इससे परेशानी होती है , न जाने क्यों ; मैं शुरू से ही ऐसा हूँ ।
                  यदि हम लोगों में केवल रुचियों का ही अंतर होता तो मैं आपको कष्ट नहीं देता । पर यह सब कुछ ऐसे घटित होता है जैसे सारी सज्जनता आपमें ही है , मुझमें कुछ नहीं । मैं न्यूबर्ग झींगे को पसंद या नापसंद करने के लिए तो स्वतंत्र हूँ , किंतु यदि मैं मनुष्यों को नापसंद करता हूँ तो मैं कमीना हूँ और सूरज की रोशनी तले मेरे लिए कोई जगह नहीं । उन्होंने जीवन की संचेतना पर जैसे एकाधिकार कर लिया है । मेरा ख़्याल है कि आप मेरा मतलब समझ जाएँगे । पिछले तैंतीस सालों से मैं ऐसे बंद दरवाज़े खटखटा रहा हूँ जिन पर लिखा है — ‘ यदि आप मानवतावादी नहीं हैं तो आपके लिए प्रवेश निषिद्ध है । ‘ मुझे सब कुछ त्यागना पड़ा है । मुझे चुनाव करना पड़ा — वह या तो असंगत और दुर्भाग्यपूर्ण प्रयत्न रहा या देर-सवेर वह उनके फ़ायदे में बदल गया । मैं खुद को उन विचारों से अलग नहीं कर सका , जिन्हें बनाते समय मैंने उनका स्थान साफ़-साफ़ नियत नहीं किया था । वे मेरे भीतर संघटित जातियों की तरह बने रहे । मेरे प्रयोग किए हथियार तक उनके थे । उदाहरण के
लिए , शब्द — मैं अपने शब्द चाहता था , किंतु जिन शब्दों का मैं इस्तेमाल करता था , वे पता नहीं कितनी चेतनाओं से घिसटकर निकले हैं । उन आदतों के कारण जो मैंने दूसरों से पाई हैं , वे खुद-ब-खुद मेरे ज़हन में क्रमबद्ध हो जाते हैं । और यह भी असंगतिहीन नहीं है कि मैं लिखते समय उनका प्रयोग कर रहा हूँ । , हालाँकि यह अंतिम बार है ।
                   मैं आपको बताता हूँ , लोगों से प्रेम कीजिए वरना उन्हें हक़ है कि वे आपको बाहर खदेड़ दें । ख़ैर , मैं खदेड़ा जाना नहीं चाहता । जल्दी ही मैं अपना रिवॉल्वर लूँगा , नीचे सड़क पर जाऊँगा और यह सुनिश्चित करूँगा कि कोई उन लोगों का कुछ बिगाड़ सके । अलविदा । शायद आप ही वह हों जिससे मैं मिलूँगा ।
आप इस बात का अंदाज़ा बिलकुल नहीं लगा पाएँगे कि आपको हैरान करने में मुझे कितनी ख़ुशी होगी । यदि ऐसा नहीं होता — और इसकी सम्भावना ज़्यादा है — तो कल का अख़बार पढ़िएगा । उसमें आप पाएँगे कि पॉल हिल्बेयर नाम के शख़्स ने उन्माद के पल में छह राहगीरों की हत्या कर दी । समाचारपत्रों के गद्य के महत्त्व को आप औरों से अधिक समझते हैं । आप समझते हैं न कि मैं ‘ उन्मादी ‘ नहीं हूँ । इसके ठीक उलट मैं एकदम शांतचित्त हूँ और महोदय , मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप इन विशिष्ट भावनाओं में मेरे विश्वास को स्वीकार करें ।
                                                                                — पॉल हिल्बेयर

                  मैंने वे एक सौ दो पत्र एक सौ दो लिफ़ाफ़ों में डाले और उन पर फ़्रांस के एक सौ दो लेखकों के पते लिख दिए । उसके बाद मैंने डाक-टिकटों की छह गड्डियों के साथ सब कुछ अपनी मेज की दराज में डाल दिया ।
                  अगले दो सप्ताह मैं बहुत कम बाहर निकला । मैंने खुद को धीरे-धीरे अपने अपराध में जज़्ब होने दिया । अकसर मैं शीशे में देखता कि मेरे चेहरे में ख़ुशी से बदलाव हो रहा है । मेरी आँखें बड़ी हो गयी थीं । ऐसा लगता था जैसे वे मेरे सारे चेहरे को खा रही हों । वे चश्मे के पीछे काली और कोमल लगती थीं और मैं उन्हें नक्षत्रों की तरह घुमाता था । वे आँखें किसी कलाकार या हत्यारे की आँखों की तरह तेज थीं , पर मैंने अंदाज़ा लगाया कि सामूहिक हत्याओं के बाद उनमें और भी गहरा परिवर्तन होगा । मैंने दो ख़ूबसूरत लड़कियों की फ़ोटो देखी है — नौकरानियों की , जिन्होंने अपनी मालकिनों की हत्या करके उन्हें लूट लिया था । मैंने उनके पहले के और बाद के चित्र देखे हैं । पहले के चित्रों में उनके चेहरे किसी बदसूरत भूत के कॉलरों पर जमे शर्मीले फूलों-से दिखाई देते थे । किसी सतर्क घूँघट बनाने वाली कंघी ने उनके बालों को बिलकुल एक जैसा आकार दिया था । उनके घुँघराले बालों से भी ज़्यादा भरोसा दिलाने वाली चीज़ थी उनके कॉलर और फ़ोटोग्राफ़र के सामने होने का उनका अहसास । उनमें बहनापे की समानता लगती थी — एक ऐसी समानता , जो फ़ौरन ख़ून के रिश्तों और प्राकृतिक-पारिवारिक सम्बन्धों को उजागर कर देती है । बाद की फ़ोटो में उनके चेहरे आग जैसे दैदीप्यमान थे । उनकी गर्दनें उन क़ैदियों की तरह नंगी थीं जिनके सिर अभी -अभी उड़ाए जाने हो । हर जगह झुर्रियाँ थीं । डर और घृणा की डरावनी झुर्रियाँ , जैसे कोई हिंस्र पशु उनके चेहरों पर चला हो और अपनी छाप छोड़ गया हो । और वे आँखें — वे काली , उथली आँखें मेरी आँखों की तरह थीं ।
                   ” यदि यह अपराध , जो अधिकांश में केवल अवसर था , ” मैंने खुद से कहा , ” इन लड़कियों के चेहरों को बदलने के लिए पर्याप्त है , तो मैं उस अपराध से क्या अपेक्षा नहीं कर सकता , जिसकी कल्पना मैंने स्वयं की है और जिसे मैं खुद शक्ल दूँगा । ” वह मुझ पर अधिकार पा लेगा और मेरे सारे मानवीय भद्देपन को दूर कर देगा … अपराध , जो उसे दोहरे रूप में करने वाले आदमी के जीवन को काट देता है । ऐसा समय आ सकता है जब कोई पीछे लौटना चाहे , पर यह चमकदार चीज़ उस समय आपके पीछे होती है , आपका रास्ता रोकती हुई । मेरी माँग केवल एक घंटे की थी ताकि मैं अपने कृत्य का आनंद ले सकूँ ।
                    मैंने ज़्यादा खर्चीली ज़िंदगी शुरू कर दी । मैंने रुए वेविन पर स्थित एक रेस्तराँ के मालिक से सुबह-शाम अपना खाना मँगवाने का प्रबंध कर लिया । वेटर ने घंटी बजाई पर मैंने दरवाज़ा नहीं खोला । मैंने कुछ मिनट इंतज़ार किया , फिर दरवाज़ा आधा खोला और फ़र्श पर रखी थाली में भाप छोड़ती बड़ी प्लेटें देखीं ।
                     27 अक्टूबर को शाम छह बजे मेरे पास कुल 17 फ़्रैंक और 50 सेंतीमे बचे थे । मैंने अपना रिवॉल्वर उठाया , चिट्ठियों का पुलिंदा लिया और नीचे चला गया । मैंने दरवाज़ा जानबूझकर बंद नहीं किया ताकि काम ख़त्म करके लौटते समय मैं ज़्यादा तेज़ी से भीतर आ सकूँ । मेरी तबीयत ठीक नहीं थी । मेरे हाथ ठंडे हो गए थे और ख़ून जैसे मेरे सिर में जमा हो रहा था । मेरी आँखों में जलन हो रही थी ।
मैंने होटल देस एकोलेस और स्टेश्नरी वाली दुकान की ओर देखा , जहाँ से मैं पेंसिलें ख़रीदता था । वे जानी-पहचानी नहीं लगीं । मुझे हैरानी हुई । मैंने खुद से पूछा , ” यह कौन-सी सड़क है ? “
                        बुलेवा द्यूत मोंते पर्रनास्से लोगों से खचाखच भरा हुआ था । वे मुझे ठेल रहे थे । दबा रहे थे । अपनी कोहनियों या कंधों से मुझे धकेल रहे थे । मैंने खुद को धक्का लगाए जाने का विरोध नहीं किया । मुझमें उनके बीच घुसने की ताकत नहीं थी । किंतु अचानक मैंने खुद को उस भीड़ के बीचों-बीच पाया , भयावह रूप से लघु और अकेला । केवल चाहने भर से वे मुझे चोट पहुँचा सकते थे । मैं अपनी जेब में पड़े रिवॉल्वर के कारण डरा हुआ था । मुझे लगा कि लोग मेरे पास रिवॉल्वर होने का अनुमान लगा सकते हैं । वे अपनी तीखी निगाहों से मुझे घूरते और अपने पाशविक पंजों से मुझे बेधते हुए ख़ुशी भरी घृणा से कहते , ” ऐ , तुम … हाँ , तुम्हीं … ! ” वे मेरे चिथड़े उड़ा सकते थे । वे मुझे अपने सिरों से भी ऊपर उछाल सकते थे और मैं उनकी बाज़ुओं में कठपुतली की तरह वापस आ गिरता । मैंने अपनी योजना को अगले दिन तक के लिए स्थगित कर देना बेहतर समझा । मैंने कूपोले में जा कर भोजन किया । वहाँ मैंने 16 फ़्रैंक और 80 सेंतीमे ख़र्च कर दिए । अब मेरे पास 70 सेंतीमे बचे थे और मैंने उनको गटर में फेंक दिया ।
    ***       ***       ***      ***      ***      ***      ***      ***      ***
                         मैं तीन दिनों तक अपने कमरे में बिना कुछ खाए , बिना सोए पड़ा रहा । मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा था और मुझमें इतना साहस भी न था कि मैं खिड़की के पास चला जाऊँ या बत्ती जला लूँ । सोमवार को किसी ने दरवाज़े पर घंटी बजाई । मैंने अपनी साँस रोक ली और प्रतीक्षा करने लगा । फिर मैं पंजों के बल चलकर गया और अपनी आँख चाबी के छेद से लगा दी । पर मैं केवल काले कपड़े का टुकड़ा और एक बटन देख सका । उस आदमी ने दोबारा घंटी बजाई । फिर वह चला गया । मुझे नहीं पता , वह कौन था । रात में मुझे तरोताज़ा करने वाली चीज़ें दिखाई दीं — तालवृक्ष , बहता हुआ पानी और गुम्बद के ऊपर नीला , लोहित आकाश । मैं प्यासा नहीं था , क्योंकि मैं हर घंटे नल पर जा कर पानी पी लेता था । पर मैं भूखा था ।
                          मुझे वह वेश्या फिर दिखाई दी । या वह मेरी कल्पना थी । यह सब एक क़िले में था जो शहर से 60 मील दूर कॉसेस नॉएरस में था । वह नग्न थी ।
अकेली । मेरे साथ । रिवॉल्वर से डराते हुए मैंने उसे घुटने के बल झुकने और हाथ-पैरों पर दौड़ने के लिए विवश कर दिया । फिर मैंने उसे एक खम्भे से बाँध दिया और      उसे अच्छी तरह यह समझाने के बाद कि मैं क्या करने वाला हूँ , मैंने उसे गोलियों से भून दिया । इन वेश्याओं ने मुझे इतना परेशान कर दिया था कि मुझे इसी से संतोष करना पड़ा । बाद में मैं अँधेरे में बिना हिले-डुले पड़ा रहा । मेरा सिर एकदम ख़ाली था । पुराना पलंग चरमराने लगा । सुबह के पाँच बज रहे थे । मैं कमरे से बाहर निकलने के लिए कुछ भी दे सकता था , पर मुश्किल यह थी कि सड़क पर लोगों के होने की वजह से मैं नीचे नहीं जा सकता था ।
                           फिर दिन निकल आया । अब मुझे भूख महसूस नहीं हो रही थी , लेकिन मुझे बेइंतहा पसीना आ रहा था । मेरी क़मीज़ पूरी तरह भीग चुकी थी । बाहर धूप निकली हुई थी । तब मैंने सोचा — ” वह बंद कमरे में अँधेरे से घिरा हुआ है । उसने तीन दिनों से न कुछ खाया है , न ही वह सोया है । उन्होंने घंटी बजाई और उसने दरवाज़ा नहीं खोला । जल्दी ही वह सड़क पर जाएगा और हत्याएँ करेगा । “
                            मैंने खुद को डराया । शाम को छह बजे मुझे फिर से भूख सताने लगी । मैं ग़ुस्से से पागल था । मैंने मेज-कुर्सियों से ठोकर खाई । फिर मैंने कमरों , रसोई और शौचालय की बत्तियाँ जला दीं , और बेहद ऊँची आवाज़ में गाने लगा । इसके बाद मैंने अपने हाथ धोए और बाहर चला गया । सारी चिट्ठियों को डाक के बक्से में डालने में मुझे पूरे दो मिनट लग गए । मैंने उन्हें दस-दस करके भीतर धकेला । कुछ लिफ़ाफ़े तो मैंने मोड़ भी दिए होंगे । फिर मैं बुलेवा द्यू मोंते पार्नास्से पर रुए ओडीसा तक बढ़ गया । मैं एक बिसाती की खिड़की के आगे रुका और जब मैंने अपना चेहरा देखा तो सोचा , ” आज रात ! “
                             मैं रुए ओडीसा के सिरे पर रुक गया । सड़क का खम्भा मुझ से ज़्यादा दूर नहीं था । मैं इंतज़ार करने लगा । दो औरतें एक-दूसरे की बाँहों में बाँहें डाले गुज़रीं ।
                             मुझे ठंडा पसीना आ रहा था । कुछ देर बाद मैंने तीन आदमियों को आते हुए देखा । मैंने उन्हें जाने दिया । मुझे छह लोगों की ज़रूरत थी । बायीं ओर वाले आदमी ने मुझे देखा और जीभ से चटकारा लिया । मैंने अपनी आँखें घुमा लीं ।
                             सात बज कर पाँच मिनट पर एडगर-क्विनेट मुख्य मार्ग पर लोगों के दो झुंड आए । उनमें दो बच्चे , एक पुरुष और एक महिला थी । उनके पीछे तीन वृद्धाएँ थीं । मैं एक क़दम आगे बढ़ा । महिला ग़ुस्से में लग रही थी और छोटे लड़के की बाँह खींच रही थी । पुरुष धीरे से बोला , ” कितना कमीना है ! “
                             मेरा दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था कि मेरी बाँह पर चोट कर रहा था । मैं आगे बढ़ा और उनके सामने खड़ा हो गया । जेब में मेरी उँगलियाँ रिवॉल्वर के ट्रिगर को घेरे हुए थीं ।
                             ” माफ़ कीजिए । ” पुरुष मुझसे टकराते हुए बोला । उसी समय मुझे याद आया कि मैंने अपने मकान का दरवाज़ा बंद कर दिया था और इससे मुझे ग़ुस्सा आ गया । मैं जान गया कि मुझे उसे खोलने में अपना क़ीमती समय नष्ट करना पड़ेगा । इस बीच वे लोग मुझसे और दूर होते जा रहे थे । मैं घूमा और यांत्रिक ढंग से उनके पीछे चलने लगा , पर अब मुझमें उन पर गोली चलाने की इच्छा नहीं बची थी ।
वे मुख्य सड़क पर भीड़ में खो गए । मैं दीवार के सहारे खड़ा हो गया । मैंने आठ और नौ बजे के घंटे सुने । मैंने खुद से दोहराया , ” मैं इन लोगों को क्यों मारूँ जो पहले से ही मरे हुए हैं ! ” और मैंने हँसना चाहा । एक कुत्ता आया और मेरे पैर सूँघने लगा ।
                                जब वह लम्बा-तगड़ा आदमी मेरे पास से गुज़रा तो मैं उछल कर उसके पीछे हो लिया । मैं उसके डर्बी हैट और ओवरकोट के कॉलर के बीच उसकी लाल गर्दन की झुर्री देख सकता था । वह चलते हुए थोड़ा उचक रहा था और गहरी साँसें ले रहा था । वह भारी-भरकम दिखाई देता था । मैंने जेब से अपना रिवॉल्वर निकाला । वह ठंडा और चमकदार था । उसने मेरे भीतर नफ़रत पैदा कर दी । मैं यह अच्छी तरह याद नहीं कर पा रहा था कि आख़िर मुझे उससे क्या काम लेना है । कभी मैं रिवॉल्वर को देखता , कभी उस आदमी की गर्दन को । मुझे लगा जैसे उसकी गर्दन की झुर्री मुझ पर कड़वी मुस्कान फेंक रही थी । मुझे हैरानी हुई कि कहीं मैं अपना रिवॉल्वर नाले में न डाल दूँ ।
                              अचानक वह आदमी मुड़ा और मुझे घूरने लगा । वह चिढ़ा हुआ था । मैं पीछे हटा ।
                              ” मैं आपसे पूछना चाहता था …। “
                              लगता था जैसे वह सुन ही नहीं रहा था । वह केवल मेरे हाथों की ओर देख रहा था । मुझे बात आगे बढ़ाने में मुश्किल हुई , ” … कि रुए दे लागाइते
को कौन-सा रास्ता जाता है ? “
                              उसका चेहरा भारी था । उसके होठ काँप रहे थे । वह कुछ नहीं बोला । उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया । मैं और पीछे हटा और बोला , ” मैं चाहता …”
                              तब मैं जानता था कि मैं चीख़ना शुरू कर दूँगा । मैं यह नहीं चाहता था । मैंने उसके पेट पर तीन बार गोली चलाई । वह बेवक़ूफ़ाना भाव लिए घुटनों के बल गिरा और उसका हाथ बाएँ कंधे पर लुढ़क गया ।
                              ” हरामी कहीं का ,” मैंने कहा , ” सड़ा हुआ आदमी ! “
                              फिर मैं भागा । मैंने उसे खाँसते हुए सुना । मैंने शोर की आवाज़ और अपने पीछे भागते हुए क़दमों की चरमराहट भी सुनी । किसी ने पूछा , ” झगड़ा हुआ था क्या ? ” उसके ठीक बाद कोई चिल्लाया , ” ख़ून ! ख़ून ! ” मैंने सोचा , इस शोर का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है ।
                              मैंने केवल एक बहुत बड़ी ग़लती कर दी थी — रुए ओडीसा पर एड्गर क्विनेट की ओर भागने के बजाए मैं बुलेवा द्यू मौंतेपार्नास्से की ओर भाग रहा था । जब मुझे इसका अहसास हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी । मैं भीड़ से घिर चुका था । हैरानी से भरे हुए चेहरे मुझे घूर रहे थे , ( मुझे एक महिला का भारी और खुरदरा चेहरा याद है जो पंखों के गुच्छे वाली एक टोपी लगाए थी ) और मैंने अपने पीछे रुए ओडीसा से आने वाली चिल्लाहटें सुनीं — ” ख़ून , ख़ून ! “
                               एक हाथ ने मुझे कंधे से पकड़ लिया । मैं अपना मानसिक संतुलन खो बैठा । मैं इस भीड़ के हाथों पिट कर मरना नहीं चाहता था । मैंने दो बार गोली चला दी । लोगों ने चीख़ना और इधर-उधर भागना शुरू कर दिया । मैं एक कैफ़े में घुस गया । मैं जब खाने-पीने वालों के बीच से हो कर भागा तो वे सब चौंके , पर किसी ने मुझे रोकने की कोशिश नहीं की । मैंने कैफ़े के अंत में स्थित शौचालय में खुद को बंद कर लिया । अभी मेरे पास रिवॉल्वर में एक गोली बाक़ी थी ।
                              कुछ पल बीत गए । मैं बुरी तरह हाँफ़ रहा था और मेरी साँस फूल गई थी । सब कुछ असामान्य रूप से मौन था , जैसे लोग जानबूझकर शांत हों ।
मैंने रिवॉल्वर को अपनी आँखों के सामने किया और उसका छोटा-सा छेद देखा , गोल और काला — वहाँ से गोली निकलेगी , पाउडर मेरा चेहरा जला देगा । मैंने बाँह नीचे की और इंतज़ार करने लगा । कुछ पलों के बाद वे आ गए । काफ़ी भीड़ होगी — मैंने फ़र्श पर पैरों की आहट से अनुमान लगाया । वे कुछ फुसफुसाए और फिर शांत हो गए । मैं अभी ज़ोर-ज़ोर से साँस ले रहा था और सोच रहा था कि दरवाज़े के दूसरी ओर वे मेरी साँसों की आवाज़ सुन रहे होंगे । उनमें से कोई आगे बढ़ा और उसने दरवाज़े की कुंडी घुमाई । वह मेरी गोली से बचने के लिए ज़रूर दरवाज़े से चिपका खड़ा होगा । मैं अभी गोली चलाना चाहता था , लेकिन अंतिम गोली मेरे लिए थी ।
                              वे किसलिए प्रतीक्षा कर रहे हैं ? मुझे आश्चर्य हुआ । अगर उन्होंने अचानक झटके से दरवाज़ा तोड़ दिया तो मेरे पास इतना भी समय नहीं होगा कि मैं खुद को गोली मार सकूँ और वे मुझे ज़िंदा पकड़ लेंगे । पर उन्हें कोई जल्दी नहीं थी । वे मुझे मरने के लिए बहुत समय दे रहे थे । हरामज़ादे , सब-के-सब डरे हुए थे ।
                              कुछ देर बाद एक आवाज़ ने कहा , ” ऐ … दरवाज़ा खोल दे । हम तुझे मारेंगे नहीं । ” फिर ख़ामोशी छा गई और उसी आवाज़ ने दोबारा कहा , ” तू बचकर नहीं निकल सकता । “
                              मैंने कोई जवाब नहीं दिया । मैं अभी भी हाँफ़ रहा था । गोली चलाने लायक हिम्मत जुटाने के लिए मैंने खुद से कहा , ” अगर उन्होंने मुझे पकड़ लिया तो वे मुझे पीटेंगे , मेरे दाँत तोड़ देंगे । हो सकता है , मेरी एक आँख ही निकाल लें । “
                              क्या वह विशालकाय आदमी मर गया था ? या मैंने उसे सिर्फ़ घायल किया था ? शायद दूसरी दोनों गोलियाँ भी किसी को न लगी हों …। वे लोग कुछ तैयारी कर रहे थे । वे फ़र्श पर कोई भारी चीज़ घसीट रहे थे । मैंने तेज़ी से रिवॉल्वर की नली अपने मुँह से लगाई । पर मैं गोली नहीं चला पाया , यहाँ तक कि मैं अपनी उँगली भी ट्रिगर पर नहीं रख पाया । चारो ओर गहरा सन्नाटा था ।
                              मैंने रिवॉल्वर फेंककर दरवाज़ा खोल दिया ।

                               ————०————

प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
           A-5001 ,
           गौड़ ग्रीन सिटी ,
           वैभव खंड ,
           इंदिरापुरम ,
           ग़ाज़ियाबाद -201014
           ( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

जैक लंडन की कहानी- द चिनागो

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Photo by Henrik Dønnestad on Unsplash

जैक लंडन की कहानी ” द चिनागो ” का  अंग्रेज़ी से हिंदी में ” वह चिनागो ” शीर्षक से अनुवाद )

वह चिनागो

 मूल लेखक : जैक लंडन

अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

” प्रवाल विकसित होता है , ताड़ बढ़ता है , लेकिन मनुष्य प्रयाण कर जाता है ।”

— ताहिती की कहावत ।

   अह चो फ़्रांसीसी नहीं समझता था । वह बेहद थका-माँदा और उकताया हुआ , अदालत के भरे हुए कमरे में लगातार विस्फोटक फ़्रांसीसी सुनते हुए बैठा था , जिसे कभी एक अधिकारी और कभी दूसरा बोलता था । अह चो के लिए यह केवल बहुत ज़्यादा बड़बड़ाहट थी , और वह फ़्रांसीसी लोगों की मूर्खता पर आश्चर्यचकित था जो चुंग गा के हत्यारे का पता लगाने में इतनी देरी कर रहे थे , और जिन्होंने उसका पता बिल्कुल नहीं लगाया । बाग़ान के पाँच सौ क़ुली जानते थे कि अह सेन ने यह हत्या की थी और यहाँ यह हाल था कि अह सेन को गिरफ़्तार तक नहीं किया गया था । यह सच था कि सभी कुलियों ने एक दूसरे के विरुद्ध गवाही नहीं देने की बात गुप्त रूप से मान ली थी , पर फिर भी यह पता लगाना बेहद आसान था और फ़्रांसीसी लोगों को यह खोज निकालने में समर्थ होना चाहिए था कि अह सेन ही वह व्यक्ति था । ये बेहद मूर्ख थे, ये फ़्रांसीसी ।

   अह चो ने ऐसा कुछ नहीं किया था जिसके लिए वह भयभीत होता । हत्या में उसका कोई हाथ नहीं था । यह सच है कि वह उस समय वहाँ मौजूद था , और बाग़ान का निरीक्षक स्केमर ठीक उसके बाद दौड़कर बैरक में आया था और चार या पाँच अन्य कुलियों के साथ उसे वहाँ पकड़ा था , पर उससे क्या होता है ? चुंग गा को केवल दो बार छुरा मारा गया था । यह बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरता था कि पाँच या छह आदमी छुरों के दो घाव नहीं लगा सकते थे । यदि एक व्यक्ति ने केवल एक बार छुरा मारा था तो ज़्यादा से ज़्यादा केवल दो आदमी ही ऐसा कर सकते थे ।

   अह चो ने यही तर्क सोचा था , जब उसने और उसके चार साथियों ने घटने वाली घटना के सम्बन्ध में अदालत को दिए गए अपने बयानों में झूठ बोला था और तथ्यों को अवरुद्ध और धुँधला कर दिया था । उन्होंने हत्या की आवाज़ें सुनी थीं , और स्केमर की तरह वे उस जगह की ओर दौड़े थे । वे स्केमर से पहले वहाँ पहुँच गए थे — केवल यही बात थी । सच है , स्केमर ने बयान दिया था कि जब वह वहाँ से गुज़र रहा था तो झगड़े की आवाज़ से आकृष्ट हो कर वह कम से कम पाँच मिनट तक बाहर खड़ा रहा था और तब , जब वह भीतर गया , उसने क़ैदियों को पहले से ही भीतर पाया । स्केमर ने अपने बयान में यह भी कहा था कि क़ैदी ठीक पहले भीतर नहीं गए थे क्योंकि वह बैरक के एकमात्र दरवाज़े के पास खड़ा रहा था । पर उससे क्या होता है? अह चो और उसके चारो साथी-क़ैदियों ने बयान दिया था कि स्केमर भ्रम में था और ग़लत था । अंत में उन्हें जाने दिया जाएगा । वे सभी इसके प्रति आश्वस्त थे । छुरे के दो घावों के लिए पाँच आदमियों से उनके सिर नहीं काटे जा सकते थे । इसके अलावा किसी विदेशी शैतान ने हत्या होते हुए नहीं देखी थी । पर ये फ्रांसीसी लोग कितने मूर्ख थे । जैसा कि अह चो अच्छी तरह जानता था , चीन में दण्डाधिकारी उन सबको यंत्रणा देने का आदेश दे देता और सच्चाई जान लेता । उत्पीड़न के द्वारा सच्चाई जानना बेहद आसान था । मगर ये फ़्रांसीसी लोग यातना नहीं देते थे — बहुत बड़े मूर्ख थे ये । इसलिए ये कभी नहीं जान पाएँगे कि कि चुंग गा की हत्या किसने की ।

     पर अह चो सब कुछ नहीं समझता था । बाग़ान का स्वामित्व रखने वाली कंपनी ने काफ़ी बड़े खर्चे पर ताहिती में पाँच सौ कुलियों का आयात किया था । शेयर-होल्डर लाभांश के लिए शोर मचा रहे थे , और कंपनी ने अब तक कोई लाभांश अदा नहीं किया था । इसलिए कंपनी यह नहीं चाहती थी कि उसके क़ीमती अनुबंधित मज़दूर एक-दूसरे को मारने की प्रथा शुरू कर दें । साथ ही, वहाँ चिनागो लोगों पर फ़्रांसीसी क़ानून की ख़ूबियाँ और श्रेष्ठता थोपने के लिए उत्सुक और इच्छुक फ़्रांसीसी भी थे । कभी-कभार उदाहरण स्थापित करने से ज़्यादा अच्छा कुछ नहीं था ।इसके अलावा , इंसान होने और नश्वर होने के कारण सजा के भुगतान के तौर पर लोगों को अपने दिन दुर्दशा और दुख में बिताने के लिए भेजने के सिवाय न्यू कैलेडोनिया और किस काम का था ?

     अह चो यह सब नहीं समझता था । वह अदालत के कमरे में बैठा विस्मयकारी न्याय की प्रतीक्षा कर रहा था जो उसे और उसके साथियों को वापस बाग़ान पर जाने और और अनुबंध की शर्तों को पूरा करने के लिए मुक्त कर देगी । यह फ़ैसला जल्दी ही दे दिया जाएगा । कार्यवाही समाप्ति की ओर घिसट रही थी । वह यह देख सकता था । अब न और बयान दिए जा रहे थे , न और लोगों की बड़बड़ सुनाई दे रही थी । फ़्रांसीसी शैतान भी थक गए थे और स्पष्ट रूप से निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे । और जब वह इंतज़ार कर रहा था तो उसने अपने जीवन के उस पिछले समय को याद किया जब उसने अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे और जहाज़ में बैठ कर ताहिती के लिए रवाना हुआ था । उसके समुद्र-तटीय गाँव में समय बेहद कठिन रहा था , और तब उसने ख़ुद को सौभाग्यशाली माना था जब उसने दक्षिणी समुद्र में पचास मेक्सिकी सेंट प्रतिदिन पर पाँच सालों के लिए मेहनत-मज़दूरी करने के लिए ख़ुद को करारबद्ध किया था ।

     उसके गाँव में ऐसे पुरुष थे जो दस मेक्सिकी डाॅलर के लिए साल भर कड़ी मेहनत करते थे , और ऐसी औरतें थीं जो पाँच डाॅलर पाती थीं और यहाँ उसे एक दिन का पचास सेंट मिलना था । एक दिन के काम के एवज़ में , केवल एक ही दिन के काम के लिए उसे वह राजसी धन-राशि मिल जानी थी । अगर काम मुश्किल था तो क्या हुआ ? पाँच सालों के अंत में वह घर लौट आएगा — यह अनुबंध में लिखा था — और उसे दोबारा कभी यह काम नहीं करना पड़ेगा । वह जीवन भर के लिए एक अमीर आदमी हो जाएगा , जिसका अपना एक घर होगा , पत्नी होगी , और सयाने हो रहे बच्चे होंगे जो उसका आदर करेंगे । हाँ, और घर के पिछवाड़े में उसका एक छोटा बग़ीचा होगा , सोचने-विचारने और आराम करने की एक जगह , और एक बहुत छोटे ताल में सोन-मछलियाँ होंगी । पेड़ों में हवा से बजने वाली घंटियाँ टनटनाएँगी , और चारो ओर एक ऊँची दीवार होगी ताकि उसका सोचना-विचारना और आराम करना शांत और अक्षुब्ध रहे ।

    ख़ैर , उसने उन पाँच सालों में से तीन साल बिता लिए थे । अपनी कमाई के द्वारा वह अपने देश में अभी से एक धनी आदमी हो गया था , और ताहिती में कपास के बाग़ान और उसकी राह देख रहे सोचने-विचारने और आराम करने के बग़ीचे के बीच में केवल दो साल और पड़ते थे । लेकिन ठीक इस समय वह चुंग गा की हत्या के समय मौजूद रहने की बदक़िस्मत दुर्घटना के कारण रुपए-पैसे खो रहा था । वह तीन हफ़्ते से जेलखाने में पड़ा था , और उन तीन हफ़्तों में से प्रत्येक दिन के लिए उसने पचास सेंट खोए थे । पर अब जल्दी ही फ़ैसला सुना दिया जाएगा , और वह वापस काम पर चला जाएगा ।

    अह चो की उम्र बाईस साल थी । वह ख़ुशमिज़ाज और अच्छे स्वभाव का था , और उसके लिए मुस्कराना आसान था । हालाँकि उसका शरीर एशियाई ढंग से छरहरा था , पर उसका चेहरा गोल-मटोल था । वह चाँद की तरह गोल था और वह एक सौम्य भद्रता और आत्मा की मधुर सहृदयता को आलोकित करता था जो उसके हमवतनों में विरल थी । उसके चेहरे का रूप-रंग भी उसे झूठा साबित नहीं करता

 था । उसने कभी गड़बड़ी नहीं फैलाई थी , कभी लड़ने-झगड़ने में भाग नहीं लिया

 था । वह जुआ नहीं खेलता था । उसकी अंतरात्मा उतनी निष्ठुर नहीं थी जितनी एक जुआरी की होनी चाहिए । वह साधारण चीज़ों और सामान्य इच्छाओं से संतुष्ट था । कपास के दहकते खेत में कड़ी मेहनत करने के बाद शाम की शीतलता में मौजूद नि:स्तब्धता और शांति उसे असीम संतोष देती थी । वह किसी अकेले फूल को एकटक देखते हुए और अस्तित्व के गूढ़ रहस्यों और पहेलियों पर चिंतन करते हुए घंटों बैठा रह सकता था । रेतीले समुद्र-तट के एक बहुत छोटे अर्द्ध-चंद्राकार पर खड़ा एक नीला बगुला, उड़न-मीन की रुपहली उछाल, या समुद्रताल के उस पार एक मोतिया और गुलाबी सूर्यास्त उसे इतना सम्मोहित कर सकते थे कि वह थकाऊ दिनों के जुलूस और स्केमर के भारी कोड़े के प्रति पूरी तरह भुलक्कड़ हो जाए ।

     स्केमर, कार्ल स्केमर , एक पशु था , एक बर्बर पशु । पर वह अपना वेतन कमाता था । वह उन पाँच सौ ग़ुलामों से ताक़त का अंतिम क़तरा निचोड़ लेता था क्योंकि वे तब तक ग़ुलाम ही थे जब तक कि उनके पाँच सालों की अवधि समाप्त नहीं हो जाती । स्केमर कड़ी मेहनत करता था ताकि वह उन पाँच सौ पसीना बहाते शरीरों से शक्ति निचोड़ सके और निर्यात के लिए तैयार कपास के रोयेंदार गट्ठों में उसके स्वरूप को बदल सके । यह उसकी प्रबल, कदाचित आदिम पाशविकता ही थी जो उसे स्वरूप-परिवर्तन को लागू करने की ताक़त देती थी । साथ ही , उसे तीन इंच चौड़े और गज भर लम्बे चमड़े के एक मोटे पट्टे की सहायता प्राप्त थी जिसके साथ वह चलता था और जो समय-समय पर किसी झुके हुए क़ुली की नंगी पीठ पर पिस्तौल की गोली की तरह धड़ाके के साथ गिरती थी । ये धड़ाके तब लगातार होते जब स्केमर घोड़े पर सवार हो कर खांचेदार खेत से गुज़रता था ।

     एक बार, अनुबंधित श्रम के पहले साल के शुरू में , उसने एक क़ुली को मुक्के के एक ही वार से मार डाला था । उसने उस आदमी के सिर को ठीक-ठीक अंडे के छिलके की तरह तो नहीं कुचला था , पर जो भीतर था उसे गड़बड़ कर देने के लिए वह घूँसा काफ़ी रहा था , और एक सप्ताह तक बीमार रहने के बाद वह आदमी चल बसा था । पर चीनियों ने ताहिती पर शासन करने वाले फ्रांसीसी शैतानों से शिकायत नहीं की थी । यह उनका अपना पहरेदार था । स्केमर उनकी समस्या था । उन्हें उसके कोप से दूर रहना था जैसे वे कन-खजूरों के विष से बचते थे जो घास में छिपे रहते या बारिश की रातों में रेंग कर सोने की जगहों पर पहुँच जाते । द्वीप की आलसी , भूरी चमड़ी वाली जनता जिन्हें चिनागो कह कर बुलाती थी उन्होंने यह ध्यान रखा कि वे स्केमर को बहुत ज़्यादा नाराज़ न करें । यह स्केमर के लिए पूरी मात्रा में की गई कड़ी मेहनत के बराबर था । स्केमर के मुक्के का वह वार कम्पनी के लिए हज़ारों डाॅलर के मूल्य का रहा था , किंतु इसके कारण स्केमर को कभी कोई परेशानी नहीं हुई ।

    फ़्रांसीसियों के पास उपनिवेशन की सहज वृत्ति नहीं थी और वे द्वीप के साधनों को विकसित करने के बचकाने खेल में व्यर्थ सिद्ध हुए थे । इसलिए अंग्रेज़ कम्पनी को सफल होता देखकर वे खुश हुए । स्केमर और उसके बदनाम घूँसे का मामला आख़िर था ही क्या ? एक चिनागो मर गया , यही न ? यही सही , आख़िर वह एक चिनागो ही तो था । इसके अलावा वह तो लू लगने से मरा था , जैसा कि डाॅक्टर के सर्टिफ़िकेट से प्रमाणित होता था । सच है, ताहिती के समूचे इतिहास में कभी कोई लू लगने से नहीं मरा था पर यही कारण था , ठीक यही , जो इस चिनागो की मौत को अनूठा बनाता था । डाॅक्टर ने भी अपनी रिपोर्ट में यही कहा था । वह बेहद स्पष्टवादी था । लाभांश अदा करना आवश्यक था , वरना ताहिती की असफलताओं के लम्बे इतिहास में एक और असफलता जुड़ जाती ।

    इन गोरे शैतानों को समझना असंभव था । न्याय की प्रतीक्षा करते हुए अदालत के कमरे में बैठा अह चो उनकी रहस्यमयता पर विचार करने लगा । उनके मन में क्या चल रहा होता यह कोई नहीं बता सकता था । उसने कुछ गोरे शैतानों को देखा था । वे सभी एक जैसे थे — जहाज़ पर मौजूद अफ़सर और नाविक , फ़्रांसीसी अधिकारी , बाग़ान पर मौजूद कई गोरे लोग , जिनमें स्केमर भी था । उन सभी के मन रहस्यमय रास्तों पर चलते थे जिन्हें समझ पाना असम्भव था । वे बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के नाराज़ हो जाते , और उनका क्रोध हमेशा ख़तरनाक होता । ऐसे समय में वे हिंस्र पशुओं जैसे हो जाते । वे छोटी-छोटी चीज़ों के लिए चिंतित रहते , और कभी-कभी एक चिनागो से भी ज़्यादा कड़ी मेहनत कर सकते थे । वे चिनागो लोगों की तरह मिताहारी नहीं थे , वे पेटू थे जो आश्चर्यजनक रूप से ज़्यादा खाते थे और उससे भी ज़्यादा शराब पीते थे । एक चिनागो यह कभी नहीं जान पाता था कि कब उसका कोई काम उन्हें ख़ुश कर देगा या उनके क्रोध का तूफ़ान खड़ा कर देगा । एक चिनागो यह कभी नहीं बता सकता था । जो चीज़ एक बार उन्हें ख़ुश करती थी , वही दूसरी बार क्रोध का विस्फोट उत्पन्न कर सकती थी । गोरे शैतानों की आँखों के पीछे एक पर्दा था जो उनके मन को चिनागो लोगों की टकटकी से छिपाता था । इन सब के अलावा गोरे शैतानों में भारी सामर्थ्य था , चीज़ों को करने की योग्यता थी । उनमें चीज़ों को चला सकने की , काम करके नतीजे निकाल सकने की और अपनी इच्छाशक्ति के अनुरूप सभी सरकने और रेंगने वाली चीज़ों को झुका सकने की दक्षता थी । बल्कि सभी मूल तत्वों की पूरी शक्तियाँ भी उन्हीं में थी । हाँ, गोरे लोग अनूठे और असाधारण थे और वे शैतान थे । स्केमर को देखो ।

     अह चो हैरान था कि फ़ैसला देने में इतनी देर क्यों लग रही थी । जिन लोगों पर मुक़दमा चल रहा था उन में से किसी ने चुंग गा को हाथ भी नहीं लगाया था । केवल अह सेन ने ही उसकी हत्या की थी । अह सेन ने चुंग गा की चोटी पकड़ कर एक हाथ से उसका सिर पीछे झुकाया था और फिर पीछे से दूसरा हाथ आगे बढ़ा कर चाक़ू को उसके शरीर में घुसा दिया था । दो बार उसने चाक़ू भीतर घुसेड़ दिया था । वहाँ अदालत के कमरे में आँखें बंद किए हुए अह चो ने हत्या को दोबारा होते हुए देखा — तू-तू-मैं-मैं , बेहद घटिया शब्दों का होता आदान-प्रदान, आदरणीय पूर्वजों को दी गई गालियाँ और उनका किया गया अपमान , अनादि पीढ़ियों को दिए गए शाप , अह सेन की छलाँग , चुंग गा की चोटी पर उसकी पकड़, वह चाक़ू जो शरीर में दो बार घुसा , दरवाज़े के लिए झपटना , अह सेन का बच कर भाग निकलना , स्केमर का उड़ता पट्टा जिसने बाक़ी लोगों को कोने में खदेड़ दिया और संकेत के तौर पर रिवाल्वर से गोली का चलना जो स्केमर के लिए मदद लाई ।

    अह चो इस पूरे घटनाक्रम को दोबारा जीते हुए सिहरा । पट्टे का एक प्रहार उसके गाल पर चोट लगा कर थोड़ा चमड़ा छील कर ले गया । स्केमर ने चोट की ओर इशारा किया था जब उसने कटघरे में अह चो को पहचाना था । अब जा कर वे निशान ठीक से नहीं दिखते थे । वह एक बड़ा तगड़ा वार था । यदि वह मध्य के पास आधा इंच और होता तो उसकी आँख निकाल लेता । और फिर वह सोचने-विचारने और आराम करने वाले बग़ीचे की झलक में , जो कि उसका होगा जब वह अपनी धरती पर वापस लौटेगा , इस समूचे घटनाक्रम को भूल गया ।

    जिस समय दंडाधिकारी फ़ैसला सुना रहा था , वह शांत चेहरा लिए बैठा था । उसके चारो साथियों के चेहरे भी उसी तरह शांत थे । और वह उसी तरह शांत रहे जब दुभाषिये ने उन्हें स्पष्ट किया कि उन पाँचो को चुंग गा की हत्या करने का दोषी पाया गया था । उन्हें बताया गया कि अह चाओ का सिर काट दिया जाएगा , अह चो को न्यू कैलेडोनिया के जेलख़ाने में बीस साल की सज़ा भुगतनी होगी , वोंग ली को बारह साल और अह तोंग को दस साल कैदख़ाने में बिताने होंगे ।

    इसके बारे में उत्तेजित होने का कोई फ़ायदा नहीं था । यहाँ तक कि अह चाओ भी ममी-सा भावहीन बना रहा , हालाँकि उसी के सिर को काट दिया जाना था । दण्डाधिकारी ने कुछ शब्द कहे और दुभाषिये ने स्पष्ट किया कि सकेमर के पट्टे से अह चाओ के चेहरे पर सबसे अधिक चोट लगने से उसकी पहचान इतनी सुनिश्चित हो गई थी कि चूँकि एक व्यक्ति को मरना ही था , इसलिए उसी का वह व्यक्ति होना उचित था । साथ ही , अह चो के चेहरे पर भी उसी तरह काफ़ी चोट लगी थी , जो हत्या की जगह उसकी उपस्थिति और हत्या में उसकी असंदिग्ध सहभागिता निर्णायक रूप से साबित करती थी । इसी कारण उसे बीस सालों का कठोर श्रम-कारावास दिया गया था । और अह तौंग के दस सालों के कारावास तक प्रत्येक सज़ा के निर्धारित कारण को स्पष्ट किया गया । अदालत ने अंत में कहा कि चिनागो लोगों को इस से सबक़ सीखना चाहिए क्योंकि उन्हें मालूम हो जाना चाहिए कि चाहे कुछ भी हो जाए , ताहिती में क़ानून का पालन किया जाएगा ।

    पाँचो चिनागो क़ैदियों को वापस जेल ले जाया गया । उन्हें कोई सदमा नहीं लगा , न ही उन्होंने शोक मनाया । सज़ा अप्रत्याशित थी पर वे गोरे शैतानों से अपने सम्पर्कों में इसके बिलकुल आदी हो चुके थे । एक चिनागो उनसे विरले ही अप्रत्याशित से कम की अपेक्षा करता था । जो अपराध उन्होंने नहीं किया था , उसके लिए कठोर दण्ड दिया जाना उतना ही आश्चर्यजनक था जितनी असंख्य अजीब चीज़ें गोरे शैतान करते रहते थे ।

    इसके बाद आने वाले हफ़्तों में अह चो अक्सर अह चाओ को सदय कुतूहल से देखता । उसका सिर उस कर्त्तन-यंत्र से काट दिया जाना था जो बाग़ान पर बनाया जा रहा था । उसके लिए कोई ढलते हुए साल नहीं होंगे , कोई प्रशांति के बाग़ नहीं होंगे । अह चो जीवन और मृत्यु के बारे में चिंतन करता रहता । अपने लिए वह उद्विग्न नहीं था । बीस साल केवल बीस साल थे । उतने अरसे के लिए उसका बग़ीचा उससे दूर चला गया था — बस । वह युवा था और एशिया का धैर्य उसकी हड्डियों में था । वह उन बीस सालों तक रुक सकता था । उस समय तक उसके ख़ून की गर्मी शांत हो चुकी होगी और वह उस शांत आनंद के बगीचे के लिए बेहतर स्थिति में होगा । उसने उसके लिए एक नाम सोचा , वह उसे सुबह की शांति का बग़ीचा कहेगा । इस विचार ने उसे दिन भर ख़ुश रखा , और उसे धैर्य के सद्गुण पर एक नैतिक सूक्ति को सोच निकालने की प्रेरणा मिली । यह सूक्ति बड़ी दिलासा देनेवाली साबित हुई , ख़ास तौर से वांग ली और अह लौंग के लिए । लेकिन अह चाओ ने इस सूक्ति पर कोई ध्यान नहीं दिया । इतने कम समय में उसका सिर उसके धड़ से अलग कर दिया जाना था कि उसे उस घटना का इंतज़ार करने के लिए धैर्य की कोई ज़रूरत ही नहीं थी । वह डट कर सिगरेट पीता , डट कर खाता , डट कर सोता और समय के धीरे बीतने की कोई चिंता नहीं करता ।

    क्रूशो एक सशस्त्र पुलिसवाला था । उसने नाइजीरिया और सेनेगल से लेकर दक्षिणी समुद्रों तक के उपनिवेशों में बीस साल तक नौकरी की थी और यह स्पष्ट था कि इन बीस सालों ने उसकी मंद बुद्धि को चमका कर और तेज नहीं बनाया था । वह उतना ही मंद-बुद्धि वाला और मूर्ख था जितना वह दक्षिणी फ्रांस में अपने देहाती दिनों में था । वह अनुशासन के बारे में जानता था और अधिकारी वर्ग का दबदबा मानता था । भगवान और पुलिस अधिकारी में उसके लिए एकमात्र अंतर दासोचित आज्ञापालन का अनुपात था जो वह उन्हें अर्पित करता था । असल में रविवार के दिनों को छोड़ कर , जिस दिन भगवान के प्रतिनिधियों की चलती थी , बाक़ी दिन पुलिस अधिकारी ही उसे ज़्यादा बड़ा लगता था । भगवान सामान्यतः उससे बहुत दूर थे जबकि पुलिस अधिकारी साधारणतया उसके बहुत पास होता था ।

   वह क्रूशो ही था जिसने मुख्य न्यायाधीश से जेलर के नाम आदेश प्राप्त किया ।उस आदेश में उस पदाधिकारी को हुक्म दिया गया था कि वह अह चाओ नामक व्यक्ति को क्रूशो को सौंप दे । अब ऐसा हुआ कि मुख्य न्यायाधीश ने पिछली रात को फ़्रांसीसी युद्धपोत के कप्तान और अधिकारियों के लिए रात्रि-भोज आयोजित किया था । जब उसने आदेश लिखा तो उसका हाथ काँप रहा था , और उसकी आँखें इतनी बुरी तरह दर्द कर रही थीं कि उसने आदेश दोबारा नहीं पढ़ा । जो कुछ भी हो , वह केवल एक चिनागो का जीवन ही तो था जिसके बारे में वह हस्ताक्षर कर रहा था । इसलिए उसने ध्यान नहीं दिया कि उसने ‘ अह चाओ ‘ की बजाए ‘ अह चो ‘ लिख दिया था । आदेश में अह चो लिखा था , इसलिए जब क्रूशो ने आदेश पेश किया तो जेलर ने अह चो नाम के आदमी को उसे सौंप दिया । क्रूशो ने उस व्यक्ति को अपने दोनो खच्चरों के पीछे , अपनी चौपहिया गाड़ी में अपने बगल की सीट पर बैठाया और गाड़ी ले कर चल पड़ा ।

    अह चो खुली धूप में आने पर बेहद ख़ुश था । वह पुलिस वाले के बगल में बैठकर मुस्कराया । वह तब पहले से भी ज़्यादा उत्साह से मुस्कराया जब उसने ध्यान दिया कि खच्चर दक्षिण दिशा में अटिमाओनो की ओर जा रहे थे । निस्सन्देह , स्केमर ने उसे वापस बुलाने के लिए ही गाड़ी भेजी थी । स्केमर चाहता था कि वह काम करे । ठीक है , वह अच्छी तरह से काम करेगा । स्केमर के पास कभी शिकायत करने का कोई कारण नहीं होगा । वह काफ़ी गरम दिन था । हवा बंद हो गई थी । खच्चर पसीने-पसीने हो रहे थे । क्रूशो पसीने से नहा रहा था , और अह चो भी पसीने में डूबा था । पर वह अह चो ही था जो गरमी को न्यूनतम चिंता से सह रहा था । उसने तीन सालों तक बाग़ान में धूप में कड़ी मेहनत की थी । वह इतना प्रसन्नचित था और इतने अच्छे ढंग से मुस्कराए जा रहा था कि क्रूशो के गंभीर और नीरस मन में भी आश्चर्य पैदा होने लगा । ” तुम बड़े मज़ाक़िया हो ,” अंत में उसने कहा ।

     अह चो ने सिर हिलाया और पहले से भी ज़्यादा उत्साह से मुस्कराया । दंडाधिकारी के विपरीत , क्रूशो ने उससे कनाका भाषा में बात की । सभी चिनागो लोगों और विदेशी शैतानों की तरह अह चो यह भाषा समझता था ।

     ” तुम बहुत ज़्यादा हँसते हो ,” क्रूशो ने उसे डाँटा । ” जब कोई ऐसा दिन हो तो आदमी की आँखें आँसुओं से भरी होनी चाहिए । “

     ” मैं खुश हूँ कि मैं जेलखाने से बाहर आ गया हूँ ।”

    ” क्या यही सब कुछ है ? ” पुलिसवाले ने अपने कंधे उचकाए ।

     ” क्या यह काफ़ी नहीं ?” जवाब मिला ।

     ” तो तुम अपने सिर के कट जाने पर खुश हो ?”

     अह चो ने एकाएक उसकी ओर उलझन भरी निगाह से देखा और

 कहा , ” क्यों , मैं तो स्केमर के लिए बाग़ान पर काम करने के लिए वापस अटिमाओनो जा रहा हूँ । क्या आप मुझे अटिमाओनो नहीं ले जा रहे ? “

    क्रूशो कुछ सोचते हुए अपनी लम्बी मूँछों को सहलाने लगा । ” अच्छा ,

 अच्छा ,” अंत में उसने ग़लत ओर जा रहे खच्चर पर चाबुक का प्रहार करते हुए

 कहा , ” तो तुम नहीं जानते हो ? “

    ” मैं क्या नहीं जानता हूँ ? ” अह चो एक अस्पष्ट ख़तरे का संकेत महसूस करने लगा था । ” क्या स्केमर मुझे अपने लिए अब और काम नहीं करने देगा ? “

     ” आज के बाद नहीं । ” क्रूशो खुलकर हँसा । यह एक अच्छा मज़ाक़ था ।

     ” देखो , तुम आज के बाद काम नहीं कर सकोगे । कटे हुए सिर वाला आदमी काम नहीं कर सकता , समझे । ” उसने चिनागो की पसलियों में उँगली चुभाई , और धीरे से हँसा ।

      अह चो ने चुप्पी बनाए रखी जबकि खच्चरों ने गरमी में तेज़ी से एक मील का का रास्ता तय कर लिया । फिर उसने कहा : ” क्या स्केमर मेरा सिर काट देने वाला है ? ” क्रूशो सिर हिलाते हुए मुस्कराया ।

      ” यह एक ग़लती है ,” अह चो ने गंभीरता से कहा । ” मैं वह चिनागो नहीं हूँ जिसका सिर काट दिया जाना है । मैं अह चो हूँ । माननीय न्यायाधीश ने यह निर्धारित किया था कि मुझे बीस सालों के लिए न्यू कैलेडोनिया में रुकना है । “

       पुलिसवाला हँसा । यह एक अच्छा मज़ाक था । यह अनोखा चिनागो कर्तन-यंत्र को धोखा देने की कोशिश कर रहा था । खच्चर नारियल के एक बाग़ से होकर गुज़रे और आधा मील तक चमकदार समुद्र के पास से होकर चलते रहे । तब अह चो ने दोबारा बोलना शुरू किया ।

      ” मैं आपको बता रहा हूँ कि मैं अह चाओ नहीं हूँ । माननीय न्यायाधीश ने यह नहीं कहा था कि मेरा सिर काट दिया जाना था ।”

      ” डरो मत ,” क्रूशो ने अपने क़ैदी के लिए इसे अपेक्षाकृत आसान बनाने के लोकोपकारी इरादे से कहा । ” इस तरह से मरना मुश्किल नहीं है ।” उसने अपनी उँगली चटकाई । ” यह तेज़ी से होता है, इस तरह । यह रस्सी के सिरे पर लटकते हुए पाँच मिनट तक हाथ-पैर मारने और चेहरा बनाने जैसा नहीं है । यह एक चूज़े को कुल्हाड़ी से मारने जैसा है । तुम उसका सिर काट देते हो, बस । आदमी के साथ भी वैसा ही होता है । खच्च् । और वह ख़त्म हो जाता है । इससे चोट नहीं लगती । तुम सोचते भी नहीं हो कि इससे चोट लगती है । तुम नहीं सोचते हो । तुम्हारा सिर कट चुका होता है , इसलिए तुम नहीं सोच सकते । यह बहुत अच्छा है । यही वह तरीक़ा है जिससे मैं मरना चाहता हूँ — तुरंत । हाँ, तुरंत । तुम क़िस्मत वाले हो कि इस तरह से मरोगे । हो सकता था कि तुम्हें कोढ़ हो जाता और तुम्हारा क्षय धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा करके होता । एक बार में एक उँगली , और जब-तब एक अँगूठा , साथ ही पैर की उँगलियाँ भी । मैं एक ऐसे आदमी को जानता था जिसे गरम पानी से जलाया गया । उसे मरने में दो दिन लगे । तुम एक किलोमीटर दूर तक उसका चीख़ना सुन सकते थे । लेकिन तुम ? वाह । कितना आसान है । खच्च् । चाक़ू तुम्हारे गर्दन को इसी तरह काट देता है । सब ख़त्म हो जाता है । हो सकता है कि चाकू गुदगुदाता भी हो । कौन बता सकता है ? इस तरह से मरने वाला कोई भी आदमी बताने के लिए वापस नहीं आया । “

     उसने अपने इस अंतिम वाक्य को एक मर्मभेदी मज़ाक माना , और खुद को आधे मिनट के लिए हँसी से लोट-पोट हो जाने दिया । उसकी हँसी का कुछ हिस्सा बनावटी था , पर वह उस चिनागो को दिलासा देना अपना मानवोचित कर्तव्य मानता था ।

     ” पर मैं आपको बता रहा हूँ कि मैं अह चो हूँ । ” चिनागो ज़िद करता रहा ।

 ” मैं अपना सिर नहीं कटवाना चाहता । “

      ” बस , बहुत हो गया ,” पुलिसवाले ने बीच में टोका । उसने अपने गाल फुला लिये और खूँखार लगने की कोशिश करने लगा ।

      ” मैं आपको बता रहा हूँ , मैं वह नहीं हूँ । ” अह चो दोबारा शुरू हुआ ।

       ” बकवास बंद करो ।” क्रूशो चिल्लाया ।

       इसके बाद वे ख़ामोश हो कर चलते रहे । पपीटे से अटिमाओनो की दूरी बीस मील की थी और आधी से ज़्यादा दूरी तय की जा चुकी थी जब चिनागो साहस करके दोबारा बोला — ” मैंने आपको अदालत के कमरे में देखा था , जब माननीय न्यायाधीश हमारे अपराध के बारे में पूछताछ करके पता लगा रहे थे ।”

      ” आपको याद आया ? और क्या आप उस अह चाओ को याद कर पा रहे हैं जिसका सिर काटा जाना है — क्या आप याद कर पा रहे हैं कि अह चाओ एक लम्बा आदमी था ? मेरी ओर देखिए । “

      वह अचानक खड़ा हो गया और क्रूशो ने देखा कि वह एक नाटा आदमी था ।

 और ठीक वैसे ही अचानक क्रूशो ने अपनी याददाश्त में अह चाओ की तस्वीर की एक झलक पाई , और इस तस्वीर में अह चाओ लम्बा था । पुलिसवाले को सभी चिनागो लोग देखने में एक जैसे लगते थे । एक चेहरा दूसरे चेहरे की तरह था । लेकिन लम्बाई और नाटेपन में वह अंतर पहचान सकता था । और वह जान गया कि उसने अपने बगल में सीट पर ग़लत आदमी को बिठा रखा था । उसने अचानक खच्चरों की लगाम खींच कर उन्हें रोक लिया जिससे उनके गरदन पर पड़े पट्टे सरक कर ऊपर हो गए और गाड़ी का डंडा आगे निकल गया ।

      ” आपने देखा , यह एक ग़लती थी ,” अह चो ने खुश हो कर मुस्कराते हुए कहा ।

       लेकिन क्रूशो कुछ सोच रहा था । उसे पहले से ही अफ़सोस हो रहा था कि उसने गाड़ी क्यों रोक दी । वह मुख्य न्यायाधीश की ग़लती से बेख़बर था और उसके पास इसका हल निकालने का कोई रास्ता भी नहीं था , लेकिन उसे यह मालूम था कि उसे अटिमाओनो ले जाने के लिए यह चिनागो दिया गया था और उसे अटिमाओनो ले जाना उसका कर्तव्य था । क्या हुआ अगर यह ग़लत आदमी था और वे इसका सिर काट देते हैं । कुछ भी हो , आख़िर यह केवल एक चिनागो ही तो था ।

 इसके अलावा , हो सकता है कि कोई ग़लती न हुई हो । वह नहीं जानता था कि उससे उच्च अधिकारियों के मन में क्या चलता रहता था । वे अपना कर्तव्य ज़्यादा अच्छी तरह जानते थे । वह उनके लिए सोचने वाला कौन था ? एक बार बहुत पहले उसने उनके लिए सोचने की कोशिश की थी , और तब पुलिस अधिकारी ने कहा

 था , ” क्रूशो , तुम मूर्ख हो । जितनी जल्दी तुम यह समझ जाओ , उतना ही तुम्हारे लिए बेहतर होगा । तुम्हारा काम सोचना नहीं है , तुम्हारा काम आज्ञा का पालन करना है और तुम्हें सोचने का काम अपने से बेहतर लोगों पर छोड़ देना चाहिए । ” यह याद आते ही वह खीझ गया। साथ ही , अगर वह पपीटे जाने के लिए वापस मुड़ता तो उसके कारण अटिमाओनो में होने वाले प्राण-दण्ड में देरी हो जाती , और अगर उसका वापस लौटना ग़लत साबित होता तो उसे उस पुलिस-अधिकारी से फटकार लगती जो क़ैदी के लिए इंतज़ार कर रहा था । और , इसके अलावा , उसे पपीटे में भी डाँटा जा सकता था ।

      उसने खच्चरों को चाबुक मारा और गाड़ी आगे बढ़ा ली । उसने अपनी घड़ी देखी । वह आधा घंटा देर से पहुँचेगा और पुलिस अधिकारी ज़रूर नाराज़ होगा । उसने खच्चरों को तेज़ दौड़ाना शुरू किया । अह चो ग़लती को समझाने की जितनी ज़्यादा कोशिश करता , क्रूशो उतना ही ज़्यादा अड़ियल होता जाता । उसके पास ग़लत आदमी था , इस बात की जानकारी ने उसके मिज़ाज को बेहतर नहीं बनाया । उसकी ग़लती के कारण ऐसा नहीं हुआ था , इस बात की जानकारी ने उसकी इस धारणा को और पक्का किया कि वह जो ग़लत कर रहा था , वह ठीक था । और पुलिस अधिकारी का क्रोध अपने ऊपर लेने के बजाए , वह दर्जन भर ग़लत चिनागो लोगों को उनकी दुर्भाग्यपूर्ण नियति की ओर भेजने में ख़ुशी से सहयोग कर देता ।

     जहाँ तक अह चो का सवाल है , जब पुलिसवाले ने चाबुक का हत्था उसके सिर पर मारा और ऊँची आवाज़ में उसे बकवास बंद करने का हुक्म दिया , उसके बाद उसके पास चुप रहने के सिवाय और कोई चारा नहीं था । यात्रा चुप्पी के बीच जारी रही । अह चो विदेशी शैतानों के अजीब तरीक़ों पर विचार करने लगा । उन्हें समझना असंभव था । वे उसके साथ जो कुछ कर रहे थे वह उनके बाक़ी सब कामों से मिलता-जुलता था । पहले उन्होंने पाँच बेक़सूर लोगों को अपराधी सिद्ध किया , और उसके बाद वे उस आदमी का सिर काटने जा रहे थे जिसे खुद उन्होंने भी , अपने अँधेरे अज्ञान में , बीस सालों के कारावास से ज़्यादा के योग्य नहीं माना था । और वह इसके बारे में कुछ नहीं कर सकता था । वह केवल ख़ाली बैठ सकता था और ये जीवन के स्वामी जो माप कर दे रहे थे , उसे ले सकता था । एक बार तो वह बेहद संत्रस्त हो गया और डर से उसके शरीर का पसीना भी बेहद ठंडा हो गया , पर वह काफ़ी कोशिश करके इस भय से उबर आया ।

     उसने अपनी क़िस्मत को स्वीकार करने के लिए ” यिन चिह वेन ” ( शांत-मार्ग की पुस्तिका ) में से कुछ उद्धरणों को याद करने और दोहराने की कोशिश की पर

 इसके बदले में उसे अपना सोचने-विचारने और आराम करने का कल्पित-बग़ीचा दिखाई देता रहा । वह इससे तब तक परेशान हुआ जब तक कि उसने खुद को उस कल्पना की बेफ़िक्री में छोड़ नहीं दिया और तब वह कई पेड़ों में हवा से टनटनाती घंटियों को सुनता हुआ कल्पना के अपने बगीचे में बैठा रहा । और अचानक अपनी कल्पना में इस तरह बैठे हुए वह ” शांत-मार्ग की पुस्तिका ” के उद्धरणों को याद करने और दोहराने में सफल हो गया ।

    इसलिए अटिमाओनो पहुँचने तक समय अच्छी तरह बीता और घोड़े तेज़ी से चलते हुए मृत्यु-दंड के लिए बनाए गए ढाँचे के पास आ गए जिसकी छाया में अधीर पुलिस-अधिकारी खड़ा था । अह चो को जल्दी से ढाँचे की सीढ़ियाँ चढ़ा कर ऊपर लाया गया । उसने अपने नीचे एक ओर बाग़ान के सभी कुलियों को एकत्र पाया । स्केमर ने फ़ैसला किया था कि यह घटना सबक़ सिखाने के लिए अच्छी रहेगी , इसलिए उसने कुलियों को खेतों से बुला लिया था । जैसे ही उन्होंने अह चो को

 देखा , वे धीमे स्वरों में आपस में बड़बड़ाने लगे । उन्होंने ग़लती देख ली पर यह बात उन्होंने अपने तक ही सीमित रखी । इन अबोधगम्य विदेशी शैतानों ने निस्सन्देह अपना इरादा बदल लिया था । एक बेक़सूर आदमी की जान लेने के बजाए वे अब दूसरे बेक़सूर आदमी की जान ले रहे थे । अह चाओ हो या अह चो , उनमें से कौन था , इससे क्या फ़र्क़ पड़ता था । वे इन गोरे शैतानों को कभी नहीं समझ पाए जैसे गोरे शैतान उन्हें नहीं समझ पाए । अह चो का सिर काट दिया जाना था , पर बाक़ी बचे दो सालों की ग़ुलामी के ख़त्म होने पर वे सब चीन लौट जाने वाले थे ।

     स्केमर ने वह कर्तन-यंत्र खुद ही बनाया था । वह बड़ा दक्ष आदमी था । हालाँकि उसने कर्तन-यंत्र पहले कभी नहीं देखा था पर फ़्रांसीसी अधिकारियों ने यन्त्र के काम करने का तरीक़ा उसे समझा दिया था । उसी की राय पर उन्होंने मृत्यु-दंड को पपीटे के बजाए अटिमाओनो में देने का आदेश दिया था । स्केमर ने दलील दी थी कि अपराध का स्थल ही दंड देने की सबसे बढ़िया सम्भव जगह थी और इसके अलावा बाग़ान के आधा हज़ार चिनागो कुलियों पर इसका हितकर असर पड़ेगा । स्केमर ने जल्लाद बनने के लिए भी स्वेच्छा से अपनी सेवा अर्पित की थी और इस हैसियत से वह अब ढाँचे पर खड़ा हो कर अपने बनाए गए यंत्र का परीक्षण कर रहा था । आदमी के गरदन के आकार का और उतना ही मोटा केले का एक पेड़ कर्तन-यंत्र के नीचे पड़ा था । अह चो मंत्रमुग्ध हो कर देख रहा था । उस जर्मन ने एक छोटी कील घुमा कर चाकू को उस छोटे उत्तंभ के ऊपर तक उठाया जिसे उसने कामचलाऊ ढंग से तैयार किया था । एक मोटी रस्सी के टुकड़े पर झटका लगने से धारदार चाकू ढीला हो गया और पलक झपकते ही वह कौंध कर गिरा और उसने केले के तने को कुशलता से काट दिया ।

     ” यह कैसे काम करता है ? ” ढाँचे के ऊपर पहुँच कर पुलिस-अधिकारी ने सवाल किया था ।

     ” बड़े ख़ूबसूरत ढंग से ,” स्केमर का उल्लसित जवाब था । ” लीजिए मैं आपको दिखाता हूँ ।”

     उसने दोबारा उस कील को घुमाया जो चाकू को उठाती थी , रस्सी को झटका दिया और चाकू को धड़ाके के साथ नीचे मुलायम पेड़ पर गिरा दिया । पर इस बार वह दो-तिहाई से ज़्यादा आर-पार नहीं हो सका ।

     पुलिस-अधिकारी ने क्रोध भरी दृष्टि से से देखा ।” इससे काम नहीं चलेगा ,”

 उसने कहा ।

     स्केमर ने अपने माथे से पसीना पोंछा । ” असल में इसे ज़्यादा भार चाहिए ,” उसने घोषणा की । चलते हुए ढाँचे के किनारे तक जा कर उसने लोहार को पच्चीस पाउंड वज़नी लोहे का टुकड़ा लाने का आदेश दिया । जब वह लोहे को चाकू के चौड़े ऊपरी भाग से जोड़ने के लिए झुका तो तो अह चो ने पुलिस-अधिकारी की ओर देखा और उसे मौक़ा मिल गया ।

     ” माननीय न्यायाधीश ने कहा था कि अह चाओ का सिर काटा जाना था ,” उसने बोलना शुरू किया ।

      पुलिस-अधिकारी ने अधीरता से सिर हिलाया । वह उस दोपहर को की जाने वाली द्वीप के पवनाधिमुख ओर की अपनी यात्रा के बारे में और मोतियों के व्यापारी लाफ़ियेरे की ख़ूबसूरत नाजायज़ बेटी बर्थे के बारे में सोच रहा था जो वहाँ उसका इंतज़ार कर रही थी ।

     ” देखिए , मैं अह चाओ नहीं हूँ । मैं अह चो हूँ । माननीय जेलर ने ग़लती कर दी है । अह चाओ एक लम्बा आदमी था और आप देख सकते हैं कि मैं नाटा हूँ ।”

     पुलिस अधिकारी ने जल्दी से उसकी ओर देखा और उसे ग़लती का पता चल गया । ” स्केमर ,” वह आदेश देने के स्वर में चिल्लाया ,” इधर आओ ।”

     जर्मन घुरघुराया पर अपना काम करते हुए तब तक झुका रहा जब तक कि लोहे का टुकड़ा उससे संतोषजनक ढंग से बँध नहीं गया ।

    ” क्या आपका चिनागो तैयार है ?” उसने पूछा । ” इसको देखो ,” जवाब मिला ,” क्या यही वह चिनागो है ? “

    स्केमर हैरान रह गया । कुछ पलों तक उसने छोटी-मोटी गालियाँ दीं और दुखी हो कर उस चीज़ की ओर देखा जो उसने अपने हाथों से बनाई थी और जिसे काम करता देखने के लिए वह उत्सुक था ।

    ” इधर देखिए ,” उसने अंत में कहा ,” हम इस काम को स्थगित नहीं कर सकते । पहले ही मैं उन पाँच सौ चिनागो कुलियों का तीन घंटे का काम खो चुका

 हूँ । सही आदमी के इंतज़ार में मैं दोबारा यह सारा समय नहीं खो सकता । चलिए, इस तमाशे को उसी तरह पूरा कर दें । आख़िर यह एक चिनागो ही तो है । “

    पुलिस-अधिकारी को दोपहर में की जाने वाली लंबी यात्रा और मोतियों के व्यापारी की बेटी याद आई और वह पूरे मामले पर विचार करने लगा ।

    ” वे इसके लिए क्रूशो को ज़िम्मेदार ठहराएँगे — यदि इस बात का पता लगा तो ,” जर्मन ने ज़ोर दे कर कहा । ” पर इसका पता लगने की सम्भावना बहुत कम

 है । किसी भी हालत में अह चाओ तो यह भेद नहीं ही खोलेगा ।”

     ” क्रूशो पर भी कोई ज़िम्मेदारी नहीं आएगी । ” पुलिस अधिकारी ने कहा ।

 ” ज़रूर जेलर की ही ग़लती रही होगी । “

     ” तो फिर हमें यह काम पूरा कर देना चाहिए । वे हमें ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते । एक चिनागो और दूसरे चिनागो के बीच अंतर कौन बता सकता है ? हम कह सकते हैं कि जो चिनागो हमें सौंपा गया था , हमने केवल दिए गए निर्देशों को उस पर लागू किया । इसके अलावा , मैं वाक़ई उन सभी कुलियों को उनके काम से दोबारा नहीं हटा सकता ।”

    वे फ़्रांसीसी में बोल रहे थे और अह चो , जो एक भी शब्द नहीं समझ पाया

 था , फिर भी इतना जानता था कि वे उसकी क़िस्मत तय कर रहे थे । वह यह भी जानता था कि फ़ैसला पुलिस-अधिकारी के हाथ में था , और वह उस अधिकारी के शब्दों को ध्यानपूर्वक सुनता रहा ।

   ” ठीक है ,” पुलिस अधिकारी ने घोषणा की । ” यह काम पूरा करो । आख़िर वह एक चिनागो ही तो है ।”

   ” मैं इस यंत्र को एक बार और जाँचने जा रहा हूँ , केवल आश्वस्त होने के

 लिए ।” स्केमर ने केले के पेड़ के तने को आगे बढ़ा कर उस चाकू के नीचे कर दिया जो उसने उत्तंभ के ऊपर तक उठा दिया था ।

   अह चो ने ‘ शांत-मार्ग की पुस्तिका ‘ से सूक्तियाँ याद करने की कोशिश की ।

 ‘ मित्रतापूर्वक रहें ‘ सूक्ति उसे याद आई , पर वह यहाँ लागू नहीं होती थी । वह अब जीवित नहीं रहने वाला था । वह अब मरने ही वाला था । नहीं , यह सूक्ति नहीं चलेगी । ‘ दुर्भावना को छोड़ दो ‘ — सही है पर यहाँ छोड़ने के लिए कोई दुर्भावना थी ही नहीं । स्केमर और बाक़ी लोग बिना किसी दुर्भावना के यह कर रहे थे । उनके लिए यह केवल एक काम था जिसे किया जाना था , ठीक वैसे ही जैसे जंगल काट कर साफ़ करना , पानी भरना , और कपास रोपना भी काम थे जिन्हें किया जाना था । स्केमर ने रस्सी को झटका दिया और अह चो ‘ शांत मार्ग की पुस्तिका ‘ भूल गया । चाकू धप्प् से नीचे गिरा और उसने पेड़ को सफ़ाई से काट दिया ।

   ” सुंदर । ” पुलिस-अधिकारी सिगरेट जलाते हुए रुका और चहक कर बोला ,” सुंदर, मेरे दोस्त ।”

   स्केमर तारीफ़ सुनकर ख़ुश हुआ ।

   ” आ जाओ , अह चाओ ” , उसने ताहिती की भाषा में कहा ।

   ” पर मैं अह चाओ नहीं हूँ — ” अह चो ने बोलना शुरू किया ।

   ” बकवास बंद करो ।” जवाब मिला । ” अगर तुमने दोबारा अपना मुँह खोला तो मैं तुम्हारा सिर तोड़ दूँगा । “

   निरीक्षक ने मुट्ठी बाँध कर उसे धमकाया और वह चुप हो गया । विरोध प्रकट करने का क्या फ़ायदा था ? ये विदेशी शैतान हमेशा अपनी मनमानी करते थे । उसने अपने शरीर के आकार के सीधे खड़े तख़्ते के साथ खुद को बाँध देने दिया । स्केमर ने फ़ीते कस कर बाँध दिए — इतने कस कर कि फ़ीते चमड़ी को काटने लगे और दर्द होने लगा । पर उसने शिकायत नहीं की । यह दर्द ज़्यादा देर तक नहीं रहेगा । उसने तख़्ते का हवा में समतल की ओर झुकाया जाना महसूस किया , और अपनी आँखें बंद कर लीं । और उसी पल उसे सोचने-विचारने और आराम करने के उसके बगीचे की अंतिम झलक मिली । ठंडी हवा बह रही थी , और कई पेड़ों में घंटियाँ हल्के-हल्के टनटना रही थीं । साथ ही चिड़ियाँ उनींदा-सा शोर मचा रही थीं , और ऊँची दीवार के उस पार से गाँव के जीवन की धीमी आवाज़ आ रही थी ।

    फिर वह जान गया कि तख़्ता टिक गया था और माँसपेशियों के दबाव और तनाव से उसे मालूम पड़ गया कि वह पीठ के बल लेटा हुआ था । उसने अपनी आँखें खोल लीं । अपने ठीक ऊपर उसने धूप में चमकता हुआ लटकता चाकू देखा । उसने वह भार देखा जो जोड़ा गया था और ध्यान दिया कि स्केमर की गाँठों में से एक सरक गई थी । फिर उसने पुलिस-अधिकारी के ज़ोरदार आदेश की आवाज़ सुनी । अह चो ने जल्दी से अपनी आँखें बंद कर लीं । वह उस चाकू को नीचे गिरते हुए नहीं देखना चाहता था । पर उसने महसूस किया — तेज़ी से गुज़र जाने वाले एक बड़े पल में । और उस पल में उसने क्रूशो को और जो क्रूशो ने कहा था , उसे याद किया । पर क्रूशो ग़लत था । चाकू ने उसे गुदगुदाया नहीं । इससे पहले कि उसका जानना बंद हो जाता , वह इतना जान गया ।

           ———-०———-

 प्रेषकः सुशांत सुप्रिय

      A-5001,

      गौड़ ग्रीन सिटी ,

      वैभव खंड ,

      इंदिरापुरम्,

      ग़ाज़ियाबाद – 201014

      ( उ. प्र. )

 मो: 8512070086

 ई-मेल: sushant1968@gmail.com

नाइजीरियाई कहानी-मृतकों का मार्ग

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Photo by Steve Johnson on Unsplash

             अनूदित नाइजीरियाई कहानी
 ( प्रसिद्ध नाइजीरियाई कथाकार चिनुआ अचेबे की कहानी ” डेड मेन्स पाथ ” का अंग्रेज़ी से  हिन्दी में अनुवाद )                                                 

                मृतकों का मार्ग
         
                            -मूल लेखक: चिनुआ अचेबे
                            -अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

 अपेक्षा से कहीं पहले माइकेल ओबी की इच्छा पूरी हो गई । जनवरी , 1949 में उसकी नियुक्ति नड्यूम केंद्रीय विद्यालय के प्रधानाचार्य के पद पर कर दी गई । यह विद्यालय हमेशा से पिछड़ा हुआ था , इसलिए स्कूल चलाने वाली संस्था के अधिकारियों ने एक युवा और ऊर्जावान व्यक्ति को वहाँ भेजने का निर्णय किया ।ओबी ने इस दायित्व को पूरे उत्साह से स्वीकार किया । उसके ज़हन में कई अच्छे विचार थे और यह उन पर अमल करने का सुनहरा मौक़ा था । उसने माध्यमिक स्कूल की बेहतरीन शिक्षा पाई थी और आधिकारिक रेकाॅर्ड में उसे ‘ महत्वपूर्ण शिक्षक ‘का दर्ज़ा दिया गया था । इसी वजह से उसे संस्था के अन्य प्रधानाचार्यों पर बढ़त प्राप्त थी । पुराने , कम शिक्षित प्राध्यापकों के दक़ियानूसी विचारों की वह खुल कर भर्त्सना करता था ।
           ” हम यह काम बख़ूबी कर लेंगे, है न ।” अपनी पदोन्नति की ख़ुशख़बरी आने पर उसने अपनी युवा पत्नी से पूछा ।
           ” बेशक ,” पत्नी बोली , ” हम विद्यालय परिसर में ख़ूबसूरत बग़ीचे भी लगाएँगे और हर चीज़ आधुनिक और सुंदर होगी …।” अपने विवाहित जीवन के दो वर्षों में वह ओबी के ‘ आधुनिक तौर-तरीक़ों ‘ के विचार से बेहद प्रभावित हो चुकी थी । उसके पति की राय थी कि ‘ ये बूढ़े सेवानिवृत्त लोग शिक्षा के क्षेत्र की बजाय ओनित्शा के बाज़ार में बेहतर व्यापारी साबित होंगे ‘ और वह इससे सहमत थी । अभी से वह ख़ुद को एक युवा प्रधानाचार्य की सराही जा रही पत्नी के रूप में देखने लगी थी जो स्कूल की रानी होगी ।
           अन्य शिक्षकों की पत्नियाँ उससे जलेंगी । वह हर चीज़ में फ़ैशन का प्रतिमान स्थापित करेगी …। फिर, अचानक उसे लगा कि शायद अन्य शिक्षकों की पत्नियाँ होंगी ही नहीं । चिंतातुर नज़रें लिए उम्मीद और आशंका के बीच झूलते हुए उसने इसके बारे में अपने पति से पूछा ।
           ” हमारे सभी सहकर्मी युवा और अविवाहित हैं ,” उसके पति ने जोश से भर कर कहा , पर इस बार वह इस जोश की सहभागी नहीं बन सकी ।
           ” यह एक अच्छी बात है ।” ओबी ने अपनी बात जारी रखी ।
           ” क्यों ? “
           ” क्यों क्या ? वे सभी युवा शिक्षक अपना पूरा समय और अपनी पूरी ऊर्जा  विद्यालय के उत्थान के लिए लगाएँगे । “
            नैन्सी दुखी हो गई । कुछ मिनटों के लिए उसके दिमाग़ में विद्यालय को ले कर कई सवालिया निशान लग गए ; लेकिन यह केवल कुछ मिनटों की ही बात थी । उसके छोटे-से व्यक्तिगत दुर्भाग्य ने उसके पति की बेहतर संभावनाओं के प्रति उसे कुंठित नहीं किया । उसने अपने पति की ओर देखा जो एक कुर्सी पर अपने पैर मोड़ कर बैठा हुआ था । वह थोड़ा कुबड़ा-सा था और कमज़ोर लगता था । लेकिन कभी-कभी वह अचानक उभरी अपनी शारीरिक ऊर्जा के वेग से लोगों को हैरान कर देता था । किंतु अभी जिस अवस्था में वह बैठा था उससे ऐसा लगता था जैसे उसकी सारी शारीरिक ऊर्जा उसकी गहरी आँखों में समाहित हो चुकी थी जिससे उन आँखों में एक असामान्य भेदक शक्ति आ गई थी । हालाँकि उसकी उम्र केवल छब्बीस वर्ष की थी , वह देखने में तीस साल या उससे अधिक का लगता था । पर मोटे तौर पर उसे बदसूरत नहीं कहा जा सकता था ।
             ” क्या सोच रहे हो , माइक ? ” नैन्सी ने पूछा ।
             ” मैं सोच रहा था कि हमारे पास यह दिखाने का एक बढ़िया अवसर है कि एक विद्यालय को किस तरह चलाना चाहिए ।”

                     नड्यूम स्कूल एक बेहद पिछड़ा हुआ विद्यालय था । श्री ओबी ने अपनी पूरी ऊर्जा स्कूल के कल्याण के लिए लगा दी । उनकी पत्नी ने भी ऐसा ही किया । श्री ओबी के दो उद्देश्य थे । वे शिक्षण का उच्च मानदंड स्थापित करना चाहते थे । साथ ही वे विद्यालय-परिसर को एक ख़ूबसूरत जगह के रूप में विकसित करना चाहते थे । वर्षा रितु के आते ही श्रीमती ओबी के सपनों का बग़ीचा अस्तित्व में आ गया जहाँ तरह-तरह के रंग-बिरंगे, सुंदर फूल खिल गए । क़रीने से कटी हुई विदेशी झाड़ियाँ स्कूल-परिसर को आस-पास के इलाक़े में उगी जंगली , देसी झाड़ियों से अलग करती थीं ।
                एक शाम जब ओबी विद्यालय के सौंदर्य को सराह रहा था , गाँव की एक वृद्धा लंगड़ाती हुई स्कूल-परिसर से हो कर गुज़री । उसने फूलों भरी एक क्यारी को धाँगा और स्कूल की बाड़ पार करके वह दूसरी ओर की झाड़ियों की ओर ग़ायब हो गई । उस जगह जाने पर ओबी को गाँव की ओर से आ रही एक धूमिल पगडंडी के चिह्न मिले जो स्कूल-परिसर से गुज़र कर दूसरी ओर की झाड़ियों में गुम हो जाती थी ।
               ” मैं इस बात से हैरान हूँ कि आप लोगों ने गाँव वालों को विद्यालय-परिसर के बीच से गुज़रने से कभी नहीं रोका । यह कमाल की बात है ।” ओबी ने उन में से एक शिक्षक से कहा जो उस स्कूल में पिछले तीन वर्षों से पढ़ा रहा था ।
               वह शिक्षक खिसियाने-से स्वर में बोला–” दरअसल यह रास्ता गाँववालों के लिए बेहद महत्वपूर्ण लगता है । हालाँकि वे इसका इस्तेमाल कम ही करते हैं ,  लेकिन यह गाँव को उनके धार्मिक-स्थल से जोड़ता है । “
               ” लेकिन स्कूल का इससे क्या लेना-देना है ? ” ओबी ने पूछा ।
               ” यह तो पता नहीं लेकिन कुछ समय पहले जब हमने गाँववालों को इस रास्ते से आने-जाने से रोका था तो बहुत हंगामा हुआ था,” शिक्षक ने कंधे उचकाते हुए जवाब दिया ।
               ” वह कुछ समय पहले की बात थी । पर अब यह सब नहीं चलेगा ,” वहाँ से जाते हुए ओबी ने अपना फ़ैसला सुनाया ।” सरकार के शिक्षा अधिकारी अगले हफ़्ते ही स्कूल का निरीक्षण करने यहाँ आने वाले हैं । वे इस के बारे में कैसा महसूस करेंगे ? गाँव वालों का क्या है, हो सकता है निरीक्षण वाले दिन वे इस बात के लिए ज़िद करने लगें कि वे स्कूल के एक कमरे का इस्तेमाल अपने क़बीलाई रीति-रिवाज़ों के लिए करना चाहते हैं । फिर ? “
               पगडंडी के स्कूल-परिसर में प्रवेश करने तथा बाहर निकलने वाली दोनों जगहों पर मोटी और भारी लकड़ियों की बाड़ लगा दी गई । इस बाड़ को सुदृढ़ करने के लिए कँटीली तारों से इसकी क़िलेबंदी कर दी गई ।
               तीन दिनों के बाद उस क़बीलाई गाँव का पुजारी ऐनी प्रधानाचार्य ओबी से मिलने आया । वह एक बूढ़ा और थोड़ा कुबड़ा आदमी था । उसके पास एक मोटा-सा डण्डा था । वह जब भी अपनी दलील के पक्ष में कोई नया बिंदु रखता था तो अपनी बात पर बल देने के लिए आदतन उस डण्डे से ज़मीन को थपथपाता था ।
              शुरुआती शिष्टाचार के बाद पुजारी बोला–” मैंने सुना है कि हमारे पूर्वजों की पगडंडी को हाल ही में बंद कर दिया गया है…। “
              ” हाँ, हम स्कूल-परिसर को सार्वजनिक रास्ता बनाने की इजाज़त नहीं दे सकते , ” ओबी ने कहा ।
             ” देखो बेटा, यह रास्ता तुम्हारे या तुम्हारे पिता के जन्म के भी पहले से यहाँ मौजूद था । हमारे इस गाँव का पूरा जीवन इस पर निर्भर करता है । हमारे मृत सम्बन्धी इसी रास्ते से जाते हैं और हमारे पूर्वज इसी मार्ग से हो कर हमसे मिलने आते हैं । लेकिन इससे भी ज़्यादा ज़रूरी बात यह है कि जन्म लेने वाले बच्चों के आने का भी यही रास्ता है …। “
             श्री ओबी ने एक संतुष्ट मुस्कान के साथ पुजारी की बात सुनी ।
             ” हमारे स्कूल का असल उद्देश्य ही इस तरह के अंधविश्वासों को जड़ से उखाड़ फेंकना है । मृतकों को पगडंडियों की ज़रूरत नहीं होती । यह पूरा विचार ही बकवास है । यह हमारा फ़र्ज है कि हम बच्चों को ऐसे हास्यास्पद विचारों से बचाएँ ।” ओबी ने अंत में कहा ।
             ” जो आप कह रहे हैं, हो सकता है वह सही हो । लेकिन हम अपने पूर्वजों के रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं । यदि आप यह रास्ता खोल देंगे तो हमें झगड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी ।मैं हमेशा से कहता आया हूँ : हम मिल-जुल कर रह सकते हैं ।” पुजारी जाने के लिए उठा ।
            ” मुझे माफ़ करें । किंतु मैं विद्यालय-परिसर को सार्वजनिक रास्ता नहीं बनने दे सकता । यह हमारे नियमों के विरुद्ध है । मैं आप को सलाह दूँगा कि आप अपने पूर्वजों के लिए स्कूल के बगल से हो कर एक दूसरा रास्ता बना लीजिए । हमारे स्कूल के छात्र उस रास्ते को बनाने में आप की मदद भी कर सकते हैं । मुझे नहीं लगता कि आपके मृतक पूर्वजों को इस नए रास्ते से आने-जाने में ज़्यादा असुविधा होगी ! ” युवा प्रधानाचार्य ने कहा ।
           ” मुझे आपसे और कुछ नहीं कहना , ” बाहर जाते हुए पुजारी बोला ।
           दो दिन बाद प्रसव-पीड़ा के दौरान गाँव की एक युवती की मृत्यु हो गई । फ़ौरन गाँव के ओझा को बुला कर उससे सलाह ली गई । उसने स्कूल-परिसर के इर्द-गिर्द कँटीली तारों वाली बाड़ लगाने की वजह से अपमानित हुए पूर्वजों को मनाने के लिए भारी बलि चढ़ाए जाने का मार्ग सुझाया ।
          अगली सुबह जब ओबी की नींद खुली तो उसने ख़ुद को स्कूल के खंडहर के बीच पाया । कँटीली तारों वाली बाड़ को पूरी तरह तोड़ दिया गया था । क़रीने से कटी विदेशी झाड़ियों और रंग-बिरंगे फूलों वाले बग़ीचे को तहस-नहस कर दिया गया था । यहाँ तक कि स्कूल के भवन के एक हिस्से को भी मलबे में तब्दील कर दिया गया था…। उसी दिन गोरा सरकारी निरीक्षक वहाँ आया और यह सब देखकर उसने प्रधानाचार्य के विरुद्ध एक गंदी टिप्पणी लिखी । बाड़ और फूलों के बग़ीचे के ध्वंस से ज़्यादा गम्भीर बात उसे यह लगी कि ‘ नए प्रधानाचार्य की ग़लत नीतियों की वजह से विद्यालय और गाँव वालों के बीच क़बीलाई-युद्ध जैसी विकट स्थिति पैदा हो गई है ‘ ।

           ———-०———-
 प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
          A-50001 ,
          गौड़ ग्रीन सिटी ,
          वैभव खंड ,
          इंदिरापुरम ,
          ग़ाज़ियाबाद – 201014
          ( उ. प्र. )
 मो: 8512070086
 ई-मेल: sushant1968@gmail.com

कविता-सुशांत सुप्रिय

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woman in white and pink floral dress smiling
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1. स्त्रियाँ

हरी-भरी फ़सलों-सी

प्रसन्न है उनकी देह

मैदानों में बहते जल-सा

अनुभवी है उनका जीवन

पुरखों के गीतों-सी

खनकती है उनकी हँसी

रहस्यमयी नीहारिकाओं-सी

आकर्षक हैं उनकी आँखें

प्रकृति में ईश्वर-सा मौजूद है

उनका मेहनती वजूद

दुनिया से थोड़ा और

जुड़ जाते हैं हम

उनके ही कारण

2. वह अनपढ़ मजदूरनी

उस अनपढ़ मजदूरनी के पास थे

जीवन के अनुभव

मेरे पास थी

काग़ज़-क़लम की बैसाखी

मैं उस पर कविता लिखना

चाह रहा था

जिसने रच डाला था

पूरा महा-काव्य जीवन का

सृष्टि के पवित्र ग्रंथ-सी थी वह

जिसका पहला पन्ना खोल कर

पढ़ रहा था मैं

गेंहूँ की बालियों में भरा

जीवन का रस थी वह

और मैं जैसे

आँगन में गिरा हुआ

सूखा पत्ता

उस कंदील की रोशनी से

उधार लिया मैंने जीवन में उजाला

उस दीये की लौ के सहारे

पार की मैंने कविता की सड़क

3. आँकड़ा बन गया वह किसान

सूनी आँखें

ताकती रहीं

पर नहीं आया

वह आदमी

बैलों को

सानी-पानी देने

दिशाएँ उदास

बैठी रहीं

पर नहीं आया

वह आदमी

सूखी धरती पर

कुछ बूँद आँसू गिराने

उड़ने को तत्पर रह गए

हल में क़ैद देवदूत

पर नहीं मिला उन्हें

उस आदमी का

निश्छल स्पर्श

दुखी थी खेत की ढही हुई मेड़

दुखी थीं मुरझाई वनस्पतियाँ

दुखी थे सूखे हुए बीज कि

अब नहीं मिलेगी उन्हें

उसके पसीने की गंध

अभी तो बहुत जीवन

बाक़ी था उनका —

आँकड़ा बन जाने वाले

उस बदकिस्मत किसान की

बड़ी होती बेटी बोली

आँखें पोंछते

सुशांत सुप्रिय A-5001 , गौड़ ग्रीन सिटी , वैभव खंड , इंदिरापुरम , गाजियाबाद – 201014 ( उ. प्र. ) मो : 8512070086 ई-मेल : sushant1968@gmail.com

अनूदित जर्मन कहानी-दंपति

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people walking on street near building during daytime
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( अनूदित जर्मन कहानी  )
                       
दंपति

                                                — लेखक :  फ़्रैंज़ काफ़्का
                                                — अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

              व्यापार है ही बुरी चीज़ । मुझे ही लीजिए । दफ़्तर के काम से जब थोड़ी देर के लिए भी मुझे छुट्टी मिलती है तो मैं अपने नमूनों की पेटी उठाकर खुद ही अपने ग्राहकों से मिलने चल देता हूँ । बहुत दिनों से मेरी इच्छा एन. के पास जाने की थी ।
कभी एन. के साथ मेरा काफ़ी अच्छा कारोबार चल रहा था , लेकिन पिछले कुछ सालों से यह ठप्प पड़ गया था । क्यों ? यह तो मुझे भी नहीं पता । ऐसी बात तो कभी बिना सचमुच के किसी कारण के भी घट सकती है । आजकल समय ही ऐसा है कि किसी का महज़ एक शब्द भी सारे मामले को उलट-पलट कर रख सकता है जबकि एक ही शब्द सब कुछ ठीक-ठाक भी कर सकता है । दरअसल एन. के साथ
कारोबार करना बड़ा नाज़ुक मामला है । वह एक बूढ़ा आदमी है और बुढ़ापे के कारण काफ़ी अशक्त भी हो गया है , फिर भी वह अपने कारोबारी मामलों को अपने ही हाथ में रखना पसंद करता है । अपने ऑफ़िस में तो वह आपको शायद ही कभी मिले और उससे मिलने के लिए उसके घर जाना एक ऐसा काम है जिसे कोई भी भला आदमी टालना ही पसंद करेगा ।
               फिर भी कल शाम छह बजे मैं उसके घर के लिए निकल ही पड़ा । यह किसी से मिलने के लिए जाने का समय तो नहीं था पर मेरा वहाँ जाना कारोबारी कारण से था , कोई सामाजिक सद्भाव नहीं । सौभाग्य से एन. घर पर ही था । अभी वह अपनी पत्नी के साथ सैर करके लौटा था । नौकर ने बताया कि साहब इस समय अपने बेटे के सोने के कमरे में हैं । बेटा बीमार था । नौकर ने मुझसे वहीं जाने का आग्रह किया । पहले तो मैं थोड़ा हिचका । फिर सोचा कि क्यों न इस अप्रिय मुलाक़ात को जल्दी निपटा दिया जाए । इसलिए मैं उसी हालत में , यानी ओवरकोट और टोपी पहने , हाथ में नमूनों की पेटी लिए एक अँधेरे कमरे को पार करके एक नीम अँधेरे कमरे में दाख़िल हुआ , जहाँ तीन-चार लोग पहले से ही मौजूद थे ।
               मेरी पहली नज़र जिस व्यक्ति पर पड़ी वह एक एजेंट था , जिसे मैं अच्छी तरह जानता था । एक तरह से वह मेरा कारोबारी प्रतिद्वन्द्वी था । मुझे लगा , वह मुझसे पहले ही बाज़ी मार ले गया । वह आराम से बीमार के बिस्तर के पास ही बैठा था , जैसे वह कोई डॉक्टर हो । अपने ओवरकोट के बटन खोले बैठा वह निर्लज्ज-सा लग रहा था । बीमार आदमी भी शायद अपने विचारों में खोया हुआ
लग रहा था । उसके गाल बुखार से तप रहे प्रतीत हो रहे थे । वह बीच-बीच में उस आगंतुक की ओर भी देख लेता था । एन. का बेटा छोटी उम्र का नहीं था । वह लगभग मेरी ही उम्र का होगा । उसकी छोटी-सी दाढ़ी बीमारी के कारण छितरायी हुई थी ।
               बूढ़ा एन. लम्बा-तगड़ा आदमी था । उसके कंधे काफ़ी चौड़े थे । पर यह देखकर मुझे हैरानी हुई कि वह अब दुबला हो गया था । उसकी कमर भी झुक गयी थी । वह अशक्त हो गया था । उसने अभी तक अपना कोट नहीं उतारा था । वह अपने बेटे के कान में कुछ फुसफुसा रहा था । उसकी पत्नी छोटे क़द की दुबली और फुर्तीली महिला थी । ऊँचाई में काफ़ी फ़र्क़ होने के बावजूद वह अपने पति के कोट को उतारने में उसकी मदद करने लगी । हालाँकि शुरू में उसे दिक़्क़त हो रही थी , किंतु आख़िरकार वह इसमें सफल हो गयी । लेकिन असल दिक़्क़त तो एन. के अधैर्य के कारण थी । कोट अभी पूरा उतरा भी नहीं था कि वह अपने हाथों से आरामकुर्सी के हत्थे टटोलने लगा था । उसकी पत्नी ने कोट उतारते ही आरामकुर्सी जल्दी से उसके पास सरका दी और खुद उसका कोट उठा कर रखने चली गई । कोट उठाए हुए वह खुद उसके बीच में लगभग ढँक-सी गई थी ।

        ***                   ***                 ***               ***                 ***     

              आख़िरकार मुझे लगा कि वह समय आ गया है या यूँ कहूँ कि
अपने-अाप तो वह समय आता नहीं ।  मैंने सोचा कि जो कुछ करना है , मुझे जल्दी ही कर लेना चाहिए । मुझे लग रहा था कि कारोबारी बातचीत के लिए समय धीरे-धीरे प्रतिकूल होता जा रहा है । उस एजेंट के लक्षण तो मुझे ऐसे दिख रहे थे जैसे वह वहीं जमा रहना चाहता हो । यह मेरे हित में नहीं था , हालाँकि मैं वहाँ उसकी उपस्थिति को ज़रा भी अहमियत नहीं देना चाहता था । इसलिए मैंने बिना किसी भूमिका के झटपट अपने धंधे की बात शुरू कर दी , बावजूद इसके कि इस समय एन. अपने बीमार बेटे से बात करना चाह रहा था । दुर्भाग्य से यह मेरी आदत हो गई थी कि जब मैं अपनी असली बात पर आता हूँ — जो कि आम तौर पर जल्दी ही होता है और इस मामले में तो समय और भी कम लगा — तो मैं बात करते-करते खड़ा हो जाता हूँ और चहलक़दमी करने लगता हूँ । किसी दफ़्तर में तो यह हरकत बड़े ही स्वाभाविक तरह से हो सकती है , पर यहाँ बड़ा अटपटा लग रहा था । फिर भी मैं खुद को रोक नहीं पाया । इसका एक कारण और भी था । सिगरेट की बड़ी तलब लग रही थी । ठीक है , हर आदमी की कुछ बुरी आदतें होती ही हैं । दूसरी ओर , उस एजेंट की हालत देखकर मुझे बहुत राहत मिल रही थी । वह उद्विग्न लग रहा था । वह अचानक घुटने पर रखी अपनी टोपी उठा कर झटके से अपने सिर पर रख लेता था और फिर वहाँ उसे ऊपर-नीचे करता रहता । फिर अचानक उसे लगता कि उससे कोई ग़लती हो गई है । तब वह उस टोपी को अपने सिर से उतार कर वापस अपने घुटने पर रख देता । हर एक-आध मिनट में वह इन्हीं हरकतों को दोहराता जा रहा था । मुझे तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था , क्योंकि मैं तो चहलक़दमी करता हुआ अपने प्रस्तावों में पूरी तरह से खोया हुआ था और उसे अनदेखा कर रहा था , लेकिन उसकी ये हरकतें अन्य लोगों को ज़रूर आपे से बाहर कर रही होंगी ।
                 दरअसल मैं जब अपनी बात में पूरा रम जाता हूँ तो ऐसी हरकतों की ही क्या , किसी भी बात की परवाह नहीं करता । जो कुछ हो रहा होता है , उसे मैं देखता तो हूँ पर उस ओर तब तक कोई ध्यान नहीं देता , जब तक कि मैं अपनी बात पूरी न कर लूँ , या जब तक कोई दूसरा व्यक्ति किसी तरह की आपत्ति प्रकट न करे । इसलिए मैं सब कुछ देख रहा था । मसलन् एन. मेरी बात की ओर ज़रा भी ध्यान नहीं दे रहा था । कुर्सी के हत्थे को पकड़े वह बिना मेरी ओर देखे बेचैनी से कसमसाया । वह कहीं शून्य में टकटकी लगाए देख रहा था , जैसे कुछ ढूँढ़ रहा हो । उसके चेहरे को देखकर कोई भी समझ सकता था कि मेरे कहे हुए शब्दों से या सही कहें तो मेरी उपस्थिति से भी वह पूरी तरह अनभिज्ञ लग रहा था । उसकी और उसके बीमार बेटे की हालत मेरे लिए शुभ लक्षण नहीं थे , फिर भी मैंने स्थिति को क़ाबू में रख कर अपनी बात कहनी जारी रखी , जैसे मुझे विश्वास हो कि अपनी बात कह कर मैं सारा मामला फिर से ठीक कर लूँगा ।
                 मैंने एन. के सामने एक लाभकारी प्रस्ताव रखा , हालाँकि बिना माँगे ही जिस तरह की रियायतें देने की बात मैंने कह दी थी , उसने खुद मुझे ही चौंका
दिया ।  इस बात से मुझे बड़ा संतोष मिला कि मेरे प्रस्ताव ने उस एजेंट को चक्कर में डाल दिया था । उस पर एक सरसरी निगाह डालते हुए मैंने देखा कि अपनी टोपी को जहाँ-का-तहाँ छोड़कर अब उसने अपने दोनो हाथ अपनी छाती पर बाँध लिए
थे । मुझे यह स्वीकार करने में हिचक हो रही है कि मेरे इस कृत्य का उद्देश्य उसे धक्का पहुँचाना भी था । अपनी इस जीत के उत्साह में मैं काफ़ी देर तक अपनी बात कहता रहा , लेकिन तभी उसके बेटे ने , जिसे मैं अपनी इस योजना में फ़ालतू चीज़ समझे बैठा था , बिस्तर से उठ कर काँपते हाथों से मुझे धक्का दे दिया । हो सकता है वह कुछ कहना चाहता हो या किसी बात की ओर संकेत करना चाहता हो , लेकिन  उसमें इसकी ताकत न हो । पहले तो मुझे लगा जैसे उसका दिमाग़ घूम गया हो ,पर जब मैंने बूढ़े  एन. पर एक उबाऊ नज़र डाली तो सारी बात मेरी समझ में आ गई।
                 एन. की खुली हुई आँखें भावशून्य और सूजी हुई थीं । लग रहा था जैसे उसे बहुत कमज़ोरी महसूस हो रही हो । वह काँप रहा था और उसका शरीर आगे की ओर झुका जा रहा था , जैसे कोई उसके कंधों को ठोक रहा हो । उसका निचला होठ या यूँ कहें कि निचला जबड़ा लटक गया था और वहाँ से झाग-सा बाहर आ रहा था । वह बड़ी मुश्किल से साँस ले पा रहा था । फिर अचानक जैसे उसे सारे कष्ट से मुक्ति मिल गयी हो , उसने कुर्सी पर पीठ टिका कर आँखें बंद कर लीं । दर्द का एक गहरा अहसास उसके चेहरे पर से गुज़रा और लगा जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया हो ।
मैं झटके से उसकी ओर गया और उसकी बेजान कलाई थाम ली । वह इतना ठंडा था कि एक बार तो ठंड की एक लहर मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई । नब्ज़ थम गयी थी यानी सब ख़त्म हो गया था । कुछ भी हो , वह बहुत बूढ़ा हो गया था । काश हम सबको भी ऐसी मौत नसीब होती । लेकिन अब मैं क्या करूँ ? मैंने मदद के लिए आसपास देखा । उसके बेटे ने चादर सिर तक ओढ़ ली थी और उसकी सिसकियों की आवाज़ मैं साफ़ सुन रहा था । वह एजेंट तो किसी मछली की तरह ठंडा लग रहा था । वह एन. से दो क़दम दूर अपनी कुर्सी पर अचल बैठा था और लग रहा था कि वह कुछ नहीं कर पाएगा । इसलिए मैं ही वह एकमात्र व्यक्ति था , जो कुछ कर सकता था । बड़ा कठिन काम था उसकी पत्नी को उसकी मौत की ख़बर देना , और वह भी इस तरह कि वह उसे सहन कर सके । बगल के कमरे से मुझे उसकी पदचाप सुनाई देने लगी थी ।
          ***                ***                ***                ***                ***
                 वह अभी तक बाहर वाले कपड़ों में ही थी । उन्हें बदलने का उसे अभी तक समय ही नहीं मिला था । वह अपने पति को पहनाने के लिए आग के सामने गरम  करके घर के कपड़े लायी थी । हमें स्थिर बैठे देख उसने मुस्कराते और अपनी गर्दन हिलाते हुए कहा , ” वे सो गए हैं ।” अपने अपरिमित निर्दोष विश्वास के साथ उसने अपने पति की वही कलाई पकड़ी जो कुछ देर पहले मैंने पकड़ी थी और बड़े प्रमुदित मन से उस पर एक चुम्बन अंकित कर दिया । हम तीनो आश्चर्य से देखते ही रह गए कि एन. हिला और उसने जम्हाई ली । पत्नी ने उसे घर की क़मीज़ पहनाई और इतनी लम्बी सैर के लिए , जिसने उसे थका दिया था , उलाहना देने लगी । वह उस उलाहने को खीझ और व्यंग्य के भाव से सुनता रहा और जवाब में उसने कहा कि वह उकताने लगा था और उसी वजह से उसे नींद आ गई थी । और फिर कुछ देर आराम करने के लिए उसे बीमार के बिस्तर पर ही लेटा दिया गया । सिर के नीचे रखने के सिए उसकी पत्नी जल्दी से दो तकिये ले आई और बीमार के पायताने की ओर रख दिए । अपने कमरे में उसे इसलिए जाने नहीं दिया गया , क्योंकि वहाँ जाने के लिए एक ख़ाली कमरे से गुज़रना पड़ता था और उसमें उसे ठंड लग सकती थी ।
                  जो कुछ पहले घटा था , अब उसमें मुझे कोई विचित्रता नहीं लग रही थी । फिर एन. ने शाम का अख़बार माँगा और बिना अपने मेहमानों की ओर ज़रा भी ध्यान दिए अख़बार खोल लिया । वह ध्यान से अख़बार नहीं पढ़ रहा था । यूँ ही सरसरी तौर पर इधर-उधर निगाह डाल रहा था । उसने हमारे प्रस्तावों पर कुछ अप्रिय टिप्पणियाँ भी कीं । दरअसल उसने अपने हाथ को बड़े तिरस्कारपूर्ण ढंग से हिलाते हुए जिस तरह की तीखी टिप्पणियाँ की थीं उसमें इस बात की ओर स्पष्ट संकेत था कि कारोबार करने के हमारे तरीक़ों ने उसके मुँह का स्वाद ख़राब कर दिया है । यह सब सुनकर उस एजेंट ने भी एक-दो अप्रिय टिप्पणियाँ कर ही दीं । बेशक , जो कुछ घटा था , उसकी क्षतिपूर्ति का यह सबसे घटिया तरीका था । जल्दी ही मैंने उनसे विदा ले ली । मैं उस एजेंट का आभारी था , क्योंकि यदि वह न होता तो मुझे वहाँ से खिसकने का इतना अच्छा मौक़ा न मिल पाता ।
       ***                    ***                  ***                ***                  ***
                   बाहर निकलते हुए बरामदे में मुझे श्रीमती एन. मिल गईं । उनकी करुण मूर्ति को देखकर मैंने कहा कि उन्हें देखकर मुझे अपनी माँ की याद आ गई । उन्हें चुप देखकर मैंने आगे कहा , ” लोग जो भी कहें , पर वह चमत्कार कर सकती थीं । जिन चीज़ों को हम तोड़-फोड़ देते , वह उन्हें फिर से ठीक कर देतीं । जब मैं बच्चा था , तभी उनकी मृत्यु हो गई थी । ” मैंने यह बात बड़े धीरे-धीरे और सुस्पष्ट ढंग से कही । मेरा ख़्याल था कि वह वृद्धा ज़रा ऊँचा सुनती है , पर वह तो बिल्कुल भी नहीं सुन पाती थी , क्योंकि मेरी बात को बिना समझे उसने पूछा था , “मेरे पति आपके प्रस्ताव पर क्या कह रहे हैं ? ” विदाई के दो चार शब्दों के बीच मुझे यह भी लगा कि वह मुझे एजेंट समझ रही है , अन्यथा वह अधिक विनयी होती ।
                    फिर मैं सीढ़ियाँ उतर गया । उतरना चढ़ने से ज़्यादा थका देने वाला साबित हुआ , हालाँकि चढ़ना भी कोई आसान काम नहीं था । ओह , कितनी ही कारोबारी मुलाक़ातें ऐसी होती हैं जिनका कोई परिणाम नहीं निकलता है , पर इसके लिए हाथ पर हाथ धरे भी तो नहीं बैठा जा सकता और मुलाक़ातें करते रहना पड़ता है ।
                              ———-०———-

प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
         A-5001 ,
         गौड़ ग्रीन सिटी ,
         वैभव खंड ,
         इंदिरापुरम ,
         ग़ाज़ियाबाद – 201010
         ( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

एक उदास सिम्फ़नी

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Photo by DHANYA A V on Unsplash

एक उदास सिम्फ़नी
                         
                                                            – सुशांत सुप्रिय

     ” रात वह होती है जब तुम सोए हुए हो और तुम्हारे भीतर अँधेरा भरा हो । “
                                                                     — अपनी ही डायरी में से ।
  ————————————————————————

        आजकल मेरे लिए सारे दिन रातों जैसे हैं । भरी दुपहरी है । फिर भी चारो ओर अँधेरा है । आकाश लोहे की चादर-सा मेरे ऊपर तना है । भीतर एक अचीन्हा-सा दर्द है । बाहर एक अनाम-सी उदासी है । मेरी जेब ठंडी है । आँखों में अँधेरा है । सीने में रात है । दुख मेरे पैरों में लिपटा है । मेरे सिर पर बेकारी का कँटीला ताज है । बेरोज़गारी की मार मुझ पर भी पड़ी है । मैं सड़क पर आ खड़ा हुआ हूँ । कहीं कोई नौकरी मुझे नहीं तलाश रही । मेरे चारो ओर एक उदास सिम्फ़नी-सा बजता हुआ यह समय है । और इस अनिश्चित समय की उपज मैं हूँ ।
         अब मैं भीड़ में अकेला हूँ । अपनों के बीच एक अजनबी हूँ । समय मुझे बिताता जा रहा है । मैं यूँ ही व्यतीत हो रहा हूँ । मेरा होना भी जैसे एक ‘ नहींपन ‘ में बदलता जा रहा है । लगता है जैसे सारे धूसर और मटमैले रंग मेरे ही हिस्से में आ गए हैं और दिन एक बदनुमा दाग़-सा मेरे चेहरे से आ चिपका है । मेरा वर्तमान जीवन के ताल पर फैली हुई काई बन गया है । अब मेरी हर सुबह के भीतर रात की कराहें दफ़्न हैं । मेरे तन-मन में हताशा की गंध है । जैसे समय की आँत में एक फोड़ा उग आया है । जैसे एक ब्लैक-होल है , जिसमें मैं गिरता जा रहा हूँ ।
           कुछ माह पहले तक मेरे पास नौकरी थी । जीवन में हरियाली थी । साथ देने के लिए मेरी प्रेमिका छवि थी । अब बीते दिनों की यादें हैं । अवसाद है । और ठंडा पसीना है । अनायास ही ग़ुलाम अली की गाई हुई एक उदास ग़ज़ल याद आ जाती
है — ” चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला … । “
           शाम के साये गहरे हो रहे हैं । मैं इंडिया गेट से कुछ दूर घास पर बैठा हूँ । एक सिगरेट मुझे कश-कश पी रही है । मेरी आँखों में बुझ चुके सूरज के कुछ उदास क़तरे जमा हैं । मेरे बगल में दुग्गल बैठा है । उसकी हालत भी मेरे जैसी ही है । हम दोनो एक ही कम्पनी में काम करते थे । अब दोनो बेरोज़गार एक साथ सड़क की धूल फाँक रहे हैं । उसे भी मेरे ही साथ कम्पनी से निकाल दिया गया । वजह बताई गई — ग्लोबल रिसेशन । आर्थिक मंदी , जिसने हम जैसे सैकड़ों बदक़िस्मत लोगों की नौकरियाँ लील ली हैं ।
           ” अब कम्पनी सरप्लस-स्टाफ़ एफ़ोर्ड नहीं कर सकती ! ” कम्पनी का सपाट-सा जवाब था ।
           ” प्रगति मैदान में वर्ल्ड बुक फ़ेयर चल रहा है । ” दुग्गल सूचना देता है । उसे भी मेरी तरह ही पढ़ने-लिखने का शौक़ है । लेकिन हम जानते हैं कि कि हमारी जेबों में किताबें ख़रीदने लायक पैसे नहीं हैं । मैं कुछ नहीं कहता हूँ । दुग्गल सूखे बीज-सी बजती हुई मेरी चुप्पी को सुनता है । फिर उसका बदरंग मौन भी मेरी उस चुप्पी में शामिल हो जाता है ।
            हमारे चारो ओर शोकगीत-सा कानों में बजता हुआ झुटपुटा है । हमसे थोड़ी दूरी पर दिल्ली का ट्रैफ़िक बदस्तूर बह रहा है । दिन भर भटकने के बाद अब थकान हम पर हावी है । कुछ देर बाद हम दोनो अपने-अपने दड़बों में लौट जाएँगे । नौकरी के लिए भटकने का यह सिलसिला न जाने कब तक जारी रहेगा । फिर से ग़ुलाम अली की गाई एक ग़ज़ल याद आ जाती है — ” ये दिल , ये पागल दिल
मेरा , क्यों बुझ गया , आवारगी … । ” इसी वजह से आजकल मेरा छवि से भी मिलना-जुलना नहीं हो पा रहा है ।
            साल भर पहले छब्बे भाई के दफ़्तर में पहली बार मैं तीखे नैन-नक़्श वाली एक पतली-दुबली पंजाबी लड़की से मिला था । पूछने पर पता चला कि उसका नाम छवि मिन्हास था । छब्बे भाई आदिवासी लोगों के कल्याण के लिए एक एन.जी.ओ.
चलाते हैं । छवि उसी में काम करती है । छब्बे भाई ने बताया कि उसकी रुचि साहित्य में भी थी ।
            ” तुमने सुरजीत पातर को पढ़ा है ? ” शुरुआती बातचीत में ही छवि ने मुझसे पूछ लिया था ।
            छब्बे भाई ने उसे मेरे बारे में बताया कि कि ये भी कविताएँ लिखता है ।
            ” अच्छा ! कभी मुझे भी सुनाना । ” उसने कहा था ।
            धीरे-धीरे हम मिलने-जुलने लगे थे । छवि को मेरी कविताएँ अच्छी लगी
थीं । ख़ास करके ‘ यह सच है ‘ शीर्षक वाली मेरी यह कविता — ” रसोई के चाकू /से ले कर / परमाणु बम तक / सभी अस्त्र-शस्त्र / बेमानी हैं / प्रतिदिन हम / उपेक्षा
से / एक-दूसरे की / हत्या करते हैं । “
            समय बीतने के साथ-साथ हम दोनो एक-दूसरे की ओर आकर्षित होने लगे थे । कई बार छुट्टी वाले दिन छवि मुझसे मिलने लक्ष्मीनगर में मेरे किराए के मकान पर आ जाती । कभी-कभी वह बहुत बढ़िया छोले-पूरी या राजमा-चावल बना कर मुझे खिलाती और मुझे अपनी कुकिंग का दीवाना बना लेती । या हम कभी-कभी
 कनॉट प्लेस में मिलते । दिल्ली दरबार या वोल्गा में लंच करते । फिर कहीं और अपनी फ़ेवरिट कसाटा आइसक्रीम खाते । और जनपथ पर यूँ ही टहलते रहते । लोग पूरा बाज़ार ख़रीद कर अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भरकर अपने घर ले जा रहे होते । मैं भी छवि को अक्सर कोई-न-कोई प्यारा-सा गिफ़्ट ख़रीद कर दे रहा होता । लेकिन यह सुखद दिनों की बात थी जब मेरी नौकरी नहीं छिनी थी । हम दोनो कविताओं और कहानियों के बारे में भी चर्चा किया करते । बाक़ी बचे समय में हम एक-दूसरे के चेहरों में अपने लिए आइना ढूँढ़ते रहते और समय का पता ही नहीं चलता …
             ” चल यार, चलते हैं । देर हो रही है । ” दुग्गल मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहता है । मैं चौंककर वर्तमान में लौट आता हूँ । अँधेरा रात के कोनों को कुतरने लगा है । हवा में ठंड की खनक है । अपने कपड़ों को हाथ से झाड़ते हुए हम घास पर से उठ खड़े होते हैं । इत्तिफ़ाक़ से बस-स्टॉप पर पहुँचते ही मुझे लक्ष्मीनगर की बस मिल जाती है ।
              ” कल मिलते हैं । ” मैं भीड़ में दबा हुआ अपना हाथ किसी तरह हिला कर कहता हूँ । जवाब में दुग्गल भी अपना ख़ाली हाथ मेरी ओर हिला देता है । जीवन के कैलेंडर के एक और दिन ने मुझे ख़र्च कर लिया है । मेरी आयु में से एक और दिन कम हो गया है । ” … सीने में जलन , आँखों में तूफ़ान-सा क्यों है ? इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यों है … ? ” बस में किसी ने अपने मोबाइल फ़ोन पर एफ़. एम. रेडियो लगा दिया है । सुरेश वाडेकर की उदास आवाज़ बस में तैर रही है …
             अपने किराए के मकान पर पहुँच कर मैं बिस्तर पर निढाल हो कर गिर जाता हूँ । एक पर-कटे पंछी-सा । तभी बिस्तर पर पड़े मोबाइल फ़ोन पर मेरी नज़र जाती है । अपना मोबाइल फ़ोन मैं यहीं छोड़ गया था । उसमें छवि के दस-ग्यारह मिस्ड कॉल पड़े हैं । ज़हन में स्मृतियों की लहर झनझनाती है । लेकिन छवि से बात करने की हिम्मत नहीं है अभी । बेकारी के इन दिनों में लिखी अपनी ही एक कविता याद आती है । छवि को उसके ई-मेल ‘ minhas_chhavi@gmail.com ‘ पर अपनी वही कविता पोस्ट कर देता हूँ । कविता का शीर्षक है : ‘ डर ‘ — ” तुम डरती हो / तेज़ाबी बारिश से / ओज़ोन-छिद्र से / मैं डरता हूँ / उपेक्षा की नज़रों से / अलगाव की टीस से / तुम डरती हो / रासायनिक हथियारों से / परमाणु बमों से /
मैं डरता हूँ / बदनीयती के रिश्तों से / धोखे के सर्प-दंशों से / तुम डरती हो / एड्स
से / कैंसर से / मृत्यु से / मैं डरता हूँ / उन पलों से / जब जीवित होते हुए भी / मेरे भीतर कहीं कुछ / मर जाता है ” ।
             छवि को अपनी कविता भेज कर मैं आँखें मूँद लेता हूँ । दो मिनट बाद ही मेरे ई-मेल पर छवि का जवाब आ जाता है — ” कहाँ हो तुम इन दिनों ? कल
मिलो । और हाँ, ग्रेट पोएम।इसीलिए तो मैं तुम्हारी फ़ैन हूँ , मेरे पोएट-फिलॉस्फ़र !
लव यू । बाय ! “
             मोबाइल फ़ोन रखकर सोने की अधमरी कोशिश करता हूँ किंतु कानों में कई स्वर बजने लगते हैं —
             ” डोंट यू थिंक , यू आर टू ओल्ड नाउ फ़ॉर अ गवमेंट जॉब ? “
             ” आप अपनी कम्पनी के लिए काम के नहीं होंगे तभी तो उन्होंने आप को        नौकरी से निकाल दिया ! फिर हम आप को अपनी कंपनी में क्यों रखें ? “
             ” मिस्टर प्रशांत , यू आर ओवर-क्वालिफ़ाइड फ़ॉर दिस जॉब । सॉरी “…
                       नींद आँखों के लिए अजनबी बनी रहती है । और तब केवल छवि की यादों का ही सहारा बचता है । ज़हन में बीते हुए दिनों की फ़िल्म चलने लगती
है …
          अलगनी पर फैले धुले कपड़े-सी थी वह सुबह । उस दिन जब छवि घर आई तो हम दोनो एक मद्धिम आँच में जल रहे थे । अपने-अपने अक्षत कुँवारेपन में दहकते हुए । दो पावन तन-मन एक-दूसरे को ब्रेल लिपि में लिखी अपनी प्रिय किताब-सा उँगलियों से पूरा पढ़ लेने को बेताब थे । हमारा पहला चुम्बन जादुई था । हमारा पहला मिलन तिलिस्मी । उस स्पर्श से हमारे तन-मन में हज़ारों सूरजमुखी खिल उठे थे । उसके बाद तो हर बार हम एक नई भाषा और नए शिल्प में अपने मिलन की कथा लिखते थे । हम एक-दूसरे को जितना अधिक पीते थे , हमारी प्यास उतनी ही बढ़ती जाती थी ।
           कभी वह शहद-सी होती , कभी चाशनी-सी , कभी गुड़-सी , कभी
गन्ने-सी , कभी खोए-सी , कभी मलाई-सी । कभी वह पायल की झंकार-सी होती , कभी पियानो-सी , कभी वायलिन-सी , कभी माउथ-ऑर्गन-सी , कभी
जलतरंग-सी । कभी वह भोर-सी होती , कभी गोधूलि-सी , कभी शिखर-दुपहरी-सी,
कभी गुलज़ार रात-सी । कभी वह शोलों-सी होती , कभी शबनम-सी , कभी
सरगम-सी , कभी मधुबन-सी ।   
          हम जितना अधिक एक -दूसरे में डूबते जाते , उतने ही अच्छे तैराक बनते जाते । हमारा तन-मन एक मीठे दर्द से भर जाता । तब उसकी आँखों में उतर आए आकाश का रंग गहरा नीला हो जाता और मेरी आँखों में हहराता समन्दर शीशे-सा पारदर्शी लगने लगता । तब धरती की हरियाली ज़रा और बढ़ जाती और क्षितिज हमसे बस दो क़दम दूर लगता । तब दिन भर गुनगुनाते रहने का मन करता और रात की देह पर गिरी ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकतीं । तब हमारे भीतर वसंत की ख़ुशबुएँ महकने लगतीं और एक-दूसरे के भीतर टहलते हुए हम जागती आँखों से सपने देख रहे होते …
          हमने तय कर लिया था कि कुछ महीने बाद हम शादी कर लेंगे । हालाँकि हम दोनो के घरवालों ने इस रिश्ते को ले कर ज़्यादा उत्साह नहीं दिखाया था । लेकिन अब मेरी बेकारी की ख़बर को वे किस तरह लेंगे ? और छवि क्या सोचेगी जब उसे पता चलेगा कि मेरी नौकरी अब नहीं रही ? ” एक तो चेहरा , ऐसा हो , मेरे लिए जो सजता हो …। ” ग़ुलाम अली की गाई हुई एक और ग़ज़ल याद आ जाती
है । क्या छवि एक बेकार , बेरोज़गार से भी प्यार करेगी ?
         आज नींद आँखों के लिए अजनबी बनी हुई है । बिस्तर पर लेटे-लेटे कुछ अजीब-से विचार मन में आने लगते हैं …
         जान, यदि सम्भव होता तो एक दिन मैं तुम्हारे मोबाइल फ़ोन में समा जाता ।
तुम्हारे कोमल हाथों में रहता । तुम्हारी सुगंधित साँसों के पास आ जाता । तुम्हारे जाने बिना तुम्हारे बालों की लटें सहला जाता । मोबाइल से निकल कर चुपके से तुम्हारे रसीले होठों को चूमता और दोबारा मोबाइल में चला जाता । तुम चौंक
जाती । अपने आस-पास मेरी जानी-पहचानी ख़ुशबू पाती । लेकिन मैं तुम्हें कहीं नहीं दिखता । तुम थोड़ा हैरान-परेशान हो जाती । और जब तुम थक जाती , मैं किसी प्यारे रिंग-टोन-सा बजने लगता तुम्हारे आस-पास । तुम उस रिंग-टोन में बजती मेरी आवाज़ को पहचान कर विकल हो जाती । मुझे अपने चारो ओर ढूँढ़ती पर कहीं नहीं पाती क्योंकि ठीक तभी तुम्हारे मोबाइल के भीतर बैठा मैं तुम्हारे ‘ सर्विस-प्रोवाइडर ‘
से मिलने चला जाता ।
           जान , यदि यह सम्भव होता तो एक दिन मैं तुम्हारी स्मृति की इमारत में चुपचाप प्रवेश कर जाता । वहाँ बेड-रूम में गद्दे पर मेरा धड़ आराम फ़रमाता । ड्राइंग-रूम में मेरी आँखें तुम्हारे प्रेम-पत्र पढ़ रही होतीं । रसोई में मेरे हाथ तुम्हारे लिए चाय-नाश्ता बना रहे होते । जूतों में पड़े मेरे पैर पास पड़ी तुम्हारी चप्पलों से गुटर-गूँ कर रहे होते ।
          उधर मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते तुम मेरे किराए के मकान पर चली जाती । दरवाज़े के पास मेरे पैरों के निशान पड़े होते । विकल हो कर तुम मुझे उन निशानों में ढूँढ़ती , पर मुझे वहाँ नहीं पाती । तुम्हारे पास मेरे मकान की दूसरी चाबी है । तुम भीतर आ जातीं स्टडी-टेबल पर पड़ी क़लम में मेरी उँगलियों की ख़ुशबू होती । तुम मुझे उस ख़ुशबू में ढूँढ़ती , पर मुझे वहाँ नहीं पाती । शेल्फ़ पर पड़ी डायरी में मेरे ज़हन के विचार पड़े होते । तुम मुझे उन विचारों में भी ढूँढ़ती , पर मैं वहाँ भी नहीं होता । तब मैं चिल्ला कर कहता — ” जानू , इस समय मैं तुम्हारी स्मृतियों में बैठा हूँ । ” लेकिन तुम्हें मेरी आवाज़ नहीं सुनाई देती । तुम मुझे फ़ोन लगाती पर उस रूट की सभी लाइनें व्यस्त पाती …
         मेज़ पर पड़ा आज का अख़बार उठा लेता हूँ । हेडलाइन्स चीख़-चीख़ कर बता रहे हैं : देश के हर कोने में किसान आत्म-हत्या कर हैं । महँगाई लगातार बढ़ती जा रही है । ग़रीबों की हालत और बदतर होती जा रही है जबकि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं । बेकार और बेरोज़गार युवा जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं…        सोचता हूँ — कल जब छवि को पता चलेगा कि मेरी नौकरी अब नहीं रही , कि मेरी जेब में खाने लायक पैसे भी नहीं बचे हैं , क्या वह तब भी मुझसे पहले जैसा प्यार करती रहेगी ?
          आज नींद नहीं आ रही । रिश्तों की नीली झील में संशय के काले बगुले आ गए हैं । बेचैनी एक भारी शिला-सी सीने पर आ बैठी है । जब रहा नहीं जाता तो बिस्तर से उठकर बीथोवन का कोई ‘ सोनाटा ‘ लगा लेता हूँ । रात एक उदास सिम्फ़नी-सी कानों में बजने लगती है । एक धूसर उदासी मेरी शिराओं और धमनियों में घुलती चली जाती है । देह की सभी कोशिकाएँ अवसाद से भर जाती हैं और जीभ पर फटे हुए दूध-सी इस उदास काली रात के क़तरे जमते चले जाते हैं । अपनी डायरी निकाल लेता हूँ और क़लम ख़ुद-ब-ख़ुद चलने लगती है —
           ” बीहड़ रातों में जब तुम्हारा सिर फटने लगे , जब यह जीवन तुम्हें
            बंजर लगने लगे , जब ख़ुशी एक अंतहीन प्रतीक्षा बन जाए , जब
            अपना वजूद तुम्हें एक यातना-शिविर लगने लगे , जब पूर्णिमा का
            चाँद भी तुम्हें छटपटाता हुआ लगे , तब समझो — तुम गए काम से ।
            अब  तुम्हारी कोई सुबह नहीं । यदि सुबह हो भी गई तो उसमें कोई
            प्रकाश नहीं । यदि प्रकाश हो भी गया तो कहीं कोई चिड़िया नहीं ,
            यदि चिड़ियाँ आ भी गईं तो तो वहाँ कोई चहचहाहट नहीं , क्योंकि
            उन चिड़ियों के पंख ही नहीं । बिना परों वाली चिड़ियाँ भला कौन-से
            गीत गाएँगी ? उनके जीवन में चहचहाने लायक बचा ही क्या होगा ? “

                              ————०————
प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
         A-5001,
         गौड़ ग्रीन सिटी ,
         वैभव खंड ,
         इंदिरापुरम ,
         ग़ाज़ियाबाद -201010
         ( उ. प्र. )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com