30.5 C
Delhi
होम ब्लॉग पेज 67

कविता की रचना प्रक्रिया

0
person writing on white paper
Photo by Eugene Chystiakov on Unsplash

कविता की रचना प्रक्रिया 

आचार्य शुक्ल के अनुसार जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा  कहलाती है,हृदय की  इसी  मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है,उसे कविता कहते हैं। अर्थात आत्म की अभिव्यक्ति ही रचना की प्रथम प्रक्रिया है, लेकिन जब तक यह संवेदना से नहीं जुड़ती तब तक संपूर्ण सृष्टि से नहीं जुड़ पाती ।

वाचिक परंपरा के रूप में जन्म लेने वाली कविता वर्तमान में लिखित रूप में मौजूद है। सारी जटिलता के बावजूद कविता हमारी संवेदना के निकट होती हैI संवेदना ही कविता का मूल है। इसे राग-तत्व भी कहा जाता हैI यही संवेदना समस्त चराचर जगत से जुड़ने और उसे अपना लेने का सार्थक प्रयास करती है।

 तीव्र संवेदना के कारण ही क्रौंच युगल की मृत्यु के बाद महाकवि वाल्मीकि का आदिकाव्य प्रकट होता है।पक्षी की पीड़ा के साथ कवि की संवेदना जाग्रत होकर इस प्रकार प्रकट होती है-

मा निषाद ! प्रतिष्ठाम त्वंगम: शाश्वती समाः ।

यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी: काममोहितम ।।

वस्तुतः रचनाकार जगत में घटित घटनाओं को देखता है और अपनी  तीव्र संवेदना से वह उन्हें आयत्त कर लेता है, उसी के धरातल पर खड़ा होकर जब वह अपनी वाणी प्रकट करता है, तो वे विचार आम हो जाते हैं।

आचार्य भरतमुनि के रस सूत्र को अभिनवगुप्त ने स्पष्ट करते हुए कहा कि रस अभिव्यक्त होता है, अर्थात कवि की वाणी को सुनकर सहृदय के  मन में स्थित स्थायी भाव जाग्रत होकर रस रूप में परिणत हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में रचनाकार की क्षमता श्रोता के हृदय  में भाव जगाने की होनी चाहिए,जो कि  राग तत्त्व से ही संभव है।

कविता एक ऐसी कला है जिसमें किसी भी  उपकरण की मदद नहीं ली जा सकती, उसे मात्र  भाषा की मदद मिलती है। इस प्रकार कविता की दुनिया का पहला उपकरण है-शब्द। शब्दों का मेलजोल कविता की पहली शर्त हैI जब रचनाकार कविता की दुनिया में प्रवेश करता है,तो उसे पहले शब्दों से खेलना पड़ता है, इससे नाद और ध्वनि से संगीतात्मकता प्राप्त होती है। शब्दों का यह खेल धीरे धीरे उसे आगे ले जाता है और एक व्यवस्था निर्मित करता है,जिससे कविता रचना आसान होता जाता है।

कविता की  दूसरी अनिवार्य शर्त है-बिम्ब निर्माण I हमारे पास दुनिया को जानने का एकमात्र सुलभ साधन इन्द्रियाँ  ही हैं। बाहरी संवेदना मन के स्तर पर बिम्ब  के रूप में बदल जाती हैI जब कुछ विशेष शब्दों को सुनकर अनायास मन के भीतर कुछ चित्र उभर आते हैं यह स्मृति चित्र ही शब्दों के सहारे कविता का बिम्ब  निर्मित करते हैं । कविता में बिम्बों का विशिष्ट महत्व है। जयशंकर प्रसाद प्रकृति का मानवीकरण करते हुए बिम्ब प्रस्तुत करते हुए उषा का चित्र खींच देते हैं-

बीती विभावरी जाग री

अम्बर पनघट में डुबो रही ,

ताराघट उषा नागरी ।

 कविता में चित्रों या बिम्बों का प्रभाव अधिक पड़ता है Iकवि ने यहाँ उषाकालीन वेला को पनघट पर जल भरती हुई स्त्री के रूप में चित्रित किया है। अतः कविता कि रचना करते समय दृश्य और बिम्ब कि सम्भावना तलाश करनी चाहिए।  ये बिम्ब सभी को आकर्षित करते हैं । बिम्ब हमारी ज्ञानेन्द्रियों को केंद्र में रखकर निर्मित होते हैं ,जैसे- चाक्षुष, घ्राण, आस्वाद्य, स्पर्श्य और श्रव्य । चाक्षुष बिम्ब का उदाहरण द्रष्टव्य है–

है अमानिशा ,उगलता गगन घन अन्धकार ,

खो रहा दिशा का ज्ञान ,स्तब्ध है पवन-चार ,

अप्रतिहत गरज रहा,पीछे अम्बुधि विशाल,

भूधर ज्यों ध्यानमग्न,केवल जलती मशाल ।

इन पंक्तियों में वातावरण की भयंकरता के साथ राम के मन कि दशा का भी बिम्ब उभर आता है ।

 आधुनिक कविताएँ  अतुकांत होती है, परंतु उसमें भी आतंरिक लय  होना जरूरी है। मुक्त छंद की कविता लिखने के लिए भी अर्थ की लय  निर्वाह जरूरी हैI कवि को भाषा के संगीत की पहचान होनी चाहिए। आधुनिक कविता में आंतरिक लय का निर्वाह इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है –

वह तोड़ती पत्थर,

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर,

वह तोड़ती पत्थर I

यहाँ पर कोई छंद न होते हुए भी ‘र’ की आवृत्ति से लय उत्त्पन्न हो गई है।

परिवेश के साथ-साथ कविता के सभी घटक परिवेश के सन्दर्भ  से परिचालित होते हैंI नागार्जुन की  कविता ‘अकाल और उसके बाद’ में परिवेश को नई भाषा ,बिम्ब छंद और संरचना के साथ प्रस्तुत किया गया है ,यथा-

कई दिनों तक चूल्हा रोया ,चक्की रही उदास ,

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास ,

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त ,

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।

 यहाँ चूल्हा,चक्की ,कुतिया,भीत आदि शब्दों में ग्रामीण परिवेश की हालत प्रकट होती है । ‘कई दिनों तक’ के बार–बार दोहराव से अकाल की गंभीरता ध्वनित होती है । इसी प्रकार ‘गश्त’और ‘शिकस्त’ शब्द में भाषागत आकर्षण है ।

कवि की  वैयक्तिक  सोच ,दृष्टि और दुनिया को देखने का नजरिया कविता की भाव-संपदा बनती है। कवि की इस वैयक्तिकता में  भी सामाजिकता मिली होती है।  इसी कारण उसकी निजी अनुभूतियाँ  भी सामाजिक अनुभूतियाँ  बन जाती है। इन्हीं तत्त्वों  को उजागर करने का कार्य प्रतिभा करती है। इसे कविता का मूल हेतु माना गया है ,जिसके माध्यम से कवि अपनी रचना कर पाता हैI अतः कविता की रचना एक प्रक्रिया से गुजरने के बाद प्रभावकारी बन जाती है।

कविता / मैं किन्नर

0
rain drop
Photo by Maciej Pienczewski on Unsplash

अनर्थ का अर्थ

मेरे पड़ोस में रहने वाले गुप्ताजी की तीन लड़कियाँ और एक लड़का है। चूंकि पुत्र इकलौता है, अत: वह माँ – पिता और बहनों सभी का दुलारा है। धन – धान्य से परिपूर्ण व्यवसायी गुप्ताजी के लिए उनका लड़का ही उनके जीवन का केंद्र बिन्दु है। जिसका अधिकांश समय बहनों के सानिध्य में बीतने और उन्हीं के स्नेहिल छाया में जीवन का पाठ पढ़ने के कारण, उसके स्वभाव में कोमलता और भावुकता का समावेश ज्यादा है। और यही बात गुप्ताजी को चिंतित कर देता है। वो चाहते हैं कि उनका पुत्र रौबदार और मर्दानगी के गुणों से भरपूर हो। वो उसे ज़्यादा से ज़्यादा सुख सुविधा का उपभोग करने और घर से बाहर अपने हमउम्र साथियों के बीच वक्त बिताने, घूमने – फिरने की सलाह देते रहते हैं। क्योंकि उनके अनुसार मर्द घर के बाहर ही अच्छे लगते हैं। घर के भीतर रहने वाला और माँ, बहनों और पत्नी के साथ ज्यादा समय बिताने वाला तथा बात – बेबात भावुकता का प्रदर्शन करने वाला पुरुष कमजोर या ‘मऊगा’ बन जाता है।

‘मऊगा’ हमारे समाज, विशेषकर ग्रामीण समाज का एक प्रचलित शब्द है। इसे भदेश शब्दों के समूह में रखा जा सकता है। सामान्यतया यह उपमा वैसे पुरुषों को दी जाती है जिनका व्यवहार, स्वभाव, पसंद – नापसंद आदि को पुरुष समाज औरतनुमा मानता है। यदि किसी मर्द के स्वभाव और व्यवहार में कोमलता की भावना अधिक हो, वो फिल्में देखते वक्त, कथा – कहानियां पढ़ते वक्त या कोई भी ऐसी घटना जो उसके मन को छूती हो, वो बातें यदि उसके आँखों में आंसू  ला देती है या कहे की वह रो देता है तो उसे ‘मउगा’ की संज्ञा से विभूषित कर दी जाती है। वैसे लोग भी जो अपने काम के अलावा अपना अधिकांश समय घर में व्यतीत करते है, शराब, सिगरेट जैसे दूर्व्यसनों से दूर रहते हैं। अनावश्यक लड़ाई – झगड़े या अन्य असामाजिक गतिविधियों से दूर रहते हैं, महिलाओं से मित्रतापूर्ण और समतामूलक व्यवहार करते है और पत्नी के फैसलों तथा अधिकारों का सम्मान करते है उन्हें भी बेहिचक मउगा का तमगा दे दिया जाता है। एक बड़ा वर्ग ऐसे लड़कों या पुरुषों को मजाक और हिकारत की दृष्टि से देखता है। उन्हें कमजोर और कमअक्ल की संज्ञा भी दी जाती है। साथ ही उन्हें मर्दानगी से मुक्त मान लिया जाता है।

प्रचलित अर्थो में मउगा शब्द को मर्दानगी का विलोम माना जा सकता है। इस शब्द को ज्यादा गहराई से जानने समझने के लिए मर्दानगी को हमारे समाज में किन संदर्भो में देखा जाता है, इसे जानना समझना होगा। मर्दानगी का अर्थ है – पुरूषत्व, बहादुरी। यह मर्द शब्द का विशेषण  है। मर्द शब्द का एक अर्थ मर्दन करना, कुचलना, नर, पुरूष आदि होता है। अकसरहा हमारे समाज की बनावट में मर्द के खांचे में उसे रखा जाता है, जो किसी की परवाह न करता हो, कुछ भी करके जीत हासिल करना जिसकी आदत हो, जिसे अपनी पत्नी की याद सिर्फ सांझ ढले ही आती हो और जो यह मानता हो कि औरत की भूमिका पति की आज्ञापालक के रूप में ही है। साथ ही उसका अधिकांश समय घर के बाहर, चौक-चौराहों, शराब और पान के दूकानों, कथित दोस्तों की महफिलों में बीतता हो आदि, आदि। समाज का एक बड़ा हिस्सा इन सारे तमगो से विभूषित पुरूष को ही सच्चा मर्द घोषित करता है। ऐसे में उपरोक्त असहज और बनावटी तथ्यों को स्वीकार्य और मान्य बना चूके लोगों के लिए एक सहज शब्द ‘मऊगा’ को गाली का प्रयाय बना दिया जाना स्वभाविक ही है।  

ध्यातव्य है कि हमारे उसी समाज में औरत के लिए भी एक शब्द आता है, वो है – ‘मउगी’।  यह औरत शब्द का ही पर्यायवाची होता है। इसे मऊगा का स्त्रीलिंग रूप भी कह सकते हैं। बिना किसी नकारात्मकता के इसे औरतों ने अत्यंत ही सहजता से स्वीकारा है। हमारे गांवों में लोग अत्यंत ही सहजता से महिलाओं को ‘फलाने – चिलाने की मऊगी या बहू’ कहकर बूलाते हैं। और इसे औरतें वगैर किसी नकारात्मकता और असहजता के इसे स्वीकारती हैं। अब ऐसे में एक स्वभाविक सा प्रश्न मन में उठता है कि एक ही शब्द के दो भिन्न रूपों को दो भिन्न लिंग वालो ने इतने अलग स्वरूपो में क्यूँ देखा और समझा है? क्या उपरोक्त स्थितियां महज भ्रामक जैविक श्रेष्ठता के कुचक्र में फंसे पुरुषों के वास्तविक सामाजिक और मानसिक विकास में अवरोध नहीं पैदा कर रहा है? प्रश्न ये भी उठता है कि क्या अपने मिथ्या गर्व, प्रपंच से परिपूर्ण शक्ति और सत्ता की होड़, अपनी अंतहीन भूख और लिप्सा की प्राप्ति की दौड़ में इस वर्ग का एक बड़ा हिस्सा स्वयं को मानसिक पिछड़ेपन की आग में नहीं झोकता जा रहा है? प्रश्न अत्यंत ही माकूल और विचारणीय है। अत: एक बार जरूर ठहरकर विचारने की जरुरत है।

संगीता सहाय

कविता “प्रवास”

0
silhouette of man at golden hour
Photo by Islam Hassan on Unsplash

प्रवास

जैसे चलती यह पुरवाई,

मै तो बस ऐसे ही चला था,

जैसे चलती धारा नदी की,

मै तो बस ऐसे ही चला था  I

ना कुछ पा ना ना कुछ खो ना,

सुख-दुःख की कोई तमा नही थी

मेरी कोई मंझील नही थी

मै तो बस ऐसे ही चला था I

राहों मे तुम मिल जाओगे

ऐसी कोई आस नही थी

यूं ही अकेला अपनी धून मे

मै तो बस ऐसे ही चला था I

मार्ग ही मंझील बन जाना

सपना जीवन, जीवन सपना

जा कहीं आना, ना कही जाना

मै तो बस ऐसे ही चला था I

-जीतेन्द्र भारती

कविता

0
wapt image 4920
wapt image 4920

मैंने एक जौहरी से
एक बेशकीमती हार खरीदी
बेचना उसकी
नियति थी
खरीदना मेरा
अन्तःकरण से उपजी हुई
सुनहरे स्वप्न सरिखा
पाया हुआ रत्न
जो अब हकीकत है
सच कहता है
भावुक पागल मन
ह्रदय में धारण करने वाली
अपनी वो
ह्रदय स्परशी
जिसकी अब कोई किमत नहीं रह गई
कारण
सब कुछ लुटा कर पाने वाले
इस रंक के
गले में जो लिपट गई
खुश होने का
अब कोई कारण नहीं बनता
मैं राजा
समझ भी लु तो
राजकुमारी
अब अपने को रानी कहाँ मानेगी
जौहरी के दुकान की
वो धातु ही है
भाव की कालिख मे
पली वो
कठपुतली मे
भावना कहाँ है
झुठी वो कहावत है
रानी रुठेगी तो
अपना सुहाग लुटेगी ।।
8789054584

कविता

1
robert keane rlbg0p nqou unsplash
robert keane rlbg0p nqou unsplash

कविता

गुलाबचंद पटेल

कविता में संवेदना और प्रेम की नदियाँ बहती है | सच्चा कवि-रचनाकार वो है जो किसी भी स्थान या जगा की परवाह किये बिना कविता की रचना करने में ही रस होता है | कितने लोग कविता पढना टालते है | कितने लोगों को कभी कभी कविता सुनने में भी रस होता nahinahinनहीं है | लेकिन कितने किस्से ऐसे होते है जिसमे कविता आदमी को टालती है | ह्रदय और मन की सूक्ष्म भावनाओं से कविता की रचना होती है | इसमें अनहद का नाद होता है | इसी लिए कवि इश्वर के करीब होते है |

कविता स्थल और शुक्ष्म की ओर की यात्रा है | इसीलिए संतोने परम पिता इश्वर की प्राप्ति के लिए कविता द्वारा ही प्रयत्न किया है | कविता की किताब कम पढ़ी जाती है | कविता मनुष्य के जीवन से दूर जा रही है उसका एक ही कारण है कि, मनुष्य सवेंदन हिन हो गया है इसके कारण कविता ने अपनी नजाक़त और मार्मिक अभिव्यक्ति खो दी है |

साहित्य समाज का अरीसा है | साहित्य प्रतिबिम्ब (परछाई) भिन्न नहीं लेकिन समाज का प्रतिनिधि है | जीवन के साथ रचा हुआ साहित्य ही सुन्दर होता है |

हिंदी साहित्यकार प्रेमचंदजी कर सुर है, कि साहित्य केवल मन (दिल) बह्लानेकी चीज नहीं है मनोरंजन के सिवा उसका और भी उदेश्य है | जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है, चाहे वो व्यक्ति को या समूह उसकी वकालत करना ही साहित्य का कर्म है |

साहित्य में समाज के निचले स्तर का दलित, पीड़ित शोषित वर्ग के मनुष्यों की अवहेलना करने के कारण दलित साहित्य का जन्म हुआ है | पांडित्य और प्रशिष्टता के युग में भाषा और साहित्य की मुखधारा से समाज का अंतिम मनुष्य वंचित रह जाने के कारण दलित साहित्य का उद्भव ही कारण है | साहित्य दलित नहीं होता | लेकिन जिस साहित्य में दलित, पीड़ित, शोषित समाज की परछाई उनका सामाजिक जीवन की कठिनाईयां और अच्छी बातों का प्रतिरूप दिखाई देता है, वो दलित साहित्य है |

कविता सामाजिक परिवर्तन का माध्यम है | रचनाकार आलोचक पैदा करता है | समय समय पर समाज में उत्तम मनुष्य पैदा होते रहे हैं ऐसे हर समय में श्रेष्ट कविता की सरिता निरंतर बहती रही है |

कविता भाषा का अलंकार है | कविता संस्कृति का विशेष महत्वपूर्ण अंग है | जिस कविता में मनुष्य की बात नहीं होती वह कविता लोगों के दिल को छुती नहीं | कितनी रचनाएं ऐसी होती है जो विवेचक को खुश कर के इनाम पा लेती है | मनुष्य की बात करने वाली कविता ही लोगों में संवेदना प्रगट करती है |

कवि जहोन किट्स ने अपने कवि मित्र जहोन टेलर को कहा था कि कविता वृक्ष के पन्नों की तरह खिलती नहीं है वो अच्छा है |

कविता सूक्ष्म भावों को अपने में समा लेने वाली पेन ड्राइव हैं | कविता मैं लघु कथा का रस होता है | ललित कला के निबंध का गद्य की छटा का आस्वाद होता है | अमेरिकन पत्रकार डॉन मार्कविस ने ये बात अच्छी तरह की है |

कविता लिखना वो गहरी खाई में गुलाब की पंखुड़ी डाल के उसकी आवाज का प्रतिध्वनी सुनने के लिए प्रतीक्षा करने के बराबर है |

मनुष्य जाति के लिए हिंसा, अज्ञानता, झगडे-फसाद और कोलाहल से भरी इस दुनिया में कविता एक आश्वासन है | कविता का आम मनुष्य के साथ संबंध रहता ही है |

कवीर अपनी कविता में कहते है कि,

“बहता पानी निर्मला, बांध गंधीला होय

साधूजन रमते भले, दाग न लगे कोई”

कबीरजी अपनी कविता के माध्यम से कहते हैं की जो पानी बहता रहता है वो बहुत निर्मल और शुध्ध होता है और बंधा हुआ पानी गंदा होता है | “रनिंग वोटर इज ओलवेझ क्लीन” | कुदरती गति से बहता पानी हंमेशा स्वच्छ और पारदर्शक होता है | पवित्र होता है | बहेते पानी में लयबध्ध संगीत का अनुभव होता है | बहता पानी जिवंत होता है |बंध पानी बेजान होता है |

उपनिषद ने कहा है की चरे वेति – चरे वेति | चलते रहो-चलते रहो | आप कहाँ से आते हो वो महत्वपूर्ण नहीं हैं | और आप कहाँ जाने वाले है उसका भी आपको मालूम नहीं है वो बात भी बराबर है लेकिन बस चलते रहो |

स्कोटीश नवलकथाकार (उपन्यास लिखने वाला) रॉबर्ट लुइ स्टीवन्स ने लिखा है कि, “I travel not to go anywhere but to go” | इसका मतलब है कि में कहीं जाने के लिए नहीं लेकिन चलने के लिए चलता हूँ | अच्छा प्रवासी वो होता है जो किसी भी प्रकार की सोच मन में नहीं लाता | चलने मतलब मात्र हाथ पैर हिलाके चलना वो नहीं हैं | चलने के साथ शरीर और मन दोनों चलना चाहिये | चलने की बात कुदरत के साथ जुड़ जाती है तब वो आध्यात्मिक बन जाती है | समाज के साथ संवाद करने से वो समाजीक बन जाती है |

संत कबीर ने कहा है कि साधू हंमेशा खेलता रहता है, लोगों के साथ निश्वार्थ भाव से वो लोगों के लिए चलता रहता है | उसको दाग कैसे लगे? कितने लोग यात्रा को निकलते है लेकिन सामान के साथ वो वापस लोटते हैं तब उनके सामान में बढ़ावा होता है लेकिन उन में कोई सुधार यानि कि बदलाव नहीं आता | कितने लोग ऐसे है कि एक ही जगा बैठे रहते हैं लेकिन वो भीतर से चलते हैं | सूक्ष्म रूपमें वो लोगों से संपर्क बनाए रखते हैं | उनका आध्यात्मिक विकास होता है | उनका मन-ह्रदय प्रसन्न रहता है | इसके सन्दर्भ में कबीर की ये साखी है;

“बंधा पानी निर्मला, जो एक गहिरा होय

साधुजन बैठा भला, जो कुछ साधन होय” |

बंधा पानी निर्मल हो सके, यदि वो गहरा हो तो | इसी तरह एक जगह बैठा हुआ साधू संत भी निर्मल और सात्विक हो सकता है | यदि वो जप-तप में डूबा हुआ है तो |

कभी कभी एक शब्द या पंक्ति से कविता निर्माण होती है | “सुनो भाई साधू” गीत उस का उदहारण है | कभी कभी कविता लिखने का अवसर लम्बे अरसे तक प्राप्त नहीं होता है | लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि कविता की लहर मन में अचानक दौड़ आती है |

संत रविदास की कविता-

“प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी तुम दिया हम बाती”

कितनी अच्छी है ?

हिलाने से बच्चा सोता है, राजा जागता है“

वेनुगोपालजी की पंक्ति है |

तुलसीदास, पिंगलीदास, केशवदास – ये सब हिंदी कवि है |

“माली आवत देख के कलियाँ करे पुकार,

फूलों को तो चुन लिया, कब हमें चुन लेगा”?

साठोतरी हिंदी कविता : हिंदी कविता लेखन के क्षेत्र मैं सन १९६० के बाद एक परिवर्तन परिलक्षित होता है | जिसके अंतर्गत करीब तीन दर्जन से अधिक काव्यान्दोलन चलाये गए | जिस में से अकविता आन्दोलन को मह्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ | साठोतरी हिंदी कविता की दिशाएं काफी व्यापक रूप धारण किये हुए है | साठोतरी हिंदी कविता की सबसे प्रमुख विशेषता, आझादी से मोहभंग रही है | जिस के अंतर्गत साठोतरी कवियोंने राजनितिक, आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रों की बुराइयों को उखाड फेंकने के लिए कविता को अपना माध्यम बनाया | अत: कहना न होगा कि साठोतरी हिंदी कविता की दिशायें व्यापक द्रष्टिकोण वाली है | सन १९६० के बाद हिंदी कविता में विशेष रूपसे राजनितिक की और झुकाव परिलक्षित होता है |

साठोतरी जनवादी कविता में प्रेम की एक नयी द्रष्टि दिखाई देती है | इन कवियों का प्रेम संबंध रूमानी न रहकर यथार्थ के कठोर धरातल पर पैदा होता एवं परिपक्व होता है | इस के साथ ही नारी की एक नयी पहेचान सामने आती है | जिस में नारी भोग्या या दासी न रहकर सहभागिनी है | अनेक जगहों पर नारी का क्रान्तिकारी रूप सामने आता है | स्त्रियाँ हाथ में बन्दुक ले कर शोषक और बलात्कारी व्यवस्था के खात्मे के लिए मैदान में आ जाती है |

कविता को वाणी की आँख कहते हैं | कविता में डिब्ब गुर्राता है | झुग्गी के छेद को टपकाता है | कविता सिर्फ शब्दों का बिसात नहीं है, वाणी की आँख है | हिंदी कविता की विषय वस्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लोगों के समक्ष उपस्थित समस्यायों को उजागर करती है |

गुलाबचंद पटेल

कवि लेखक अनुवादक

नशा मुक्ति अभियान प्रणेता

गांधीनगर गुजरात

मो.०९९०४४८०७५३

कवितई: बजरंग बिहारी ‘बजरू’

कवितई

                                बजरंग बिहारी ‘बजरू’

[1]

हेरित है इतिहास जौन दिन झूठ बदलि कै फुर होइगा
झूर आँख अंसुवात जौन दिन झूठ बदलि कै फुर होइगा।
हंडा चढ़ा सिकार मिले बिनु राजाजी बेफिकिर रहे
बोटी जब पहुंची थरिया मा झूठ बदलि कै फुर होइगा।
बिन दहेज सादी कै चर्चा पंडित जी आदर्स बने
कोठी गाड़ी परुआ पाइन झूठ बदलि कै फुर होइगा।
खाली हाथ चले जाना हैसाहूजी उनसे बोले
बस्ती खाली करुआइन जब झूठ बदलि कै फुर होइगा।
बजरूका देखिन महंथ जी जोरदार परबचन भवा
संका सब कपूर बनि उड़िगै झूठ बदलि कै फुर होइगा।

[2]

चढ़ेन मुंडेर मुल नटवर न मिला काव करी
भयी अबेर मुल नटवर न मिला काव करी।
रुपैया तीस धरी जेब, रिचार्ज या रासन
पहिलकै ठीक मुल नटवर न मिला काव करी।
जरूरी जौन है हमरे लिए हमसे न कहौ
होत है देर मुल नटवर न मिला काव करी।
माल बेखोट है लेटेस्ट सेट ई एंड्राइड   
नयी नवेल मुल नटवर न मिला काव करी।
रहा वादा कि चटनी चाटि कै हम खबर करब
बिसरिगा स्वाद मुल नटवर न मिला काव करी।

[3]

गजल मामूली है लेकिन लिहेबा सच्चाई
बिथा किसान कै खोली कि लाई गहराई।
इस्क से उपजै इसारा चढ़ै मानी कै परत
बिना जाने कसस बोली दरद से मुस्काई।
तसव्वुर दुनिया रचै औतसव्वुफ अर्थ भरै
न यहके तीर हम डोली न यहका लुकुवाई5
धरम अध्यात्म से न काम बने जानित है
ककहरा राजनीति कै, पढ़ी औसमझाई।
समय बदले समाज बोध का बदल डारे
बिलाये वक्ती गजल ई कहैम न सरमाई।
चुए ओरौनी जौन बरसे सब देखाए परे
बजरूकै सच न छुपे दबै कहाँ असनाई।

[4]

चले लखनऊ पहुंचे दिल्ली,
चतुर चौगड़ा बनिगा गिल्ली7
हाटडाग सरदी भय खायिन,
झांझर भये सुरू मा सिल्ली9
समझि बूझि कै करो दोस्ती,
नेक सलाह उड़ावै खिल्ली।
बब्बर सेर कार मा बैठा ,
संकट देखि दुबकि भा बिल्ली।
बजरूबचि कै रह्यो सहर मा,
दरकि जाय न पातर झिल्ली।

[5] 

का बेसाह्यो कस रहा मेला
राह सूनी निकरि गा रेला।
बरफ पिघली पोर तक पानी
मजाखैंहस संग संग झेला।
के उठाए साल भर खर्चा
जेबि टोवैं पास ना धेला।
गे नगरची  मुकुटधारी
मंच खाली पूर  भा खेला।
बहुत सोयौ राति भर ‘बजरू
अब  लपक्यो भोर की बेला।

[6]

जियै कै ढंग सीखब बोलिगे काका
भोरहरे तीर जमुना डोलिगे काका।
आँखि  अंगार  कूटैं  धान  काकी,
पुरनका घाव फिर से छोलिगे काका।
झरैया  हल्ल  होइगे  मंत्र  फूंकत
जहर अस गांव भीतर घोलिगे काका।
निहारैं   खेत   बीदुर  काढ़ि  घुरहू,
हंकारिन पसु पगहवा खोलिगे काका।
बिराजैं   ऊँच   सिंघासन   श्री   श्री
नफा नकसान आपन तोलिगे काका।
भतीजा हौ तौ पहुंचौ घाट ‘बजरू
महातम कमलदल कै झोरिगे काका।

[7]

उठाए बीज कै गठरी सवाल बोइत है
दबाए फूल कै मोटरी बवाल पोइत है।
इन्हैं मार्यौ उन्हैं काट्यौ तबौं  प्यास बुझी
रकत डरि कै कहां छिपिगा नसै नसि टोइत है।
जुआठा कांधे पर धारे जबां पर कीर्तिकथा
सभे जानै कि हम जागी असल मा सोइत है 
कहूं खोदी कहूं तोपी सिवान चालि उठा
महाजन देखि कै सोची मजूरी खोइत है।
 घटाटोप अन्हेंरिया उजाड़ रेह भरी
अहेरी भक्त दरोरैं यही से रोइत है।

[8]

देसदाना भवा दूभर राष्ट्रभूसी अस उड़ी
कागजी फूलन कै अबकी साल किस्मत भै खड़ी।
मिली चटनी बिना रोटी पेट खाली मुंह भरा
घुप अमावस लाइ रोपिन तब जलावैं फुलझड़ी।
नरदहा दावा करै खुसबू कै हम वारिस हियां 
खोइ हिम्मत सिर हिलावैं अकिल पर चादर पड़ी।
कोट काला बिन मसाला भये लाला हुमुकि गे।
बीर अभिमन्यू कराहै धूर्तता अब नग जड़ी।
मिलैं बजरूतौ बतावैं रास्ता के रूंधि गा 
मृगसिरा मिरगी औसाखामृग कै अनदेखी कड़ी।  
_____

सम्पर्क: 
फ्लैट नं.- 204, दूसरी मंजिल,
मकान नं. T-134/1,
गाँव- बेगमपुर,
डाकखाना- मालवीय नगर,
नई दिल्ली-110 017
फोन- 09868 261895

कवि: ललित कुमार मिश्र ‘सोनीललित’

0
wapt image 1861
wapt image 1861

कल्चर वल्चर- ममता कालिया

1

सांस्कृतिक यथार्थ का सत्यान्वेषण

राहुल देव

वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया का नया उपन्यास ‘कल्चर वल्चर’ वर्तमान साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश का रचनात्मक सत्यान्वेषण करता है। कोलकाता की एक संस्था ‘साहित्य संस्कृति भवन’ के माध्यम से समकालीन साहित्य और संस्कृति जगत की संस्थाएं इसके केंद्र में है। इन संस्थाओं के भीतर-बाहर चलने वाले घात-प्रतिघात तथा पतनशील मानवीय प्रवृत्तियों को उजागर करना इस उपन्यास की कथावस्तु का उद्देश्य है। उपन्यास के पूर्वकथन में उन्होंने लिखा भी है, ‘कला, साहित्य व संस्कृति आज सरोकार न रहकर कारोबार बनते जा रहे हैं और इसके प्रबंधक कारोबारी। इनके हाथों में संस्कृति, विकृति बन रही है और साहित्य, वाहित्य।’

उपन्यास की कहानी के समस्त पात्र व घटनाएँ काल्पनिक होते हुए भी इसे पढ़ते हुए आप के समक्ष किसी संस्था के वास्तविक चरित्र व घटनाएँ सामने आने लगती हैं और इस तरह यह कहानी कोलकाता से निकलकर लगभग ऐसी हर एक जगह की सच्चाई का यथार्थपरक बयान बनने लग जाती है। उपन्यास की भाषा-शैली बड़ी ही स्वाभाविक, पठनीय तथा कसी हुई है। तमाम तरह के विमर्शों से आक्रांत हमारे समकालीन युवा लेखक इसे पढ़कर जान सकते हैं कि किसी भी वृतांत में किस्सागोई को अनावश्यक विवरणों से बचाते हुए कैसे आगे बढ़ाया जाता है। उत्तरआधुनिकता के इस दौर में किस तरह साहित्यिक-सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है ‘कल्चर-वल्चर’ को पढ़कर पाठक आसानी से समझ सकते हैं। उपन्यास में ऐसे तमाम कारणों को विभिन्न घटनाओं-प्रसंगों की सहायता से सामने लाने का सफल प्रयास लेखिका द्वारा किया गया है। इस उपन्यास में नवीन और सुषमा जैसे पात्रों के जरिये संस्कृति के दो विपरीत ध्रुवों के द्वंध और महत्त्वाकांक्षाओं के टकराव को जिस तरह इसमें प्रस्तुत किया गया है वह पाठक को समकालीन स्थितियों पर विचार करने पर विवश कर देता है। कथा को कहने की ममता जी की अपनी एक अलग ही प्रकार की शैली है। उसमें भाषा का खिलंद्नापन व महीन व्यंग्य हमें कचोटता है। उपन्यास के एक अंश में लेखिका लिखती है, ‘सुषमा कला, साहित्य और संस्कृति के संसार की छत्रपति रहना चाहती थी। वह आजकल राजस्थान से लोकसभा में गए सदस्यों की टोह में थी। उसका खयाल था कि देश की प्रमुख संस्कृतिकर्मी के रूप में उसे पद्मश्री या पद्मभूषण से अलंकृत तो हो ही जाना चाहिए। आज कथासम्राट प्रेमचंद जीवित होते तो सुषमा की प्रतिभा से प्रेरित होकर ‘संस्कृति की खिलाड़िन’ जैसी कोई कहानी अवश्य रचते। संस्कृति सुषमा के लिए साधन थी तो साध्य भी, अस्त्र भी शस्त्र भी, संस्कृति की सतत साधना में वह सिद्धहस्त थी।’

‘कल्चर-वल्चर’ निश्चित रूप से समकालीन साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य की सही-सही पड़ताल प्रस्तुत करता है। ममता जी की यह कृति साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की गिरती साख पर उनकी चिंताओं का रचनात्मक प्रतिफलन है। यह उपन्यास ममता जी की रचनाशीलता के एकदम नए आयाम को उद्घाटित करता है।

कल्चर-वल्चर/ उपन्यास/ ममता कालिया/ किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली/ 2017/ पृष्ठ 208/ मूल्य 350/-

 

कलमवीर धर्मवीर भारती- डॉ. उपेंद्र कुमार ‘सत्यार्थी’

0

कलमवीर धर्मवीर भारती

डॉ. उपेंद्र कुमार ‘सत्यार्थी’,

सहायक प्रोफेसर,

हिंदी विभाग, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय

कुछ लेखक ऐसे होते हैं जो सबकुछ लिखकर भी किसी एक विधा में सिद्धहस्त नहीं हो पाते, तो कुछ लेखक बस एक ही विधा को साध पाते हैं या सिर्फ़ एक रचना से शोहरत हासिल कर लेते हैं. परन्तु, वैसे लेखक विरले होते हैं, जिनका सबकुछ अतिउत्तम हो, उत्कृष्ट हो, या हर रचना नई बुलंदियों को छूकर आए. कलमवीर धर्मवीर भारती का नाम ऐसे ही रचनाकरों की सूची में शामिल है, जहाँ से भी उनको देखिये, उनके साहित्यिक कद की ऊंचाई एक समान ही दिखाई पड़ती है. यही बात उनके पत्रकारीय लेखन में भी दिखाई पड़ेगी.

सबसे बड़ी विचित्र बात यह है कि स्वयं धर्मवीर भारती अपनी जिस लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों के देवता’ को ‘कलात्मक रूप से कमजोर’ मानते थे, वही बरसों तक हिंदी की सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों की सूची में शामिल रही. अब तक इसके सौ से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. जब ‘गुनाहों के देवता’ उपन्यास प्रकाशित हुआ था तब हिंदी के ही प्रसिद्ध साहित्याकर उपेन्द्रनाथ अश्क ने इसकी खूब आलोचना की थी. उन्होंने इस रचना को ‘बकवास’ और ‘कोरा भावोच्छवास’ तक बताया था. लेकिन, कुछ दिन ही बाद उन्हें भी मानना पड़ा कि ‘इत्ती मोटी यह किताब एक साँस में खुद को पढ़ा ले जाती है. यह भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं.’

धर्मवीर भारती सिद्धहस्त उपन्यासकार तो थे ही साथ ही प्रसिद्ध कवि, नाटककार, संपादक, पत्रकार, लेखक और लोकप्रिय अध्यापक भी थे. इलाहबाद विश्वविद्यालय में रहते हुए हरिवंश राय बच्चन, फ़िराक गोरखपुरी, इलाचंद्र जोशी, रामकुमार वर्मा, धीरेन्द्र वर्मा, विजयदेव नारायण साही, मैथिली शरण गुप्त आदि साहित्यकारों की शोहबत में रहकर खूब नाम कमाया. यहाँ तक कि इन्हें प्रेम और रोमांस का लेखक माना जाने लगा. धर्मवीर भारती विशुद्ध रूप से ‘हिंदी’ के थे. उन्होंने अपनी बी.ए से लेकर पीएचडी की पढ़ाई ‘हिंदी साहित्य’ में की थी. उनकी पीएचडी ‘सिद्ध साहित्य’ पर है.

‘गुनाहों के देवता’ के अलावा ‘सूरज का सातवां घोडा’ (उपन्यास), ‘अंधायुग’(नाटक), ‘कनुप्रिया’(काव्य-संग्रह), ‘ठेले पर हिमालय’(निबंध संग्रह’), ‘नदी प्यासी थी’(एकांकी), ‘मानव मूल्य और साहित्य’(आलोचना), ‘गुलकी बन्नो’(कहानी) आदि रचनाएँ उच्चकोटि की हैं. उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोडा’ को कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम से फ़िल्म बनाई. ‘अंधायुग’ नाटक को अबतक सैकड़ों भारतीय रंगमंच निर्देशकों द्वारा मंचन किया जा चूका है, जिनमें इब्राहीम अलकाजी, रामगोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम.के रैना, मोहन महर्षि, सुरेंद्र शर्मा आदि प्रमुख हैं.

धर्मवीर भारती ख्यातिलब्ध साहित्यकार के साथ ही अवलदर्जे के सफल संपादक भी थे. उनके यश और कीर्ति का आधार ‘धर्मयुग’ जैसी अवलदर्जे की बेहतरीन हिंदी साप्ताहिक पत्रिका थी. 1960ई. में ‘धर्मयुग’ के प्रधान संपादक बनते ही इस पत्रिका में आमूलचूल परिवर्तन किया. अपने संपादन काल में वे सिर्फ नई प्रतिभाओं को ही नहीं गढ़ा, हर एक विषय को अपनी पत्रिका के सांचे में ढाला, जैसे- धर्म, राजनीति, साहित्य, सिनेमा, कला, फैशन, समीक्षा, ज्योतिष, मनोरंजन,विज्ञान आदि कोई भी विषय उनसे अछूता नहीं था. घरेलू स्त्रियों, बुजुर्गों और बच्चों के लिए भी धर्मयुग में बहुत कुछ रहता था. मतलब यह कि धर्मयुग में उस वक़्त परिवार के हर सदस्य के लिए कुछ न कुछ होता था. संयुक्त परिवारों में इस पत्रिका को खूब पसंद किया जाता था. यही कारण है कि कुछ ही समय में कुछ हज़ार से बढ़कर इसकी प्रतियाँ लाखों में छपने लगी. उस ज़माने किसी भी पत्रिका के लिए चार लाख प्रतियों का छपना बहुत बड़ी बात थी। इस प्रकार  माना यह जाता था कि धर्मयुग के लगभग चालीस लाख पाठक रहे होंगे। प्रसिद्ध संपादक हरिवंश नारायण के अनुसार, ‘यह एक ऐसी पत्रिका थी जिसे हर कोई पढ़ता था, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर तक।’

धर्मवीर भारती ने ‘कार्टून’ जैसी सी विधा को भी इतना सम्मान दिया कि 25 वर्षों तक धर्मयुग में लगातार छपने के बाद आबिद सुरती द्वारा रचा गया कार्टून कोना ‘ढब्बूजी’ अमर हो गया. और आबिद सुरति जी कथाकार, व्यंग्यकार, नाटककार आदि से प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट बन गये. इससे पता चलता है कि किस तरह धर्मयुग उस समय साहित्य की विधाओं के साथ रचनाकारों को स्थापित कर रही थी.

हालांकि बतौर प्रधान संपादक धर्मवीर भारती ने धर्मयुग से जो चाहा उन्हें सब मिला लेकिन, उनकी आलोचना भी कम नहीं हुई. उन्हें शीघ्र ही एक तानाशाह संपादक माना जाने लगा. एक ऐसा संपादक जो न तो अपने सहकर्मियों के साथ उठता-बैठता था और न ही उनसे आसानी से मिल सकता था. जिससे मिलने के लिए पर्ची भेजनी पड़ती थी और उनके बुलाने पर ही कोई भीतर जा सकता था. रचना के लिए मौलिकता के स्वीकृति पत्र को संलग्न करने का नियम और न जाने कितने नियम पत्रिका प्रकाशन जगत में उनके द्वारा प्रचलित किये गए हैं. हालांकि ये सभी नियम धर्मयुग को उच्चकोटि की पत्रिका बनाने के लिए गढ़े गए थे. परन्तु, इसने सबसे ज्यादा नुकसान धर्मवीर भारती की लोकतांत्रिक छवि का ही किया. हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और संपादक रहे रवीन्द्र कालिया ने तो धर्मवीर भारती को केंद्र में रखते हुए एक बेहतरीन कहानी भी लिखी थी- ‘काला रजिस्टर’. यह कहानी संपादक धर्मवीर भारती और उनके बनाए नए तौर-तरीकों का मखौल उड़ाती थी. उनकी इस छवि ने उनकी पुरानी इलाहाबादी मौजमस्ती वाली छवि को लोगों के दिल से उतर दिया था. मजाकिया, खुशमिजाज़ और सबसे घुलमिलकर रहने वाले भारती अब कहीं नहीं थे. कार्यालय में हाजिरी दर्ज करने के लिए एक काला मोटा रजिस्टर घूमता रहता था और समय से न आने वाले का नाम लाल रजिस्टर दर्ज हो जाता था.

संपादक के रूप में भारती जी की आलोचना चाहे जितनी हो रही हो लेकिन पाठक समाज में उनका जलवा तब भी कायम था. भारती जी अपने पाठक समाज के मनोविज्ञान से जितना वाकिफ थे उतना शायद ही कोई और. उनके ऊपर उस दौर की अन्य पत्रिकाएं, जैसे-कल्पना, दिनमान, रविवार, सारिका आदि से भी अधिक उच्चकोटि की सामग्री रखने का दबाव था. इस प्रकार उन्होंने हिंदी समाज को बेहतरीन रचनाओं के साथ बेहतरीन रचनाकार भी दिए. रवीन्द्र कालिया, कमलेश्वर, गणेश मंत्री, कन्हैया लाल नंदन, एस.पी. सिंह, दुष्यंत कुमार, अखिलेश, राजेश जोशी, शिवानी, मृणाल पाण्डेय, हरिवंश आदि न जाने कितने लेखक-संपादक-पत्रकार धर्मयुग ने दिये. धर्मयुग का होली, दीपावली और आजादी विशेषांक को आज भी उस दौर के पाठक समाज नहीं भूलता.

धर्मयुग में उस दौर के सभी प्रमुख कवियों, कहानीकारों, उपन्यासकारों एवं नाटककारों की रचनाओं को स्थान दिया गया. इसका दायरा हिंदी तक ही सीमित नहीं था. हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियां भी अनूदित कर इसमें प्रकाशित की जाती थीं. अनुवाद के बावजूद उसकी भाषा में सहजता थी. कहीं-कहीं भाषा को व्याकरण के बोझिल बंधन से भी मुक्त किया जाता था. रोचक, सरस और कौतूहलमयी शैलियों के प्रयोग ने भाषा को सुगम बनाया. नए मुहावरें, लोकोक्तियों, उर्दू और अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों के प्रयोग ने ‘धर्मयुग’ को संप्रेषण के स्तर पर सशक्त बनाया. भारती के काल में धर्मयुग ने हिंदी के प्रचार-प्रसार, उसकी अस्मिता और गौरव की रक्षा के संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. 70 और 80 के दशक में धर्मयुग ने एक ओर जहाँ दक्षिण में शुरू हुए हिंदी विरोधी आन्दोलन के विरुद्ध हिंदी भाषियों की ओर से लड़ाई लड़ी, वहीं विश्व हिंदी सम्मेलनों को नैतिक और वैचारिक रूप से सहयोग देकर विश्व भर के हिंदी भाषी और हिंदी प्रेमियों को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया.

आलेख संकलन- विश्वहिंदीजन

स्रोत- जनकृति

कर्नल गैब्रियल गार्सिया मार्खेज और उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’: धर्मवीर यादव ‘गगन

0
property graphics 1098716a


कर्नल गैब्रियल गार्सिया मार्खेज और उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ 

धर्मवीर यादव ‘गगन’ 
शोधार्थी—हिंदी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली 
मो. 09013710377, stargagan12@gmail.com 
आपकी याद में बात कहाँ से शुरू करूँ कर्नल गैब्रिया गार्सिया मार्खेज. आपके पास बातें बहुत हैं, पर उन बातों में बहुत कम बातों को मैं जनता हूँ. उसमें जो खास बात है वो आपके जीवन और समाज का ‘एकांत’. जिसे आपने जिया, पिया और साहित्य में अभिव्यक्त किया है. यह आपके जीवन की ‘नोबल’ बात है. इस एकांत की अंतिम मानवीय परिणति ‘प्रेम’ में हैं. यह प्रेम पूरी मानवता से है. जिसे प्राप्त करने के बाद मानव जाति हर तरह के बंधनों और उपनिवेशों से मुक्त होती है. आपके प्रेम करने का अंदाज—जादुई है, यथार्थवादी है. जिसे आपने साहित्य में ‘जदुई यथार्थवादी’ शैली में अभिव्यक्त किया है. यह एक ऐसी शैली है जिसमें जादू को यथार्थ की तरह और यथार्थ को जादू की तरह अभियव्यक्त किया जाता है. 
मानव सभ्यता के इतिहास में जिस इतिहास को विस्मृत कर दिया गया, उसी की अभिव्यक्ति है ‘एकांत का सौ वर्ष’ उपन्यास. जो बहुत गहराई से इस बात पर चिंता व्यक्त करता है कि मानव प्रगति के इतिहास में हमारे पूर्वजों द्वारा किए गए योगदान को विस्मृत कर दिया गया. यह आज भी किस तरह लोगों के दिल-दिमाग में स्वाभाविक रूप से एक परंपरा के साथ कभी ‘स्मृत’ तो कभी ‘विस्मृत’ हो रहा है. वास्तव में, इनका इतिहास में किया गया योगदान अविस्मरणीय है. जिसे लिखित इतिहास में जगह न दिए जाने के कारण लोगों को यह विश्वस ही नहीं होता है कि यहाँ के लोगों का इस यथार्थ के साथ मानव प्रगति के इतिहास में योगदान है. वर्चस्ववादी औपनिवेशिक सत्ता ने वहाँ के मानव प्रगति और संस्कृति का दमन करते हुए अपनी भाषा और संस्कृति को थोपा और स्थापित किया. और वहाँ की स्वाभाविक और स्वस्थ प्रगति को झूठा सिद्ध करने की कोशिश की. इस प्रक्रिया में जो यथार्थ था वो जादू हो गया और जो जादू था वो यथार्थ हो गया. मार्खेज इतिहास में भूला दिए गए इतिहास के इसी ‘एकांत’ को पकड़ते हैं. और उस ‘जादू’ को यथार्थ की तरह और ‘यथार्थ’ को जादू की तरह अभिव्यक्त करने के लिए ‘जादुई यथार्थवादी’ शैली का प्रयोग करते हैं. साथ ही इस शैली में साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक प्रमुख कारण यह भी था कि औपनिवेशिक साम्राज्यवादीयों के समक्ष आप सीधे-सीधे अपनी बात कह भी नहीं सकते हैं. इसी कारण यह जादुई यथार्थवादी शैली को अपनाते हैं और यथार्थ को उसी शैली में अभिव्यक्त करते हैं. 
हमारी स्मृत का विस्मृत होना और विस्मृत का स्मृत होना. इस बात को दर्शाता है कि हमारी ‘स्मृती’ अर्थात् ‘याददास्त’ भी बनावटी है. वह कभी भी विस्मृत हो सकती है. उसे कभी भी भूला जा सकता है. इस उपन्यास में वस्तुओं के नाम और काम के प्रयोजन को लिख कर याद रखा जाता है; जैसे—“यह गाय है. जो सुबह सुबह दूध देती है. इसके दूध से काफी बनती है.” अर्थात् लोगों की दूध की कोडीकृत स्मृत, विस्मृत हो सकती है कि दूध किस उपयोग की वस्तु है. 
इस उपन्यास में ‘बुएनदीय’ परिवार का इतिहास जैसे एक दृष्टान्त है. वैसे ही वह पूरे अमेरिका के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास को दृष्टान्त बना कर प्रस्तुत करता है. जो मानव प्रगति के इतिहास का संछिप्त प्रतिरूप है. आगे यह उपन्यास विकसित समाज को लक्ष्य करते हुए, लैटिन अमेरिका के औपनिवेसिक समाज के चरणों का खाका इतिहास की रेखीय गति-क्रम में हमारे सामने रखता है. ‘माकोन्दो’ पर किस तरह क्रमवार फ़्रांसीसी, अंग्रेज और स्पेनिस उपनिवेशों की स्थापना होती है. यह महत्वपूर्ण है कि इस ‘माकोन्दो’ की स्थापना मूलरूप से सबसे पहले कभी कर्नल बुएनदीय ने अपने 21 सहयोगियों के साथ की थी. जिसमें पहली पीढ़ी पितृसत्तात्मक है और ये जादू, टोना की फैंटेसी से युक्त है. जब यह समाज बाहरी दुनिया के संपर्क में आता है तब आदिवासी जीवन अनुसाशन प्रणाली का स्थान औपनिवेशिक शासन प्रणाली ले लेती है. इसी के साथ आदिवासी जीवन अनुशासन प्रणाली के बने रहने और औपनिवेशिक शासन प्रणाली के स्थापित होने को लेकर लड़ाई शुरू हो जाती है जो ‘गृह युद्ध’ के रूप में सामने आती है. यह बीस वर्षों तक चलती है. एक बड़े ‘गृह युद्ध’ के बाद वहाँ वर्चश्ववादी औपनिवेशिक शासन प्रणाली की ‘नगर पालिका’ स्थापित होती है. इस औपनिवेशिक वर्चस्व के स्थापित होने के साथ ही; बाहरी दुनिया की तकनीकों का प्रवेश होता है. जिसमें आधुनिक—ट्रेन, यंत्र, बिजली, सिनेमा, ग्रामोफोन और टेलीफोन आदि सब वर्चश्व और विकास के नए चिह्न के रूप में हमारे सामने आते हैं. 
यहाँ ऐतिहासिक परिवर्तन उस समय होता है. जब उत्तरी अमेरिका की ‘केला’ कंपनी वहाँ पहुँचती है और इसी के साथ ‘माकोन्दो’ औपनिवेशिक विदेशी ताकतों के वर्चस्व के प्रतिक के रूप में एक ख़ास तरीके का औपनिवेशिक केंद्र बनता है. इसी बीच वहाँ एक और नया व्यापारिक गुट पहुँचता है. जिससे सामाजिक टकराव होता है और साथ में प्राकृतिक आपदा भी आ जाती है. ये सभी टकराव की स्थितियाँ ‘माकोन्दो’ को अपने इतिहास के अंतिम चरण में पहुँचा देती हैं. 
मानव प्रगति के इतिहास में प्रागैतिहासिक अण्डों को आश्चर्यभरी नज़रों से देखते हुए यह उपन्यास इस दुनिया में प्रवेश करता है. मानव प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक की प्रगति के इतिहास पर चिंतन करता है कि क्या हम जिस काल-सभ्यता की बात और विकास करते हुए प्रगति कर रहे हैं. क्या वह प्रगति हमें सृजन की तरफ ले जा रही है या विध्वंस की तरफ ले जा रही है ? जिस उन्मुक्तता के साथ ये बंजारे जिंदगी को जीते हुए बढ़ते जा रहे हैं. और ये बंजारे स्वयं को इस सभ्यता के ‘रिसर्चेबुल रेस’ के रूप में प्रस्तुत करते जा रहे हैं. उसके समानांतर आधुनिक प्रगती की सभ्यता को देखें तो आज अदभुत मानव प्रगित की दुनिया को मानव एक सेकेण्ड में ख़त्म कर देने, ध्वंस करने का दावा कर रहा है. दुनिया को ख़त्म करने वाले ‘परमाणु बम’, ‘हाईड्रोजन बम’ आदि बन चुके हैं. वहीं आदिवासी समाज घोषणा करता है कि “बहुत जल्द दुनिया बदलने वाली है.” वो अपनी प्रगति प्रक्रिया में आत्मविश्वास विकसित करते हुए कहते हैं—“चीजों में अपनी खुद की जान होती है.” वो आगे कहते हैं—“बस उनकी आत्मा जग जाने भर की देर है.” यह उस देश-काल का भौतिक यथार्थ है. तो क्या उस स्वप्न को हम यहाँ तक लेकर आगे चले जाते हैं कि—“जल्द ही दुनिया ख़त्म होने वाली है ?” क्या हम आधुनिक प्रगती का चोला पहने कहीं उस गहरे खतरनाक अतीत की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं ? जो असभ्यता, बर्बरता, हिंसा, जंगलीपन और पशुता लिए हुए है. किसी ने कहा है कि ‘सभ्यता का इतिहास बर्बरता का इतिहास है.’ इसी सन्दर्भ में ‘एकांत का सौ वर्ष’ उपन्यास मानव प्रगित के इतिहास पर चोट करता है. 
प्रागैतिहासिक समाज के प्रतीक के तौर पर पूरा ‘माकोन्दो’ जैसे-तैसे ऐतिहासिक प्रगति के दौर में प्रवेश करता है. जैसे ही वह इस दौर में प्रवेश करता है. वैसे ही उसे कृत्रिमता का ‘बोध’ कराने वाली स्थितियाँ बनती दिखती हैं; जैसे—कृत्रिमता का ‘बोध’ कराने वाली ‘चिड़ियों’ की जगह ‘घड़ियों’ ने ले ली. दक्षिण अमेरिका में महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले ‘बबूल’ के पेड़ की जगह ‘बादाम’ के पेड़ ने ले लिया. इसी तरह माकोन्दो में जिलाधीस का प्रवेश इस बात का प्रतीक है कि अब एक प्रागैतिहासिक समाज आधुनिक समाज में परिवर्तित होने जा रहा है. जिसमें व्यवस्थित संस्थान और विस्तृत सत्तातंत्र होगा. तब सवाल उठता है कि यह सृजन है या विध्वंस ? जिसमें संस्था और सत्ता का वर्चस्व किसी का विध्वंस करने के लिए खड़ा किया जा रहा है; जैसे—उहोंने कहा, “कौन है यह आदमी” ? “न्यायाधीस” उर्सुला ने खिन्न मन से कहा “बताते हैं कि यह सरकार का भेजा हुआ नुमायिन्दा है.” 
यहाँ के सामाजिक भूगोल में ‘रिश्ते’ ‘रक्त-संबंधों’ में ही बनते हैं. जिसे ‘Incest’ अर्थात् कौटुम्बिक व्यभिचार कह सकते हैं. सामान्यतः समाजिक मान्यताओं में ‘रिश्ते’ ‘परिवार’ के बाहर बनते हैं. ‘Incest’ मतलब परिवार के अन्दर ‘यौनिक सम्बन्ध’ स्थापित करना. इस तरह के ‘यौनिक सम्बन्ध’ को दुनिया की लगभग सभी सभ्यताओं में वर्जित माना जाता रहा है. लेकिन इस उपन्यास का जो समाज है उसमें अदभुत कौटुम्बिक व्यभिचार विद्यमान है. जिसको लेकर उर्सुला भयभीत है. वह डरती है कि कहीं इस कौटुम्बिक व्यभिचार के कारण हमारे बच्चे सुअर के मुख वाले जानवर की तरह न पैदा होने लगें. लेकिन वह आगे चल कर इन बंधनों से बनने वाली नई धारणा से खुद और सबको मुक्त करती है. “बहुत प्यार करता है बुआ से ?” उसने औरेलियानो खासे से सरलता से पूछा. उसने जवाब दिया कि “हाँ”……. “अच्छी बात है. उर्सुला ने तय किया.” 
महत्त्वपुर्ण बात ये है कि इन मुक्त पारिवारिक, सामाजिक ‘यौन संबंधों’ के होने बाद भी ‘एकाकीपन’ उस परिवेश और समाज में व्याप्त है. यह ‘एकाकीपन’ वहाँ उतर कर उस परिवार और सामज को जैसे खाता है. यह ‘पन’ इस उपन्यास की कहानी को बुनता भी है. जो इतिहास के हस्तक्षेप या इतिहास के व्यवधान से युक्त होकर लिखा जाता है. यहाँ ऐसा समाज है. जो बाकि दुनिया और सभ्यता से बहुत अलग है. यह समाज अपने परिवर की दुनिया में गहरे तक समाया हुआ है फिर भी भयंकर उदासी में है. कारण कि वहाँ उदासी बहुत गहरे तक विद्यमान है; जैसे—“औरेलियानो ने कपड़े उतारे, संकोच से उद्वेलित, इस विचार को मष्तिस्क से निकाल देने में असमर्थ की उसकी नग्नता का उसके भाई से कोई साम्य नहीं था. लड़की के कई प्रयत्न के बावजूद, वह निरंतर और भी उदासीन और बहुत ही अकेला महसूस करता चला गया.” इस ‘एकाकीपन’ पर मार्खेज स्वयं लिखते हैं—“बुएनदिया परिवार में एकांत का श्रोत क्या है ? मेरे खयाल से प्रेम का अभाव ही एकाकीपन की जननी है…..यही उनके एकाकीपन और कुंठा का मूल कारण है.” 
इसी कारण इस उन्यास की अंतिम परिणति ‘प्रेम’ में होती है. जो इस समाज में नहीं था. इस परिणति के साथ ‘एकांत का सौ वर्ष’ ख़त्म होता है. बुएनदिया परिवार की अंतिम पीढ़ी जमकर ‘प्रेम’ करती है. उसी में डूबती-उपराती है. सब कुछ ख़त्म हो जाने के बाद भी, ये पीढियाँ सब कुछ भूल कर जमकर ‘प्रेम’ करती हैं. जो पहले यहाँ कभी नहीं हो सका था. इसके साथ ही यह परिवार हर तरह के ‘बंधनों’, ‘एकान्त’ और उपनिवेशों से मुक्त होता है. अब औरेलियनो और उर्सुला “दोनों एक ऐसे रिक्त संसार में बहते हुए से रहने लगे जिसका एक मात्र दैनिक व शाश्वत यथार्थ उनका प्रेम था.” किसने सोचा था कि “हम वाकई आदमखोरों की तरह जीने लगेंगे.” आदमखोरों की-सी जिंदगी अर्थात् हर तरह के बंधनों से मुक्त जिंदगी. बिल्कुल मुक्त, प्रेम से युक्त. “जैसे-जैसे पक्षी जनते अमरान्ता उर्सुल उन्हें जोड़ियों में उड़ा देती.” अर्थात् प्रेम मुक्त करता है. 
संदर्भ: 
1. कर्नल गैब्रियल गार्सिया मार्खेज, ‘एकांत के सौ वर्ष’, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, वर्ष 2007 
2. गाब्रियल गार्सिया मार्खेस : यथार्थ का मायावी चितेरा (आलेख), अक्षय काले, आव्हान पत्रिका, जून अंक 2014 
3. विकिपीडिया 
4. अपवाद ब्लॉग

       

 [जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित लेख]