32.1 C
Delhi
होम ब्लॉग पेज 17

समय की विसंगतियों पर तंज़ कसते हुए व्यंग्य: द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

0
a 1
समय की विसंगतियों पर तंज़ कसते
हुए व्यंग्य
–द्वारिका प्रसाद
अग्रवाल
व्यंग्य
करना आसान है
व्यंग्य
लिखना नहीं। हंसी उड़ाना आसान है
, लेकिन हंसी का पात्र बनना नहीं। खिल्ली उड़ानामज़ाक उड़ानाफब्ती कसनाखिंचाई करनामुखालिफत करना जैसी क्रियाएँ सबको आती हैं, लेकिन
इनका विषयबद्ध लेखन दक्ष
 कारीगरी का काम है। अपने जीवन
के शुरुआती दिनों में हमने शंकर
रंगालक्ष्मण जैसे व्यंग्यकारों की कारीगरी देखी जो रेखाओं से बने एक चित्र के माध्यम से ऐसा तंज़ कस लेते थे कि बिना कुछ लिखे महाभारत महाकाव्य जैसा प्रभाव उत्पन्न हो जाता था। ‘धर्मयुग‘ के पन्नों में आबिद सुरती अपने पात्र ढब्बू जी
के चुटकुलों के जरिये व्यवहार विज्ञान का विश्वविद्यालय चलाया
 करते थे।
      व्यंग्य लेखन में सर्वाधिक
चर्चित हुए
कृशनचंदरहरिशंकर
परसाई और
 के॰पी॰सक्सेना जिन्होंने समाज की हर
गतिविधियों पर अपनी पैनी नज़र गड़ाई और
 पैने व्यंग्य
लिखे। बेचन पाण्डेय
 ‘उग्र‘ की
परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इनलेखकों ने  व्यंग्य लेखन को अपने किस्म की नई विधा
से सजाया-संवारा और
 लोकप्रिय बनाया। हरिशंकर परसाई का लेखन वामपंथी झुकाव के कारण अक्सर एकांगी हो
जाता था लेकिन उनकी लेखन की तलवार किसी को नहीं बख्शती। उनके बाद रवीन्द्रनाथ
त्यागी
शरद जोशीश्रीलाल शुक्लडा॰ ज्ञान चतुर्वेदी जैसे अनेक महारथी
व्यंग्य-संग्राम में उतरे और
 हिन्दी भाषा में
व्यंग्यलेखन को पाठकों से जोड़ने में अभूतपूर्व सफलता
 प्राप्त
की।

      व्यंग्य की विधा में इन दिनों
जिन हस्ताक्षरों की साहित्य जगत में चर्चा है
उनमें से
एक हैं
अरविंद कुमार तिवारी जो अब घटकर अरविंद कुमार
रह गए हैं।
 उनकी सद्य प्रकाशित व्यंग्य-पुस्तक  में उनकी 52 व्यंग्य रचनाएँ संकलित हैं,
जिनमें अधिकतर व्यंग्य भारत की राजनीति
में समाहित विद्रूपता पर केन्द्रित हैं। शायद इसीलिये उन्होंने इस संग्रह का नाम
भी
राजनीतिक किराना स्टोररखा है। मतलब यह कि एक ऐसा किराना स्टोरजहाँ राजनीति
से सम्बंधित हर चीज़ उपलब्द्ध हो जाये। जैसे कि टोपी
झंडाडंडाबैनरहोर्डिंगबिल्लाकट आउट्सकुरता-पैजामाधोतीसाड़ीजैकेटमफलर,चाय वालों और दूध वालों की ड्रेस और तमाम
पोलिटिकल सिम्बल्स। हर पार्टी की ज़रुरत का हर सामान। और वह भी एक ही छत के
नीचे।…आप की टोपी
केसरिया टोपीसफ़ेद टोपीलाल टोपीनीली टोपी। झाड़ू की बिक्री खूब हो रही है।….बुर्के शेरवानी की बिक्री
में भी काफी इजाफा हुआ है। भाई साहब
मेरा किराना स्टोर
एक एक्सटेंडेड स्टोर होगा। वहां हर पार्टी को अपनी ज़रुरत की हर चीज़ मिलेगी।
तम्बू-कनात से लेकर झंडियाँ
कुर्सी-मेज़बल्लियाँलाईटमाईक
और टीवी-सीवी तक। और ज़रुरत पड़ी तो जय-जय कारी भीड़ से लेकर नारा और भाषण लिखने
वाले बन्दे और प्रवक्ता तक।
’    
      राजनीति राज्य को संचालित करने की नीति होती है लेकिन अब वह सिंहासन बचाने
की
  नीति में तब्दील हो गई है। जिस  बुद्धि का उपयोग प्रजा के कल्याण के लिए किया जाना थाउसका उपयोग अब स्वयं के  बचाव के लिए किया
जाने लगा है। राजनीति यानी दाँव पेंच
दाँव पेंच यानी छल-प्रपंच रचनाधोखा या झांसा देनाटेढ़ी चाल चलना या विरोधी को परास्त करने के
प्रयत्न करना आदि।
 शतरंज के खेल में प्रयुक्त होने वाले
मोहरे राजनीति के उन क्रियाकलापों केप्रतीक हैं जो देश की जनता की छाती पर बिसात
बिछाकर इस तरह खेले जाते हैं
जिसे केवल खिलाड़ी देख और
जान सकते हैं
उनके अतिरिक्त किसी और को कुछ नहीं दिखने वालान समझ आने वाला। जनता को सिर्फ यह
सुनाई पड़ता है कि जो खेल
 खेला जा रहा है वह उसके कल्याण
के लिए है।
 इसलिए खिलाड़ियों पर भरोसा करो। शतरंज की बिसात को मत देखो। हम हैं नहम तुम्हारी धरती को स्वर्ग बनाकर दिखाएंगे।
प्रजा जन उसी स्वर्ग की कल्पना करते अपनी छाती खोलेआपरेशन थियेटर के बेहोश मरीज की
तरह निश्चिंत लेटे हैं-
 ‘जो करेगाडाक्टर करेगा।‘ अरविन्द
कुमार इन स्थितियों-परिस्थितियों पर गहरा तंज़ कसते हैं।
 

      व्यंग्य लिखने के लिए लेखक में
साहसी होने का गुण आवश्यक है। जनतंत्र में
 व्यंग्यकार
की हैसियत सत्ता और समाज की कमतरी को उजागर करने वाले अघोषित
 विरोध-नेता जैसी होती है। आजादी के बाद अपने देश के गैर-लोकतंत्रीय मिज़ाज के बदले लोकतान्त्रिक व्यवस्था लागू की गई। गौर से देखा जाए तो यह प्रयोग चुनाव करवाने तक ही सफल रहा,आमजन का मिज़ाज बदलने में
असफल रहा। विरोध में
 कुछ कहना या लिखना खतरे से खाली
नहीं है।
 इसलिए लेखक खुलकर लिख नहीं पाता। इसके बावजूद मजबूत कलेजे वाले लिखते हैंभले
ही संभल-संभल कर। अरविंद
 कुमार ऐसे ही साहसी व्यंग्य
लेखकों में से एक प्रतीत होते हैं। मान-बेटे के इस संवाद को देखिये—‘भैंस
बहुत अच्छी होती है। गाय की बहन। गाय की तरह वह भी हमें दूध देती है। हमें पालती
है। अगर गाय हमारी माँ है
, तो भैंस हमारी मौसी। —पर
हम लोग तो गाय की पूजा करते हैं। भैंस की पूजा क्यों नहीं करते
? गाय का गोबर तो बहुत पवित्र माना जाता है, भैंस का
क्यों नहीं माना जाता
? गोमूत्र तो पंचामृत और न जाने कितनी
दवाइयों में डाला जाता है
, पर भैंस का क्यों नहीं? और तो और लोग-बाग़ तो हमेशा गौ रक्षागौ रक्षा की
बातें करते हैं
, पर भैंस रक्षा की बातें कोई क्यों नहीं करता?
क्या जानवरों के बीच भी कोई वर्ण या जाति व्यवस्था लागू होती है?
बेटा, मैं यह सब नहीं जानती। यह सब धर्म और
राजनीति की बड़ी और ऊंची बाते हैं। मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ कि जिस तरह गाय
हमारे लिए ज़रूरी है
, उसी तरह से भैंस भी ज़रूरी है।

      ‘राजनीतिक किराना स्टोर‘ में समाज में व्याप्त
विसंगतियों पर जम कर कटाक्ष किया गया है। अरविन्द कुमार लिखते हैं—
अगर इंसान भूखा हो तो भगवान के भजन में भी उसका मन नहीं लगतापर नई पीढ़ी के हमारे नए भगवान चाहते
हैं की भजन हो न हो पर सपने
 अवश्य देखो। बंद आँखों से न
सही
खुली आँखों से सपने देखो।…..सपने देखोगे तो सफल हो जाओगे। सपने देखोगे तो अमीर बन जाओगे। सपना ही सब कुछ
है।
 हमारे भाग्यविधाताहमारे
कर्णधार आजकल उसी सिद्धान्त का अनुकरण कर रहे
 हैं। उनके
अनुसार
देश की गरीबी का मूल कारण सामाजिकआर्थिक और राजनीतिकव्यवस्था की विसंगतियाँ नहीं हैं। यह नया विकासवाद नहीं
है। भ्रष्टाचार तो
 बिल्कुल ही नहीं है। गरीबी भौतिक
नहीं भावात्मक होती है। भूख वस्तु नहीं
एक एहसास है।
अपनी मनोदशा सुधारो
दशा अपने-आप सुधार जाएगी। सोच बदलो,गरीबी खुद-ब-खुद दूर हो जाएगी।


      वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर
अरविंद कुमार की यह टिप्पणी भी एक करारा
 तंज़ है—अभी भी हमारे देश में तीन ऐसे तगड़े-तगड़े जिन्न
मौजूद हैं जो रिश्ते में अब तक के
 सारे जिन्नों के बाप
लगते हैं। ये तीन जाइण्ट-किलर टाइप के जिन्न हैं
उन्नीस
सौ चौरासी
दो हजार दो और दामादजी की कमाई की मलाई।
इनको ठीक
 चुनावों के समय मौका देखकर छक्का मारने के लिए
निकाला जाता है। बोतलों से
 इनके निकलते ही अच्छे-अच्छों
की हवा खराब हो जाती है। कोई बगलें झाँकने
 लगता है तो
कोई कानून की दुहाई देने लगता है। न उन्नीस सौ चौरासी का कोई हल
 निकलता है और न ही दो हजार दो का। जांच-फांच होने-कराने की तो छोड़िएलोगों के छलछला आए घावों पर फिर से उनकी मजबूरी की पपड़ियाँ जमाई जाने लगती हैं। औरदामाद जी तो दामाद जी ही हैंवे फिर एक राष्ट्रीय दामाद बनकर वीआईपी
ट्रीटमेंट पाने लगते हैं।

 
कुल मिला कर राजनीतिक किराना स्टोरएक अवश्य ही पढ़ने लायक पुस्तक है, जिसका मूल्य
है—रू0
 185/-,पृष्ठ संख्या : 151, प्रकाशक : मनसा पब्लिकेशन, लखनऊ। 
लेखक- अरविन्द कुमार, मेरठ, मोबाईल:9997944066
12994317 1093285487359381 1881184527396292175 n



समीक्षक-

b



द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
बिलासपुर में जन्महिन्दी साहित्य में एम॰ए॰बी॰कॉम॰एल॰ एल बी॰, ‘धर्मयुग‘,
दिनमान‘ ‘नवभारत टाइम्स‘ व अनेक पत्रिकाओं में लेखों का प्रकाशनब्लॉगर एवं फेसबुक में सक्रियप्रकाशित :
आत्मकथा (
1) : ‘कहाँ शुरू कहाँ खत्म‘, आत्मकथा (2) : ‘पल पल ये पल‘,आत्मकथा
(
3) : शीघ्र प्रकाश्य : ‘दुनिया
रंग बिरंगी
‘, अंतर्राष्ट्रीय प्रशिक्षक : जूनियर चेम्बर
इन्टरनेशनल
 प्रशिक्षक : व्यवहार विज्ञानव्यक्तित्व विकास और प्रबंधनविभिन्न सरकारी गैर सरकारी संस्थानोंसामाजिक संगठनोंशैक्षणिक संस्थानों में युवाओंअधिकारियोंप्रबन्धकोंकार्मिकों को प्रशिक्षण देने का
विगत तीस वर्षों
 का अनुभव.
लेखक का परिचय 

महाजनी सभ्यता: मुंशी प्रेमचंद [दस्तावेज]

0

महाजनी सभ्यता

premchand writer htphoto c731054a 4aa8 11e6 90e0 482a513bad8b


(इस लेख में मुंशी प्रेमचंद ने पूंजीवादी
व्यवस्था (महाजनी सभ्यता) द्वारा अनिवार्य रूप से पैदा होने वाली व्यक्तिगत
स्वार्थ
, कपट, लोभ-लालच,
बेरोज़गारी,
वेश्यावृत्ति,
भ्रष्टाचार
आदि समस्याओं पर चर्चा की है. साथ ही रूसी क्रांति के बाद वहाँ  की बेहतरीन सामाजिक संरचना की एक झलक भी
प्रस्तुत की है.)
महाजनी सभ्यता

मुज़द: ए दिल कि मसीहा
नफ़से मी आयद
;
कि जे़ अनफ़ास खुशश बूए
कसे मी आयद।


( ह्रदय तू प्रसन्न हो
कि पीयूषपाणि मसीहा सशरीर तेरी ओर आ रहा है। देखता नहीं कि लोगों की साँसों से
किसी की सुगन्धि आ रही है।)
जागीरदारी सभ्यता में
बलवान भुजाएँ और मजबूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओें में परिगणित थे
,
और
साम्राज्यवाद में 
बुद्धि और वाणी के
गुण तथा मूक आज्ञापालन उसके आवश्यक साधन थे। पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के
साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लुप्त नहीं हो गये थे। जागीरदार अगर
दुश्मन के खून से अपनी प्यास बुझाता था
, तो
अकसर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाजी भी लगा देता था। बादशाह अगर
अपने हुक्म को कानून समझता था और उसकी अवज्ञा को कदापि सहन न कर सकता था
,
तो
प्रजापालन भी करता था
, न्यायशील भी होता था।
दूसरे के देश पर चढ़ार्इ वह या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था
या अपनी आन-बान
, रोब-दाब कायम करने के लिए या
फिर देश-विजय और राज्य-विस्तार की वीरोचित महत्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उसकी
विजय का उददेश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट
जनसाधारण को अपने स्वार्थसाधन और धन-शोषण की भटठी का र्इंधन न समझते थे। किन्तु
उनके दुख-सुख में शरीक होते थे और उनके गुण की कद्र करते थे।
मगर इस महाजनी सभ्यता
में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है
,
तो
इसलिए कि महाजनों
, पूँजीपतियों को ज़्यादा
से ज़्यादा नफ़ा हो। इस दृष्टि से मानों आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है।
मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है
,
और
बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का
, जो
अपनी शकित और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किये हुए हैं। इन्हें इस बड़े
भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं
, ज़रा
भी रू-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना
बहाये
, खून गिराये और एक दिन चुपचाप
इस दुनिया से विदा हो जाय। अधिक दुख की बात तो यह है कि शासक वर्ग के विचार और
सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं
, जिसका
फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उसका शरीर है समाज। वह खुद
समाज से बिल्कुल अलग है। अगर कोर्इ संबंध है
, तो
यह कि किसी चाल या युकित से वह समाज का उल्लू बनावे और उससे जितना लाभ उठाया जा
सकता हो
, उठा ले।
धन-लोभ ने मानव भावों
को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफ़त
, गुण
और कमाल की कसौटी पैसा
, और
केवल पैसा है। जिसके पास पैसा है
, वह
देवता स्वरूप है
, उसका अन्त:करण कितना ही
काला क्यों न हो। साहित्य
, संगीत
और कला-सभी धन की देहली पर माथा टेकने वालों में है। यह हवा इतनी ज़हरीली हो गर्इ
है कि इसमें जीवित रहना कठिन होता जा रहा हैं डाक्टर और हकीम है कि वह बिना लम्बी
फ़ीस लिये बात नहीं करता। वकील और बारिस्टर है कि वह मिनटों को अशर्फियों से तौलता
है। गुण और योग्यता की सफलता उसके आर्थिक मूल्य के हिसाब मानी जा रही है। मौलवी
साहब और पणिडत जी भी पैसे वालों के बिना पैसे के गुलाम हैं
,
अखबार
उन्हीं का राग अलापते हैं। इस पैसे ने आदमी के दिलोदिमाग़ पर इतना कब्ज़ा जमा लिया
है कि उसके राज्य पर किसी ओर से भी आक्रमण करना कठिन दिखार्इ देता है। वह दया और
स्नेह
, सचार्इ और सौजन्य का पुतला
मनुष्य दया-ममताशून्य जड़ यन्त्र बनकर रह गया है। इस महाजनी सभ्यता ने नये-नये
नीति-नियम गढ़ लिये हैं जिन पर आज समाज की व्यवस्था चल रही है। उनमें से एक यह है
कि समय ही धन है। पहले समय जीवन था
, और
उसका सर्वोत्तम उपयोग विधा-कला का अर्जन अथवा दीन-दुखी जनों की सहायता था। अब उसका
सबसे बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। डाक्टर साहब हाथ मरीज की नब्ज़ पर रखते हैं और
निगाह घड़ी की सुर्इ पर। उनका एक-एक मिनट एक-एक अषर्फी है। रोगी ने अगर केवल एक
अशर्फी नज़र की है
, तो वह उसे मिनट से
ज़्यादा वक्त नहीं दे सकते। रोगी अपनी दुख-गाथा सुनाने के लिए बेचैन हैं
;
पर
डाक्टर साहब का उधर बिल्कुल ध्यान नहीं। उन्हें उससे ज़रा भी दिलचस्पी नहीं। उनकी
निगाह में उस व्यक्ति का अर्थ केवल इतना ही है कि वह उन्हें फ़ीस देता है। वह
जल्द-से-जल्द नुस्ख़ा लिखेंगे और दूसरे रोगी को देखने चले जायेेंगे। मास्टर साहब
पढ़ाने आते हैं
, उनका एक घण्टा वक्त बंधा है।
वह घड़ी सामने रख लेते हैं
, जैसे
ही घण्टा पूरा हुआ
, वह उठ खड़े हुए। लड़के
का सबक अधूरा रह गया तो रह जाय
, उनकी
बला से
, वह घण्टे से अधिक समय कैसे दे
सकते हैं
; क्योंकि समय रुपया है। इस
धन-लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम शेष कर डाला है। पति को पत्नी-बच्चों से बात
करने की फुर्सत नहीं
, मित्र और संबंधी किस
गिनती में हैं। जितनी देर वह बातें करेगा
, उतनी
देर में तो कुछ कमा लेगा। कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है
,
शेष
सब कुछ समय-नाश है। बिना खाये-सोये काम नहीं चलता
, बेचारा
इससे लाचार है और इतना समय नष्ट करना ही पड़ता है।
आपका कोर्इ मित्र या
सम्बन्धी अपने नगर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है
, तो
समझ लीजिए उसके यहाँ अब आपकी रसार्इ मुमकिन नहीं। आपको उसके दरे-दौलत पर जाकर
कार्ड भेजना होगा। उन महाशय को बहुत से काम होंगे
, मुशिकल
से आपसे एक-दो बातें करेंगे या साफ जवाब दे देंगे कि आज फुर्सत नहीं है। अब वह
पैसे के पुजारी हैं
, मित्रता और शील-संकोच
के नाम पर कब की तिलांजलि दे चुके हैं।
आपका कोर्इ दोस्त वकील
है और आप किसी मुकदमे में फँस गये हैं
, तो
उससे किसी प्रकार की सहायता की आशा न रखिए। अगर वह मुरौवत को गंगा में डुबो नहीं
चुका है
, तो आपसे देन-लेन की बात शायद न
करेगा
, पर आपके मुकदमें की ओर तनिक भी
ध्यान न देगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि आप किसी अपरिचित के पास जायँ और उसकी पूरी
फ़ीस अदा करें। र्इश्वर न करे कि आज किसी को किसी चीज़ में कमाल हासिल हो जाय
,
फिर
उसमें मनुष्यता नाम को न रह जायगी
, उसका
एक-एक मिनट कीमती हो जाएगा।
इसका अर्थ यह नहीं कि
व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट किया जाय
, पर
यह अर्थ अवश्य है कि धन-लिप्सा को इतना बढ़ने न दिया जाय कि वह मनुष्यता
,
मित्रता,
स्नेह-सहानुभूति
सबको निकाल बाहर करे।

पर आप उस पैसे के गुलाम
को बुरा नहीं कर सकते। सारी दुनिया जिस प्रवाह में बह रही है
,
वह
भी उसी में बह रहा है। मान-प्रतिष्ठा सदा से मानवीय आकांक्षाओं का लक्ष्य रहा है।
जब विद्या-कला मान-प्रतिष्ठा का साधन थी
, उस
समय लोग इन्हीं का अर्जन-अभ्यास करते थे। जब धन उसका एकमात्र उपाय है
,
तब
मनुष्य मजबूर है कि एकनिष्ठ भाव से उसकी उपासना करे। वह कोर्इ साधु-महात्मा
,
सन्यासी-उदासी
नहीं
; वह देख रहा है कि उसके पेशे
में जो सौभाग्यशाली सफलता की कठिन यात्रा पूरी कर सके हैं
, वह
उसी राजमार्ग के पथिक थे
, जिस
पर वह खुद चल रहा है। समय धन है एक सफल व्यकित का। वह उसको इस सिद्धान्त का अनुसरण
करते देखता है
, फिर वह भी उसी के पद-चिन्हों
का अनुसरण करता है
, तो उसका क्या दोष?
मान-प्रतिष्ठा
की लालसा तो दिल से मिटार्इ नहीं जा सकती। वह देख रहा है कि जिनके पास दौलत नहीं
,
और
इसलिए नहीं कि उन्होंने वक्त को दौलत नहीं समझा
, उनको
कोर्इ पूछने वाला नहीं। वह अपने पेषे में उस्ताद है फिर भी उसकी कहीं पूछ नहीं।
जिस आदमी में तनिक भी जीवन की आकांक्षा है वह तो इस उपेक्षा की सिथति को सहन नहीं
कर सकता। उसे तो मुरौवत
, दोस्ती
और सौजन्य को धता बताकर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा
,
तभी
इस देवी का वरदान उसे मिलेगा
, और वह
कोर्इ इच्छाकृत कार्य नहीं किन्तु सर्वथा बाध्यकारी है। उसके मन की अवस्था अपने आप
कुछ इस तरह की हो गर्इ है कि उसे धनार्जन के सिवा किसी काम से लगाव नहीं रहा। अगर
उसे किसी सभा या व्याख्यान में आधा घण्टा बैठना पड़े
, तो
समझ लो
, वह कैद की घड़ी काट रहा है।
उसकी सारी मानसिक
, भौतिक और सांस्कृतिक
दिलचसिपयाँ इसी केन्द्र बिन्दु पर आकर एकत्र हो गर्इ हैं। और क्यों न हों
?
वह
देख रहा है कि पैसे के सिवा उसका और कोर्इ अपना नहीं। स्नेही मित्र भी अपनी गरज
लेकर ही उसके पास आते हैं
, स्वजन-सम्बन्धी
भी उसके पैसे के ही पुजारी हैं। वह जानता है कि अगर वह निर्बल होता
,
तो
वह जो दोस्तों का जमघट लग रहा है
, उसमें
से एक के भी दर्शन न होते
, इन
स्वजन-सम्बन्धियों में से एक भी पास न फटकता। उसे समाज में अपनी एक हैसियत बनानी
है
, बुढ़ापे के लिए कुछ बचाना है,
लड़कों
के लिए कुछ कर जाना है जिसमें उन्हें दर-दर ठोकरें न खानी पड़ें। इस निष्ठुर
,
सहानुभूति
शून्य दुनिया का उसे पूरा अनुभव है। अपने लड़कों को वह उन कठिन अवस्थाओं में नहीं
पड़ने देना चाहता
, जो सारी आशाओं-उमंगों
पर पाला गिरा देती है
, हिम्मत-हौसले को तोड़कर
रख देती है। उसे वह सारी मंजि़लें जो एक साथ जीवन के आवश्यक अंग हैं
,
खुद
तय करनी होगी और जीवन को व्यापार के सिद्धान्त पर चलाये बिना वह इनमें से एक भी मंजि़ल
पार नहीं कर सकता।

इस सभ्यता का दूसरा
सिद्धान्त है
बिजनेस इज़ बिजनेस
अर्थात
व्यवसाय व्यवसाय है
, उसमें भावुकता के लिए
गुंजाइश नहीं। पुराने जीवन-सिद्धान्त में वह लठमार साफगोर्इ नहीं है
,
जो
निर्लज्जता कही जा सकती है और जो इस नवीन सिद्धान्त की आत्मा है। जहाँ लेन-देन का
सवाल है
, रुपये-पैसे का मामला है,
वहां
न दोस्ती का गुज़र है
, न मुरौवत का,

इन्सानियत का
, ‘बिजनेस
में
दोस्ती कैसी। जहाँ किसी ने इस सिद्धान्त की आड़ ली और आप लाजवाब हुए। फिर आपकी
जबान नहीं खुल सकती। एक सज्जन ज़रूरत से लाचार होकर अपने किसी महाजन मित्र के पास
जाते हैं और चाहते हैं कि वह उनकी कुछ मदद करें। वह भी आशा रखते हैं कि शायद सूद
के दर में वह कुछ रियायत कर दें
; पर जब
देखते हैं कि वह महानुभाव मेरे साथ भी वही कारबारी बर्ताव कर रहे हैं
,
तो
कुछ रियायत की प्रार्थना करते हैं
, मित्रता
और घनिष्ठता के आधार पर आँखों में आँसू भरकर बड़े करुण स्वर में कहते हैं-महाशय
,
मैं
इस समय बड़ा परीशान हूँ
, नहीं
तो आपको कष्ट न देता
, र्इश्वर के लिए मेरे
हाल पर रहम कीजिए। समझ लीजिए कि एक पुराने दोस्त…. वहीं बात काटकर आज्ञा के स्वर
में फ़रमाया जाता है: लेकिन जनाब
, आप बिजनेस
इज़ बिजनेस
इसे भूल जाते हैं। उस दिन कातर
प्रार्थी पर मानों बम का गोला गिरा। अब उसके पास कोर्इ तर्क नहीं
,
कोर्इ
दलील नहीं। चुपके से उठकर अपनी राह लेता है या फिर अपने व्यवसाय-सिद्धान्त के भक्त
मित्र की सारी शर्तें कबूल कर लेता है।

इस महाजनी सभ्यता ने
दुनिया में जो नर्इ रीति-नीतियाँ चलार्इ हैं
, उनमें
सबसे अधिक और रक्तपिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धान्त है। मियाँ-बीवी में बिजनेस
,
बाप-बेटे
में बिजनेस
, गुरु-शिष्य में बिजनेस। सारे
मानवी आध्यातिमक और सामाजिक नेह-नाते समाप्त। आदमी-आदमी के बीच बस कोर्इ लगाव है
,
तो
बिजनेस का। लानत है इस
बिजनेस
पर।
लड़की अगर दुर्भाग्यवश क्वाँरी रह गर्इ और अपनी जीविका का कोर्इ उपाय न निकाल सकी
,
तो
अपने बाप के घर में ही लौंडी बन जाना पड़ता है। यों लड़के-लड़कियाँ सभी घरों में
काम-काज करते ही हैं
पर
उन्हें कोर्इ टहलुआ नहीं समझता
; पर इस
महाजन सभ्यता में लड़की एक खास उम्र के बाद लौंडी और अपने भाइयों की मजदूरनी हो
जाती है। पूज्य पिताजी भी अपने पितृ-भक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं और माँ अपने
सपूत की टहलुर्इ। स्वजन-सम्बन्धी तो किसी गिनती में नहीं। भार्इ भी भार्इ के घर
आये तो मेहमान है। अकसर तो उसे मेहमानी का बिल भी चुकाना पड़ता है। इस सभ्यता की
आत्मा है व्यक्तिवाद
, आप स्वार्थी बना सब कुछ
अपने लिए।

पर यहाँ भी हम किसी को
दोषी नहीं ठहरा सकते। वही मान प्रतिष्ठा
, वही
भविष्य की चिन्ता
, वही अपने बाद
बीवी-बच्चों के गुज़र का सवाल
, वही
नुमाइश और दिखावे की आवश्यकता हर एक की गरदन पर सवार है
, और
वह हिल तक नहीं सकता। वह इस सभ्यता के नीति-नियमों का पालन न करे तो उसका भविष्य
अन्धकारमय है।

अब तक इस दुनिया के लिए
सभ्यता की रीति-नीति का अनुसरण करने के सिवा और कोर्इ उपाय न था। उसे झख मारकर
उसके आदेशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था। महाजन अपने जोम से फूला फिरता था। सारी
दुनिया उसके चरणों पर नाक रगड़ रही थी। बादशाह उसका बन्दा
, वजीर
उसके गुलाम
, संधि-विग्रह की कुंजी उसके हाथ
में
, दुनिया उसकी महत्वाकांक्षाओं के सामने सिर
झुकाए हुए
, हर मुल्क में उसका बोलबाला।
परन्तु अब एक नर्इ
सभ्यता (रूस में समाजवाद-सं0) का सूर्य सुदूर पश्चिम में उदय हो रहा है
,
जिसने
इस नाटकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है
, जिसका
मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यकित
, जो
अपने शरीर या दिमाग़ से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है
, राज्य
और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है
, और
जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रर्इस बना फिरता है
,
वह
पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबन्ध में राय देने का हक नहीं और वह नागरिकता के
अधिकारों का भी पात्र नहीं। महाजन इस नर्इ लहर से अति उद्विग्न होकर बौखलाया हुआ
फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शामिल आवाज उस नर्इ सभ्यता को कोस रही है
,
उसे
शाप दे रही है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य
, धर्म-विश्वास
की स्वाधीनता
, अपनी अन्तरात्मा के आदेश पर
चलने की आज़ादी वह इन सबकी घातक
, गला
घोंट देने वाली बतायी जा रही है। उस पर नये-नये लांछन लगाये जा रहे हैं
,
नर्इ-नर्इ
हुरमतें तराशी जा रही हैं। वह काले से काले रंग में रँगी जा रही है
,
कुत्सित
रूप में चित्रित की जा रही है। उन सभी साधनों से जो पैसे वालों के लिए सुलभ है
,
काम
लेकर उसके विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है
; पर
सचार्इ है जो इस सारे अन्धकार को चीरकर दुनिया में अपनी ज्योति का उजाला फैला रही
है।

निस्सन्देह इस नर्इ
सभ्यता ने व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के पंजे नाखून और दाँत तोड़ दिये हैं। उसके राज्य
में अब एक पूँजीपति लाखों मज़दूरों का ख़ून पीकर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह
आज़ादी नहीं कि अपने नफ़े के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके
,
अपने
माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे
, गोला-बारूद
और युद्ध सामग्री बनाकर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। अगर इसकी स्वाधीनता ही
स्वाधीनता का अर्थ है कि यह जनसाधारण को हवादार मकान
, पुष्टिकर
भोजन
, साफ-सुथरे गाँव,
मनोरंजन
और व्यवसाय की सुविधाएँ
, बिजली
के पंखे और रोशनी
, सस्ता और सध:सुलभ न्याय
की प्राप्ति हो
, तो इस समाज-व्यवस्था में जो
स्वाधीनता और आज़ादी है
, वह
दुनिया की किसी सभ्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं है। धर्म की स्वतंत्रता का
अर्थ अगर पुरोहितों
, पादरियों,
मुल्लाओं
की मुफ्तखोर ज़मात के दंभमय उपदेशों और अन्धविश्वास-जनित रूढि़यों का अनुसरण है
,
तो
निस्संदेह वहाँ इस स्वातन्त्र्य का अभाव है
; पर
धर्म-स्वातन्त्र्य का अर्थ यदि लोक-सेवा
, सहिष्णुता,
समाज
के लिए व्यकित का बलिदान
, नैकनीयती,
शरीर
और मन की पवित्रता है
, तो इस सभ्यता में
धर्माचरण की जो स्वाधीनता है
, और
किसी देश को उसके दर्शन भी नहीं हो सकते।

जहाँ धन की कमी-बेशी के
आधार पर असमानता है वहाँ ईर्ष्या
, ज़ोर,
जबर्दस्ती,
बेर्इमानी,
झूठ,
मिथ्या
अभियोग-आरोप
, वेश्या-वृतित,
व्यभिचार
और सारी दुनिया की बुराइयाँ अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं
,
अधिकाँश
मनुष्य एक ही स्थिति में है
, वहाँ
जलन क्यों हो और जब्र क्यों हो
? सतीत्व-विक्रय
क्यों हो और व्यभिचार क्यों हो
? झूठे
मुकदमे क्यों चलें और चोरी-डाके की वारदातें क्यों हों
? ये
सारी बुराइयाँ तो दौलत की देन हैं
, पैसे
के प्रसाद हैं
, महाजनी सभ्यता ने इनकी सृष्टि
की है। वही इनको पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित
,
पीडि़त
और विजित हैं
, वे इसे र्इश्वरीय विधान समझकर
अपनी स्थिति पर सन्तुष्ट रहें। उनकी ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया
गया
, तो उनका सिर कुचलने के लिए-पुलिस है,
अदालत
है
, काला पानी है। आप शराब पीकर उसके नशे से बच
नहीं सकते। आग लगाकर चाहें कि लपटें न उठें
, असम्भव
है। पैसा अपने साथ यह सारी बुराइयाँ लाता है
, जिन्होंने
दुनिया को नरक बना दिया है। इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए
, सारी
बुराइयाँ अपने-आप मिट जायँगी
, जड़ न
खोदकर केवल फुनगी की पत्तियां तोड़ना बेकार है। यह नर्इ सभ्यता धनाढयता को हेय और
लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहाँ कोर्इ आदमी अमीरी ढंग से रहे तो लोगों की
ईर्ष्या का पात्र नहीं होता
; बल्कि
तुच्छ और हेय समझा जाता है। गहनों से लदकर कोर्इ स्त्री सुन्दरी नहीं बनती
,
घृणा
की पात्र बनती है। साधारण जन-समाज से ऊँचा रहन-सहन रखना वहाँ बेहूदगी समझी जाती
है। शराब पीकर वहाँ बहका नहीं जा सकता
, अधिक
मधपान वहाँ दोष समझा जाता है
, क्योंकि
शराबखोरी से आदमी में धैर्य और कष्ट-सहन
, अध्यवसाय
और श्रमशीलता का अन्त हो जाता है।

हाँ,
इस
समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी
महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाये और तरह-तरह के बहानों से उनकी मेहनत का
फ़ायदा उठाये
, या सरकारी पद प्राप्त करके मोटी-मोटी
रकमें उड़ाये और मूछों पर ताव देता फिरे। वहाँ ऊँचे से ऊँचे अधिकारी की तनख़्वाह
भी उतनी ही है
, जितनी एक कुशल कारीगर की। वह
गगनचुम्बी प्रासादों में नहीं रहता
, तीन-चार
कमरों में ही उसे गुजर करना पड़ता है। उसकी श्रीमती जी रानी साहबा या बेगम बनी
हुर्इ स्कूलों में इनाम बाँटती नहीं फिरतीं
; बलिक
अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर 
में काम करती हैं। सरकारी पद पाकर वह अपने को लाट साहब नहीं बलिक जनता का
सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज-व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा
जिसमें उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चाँदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ
नहीं
? पूँजीपति और ज़मींदार तो इस
सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं। उनकी जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं। पर जब
वह लोग भी उसकी खिल्ली उड़ाने और उस पर फबतियाँ कसने लगते हैं जो अनजान में महाजनी
सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे हैं
, तो
हमें उनकी दास-मनोवृतित पर हँसी आती है। जिसमें मनुष्यता
, आध्यात्मिकता,
उच्चता
और सौन्दर्यबोध है
, वह कभी ऐसी
समाज-व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता
, जिसकी
नींव लोभ
, स्वार्थपरता और दुर्बल
मनोवृत्ति  पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें
विद्या और कला की संपत्ति दी है
, तो उस
का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन-समाज की सेवा में लगाओ
,
यह
नहीं कि उससे जन-समाज पर हुकूमत चलाओ
, उसका
खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ।

धन्य है वह सभ्यता,
जो
मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अन्त कर रही है
, और
जल्दी या देर से दुनिया उसका पदानुसरण अवश्य करेगी। यह सभ्यता अमुक देश की
समाज-रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है-यह
तर्क नितान्त असंगत है। र्इसार्इ मजहब का पौधा यरूशलम में उगा और सारी दुनिया उसके
सौरभ से बस गर्इ। बौद्ध-धर्म ने उत्तर भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने
उसे गुरुदक्षिणा दी। मानव-स्वभाव अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में
अन्तर हो सकता है
; पर मूलस्वरूप की दृष्टि
से सम्पूर्ण जाति में कोर्इ भेद नहीं। जो शासन-विधान और समाज -व्यवस्था एक देश के
लिए कल्याणकारी है
, वह दूसरे देशों के लिए
भी हितकारी होगी। हाँ
, महाजनी सभ्यता और उसके
गुर्गे अपनी शक्ति भर उसका विरोध करेंगे
, उसके
बारे में भ्रमजनक बातों का प्रचार करेंगे
, जन-साधारण
को बहकावेंगे
, उनकी आँखों में धूल झोकेंगे;
पर
जो सत्य है एक न एक दिन उसकी विजय होगी और अवश्य होगी।

संवाद/साइबर समाज शास्त्र असंतुष्ट समाज की भावनात्मक शरणस्थली है फेसबुक- सूरज प्रकाश

0
15241940 227705057641796 8779802407093873754 n
सरल, आत्मीय, भावुक, मिलनसार और
गर्मजोशी से भरे। यूँ कहिये कि हम जितने अच्छे गुण किसी आदर्श लेखक में तलाशने की
फ़िराक में रहते हैं, वरिष्ठ कथाकार सूरज प्रकाश सर में वो सब जरूरत से ज्यादा ही
और छलकते हुए हैं। उनसे मिलने पर उनकी सरलता और सहजता हमें बरबस अपनत्व से भरे
पुराने लेखकों की याद दिलाती है। वे हैं भी वरिष्ठ लेखक लेकिन उनकी रचना भूमि न
केवल नई बल्कि एक तरह से भविष्य की सर जमीं है। जी
, हाँ हाल
के पिछले ढाई तीन बरसों में उन्होंने ज्यादातर कहानियां साइबर जगत की पृष्ठभूमि पर
लिखी हैं
, जो न केवल पाठकों के द्वारा हाथों हाथ ली गयी हैं
बल्कि हिंदी के तमाम लेखकों ने भी उनसे प्रेरित होकर इधर का रुझान किया है।

सोशल मीडिया खासकर फेसबुक में उनकी
कई कहानियों ने मसलन एक कमजोर लड़की की कहानी
, कोलाज और
लहरों की बांसुरी ने खूब धूम मचाई है। सोचने वाली बात है कि आखिर व्यवहारिक धरातल
पर बेहद बेचैन घटनाक्रम वाले देश में रहते हुए सूरज प्रकाश जी ने आभासी साइबर जगत
को अपनी रचना भूमि क्यों बनाया? वास्तविक सामाजिक हलचलों की बजाये उन्हें आभासी
समाज ने अपनी कहानी कहने के लिए आकर्षित क्यों किया? इन्हीं तमाम सवालों को लेकर
लोकमित्र ने उनके मुंबई स्थित निवास एच-१ रिद्धि गार्डन
, गोरेगांव ईस्‍ट
में उनसे खूब लंबी बातचीत की। पेश हैं इस बातचीत के कुछ महत्वपूर्ण अंश।  

लोकमित्र
सूरज प्रकाश जी
आप शायद हिंदी के अकेले बड़े कथाकार हैं जिसकी हाल के
एक -दो सालों में आयी ज्यादातर कहानियों का प्लाट साइबर जगत से है ..मैं जानना
चाहता हूँ कि क्या साइबर जगत यानी संचार की यह आभासी दुनिया और उसके तमाम सुख दुःख
, आपके लिए
वास्तविक जगत जितने ही महत्वपूर्ण हैं या उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, आखिर हाल
के सालों में आपने साइबर जगत के प्लाट ही क्यों चुने हैं?

सूरज
प्रकाश –
इसका जवाब हम थोड़ा पीछे से देंगे कि उत्तर भारत में
या कहीं भी भारत में मध्य वर्ग के लिए
, खासकर लड़कियों
और महिलाओं के लिए पहली बार आज़ादी का पैगाम लेकर मोबाइल आया था। मोबाइल ने पहली
बार एक ऐसी आज़ादी दी, कि आप अपने पसंद के किसी भी व्यक्ति से बात कर सकती हैं। वह
भी घर बैठे हुए। उसके पहले लड़कियों के पास ऐसी आज़ादी नहीं थी कि वो किसी से भी
बात कर सकें। यहाँ तक कि भाई के दोस्त  के
साथ भी नहीं। उन्हें घर के बाहर अकेले जाने की इजाज़त नहीं थी। गोलगप्पे भी खाने
हों तो किसी पुरुष सदस्य के साथ जाना ज़रूरी था। चाहे फिर वह 8 साल का छोटा भाई ही
क्यों न हो।

         मोबाइल ने पहली बार महिला को यह आज़ादी
दी कि वह बिना किसी की इजाज़त लिए किसी से बात कर सकती थी। वह भी इसके लिए घर के
बाहर जाने का जोखिम लिए बिना भी। लेकिन मोबाइल की अपनी सीमाएं थीं। आप इससे एक समय
में किसी एक व्यक्ति से ही बात कर सकते थे। जो आम तौर पर पहले से जानकार होता था।
अजनबी से भी बात करने की संभावनाएं तो थीं मगर पकड़े जाने के जोखिम भी थे। कुछ और
संकट भी थे मसलन रिचार्ज वगैरह। फिर भी मोबाइल संचार माध्यमों में से पहला वह
माध्यम था जिसके जरिये घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली भारतीय महिला घर के बाहर
की दुनिया से जुड़ी।

       लेकिन जब फेसबुक आया तो अचानक यह आज़ादी
बहुत बड़ी हो गयी। इसके जरिये आप पूरी दुनिया से जुड़ सकते थे। साथ ही यह भी खुद ही
तय कर सकते थे कि अपनी पहचान छुपा कर जुड़ें या पहचान बताकर। फेसबुक में आप अपनी
बात कह सकते हैं, सुन सकते हैं
, राय रख सकते हैं, राय मांग
सकते हैं, साझा कर सकते हैं
, दखल दे सकते हैं। लब्बोलुआब यह कि फेसबुक ने
अभिव्यक्ति की एक समूची वैकल्पिक दुनिया दी। मुझे एक तो बड़े पैमाने पर हुए इस
सामाजिक बदलाव से जुड़ना जरूरी लगा और दूसरी बात जो मैंने पिछले दिनों एक गोष्ठी
में कही थी कि हमें अपने समय के साथ चलना होगा। अगर हम अपने वक़्त के साथ कदम से
कदम मिलाकर नहीं चल सकते तो हमारा लेखन हमारे वक़्त को प्रतिबिम्बित नहीं करेगा।

          हिंदी में अधिकांश लेखन ऐसा ही है जो
अपने वक़्त को प्रतिबिम्बित नहीं कर रहा। जबकि जीवन के दूसरे क्षेत्रों में यह
प्रतिबिम्‍ब दिख रहा है। पत्रकारिता में, फिल्मों में इस आधुनिक संचार की
, तकनीक की मौजूदगी
दिखती है। क्योंकि शायद वहां इसकी जरूरत का दबाव है। लेकिन हिंदी साहित्य में अभी
दूर दूर तक यह नहीं है। तीन साल पहले मैं जब रिटायर हुआ तो मेरे सामने फेसबुक की
अनंत विस्तार वाली दुनिया खुली। मैंने देखा फेसबुक एक बड़ा दायरा है। लोग वही हैं
, जो हम सब
सामान्य लोग हैं। लेकिन यहाँ हमने अपने आपको पेश करने के तरीके बदले हैं। मेरे
व्यक्तिगत परिचय में आखिर कितने लोग होंगे? दो सौ
, तीन सौ हद
से हद चार सौ। लेकिन फेसबुक की दुनिया के चलते मैं अनंत लोगों से जुड़ा हूँ। फेसबुक
में मुझे दो चीजें बेहतर लगीं। पहली ये कि लोग कुछ कहना चाहते हैं। जो अभी तक वो
किसी और से नहीं कह पा रहे थे। अगर आप किसी अंजान आदमी का भी उपयुक्त कंधा पाते
हैं तो यहाँ अपनी बात कह डालते हैं। आपको डर नहीं लगता। यह इस माध्यम की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक
आजादी है।

    दूसरी महत्वपूर्ण बात इस माध्यम की है रिकग्नीशन।
आपको लगता है कि आपकी बात सुनी गयी जो घर में नहीं सुनी जा रही थी या जिनसे आपको
अपेक्षा थी, वो लोग नहीं सुन रहे थे। ये दो चीजें हैं जो फेसबुक को बहुत
लोकतांत्रिक और सर्वप्रिय बनाती हैं। ये बहुत बड़ी दुनिया है। लोगों को लगता है
यहाँ अपनी बात कह देना जोखिम से रहित है। इसलिए लोग यहाँ अपनी बात शेयर करते हैं।
मैंने एक बात और देखी है। फेसबुक में मौजूद ज्यादातर लोग असंतुष्ट हैं। ज्यादातर
अपने जीवन से सुखी नहीं हैं। इसके कई कारण हैं। जिसमें बेमेल विवाह हैं। पति नहीं
सुनता। पत्नी नहीं सुनती। उम्र का फर्क है। पत्नी की इच्छाएं बल्कि कहना चाहिए एक्‍सप्रेशन
पति को माफिक नहीं आती और पति पत्नी को इस लायक नहीं समझता कि वह सब उससे शेयर कर
तो वह बाहर अपने लिए एक दुनिया तलाशता है। हम सब जानते हैं कि हमारे जीवन में कुछ
खाने खाली होते हैं। जहाँ भी माकूल मौका मिलता है
, हम अपने
इन खानों को भरने की कोशिश करते हैं।

 
फेसबुक ऐसे तमाम लोगों के लिए शरणस्थली बनकर आया है। यहाँ वो अपनी बात कह
भी रहे हैं
, शेयर भी कर रहे हैं और सुन भी रहे हैं। जब मैं ऐसे
लोगों के संपर्क में आया तो मुझे लगा कि अगर मैं किसी की बात सुनने के लिए कान
देता हूँ तो मुझे बहुत सी कहानियां मिल सकती हैं और मुझे मिलीं। हाँ
, मैं इसके
लिए एक अच्छा श्रोता बना। पूरे मन से लोगों को सुना और पूरी जिम्मेदारी
, ईमानदारी
व संवेदना से सुनी हुई कहानी में कल्पना के रंग भरकर लोगों की उन कहानियों को लिखा।
फेसबुक ने एक तो मुझे ये चीज दी। दूसरी बड़ी चीज मुझे फेसबुक ने बहुत सारे मित्र
दिए। बहुत सारे पाठक दिए। बहुत सारे पाठक मैंने कोशिश करके, मिशन की तरह लगकर
तैयार किये। वरना तो मेरे पाठक नहीं थे। फेसबुक एक बड़ा पाठक जगत है। अभी एक पखवाड़े
पहले मेरी कहानी लहरों की बांसुरी लमही पत्रिका में छपी। अब तक मैगजीन के जरिये
मेरे पास कोई 20 प्रतिक्रियाएं ही आयी होंगी जबकि फेसबुक से पहले एक दो दिन में ही
100 से ज्यादा प्रतिक्रियाएं आ गयी हैं। इसलिए क्योंकि फेसबुक में बहुत बड़ा पाठक
जगत है।

कुल जमा बात यह है कि अगर मैंने
अपनी कहानियों के लिए इस दुनिया को चुना है तो इसके पीछे मेरी यह भी सोच थी कि ये
क्षेत्र नया है। गैर पारंपरिक और तकनीकी है जिसकी मुझे समझ है। मैं कंप्यूटर पढाता
रहा हूँ। एक और बात है मुझे मालूम है कि यह यानी जीवन में तकनीकी वर्चस्व आकर
रहेगा। जब तक इससे बड़ा कोई दूसरा माध्यम नहीं आ जाता, अपने सारे गुणों अवगुणों के
साथ तब तक यह नहीं जाने वाला। हमारे जीवन में यह रहने वाला है मैंने सोचा हमें
इसका फायदा उठाना चाहिए। यह सब सोचते हुए मुझे महसूस हुआ कि मैं इस क्षेत्र में कंट्रीब्‍यूट
कर सकता हूँ। 

लोकमित्र-सोशल
मीडिया के बारे में आपकी इतनी विस्तृत अवधारणा सुनने के बाद मैं ठोस रूप में जानना
चाहता हूँ कि आप फेसबुक को क्या मानते हैं?

सूरज
प्रकाश
–मैं फेसबुक को मोर्निंग वाक वाला एक बहुत बड़ा मैदान
मानता हूँ जिसमें लोग घूम रहे हैं। यहाँ कुछ लोग एक बार नज़र आते हैं। कुछ लोग दो
बार नज़र आते हैं। कुछ लोग बार बार नज़र आते हैं। जिनसे आप तंग भी हो जाते हैं कुछ
लोगों से आपकी हाय हेलो होती है। कुछ लोगों से आप रुककर हालचाल भी पूछ लेते हैं।
कुछ लोगों को आप गुलाब का फूल भी दे देते हैं। कुछ लोगों के साथ रुककर आप चाय भी
पी लेते हैं। लेकिन है यह सैर का बागान ही जहाँ आप सुबह टहल रहे हैं। साथ ही अपने
लिए उपयुक्त साथी भी तलाश रहे हैं। मिल भी रहे हैं। लोग आपस में जुड़ भी रहे हैं।
कहने का मतलब यह कि फेसबुक भले वर्चुअल है, लेकिन वहां हैं तो हमीं लोग न। बल्कि
फेसबुक में तो हम लोग ज्यादा खुलकर अपनी बात कह-सुन लेते हैं। रीयल में तो एक
संकोच भी होता है।

लोकमित्र – क्या
फेसबुक की अपनी कोई लैंगिक खासियत भी आपको नज़र आती है जिसे खास तौर पर या अलग से
चिन्हित किया जा सके ?

सूरज
प्रकाश
– फेसबुक में आम तौर पर पति पत्नियों की शिकायत नहीं
करते। पत्नियां करती हैं। मैं उनकी बात बहुत धैर्य से सुनता हूँ। उन्हें सही
रास्ता दिखाने की कोशिश करता हूँ। एक तरह से उनकी काउंसलिंग करता हूँ। मैं ये
देखकर हैरान रहता हूँ कि लोग अपनी बात करने और कहने के लिए कैसे कैसे तरीके ढूंढते
हैं? छिपकर बातें करते हैं। मैं एक ऐसी महिला को भी जानता हूँ जो फेसबुक में तीन
नामों से सक्रिय है। तीनों मुझसे मुखातिब होती है। अपने दो नामों के बारे में तो
उसने मुझे खुद ही बता रखा है। तीसरे के बारे में मैं जान गया हूँ। लेकिन मुझे कभी
इससे आपत्ति नहीं रही। मुझे लगता है अपने आपको एक्सप्रेस करना चाहती है तो कोई बात
नहीं। कहीं वह कविता के जरिये ऐसा कर रही है कहीं कहानी के जरिये। कहीं किसी और
रूप में कुल मिलाकर देखा जाये तो वह खुद को व्यक्त करने के लिए ही बेचैन है। दरअसल
फेसबुक एक ऐसा माध्यम है, जहाँ आपको इंस्टेंट रिएक्शन मिलता है। अच्छा है या बुरा।
मगर रिजल्ट आपको चटपट मिलता है। इन सारी बातों के चलते ही मैं इसकी तरफ आकर्षित
हुआ। मुझे लगा हाँ, मेरे लिए यह उपयुक्त माध्यम है। मैं यहाँ अपनी बात बेहतर ढंग
से कह पाऊंगा।

लोकमित्र – फेसबुक
की पृष्ठभूमि वाली आपकी ज्यादातर कहानियों की मुख्य किरदार महिलाएं है। हर कहानी
एक तरह से देखा जाये तो नायिका प्रधान है। इसका कारण क्या है?

सूरज
प्रकाश
-मुझे लगता है मैं महिला मनोविज्ञान को बेहतर ढंग से
समझ पाता हूँ। सिर्फ फेसबुक की कहानियों में ही नहीं मेरी वैसी भी कहानियों में आम
तौर पर मुख्य किरदार महिला का ही है। मेरी ज्यादातर कहानियां किसी महिला के इर्द
गिर्द ही बुनी गयी हैं। मेरा यह भी मानना है कि किसी महिला के पास ही बहुत कुछ
कहने के लिए भी है
, कुछ देने के लिए भी है, समाज को
बेहतर बनाने के लिए भी है। बस उसे मौका मिलना चाहिए। मुझे लगता है, उसे यह मौका
मिलना ही चाहिए। महिला के अन्दर अपनी बात कहने के लिए बेचैनी है। एक सकारात्मक
बेचैनी। उसके पास यूज़ ऑफ़ एनर्जी भी है। वह ऊर्जा को सही तरीके से चैनलाइज कर सकती
है। दखल दे सकती है। मैं इसीलिए महिला को ज्यादा आदर  की नज़र से देखता हूँ। मुझे लगता है एक महिला ही
होती है, जिससे आप अपने मन की बात कह भी सकते हैं और उसकी बात सुन भी सकते हैं। जो
तमाम बातें दो पुरुष आपस में नहीं कर सकते। ईगो है। दूसरे क्राइसेस भी हैं। ऐसे
में मेरे लिए यही उपाय बचता है कि मैं महिलाओं से बातें करूँ। मैं उन्हें इसके लिए
तैयार भी कर लेता हूँ। इसीलिए मेरी ज्‍यादातर कहानियों में मुख्य किरदार महिलाओं
का है।

लोकमित्र – मैं
समझता हूँ संचार क्रांति और सूचना क्रांति के तमाम दावों के बावजूद अभी भी भारत
जैसे देश में एक बहुत छोटा सा तबका ही है जिसने फेसबुक या सोशल नेट वर्किंग की
दुनिया में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है। मेरी उत्सुकता या जिज्ञासा आपसे यह जानने
की है कि इस बेहद सीमित दुनिया तक पहुंचकर आप कैसे यह मान लेते हैं कि आप अपने दौर
से रूबरू हैं? जबकि साहित्य के बारे में यह समझा जाता है की यह अपने युग के
शोषितों, वंचितों का हमदर्द मंच होता है? भारत में इन वंचितों की बहुत बड़ी तादाद
है। दुनिया के समूचे निरक्षरों में तकरीबन 35% भारत में रहते हैं। दुनिया के तमाम
गरीब लोगों में से लगभग आधे भारत में हैं। क्या आप फेसबुक या सोशल मीडिया के जरिये
इन तक पहुँच पाते हैं? और अगर नहीं तो क्यों न माना जाए कि आप एक बड़े और असली
हिन्दुस्तान को जानते ही नहीं?  

सूरज
प्रकाश
– देखिये पहली बात तो यह कि आपने इस लंबे चौड़े सवाल
में जो मूलतः दो सवाल फोकस किये हैं
, मैं आपके
इन दोनों ही सवालों से सहमत नहीं हूँ ..! पहले मैं साहित्यिक मंच वाले सवाल पर आता
हूँ। मेरी बात आप एक उदाहरण से समझिये। दैनिक जागरण अखबार के अपने एक करोड़ पाठक
हैं जैसा कि वह दावा करता है। लेकिन हिंदी की कोई आम साहित्यिक किताब की 300
प्रतियाँ छपती हैं। कविता की तो महज 100 प्रतियाँ ही छपती हैं। हमारे पास हिंदी
साहित्य का पाठक ही नहीं है। हिंदी का पाठक हमसे रूठा हुआ है या समझिये रूठ गया है।
इसकी बहुत सारी वजहें हैं। मगर सच्चाई यही है कि हिंदी साहित्य में पाठक है ही
नहीं। बाकी दूसरी भाषाओं में पाठक हैं। मराठी में हैं
, गुजराती
में हैं, बांग्ला में हैं
, मलयालम में हैं। मगर हिंदी में नहीं हैं। इसके बहुत
सारे कारण हैं। हिंदी पाठक तक किताबें पहुँचती ही नहीं या पहुंचने ही नहीं दी
जातीं। 

दूसरी बात मैं स्पष्ट कर दूँ कि अगर
आपको लगता है कि साहित्य सबके लिए है तो यह कभी भी सबके लिए नहीं होता और न ही कभी
था। ठीक है एक दौर में लोगों ने बाबू देवकीनंदन खत्री जैसों को पढने के लिए हिंदी
सीखी थी। लेकिन तब एकमात्र साहित्य ही था और कुछ भी नहीं था। जबकि इस समय हमारे
पास तमाम विकल्प हैं। सबसे बड़ा विकल्प है मोबाइल। यह हमारे पांच सौ काम करता है
बल्कि उससे भी ज्यादा करता है तो ऐसे में मैं कहूँगा कि साहित्य तो पहले भी हाशिये
में था। लेकिन सुखद हैरानी होगी की मोबाइल के जरिये भी, नेट के जरिये भी
, सोशल
मीडिया के जरिये भी साहित्य को जगह दी जा रही है। साहित्य को इन नए साधनों से
विस्तार मिल रहा है। इनमें ऑडियो भी है। इनमें ई-बुक्‍स भी है। एक बात और समझ
लीजिये हमेशा लोगों की चॉइस रही है। ठीक है कि हमारे यहाँ शौचालय कम और मोबाइल
ज्यादा हैं लेकिन ठीक है सबकी अपनी अपनी पसंद है। मैंने बहुत बड़े बड़े अफसरों को
वीडियो गेम खेलते देखा है। जो अपनी एनर्जी का कहीं और बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे।
लेकिन मैंने उन्हें वीडियो गेम खेलते देखा है। इसका मतलब है कि उनका राजनीति से, साहित्य
से
, सोशल कमिटमेंट से कोई वास्ता नहीं है। वो छोटे बच्चे
हैं। उनके दिमाग में अभी भी वह बच्चा है जो वीडियो गेम खेल रहा है।

लेकिन मैंने देखा है कि फेसबुक ने,
सोशल मीडिया ने बहुत सारे साहित्यकार तैयार किये हैं। अगर आप देखें तो फेसबुक में
हर तीसरा आदमी कवि है। पढता भी है लिखता भी है और कहीं कमेंट भी करता है। इसका
मतलब है कि एक्‍सप्रेशन है उसमें। जो पहले नहीं था। पहले मैं एक कहानी लिखता था।
लिफाफा तैयार करता था। सम्पादक के पास भेजता था। दो महीने बाद जाकर सूचना मिलती थी
कि कहानी छप रही है या नहीं छप रही। छह महीने बाद साल भर बाद कहानी छपती थी। मुझे
याद है सारिका में मेरी एक कहानी 7 साल बाद छपी थी। कैन यू इमेजिन 7 साल बाद। जबकि
मेरे दोस्त वहां हुआ करते थे। अब ये है कि आप लिखिए और दो मिनट में आप कहानी भी
छाप लीजिये अपने आप। ठीक है फेसबुक में सम्पादन नहीं होता। लेकिन फेसबुक में,
व्हाट्स अप में बहुत सारे साहित्यिक ग्रुप बने हैं, जहाँ हम चीजें शेयर करते हैं।
तो कहने का मतलब यह कि एक मंच मिला है अगर हम इसका बेहतर इस्तेमाल करें तो हमें
लगता है हम साहित्य के लिए जगह निकाल रहे हैं जो पहले नहीं थी।

लोकमित्र – आपकी सारी
बात सही हैं। मेरे सवाल का तात्पर्य सिर्फ यह था कि सोशल मीडिया के दायरे में समाज
का जो एक बहुत बड़ा तबका नहीं है
, वह आपसे छूट रहा है क्योंकि आप यहीं सक्रिय हैं। मैं
जानना चाहता हूँ उसके लिए भी कभी आपको कसक होती है?

सूरज
प्रकाश
– कहीं नहीं छूट रहा। साहित्य पहले भी हाशिये में था।
साहित्य आज भी हाशिये में है।

लोकमित्र – आप कहना
चाह रहे हैं कि साहित्य पहले भी उन तक नहीं पहुँच रहा था आज भी नहीं पहुँच रहा बस
बात इतनी है?

सूरज
प्रकाश
– बात पहुँचने की नहीं है। बात प्रियोरटी की है।
साहित्य पहले भी उनकी प्रियोरटी में नहीं था, आज भी नहीं है। मैं आपसे एक छोटी से
बात कहता हूँ। आप दिल्ली में रहते हैं। किसी दिन संडे को अपने मोहल्ले में एक
सर्वे कीजिए या किसी दूसरे मोहल्ले में। आप सौ घर जाइए और उन घरों के लोगों से
पूछिए कि उनके घर में स्कूलों, कालेजों या पढाई लिखाई की किताबों के अलावा और
कितनी किताबें हैं। मेरा दावा है आपको 10 घर भी ऐसे नहीं मिलेंगे कि जहां अकादमिक
पढ़ाई लिखाई के अलावा कोई दूसरी किताबें भी मिलें। हम बच्चों को बीस हज़ार रुपये का
मोबाइल तो खरीदकर दे देते हैं। हर महीने उसमें 200-400 रुपये का रिचार्ज भी करा
देते हैं। पर कभी किताब नहीं देते। हिंदी भाषा भाषी के पास पढ़ने का संस्कार ही
नहीं है। मुफ्त में भी पढ़ने का संस्कार नहीं है, पैसे से खरीदकर पढ़ने का तो है
ही नहीं। किताबें उपहार में नहीं दी जातीं। पहले तो खरीदी ही नहीं जातीं। कोई
खरीदकर भी दे दे तो पढ़ी नहीं जातीं। प्रकाशक का ये दोष है कि वह पाठक तक किताब
पहुंचाने का कोई प्रयास नहीं करता। बल्कि कहना चाहिए पहुँचने भी नहीं देता।

            लेखक की यह समस्या है कि वह पाठक तक
पहुंचे कैसे? ऐसे में यही बचता है कि आप फेसबुक के जरिये या सोशल मीडिया के जरिये
ऐसे लोगों को ढूंढें। साहित्य के पाठक तैयार करें। दरअसल हमारे यहाँ पढने या जानने
कि कोई जिज्ञासा ही नहीं है। अब तो एक बहाना यह हो गया है न पढ़ने के लिए कि सब
कुछ तो इंटरनेट में मौजूद है। दरअसल आम हिंदी भाषा भाषी समाज ने कभी भी खुद को
कलाओं से, साहित्य से, एक्सप्रेशन से नहीं जोड़ा है। आम आदमी ने तो बिलकुल भी नहीं
जोड़ा है। आपको हैरानी होगी कि इस समाज में अभी भी कोई लड़की उपन्यास पढ़े तो उसे अय्याशी
माना जाता है। उपन्यास पढ़ना लिखना तो बहुत दूर की बात है। कोई लड़की उपन्यास पढ़ती
है तो उसके घर वाले ही हिकारत से कहेंगे सारा दिन नावेल पढ़ती रहती है। यानी
उपन्यास पढना भी एक अच्छी बात नहीं मानी जाती। 

लोकमित्र – आखिर
पढ़ने के मामले में हिंदी समाज इतना रुखा, इतना निरपेक्ष
, इतना जड़
विहीन क्यों है ?
सूरज
प्रकाश –
दरअसल हुआ क्या हमारे यहाँ जितने भी विदेशी हमले हुए
वो पंजाब की तरफ से हुए। ऐसे में हमारी प्रियारिटी सारी औरतों की इज्ज़त बचाने या
लड़ने में या फिर उनको रसद पहुंचाने में लगी रही।

लोकमित्र – चलो
पंजाब हरियाणा के लिए तो ये बात मान लेते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश तो पंजाब नहीं है।
फिर वहाँ भी ऐसी ही जड़ता क्यों है? 
सूरज
प्रकाश
– नहीं लोक साहित्य में वहां थोड़ी सी सजगता है बाकी मुख्य
धारा के साहित्य में वही उदासीनता है। हाँ, बिहार में है इस तरह की चेतना। पता
नहीं नालंदा की धरती होने की वजह से है या किसी और वजह से।

लोकमित्र – कहने का
मतलब आपने साइबर की दुनिया बहुत सोच समझकर चुनी है ?
सूरज
प्रकाश
– जी हाँ, मेरा
मानना है कि इसके जरिये मैं ज्यादा लोगों तक पहुँच सकता हूँ।

लोकमित्र –
साइबर जगत कमोबेश पूरी दुनिया के लिए एक जैसा है? तो क्यों न माना जाये
साइबर साहित्य में पूरी दुनिया में एक समरूपता होगी?
सूरज
प्रकाश –
देखिये हम एक रिमोट युग में जी रहे हैं। ये बड़ा
खतरनाक यंत्र है। जब हमारे पास एक चैनल हुआ करता था तब हम पूरा चैनल देखते थे।
सुबह से शाम तक। जब रेडियो हुआ करता था तो हम रात का आखिरी गाना यानी राष्ट्र गीत
तक सुना करते थे। लेकिन जैसे जैसे चॉइस आयी, चयन आया
, हम चैनल
बदलते हैं। …और अक्सर ऐसा होता है कि सारे चैनल देखकर हम वापस आ जाते हैं और बंद
कर देते हैं। हम  कहते हैं कि कुछ मन का
दिखा ही नहीं है। फेसबुक में भी यही है कि हम तेजी से चैनल बदलते रहते हैं। अगर आप
कुछ पोस्ट करें साहित्य में तो वह
, वहां नहीं पढ़ा जाएगा लेकिन यदि आप लिंक दे दें कि
इसके जरिये यहाँ पहुँचिये तो जो इच्छुक हैं वो पहुँचते हैं। लेकिन फेसबुक के भी
तमाम संकट हैं जैसे यहाँ सब कुछ परोसा जा रहा है। मैंने क्या खाया। मैंने क्या
पीया। मेरी टांग कैसे टूटी। कहने का मतलब ..सब कुछ। यह एक प्रकार की अति है और
फेसबुक इस तरह की अति का शिकार है क्योंकि यह सर्वसुलभ है और मुफ्त है। जिस दिन
पैसे लगने लगेंगे लोग बंद कर देंगे। लेकिन तमाम लोग सीरियस भी हैं।

मैं नहीं मानता कि साइबर जगत के
साहित्य से कोई भू मंडलीय समरूपता आने वाली है क्योंकि सबके अपने निजी अनुभव हैं
और वो अनुभव साइबर जगत के ही नहीं हैं उसके बाहर के हैं। लोगों का यानी लेखकों और
रचनाकारों के साइबर जगत में भी अलग अलग विचार समूह हैं या कहें दोस्त समूह हैं।
ठीक वैसे ही जैसे साइबर जगत की मौजूदगी के पहले थे। इसलिए मुझे नहीं लगता कि किसी रूसी,
अमरीकी, केन्यन और हिन्दुस्तानी लेखक का लेखन एक जैसा हो जाएगा क्योंकि वो सब
साइबर जगत में सक्रिय हैं। ये विविधता आज की ही तरह कल के कहीं ज्यादा सक्रिय
साइबर समाज में भी बनी रहेगी। ये भी बात मानकर चलिए कि कई धाराएं हमेशा एक साथ
चलती हैं। कई उम्र के पाठक एक ही समय में पढ़ रहे होते हैं तो कई उम्र के लेखक भी
एक ही समय में सक्रिय होते हैं। एक ही समय में कई किस्म की विचारधाराएँ भी सक्रिय
होती हैं। सब अपने अपने पसंद की चीजों को ढूंढ लेते हैं, छांट लेते हैं। कहने का
मतलब यह कि यह विविधता बनी रहेगी। हाँ मैं यह जरूर कहूँगा साइबर जीवन में या साइबर
संस्कृति में इंटरेक्‍शन काफी बढ़ा है। और मैं इसे बहुत पॉजिटिव मानता हूँ। इसके
जरिये आपको ऐसे ऐसे सच मालूम होते हैं जिनकी आप कल्पना नहीं कर सकते। इससे आप बहुत
अनुभव सम्‍पन्‍न होते हैं।

लोकमित्र – जैसे
जीवन शैली के रोग पैदा हो गए हैं वैसे ही कई बार नहीं लगता कि साइबर जगत में अतिशय
निकटता से भी कुछ रोग पैदा हो गए हैं जिनमें से ज्यादातर नकली हैं या कहें कि इस
माध्यम की देन ज्यादा लगते हैं।
सूरज
प्रकाश
[मुस्कुराते हुए] हर बार सही भी नहीं, हर बार गलत भी
नहीं। दोनों चीजें हैं। लेकिन आम तौर पर दुःख ज्यादा है और वह वास्तविक है। कोई
सुनने वाला नहीं है। आप किसी पार्क चले जाइए वहां बहुत सारे बूढ़े चुपचाप बैठे मिल
जायेंगे। ये जब भी बात करते हैं आप पायेंगे कि अपने दुखों की बात करते हैं। दरअसल
उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन उन्हें कोई सुनने वाला नहीं है। फेसबुक
आपको सुनने वाला देता है। आपको इससे बहुत बड़ी राहत मिलती है कि आपको कोई सुन रहा है।
ठीक है लोग झूठ बोल रहे हैं लेकिन सारे लोग झूठ नहीं बोल रहे। सारे लोग सच भी नहीं
बोल रहे। ये भी बात है इस इन्ट्रेक्शन से कुछ बिगड़न भी होगी। आभासी दुनिया में
मिलने वाले मन के साथी से आप वास्तविक दुनिया में भी मिलते हैं। आप बेकाबू भी हो
सकते हैं। आप धोखा भी दे सकते हैं। कई बार इससे क्राइम भी होता है।

लोकमित्र – क्या
ऐसा वक़्त आएगा जब साइबर जगत भी अमर पात्र देगा जैसे प्रिंट के होरी और धनिया हैं?
सूरज
प्रकाश
– हम होरी और प्रेमचंद के युग को नहीं जी रहे। हाँ, साइबर जगत
अपने युग के बड़े पात्र देगा। लेकिन जरूरी नहीं है कि उनकी तुलना अतीत के महान
पात्रों से संभव ही हो सके। मेरी कहानी लहरों की बांसुरी एक टर्निंग पॉइंट हो सकती
है। इसमें आज़ादी का एक बिगुल है। आज महिलाएं बहुत मुखर होकर अपनी बात कह रही हैं।
ऐसे पात्र इसी दौर से ही निकल सकते हैं। संचार का यह निर्णायक युग है। स्त्री को
इससे बहुत फायदा हो रहा है। वह निरंतर आजाद हो रही है। पुरुष उसे आज़ादी दे रहा है।
बल्कि मैं कहूँगा उसे देनी पड़ रही है। भले वह अपनी बीवी को नहीं दे रहा पर किसी और
की बीवी को दे रहा है। दरअसल यह खुली हवा में सांस लेने का मामला है। साइबर जगत के
जरिये बड़े पैमाने में औरतों को खुली हवा में सांस लेने का मौका मिला है। यह पहला
ऐसा मौका घर के भीतर रह रही औरत को मिला है कि चाहे तो वह पूरी दुनिया में शामिल
हो जाए चाहे तो इसे बाय बाय कह दे। यह इस आभासी दुनिया की सबसे बड़ी वास्तविक ताकत
है। मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि तमाम ओछेपन के बावजूद
, तमाम शॉर्टकट
के बावजूद
, फेसबुक या सोशल मीडिया हमें बेहतर दुनिया की ओर ले
जा रहा है। क्योंकि अज्ञानता से यहाँ आपका काम नहीं चल सकता। आपको अपडेट होना ही
पड़ता है। सोशल मीडिया हमें अंधकार से बाहर निकाल रहा है। ..और महिलायें इस मुहिम
की हिरावल हैं।

mail@surajprakash 09930991424
लोकमित्र गौतम

[जनकृति के अंक चार में प्रकाशित]

नीलोत्पल मृणाल की रचनाएँ

0
14359009 1200275910040007 6098662381932915774 n
दालमोठ भर कटोरी रखा है सामने/ नीलोत्पल
मृणाल
रात-रात
भर जागते रहिये
टुकुर-टुकुर
ताकते रहिये
दालमोठ
भर कटोरी रखा है सामने
हल्का-हल्का
फांकते रहिये
आपसे
न किसी का सुख बाँटा जाएगा
ना
ही आपसे किसी का दुःख बाँटा जाएगा
आप
खिलाड़ी हैं बस तास बाँटते रहिये
दालमोठ
भर कटोरी ……………………..
सबको
देने वाले सुलतान की
बेबसी
तो जरा देखिये
सबसे
बढ़ा के हाथ
खैनी
मांगते रहिये
दालमोठ
भर कटोरी…………..
किसी
बहाने तो आये
आपकी
आँख में आँसू
बादशाह
चाक़ू लीजिये
प्याज
काटते रहिये
दालमोठ
भर कटोरी…….
आपसे
किसी के पेट की
ना
आग बुझाई जायेगी
आप
बस शराब में
पानी
डालते रहिये
दालमोठ
भर कटोरी…….
हाथों
में हुनर गज़ब का है
निशाना
चूकता नहीं आपका
उछल-उछल
के मच्छर मारते रहिये
दालमोठ
भर कटोरी…….
बड़े
नाजुक हैं आप
आपसे
ना दरिया में तैरा जाएगा
कूद-कूद
के नाली टापते रहिये
दालमोठ
भर कटोरी…………
आपसे
फटी मुफलिसी में
किसी
पैबंद की उम्मीद नहीं
आप
बस रेशम में टांका टांकते रहिये
दालमोठ
भर कटोरी रखा है सामने
हल्का-हल्का
फांकते रहिये

आगे सुनिए उनके गीत उनकी कविता उनकी आवाज़ में- 

उनकी लेखनी यहाँ भी-
http://globalgumti.com/category/%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B2/

अलका पाण्डेय की रचनाएँ

0
IMG 20170107 WA0005
1-
अनवरत प्रेम गंगा…
कलकल बहती
अनवरत प्रवाहित होती
आत्मा से मन कि ऒर..
प्रेम गंगा।
आत्मा के उच्च शिखरों
पर
हिमखंडों से द्रवित
आँखों के मार्गों से
होते हुए
ह्रदय  को सींचती 
हुई
मन के समंदर मैं
स्थिर होती
तरंगित होती प्रेम
गंगा
मन के अथाह समंदर से
कसौटियों पर कसती
आजमाइशों  की  धूप
खाती
वाष्पित होती शिखरों
पर चढ़ती
फिर जमकर हिम होती
प्रेम गंगा।
तुम
एक प्रेम गंगा का
पर्याय
आत्मा से मन के सफर
में हमसफ़र
मन के मंथन में
कंधे से कंधे लगाये
कभी तूफानों में  हाथ में 
हाथ
दिलाते एक अहसास
अनवरत प्रेम गंगा का।
…………………………………………………

2-
स्त्री और नदी ..
स्त्री  क्या नदी हो तुम ?
कभी पहाड़ो की ऊंचाई
से गिर कर  बहती हो ..
कभी मैदानों मैं शांत
भाव से कल कल निनाद करती हो
,
कभी बहुत शोर ,तो कभी शांत हो जाती हो ,
कभी सागर मैं जाकर
मिलती हो
तो कभी मरुस्थल मैं
विलीन हो जाती हो
,
स्त्री और नदी मैं
समानताएं हैं बहुत ..
जीवनदायनी होती हैं
दोनों ..
दोनों ही बहती हैं
जीवन की लय  मैं
स्त्री  क्या नदी हो तुम ?
…………….

3-
स्त्री जीवन
जिस घर मैं आँखें
खोलीं थीं
बचपन जिस घर मैं बीता
था..
उस घर मैं ही तो पराई
हूँ…
मातृ छाँव मैं बचपन
बीता
मैं पितृ छाँव न जान
सकी.
,
सखियों के संग बचपन
बीता
है शिक्षा क्या अनजान
रही..
सहसा ही मुझको ज्ञात
हुआ..
अब उम्र विवाह की आयी
है
जाना अब पति के घर
होगा
इस घर से तो मैं पराई
हूँ
,.
एक भोर हुई जाना ही
पड़ा
एक सीख साथ मैं ये भी
थी
हैं द्वार बंद आने के
सब
इस घर से डोली उठती
है
वो घर तेरा अब सबकुछ
है
उस घर से अर्थी उठती
है..
आँखों मैं आंसू अनगित
भर
एक स्त्री चली जाती
है ..
घर गलियां अपनी छोड़
आज
अनजानी नगरी आती
है…
मन मैं भरी कौतूहल है
विस्मय भी इसमें आन
मिला
कैसा ये स्त्री जीवन
है.
?
जिसमें न कभी अधिकार
मिला..
था जनम लिया मैंने
जिस घर मैं
बचपन जिस घर मैं बीता
था
अधिकार वंहा कभी मिला
नही..
तो यंहा बात भी क्या
करना
,,?
जब एसा ही स्त्री
जीवन है तो
अधिकारों का भी क्या
करना ..
?
संपर्क:
1322, मुखर्जी
नगर, नई दिल्ली-
110009
दूरभाष: 9458282019
ईमेल- alkapandey15011987@gmail.com

कविता की समकालीन संस्कृति: आलोचना- भरत प्रसाद

0
IMG 20170105 201656 071

कविता की समकालीन संस्कृति: आलोचना

 प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ
18, इंस्टीट्यूशनल एरिया,नयी दिल्ली

ग्रेशम का सिद्धांत ( व्यंग्य कथा ): शक्ति प्रकाश

0
shakti
ग्रेशम का सिद्धांत (
व्यंग्य कथा )
तो मैं संपादक बन
चुका हूँ, जो मेरे वरिष्ठ हैं उन्हें आश्चर्य के साथ कुढ़न हुई होगी, लेकिन फेसबुक
पर उनके बधाई सन्देश आ रहे हैं, वे मुझे इसके योग्य घोषित कर रहे हैं. नवलेखकों की
आंते मरोड़ ले रही होंगी लेकिन उनके संदेशों में बधाई के अलावा और भी कुछ है, उनके
अनुसार मेरे समकालीन वरिष्ठ मुझसे तुलना के योग्य नहीं रहे, वे प्रोपेगंडा और चमचई
से यहाँ तक पहुंचे हैं और मैं योग्यता से. अब मैं दिवंगत व्यंग्यकारों से तुलना के
योग्य हो चुका हूँ. कुछ को तो मेरे संपादक बनने से हिंदी साहित्य में क्रांति की
उम्मीदें हैं, बुर्जुआ का पतन होने वाला है और सबको समान अवसर मिलने वाले हैं. खैर
अपनी योग्यताओं और सीमाओं के बारे में मुझे कोई खुशफहमी नहीं, मैं जानता हूँ कि
व्यंग्य लेखन के लिए तीन गुणों का होना अनिवार्य है- ज्ञान, ऑब्जरवेशन और कल्पना
शक्ति. इनकी महत्ता भी इसी क्रम में है, यानी सबसे पहले ज्ञान जो मेरे पास बहुत
सीमित मात्रा में है, यहाँ ज्ञान का मतलब सिविल इंजीनियरिंग में कॉलम या बीम
डिजाईन करना नहीं है, ज्ञान का मतलब देशी विदेशी साहित्य, समाज शास्त्र, अर्थ
शास्त्र, दर्शन, धर्म, इतिहास, भूगोल से है, जो मेरे पेशे और व्यस्त नौकरी के कारण
मैं पर्याप्त मात्रा में हासिल नहीं कर पाया . अब आप कहेंगे कि जब मेरे पास
व्यंग्य की पहली योग्यता पर्याप्त मात्रा में नहीं तो लिखता क्यों हूँ? जवाब ये कि
मेरे पास बाकी दो तो हैं, कई के पास एक भी नहीं फिर भी लिख ही रहे हैं और छप भी
रहे हैं. हालाँकि मैं इस कमी को अपने लेखन में ज्ञान की बातें न करके छिपा जाता
हूँ और बाकी दो से काम चला लेता हूँ फिर भी छिप नहीं पाता और इस बारे में सब जानते
हैं, इस मसले पर सब एक राय हैं कि मेरा लेखन कस्बाई है, जिसे पढ़ने में मजा तो आता
है लेकिन कोट करने लायक नहीं. लेकिन जो भी हो अब मैं संपादक हूँ, सवाल ये कि मैं
संपादक हूँ किसका? और किस प्रकार बना? ये समझाने के लिए मुझे फ़्लैश बैक में जाना
होगा.

बात करीब पच्चीस साल
पुरानी है, पढ़ाई पूरा करने के बाद मैं नौकरी की प्रतीक्षा कर रहा था यानी बेरोजगार
था, बेरोजगारी में मेरी मित्रता नगर के कुछ मान्यता प्राप्त रंगदारों से भी हुई तो
मेरे पड़ोसी और आस पास के लोग मुझे भी रंगदार मानने लगे थे, मुझे भी इसमें कभी
ऐतराज नहीं रहा क्योंकि रंगदार समझा जाना बेरोजगार समझे जाने से हर सूरत बेहतर था.
मोहल्ले में चोरी चकारी या छेड़ छाड़ होने पर सारे बेरोजगारों के चरित्र प्रमाणपत्र
उनके पड़ोसियों से सत्यापित कराये जाते मगर मुझसे कोई पूछता तक न था. हालाँकि मेरे
कब्ज़े में दो वोट भी नहीं थे पर सभासद के चुनाव में हमेशा, विधान सभा चुनाव में
अक्सर, लोक सभा चुनाव में कभी कभार, गालिबन हर दल के प्रत्याशी मुझसे राम राम करने
आते, इंग्लिश शराब की क्रेट भी लाते, जो ईमानदारी से मैंने कभी नहीं ली. दूकान
वाले मुझे उधार देने में सम्मान महसूस करते थे, रिक्शे वाले मुझे रिक्शे में बैठाने
के लिए आपस में झगड़ते थे. इसी माहौल में एक दिन लगभग सोलह साल का ग्यारहवीं में
पढ़ने वाला एक लड़का मेरे पास आया था. उसकी बड़ी बहन पिछले दो साल से दसवीं में
अंग्रेजी में फेल हो रही थी और इस बार उसका सेण्टर हमारे मोहल्ले के हाई स्कूल में
पड़ा था, लड़का दूर की रिश्तेदारी भी लाया था जिसके अनुसार वह हमारी भाभी का दूर का
भाई होता था, मुझे वह मुलाकात याद है और इसलिए खास याद है कि तीन दिन बाद मेरा
साक्षात्कार उसकी बहन से हुआ था, सुन्दर थी, बल्कि इतनी सुन्दर कि पहली मुलाकात
में मुझे उन परीक्षकों पर क्रोध आया था जो उसे दो साल से फेल कर रहे थे. हालांकि
नकल की तलबगार होने के बावजूद उसने मुझमें कोई रूचि नहीं दिखाई फिर भी मैंने उसकी
मदद की थी, यूँ  उसका निवेदन सिर्फ
अंग्रेजी में नकल कराने का था पर मैंने स्कूल के हेड मास्टर के पांव छूकर भाईसाब
की साली को पास कराने का आशीष माँगा तो मेरे रंगदार होने के भ्रम के चलते इतने में
ही हेडसाब निहाल हो गए और उसे हर विषय में नकल मिली नतीजतन उसकी छे में से पांच
विषय में विशेष योग्यता थी, सबसे कम नंबर उसके अंग्रेजी में ही थे, फिर भी इकसठ या
बासठ तो थे ही, कुल मिलाकर वह सम्मान सहित उत्तीर्ण हुई थी. बाद में मैंने भाभी से
बात चलाने के लिए मक्खन लगाया तो उस तक बात पहुँचने के पहले ही भाभी ने मुझे वह दर्पण
दिखा दिया जिसमे मेरी बेरोजगारी, रंगदारी और सूरत साफ साफ दिख रहे थे, तब मुझे लगा
कि नकल वाकई बुरी चीज़ है और इसे तत्काल प्रभाव से बंद होना चाहिए.  

खैर वो लड़का होशियार
था, जब तक बहन परीक्षा देती वो हमारे घर पर बैठकर पढ़ता था, बाद में वह लड़का
आई.ए.एस. बना तो भाभी के पास भी कहने के लिए ‘अपना राहुल’ आ गया था, भले ही वो
मुझे हमेशा भैया कहता रहा था लेकिन लोगों को बताने के लिए मेरा एक साला आई.ए.एस
था. आज कल वह संस्कृति मंत्रालय में सेक्रेटरी था, पिछले दिनों पुस्तक मेले में
अपनी किताब का हश्र देखने के लिए मैं दिल्ली गया था, जो देखने गया वह संतोष जनक
नहीं था तो ख्याल आया कि अपना राहुल भी यहीं है उससे ही मिल लिया जाय. तब मैं उसके
मंत्रालय गया, उसके आई.ए.एस. बनने के बाद हमारी यह पहली मुलाकात थी, किन्तु वह मुझे
भूला नहीं था.
‘ आइये भैया,
नमस्कार’ वह खड़ा हुआ
‘ नमस्ते राहुल, कमाल
है पच्चीस साल बाद भी पहचान लिया’
‘ सही बताऊँ तो जब
आपने गेट पास लिया तब फोन आ गया था. आप खासे तंदुरुस्त हो गए हैं, बिना सूचना के
मिलते तो शायद…. लेकिन भूलने लायक तो आप हैं नहीं, उस वक्त आपने काफी मदद की थी
हमारी’
‘ छोडो यार, नकल
कराना भी कोई मदद है ?’ मैं हंसा, जैसे कल की बात रही हो  
‘ अरे नहीं भैया,
दीदी को दसवीं कराना जरूरी था, दो साल से इंग्लिश में लुढ़क रही थी जो दसवीं में
कम्पलसरी थी, उसके बाद इंग्लिश छोड़ दी, फिर बी.ए. एम.ए. पी.एच.डी., मॉरिशस में
प्रोफेसर हैं जीजाजी, दीदी भी वहीँ लग गईं, बहुत सुखी हैं, आपको अक्सर याद करती
हैं, हाथरस वाले भैया की नेचर, कोऑपरेशन की तारीफ आज भी करती हैं’
‘ बड़प्पन है उनका’
मैंने बेहद सभ्यता से कहा, हालाँकि मुझे पच्चीस साल पहले की गई गलती का बेहद मलाल
था, यदि वह दो साल और फेल होती तो भाभी की हिम्मत मुझे दर्पण दिखाने की न होती,
खुद भाभी भाई साब को मनाती और वह मॉरिशस युनिवर्सिटी की प्रोफेसर मेरे लिए करवा
चौथ का व्रत रख रही होती खैर… तभी राहुल के असिस्टेंट ने अन्दर प्रवेश किया –
‘ सर अमुक जी का पत्र
आया है’
‘ क्या लिखा है?’
‘ वो सर ऑनरेरियम
बढ़ाने का लिखा है, नहीं तो वे असमर्थ हैं’
‘ ठीक है जाओ, चाय
भिजवा देना’
‘ ये अमुक जी तो बड़े
साहित्यकार हैं?’ उसके जाते ही मैंने पूछा
‘ काहे के बड़े? हिंदी
की दो कौडिये हैं, नहीं मिलता तो पेट पीटते हैं, पेट भर दो तो आपके दरवाजे के
सामने ही हगते हैं’ वह हिकारत से बोला
‘ अरे नहीं सम्मान के
योग्य हैं’
‘ छोडिये भैया, आप
कैसे आये दिल्ली?’
‘ यूँ ही’ मैंने उसकी
निगाहों में हिंदी लेखकों का सम्मान देखते हुए कहा
‘ यूँ ही को किसके
पास इतना वक्त है, बताइए शायद मैं आपका अहसान उतार सकूं’ वह हंसा
‘ तब रहने ही दो’ मैं
हंसा
हालाँकि वह अहसान को
बीच में न घुसेड़ता तो शायद मैं उसके मंत्रालय की लाइब्रेरी के लिए दस बीस किताबें
खरीदने की बात कह सकता था, क्योंकि मेरा अहसान ज्यादा बड़ा था, मेरी वजह से आज उसकी
बहन विदेश में थी और यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर भी, उस अहसान को इतनी आसानी से नहीं
उतारा जा सकता. खैर उसे गलती का ख्याल आया –
‘ मेरा मतलब था
रिश्तेदार होते किस लिए हैं, आप कभी भी मदद मांगेंगे मैं हाज़िर हूँ’
‘ कुछ नहीं आज कल मैं
भी हिंदी लेखक हो गया हूँ’ मैं हंसा
‘ अरे ? और नौकरी?’
उसे मेरी मूर्खता पर यकीन नहीं हुआ
‘ वो भी है, एक किताब
छपी थी उसे ही देखने आया था पुस्तक मेले में’ मैं हंसा
‘ तब ठीक है, ये तो
अच्छी बात है, नाम और प्रकाशक लिखकर दे दीजिये दस बीस कॉपी मंगवा लूँगा, उधर दीदी
भी मंगवा लेंगी और हाँ मेरा मसला भी हल हो गया’ उसने सहानुभूति में चैन की साँस ली
‘ कौन मसला?’
‘ अरे वही अमुक जी
वाला, स्साले के दिमाग ख़राब हो गए हैं, हमारी त्रैमासिक पत्रिका है, उसमे आधा मैटर
तो मंत्रालय का होता है, बाकी कविता, कहानी, व्यंग्य वगैरा के लिए एक ऑनरेरी
संपादक होता है जिसे मैटर कलेक्ट करना होता है, संपादन करना होता है एक इशू के दस
हज़ार देते हैं हम, करना कुछ नहीं, अब आपके अमुकजी को रकम कम लग रही है, यूँ मैं
दीदी को संपादक बना दूं पर ब्लड रिलेशन है, आपको बना देते हैं’
‘ मैं?’ मैंने
आश्चर्य से कहा
‘ रकम कम है?’
‘ अरे नहीं यार मैं
इस योग्य नहीं’ ये मैंने शिष्टाचार में वास्तविकता बयान की  
‘ किताब लिखी है ना? बड़े
प्रकाशक ने छापी है ना? बहुत है’
‘ नहीं भाई, संपादन
काफी बड़ी जिम्मेदारी है’
‘ अजी घंटा, लाओ मैं
करूँ संपादन’
‘ संपादन का मतलब
प्रूफ चेक हो तो कर लोगे मगर रचना का मूल्यांकन?’
‘ वो किसे करना है?
अमुक जी भी चेले चंटी को ही छापते थे’
‘ मगर मेरे पास तो
चेले चंटी कुछ नहीं’
‘ मैं आपको लैटर देता
हूँ, उसे स्कैन करके फेसबुक और ट्विटर पर डाल देना, मिनट में तेरह की दर से चेले
बनेंगे’
‘ मगर योग्यता?’
‘ कैसी योग्यता? किसी
चायवाले की जानकारी होती है पी.एम. बनने लायक? अवसर का लाभ लो भैया, अच्छा यदि आपने
दीदी को नकल न कराई होती तो वह पी.एच.डी. कर पाती? उसकी शादी मॉरिशस के प्रोफेसर
से होती? वह प्रोफेसर होती? लेकिन वो है, अब किसके पैंदे में गूदा है कि उसकी
योग्यता पर सवाल उठाये? सवाल योग्यता का नहीं अचीवमेंट का है, अब आप कहें कि आपने
उसे नकल कराई थी तो आपका ही मजाक बनेगा, अब अपने बायो डेटा में आप ठोंक कर संपादक
संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार लिख सकते हैं, हमारी वेब साईट पर आपका फोटो होगा और
आप जैसे नवलेखक के लिए यह उपलब्धि ही होगी, ये लीजिये’

उसके बाद उसने मेरे
उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की और पत्र में से अमुक जी का नाम हटाकर मेरा नाम लिख एक
प्रति मुझे पकड़ा दी जिसकी स्कैन कॉपी मैं फेसबुक और ट्विटर पर डाल चुका हूँ.
हालांकि फेसबुक पर मैं बिलकुल भी मशहूर नहीं दोस्तों की संख्या भी करीब दो सौ है,
जिनमे करीब पचास मेरे सहकर्मी हैं, पचास रिश्तेदार और परिचित, पचहत्तर मित्रो के
मित्र, शेष पच्चीस नवलेखक और वरिष्ठ. हालाँकि मेरे स्तर के कई मित्रों के पांच
पांच हज़ार मित्र भी हैं, पर मेरे पास न इतना समय है और न धैर्य कि चालीस हज़ार को
फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजूं और तब चार हज़ार मित्र बनाऊं, मुझे तो राम राम का जवाब न
मिले, कोई फोन न उठाये तो पच्चीस साल पहले का अपना रंग याद आ जाता है, जी करता है
इग्नोर करने वाले के गाल पर चार छे सूंत दूं, पर वक्त और हैसियत के मद्दे नज़र सब्र
करना होता है. हालाँकि किताब छपने के बाद कुछ मित्रों की राय पर मैंने सौ डेढ़ सौ
फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी और सात आठ का जवाब भी आया था, बाद में पता चला कि वे सब
भी मेरे जैसे ही थे. तब से मैं न फालतू फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजता हूँ न अपरिचितों को
स्वीकार करता हूँ और अब तो फ्रेंड रिक्वेस्ट आती भी नहीं. परसों जब से मैंने
संस्कृति मंत्रालय के पत्र की प्रति चिपकाई है मेरे पास साढ़े सात सौ फ्रेंड
रिक्वेस्ट आ चुकी हैं, मेरे व्यंग्य जो फेसबुक पर मैंने डाले हैं और जिन्हें अधिकतम
 बारह लाइक मिलने का पिछला रिकॉर्ड था, उन
पर लाइक तीन से चार गुने हो गए हैं, हालांकि तीन चार बड़े लोगों ने मुझे अनफ्रेंड
भी कर दिया है, पर साढ़े सात सौ की तुलना में ये नगण्य है.
मैं संपादक हो चुका
हूँ, पिछले दो दिन में मेरे पास अढ़ाई सौ सन्देश और बहत्तर रचनाएँ आ चुकी हैं अभी
डेड लाइन खत्म होने में तेरह दिन बाकी हैं, ये संख्या कहाँ पहुंचेगी मुझे अंदाज़ा
नहीं, लेकिन दिक्कत ये है कि चौदह रचनाएँ मेरे सहकर्मी, मित्र और रिश्तेदारों की
हैं, अधिकतर कवितायेँ हैं, इनमे से किसी की हैसियत –‘खत लिखता हूँ खतावार हूँ,
बीवी बच्चे मर गए खुद बीमार हूँ’ से अधिक नहीं, एकाध कहानी भी है जिसका प्लाट
टी.वी. सीरियल ‘हमारी बहू ललिता’ के बहत्तरवें एपिसोड से अठानवे फीसद मेल खाता है,
आप शक न करें कि मुझे सीरियल पसंद हैं, कुछ सीरियल खाने के वक्त आते हैं, आपके पास
भागने का भी विकल्प नहीं होता. एकाध व्यंग्य भी है जो कई जगह से कट पेस्ट किया गया
है और कुल मिलाकर यह हरिशरद शुक्ल जैसे किसी व्यंग्यकार का बन गया है और किसी मतलब
का नहीं रहा, बेहतर था कि वह किसी एक का लिखा ही भेज देता और मेरे न पढ़ा होने की
सूरत में मैं एक रिश्तेदार को तो ओब्लाईज़ कर सकता था. मैं जानता हूँ कि यही रचनाएँ
मुझे अधिक दुःख देने वाली हैं, ये वे लोग हैं जिनकी रचना न छापने की सूरत में
रचनाकार का सामना मुझे बार बार लगातार करना है और ये सामना कभी भी व्यक्तिगत
शत्रुता के स्तर पर पहुँच सकता है. हालाँकि मुझमे मना करने का नैतिक साहस होना
चाहिए, लेकिन हो नहीं सकता क्योंकि मैं भी व्यक्तिगत संबंधों से बना संपादक हूँ.

जो नवलेखकों या
कवियों की रचनाएँ है, वे मैंने अभी देखी नहीं, उनके साथ लगे पत्र सभी पढ़ लिए हैं,
इनमे से आधे लोगों ने मेरा सद्य: प्रकाशित उपन्यास पूरा पढ़ा है जबकि प्रकाशक के
अनुसार अभी तक चालीस प्रतियाँ ही बिकी हैं जिनमे मैं जानता हूँ कि तीस मेरे विभाग
ने ही खरीदी हैं, चार मेरे मित्रों ने. खैर उन्होंने वाक्य कोट किये हैं तो मानना
पड़ेगा, लेकिन उन्होंने जो वाक्य कोट किये हैं वे मेरे उपन्यास के सबसे साधारण  वाक्यों में से हैं, अब आप कहेंगे जिन्हें मैं साधारण
खुद स्वीकार कर रहा हूँ वे वाक्य मैंने लिखे ही क्यों थे, भाई साब चार सौ पेज के
उपन्यास का हर वाक्य कालिदास की सूक्ति तो नहीं हो सकता, खुद कालिदास का हर वाक्य
सूक्ति नहीं, उपन्यास में बहुत अच्छे वाक्य भी थे उनमे से एक भी कोट नहीं किया गया
था. मुझे याद आ रहा है मेरे उपन्यास की एक समीक्षा तथाकथित जी ने लिखी थी जो एक मैगजीन
में छपी भी थी, चूंकि यह समीक्षा मेरे बहुत पीछे पड़ने पर लिखी गई थी, तथाकथित जी
लिखना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने जान बूझकर बहुत साधारण वाक्य उठाये थे और एकाध
वाक्य में सम्पादन की कलाकारी किताब छपने के बावजूद दो शब्द अपनी मर्जी से जोड़कर कर
दी थी, जिससे वह वाक्य घटिया और अश्लील लग रहा था. शर्तिया इन सभी लोगों ने वह
समीक्षा पढ़ ली है. नव लेखिकाओं ने फोटो भी भेजे हैं, इनमे कुछ फोटो बेहद मोहक हैं,
ऐसा लग रहा है मानो मैंने किसी मोडलिंग कंपनी की पत्रिका के लिए आवेदन मांगे हों.
कुछ के पत्र प्रेम पत्र होने के काफी नजदीक हैं, यदि ये मेरी पत्नी के पल्ले पड़
जाएँ तो भले मेरे डर से कुछ न कहे पर मेरी गैर मौजूदगी में मेरी दराज अवश्य खोलना
चाहेगी. इस सब से मेरी समझ नहीं आ रहा कि हिंदी लेखन जिसमे न पैसा है, न प्रसिद्धि
और न ग्लैमर उसके लिए ऐसे फोटो, ऐसे निवेदन दिल पर पत्थर रख कर ही भेजे होंगे, जब
दिल पर पत्थर ही रखना है तो मुंबई जाकर सीरियल अभिनेत्री का संघर्ष झेलने में क्या
बुराई  है?  पुरुष लेखकों ने मेरी तारीफ के जो कृत्रिम पुल बांधे
हैं, उनसे मैं सहमत तो नहीं प्रफुल्लित अवश्य हूँ लेकिन उन्हें ये मुगालता क्यों
है कि एक सरकारी पत्रिका में छपने से वे मोहन राकेश या नागार्जुन बन जायेंगे. खैर
ये उनकी सरदर्दी है मेरी तो तारीफ ही है.

तेरह दिन बाद मुझे
रचनाओं का चयन करना है, जहाँ तक व्यंग्य का प्रश्न है, परसाई जी के अलावा मुझे
अपने लिखे व्यंग्य ही सर्वाधिक अच्छे लगते हैं, फिर भी अच्छे बुरे व्यंग्य की
पहचान तो मुझे है, इतना तो है कि चार में से एक निकाल सकूं, कहानी भी देख ली
जाएँगी पर कविता मेरे पल्ले नहीं पडतीं उसमे भी नई कविता? मेरे हिसाब से नई कविता
आलसियों का उपक्रम है, न पिंगल, न तुक, न छंद, न रस, न अलंकार. पहले एक बढ़िया सा
निबंध लिखो, छप जाये तो ठीक, न छपे तो उसके पैराग्राफ उठाकर बेतरतीब हिज्जे बना दो
जैसे –  
हम
लांच करेंगे एक योजना
बहकने
वाले युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए
समाज
आबादी बलात्कार योजना
होगा
जिसका नाम
हर
गाँव में चिन्हित किये जायेंगे कुछ खेत, खलिहान, बुर्जी, बिटोरे
ये
होंगे उन लोगों के
जिन्होंने
हमें नहीं दिया था वोट पिछले चुनाव में
उन
पर किया जायेगा कब्ज़ा
पुआल
आदि बिछाकर इस योग्य बनाएगी हमारी ब्रिगेड उस जमीन को
कि
किसी प्रकार का कष्ट न हो बलात्कारी को
पूरा
ध्यान रखा जायेगा इस बात का
कि
जो हमें देंगे वोट
उनकी
लड़कियों पर नहीं बहकेगा कोई
यदि
हमे वोट देता हो पूरा गाँव
तो
मदद की जाएगी लड़कियां उठवाने में
पड़ोसी
गाँव, तहसील, जिला, प्रदेश और  देश से भी

दरअसल
ये नई कविता नहीं मेरे व्यंग्य का एक पैराग्राफ है, जो तोड़ मरोड़कर लिखा गया है, उस
व्यंग्य में ऐसे बीस पैराग्राफ थे, यदि मैं चाहता तो दो घंटे में ऐसी बीस कवितायेँ
लिख सकता था और एक पूरे दिन में काव्य संग्रह. मुझे ये नई कविता निबंध ही नज़र आती
है पर दिक्कत ये कि अब कोई पुरानी कविता लिखता नहीं. पिंगल या बहर की बात करते ही
आस्तीने चढ़ाने लगते हैं भाई लोग. ये सब मैंने आपको तो बता दिया है किन्तु सार्वजनिक
स्वीकारोक्ति में मुझे दिक्कत हो सकती है, खैर इसके लिए मुझे किसी की मदद लेना
होगी, मैं जानता हूँ कि मदद एक से मांगूंगा तेरह फोन आ जायेंगे क्योंकि जिसे मैं
फोन करूंगा वह छब्बीस को बता चुका होगा. तो ठीक है मैं अपने परिवार की ही मदद
लूँगा, मेरा बेटा आठवीं में पढ़ता है, सब्जी भाजी ले आता है, साइकिल से स्कूल भी
चला जाता है, कुशाग्र भी है, टी.वी.सीरियल्स से चिढ़ता है, सिर्फ कार्टून और
डिस्कवरी देखता है. आप कहेंगे कि संपादन के लिए ये सारी बातें योग्यता किसतर हैं?
दरअसल मैंने डिग्री कॉलेज की एक महिला लेक्चरर को अपनी आठवीं में पढ़ने वाली बेटी
से बी.ए. फायनल की कॉपी चेक कराते हुए देखा था, मेरी आपत्ति पर उन्होंने ऐसी ही
कुछ योग्यताएं अपनी बेटी में बताई थीं. मेरा बेटा तब चौथी में पढ़ता था, तभी से
मेरे मन में भी इच्छा थी कि मैं भी अपने बेटे की योग्यताएं साबित करूँ, मेरे पास
यूनिवर्सिटी की कॉपी तो आने वाली नहीं, यही सही. वैसे भी कुछ स्थापित लोगों की कविता
आ ही जाएँगी उनमे क्या चेक करना, एक दो नव लेखक या लेखिका को छापना है, हो जायेगा,
फिकर नॉट, मैं अपनी पीठ ठोंकता हूँ.

अचानक
राजेश जी का फोन आता है, राजेशजी मेरे पहले परिचित साहित्यकार हैं और मेरे प्रशंसक
भी. अब तक तेरह साहित्यकार मेरी मुफ्त कॉपी जीम चुके हैं, समीक्षा छोडिये फेस बुक
तक पर जिक्र नहीं किया, इस भले आदमी ने मेरी किताब खरीदी थी और उसकी समीक्षा रीजनल
पेपर और फेस बुक पर छापी भी थी. लोग उन्हें दक्षिणपंथी मानते हैं पर मुझे इससे कोई
भी फर्क नहीं, मेरे लिए वे अच्छे व्यक्ति पहले हैं उनका पंथ बाद की बात, वे कुछ भी
देंगे मैं छापूंगा.

कैसे हैं सत्यकाम जी’ वे पूछते हैं

एकदम बढ़िया, आप सुनाएँ’

फेस बुक पर तो बधाई दे दी मैंने सोचा फोन पर भी…’

कैसी बात करते हैं राजेश जी, आप क्यों औपचारिक होते हैं’

नहीं सर अब तो संपादक हैं आप’

तो संपादक क्या भगवान का बेटा होता है?’ मैं सगर्व कहता हूँ

बेटा? बाप समझते हैं भाई लोग, मगर आपकी बात अलग है आप तो शुरू से डाउन टू अर्थ
हैं’

और सुनाइए?’ भले उनका अहसान हो पर मैं चाहता हूँ कि एक बार वे भी निवेदन करें

अरे सर तहलका मचा है साहित्य जगत में, क्या पटखनी दी है आपने अमुकजी को’

अरे नहीं भैया, उन्हें ऑनरेरियम कम लग रहा था, चिट्ठी लिखी थी, अब सरकारी संस्था
में बारगेनिंग थोड़े होती है, उन्होंने हमे बना दिया’

मगर सर आपने बताया नहीं इतनी पहुँच है आपकी?’

अरे सा….साल भर पहले एक व्यंग्य भेजा था, इन्होने छापा नहीं, सेक्रेटरी के पल्ले
पड़ गया उसने प्रभावित होकर बुला भेजा बस’ मैं संभलता हूँ क्योंकि गर्वित होने में
सच निकलते निकलते बचा है

अरे? ऐसा लाख में एक बार होता है, फिर तो वाकई साहित्यप्रेमी आदमी है’ साफ है वे
उत्तर से संतुष्ट नहीं

हाँ भला ही लगा’

सुना है अलीगढ का है’ वे कुरेदते हैं

अलीगढ का तो उप राष्ट्रपति भी है’ मैंने व्यंग्य में कहा, वे मेरे पक्ष के हैं
उन्हें ये अन्वेषण नहीं करना चाहिए

खैर, बहुत कुढ़े हुए हैं भाई लोग, कुछ ने तो आपको अनफ्रेंड भी कर दिया’ वे हँसते
हैं

अरे आपको भी पता चल गया’

पता? हमें तो ये भी पता चल गया कि आपके खिलाफ मुहिम भी छिड़ी है कि आपकी मैगजीन में
सीनियर्स रचनाएँ न भेजें’

क्यों?’

क्योंकि आपने गलत तरीके से अमुकजी से पत्रिका छीनी है’

क्या गलत था भाई? इन्होने असमर्थता जताई, मुझे अवसर मिला मैंने लपक लिया’

वे कहते हैं आपको अमुकजी से अनुमति लेनी चाहिए थी’

अमुकजी मुझे जानते तक नहीं, तब अनुमति का क्या मतलब?’

यही तो जलन है सर जिसे लोग ठीक से  जानते
तक नहीं वह सम्पादन करेगा?’

जानने से क्या
? सवाल ये है कि सामने वाला
योग्य है या नहीं’ ये कहते हुए मेरी जुबान हलके से कांपती है 

अरे सर आपकी योग्यता का मैं कायल हूँ, पर स्थापित लोग माहौल बना रहे हैं आपके
खिलाफ’

रचनाएँ नहीं देना है, न दें, अपना ही नुक्सान करेंगे, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और
बच्चन की छापने से रोक लेंगे? मान देय बचेगा और इनसे अच्छा तो नए लोग लिख रहे हैं’

वो तो है, मैंने एक कहानी भेजी है सर’

आप कुछ भी भेजिए राजेश जी, स्पष्ट गाली गलौज न हो, सब छपेगा’

ठीक सर शुभकामनायें’
मैं
लैप टॉप खोलता हूँ तैतीस रचनाएँ, दो सौ बारह फ्रेंड रिक्वेस्ट, बाईस बधाईयाँ और
मिलती हैं, मैं  स्वीकार करता हूँ, अब मुझे
अपना काम शुरू कर देना चाहिए, मैं रचनाएँ देखता हूँ तो दो वरिष्ठ उनमे हैं, मैं
बिना देखे राजेश जी के साथ उन्हें भी सलेक्ट कर लेता हूँ. अब मैं रिजेक्शन करने
वाला हूँ, पहले बिना पढ़े रिजेक्शन वाला साहित्य खोजता हूँ. ये..ये पुस्तक मेले में
मिला था मगर उम्र में छोटा होने के बावजूद इसने नमस्ते नहीं की, इससे मैंने
समीक्षा लिखने के लिए तीन बार कहा पर इसने नहीं लिखी, इसकी बुआ मेरे पुश्तैनी गाँव
में शत्रु पक्ष में ब्याही है, इस लडकी की सूरत अच्छी नहीं, ये अमुक जी के स्टेटस
पर हमेशा कमेंट करती है, ऐसे बयालीस कारण मैं खोज लेता हूँ और बयालीस लोगों को
बिना देखे राईट टू रिजेक्ट के अधिकार का प्रयोग कर रिजेक्ट कर देता हूँ. फिर हर
रचना की दो लाइन या एक पैरा पढ़कर पैंतालिस नव लेखकों को और रिजेक्ट कर देता हूँ.
आज के लिए इतना काफी है.
मैं
सुबह सोकर उठता हूँ, राहुल  का फोन आ जाता
है

कैसे हैं भैया?’

अच्छा हूँ, काफी मेटर आ गया है’

वो ठीक है, आज आप फ्री हैं? दिल्ली आ पाएंगे?’

तुम कहोगे तो आ जाऊँगा’

तो आ जाइये’
मैं
तीन घंटे में दिल्ली पहुँचता हूँ, राहुल मेरा ही इंतजार कर रहा है

आइये भैया’ वह घंटी बजाकर चाय का आदेश देता है

कुछ इमरजेंसी थी?’

कुछ खास नहीं’ कहकर वह कुछ अखबार मेरी ओर बढ़ाता है
उन
अखबारों में कुछ ख़बरें हैं, जिनमे  संस्कृति मंत्रालय में चल रहे भ्रष्टाचार खास
तौर पर पत्रिका के संपादक को लेकर राहुल पर कीचड उछाला गया है. हैडिंग कुछ इस
प्रकार हैं  –‘ संस्कृति मंत्रालय में
संपादक की खरीद फरोख्त’, ‘ जो लिखना नहीं जानते वे बनेंगे संपादक’, ‘ रिश्तेदारी
निभा रहे सचिव महोदय’

अरे? मगर रिश्तेदारी का कैसे पता चला इन्हें?’

आप आये थे, तब ऑफिस वालों के सामने भैया कहा था आपको, इनमे से किसी ने बका होगा’

अब?’

अब क्या? अमुक जी को सहलाना होगा’

मतलब ?’ मैं आशंका से भयभीत होता हूँ

मतलब, उसे भी इन्वोल्व करना होगा’

अब तुम बेइज्जती कराओगे यार?’ मैं असहाय होता हूँ

नहीं भैया नेगोशिएशन करेंगे’

मैं तो एक ही नेगोशिएशन जानता हूँ यार, जो हम ठेकेदारों से करते हैं’

ये भी तो ठेकेदार हैं’ वह हँसता है

कमाल है? तुम इतने बड़े अधिकारी और दो रूपये के अख़बार से डर गए’

मैं नहीं डरा, साला मंत्री पोंक गया, कहता है इलेक्शन है’

तुमने बताया नहीं कि अमुकजी ने चिट्ठी दी थी?’

बताया, वह कहता है कि अमुकजी ने मना किया तो उसकी बराबरी का विमुखजी पकड़ते, तुमने
रिश्तेदार ही पकड़ लिया’

रिश्तेदारी साबित करें’

भैया वो पत्रकार हैं, कुछ भी साबित कर देंगे, गधे के सर पर सींग भी, फिर
रिश्तेदारी तो है, एक बार हमारे और आपके गाँव जाने की देर है कुछ भी ले आयेंगे, हो
सकता है ये भी कि आपने दीदी को नकल कराई थी, उसके बाद जो ये हगेंगे न मैं बर्दाश्त
कर पाऊँगा न आप’

यार प्रपोजल तो तुम्हारा ही था, मुझे ही कब खुजली थी संपादक बनने की?’ मैं खीजता
हूँ

हाँ, मुझे पता नहीं था कि वो हरामी पत्रकार भी है, इन स्सालों ने हर जगह कब्ज़ा
किया हुआ है, अख़बार, टी.वी. साहित्य, राजनीति, खैर आपकी बेइज्जती नहीं होगी,
बुलाया है उसे’
चाय
आ जाती है, थोड़ी देर मौन रहता है, हम चाय सुड़कते हैं, अचानक अमुकजी अपने दो चेलों
के साथ अन्दर घुसते हैं और ‘नमस्कार सर’ कहकर बेफिक्री से कुर्सी पर जम जाते हैं,
हालाँकि वे मुझे किसी अन्य परिस्थिति में मिलते तो मैं चरण स्पर्श अवश्य करता पर
इस समय हम प्रतिद्वंदी हैं, मैं उनकी ओर देखता भी नहीं.

बताएं सर’ वे राहुल की ओर देखते हैं, बदले में राहुल उनके चेलों को, अमुकजी समझ
जाते हैं

तुम लोग बाहर बैठो’ वे आदेश देते हैं, चेले निकल जाते हैं

आप सत्यकाम जी’ राहुल मेरा परिचय कराता है
वे
मुझे ऊपर से नीचे तक घूरते हैं

तो तुम हो सत्यकाम? आगरा से हो? नाम सुनने में नहीं आया कभी?’

कमाल है कितना तो सुन लिया’ मैं हँसता हूँ

इस घटना के पहले नहीं सुना’

इनकी किताब माहेश्वरी प्रकाशन ने छापी है’ राहुल कहता है

इन्होने अच्छा लिखा होगा पर ये प्रकाशक तो पैसे लेकर किसी को भी छाप देते हैं’ वे
कहते हैं

छापते तो संबंधों और धौंस पर भी हैं’ मैं कहता हूँ

छोडिये, मतलब की बात करें’ राहुल बीच में बोलता है

कीजिये’ अमुक जी कहते हैं

आप क्या चाहते हैं?’

हम क्या चाहते हैं आपको पता है’ वे कहते हैं

आपने खुद असमर्थता जताई थी’

ठीक है मगर आपको भी तो बात करना चाहिए थी, कल को पत्नी आत्महत्या की धौंस दे तो
उसका गला दबा देंगे आप?’ वे विद्रूपता से हँसते हैं

गला तो नहीं दबायेंगे लेकिन विकल्प मौजूद हो तो मरने से रोकेंगे भी नहीं’

अरे बड़े निष्ठुर हैं आप?’ वे खिलखिलाते हैं

काहे का निष्ठुर? यदि बीवी को दिक्कत है तो संवाद करे, मरने की धौंस देने वाली को
तो मर ही जाना चाहिए’

भले उससे बढ़िया विकल्प मौजूद न हो’

मेरा विकल्प मैं तय करूंगा’

तब बुलाया क्यों है सर?’  वे मुस्कराते हैं

क्योंकि आप अख़बारबाजी कर रहे हैं, कपड़े फाड़ रहे हैं, मेरे भी अपने भी और इनके भी,
आपको इसकी आदत हो पर मुझे नहीं है, अब आप बराय मेहरबानी काम की बात करें’ वह खीजता
है

चलिए, मैं उसी मानदेय में तैयार हूँ, बात इज्ज़त की है’

और ये?’ वह मेरी ओर इशारा करता है

आप समझिये’

आप समझिये मतलब? आपकी इज्ज़त इज्ज़त इनकी केजरीवाल का गाल?’ वह उत्तेजित होता है

आप रास्ता निकालिए’

ये इशू ये ही निकालेंगे, अगला इशू आप देख लीजिये’

इशू ब्रेक होने में भी अच्छा नहीं लगेगा, इन्हें अतिथि संपादक बना दीजिये’
राहुल
मेरी ओर देखता है, मैं बोलता हूँ –

जो रचनाएँ मैंने मंगा ली हैं वे?’

इस इशू में रचनाएँ तुम्हारी रहेंगी, कम पड़ें तो मैं दे दूंगा, मानदेय बाँट लेंगे,
आपस की बात है’ वे कुशल व्यापारी की तरह कहते हैं, उनकी वैश्यवृत्ति से मुझमें भी
प्रेरित कम्पन होते हैं –

इसके अलावा आप मेरी किताब की समीक्षा लिखकर दो चार जगह छपवा देंगे तो मुझे भी
अच्छा लगेगा’

अब तो अपने आदमी हो यार, खुद लिख लाना, हमें तो पढ़ने की फुर्सत है नहीं, छपवा
देंगे अपने नाम से’

एक और निवेदन था आपके चेले चंटी इसे फेस बुक, ट्विटर पर मुद्दा न बनायें’ मैं
हथियार डालता हूँ

जब हमारे साथ नाम छपेगा तब तुम भी हमारे चेले ही हुए, क्यों बनायेंगे?
हा..हा..हा…’
वे
छठवीं शताब्दी के किसी धार्मिक नेता की तरह गर्दन पर तलवार रख, मुझे घुटनों पर
लाकर अपने समुदाय में शामिल करते हैं, मुझसे और राहुल से हाथ मिलाकर निकल जाते
हैं, उनके जाने के बाद मैं राहुल से कहता हूँ –

तुमने तो जगदम्बिका पाल बनवा दिया यार’

सॉरी भैया, मैं कम्पनसेट कर दूंगा, बहुत काम है मेरे पास लेखकों और कवियों के लिए’
वह मुस्करा कर मेरा कन्धा दबाता है  
मैं
चला आता हूँ, घर आकर मैं लैप टॉप खोलता हूँ, फ्रेंड रिक्वेस्ट अभी भी आ रही हैं,
रचनाएँ अभी भी आ रही हैं, पर मेरी रूचि अब उनमें नहीं, मैं अमुक जी को फ्रेंड
रिक्वेस्ट भेजता हूँ, उनका एक चेला जो फेस बुक पर मेरा मित्र है उसका स्टेटस मेरी
वाल पर अचानक चमकता है –

बादशाह जहाँगीर की जान एक बार एक भिश्ती ने बचाई थी, बदले में उसने बादशाह से एक
दिन का राज्य माँगा और उस एक दिन में उसने चमड़े के सिक्के चला दिए थे. आप कल्पना
कर सकते हैं कि आज भी ऐसा हो सकता है…..’
उस
पर तीन सौ लाइक हैं, पैंतीस करीब कमेंट्स भी, जिनमें अमुक जी का भी कमेंट है  –‘हा..हा…हा..’ साफ़ है  कि अमुक जी वादाखिलाफी कर रहे हैं , मुझे रहा
नहीं जाता,  मैं भी कमेंट करता हूँ  –
‘ वैसे
ये किस्सा शायद हुमांयू का है लेकिन वो भिश्ती अपने समय से बहुत आगे था हुज़ूर,
उसने चमड़े के सिक्के सोलहवीं शताब्दी में चलाकर बादशाह को अर्थ शास्त्र समझाया था,
बादशाह नासमझ था तो इसमें भिश्ती का दोष नहीं उस भिश्ती की सोच पर ही इक्कीसवीं
शताब्दी में कागज़ की मुद्रा चल रही है, जो चमडे से भी सस्ती है’
मैं
खीजते हुए, ये लिखकर लैपटॉप बंद कर देता हूँ पर उनका मुंह कभी बंद नहीं कर सकता जो
आइन्दा वक्त में ग्रेशम को भी भिश्ती बताएँगे, जिसने कहा था –‘बुरी मुद्रा अच्छी
मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है’
(कथादेश जुलाई 2016 में प्रकाशित)
16
पुष्प दीप एन्क्लेव फेज़-1
सिकंदरा
बोदला रोड, आगरा
उ.प्र.
282007
shaktiprksh@yahoo.co.in
9412587989
       

सफ़दर हाशमी जी की पुण्यतिथि पर उनकी कुछ रचनाएँ

0
23ndmpSudhanva 23 1404587g
किताबें

किताबें करती हैं बातें
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की।
खुशियों की, गमों
की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
सुनोगे नहीं क्या
किताबों की बातें?
किताबें, कुछ तो कहना
चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़िया दीखे चहचहाती,
कि इनमें मिलें खेतियाँ लहलहाती।
किताबों में झरने मिलें गुनगुनाते,
बड़े खूब परियों के किस्से सुनाते।
किताबों में साईंस की आवाज़ है,
किताबों में रॉकेट का राज़ है।
हर इक इल्म की इनमें भरमार है,
किताबों का अपना ही संसार है।
क्या तुम इसमें जाना नहीं चाहोगे?
जो इनमें है, पाना
नहीं चाहोगे
?
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!
………………………
मच्छर पहलवान

बात की बात
खुराफत की खुराफात,
बेरिया का पत्ता
सवा सत्रह हाथ,
उसपे ठहरी बारात!
मच्छर ने मारी एड़
तो टूट गया पेड़,
पत्ता गया मुड़
बारात गई उड़।
………………………
पिल्ला

नीतू का था पिल्ला एक,
बदन पे उसके रुएँ अनेक।
छोटी टाँगें लंबी पूँछ
भूरी दाढ़ी काली मूँछ।
मक्खी से वह लड़ता था,
खड़े-खड़े गिर पड़ता था!
………………
राजू और काजू

एक था राजू, एक
था काजू
दोनों पक्के यार,
इक दूजे के थामे बाजू
जा पहुँचे बाजार!
भीड़ लगी थी धक्कम-धक्का
देखके रह गए हक्का-बक्का!
इधर-उधर वह लगे ताकने,
यहाँ झाँकने, वहाँ
झाँकने!
इधर दूकानें, उधर
दूकानें
,
अंदर और बाहर दूकानें।
पटरी पर छोटी दूकानें,
बिल्डिंग में मोटी दूकानें।
सभी जगह पर भरे पड़े थे
दीए और पटाखे,
फुलझड़ियाँ, सुरीं,
हवाइयाँ
गोले और चटाखे।
राजू ने लीं कुछ फुलझड़ियाँ
कुछ दीए, कुछ बाती,
बोला, ‘मुझको
रंग-बिरंगी
बत्ती ही है भाती।
काजू बोला, ‘हम तो भइया
लेंगे बम और गोले,
इतना शोर मचाएँगे कि
तोबा हर कोई बोले!
दोनों घर को लौटे और
दोनों ने खेल चलाए,
एक ने बम के गोले छोड़े
एक ने दीप जलाए।
काजू के बम-गोले फटकर
मिनट में हो गए ख़ाक,
पर राजू के दीया-बाती
जले देर तक रात।
……………………………….

पहली बारिश 
रस्सी पर लटके कपड़ों को सुखा रही थी धूप.
चाची पिछले आँगन में जा फटक रही थी सूप।
गइया पीपल की छैयाँ में चबा रही थी घास,
झबरू कुत्ता मूँदे आँखें लेटा उसके पास.
राज मिस्त्री जी हौदी पर पोत रहे थे गारा,
उसके बाद उन्हें करना था छज्जा ठीक हमारा.
अम्मा दीदी को संग लेकर गईं थीं राशन लेने,
आते में खुतरू मोची से जूते भी थे लेने।
तभी अचानक आसमान पर काले बादल आए,
भीगी हवा के झोंके अपने पीछे-पीछे लाए.
सब से पहले शुरू हुई कुछ टिप-टिप बूँदा-बाँदी,
फिर आई घनघोर गरजती बारिश के संग आँधी.
मंगलू धोबी बाहर लपका चाची भागी अंदर,
गाय उठकर खड़ी हो गई झबरू दौड़ा भीतर.
राज मिस्त्री ने गारे पर ढँक दी फ़ौरन टाट.
और हौदी पर औंधी कर दी टूटी फूटी खाट.
हो गए चौड़म चौड़ा सारे धूप में सूखे कपड़े,
इधर उधर उड़ते फिरते थे मंगलू कैसे पकड़े.
चाची ने खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए सारे,
पलंग के नीचे जा लेटीं बिजली के डर के मारे.
झबरू ऊँचे सुर में भौंका गाय लगी रंभाने,
हौदी बेचारी कीचड़ में हो गई दाने-दाने.
अम्मा दीदी आईं दौड़ती सर पर रखे झोले,
जल्दी-जल्दी राशन के फिर सभी लिफ़ाफ़े खोले.
सबने बारिश को कोसा आँखें भी खूब दिखाईं,
पर हम नाचे बारिश में और मौजें ढेर मनाईं.
मैदानों में भागे दौड़े मारी बहुत छलांगें,
तब ही वापस घर आए जब थक गईं दोनों टाँगें।

साभार: कविता कोश मूल- दुनिया सबकी,  

सफ़दर हाशमी के जीवन और उनके कृतित्व पर आधारित पुस्तक आप यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं- 
8126702214 3

एक डॉक्टर की फ़रियाद(डॉ. सुभेंदु बाग़ की मूल बंगाल कहानी से अनुवाद)

0
wapt image 2762
wapt image 2762

उस समय रात के साढे बारह बज रहा था | सांस की तकलीफ के
इलाज के लिए  घंटा भर पहले परिमल बाबू  एक सरकारी अस्पताल में भर्ती हुए थे
|उनके साथ लगभग 15 शुभचिंतक भी
अस्पताल आये थे
| सब लोग बेचैन थे | डॉक्टर द्वारा उनका इलाज प्रारम्भ किया गया | इंजेक्शन दिया गया
,
नेबुलाइजर
चैलेंजेज रहा था
| लेकिन मरीज के सभी शुभचिंतक इस बात का जोर दे रहे थे कि सैलाइन
क्यों चालू नहीं किया गया है
| डॉक्टर बाबु के अनुसार उनकी स्थिति स्पष्ट नहीं है | यह हार्ट फेल का
मामला है
|
काफी
दिनों से उच्च रक्तचाप का सही इलाज न होने के कारण शायद उनकी यह स्थिति हुई है
| अस्पताल के बाहर
हलचल मचा हुआ था
| कोई अस्पताल की गन्दगी का रोना रो रहा था तो कोई हाथ में फोन
छुपाये मंद आवाज में अपने किसी परिचित से इलाज के नुख्से पूछ रहा था
,कोई परिमल बाबू के
बेटे को  फोन द्वारा उनकी खैरियत बता रहा
था और इस बात की ढींगे मार रहा था कि कैसे जल्दी से उन्हें अस्पताल लाया गया
, कोई मंद आवाज में
फोन पर कह रहा था कि जल्दी से इस झमेले से पीछा छुड़ाकर घर पहुँच जाएगा
| इसके साथ ही हर
मिनट नए रोगी को लाते हुए एम्बुलेंस के सायरन की गूँज उभर पड़ती
, कहीं प्रसव वेदना
से चीत्कार करती महिला और  जन्म लेते शिशु
के क्रंदन का शोर तो कहीं शरीर छोड़ जग से विदा 
हुए दिवंगत व्यक्ति के  स्वजनों का  आर्तनाद सुनाई दे रहा था
|  
   परिमल बाबू के भाई सुविमल बाबु शहर में रहते हैं | खबर मिलते ही भागे
आये
|
डाक्टरबाबू
से उनके अनियमित एवं लापरवाह चिकित्सा की बात 
सुनकर भाभी से  पूछ बैठे
| भाभी ने इस बात को
अस्वीकार करते हुए कहा
, “असंभव ! वो तो रोज दवा लेते थे | डाक्टरबाबू इलाज
नहीं कर पा रहे हैं इसलिए इस तरह का बहाना ढूंढ रहे हैं और फिर बार बार आग्रह के
बाद भी सैलाइन तक नहीं चढ़ा रहे हैं
|यहाँ कोई कार्डियोलोजिस्ट भी तो नहीं हैं | हम उन्हें किसी
अन्य अस्पताल ले जाएंगे
|” 
परिमल
बाबू का बड़ा बेटा पारिजात तबतक डाक्टरबाबू के पास जाकर बोला
, “पिताजी तो रोज दवा
लेते थे
|
है
प्रेशर कम भी हो   गया था 
| अगर आपको इलाज करना नहीं आता है तो कह
दीजिये
|
हम
उन्हें कहीं और ले जाएंगे
| कम से कम 
एक सैलाइन तो दे सकते हैं
|” डॉक्टर साहब कुछ लिख रहे थे | सिर उठाये बिना ही
बोले
,
सैलाइन
नहीं दिया जाएगा
| और इस समय उन्हें कहीं और रेफर भी नहीं किया जा सकता है | और हाँ, अबतक जो दवा
चैलेंजेज रही थी उसकी पर्ची दिखाइए
|” इतना कहकर दूसरे मरीज को देखने लगे | जल्दीबाजी में
पर्ची न ला सके
| उसके अलावा डाक्टरबाबू का जवाब मन को नहीं भाया तो दुखी होकर
पारिजात पास खड़े एक शुभचिंतक से किसी नेता का नंबर  लेकर फोन पर उसे सारी बात बताई
| बिजली की गति से
काम हुआ
|
अस्पताल
के फोन की घंटी बजी
| डाक्टरबाबू ने फोन उठाया | दूसरी तरफ से कड़कदार आवाज
में निर्देश
,
मैं
फलां दादा बोल रहा हूँ
| ये आपने क्या 
लगा रखा है
?सैलाइन भी नहीं देंगे , रेफर भी नहीं करेंगे ! लगता है पिछले बार
की घटना भूल  गए है
!!” डाक्टरबाबू के
जवाब देने
ke
पहले
ही फोन कट गया
|
अगर
यह कहानी यहीं ख़त्म हो जाती तो पाठक दो धड़े में बंट जाते
| पहले धड़े के लोग
अस्पताल  के अपने कटु संस्मरण के आधार पर
अस्पतालों को
नरकऔर डॉक्टरों को डकैतबताते हुए पास खड़े
लोगों से बातचीत कर रहे होते
|     
चलिए मान लेते है …………..की नेताजी की धमकी
से डॉक्टरबाबु  रोगी को तत्काल रेफेर कर
देते  और रास्ते  में मरीज  
की मौत   हो जाती है तो रोगी के
शुभचिंत सैलाइन न दिए जाने को  मौत का  कारण मानते हुए कहते कि पहले ही यदि रेफर कर
देते तो मौत नहीं होती और इस बात के लिए उस डॉक्टर  को अपराधी मानकर  नेताओं की मदद से डॉक्टर को प्रताड़ित करने
और  अस्पताल में तोड़फोड़ की घटना को अंजाम
देने पहुँच जाते
| इसके विपरीत चिकित्सा प्रोटोकॉल का अनुपालन करते हुए सैलाइन न
लगाकर सही इलाज का डॉक्टर ने प्रयास किया और उस इलाज से रोगी की स्थिति सुधार न हो
या स्थिति और बिगड़ने लगे
| इस स्थिति में भी मरीज के शुभचिंतकों एवं वोट बैंक
के लोभीयों द्वारा चिकित्सक  एवं अस्पताल
पर मरीज को रेफर न किये जाने का इल्जाम लगाते हुए तोड़फोड़ पर आमादा हो जाएंगे
| इसके विपरीत यदि
चिकित्सा का लाभ हो और चमत्कारिक ढंग से मरीज ठीक होने लगे तो चिकित्सक को लोग
भगवानबना देते हैं |
 चलिये अब चिकित्सा शास्त्र के अनुसार इसका विश्लेषण
करते हैं
:-
1. हार्टफेल की स्थिति में
इंट्रावेनस सैलाइन देना पूरी तरह से निषिद्ध है
| ऐसा करने से स्थिति और भी
बिगड़ सकती है तथा मौत होने की संभावना रहती है
|
2. प्रथमतः श्वांस की तकलीफ
से उत्पन्न स्थिति में समय पर इलाज न मिल पाने से रास्ते में ही मौत हो सकती है
| अतः रोगी को स्थिर
रखते हुए ऑक्सीजन देते हुए द्रुत गति से अस्पताल ले जाना आवश्यक है
| अर्थात चिकित्सक
की बात गलत नहीं है
, चिकित्सक सही भी हों तो अधिकांश मामलों में प्रथम धड़े के पाठक
वर्ग के लोग
चोर चोर मौसेरे
भाई

की
संज्ञा देते हुए अपनी बात करेंगे ही
| कुछ संवाददाता भी उनकी बात का समर्थन करते
हुए नकारात्मक बाते छापने को उद्द्यत रहते है पर कभी भी सकारात्मक उपलब्धि की बात
नहीं छापते हैं
| जिसके कारण प्रथम धड़े के पाठक डॉक्टर को डकैततथा अस्पताल को नरकजैसे shabd से संबोधित करते
हैं
|
वास्तव
में सही स्थिति के अनुसार इस कहानी के और भी कई आयाम हो सकते हैं
|  
चलिए ऐसे मामले के कुछ
छुपे हुए पहलू पर भी नजर दौड़ाते हैं
:-                  
1.  हो सकता है कि इलाज कर रहे चिकित्सक के लगातार सलाह
के बाद भी मरीज पास के किसी झोला छाप डॉक्टर से इलाज करवा रहा हो जो दवा के नाम पर
बस कुछ सामान्य  एंटासिड औषधि भर दे रहा हो
, तथा लाख मना करने
के बाद भी धूम्रपान की आदात न छोड़ रहा हो तथा अन्य चिकित्सकीय अनुदेशों का अनुपालन
न कर रहा हो
(जो ऐसे 80% मामलों में देखा
गया है
)|
2.
हो
सकता है कि अस्पताल में जरूरी संसाधनों एवं दवा का अभाव हो जिसके कारण चच कर भी
डॉक्टर द्वारा सही इलाज नहीं किया जा सका
(यह समस्या अधिकांश सरकारी
अस्पतालों में आम है
) |
3. इसके अलावा सरकारी
अस्पतालों में रोगियों की संख्या के अनुरूप चिकित्सकों की उपलब्धता नहीं है
| एक ही डॉक्टर कई
मरीज को देखता है
| अब विभिन्न रोगियों के शुभचिंतक विभिन्न प्रकार के अटपटे सवालों
से डॉक्टर को परेशान करने की आदत भी उसे अपना काम सही ढंग से करने में बढ़ा पहुंचता
है
|
ऐसे
में प्रथम धड़े के लोगों को लगता है डॉक्टर जान बूझ कर ऐसा कर रहे हैं
| और उन्हें अमानुष
तक की संज्ञा दे दी जाती है
|
4. इसके अतिरिक्त अन्य कारण
भी हैं …
एक धड़ा तथाकथित
उच्च शिक्षित लोगों का है जो इन्टरनेट के माध्यम से अधकचरा जानकारी लेकर चिकित्सक
पर अपना ज्ञान झाड़ने की कोशिश करते हैं तथा मरीज के घरवालों पर रोऊँ डालने या कुछ
अन्य स्वार्थ सिद्धि के कारण श्वांस की तकलीफ के मरीज को हार्ट फेल का केस क्यों
कहा जा रहा है
,
इसे
सी ओ पी डी का के क्यों नहीं कहा जा रहा है
, इम्फीसेमा नहीं हो सकता है
क्या
..जैसे असंख्य
बेतुके सवाल लेकर इलाज कर रहे चिकित्सक का ध्यान भटकाने का प्रयास करते हैं
| पेट के दर्द के
लिए पहले खरीदकर खुद दवा खाते  हैं फिर न
ठीक होने पर डॉक्टर के पैसेंजर्स जाते हैं तथा पेट के दर्द जैसे मामूली रोग को भी
बढ़ा चढ़ाकर बताएँगे पहले ही कहेंगे
सर किडनी में दर्द है  और फिर डॉक्टर को सही निदान के बारे में सोचने ही
नहीं देंगे
|

अर्थात
पूरी खेल खुद ही खेलेंगे
| गोल हो गया तो गोलकीपर अर्थात डॉक्टर को दोषी
ठहराएंगे
|
किसी
भी मरीज के अस्वभाविक मौत पर मातम भरा असहनीय परिवेश
, दमघोंटू राजनैतिक दबाव, कम वेतन,कार्यक्षेत्र में
अनुपयुक्त सुरक्षा
,दुष्कर रोगी एवं उसके असहयोगी परिजन, आसमान छूते दवाओं की कीमत, इन सबसे निपटते
हुए चिकित्सा करना और फिर चिकित्सक पर नैतिक जिम्मेदारी थोप दिया जाना
, यही सब तो चलता है
|

ऊपर
की घटना बस एक नमूना मात्र है
| सरकारी अस्पताल में कार्यरत हर चिकित्सक के जीवन
में यह रोज की घटना है
| तकलीफ की बात यह है कि इस समाज में कमोबेश सभी
डाक्टरी जानते हैं
, बस कुछ डिग्रीधारक चिकित्सक प्रवेश परीक्षा पास कर 5 साल की कड़ी मेहनत
से पढ़ाई कर इंटर्नशिप करते हैं फिर एक साल 
का हाउस स्टाफ़शिप करते हैं
|इसके बाद 
पुनः प्रवेश परीक्षा में बैठकर पोस्टग्रेजुएट बनने की तैयारी करते हैं
| प्रवेश परीक्षा
में सफल होने के बाद एमडी
/एमएस पास करते हैं | (इसके बाद डीएम, एमसीएच जैसी उच्च
शिक्षा भी है यह जान भी नहीं पाते हैं
|)कई मेघावी छात्र इस कठिन पढ़ाई के बोझ को
बर्दाश्त नहीं कर पाते और असमय ही आत्महत्या जैसा पाप कर बैठते हैं
|
ऐसे
में डॉ सुभाष मुखोपाध्याय जैसे कुछ चिकित्सक देश प्रेम की भावना से काम करने के
बावजूद समाज के  दबाव और  गलत नियम क़ानून के चक्कर में पड़कर असमय ही चल
बसते हैं
|
आजकल
आम जनता दक्षिण भारत के चिकित्सा संस्थानों पर अधिक विश्वास रखती है और इलाज के
लिए अक्सर दक्षिण का रुख करती है
| यदि निःस्वार्थ एवं अच्छी चिकित्सा सेवा की बात की
जाए तो डॉ बिधान चंद्र रॉय से लेकर प्रवाहप्रतीम डॉ शीतल घोष जैसे चिकित्सक इस
बंगाल की धरती पर ही मिलते हैं
|अर्थात हमारे यहाँ दक्षिण के व्यावसायिक मानसिकता
की चिकित्सा व्यवस्था जैसी सुविधा न होने के बावजूद मेघावी चिकित्सकों की यहाँ कमी
नहीं है
|
अब
ख़राब चिकित्सा व्यवस्था के लिए सरकारी चिकित्सक का कहाँ दोष होता है
| उसके नियंत्रण में
होता ही क्या है
? फिर गोलकीपर को ही दोष क्यों दिया जाता है ??

अब पहले धड़े के पाठकों से अनुरोध है कि हम जो दुसरे धड़े
या यूँ कहें कि गोलकीपर सदृश चिकित्सक हैं
, अन्य
सरकारी मुलाजिमों की तरह ऑफिस में प्रवेश करते ही अखबार नहीं पढ़ पाते हैं
, ना
ही तो आक्रोश व्यक्त करने के लिए हड़ताल का सहारा ले सकते हैं
| आपके
स्वस्थ्य के लिए सदा ही अपने घर
संसार  में  अशांति के माहौल में ही रहते हैं | बस
यही कहना चाहते हैं कि
भगवानबनकर आपकी सूझबूझ की परकाष्ठा का शिकार नहीं होना चाहते
हैं
| बस इतनी इच्छा है कि अन्य बुद्धिजीवी मनुष्यों की तरह से
हमें भी पूर्ण मर्यादा दिया जाए
|