युगवाणी -सुमित्रानंदन पंत

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    Yugvani Sumitranandan Pant

    युगवाणी सुमित्रानंदन पंत

    1. बदली का प्रभात

    निशि के तम में झर झर
    हलकी जल की फूही
    धरती को कर गई सजल ।

    अंधियाली में छन कर
    निर्मल जल की फूही
    तृण तरु को कर उज्जवल !

    बीती रात,…
    धूमिल सजल प्रभात
    वृष्टि शून्य, नव स्नात ।
    अलस, उनींदा सा जग,
    कोमलाभ, दृग सुभग !

    कहाँ मनुज को अवसर
    देखे मधुर प्रकृति मुख ?
    भव अभाव से जर्जर,
    प्रकृति उसे देगी सुख ?

    2. बंद तुम्हारे द्वार

    बंद तुम्हारे द्वार ?
    मुसकाती प्राची में ऊषा
    ले किरणों का हार,
    जागी सरसी में सरोजिनी,
    सोई तुम इस बार ?
    बंद तुम्हारे द्वार ?

    नव मधु में,-अस्थिर मलयानिल,
    भौरों में गुंजार,
    विहग कंठ में गान,
    मौन पुष्पों में सौरभ भार,
    बंद तुम्हारे द्वार ?

    प्राण ! प्रतीक्षा में प्रकाश
    औ’ प्रेम बने प्रतिहार !
    पथ दिखलाने को प्रकाश,
    तुमसे मिलने को प्यार !
    बंद तुम्हारे द्वार ?

    गीत हर्ष के पंख मार
    आकाश कर रहे पार,
    भेद सकेगी नहीं हृदय
    प्राणों की मर्म पुकार !
    बंद तुम्हारे द्वार ?

    आज निछावर सुरभि,
    खुला जग में मधु का भंडार,
    दबा सकोगी तुम्हीं आज
    उर में मधु जीवन ज्वार ?
    बंद तुम्हारे द्वार !

    3. बापू

    किन तत्वों से गढ़ जाओगे तुम भावी मानव को ?
    किस प्रकाश से भर जाओगे इस समरोन्मुख भव को ?
    सत्य अहिंसा से आलोकित होगा मानव का मन ?
    अमर प्रेम का मधुर स्वर्ग बन जाएगा जग जीवन ?
    आत्मा की महिमा से मंडित होगी नव मानवता ?
    प्रेम शक्ति से चि रनिरस्त हो जाएगी पाश्वता ?

    बापू ! तुमसे सुन आत्मा का तेजराशि आह्वान
    हँस उठते हैं रोम हर्ष से पुलकित होते प्राण !
    भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,
    जहाँ आत्म दर्शन अनादि से समासीन अम्लान !
    नहीं जानता, युग विवर्त में होगा कितना जन क्षय,
    पर, मनुष्य को सत्य अहिंसा इष्ट रहेंगे निश्चय !
    नव संस्कृति के दूत ! देवताओं का करने कार्य
    मानव आत्मा को उबारने आए तुम अनिवार्य ।

    4. भूत दर्शन

    कहता भौतिकवाद, वस्तु जग का कर तत्वान्वेषण :-
    भौतिक भव ही एक मात्र मानव का अंतर दर्पण !
    स्थूल सत्य आधार, सूक्ष्म आधेय, हमारा जो मन,
    बाह्य विवर्तन से होता युगपत् अंतर परिवर्तन !

    राष्ट्र, वर्ग, आदर्श, धर्म, गत रीति नीति भौ’ दर्शन
    स्वर्ण पाश हैं : मुक्ति योजना सामूहिक जन जीवन ।
    दर्शन युग का अंत, अंत विज्ञानों का संघर्षण,
    अब दर्शन-विज्ञान सत्य का करता नव्य निरूपण ।

    नवोद्भूत इतिहास-भूत सक्रिय, सकरण, जड़ चेतन
    द्वन्द्व तर्क से अभिव्यक्ति पाता युग युग में नूतन,
    अन्त आज साम्राज्यवाद, धनपति वर्गों का शासन,
    प्रस्तर युग की जीर्ण सभ्यता मरणासन्न, समापन !

    साम्यवाद के साथ स्वर्ण युग करता मधुर पदार्पण,
    मुक्त निखिल मानवता करती मानव का अभिवादन !

    5. धनपति

    वे नृशंस हैं : वे जन के श्रमबल से पोषित,
    दुहरे धनी, जोंक जग के, भू जिनसे शोषित !
    नहीं जिन्हें करनी श्रम से जीविका उपार्जित,
    नैतिकता से भी रहते जो अत: अपरिचित !

    शय्या की क्रीड़ा कंदुक है उनको नारी,
    अहंमन्य वे, मूढ़, अर्थबल के व्यभिचारी !
    सुरांगना, संपदा, सुराओं से संसेवित,
    नर पशु वे : भू भार : मनुजता जिनसे लज्जित !

    दर्पी, हठी, निरंकुश, निर्मम, कलुषित, कुत्सित,
    गत संस्कृति के गरल, लोक जीवन जिनसे मृत !
    जग जीवन का दुरुपयोग है उनका जीवन,
    अब न प्रयोजन उनका, अन्तिम हैं उनके क्षण ।

    6. दो लड़के

    मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर)
    दो छोटे-से लड़के आ जाते हैं अकसर !
    नंगे तन, गदवदे, साँवले, सहज छबीले,
    मिट्टी के मटमैले पुतले,-पर फुर्तीले !

    जल्दी से, टीले के नीचे, उधर, उतर कर
    वे चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ सुंदर,-
    सिगरेट के खाली डिब्बे, पन्नी चमकीली,
    फीतों के टुकडे, तस्वीरें नीली पीली
    मासिक पत्रों के कवरों की; औ’ बंदर-से
    किलकारी भरते हैं, खुश हो-हो अन्दर से ।
    दौड़ पार आँगन के फिर हो जाते ओझल
    वे नाते छ: सात साल के लड़के मांसल !

    सुदर लगती नग्न देह, मोहती नयन-मन,
    मानव के नाते उर में भरता अपनापन !
    मानव के बालक हैं ये पासी के बच्चे,
    रोम रोम मानव, साँचे में ढाले सच्चे !
    अस्थि मांस के इन जीवों ही का यह जग धर,
    आत्मा का अधिवास न यह,-वह सूक्ष्म, अनश्वर !
    न्योछावर है आत्मा नश्वर रक्त मांस पर,
    जग का अधिकारी हैं वह, जो है दुर्बलतर !

    वह्नि, बाढ़, उल्का, झंझा की भीषण भू पर
    कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर ?
    निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भंगुर जीवित जन,
    मानव को चाहिए यहाँ मनुजोचित साधन !
    क्यों न एक हो मानव मानव सभी परस्पर
    मानवता निर्माण करें जग में लोकोत्तर ?
    जीवन का प्रासाद उठे भू पर गौरवमय,
    मानव का साम्राज्य बने,-मानव हित निश्चय !

    जीवन की क्षण-धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित,
    रक्त मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित !
    -मनुज प्रेम से जहाँ रह सकें,-मानव ईश्वर !
    और कौन सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर ?

    7. दो मित्र

    उस निर्जन टीले पर
    दोनों चिलबिल
    एक दूसरे से मिल,
    मित्रों-से हैं खड़े,
    मौन, मनोहर !

    दोनों पादप
    सह वर्षातप,
    हुए साथ ही बड़े
    दीर्ध, सुदृढ़तर !

    पतझर में सब पत्र गए झर,
    नग्न, धवल डालों पर
    पतली, टेढ़ी टहनी अगणित
    शिरा जाल सी फैली अविरल,-
    तरुओं की रेखा छवि अविकल
    भू पर कर छायांकित !

    नील, निरभ्र गगन पर
    चित्रित-से दो तरुवर
    आँखों को लगते हैं सुंदर,
    मन को सुखकर !

    8. झंझा में नीम

    सर् सर् मर् मर्
    रेशम के-से स्वर भर,
    घने नीम दल
    लंबे, पतले, चंचल,
    श्वसन स्पर्श से
    रोम हर्ष से
    हिल हिल उठते प्रतिपल !

    वृक्ष शिखर से भू पर
    शत शत मिश्रित ध्वनि कर
    फूट पड़ा, लो, निर्झर,-
    मरुत,-कम्प्र, अर…
    झूम झूम, झुक झुक कर,
    भीम नीम तरु निर्भर
    सिहर सिहर थर् थर् थर्
    करता सर् मर्
    चर् मर् !

    लिप पुत गए निखिल दल
    हरित कुंज में ओझल,-
    वायु वेग से अविरल
    धातु पत्र-से बज कल !
    खिसक, सिसक, सांसें भर,
    भीत, पीत, कृश, निर्बल,
    नीम दल सकल
    झर झर पड़ते पल पल !

    9. जीवन स्पर्श

    क्यों चंचल, व्याकुल जन ?
    फूट रहा मधुवन में जो सौन्दर्योल्लास,
    कलि कुसुमों में राग रंगमय शक्ति विकास,-
    आकुल इसीलिए जन-जन-मन !
    दीड रही रक्तिम पलाश में जीवन ज्वाल,
    आम्र मौर में मदिर गंध, तरुओं में तरुण प्रवाल !
    विहग युग्म हो विह्वल सुख से आप
    पंखों से प्रिय पंख मिला करते मृदु प्रेमालाप-
    अखिल विघ्न, भय, बाधाएं कर पार
    शीत, ताप, झंझा के सह बहु वार,
    कौन शक्ति सजती जीवन का बासंती श्रृंगार ?
    सभी उसी के हेतु विकल मन,
    उसी शक्ति का पाने जीवन स्पर्श,
    रोम रोम में भरने विद्युत हर्ष, चिर चंचल, व्याकुल जन !

    10. कृषक

    युग युग का वह भारवाह, आकटि नत मस्तक,
    निखिल सभ्य संसार पीठ का उसके स्फोटक !
    वज्र मूढ़, जड़ भूत, हठी, वृष बांधव कर्षक है
    ध्रुव, ममत्व की मूर्ति, रुढ़ियों का चिर रक्षक !
    कर जर्जर, ऋण ग्रस्त, स्वल्प पैत्रिक स्मृति भू-धन,
    निखिल दैन्य, दुर्भाग्य, दुरित, दुख का जो कारण;-
    वह कुबेर निधि उसे,-स्वेद सिंचित जिसके कण,
    हर्ष शोक की स्मृति के बीते जहाँ वर्ष क्षण !

    विश्व विवर्तनशील, अपरिवर्तित वह निश्चल,
    वही खेत, गृह-द्वार, वही वृष, हँसिया औ’ हल !
    स्थावर स्थितियों का शिशु, स्थावर, स्वाणु कृपीबल,
    दीर्घसूत्र, अति दुराग्रही, साशंक औ’ वृपल ।
    है पृनीप संपत्ति उसे दैवी निधि निश्चित,
    संततिवत् गो वृषभ, गुल्म, तृण, तरु चिर परिचित !
    वह संकीर्ण, समूह कृपण, स्वाश्रित, पर पीड़ित,
    अति निजस्य प्रिय, शोधित, लुंठित, दलित, क्षुधार्दित !

    युग युग से नि:संग, स्वीय श्रमबल से जीवित
    विश्व प्रगति अनभिज्ञ, कूप तम में निज सीमित
    कर्षक का उद्धार पुष्प इच्छा है कल्पित;
    सामूहिक कृषि काय-कल्प, अन्यथा कृषक मत !

    11. कृष्ण घन !

    मुसकाओ हे भीम कृष्ण घन !
    गहन भयावह अंधकार को
    ज्योति मुग्ध कर चमको कुछ क्षण ।

    दिन् विदीर्ण कर, भर गुरु गर्जन,
    चीर तड़ित् से अन्ध आवरण,
    उमड़ घुमड़, घिर रूम झूम, हे,
    बरसाओ नव जीवन के कण !
    घूम घूम छा निर्भर अंबर,
    झूल झूल झंझा झोकों पर,
    हे दुर्दम उद्दाम, हरो
    भव ताप, दाप, अभिमत कर सिंचन !

    इंद्रचाप से कर दिशि चित्रित
    बर्हभार से केकी पुलकित,
    हरित भरित हे करो धरणि को
    हो करुणार्द्र, घोर वज्र स्वन !

    12. मध्यवर्ग

    संस्कृति का वह दास : विविध विश्वास विधायक,
    निखिल ज्ञान, विज्ञान, नीतियों का उन्नायक !
    उच्च वर्ग की सुविधा का शास्त्रोक्त प्रचारक,
    प्रभु सेवक, जन वंचक वह, निज वर्ग प्रतारक ।

    भोग शील, धनिकों का स्पर्धी, जीवन-प्रिय अति,
    आत्म वृद्ध, संकीर्ण हृदय, तार्किक, व्यापक मति!
    पाप पुण्य संत्रस्त, अस्थियों का बहु कोमल,
    वाक्, कुशल, धी दर्पी, अति विवेक से निर्बल ।

    मध्यवर्ग का मानव, वह परिजन पत्नी प्रिय,
    यशकामी, व्यक्तित्व प्रसारक, पर हित निष्क्रिय !
    श्रमजीवी वह, यदि श्रमिकों का हो अभिभावक,
    नवयुग का वाहक हो, नेता, लोक प्रभावक ।

    13. मानव पशु

    मानव के पशु के प्रति
    हो उदार नव संस्कृति !
    युग युग से रच शत शत नैतिक बंधन
    बाँध दिया मानव ने पीड़ित पशु तन,
    विद्रोही हो उठा आज पशु दर्पित,
    वह न रहेगा अब नव युग में गर्हित,
    नहीं सहेगा रे वह अनुचित ताड़न,
    रीति नीतियों का गत निर्मम शासन !
    वह भी क्या मानव जीवन का लांछन ?
    वह, मानव के देव भाव का वाहन !

    नहीं रहे जीवनोपाय तब विकसित !
    जीवन यापन कर न सके सब इच्छित ।
    नैतिक सीमाएँ बहु कर निर्धारित,
    जीवन इच्छा की जन ने मर्यादित !
    भू मानव के श्रेयस् के हित निश्चित
    पशु ने अपनी बलि दी, देवों के हित ।
    जीवन के उपकरण अखिल कर अधिकृत
    गत युग का पशु हुआ आज मनुजोचित ।
    देव और पशु, भावों में जो सीमित,
    युग युग में होते परिवर्तित, अवसित ।
    मानव पशु ने किया आज भव अर्जित,
    मानब देव हुआ अब वह सम्मानित !

    मानव के पशु के प्रति
    मध्यवर्ग की हो रति !

    14. मार्क्स के प्रति

    दंतकथा, वीरों की गाथा, सत्य, नहीं इतिहास,
    सम्राटों की विजय लालसा, ललना भुकुटि विलास,
    देव नियति का निर्मम क्रीड़ा चक्र न वह उच्छृङ्खल,-
    धर्मान्धता, नीति, संस्कृति का ही न मात्र समर स्थल ।
    साक्षी है इतिहास, किया तुमने दुन्दुभि से घोषित,–
    प्रकृति विजित कर, मानव ने की विश्व सभ्यता स्थापित !
    विकसित हो, बदले जब जब जीवनोपाय के साधन,
    युग बदले, शासन बदले, कर गत सभ्यता समापन !
    सामाजिक संबंध बने नव, अर्थ भित्ति पर नूतन
    नव विचार, नव रीति निति, नव नियम, भाव, नव दर्शन !

    साक्षी है इतिहास, आज होने को पुन: युगान्तर;
    जनगण का अब शासन होगा उत्पादन यंत्रों पर ।
    वर्गहीन सामाजिकता देगी सबको सम साधन;
    पूरित होंगे जन के भव जीवन के निखिल प्रयोजन !
    दिग् दिगंत में व्याप्त, निखिल युग युग का चिर गौरव हर;
    जन संस्कृति का नव विराट प्रासाद उठेगा भू पर !
    धन्य मार्क्स ! चिर तमच्छन्न पृथ्वी के उदय शिखर पर
    तुम त्रिनेत्र के ज्ञान चक्षु-से प्रकट हुए प्रलयंकर !

    15. मुझे स्वप्न दो

    मुझे स्वप्न दो, मुझे स्वप्न दो !
    हे जीवन के जागरूक !
    जीवन के नव नव मुझे स्वप्न दो !

    स्वप्न जागरण हो यह जीवन,
    स्वप्न पुलक स्मित तन, मन, यौवन,
    मेरे स्वप्नों के प्रकाश में
    जग का अधिकार जाए सो!

    वस्तु- ज्ञान से ऊब गया मैं,
    सूने मरु में डूब गया मैं,
    मेरे स्वप्नों की छाया में
    जग का वस्तु सत्य जाए खो !

    शिशिर शयित जग जीवन वन में
    हों पल्लवित स्वप्न नव, क्षण में
    मेरे कार्यों में, वाणी में
    नव नव स्वप्नों का गुंजन हो !

    हे जीवन. के जागरूक !
    भव जीवन के नव मुझे स्वप्न दो ।

    16. नर की छाया

    पुरुषों ही की आँखों से
    नित देख देख अपना तन,
    पुरुषों ही के ‘भावों से
    अपने प्रति भर अपना मन,-
    लो, अपनी ही चितवन से
    वह हो उठती है लज्जित,
    अपने ही भीतर छिप छिप
    जग से हो गई तिरोहित !

    वह नर की छाया नारी !
    चिर नमित नयन, पद विजड़ित है
    वह चकित, भीत हिरनी सी
    निज चरण चाप से शंकित !
    मानव की चिर सहधर्मिणी,
    युग युग से मुख अवगुंठित,
    स्थापित घर के कोने में
    वह दीप शिखा सी कंपित !

    करती वह जीवन यापन
    युग युग से पशु सी पालित,
    नंदिनी काम कारा की,
    आदर्श नीति परिचालित !

    17. नवदृष्टि

    खुल गए छंद के बंध,
    प्रास के रजत पाश,
    अब गीत मुफ्त,
    औ’ युग वाणी बहती अयास !
    बन गए कलात्मक भाव
    जगत के रूप नाम,
    जीवन संघर्षण देता सुख,
    लगता ललाम !

    सुन्दर, शिव, सत्य
    कला के कल्पित माप-मान
    बन गए स्थूल,
    जग जीवन से हो एकप्राण !
    मानव स्वभाव ही
    बन मानव-आदर्श सुकर
    करता अपूर्ण को पूर्ण,
    असुंदर को सुंदर !

    18. पलाश

    मरकत वन में आज तुम्हारी नव प्रवाल की डाल
    जगा रही उर में आकुल आकांक्षाओं की ज्वाल !
    पीपल, चिलविल, आम्र, नीम की पल्लव श्री सुकुमार-
    तुम्हीं उठाए हो, पर, वसुधा का मधु यौवन भार !
    वर्ण वर्ण की हरीतिमा का वन में भरा विकास,
    तुम नव मधु की निखिल कामनाओं के प्रिय उच्छ्वास !
    शत शत पुष्पों की, रंगों की रत्नच्छटा, पलाश,
    प्रकट नहीं कर सकती यह वैभव पुष्कल उल्लास !

    स्वर्ण मंजरित्र आम्र आज, औ’ रजत ताम्र कचनार
    नील कोकिला की पुकार नव, पीत भृंग गुंजार,-
    वर्ण स्वरों से मुखर तुम्हारे मौन पुष्प अंगार
    यौवन के नव रक्त तेज का जिनमें मदिर उभार ।
    हृदय रुधिर ही अर्पित कर मधु को, अर्पण श्री शाल !
    तुमने जग में आज जला दी दिशि दिशि जीवन ज्वाल !

    19. पलाश के प्रति

    प्राप्त नहीं मानव जग को यह मर्मोज्वल उल्लास
    जो कि तुम्हारी डाल डाल पर करता सहज विलास !
    आज प्रलय ज्वाला में ज्यों गल गए विश्व के पाश,
    जीवन की हिल्लोल लोल उमड़ी छूने आकाश !
    आकांक्षाएं अखिल अवनि की हुई पूर्ण उन्मुक्त,
    यह रक्तोज्वल तेज धरा के जीवन के उपयुक्त ।
    उद्भिज के जीवन विकास में हुआ नवीन प्रभात,
    तरुओं का हरितांधकार हो उठा ज्योति अवदात ।

    नव जीवन का रुधिर शिराओं में कर वहन, पलाश,
    तृण तरु जग से मानव जग में तुमने भरा प्रकाश ।
    यह शोभा, यह शक्ति, दीप्ति यह यौवन की उद्दाम,
    भरती मन में ओज, दृगों को लगती प्रिय, अभिराम ।
    जीवन की आकांक्षाओं को यह सौन्दर्य अमंद,
    मानव भी उपभोग कर सके, मुक्त, स्वस्थ आनंद !

    20. पतझर

    रिक्त हो रही आज डालियाँ,-डरो, न किंचित्
    रक्त पूर्ण, मांसल होंगी फिर, जीवन रंजित !
    जन्मशील है मरण, : अमर मर मर कर जीवन,
    झरता नित प्राचीन, पल्लवित होता नूतन ।

    पतझर यह, मानव जीवन में आया पतझर,
    आज युगों के बाद हो रहा नया युगांतर !
    बीत गए बहु हिम, वर्षातप, विभव पराभव,
    जग जीवन में फिर वसंत आने को अभिनव !

    झरते हों, झरने दो पत्ते,-डरो न किंचित्
    नवल मुकुल मंजरियों से भव होगा शोभित !
    सदियों में आया मानव जग में यह पतझर,
    सदियों तक भोगोगे नव मधु का वैभव वर !

    21. राग

    राग, केवल राग !
    छिपी चराचर के अंतर में
    अर्निवाप्य चिर आग,-
    राग, केवल राग !

    गूढ़ राग का संवेदन ही
    जीवन का इतिहास,
    राग शक्ति का विपुल समन्वय
    जन समाज, संवास ।

    निखिल ज्ञान, विज्ञानों में
    वह पाता नव अभिव्यक्ति,
    राग तत्व ही मूल धातु,
    संस्कृतियाँ रूप, विभक्ति !

    दुर्निवार यह राग, राग का
    रूप करो निर्माण,
    वेष्टित करो राग से भव,-
    हो जन जीवन कल्याण !

    22. रूप सत्य

    रूप ही भाता ।
    प्राण ! रूप ही मेरे उर में
    मधुर भाव बन जाता !
    मुझे रूप ही भाता !

    जीवन का चिर सत्य
    नहीं दे सका मुझे परितोष,
    मुझे ज्ञान से वस्तु सुहाती,
    सूक्ष्म बीज से कोष ।
    सच है, जीवन के वसंत में
    रहता है पतझार,
    वर्ण गंधमय कलि कुसुमों का
    पर, ऐश्वर्य अपार !

    राशि राशि सौन्दर्य, प्रेम,
    आनंद, गुणों का द्वार,
    मुझे लुभाता रूप रंग
    रेखाओं का संसार !

    मुझे रूप ही भाता ।
    प्राण ! रूप का सत्य,
    रूप के भीतर नहीं समाता !
    मुझे रूप ही भाता ।

    23. समाजवाद-गांधीवाद

    साम्यवाद ने दिया विश्व को नव भौतिक दर्शन का ज्ञान,
    अर्थशास्त्र- औ’ -राजनीति-गत विशद ऐतिहासिक विज्ञान !
    साम्यवाद ने दिया जगत को सामूहिक जनतंत्र महान,
    भव जीवन के दैन्य दु:ख से किया मनुजता का परित्राण ।

    अंतर्मुख अद्वैत पड़ा था युग युग से निष्क्रिय, निष्प्राण,
    जग में उसे प्रतिष्ठित करके दिया साम्य ने वस्तु विधान ।
    गाँधीवाद जगत में आया ले मानवता का नव मान,
    सत्य अहिंसा से मनुजोचित नव संस्कृति करने निर्माण !

    गाँधीवाद हमें देता जीवन पर अंतर्गत विश्वास,
    मानव की नि:सीम शक्ति का मिलता उससे चिर आभास !
    व्यक्ति पूर्ण बन, जग जीवन में भर सकता है नूतन प्राण,
    विकसित मनुष्यत्व कर सकता पशुता से जन का कल्याण !

    मनुष्यत्व का तत्व सिखाता निश्चय हमको गाँधीवाद,
    सामूहिक जीवन विकास की साम्य योजना है अविवाद !

    24. साम्राज्यवाद

    परिवर्तन ही जग जीवन का नियम चिरंतन, दुर्जय,
    साक्षी है इतिहास : युगों का प्रत्यावर्तन अभिनय !
    मुनियों के, कुलपति, सामंत, महंतों के वैभव क्षण,
    विला गए बहु राजतंत्र,-सागर में ज्यों बुदबुद कण !

    रजत स्वप्न साम्राज्यवाद का ले नयनों में शोभन
    पूँजीवाद निशा भी है होने को आज समापन !
    विविध ज्ञान, विज्ञान, कला, यंत्रों का अद्भुत कौशल,
    जग को दे बहु जीवन साधन, वाष्प, रश्मि, विद्युत् बल,

    मरणोन्मुख साम्राज्यवाद, कर वह्नि और विष वर्षण
    अंतिम रण को है सचेष्ट, रच निज विनाश आयोजन !
    विश्व क्षितिज में घिरे पराभव के भय-मेघ भयंकर,
    नय युग का सूचक है निश्चय यह तांडव प्रलयंकर !

    जन युग की स्वर्णिम किरणों से होगी भू आलोकित,
    नव संस्कृति के नव प्ररोह होंगे शोणित से सिंचित ।

    25. श्रमजीवी

    वह पवित्र है :वह, जग के कर्दम से पोषित,
    वह निर्माता-श्रेणि, वर्ग, धन, बल से शोषित !
    मूढ़, अशिक्षित-सभ्य शिक्षितों से वह शिक्षित,
    विश्व उपेक्षित-शिष्ट संस्कृतों से मनुजोचित ।
    दैन्य कष्ट कुंठित,- सुंदर है उसका आनन,
    गंदे गात वसन हों, पावन श्रम का जीवन !
    स्नेह साम्य सौहार्द्रपूर्ण तप से उसका मन,
    वह संगठित करेगा भावी भव का शासन !

    भूख प्यास से पीड़ित उसकी भद्दी आकृति,
    स्पष्ट कथा कहती,-कैसी इस युग की संस्कृति !
    वह पशु से भी घृणित मनुज-मानव की है कृति !
    जिसके श्रम से सिंची समृद्धों की पृथु संपति !
    मोह संपदा अधिकारों का उसे न किंचित,
    कार्य कुशल यंत्री वह, श्रम पटुता से जीवित ।
    शीत ताप, औ’ क्षुधा तृषा में सदा संयमित,
    दृढ़ चरित्र वह, दुख सहिष्णु, ध्रुव धीर, अभय चित !

    लोक क्रान्ति का अग्रदूत, वर वीर, जनादृत,
    नव्य सभ्यता का उन्नायक, शासक, शासित,-
    चिर पवित्र वह : भय, अन्याय, घृणा से पालित,
    जीवन का शिल्पी,-पावन श्रम से प्रक्षालित !

    26. तुम ईश्वर

    सीमाओं में ही तुम असीम,
    बंधन नियमों में मुक्ति सतत,
    बहु रूपो में नित एक रूप,
    संघर्षों में ही शांति महत् !

    कलुषित दूषित में चिर पवित्र,
    कुत्सित कुरुप में तुम मुंदर,
    खंडित कुंठित में पूर्ण सदा
    क्षणभंगुर में तुम नित्य अमर !
    तुम पतित क्षुद्र में चिर महान्,
    परित्यक्तों के जीवन सहचर,
    तुम विपथ गामियों के चिर पथ,
    जीवन-मृत के नव जीवन वर !

    तुम बाधा बिघ्नों में हो बल,
    जीवन के तम में चिर भास्वर,
    असफलताओं में इष्ट सिद्धि,
    तुम जीवों ही में हो ईश्वर ।

    27. उन्मेष

    मौन रहेगा ज्ञान,
    स्तब्ध निखिल विज्ञान !
    क्रांति पालतू पशु सी होगी शांत,
    तर्क बुद्धि के बाद लगेंगे भ्रांत !
    राजनीति औ’ अर्थशास्त्र,
    होंगे संघर्ष परास्त, :
    धर्म, नीति, आचार-
    रुंधेगी सबकी क्षीण पुकार !

    जीवन के स्वर में हो प्रकट महान
    फूटेगा जीवन रहस्य का गान ।
    क्षुधा, तृषा औ’ स्पृहा, काम से ऊपर,
    जाति, वर्ग औ’ देश, राष्ट्र से उठकर,
    जीवित स्वर में, व्यापक जीवन गान
    सद्य करेगा मानव का कल्याण ।

    28. युग उपकरण

    वह जीवित संगीत, लीन हो जिसमें जग जीवन संघर्ष,
    वह आदर्श, मनुज स्वभाव ही जिसका दोष-शुद्ध निष्कर्ष !
    वह अन्त:सौन्दर्य, सहन कर सके बाह्य वैरूप्य विरोध,
    सक्रिय अनुकंपा, न घृणा का करे घृणा से जो परिशोध !

    नम्र शक्ति वह, जो सहिष्णु हो, निर्बल को बल करे प्रदान,
    मूर्त प्रेम, मानव मानव हों जिसके लिए अभिन्न, समान,
    वह पवित्रता, जगती के कलुषों से जो न रहे संत्रस्त,
    वह सुख, जो सर्वत्र सभी के सुख के लिए रहे संन्यस्त !

    ललित कला, कुत्सित कुरूप जग का जो रूप करे निर्माण,
    वह दर्शन-विज्ञान, मनुजता का हो जिससे चिर कल्याण !
    वह संस्कृति, नव मानवता का जिसमें विकसित भव्य स्वरूप,
    वह विश्वास, सुदुस्तर भव सागर में जो चिर ज्योति स्तूप !

    रीति नीति, जो विश्व प्रगति में बनें नहीं जड़ बंधन पाश,
    -ऐसे उपकरणों से हो भव मानवता का पूर्ण विकास !

    29. चींटी

    चींटी को देखा?
    वह सरल, विरल, काली रेखा
    तम के तागे सी जो हिल-डुल,
    चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
    वह है पिपीलिका पाँति !
    देखो ना, किस भाँति
    काम करती वह सतत,
    कन-कन कनके चुनती अविरत।

    गाय चराती,
    धूप खिलाती,
    बच्चों की निगरानी करती,
    लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
    दल के दल सेना संवारती,
    घर-आँगन, जनपथ बुहारती।

    देखो वह वल्मीकि सुघर,
    उसके भीतर है दुर्ग, नगर !
    अदभुत उसकी निर्माण कला,
    कोई शिल्पी क्या कहे भला !
    उसमें हैं सौध, धाम, जनपथ,
    आँगन, गो-गृह भंडार अकथ,
    हैं डिम्ब-सद्म, वर शिविर रचित,
    ड्योढ़ी बहु, राजमार्ग विस्तृत :
    चींटी है प्राणी सामाजिक,
    वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।

    देखा चींटी को?
    उसके जी को?
    भूरे बालों की सी कतरन,
    छिपा नहीं जिसका छोटापन,
    वह समस्त पृथ्वी पर निर्भय
    विचरण करती, श्रम में तन्मय
    वह जीवन की तिनगी अक्षय।

    वह भी क्या देही है, तिल-सी ?
    प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
    दिनभर में वह मीलों चलती,
    अथक कार्य से कभी न टलती।
    वह भी क्या शरीर से रहती?
    वह कण, अणु, परमाणु ?
    चिर सक्रिय, वह नहीं स्थाणु !

    हा मानव !
    देह तुम्हारे ही है, रे शव !
    तन की चिंता में घुल निसिदिन
    देह मात्र रह गए, दबा तिन !

    प्राणि प्रवर
    हो गए निछावर
    अचिर धूलि पर ! !

    निद्रा, भय, मैथुनाहार
    -ये पशु लिप्साएँ चार-
    हुई तुम्हें सर्वस्व – सार ?

    धिक् मैथुन आहार यंत्र !
    क्या इन्हीं बालुका भीतों पर
    रचने जाते हो भव्य, अमर
    तुम जन समाज का नव्य तंत्र ?
    मिली यही मानव में क्षमता ?
    पशु, पक्षी, पुष्पों से समता ?
    मानवता पशुता समान है ?
    प्राणिशास्त्र देता प्रमाण है ?

    बाह्य नहीं आंतरिक साम्य
    जीवों से मानव को प्रकाम्य !
    मानव को आदर्श चाहिए,
    संस्कृति, आत्मोत्कर्ष चाहिए,

    बाह्य विधान उसे हैं बंधन,
    यदि न साम्य उनमें अंतरतम-
    मूल्य न उनका चींटी के सम,
    वे हैं जड़, चींटी है चेतन !
    जीवित चींटी, जीवन वाहक,
    मानव जीवन का वर नायक,
    वह स्व-तंत्र, वह आत्म विधायक !

    ० ० ० ०
    पूर्ण तंत्र मानव, वह ईश्वर,
    मानव का विधि उसके भीतर !

    30. मानवपन

    इस धरती के रोम रोम में
    भरी सहज सुंदरता,
    इसकी रज को छू प्रकाश
    बन मधुर विनम्र निखरता !

    पीले पत्ते, टूटी टहनी,
    छिलके, कंकर, पत्थर,
    कूड़ा करकट सब कुछ भू पर
    लगता सार्थक सुंदर ।

    प्रणत सदा से धरणी: इसका
    चिर उदार वक्षस्थल
    ज्योति तमस, हिम आतप का
    मधु पतझर का रंगस्थल !

    जीवों की यह धात्री : इसकी
    मिट्टी का उनका तन,
    इस संस्कृत रज का ही प्रतिनिधि
    हो सकता मानवपन !

    जीव जनित जो सहज भावना,
    संस्कृति उससे निर्मित,
    चिर ममत्व की मधुर ज्योति-
    जिससे मानव उर ज्योतित !

    रीति नीति वाणी विचार
    केवल हैं उसकी प्रतिकृति
    जीवों के प्रति आत्म बोध ही
    मनुष्यत्व की परिणति !

    विद्या, वैभव, गुण विशिष्टता
    भूषण हों मानव के,
    जीव प्रेम के बिना किन्तु ये
    दूषण हैं दानव के !

    रक्त मांस का जीव, विविध
    दुर्बलताओं से शोभित,
    मनुष्यत्व दुर्लभ सुरत्व से,-
    निष्कलंकता पीड़ित !

    व्याधि सभ्यता की है निश्चित
    पूर्ण सत्य का पूजन,
    प्राण हीन वह कला, नहीं
    जिसमें अपूर्णता शोभन !

    … … …
    सीमाएँ आदर्श सकल,
    सीमा विहीन यह जीवन,
    दोषों से ही दोष शुध्द है
    मिट्टी का मानवपन !

    31. गंगा का प्रभात

    गलित ताम्र भव : भृकुटि मात्र रवि
    रहा क्षितिज से देख,
    गंगा के नभ नील निकष पर
    पड़ी स्वर्ण की रेख !
    आर पार फैले जल में
    घुल कर कोमल आलोक,
    कोमलतम बन निखर रहा,
    लगता जग अखिल अशोक ।

    नव किरणों ने विश्वप्राण में
    किया पुलक संचार
    ज्योति जड़ित बालुका पुलिन,
    हो उठा सजीव अपार !
    सिहर अमर जीवन कंपन से
    खिल खिल अपने आप,
    केवल लहराने को लहराता
    लघु लहर कलाप !

    सृजन तत्व की सृजन शीलता से
    हो अवश, अकाम-
    निरुद्देश्य जीवन धारा
    बहती जाती अविराम !
    देख बहा अनिमेष, हो गया
    स्थिर, निश्चल सरिता जल,
    बहता हूँ मैं, बहते तट,
    बहते तरु, क्षितिज, अवनि तल ।

    यह विराट् भूतों का भव
    चिर जीवन से अनुप्राणित,
    विविध विरोधी तत्वों के
    संघर्षण से संचालित !
    निज जीवन के हित अगणित
    प्राणी हैं इसके आश्रित,
    मानव इसका शासक,-आतप,
    अनिल, अन्न, जलशासित !

    मानव जीवन, प्रकृति-सरणि में
    जड़ विरोध कुछ निश्चित,
    विजित प्रकृति को कर, नर ने की
    विश्व सभ्यता स्थापित !
    देश काल स्थिति से मानवता
    रही सदा ही बाधित,
    देश काल स्थिति को वश में कर
    करना है परिचालित !

    क्षुद्र व्यक्ति को विकसित होकर
    बनना अब जन-मानव,
    सामूहिक मानव को निर्मित
    करनी भव-संस्कृति नव !
    मानवता के युग प्रभात में
    मानव जीवन धारा
    मुक्त अबाध बहे, मानव जग
    सुख स्वर्णिम हो सारा !

    32. कर्म का मन

    भव का जीवन मन का जीवन,
    कार्यार्थी को है मन बंधन !

    अवचेतन मन से होता रे,
    चेतन मन संतत संचालित,
    मन के दर्पण में भव की छवि
    रंजित होकर होती बिम्बित !

    रूप जगत की प्रतिछाया यह
    भाव जगत मानस का निश्चित,
    गत युग का मृत सगुण आज
    मानव मन की गति करता कुंठित !

    अत: कर्म को प्रथम स्थान दो,
    भाव जगत कर्मों से निर्मित,
    निखिल विचार, विवेक, तर्क
    भव-रूप-कर्म को करो समर्पित !

    प्रथम कर्म, कहता जन दर्शन,
    पीछे रे सिद्धांत, मन, वचन !

    33. मूल्यांकन

    आज सत्य, शिव, सुंदर करता
    नहीं ह्रदय आकर्षित,
    सभ्य, शिष्ट औ’ संस्कृत लगते
    मन को केवल कुत्सित !

    संस्कृति, कला, सदाचारों से
    भव मानवता पीड़ित,
    स्वर्ण पिंजड़े में बंदी है
    मानव आत्मा निश्चित ।

    आज असुन्दर लगते सुन्दर,
    प्रिय पीड़ित, शोषित जन,
    जीवन के दैन्यों से जर्जर
    मानव मुख हरता मन !

    मूढ़, असभ्य, उपेक्षित, दूषित ही
    भू के उपकारक,
    धार्मिक, उपदेशक, पंडित,
    दानी है लोक प्रतारक !

    धर्म, नीति औ’ सदाचार का
    मूल्यांकन है जन-हित,
    सत्य नहीं वह, जनता से जो
    नहीं प्राण – संबंधित !

    आज सत्य, शिव, सुन्दर केवल
    वर्गों में हैं सीमित,
    ऊर्ध्वमूल संस्कृति को होना
    अधोमूल रे निश्चित !

    34. गंगा की साँझ

    अभी गिरा रवि, ताम्र कलश सा,
    गंगा के उस पार,
    क्लांत पाँथ, जिह्वा विलोल
    जल में रक्ताभ प्रसार;
    भूरे जलदों से धूमिल नभ,
    विहग छदों-से बिखरे—
    धेनु त्वचा-से सिहर रहे
    जल में रोओं-से छितरे !

    दूर, क्षितिज में चित्रित सी
    उस तरु माला के ऊपर
    उड़ती काली विहंग पाँति
    रेखा सी लहरा सुन्दर !
    उड़ी आ रही हल्की खेवा
    दो आरोही लेकर,
    नीचे ठीक, तिर रहा जल में
    छाया चित्र मनोहर !

    शांत, स्निग्ध संध्या सलज्ज मुख
    देख रही जल तल में,
    नीलारुण अंगों की आभा
    छहरी लहरी दल में !
    झलक रहे जल के अंचल से
    कंचु जलद स्वर्ण प्रभ,
    चूर्ण कुंतलों सा लहरों पर
    तिरता घन ऊर्मिल नभ !

    द्वाभा का ईषत् उज्जवल
    कोमल तम धीरे गिर कर
    दृश्य पटी को बना रहा
    गंभीर, गाढ़ रंग भर भर !
    मधुर प्राकृतिक सुषमा यह
    भरती विवाद है मन में,
    मानव की जीवित सुन्दरता
    नहीं प्रकृति दर्शन में !

    पूर्ण हुई मानव अंगों में
    सुन्दरता नैसर्गिक,
    शत ऊषा संध्या से निर्मित
    नारी प्रतिमा स्वर्गिक !
    भिन्न भिन्न बह रही आज
    नर नारी जीवन धारा,
    युग के युग सैकत कर्दम से
    रुध्द,…छिन्न सुख सारा !

    35. घन नाद

    ठङ् ठङ् ठन !
    लौह नाद से ठोंक पीट घन
    निर्मित करता श्रमिकों का मन,
    ठङ् ठङ् ठन !

    ‘कर्म क्लिष्ट मानव भव जीवन,
    श्रम ही जग का शिल्पि चिरंतन’,—
    कठिन सत्य जीवन का क्षण क्षण
    घोषित करता घन वज्र स्वन,-
    ‘व्यर्थ विचारों का संघर्षण,
    अविरत श्रम ही जीवन साधन,
    लौह काष्ठ मय, रक्त माँस मय,
    वस्तु रूप ही सत्य चिरंतन’ !
    ठङ् ठङ् ठन !

    अग्नि स्फुलिंगों का कर चुंबन
    जाग्रत करता दिग् दिगंत घन,-
    ‘जागो, श्रमिको, बनो सचेतन,
    भू के अधिकारी हैं श्रमजन’ !
    ‘मांस पेशियाँ हृष्ट पुष्ट, घन,
    बटी शिराएँ, श्रम बलिष्ट तन,
    भू का भव्य करेंगे शासन,
    चिर लावण्यपूर्ण श्रम के कण’!
    ठङ् ठङ् ठन !

    36. पुण्य प्रसू

    ताक रहे हो गगन ?
    मृत्यु – नीलिमा – गहन गगन ?
    अनिमेष, अचितवन, काल-नयन-
    नि:स्पंद, शून्य, निर्जन, नि:स्वन !

    देखो भू को !
    जीव प्रसू को !
    हरित भरित
    पल्लवित मर्मरित
    कूजित गुंजित
    कुसुमित
    भू को !

    कोमल
    चंचल
    शाद्वल
    अंचल,–
    कल कल
    छल छल
    चल-जल-निर्मल,…

    कुसुम खचित
    मारुत सुरभित
    खग कुल कूजित
    प्रिय पशु मुखरित-
    जिस पर अंकित

    सुर मुनि वंदित
    मानव पद तल !

    देखो भू को
    स्वर्गिक भू को,
    मानव पुण्य प्रसू को !