ठण्डा लोहा तथा अन्य कविताएँ धर्मवीर भारती

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    Thanda Loha Dharamvir Bharati

    ठण्डा लोहा तथा अन्य कविताएँ धर्मवीर भारती

    1. ठण्डा लोहा

    ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!
    मेरी दुखती हुई रगों पर ठंडा लोहा!

    मेरी स्वप्न भरी पलकों पर
    मेरे गीत भरे होठों पर
    मेरी दर्द भरी आत्मा पर
    स्वप्न नहीं अब
    गीत नहीं अब
    दर्द नहीं अब
    एक पर्त ठंडे लोहे की
    मैं जम कर लोहा बन जाऊँ –
    हार मान लूँ –
    यही शर्त ठंडे लोहे की !

    ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
    तुम्हें समर्पित मेरी सांस सांस थी, लेकिन
    मेरी सासों में यम के तीखे नेजे सा
    कौन अड़ा है?
    ठंडा लोहा!
    मेरे और तुम्हारे भोले निश्चल विश्वासों को
    कुचलने कौन खड़ा है?
    ठंडा लोहा!

    ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
    अगर जिंदगी की कारा में
    कभी छटपटाकर मुझको आवाज़ लगाओ
    और न कोई उत्तर पाओ
    यही समझना कोई इसको धीरे धीरे निगल चुका है
    इस बस्ती में दीप जलाने वाला नहीं बचा है
    सूरज और सितारे ठंढे
    राहे सूनी
    विवश हवाएं
    शीश झुकाए खड़ी मौन हैं
    बचा कौन है?
    ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!

    2. तुम्हारे चरण

    ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,
    मेरी गोद में!
    ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,
    मेरी गोद में!
    दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,
    मेरी गोद में!

    रसमसाती धूप का ढलता पहर,
    ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं
    रोशनी के फूल हरसिंगार-से,
    प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
    अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं
    ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,
    सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,
    मेरी गोद में!
    हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,
    मेरी गोद में!

    ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,
    झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,
    अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं
    या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
    दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,
    देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं ।
    चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,
    मेरी गोद में!
    सात रंगों की महावर से रचे महताब,
    मेरी गोद में!

    ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या?
    ये महज आराधना के वास्ते,
    जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते
    हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,
    ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने!
    ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में!
    रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में!

    3. प्रार्थना की कड़ी

    प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी
    बाँध देती है, तुम्हारा मन, हमारा मन,
    फिर किसी अनजान आशीर्वाद में-डूबन
    मिलती मुझे राहत बड़ी!

    प्रात सद्य:स्नात कन्धों पर बिखेरे केश
    आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश
    चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप
    यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप
    जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में,
    यदि मुझे मिलती रहे
    काले तमस की छाँह में
    ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी!
    प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!

    चरण वे जो
    लक्ष्य तक चलने नहीं पाये
    वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये
    कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी-
    घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी-
    जन्म-जन्मों की अधूरी साधना,
    पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में!
    ज़िन्दगी में जो सदा झूठी पड़ी-
    प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!

    4. उदास तुम

    तुम कितनी सुन्दर लगती हो
    जब तुम हो जाती हो उदास!
    ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
    मदभरी चांदनी जगती हो!

    मुँह पर ढँक लेती हो आँचल
    ज्यों डूब रहे रवि पर बादल,
    या दिन-भर उड़कर थकी किरन,
    सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन!
    दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, पुतली में कर लेते निवास!
    तुम कितनी सुन्दर लगती हो
    जब तुम हो जाती हो उदास!

    खारे आँसू से धुले गाल
    रूखे हलके अधखुले बाल,
    बालों में अजब सुनहरापन,
    झरती ज्यों रेशम की किरनें, संझा की बदरी से छन-छन!
    मिसरी के होठों पर सूखी किन अरमानों की विकल प्यास!
    तुम कितनी सुन्दर लगती हो
    जब तुम हो जाती हो उदास!

    भँवरों की पाँतें उतर-उतर
    कानों में झुककर गुनगुनकर
    हैं पूछ रहीं-‘क्या बात सखी?
    उन्मन पलकों की कोरों में क्यों दबी ढँकी बरसात सखी?
    चम्पई वक्ष को छूकर क्यों उड़ जाती केसर की उसाँस?
    तुम कितनी सुन्दर लगती हो
    ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
    मदभरी चाँदनी जगती हो!

    5. उदास मैं

    उन्मन मन पर एक अजब-सा अलस उदासी भार !

    मुन्दती पलकों के कूलों पर जल-बूंदों का शोर
    मन में उठती गुपचुप पुरवैया की मृदुल हिलोर
    कि स्मृतियां होतीं चकनाचूर
    हृदय से टकराकर भरपूर
    उमड़-घुमड़कर घिर-घिर आता है बरसाती प्यार !
    उन्मन मन पर एक अजब-सा अलस उदासी भार !

    नील धुएँ से ढंक जाती उज्जवल पलकों की भोर
    स्मृतियों के सौरभ से लदकर चलती श्वास झकोर
    कि रुक जाता धड़कन का तार
    कि झुक जाती सपनों की डार
    छितरा जाता कुसुम हृदय का ज्यों गुलाब बीमार
    उन्मन मन पर एक अजब-सा अलस उदासी भार !

    स्वर्ण-धूल स्मृतियों की नस की रस-बूंदों में आज
    गुंथी हुई है ऐसे जैसे प्रथम प्रनय में लाज,
    बोल में अजब दरद के स्वर,
    कि जैसे मरकत शय्या पर
    पड़ी हुई हो घायल कोई स्वर्ण-किरण सुकुमार !

    उन्मन मन पर एक अजब-सा अलस उदासी भार !

    6. डोले का गीत

    अगर डोला कभी इस राह से गुजरे कुवेला,
    यहाँ अम्बवा तरे रुक
    एक पल विश्राम लेना,
    मिलो जब गाँव भर से बात कहना, बात सुनना
    भूल कर मेरा
    न हरगिज नाम लेना,
    अगर कोई सखी कुछ जिक्र मेरा छेड़ बैठे,
    हँसी में टाल देना बात,
    आँसू थाम लेना

    शाम बीते, दूर जब भटकी हुई गायें रंभाएं
    नींद में खो जाये जब
    खामोश डाली आम की,
    तड़पती पगडंडियों से पूछना मेरा पता,
    तुमको बताएंगी कथा मेरी
    व्यथा हर शाम की,
    पर न अपना मन दुखाना, मोह क्या उसका
    की जिसका नेह छूटा, गेह छूटा
    हर नगर परदेश है जिसके लिए,
    हर डगरिया राम की !
    भोर फूटे भाभियां जब गोद भर आशीष दे दें,
    ले विदा अमराइयों से
    चल पड़े डोला हुमच कर,
    है कसम तुमको,
    तुम्हारे कोंपलों से नैन में आँसू न आएं
    राह में पाकड़ तले
    सुनसान पा कर
    प्रीत ही सब कुछ नहीं है,
    लोक की मरजाद है सबसे बड़ी
    बोलना रुन्धते गले से-
    ‘ले चलो ! जल्दी चलो ! पी के नगर !’

    पी मिलें जब,
    फूल सी अंगुली दबा कर चुटकियाँ लें और पूछें
    ‘क्यों ?
    कहो कैसी रही जी यह सफ़र की रात?’
    हँस कर टाल जाना बात,
    हँस कर टाल जाना बात, आँसू थाम लेना !
    यहाँ अम्बवा तरे रुक एक पल विश्राम लेना !
    अगर डोला कभी इस राह से गुजरे !

    7. फागुन की शाम

    घाट के रस्ते
    उस बँसवट से
    इक पीली-सी चिड़िया
    उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!

    मुझे पुकारे!
    ताना मारे,
    भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन,
    ये फागुन की शाम है!

    घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं
    झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं
    तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी
    यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी

    आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी!
    अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है!

    इस सीढ़ी पर, यहीं जहाँ पर लगी हुई है काई
    फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में कितना शरमायी!
    यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन!
    यहाँ न आऊँगी अब, जाने क्या करने लगता मन!

    लेकिन तब तो कभी न हममें तुममें पल-भर बनती!
    तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है!

    अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले
    कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले
    ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा
    मेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा

    पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से
    कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है!

    ये फागुन की शाम है!

    8. बेला महका

    फिर,
    बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!
    फिर पंखुरियों, कमसिन परियों
    वाली अल्हड़ तरुणाई,
    पकड़ किरन की ड़ोर, गुलाबों के हिंडोर पर लहरायी
    जैसे अनचित्ते चुम्बन से
    लचक गयी हो अँगडाई,
    डोल रहा साँसों में
    कोई इन्द्रधनुष बहका बहका!
    बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!

    हाट-बाट में, नगर-डगर में
    भूले भटके भरमाये,
    फूलों के रूठे बादल फिर बाँहों में वापस आये
    साँस साँस में उलझी कोई
    नागिन सौ सौ बल खाये
    ज्यौं कोई संगीत पास
    आ आ कर दूर चला जाए
    बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा मन लहराये!

    नील गगन में उड़ते घन में
    भीग गया हो ज्यों खंजन
    आज न बस में, विह्वल रस में, कुछ एसा बेकाबू मन,
    क्या जादू कर गया नया
    किस शहजादी का भोलापन
    किसी फरिश्ते ने फिर
    मेरे दर पर आज दिया फेरा
    बहुत दिनों के बाद खिला बेला, महका आँगन मेरा!

    आज हवाओं नाचो, गाओ
    बाँध सितारों के नूपुर,
    चाँद ज़रा घूँघट सरकाओ, लगा न देना कहीं नज़र!
    इस दुनिया में आज कौन
    मुझसे बढ कर है किस्मतवर
    फूलों, राह न रोको! तुम
    क्या जानो जी कितने दिन पर
    हरी बाँसुरी को आयी है मोहन के होठों की याद!
    बहुत दिनों के बाद
    फिर, बहुत दिनों के बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!

    9. फ़ीरोज़ी होठ

    इन फ़ीरोज़ी होठों पर बरबाद मेरी ज़िन्दगी
    इन फ़ीरोज़ी होठों पर .
    गुलाबी पंखुड़ी पर एक हल्की सुरमई आभा
    कि ज्यों करवट बदल लेती कभी बरसात की दुपहर
    इन फ़ीरोज़ी होठों पर

    तुम्हारे स्पर्श की बादल – घुली कचनार नरमाई ,
    तुम्हारे वक्ष की जादूभरी मदहोश गरमाई ,
    तुम्हारे चितवनों में नर्गिसों की पांत शरमायी ,
    किसी भी मोल पर आज अपने को लुटा सकता
    सिखाने को कहा मुझसे प्रणय के देवताओं ने
    तुम्हें आदिम गुनाहों का अजब सा इन्द्रधनुषी स्वाद
    मेरी ज़िन्दगी बरबाद,
    इन फ़ीरोज़ी होठों पर ….

    अँधेरी रात में खिलते हुए बेले -सरीखा मन ,
    मृणालों की मुलायम बांह ने सीखी नहीं उलझन ,
    सुहागन लाज में लिपटा शरद की धूप जैसा तन ,
    पंखुड़ियों पर भंवर के गीत सा मन टूटता जाता ,
    मुझे तो वासना का विष हमेशा बन गया अमृत
    बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद ,
    मेरी ज़िन्दगी बरबाद
    इन फ़ीरोज़ी होठों पर ….

    गुनाहों से कभी मैली पड़ी बेदाग़ तरुणाई –
    सितारों की जलन से बादलों पर आंच कब आयी?
    न चन्दा को कभी व्यापी अमा की घोर कजराई ,
    बड़ा मासूम होता है गुनाहों का समर्पण भी
    हमेशा आदमी मजबूर होकर लौट जाता है
    जहां हर मुक्ति के, हर त्याग के,हर साधना के बाद
    मेरी ज़िन्दगी बरबाद
    इन फ़ीरोज़ी होठों पर …..

    10. गुनाह का गीत

    अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे
    अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
    महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो?
    महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

    तुम्हारा मन अगर सींचूँ
    गुलाबी तन अगर सीचूँ तरल मलयज झकोरों से!
    तुम्हारा चित्र खींचूँ प्यास के रंगीन डोरों से
    कली-सा तन, किरन-सा मन, शिथिल सतरंगिया आँचल
    उसी में खिल पड़ें यदि भूल से कुछ होठ के पाटल
    किसी के होठ पर झुक जायँ कच्चे नैन के बादल
    महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
    महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

    किसी की गोद में सिर धर
    घटा घनघोर बिखराकर, अगर विश्वास हो जाए
    धड़कते वक्ष पर मेरा अगर अस्तित्व खो जाए?
    न हो यह वासना तो ज़िन्दगी की माप कैसे हो?
    किसी के रूप का सम्मान मुझ पर पाप कैसे हो?
    नसों का रेशमी तूफान मुझ पर शाप कैसे हो?

    किसी की साँस मैं चुन दूँ
    किसी के होठ पर बुन दूँ अगर अंगूर की पर्तें
    प्रणय में निभ नहीं पातीं कभी इस तौर की शर्तें
    यहाँ तो हर कदम पर स्वर्ग की पगडण्डियाँ घूमीं
    अगर मैंने किसी की मदभरी अँगड़ाइयाँ चूमीं
    अगर मैंने किसी की साँस की पुरवाइयाँ चूमीं

    महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
    महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

    11. बोआई का गीत

    (कोरस-नृत्य)

    गोरी-गोरी सौंधी धरती-कारे-कारे बीज
    बदरा पानी दे!

    क्यारी-क्यारी गूंज उठा संगीत
    बोने वालो! नई फसल में बोओगे क्या चीज?
    बदरा पानी दे!

    मैं बोऊंगा बीर बहूटी, इन्द्रधनुष सतरंग
    नये सितारे, नयी पीढियाँ, नये धान का रंग
    बदरा पानी दे!

    हम बोएंगे हरी चुनरियाँ, कजरी, मेंहदी
    राखी के कुछ सूत और सावन की पहली तीज!
    बदरा पानी दे!

    12. कविता की मौत

    लादकर ये आज किसका शव चले?
    और इस छतनार बरगद के तले,
    किस अभागन का जनाजा है रुका
    बैठ इसके पाँयते, गर्दन झुका,
    कौन कहता है कि कविता मर गई?

    मर गई कविता,
    नहीं तुमने सुना?
    हाँ, वही कविता
    कि जिसकी आग से
    सूरज बना
    धरती जमी
    बरसात लहराई
    और जिसकी गोद में बेहोश पुरवाई
    पँखुरियों पर थमी?

    वही कविता
    विष्णुपद से जो निकल
    और ब्रह्मा के कमण्डल से उबल
    बादलों की तहों को झकझोरती
    चाँदनी के रजत फूल बटोरती
    शम्भु के कैलाश पर्वत को हिला
    उतर आई आदमी की जमीं पर,
    चल पड़ी फिर मुस्कुराती
    शस्य-श्यामल फूल, फल, फ़सल खिलाती,
    स्वर्ग से पाताल तक
    जो एक धारा बन बही
    पर न आख़िर एक दिन वह भी रही!
    मर गई कविता वही

    एक तुलसी-पत्र ‘औ’
    दो बून्द गँगाजल बिना,
    मर गई कविता, नहीं तुमने सुना?

    भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी,
    उस अभागिन की अछूती माँग का सिन्दूर
    मर गया बनकर तपेदिक का मरीज़
    ‘औ’ सितारों से कहीं मासूम सन्तानें,
    माँगने को भीख हैं मजबूर,
    या पटरियों के किनारे से उठा
    बेचते है,
    अधजले
    कोयले.

    (याद आती है मुझे
    भागवत की वह बड़ी मशहूर बात
    जबकि ब्रज की एक गोपी
    बेचने को दही निकली,
    औ’ कन्हैया की रसीली याद में
    बिसर कर सुध-बुध
    बन गई थी ख़ुद दही.
    और ये मासूम बच्चे भी,
    बेचने जो कोयले निकले
    बन गए ख़ुद कोयले
    श्याम की माया)

    और अब ये कोयले भी हैं अनाथ
    क्योंकि उनका भी सहारा चल बसा!
    भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी!
    यूँ बड़ी ही नेक थी कविता
    मगर धनहीन थी, कमजोर थी
    और बेचारी ग़रीबिन मर गई!

    मर गई कविता?
    जवानी मर गई?
    मर गया सूरज सितारे मर गए,
    मर गए, सौन्दर्य सारे मर गए?
    सृष्टि के प्रारम्भ से चलती हुई
    प्यार की हर साँस पर पलती हुई
    आदमीयत की कहानी मर गई?

    झूठ है यह!
    आदमी इतना नहीं कमज़ोर है!
    पलक के जल और माथे के पसीने से
    सींचता आया सदा जो स्वर्ग की भी नींव
    ये परिस्थितियाँ बना देंगी उसे निर्जीव!

    झूठ है यह!
    फिर उठेगा वह
    और सूरज की मिलेगी रोशनी
    सितारों की जगमगाहट मिलेगी!
    कफ़न में लिपटे हुए सौन्दर्य को
    फिर किरन की नरम आहट मिलेगी!
    फिर उठेगा वह,
    और बिखरे हुए सारे स्वर समेट
    पोंछ उनसे ख़ून,
    फिर बुनेगा नई कविता का वितान
    नए मनु के नए युग का जगमगाता गान!

    भूख, ख़ूँरेज़ी, ग़रीबी हो मगर
    आदमी के सृजन की ताक़त
    इन सबों की शक्ति के ऊपर
    और कविता सृजन कीआवाज़ है.
    फिर उभरकर कहेगी कविता
    “क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,
    अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है,
    हो चुकी हैवानियत की इन्तेहा,
    आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है!
    लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,
    नया इतिहास देती हूँ!

    कौन कहता है कि कविता मर गई?

    13. सुभाष की मृत्यु पर

    दूर देश में किसी विदेशी गगन खंड के नीचे
    सोये होगे तुम किरनों के तीरों की शैय्या पर
    मानवता के तरुण रक्त से लिखा संदेशा पाकर
    मृत्यु देवताओं ने होंगे प्राण तुम्हारे खींचे

    प्राण तुम्हारे धूमकेतु से चीर गगन पट झीना
    जिस दिन पहुंचे होंगे देवलोक की सीमाओं पर
    अमर हो गई होगी आसन से मौत मूर्च्छिता होकर
    और फट गया होगा ईश्वर के मरघट का सीना

    और देवताओं ने ले कर ध्रुव तारों की टेक –
    छिड़के होंगे तुम पर तरुनाई के खूनी फूल
    खुद ईश्वर ने चीर अंगूठा अपनी सत्ता भूल
    उठ कर स्वयं किया होगा विद्रोही का अभिषेक

    किंतु स्वर्ग से असंतुष्ट तुम, यह स्वागत का शोर
    धीमे-धीमे जबकि पड़ गया होगा बिलकुल शांत
    और रह गया होगा जब वह स्वर्ग देश
    खोल कफ़न ताका होगा तुमने भारत का भोर।

    14. निराला के प्रति

    वह है कारे कजरारे मेघों का स्वामी
    ऐसा हुआ कि
    युग की काली चट्टानों पर
    पाँव जमा कर
    वक्ष तान कर
    शीश घुमा कर
    उसने देखा
    नीचे धरती का ज़र्रा-ज़र्रा प्यासा है,
    कई पीढ़ियाँ
    बूँद-बूँद को तरस-तरस दम तोड़ चुकी हैं,
    जिनकी एक एक हड्डी के पीछे
    सौ सौ काले अंधड़
    भूखे कुत्तों से आपस में गुथे जा रहे।
    प्यासे मर जाने वालों की
    लाशों की ढेरी के नीचे कितने अनजाने
    अनदेखे
    सपने
    जो न गीत बन पाये
    घुट-घुट कर मिटते जाते हैं।
    कोई अनजन्मी दुनिया है
    जो इन लाशों की ढेरी को
    उलट-पुलट कर
    उभर उभर उभर आने को मचल रही है !
    वह था कारे कजरारे मेघों का स्वामी
    उसके माथे से कानों तक
    प्रतिभा के मतवाले बादल लहराते थे
    मेघों की वीणा का गायक
    धीर गंभीर स्वरों में बोला-
    ‘झूम-झूम मृदु गरज गरज घनघोर
    राग अमर अम्बर में भर निज रोर।’
    और उसी के होठों से
    उड़ चलीं गीत की श्याम घटाएँ
    पांखें खोले
    जैसे श्यामल हंसों की पातें लहराएँ !

    कई युगों के बाद
    आज फिर कवि ने मेघों को
    अपना संदेश दिया था
    लेकिन किसी यक्ष विरही का
    यह करुणा-संदेश नहीं था
    युग बदला था
    और आज नव मेघदूत को
    युग-परिवर्तक कवि ने
    विप्लव का गुरुतर आदेश दिया था !
    बोला वह …
    “ओ विप्लव के बादल
    घन-भेरी गर्जन से
    सजग सुप्त अंकुर
    उर में पृथ्वी के, नवजीवन को
    ऊंचा कर सिर ताक रहे हैं
    ऐ विप्लव के बादल फिर-फिर !”
    हर जलधारा
    कल्याणी गंगा बन जाये
    अमृत बन कर प्यासी धरती को जीवन दे
    औ’ लाशों का ढेर बहा कर
    उस अनजन्मी दुनिया को ऊपर ले आये
    जो अन्दर ही अन्दर
    गहरे अँधियारे से जूझ रही है ।
    और उड़ चले वे विप्लव के विषधर बादल
    जिनके प्राणों में थी छिपी हुई
    अमृत की गंगा ।
    बीत गये दिन वर्ष मास ………
    ………………………..

    बहुत दिनों पर
    एक बार फिर
    सहसा उस मेघों के स्वामी ने यह देखा …
    वे विप्लव के काले बादल
    एक एक कर बिन बरसे ही लौट रहे हैं
    जैसे थक कर
    सांध्य-विहग घर वापस आयें
    वैसे ही वे मेघदूत अब भग्नदूत-से वापस आये !

    चट्टानों पर
    पाँव जमा कर वक्ष तान कर
    उसने पूछा…
    ‘झूम-झूम कर
    गरज-गरज कर
    बरस चुके तुम ?’
    अपराधी मेघों ने नीचे नयन कर लिये
    और काँप कर वे यह बोले …
    ‘विप्लव की प्रलयंकर धारा
    कालकूट विष
    सहन कर सके जो
    धरती पर ऐसा मिला न कोई माथा !
    विप्लव के प्राणों में छिपी हुई
    अमृत की गंगा को
    धारण कर लेने वाली
    मिली न कोई ऐसी प्रतिभा
    इसीलिए हम नभ के कोने-कोने में
    अब तक मँडराए
    लेकिन बेबस
    फिर बिन बरसे
    वापस आये।
    ओ हम कारे कजरारे मेघों के स्वामी
    तुम्हीं बता दो
    कौन बने इस युग का शंकर !
    जो कि गरल हँस कर पी जाये
    और जटाएँ खोल
    अमृत की गंगा को भी धारण कर ले!’

    उठा निराला, उन काले मेघों का स्वामी
    बोला…. ‘कोई बात नहीं है
    बड़े बड़ों ने हार दिया है कन्धा यदि तो
    मेरे ही इन कन्धों पर होगा
    अपने युग का गंगावतरण !
    मेरी ही इस प्रतिभा को हँसकर कालकूट भी पीना होगा।’

    और नये युग का शिव बन कर
    उसने अपना सीना तान जटाएँ खोलीं ।

    एक एक कर वे काले ज़हरीले बादल
    उतर गये उसके माथे पर
    और नयन में छलक उठी अमृत की गंगा ।
    और इस तरह पूर्ण हुआ यह नये ढंग का गंगावतरण ।

    और आज वह कजरारे मेघों का स्वामी
    जहर संभाले, अमृत छिपाये
    इस व्याकुल प्यासी धरती पर
    पागल जैसा डोल रहा है,
    आने वाले स्वर्णयुगों को
    अमृतकणों से सींचेगा वह
    हर विद्रोही कदम
    नयी दुनिया की पगडंडी पर लिख देगा,
    हर अलबेला गीत
    मुखर स्वर बन जायेगा
    उस भविष्य का
    जो कि अँधेरे की परतों में अभी मूक है ।
    लेकिन युग ने उसको अभी नहीं समझा है
    वह अवधूतों-जैसा फिरता पागल-नंगा
    प्राणों में तूफ़ान , पलक में अमृत-गंगा ।
    प्रतिभा में
    सुकुमार सजल
    घनश्याम घटाएँ
    जिनके मेघों का गंभीर अर्थमय गर्जन
    है कभी फूट पड़ता अस्फुट वाणी में
    जिसको समझ नहीं पाते हम
    तो कह देते हैं
    यह है केवल पागलपन
    कहते हैं
    चैतन्य महाप्रभु में, सरमद में
    ईसा में भी
    कुछ ऐसा ही पागलपन था
    उलट दिया था
    जिसने अपने युग का तख़्ता ।

    15. थके हुए कलाकार से

    सृजन की थकन भूल जा देवता!
    अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,

    अभी तो पलक में नहीं खिल सकी
    नवल कल्पना की मधुर चाँदनी
    अभी अधखिली ज्योत्सना की कली
    नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी

    अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,
    अधूरी धरा पर नहीं है कहीं

    अभी स्वर्ग की नींव का भी पता!
    सृजन की थकन भूल जा देवता!
    रुका तू गया रुक जगत का सृजन
    तिमिरमय नयन में डगर भूल कर

    कहीं खो गई रोशनी की किरन
    घने बादलों में कहीं सो गया
    नयी सृष्टि का सप्तरंगी सपन
    रुका तू गया रुक जगत का सृजन

    अधूरे सृजन से निराशा भला
    किसलिए जब अधूरी स्वयं पूर्णता
    सृजन की थकन भूल जा देवता!

    प्रलय से निराशा तुझे हो गई
    सिसकती हुई साँस की जालियों में
    सबल प्राण की अर्चना खो गई

    थके बाहुओं में अधूरी प्रलय
    और अधूरी सृजन योजना खो गई

    प्रलय से निराशा तुझे हो गई
    इसी ध्वंस में मूर्च्छिता हो कहीं
    पड़ी हो, नयी ज़िन्दगी; क्या पता?
    सृजन की थकन भूल जा देवता

    16. मुग्धा

    यह पान फूल सा मृदुल बदन
    बच्चों की जिद सा अल्हड़ मन
    तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

    कुँजो की छाया में झिलमिल
    झरते हैं चाँदी के निर्झर
    निर्झर से उठते बुदबुद पर
    नाचा करती परियाँ हिलमिल

    उन परियों से भी कहीं अधिक
    हल्का फुल्का लहराता तन!
    तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

    तुम जा सकतीं नभ पार अभी
    ले कर बादल की मृदुल तरी
    बिजुरी की नव चम चम चुनरी
    से कर सकती सिंगार अभी

    क्यों बाँध रही सीमाओं में
    यह धूप सदृश्य खिलता यौवन?
    तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

    अब तक तो छाया है खुमार
    रेशम की सलज निगाहों पर
    हैं अब तक काँपे नहीं अधर
    पा कर अधरों का मृदुल भार

    सपनों की आदी ये पलकें
    कैसे सह पाएँगी चुम्बन?
    तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

    यह पान फूल सा मृदुल बदन
    बच्चों की जिद सा अल्हड़ मन!

    17. मुक्तक

    एक :
    ओस में भीगी हुई अमराईयों को चूमता
    झूमता आता मलय का एक झोंका सर्द
    काँपती-मन की मुँदी मासूम कलियाँ काँपतीं
    और ख़ुशबू-सा बिखर जाता हृदय का दर्द!

    दो :
    ईश्वर न करे तुम कभी ये दर्द सहो
    दर्द, हाँ अगर चाहो तो इसे दर्द कहो
    मगर ये और भी बेदर्द सज़ा है ऐ दोस्त !
    कि हाड़-बाड़ चिटख जाए मगर दर्द न हो !

    तीन :
    आज माथे पर, नज़र में बादलों को साध कर
    रख दिये तुमने सरल संगीत से निर्मित अधर
    आरती के दीपकों की झिलमिलाती छाँह में
    बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर

    चार :
    फीकी फीकी शाम हवाओं में घुटती घुटती आवाज़ें
    यूँ तो कोई बात नहीं पर फिर भी भारी-भारी जी है,
    माथे पर दु:ख का धुँधलापन, मन पर गहरी-गहरी छाया
    मुझको शायद मेरी आत्मा नें आवाज़ कहीं से दी है!

    18. प्रथम प्रणय

    पहला दृष्टिकोणः

    यों कथा–कहानी–उपन्यास में कुछ भी हो
    इस अधकचरे मन के पहले आकर्षण को
    कोई भी याद नहीं रखता
    चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो!

    कड़वा नैराश्य‚ विकलता‚ घुटती बेचैनी
    धीरे–धीरे दब जाती है‚
    परिवार‚ गृहस्थी‚ रोजी–धंधा‚ राजनीति
    अखबार सुबह‚ संध्या को पत्नी का आँचल
    मन पर छाया कर लेते हैं
    जीवन की यह विराट चक्की
    हर–एक नोक को घिस कर चिकना कर देती‚
    कच्चे मन पर पड़नेवाली पतली रेखा
    तेजी से बढ़ती हुई उम्र के
    पाँवों से मिट जाती है।

    यों कथा–कहानी–उपन्यास में कुछ भी हो
    इस अधकचरे मन की पहली कमज़ोरी को
    कोई भी याद नहीं रखता
    चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो!

    दूसरा दृष्टिकोण:

    यों दुनियाँ–दिखलावे की बात भले कुछ भी हो
    इस कच्चे मन के पहले आत्म–समर्पण को
    कोई भी भूल नहीं पाता
    चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो

    हर–एक काम में बेतरतीबी‚ झुंझलाहट
    जल्दबाजी‚ लापरवाही
    या दृष्टिकोण का रूखापन
    अपने सारे पिछले जीवन
    पर तीखे व्यंग वचन कहना
    या छोटेमोटे बेमानी कामों में भी
    आवश्यकता से कहीं अधिक उलझे रहना
    या राजनीति‚ इतिहास‚ धर्म‚ दर्शन के
    बड़े लबादों में मुह ढक लेना

    इन सबसे केवल इतना ज़ाहिर होता है
    यों दुनियाँ–दिखलावे की बात भले कुछ भी हो
    इस कच्चे मन के पहले आत्म–समर्पण को
    कोई भी भूल नहीं पाता
    चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो।

    19. झील के किनारे

    चल रहा हूँ मैं
    कि मेरे साथ
    कोई और
    चलता
    जा रहा है !
    दूर तक फैली हुई
    मासूम धरती की
    सुहागन गोद में सोये हुए
    नवजात शिशु के नेत्र-सी
    इस शान्त नीली झील
    के तट पर,
    चल रहा हूँ मैं
    कि मेरे साथ
    कोई और
    चलता
    जा रहा है !
    गोकि मेरे पाँव
    थककर चूर
    मेरी कल्पना मजबूर
    मेरे हर क़दम पर
    मंज़िलें भी हो रही हैं
    और मुझसे दूर
    हज़ारों पगडण्डियाँ भी
    उलझनें बनकर
    समायी जा रही हैं
    खोखले मस्तिष्क में,
    लेकिन,
    वह निरन्तर जो कि
    चलता आ रहा है साथ
    इन सबों से सर्वथा निरपेक्ष
    लापरवाह
    नीली झील के
    इस छोर से
    उस छोर तक
    एक जादू के सपन-सा
    तैरता जाता,
    उसे छू
    ओस-भीगी
    कमल पंखुरियाँ
    सिहर उठतीं,
    कटीली लहरियों
    को लाज रंग जाती
    सिन्दूरी रंग,
    पुरइन की नसों में
    जागता
    अँगड़ाइयाँ लेता
    किसी भोरी कुँआरी
    जलपरी
    के प्यार का सपना !
    कमल लतरें
    मृणालों की स्नान-शीतल
    बाँहें फैलाकर
    उभरते फूल-यौवन के
    कसे-से बन्द ढीले कर
    बदलती करवटें,
    इन करवटों की
    इन्द्रजाली प्यास में भी
    झूम लहराकर
    उतरता, डूबता,
    पर डूबकर भी
    सर्वथा निरपेक्ष
    इन सबों के बन्धनों को
    चीरकर, झकझोरकर
    वह शान्त नीली झील की
    गहराइयों से बात करता है,
    गोकि मेरा पन्थ उसका पन्थ
    उसके क़दम मेरे साथ
    किन्तु वह गहराइयों से
    बात करता चल रहा है !
    सृष्टि के पहले दिवस से
    शान्त नीली झील में सोयी हुई गहराइयाँ
    जिनकी पलक में
    युग-युगों के स्वप्न बन्दी हैं !
    पर उसे मालूम है
    इन रहस्यात्मक,
    गूढ़ स्वप्नों का
    सरलतम अर्थ
    जिससे हर क़दम
    का भाग्य,
    वह पहचान जाता है !
    इसलिए हालाँकि मेरे पाँव थककर चूर
    मेरी कल्पना मजबूर
    मेरी मंज़िलें भी दूर
    किन्तु फिर भी
    चल रहा हूँ मैं
    कि, कोई और मेरे साथ
    नीली झील की
    गहराइयों से बात करता चल रहा है !

    20. फूल, मोमबत्तियां, सपने

    यह फूल, मोमबत्तियां और टूटे सपने
    ये पागल क्षण
    यह काम–काज दफ्तर फाइल, उचटा सा जी
    भत्ता वेतन,
    ये सब सच है!
    इनमें से रत्ती भर न किसी से कोई कम,
    अंधी गलियों में पथभृष्टों के गलत कदम
    या चंदा की छाय में भर भर आने वाली आँखे नम,
    बच्चों की सी दूधिया हंसी या मन की लहरों पर
    उतराते हुए कफ़न!
    ये सब सच है!
    जीवन है कुछ इतना विराट, इतना व्यापक
    उसमें है सबके लिए जगह, सबका महत्व,
    ओ मेजों की कोरों पर माथा रख–रख कर रोने वाले
    यह दर्द तुम्हारा नही सिर्फ, यह सबका है।
    सबने पाया है प्यार, सभी ने खोया है
    सबका जीवन है भार, और सब जीते हैं।
    बेचैन न हो–
    यह दर्द अभी कुछ गहरे और उतरता है,
    फिर एक ज्योति मिल जाती है,
    जिसके मंजुल प्रकाश में सबके अर्थ नये खुलने लगते,
    ये सभी तार बन जाते हैं
    कोई अनजान अंगुलियां इन पर तैर–तैर,
    सबसे संगीत जगा देती अपने–अपने
    गूंध जाते हैं ये सभी एक मीठी लय में
    यह काम–काज, संघर्ष विरस कड़वी बातें
    ये फूल, मोमबत्तियां और टूटे सपने
    यह दर्द विराट जिंदगी में होगा परिणित
    है तुम्हे निराशा फिर तुम पाओगे ताकत
    उन अँगुलियों के आगे कर दो माथा नत
    जिसके छू लेने लेने भर से फूल सितारे बन जाते हैं ये मन के छाले,
    ओ मेजों की कोरों पर माथा रख रख कर रोने वाले–
    हर एक दर्द को नये अर्थ तक जाने दो?