साखी/दोहे संत दादू दयाल जी

    0
    390
    मुख पृष्ठ / साहित्यकोश / साखी/दोहे संत दादू दयाल जी

    साखी/दोहे संत दादू दयाल जी
    Sakhi/Dohe Sant Dadu Dayal Ji

    श्री गुरुदेव का अंग संत दादू दयाल जी

    दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
    वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
    परब्रह्म परापरं, सो मम देव निरंजनं।
    निराकारं निर्मलं, तस्य दादू वन्दनं।।2।।
    दादू गैब माँहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद।
    मस्तक मेरे कर धारया, दख्या अगम अगाध।।3।।
    दादू सद्गुरु सहज में, कीया बहु उपकार।
    निर्धन अनवँत कर लिया, गुरु मिलिया दातार।।4।।
    दादू सद्गुरु सूं सहजैं मिल्या, लीया कंठ लगाइ।
    दया भई दयालु की, तब दीपक दिया जगाइ।।5।।
    दादू देखु दयालु की, गुरु दिखाई बाट।
    ताला कूंची लाइ करि, खोले सबै कपाट।।6।।
    दादू सद्गुरु अंजन बाहिकर, नैन पटल सब खोले।
    बहरे कानों सुनने लागे, गूंगे मुख सों बोले।।7।।
    सद्गुरु दाता जीव का, श्रवण शीश कर नैन।
    तन मन सौंज सँवारि सब, मुख रसना अरु बैन।।8।।
    राम नाम उपदेश करि, अगम गवन यहु सैन।
    दादू सद्गुरु सब दिया, आप मिलाये अैन।।9।।
    सद्गुरु कीया फेरिकर, मन का औरै रूप।
    दादू पंचों पलट कर, कैसे भये अनूप।।10।।

    साचा सद्गुरु जे मिले, सब साज सँवारै।
    दादू नाव चढ़ाय कर, ले पार उतारै।।11।।
    सद्गुरु पशु मानुष करै, मानुष तैं सिध्द सोइ।
    दादू सिध्द तैं देवता, देव निरंजन होइ।।12।।
    दादू काढ़े काल मुख, अंधो लोचन देय।
    दादू ऐसा गुरु मिल्या, जीव ब्रह्म कर लेय।।13।।
    दादू काढ़े काल मुख, श्रवणहु शब्द सुनाय।
    दादू ऐसा गुरु मिल्या, मृतक लिये जिवाय।।14।।
    दादू काढ़े काल मुख, गूंगे लिये बुलाय।
    दादू ऐसा गुरु मिल्या, सुख में रहे समाय।।15।।
    दादू काढ़े काल मुख, महर दया कर आय।
    दादू ऐसा गुरु मिल्या, महिमा कही न जाय।।16।।
    सद्गुरु काढ़े केश गहि, डूबत इहि संसार।
    दादू नाव चढ़ायकरि, कीये पैली पार।।17।।
    भव सागर में डूबतां, सद्गुरु काढ़े आय।
    दादू खेवट गुरु मिल्या, लीये नाव चढ़ाय।।18।।
    दादू उस गुरुदेव की, मैं बलिहारी जाउं।
    जहाँ आसन अमर अलेख था, ले राखे उस ठांउं।।19।।
    आतम माँहीं ऊपजै, दादू पंगुल ज्ञान।
    कृत्रिम जाय उलंघि कर, जहाँ निरंजन थान।।20।।

    आत्म बोधा बंझ का बेटा, गुरुमुख उपजै आय।
    दादू पंगुल पंच बिन, जहाँ राम तहँ जाय।।21।।
    साचा सहजैं ले मिले, शब्द गुरु का ज्ञान।
    दादू हमकूं ले चल्या, जहाँ प्रीतम का स्थान।।22।।
    दादू शब्द विचार करि, लागि रहै मन लाय।
    ज्ञान गहैं गुरुदेव का, दादू सहज समाय।।23।।
    दादू सद्गुरु शब्द सुनाय कर, भावै जीव जगाय।
    भावै अन्तर आप कहि, अपने अंग लगाय।।24।।
    दादू बाहर सारा देखिए, भीतर कीया चूर।
    सद्गुरु शब्दों मारिया, जाण न पावे दूर।।25।।
    दादू सद्गुरु मारे शब्द सों, निरखि निरखि निज ठौर।
    राम अकेला रह गया, चित्ता न आवे और।।26।।
    दादू हम को सुख भया, साधा शब्द गुरु ज्ञान।
    सुधि बुधि सोधी समझि करि, पाया पद निर्वान।।27।।
    दादू शब्द बाण गुरु साधु के, दूर दिशंतर जाय।
    जिहिं लागे सो ऊबरे, सूते लिये जगाय।।28।।
    सद्गुरु शब्द मुख सों कह्या, क्या नेड़े क्या दूर।
    दादू सिख श्रवणों सुन्या, सुमिरन लागा सूर।।29।।
    शब्द दूधा, घृत राम रस, मथ कर काढ़े कोइ।
    दादू गुरु गोविन्द बिन, घट-घट समझ न होइ।।30।।

    शब्द दूधा घृत राम रस, कोइ साधु बिलोवणहार।
    दादू अमृत काढ़ ले, गुरुमुख गहै विचार।।31।।
    घीव दूधा में रम रह्या, व्यापक सब ही ठौर।
    दादू बकता बहुत है, मथि काढ़े ते और।।32।।
    कामधोनु घट जीव है, दिन-दिन दुर्बल होय।
    गोरू ज्ञान न उपजै, मथि नहिं खाया सोय।।33।।
    साचा समरथ गुरु मिल्या, तिन तत दिया बताय।
    दादू मोटा महाबली, घट घृत मथिकर खाय।।34।।
    मथि करि दीपक कीजिए, सब घट भया प्रकास।
    दादू दीया हाथ करि, गया निरंजन पास।।35।।
    दीयै दीया कीजिए, गुरुमुख मारग जाय।
    दादू अपने पीव का, दरशन देखै आय।।36।।
    दादू दीया है भला, दिया करो सब कोइ।
    घर में धारया न पाइये, जे कर दिया न होइ।।37।।
    दादू दीये का गुण ते लहैं, दीया मोटी बात।
    दीया जग में चाँदणा, दीया चाले साथ।।38।।
    निर्मल गुरु का ज्ञान गहि, निर्मल भक्ति विचार।
    निर्मल पाया प्रेम रस, छूटे सकल विकार।।39।।
    निर्मल तन मन आत्मा, निर्मल मनसा सार।
    निर्मल प्राणी पंच करि, दादू लंघे पार।।40।।

    परापरी पासै रहै, कोई न जाणै ताहि।
    सद्गुरु दिया दिखाय करि, दादू रह्या ल्यौ लाय।।41।।
    जिन हम सिरजे सो कहाँ, सद्गुरु देहु दिखाय।
    दादू दिल अरवाह का, तहँ मालिक ल्यौ लाय।।42।।
    मुझ ही में मेरा धाणी, पड़दा खोल दिखाय।
    आतम सौं परमातमा, परगट आणि मिलाय।।43।।
    भरि-भरि प्याला प्रेम रस, अपने हाथ पिलाय।
    सद्गुरु के सदिकै किया, दादू बलि-बलि जाय।।44।।
    सरवर भरिया दह दिशा, पंखी प्यासा जाय।
    दादू गुरु परसाद बिन, क्यों जल पीवे आय।।45।।
    मान-सरोवर मांहि जल, प्यासा पीवे आय।
    दादू दोष न दीजिए, घर-घर कहण न जाय।।46।।
    दादू गुरु गरवा मिल्या, ताथैं सब गम होय।
    लोहा पारस परसतां, सहज समाना सोय।।47।।
    दीन गरीबी गहि रह्या, गरवा गुरु गंभीर।
    सूक्षम शीतल सुरति मति, सहज दया गुरु धीर।।48।।
    सोधी दाता पलक में, तिरै तिरावण जोग।
    दादू ऐसा परम गुरु, पाया किहिं संजोग।।49।।
    दादू सद्गुरु ऐसा कीजिए, राम रस माता।
    पार उतारे पलक में, दर्शन का दाता।।50।।

    देवे किरका दरद का, टूटा जोड़े तार।
    दादू सांधो सुरति को, सो गुरु पीर हमार।।51।।
    दादू घायल होय रहे, सद्गुरु के मारे।
    दादू अंग लगाय करि, भव सागर तारे।।52।।
    दादू साचा गुरु मिल्या, साचा दिया दिखाइ।
    साचे को साचा मिल्या, साचा रह्या समाइ।।53।।
    साचा सद्गुरु सोधिले, साँचे लीजे साध।
    साचा साहिब सोधि कर, दादू भक्ति अगाध।।54।।
    सन्मुख सद्गुरु साधु सौं, सांई सौं राता।
    दादू प्याला प्रेम का, महा रस माता।।55।।
    सांई सौं साचा रहै, सद्गुरु सौं शूरा।
    साधू सौं सन्मुख रहै, सो दादू पूरा।।56।।
    सद्गुरु मिलै तो पाइये, भक्ति मुक्ति भण्डार।
    दादू सहजैं देखिए, साहिब का दीदार।।57।।
    दादू सांई सद्गुरु सेविये, भक्ति मुक्ति फल होय।
    अमर अभय पद पाइये, काल न लागे कोय।।58।।
    इक लख चन्दा आण घर, सूरज कोटि मिलाय।
    दादू गुरु गोविंद बिन, तो भी तिमर न जाय।।59।।
    अनेक चंद उदय करे, असंख्य सूर प्रकास।
    एक निरंजन नाम बिन, दादू नहीं उजास।।60।।

    दादू कदि यहु आपा जायगा, कदि यहु बिसरे और।
    कदि यहु सूक्षम होयगा, कदि यहु पावे ठौर।।61।।
    विषम दुहेला जीव को, सद्गुरु तैं आसान।
    जब दरवे तब पाइये, नेड़ा ही अस्थान।।62।।
    दादू नैन न देखे नैन को, अन्तर भी कुछ नाँहि।
    सद्गुरु दर्पण कर दिया, अरस परस मिल माँहि।।63।।
    घट-घट राम रतन है, दादू लखे न कोइ।
    सद्गुरु शब्दों पाइये, सहजैं ही गम होइ।।64।।
    जब ही कर दीपक दिया, तब सब सूझन लाग।
    यूं दादू गुरु ज्ञान तैं, राम कहत जन जाग।।65।।
    दादू मन माला तहाँ फेरिये, जहाँ दिवस न परसे रात।
    तहाँ गुरु बानाँ दिया, सहजै जपिये तात।।66।।
    दादू मन माला तहाँ फेरिये, जहाँ प्रीतम बैठे पास।
    आगम गुरु तैं गम भया, पाया नूर निवास।।67।।
    दादू मन माला तहँ फेरिये, जहाँ आपै एक अनन्त।
    सहजै सो सद्गुरु मिल्या, जुग-जुग फाग बसन्त।।68।।
    दादू सद्गुरु माला मन दिया, पवन सुरति सूँ पोइ।
    बिन हाथों निश दिन जपै, परम जाप यूँ होइ।।69।।
    दादू मन फकीर मांही हुआ, भीतर लीया भेख।
    शब्द गहै गुरुदेव का, माँगे भीख अलेख।।70।।

    दादू मन फकीर सद्गुरु किया, कहि समझाया ज्ञान।
    निश्चल आसन बैस कर, अकल पुरुष का धयान।।71।।
    दादू मन फकीर जग तैं रह्या, सद्गुरु लीया लाय।
    अहनिशि लागा एक सौं, सहज शून्य रस खाय।।72।।
    दादू मन फकीर ऐसे भया, सद्गुरु के परसाद।
    जहाँ का था लागा तहाँ, छूटे वाद विवाद।।73।।
    ना घर रह्या न वन गया, ना कुछ किया कलेश।
    दादू मनहीं मन मिल्या, सद्गुरु के उपदेश।।74।।
    दादू यहु मसीत यहु देहुरा, सद्गुरु दिया दिखाय।
    भीतरि सेवा बन्दगी, बाहर काहे जाय।।75।।
    दादू मंझे चेला मंझे गुरु, मंझे ही उपदेश।
    बाहरि ढ़ूढ़ैं बावरे, जटा बधाये केश ।।76।।
    मन का मस्तक मूंडिये, काम-क्रोध के केश।
    दादू विषै विकार सब, सद्गुरु के उपदेश।।77।।
    दादू पड़दा भरम का, रह्या सकल घट छाय।
    गुरु गोविन्द कृपा करैं, तो सहजैं ही मिट जाय।।78।।
    जिहिं मत साधु उध्दरैं, सो मत लीया शोध।
    मन लै मारग मूल गहि, यह सद्गुरु का परमोध।।79।।
    दादू सोई मारग मन गह्या, जिहिं मारग मिलिये जाय।
    वेद कुरानों ना कह्या, सो गुरु दिया दिखाय।।80।।

    मन भुवंग यहु विष भरया, निर्विष क्यौं ही न होइ।
    दादू मिल्या गुरु गारुड़ी, निर्विष कीया सोइ।।81।।
    एता कीजे आप तैं, तन मन उनमनि लाय।
    पंच समाधी राखिये, दूजा सहज सुभाय।।82।।
    दादू जीव जंजालौं पड़ गया, उलझा नौ मण सूत।
    कोई इक सुलझे सावधान, गुरु बाइक अवधूत।।83।।
    चंचल चहुँ दिशि जात है, गुरु बाइक सों बंधि।
    दादू संगति साधु की, पार-ब्रह्म सों संधि।।84।।
    गुरु अंकुश माने नहीं, उदमद माता अंधा।
    दादू मन चेतै नहीं, काल न देखै फंधा।।85।।
    दादू मारया बिन माने नहीं, यह मन हरि की आन।
    ज्ञान खड़ग गुरुदेव का, ता संग सदा सुजान।।86।।
    जहाँ तैं मन उठि चले, फेरि तहाँ ही राखि।
    तहँ दादू लै लीन करि, साधु कहें गुरु साखि।।87।।
    दादू मन ही सूं मल ऊपजै, मन ही सूं मल धोय।
    सीख चले गुरु साधु की, तो तू निर्मल होय।।88।।
    दादू कच्छब अपने कर लिये, मन इन्द्रिय निजठौर।
    नाम निरंजन लागि रहु, प्राणी परहरि और।।89।।
    मन के मतै सब कोइ खेले, गुरुमुख विरला कोइ।
    दादू मन की माने नहीं, सद्गुरु का शिष्य सोइ।।90।।

    सब जीवों को मन ठगै, मन को विरला कोइ।
    दादू गुरु के ज्ञान सौं, सांई सन्मुख होइ।।91।।
    दादू एक सूं लै लीन होना, सबै सयानप येह।
    सद्गुरु साधु कहत हैं, परम तत्तव जप लेह।।92।।
    सद्गुरु शब्द विवेक बिन, संयम रहा न जाय।
    दादू ज्ञान विचार बिन, विषय हलाहल खाय।।93।।
    घर-घर घट कोल्हू चले, अमीं महा रस जाय।
    दादू गुरु के ज्ञान बिन, विषय हलाहल खाय।।94।।
    सद्गुरु शब्द उलंघ करि, जिन कोई शिष्य जाय।
    दादू पग-पग काल है, जहाँ जाइ तहँ खाय।।94।।
    सद्गुरु बरजे शिष्य करे, क्यों कर बंचे काल।
    दह दिशि देखत बहि गया, पाणी फोड़ी पाल।।96।।
    दादू सद्गुरु कहै सु शिष्य करे, सब सिध्द कारजहोय।
    अमर अभय पद पाइये, काल न लागे कोय।।97।।
    दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो हम तैं जिन होइ।
    सद्गुरु लाजे आपणा, साधु न माने कोइ।।98।।
    दादू ‘हूं’ की ठाहर ‘है’ कहो, ‘तन’ की ठाहर ‘तूं’।
    ‘री’ की ठाहर ‘जी’ कहो, ज्ञान गुरु का यूँ।।99।।
    दादू पंच स्वादी पंच दिशि, पंचे पंचों बाट।
    तब लग कह्या न कीजिये, गह गुरु दिखाया घाट।।100।।

    दादू पंचों एक मत, पंचों पूरया साथ।
    पंचों मिल सन्मुख भये, तब पंचों गुरु की बाट।।101।।
    दादू ताता लोहा तिणे सूँ, क्यों कर पकडया जाय।
    गहन गति सूझे नहीं, गुरु नहीं बूझे आय।।102।।
    दादू अवगुण गुण कर माने गुरु के, सोई शिष्य सुजान।
    सद्गुरु अवगुण क्यों करे, समझे सोई सयान।।103।।
    सोने सेती वैर क्या, मारे घण के घाइ।
    दादू काट कलंक सब, राखे कंठ लगाइ।।104।।
    पाणी माँही राखिये, कनक कलंक न जाइ।
    दादू गुरु के ज्ञान सौं, ताइ अग्नि में बाहि।।105।।
    दादू माँही मीठा हेत कर, ऊपर कड़वा राखि।
    सद्गुरु शिष्य को सीख दे, सब साधूं की साखि।।106।।
    दादू कहे शिष्य भरोसे आपणै, ह्नै बोली हुसियार।
    कहेगा सो बहेगा, हम पहली करैं पुकार।।107।।
    दादू सद्गुरु कहैं सु कीजिये, जे तूं शिष्य सुजान।
    जहाँ लाया तहाँ लाग रहु, बूझे कहाँ अजान।।108।।
    गुरु पहले मन सौं कहैं, पीछे नैन की सैन।
    दादू शिष्य समझैं नहीं, कहि समझावै बैन।।109।।
    कहे लखे सो मानवी, सैन लखे सो साध।
    मन की लखे सु देवता, दादू अगम अगाध।।110।।

    दादू कहि-कहि मेरी जीभ रही, सुन-सुन तेरे कान।
    सद्गुरु बपुरा क्या करे, जो चेला मूढ़ अजान।।111।।
    एक शब्द सब कुछ कह्या, सद्गुरु शिष्य समझाय।
    जहँ लाया तहँ लागे नहीं, फिर-फिर बूझे आय।।112।।
    ज्ञान लिया सब सीख सुनि, मन का मैल न जाय।
    गुरु बिचारा क्या करे, शिष्य विषय हलाहल खाय।।113।।
    सद्गुरु की समझे नहीं, अपने उपजे नाँहि।
    तो दादू क्या कीजिए, बुरी व्यथा मन माँहि।।114।।
    गुरु अपंग पग पंख बिन, शिष्य शाखा का भार।
    दादू खेवट नाव बिन, क्यों उतरेंगे पार।।115।।
    दादू संशा जीव का, शिष्य शाखा का साल।
    दोनों को भारी पड़ी, होगा कौन हवाल।।116।।
    अंधो अंधा मिल चले, दादू बन्धा कतार।
    कूप पड़े हम देखते, अंधो अंधा लार।।117।।
    सोधी नहीं शरीर की, औरों को उपदेश।
    दादू अचरज देखिया, ये जाँयेंगे किस देश।।118।।
    सोधी नहीं शरीर की, कहैं अगम की बात।
    जान कहावें बापुड़े, आयुधा लीये हाथ।।119।।
    दादू माया मांहैं काढ़ि कर, फिर माया में दीन्ह।
    दोऊ जन समझै नहीं, एको काज न कीन्ह।।120।।

    दादू कहै सो गुरु किस काम का, गहि भरमावे आन।
    तत्तव बतावे निर्मला, सो गुरु साधु सुजान।।121।।
    तूं मेरा हूँ तेरा, गुरु शिष्य कीया मंत।
    दोनों भूले जात हैं, दादू विसरा कंत।।122।।
    दुहि-दुहि पीवे ग्वाल गुरु, शिष्य है छेली गाय।
    यह अवसर यों ही गया, दादू कहि समझाय।।123।।
    शिष गोरू गुरु ग्वाल है, रक्षा कर कर लेय।
    दादू राखे जतन करि, आनि धाणी को देय।।124।।
    झूठे अंधो गुरु घणे, भरम दिढ़ावें आय।
    दादू साचा गुरु मिले, जीव ब्रह्म हो जाय।।125।।
    झूठे अंधो गुरु घणे, बंधो विषय विकार।
    दादू साचा गुरु मिले, सन्मुख सिरजनहार।।126।।
    झूठे अंधो गुरु घणे, भरम दिढ़ावें काम।
    बंधो माया मोह सों, दादू मुख सों राम।।127।।
    झूठे अंधो गुरु घणे, भटकैं घर-घर बार।
    कारज को सीझे नहीं, दादू माथे मार।।128।।
    दादू भक्त कहावें आपको, भक्ति न जाने भेव।
    सपने हीं समझे नहीं, कहाँ बसे गुरुदेव।।129।।
    भरम करम जग बंधिया, पंडित दिया भुलाय।
    दादू सद्गुरु ना मिले, मारग देइ दिखाय।।130।।

    दादू पंथ बतावें पाप का, भरम कर्म विश्वास।
    निकट निरंजन जे रहै, क्यों न बतावें तास।।131।।
    दादू आपा उरझे उरझिया, दीसे सब संसार।
    आपा सुरझे सुरझिया, यहु ज्ञान विचार।।132।।
    साधु का अंग निर्मला, तामें मल न समाय।
    परम गुरु परगट कहैं, तातैं दादू ताय।।133।।
    राम नाम गुरु शब्द सों, रे मन पेलि भरंम।
    निहकरमी सूं मन मिल्या, दादू काटि करंम।।134।।
    दादू बिन पायन का पंथ है, क्यों कर पहुँचे प्रान।
    विकट घाट औघट खरे, माँहि शिखर असमान।।135।।
    मन ताजी चेतन चढ़े, ल्यौ की करे लगाम।
    शब्द गुरु का ताजणा, कोई पहुँचे साधु सुजान।।136।।
    साधों सुमिरण सो कह्या, जिहिँ सुमिरण आपा भूल।
    दादू गहि गम्भीर गुरु, चेतन आनँद मूल।।137।।
    दादू आप सवारथ सब सगे, प्राण सनेही नाँहि।
    प्राण सनेही राम है, कै साधु कलि माँहि।।138।।
    सुख का साथी जगत् सब, दुख का नाहीं कोइ।
    दुख का साथी सांइया, दादू सद्गुरु होइ।।139।।
    सगे हमारे साधु हैं, शिर पर सिरजनहार।
    दादू सद्गुरु सो सगा, दूजा धांधा विकार।।140।।

    दादू के दूजा नहीं, एकै आतम राम।
    सद्गुरु शिर पर साधु सब, प्रेम भक्ति विश्राम।।141।।
    दादू शुधा बुधा आत्मा, सद्गुरु परसे आय।
    दादू भृंगी कीट ज्यौं, देखत ही हो जाय।।142।।
    दादू भृंगी ज्यौं, सद्गुरु सेती होय।
    आप सरीखे कर लिये, दूजा नाँही कोय।।143।।
    दादू कच्छप राखे दृष्टि में कुंजों के मन माँहिं।
    सद्गुरु राखे आपणा, दूजा कोई नाँहिं।।144।।
    बच्चों के माता पिता, दूजा नाँहीं कोइ।
    दादू निपजे भाव सूं, सद्गुरु के घट होइ।।145।।
    एकै शब्द अनन्त शिष्य, जब सद्गुरु बोलै।
    दादू जड़े कपाट सब, दे कूँची खोलै।।146।।
    बिन ही किये होय सब, सन्मुख सिरजनहार।
    दादू कर कर को मरे, शिष्य शाखा शिर भार।।147।।
    सूरज सन्मुख आरसी, पावक किया प्रकास।
    दादू सांई साधु बिच, सहजैं निपजै दास।।148।।
    दादू पंचों ये परमोधा ले, इनहीं को उपदेश।
    यहु मन अपणा हाथ कर, तो चेला सब देश।।149।।
    अमर भये गुरु ज्ञान सौं, केते इहिं कलि माँहि।
    दादू गुरु के ज्ञान बिन, केते मरि-मरि जाँहि।।150।।

    औषधि खाइ न पछ रहे, विषम व्याधि क्यों जाय।
    दादू रोगी बावरा, दोष वैद्य को लाय।।151।।
    वैद्य व्यथा कहे देखि कर, रोगी रहे रिसाय।
    मन माँही लीये रहै, दादू व्याधि न जाय।।152।।
    दादू वैद्य बिचारा क्या करे, रोगी रहे न साँच।
    खाटा मीठा चरपरा, माँगे मेरा वाच।।153।।
    दुर्लभ दरशन साधु का, दुर्लभ गुरु उपदेश।
    दुर्लभ करिबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख।।154।।
    दादू अविचल मंत्रा, अमर मंत्रा अखै मंत्रा, अभय मंत्रा, राम मंत्रा, निजसार।
    संजीवन मंत्रा, सबीरज मंत्रा, सुंदर मंत्रा, शिरोमणिमंत्रा, निर्मल मंत्रा, निराकार।
    अलख मंत्रा, अकल मंत्रा, अगाधा मंत्रा, अपार मंत्रा, अनंत मंत्रा, राया।
    नूर मंत्रा, तेज मंत्रा, ज्योति मंत्रा, प्रकाश मंत्रा, परम मंत्रा, पाया।।155।।
    दादू सब ही गुरु किये, पशु पंखी बन राय।
    तीन लोक गुण पंच सौं, सब ही माँहि खुदाय।।156।।
    जो पहली सद्गुरु कह्या, सो नैनहुँ देख्या आइ।
    अरस परस मिलि एक रस, दादू रहे समाइ।।157।।
    ।।इति गुरुदेव का अंग सम्पूर्ण।।

    सुमिरण का अंग संत दादू दयाल जी

    दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरु देवत:।
    वन्दनं सर्व साधावा, प्रणामं पारंगत:।।1।।
    एकै अक्षर पीव का, सोई सत्य करि जाणि।
    राम नाम सद्गुरु कह्या, दादू सो परवाणि।।2।।
    पहली श्रवण द्वितीय रसन, तृतीय हिरदै गाय।
    चतुर्थी चिंतन भया, तब रोम-रोम ल्यौ लाय।।3।।
    दादू नीका नाम है, तीन लोक तत सार।
    रात दिवस रटबौ करी, रे मन इहै विचार।।4।।
    दादू नीका नाम है, हरि हिरदै न विसार।
    मूर्ति मन माँहीं बसे, श्वासैं श्वास सँभार।।5।।
    श्वासैं श्वास सँभालतां, इक दिन मिलि है आय।
    सुमिरण पैंडा सहज का, सद्गुरु दिया बताय।।6।।
    दादू नीका नाम है, सो तू हिरदै राखि।
    पाखंड प्रपंच दूर कर, सुनि साधु जन की साखि।।7।।
    दादू नीका नाम है, आप कहै समझाय।
    और आरंभ सब छाड़ि दे, राम नाम ल्यौ लाय।।8।।
    राम भजन का सोच क्या, करतां होइ सो होय।
    दादू राम सँभालिये, फिर बूझिये न कोय।।9।।
    राम तुम्हारे नाम बिन, जे मुख निकसे और।
    तो इस अपराधी जीव को, तीन लोक कित ठौर।।10।।

    छिन-छिन राम सँभालतां, जे जिव जाय तो जाय।
    आतम के आधार को, नाहीं आन उपाय।।11।।
    एक महूरत मन रहै, नाम निरंजन पास।
    दादू तब ही देखतां, सकल करम का नास।।12।।
    सहजैं ही सब होइगा, गुण इन्द्री का नास।
    दादू राम सँभालतां, कटै कर्म के पास।।13।।
    एक राम के नाम बिन, जीवन की जलनी न जाय।
    दादू केते पचि मुये, करि करि बहुत उपाय।।14।।
    दादू एक राम की टेक गहि, दूजा सहज सुभाय।
    राम नाम छाडै नहीं, दूजा आवै जाय।।15।।
    दादू राम अगाधा है, परिमित नाँही पार।
    अवर्ण वर्ण न जाणिये, दादू नाम अधार।।16।।
    दादू राम अगाधा है, अविगति लखै न कोइ।
    निर्गुण सगुण का कहै, नाम विलम्ब न होइ।।17।।
    दादू राम अगाधा है, बेहद लख्या न जाय।
    आदि अंत नहिं जाणिये, नाम निरंतर गाय।।18।।
    दादू राम अगाधा है, अकल अगोचर एक।
    दादू नाम विलंबिये, साधू कहैं अनेक।।19।।
    दादू एकै अल्लह राम है, समर्थ सांई सोय।
    मैदे के पकवान सब, खातां होय सु होय।।20।।

    सगुण निर्गुण ह्नै रहे, जैसा है तैसा लीन।
    हरि सुमिरण ल्यौ लाइये, का जाणौं का कीन।।21।।
    दादू सिरजनहार के, केते नाम अनंत।
    चित आवै सो लीजिये, यूँ साधू सुमरैं संत।।22।।
    दादू जिन प्राण पिंड हम कूं दिया, अंतर सेवैं ताहि।
    जे आवै औसाण शिर, सोई नाम संबाहि।।23।।
    दादू ऐसा कौण अभागिया, कछू दिढ़ावे और।
    नाम बिना पग धारन कौं, कहो कहाँ है ठौर।।24।।
    दादू निमष न न्यारा कीजिए, अंतर तैं उर नाम।
    कोटि पतित पावन भये, केवल कहतां राम।।25।।
    दादू जे तैं अब जाण्या नहीं, राम नाम निज सार।
    फिर पीछे पछिताहिगा, रे मन मूढ़ गँवार।।26।।
    दादू राम सँभालि ले, जब लग सुखी शरीर।
    फिर पीछैं पछिताहिगा, जब तन मन धारै न धीर।।27।।
    दुख दरिया संसार है, सुख का सागर राम।
    सुख सागर चलि जाइये, दादू तज बेकाम।।28।।
    दादू दरिया यह संसार है तामें राम नाम जिननाव।
    दादू ढ़ील न कीजिए, यहु औसर यहु डाव।।29।।
    मेरे संशा को नहीं, जीवण-मरण का राम।
    सपनैं ही जिन बीसरै, मुख हिरदै हरिनाम।।30।।

    दादू दुखिया तब लगै, जब लग नाम न लेह।
    तब ही पावन परम सुख, मेरी जीवनि येह।।31।।
    कछू न कहावै आपकौं, सांई कूं सेवै।
    दादू दूजा छाडि सब, नाम निज लेवै।।32।।
    जे चित चहुँटे राम सौं, सुमिरण मन लागै।
    दादू आतम जीव का, संशा सब भागै।।33।।
    दादू पिव का नाम ले, तौ हि मिटे शिर साल।
    घड़ी महूरत चालणां, कैसी आवै कालि।।34।।
    दादू औसर जीव तैं, कह्या न केवल राम।
    अंतकाल हम कहैंगे, जम वैरी सौं काम।।35।।
    दादू ऐसे महँगे मोल का, एक श्वास जे जाय।
    चौदह लोक समान सो, काहे रेत मिलाय।।36।।
    सोइ श्वास सुजाण नर, सांई सेती लाइ।
    करि साटा सिरजनहार सूं, महँगे मोल बिकाइ।।37।।
    जतन करे नहिं जीव का, तन मन पवना फेरि।
    दादू महँगे मोल का, द्वै दोवटी इक सेर।।38।।
    दादू रावत राजा राम का, कदे न विसारी नाँव।
    आतम राम सँभालिये, तो सु बस काया गाँव।।39।।
    दादू अहनिश सदा शरीर में हरि, चिन्तत दिन जाय।
    प्रेम मगन लै लीन मन, अन्तर गति ल्यौ लाय।।40।।

    निमष एक न्यारा नहीं, तन मन मंझि समाय।
    एक अंग लागा रहै, ताकूं काल न खाय।।41।।
    दादू पिंजर पिंड शरीर का, सुवटा सहज समाय।
    रमता सेती रमि रहै, विमल-विमल जश गाय।।42।।
    अविनाशी सूं एक ह्नै, निमष न इत उत जाय।
    बहुत बिलाई क्या करे, जे हरि-हरि शब्द सुनाय।।43।।
    दादू जहाँ रहूँ तहँ राम सूं, भावै कंदलि जाय।
    भावै गिरि परबत रहूँ, भावै गेह बसाय।।44।।
    भावै जाइ जलहरि रहूँ, भावै शीश नवाय।
    जहाँ तहाँ हरि नाम सूं हिरदै हेत लगाय।।45।।
    दादू राम कहे सब रहत है, नख शिख सकल शरीर।
    राम कहे बिन जात है, समझी मनवा वीर।।46।।
    दादू राम कहे सब रहत है, लाहा मूल सहेत।
    राम कहे बिन जात है, मूरख मनवा चेत।।47।।
    दादू राम कहे सब रहत है, आदि अन्त लौं सोय।
    राम कहे बिन जात है, यहु मन बहुरि न होय।।48।।
    दादू राम कहे सब रहत है, जीव ब्रह्म की लार।
    राम कहे बिन जात है, रे मन हो हुशियार।।49।।
    हरि भज साफल जीवणा, पर उपकार समाय।
    दादू मरणा तहाँ भला, जहाँ पशु पक्षी खाय।।50।।

    दादू राम शब्द मुख ले रहै, पीछै लागा जाय।
    मनसा वाचा करमना, तिहिं, तत सहजि समाय।।51।।
    दादू रचि मचि लागे नाम सौं, राते माते होय।
    देखेंगे दीदार कूं, सुख पावैंगे सोय।।52।।
    दादू सांई सेवै सब भले, बुरा न कहिये कोइ।
    सारौं माँही सो बुरा, जिस घट नाम न होइ।।53।।
    दादू जियरा राम बिन, दुखिया इहि संसार।
    उपजै विनशै खपि मरे, सुख दुख बारंबार।।54।।
    राम नाम रूचि ऊपजे, लेवे हित चित लाय।
    दादू सोई जीयरा, काहे जमपुरि जाय।।55।।
    दादू नीकी बरियाँ आय करि, राम जप लीन्हा।
    आतम साधान सोधि करि, कारज भल कीन्हा।।56।।
    दादू अगम वस्तु पानैं पड़ी, राखी मांझि छिपाय।
    छिन-छिन सोई संभालिये, मति वै बीसर जाय।।57।।
    दादू उज्ज्वल निर्मला, हरि रँग राता होय।
    काहे दादू पचि मरे, पानी सेती धोय।।58।।
    शरीर सरोवर राम जल, माँहैं संयम सार।
    दादू सहजैं सब गये, मन के मैल विकार।।59।।
    दादू राम नाम जलं कृत्तवा, स्नानं सदा जित:।
    तन मन आतम निर्मलं, पचं भू पापं गत:।।60।।

    दादू उत्ताम इन्द्री निग्रहं, मुच्यते माया मन:।
    परम पुरुष पुरातनं, चिन्तते सदा तन:।।61।।
    दादू सब जग विष भरा, निर्विष विरला कोय।
    सोई निर्विष होयगा, जाके नाम निरंजन होय।।62।।
    दादू निर्विष नाम सौं, तन मन सहजैं होय।
    राम निरोगा करेगा, दूजा नाहीं कोय।।63।।
    ब्रह्मभक्ति जब ऊपजे, तब माया भक्ति विलाय।
    दादू निर्मल मल गया, ज्यूँ रवि तिमिर नशाय।।64।।
    दादू विषय विकार सूं, जब लग मन राता।
    तब लग चित्ता न आवई, त्रिाभुवनपति दाता।।65।।
    दादू का जाणौं कब होयगा, हरि सुमिरण इकतार।
    का जाणौं कब छाड़ि है, यह मन विषय विकार।।66।।
    है सो सुमिरण होता नहीं, नहीं सु कीजे काम।
    दादू यहु तन यौं गया, क्यूँ करि पाइये राम।।67।।
    दादू राम नाम निज मोहनी, जिन मोहे करतार।
    सुर नर शंकर मुनि जना, ब्रह्मा सृष्टि विचार।।67।।
    दादू राम नाम निज औषधी, काटे कोटि विकार।
    विषम व्याधि तैं ऊबरे, काया कंचन सार।।69।।
    दादू निर्विकार निज नाम ले, जीवन इहै उपाइ।
    दादू कृत्रिम काल है, ताके निकट न जाइ।।70।।

    मन पवना गहि सुरति सौं, दादू पावे स्वाद।
    सुमिरण माँहीं सुख घणा, छाडि देहु बकवाद।।71।।
    नाम सपीड़ा लीजिए, प्रेम भक्ति गुण गाय।
    दादू सुमिरण प्रीति सौं, हेत सहित ल्यौ लाय।।72।।
    प्राण कमल मुख राम कहि, मन पवना मुख राम।
    दादू सुरति मुख राम कहि, ब्रह्म शून्य निज ठाम।।73।।
    दादू कहतां सुनता राम कहि लेतां देतां राम।
    खातां पीतां राम कहि, आत्म कमल विश्राम।।74।।
    ज्यों जल पैसे दूधा में, ज्यों पाणी में लौंण।
    ऐसे आतम राम सौं, मन हठ साधो कौंण।।75।।
    दादू राम नाम में पैसि करि, राम नाम ल्यो लाय।
    यह इकंत त्राय लोक में, अनत काहे को जाय।।76।।
    ना घर भला न वन भला, जहाँ नहीं निज नाम।
    दादू उनमनी मन रहै, भला तो सोई ठाम।।77।।
    दादू निर्गुणं नामं मई, हृदय भाव प्रवर्ततं।
    भरमं करमं किल्विषं, माया मोहं कंपितम्ड्ड78।।
    कालं जालं सोचितं, भयानक जम किंकरं।
    हरषं मुदितं सद्गुरं, दादू अविगत दर्शनं।।79।।
    दादू सब सुख स्वर्ग पयाल के, तोल तराजू बाहि।
    हरि सुख एक पलक का, ता सम कह्या न जाइ।।80।।

    दादू राम नाम सब को कहे, कहिबे बहुत विवेक।
    एक अनेकौं फिर मिलै, एक समाना एक।।81।।
    दादू अपणी अपणी हद्द में, सबको लेवे नांउ।
    जे लागे बेहद्द सौं, तिनकी मैं बलि जांउ।।82।।
    कौण पटंतर दीजिए, दूजा नाहीं कोय।
    राम सरीखा राम है, सुमिरयां ही सुख होय।।83।।
    अपनी जाणे आप गति, और न जाणे कोइ।
    सुमिर-सुमिर रस पीजिए, दादू आनँद होइ।।84।।
    दादू सब ही वेद पुराण पढ़ि, नेटि नाम निर्धार।
    सब कुछ इनहीं माँहि है, क्या करिये विस्तार।।85।।
    पढ़-पढ़ थाके पंडिता, किनहुँ न पाया पार।
    कथ-कथ थाके मुनि जना, दादू नाम अधार।।86।।
    निगम हि अगम विचारिये, तउ पार न पावे।
    तातैं सेवक क्या करे, सुमिरण ल्यौ लावे।।87।।
    दादू अलिफ एक अल्लाह का, जे पढ़ जाणै कोइ।
    कुरान कतेबां इलम सब, पढ़कर पूरा होइ।।88।।
    दादू यहु मन पिंजरा, माँही मन सूवा।
    एक नाम अल्लाह का, पढ़ हाफिज हूवा।।89।।
    नाम लिया तब जाणिये, जे तन मन रहै समाइ।
    आदि अंत मधय एक रस, कबहूँ भूलि न जाइ।।90।।

    दादू एकै दशा अनन्य की, दूजी दशा न जाइ।
    आपा भूलै आन सब, एकै रहै समाइ।।91।।
    दादू पीवे एक रस, बिसरि जाय सब और।
    अविगत यहु गति कीजिए, मन राखो इहि ठौर।।92।।
    आतम चेतन कीजिए, प्रेम रस पीवे।
    दादू भूले देह गुण, ऐसै जन जीवे।।93।।
    कहि कहि केते थाके दादू, सुनि सुनि कहु क्या लेय।
    लूंण मिले गलि पाणियाँ, ता सम चित यौं देय।।94।।
    दादू हरि रस पीवतां, रती विलम्ब न लाय।
    बारंबार सँभालिये, मति वै बीसरि जाय।।95।।
    दादू जागत सपना ह्नै गया, चिन्तामणि जब जाय।
    तब ही साचा होत है, आदि अन्त उर लाय।।96।।
    नाम न आवे तब दुखी, आवे सुख सन्तोष।
    दादू सेवक राम का, दूजा हरख न शोक।।97।।
    मिलै तो सब सुख पाइए, बिछुरे बहु दुख होय।
    दादू सुख दुख राम का, दूजा नाहीं कोय।।98।।
    दादू हरि का नाम जल, मैं मीन ता माँहि।
    संग सदा आनन्द करे, विछुरत ही मर जाँहि।।99।।
    दादू राम विसार करि, जीवें किहिं आधाार।
    ज्यौं चातक जल बूँद कूँ, करे पुकार पुकार।।100।।

    हम जीवें इहि आसिरे, सुमिरण के आधाार।
    दादू छिटके हाथ तैं, तो हमको वार न पार।।101।।
    दादू नाम निमित राम हि भजे, भक्ति निमित भज सोय।
    सेवा निमित सांई भजे, सदा सजीवन होय।।102।।
    दादू राम रसायन नित चवै, हरि है हीरा साथ।
    सो धान मेरे सांइयां, अलख खजीना हाथ।।103।।
    हिरदै राम रहे जा जन के, ताको ऊरा कौन कहै।
    अठ सिधि नौ निधि ताके आगे, सन्मुख सदा रहै।।104।।
    वंदित तीनों लोक बापुरा, कैसे दरश लहै।
    नाम निसान सकल जग उपरि, दादू देखत है।।105।।
    दादू सब जग नीधाना, धानवंता नहिं कोय।
    सो धानवंता जानिये, जाके राम पदारथ होय।।106।।
    संगहि लागा सब फिरे, राम नाम के साथ।
    चिन्तामणि हिरदै बसे, तो सकल पदारथ हाथ।।107।।
    दादू आनँद आतमा, अविनाशी के साथ।
    प्राणनाथ हिरदै बसे, तो सकल पदारथ हाथ।।108।।
    दादू भावे तहाँ छिपाइये, साच न छाना होय।
    शेष रसातल गगन धारू, परकट कहिये सोय।।109।।
    दादू कहाँ था नारद मुनिजना, कहाँ भक्त प्रहलाद।
    परकट तीनों लोक में, सकल पुकारैं साध।।110।।

    दादू कहाँ शिव बैठा धयान धारि, कहाँ कबीरा नाम।
    सौ क्यूँ छाना होयगा, जे रु कहेगा राम।।111।।
    दादू कहाँ लीन शुकदेव था, कहाँ पीपा रैदास।
    दादू साचा क्यों छिपे, सकल लोक परकास।।112।।
    दादू कहाँ था गोरख थरथरी, अनंत सिधों का मंत।
    परकट गोपीचन्द है, दत्ता कहैं सब संत।।113।।
    अगम अगोचर राखिए, कर कर कोटि जतन।
    दादू छाना क्यों रहै, जिस घट राम रतन।।114।।
    दादू स्वर्ग पयाल में, साचा लेवे नाम।
    सकल लोक शिर देखिए, परकट सब ही ठाम।।115।।
    सुमिरण का संशय रह्या, पछितावा मन माँहि।
    दादू मीठा राम रस, सगला पीया नाँहि।।116।।
    दादू जैसा नाम था, तैसा लीया नाँहि।
    हौंस रही यहु जीव में, पछितावा मन माँहि।।117।।
    दादू शिर करवत बहै, बिसरे आतम राम।
    माँहि कलेजा काटिये, जीव नहीं विश्राम।।118।।
    दादू शिर करवत बहै, राम हृदै थें जाय।
    माँहि कलेजा काटिये, काल दशों दिशि खाय।।119।।
    दादू शिर करवत बहै, अंग परस नहिं होय।
    माँहि कलेजा काटिये, यहु व्यथा न जाणे कोय।।120।।

    दादू शिर करवत बहै, नैनहुँ निरखे नाँहि।
    माँहि कलेजा काटिये, साल रह्या मन माँहि।।121।।
    जेता पाप सब जग करे, तेता नाम बिसारे होइ।
    दादू राम सँभालिये, तो येता डारे धोइ।।122।।
    दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही मोटी मार।
    खंड-खंड कर नाखिये, बीज पड़े तिहिं बार।।123।।
    दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही झ्रपै काल।
    शिर ऊपर करवत बहै, आइ पड़े जम जाल।।124।।
    दादूजबही राम बिसारिये, तब ही कँध विनाश।
    पग-पग परले पिंड पड़े, प्राणी जाइ निराश ।।125।।
    दादू जब ही राम बिसारिए, तब ही हाना होय।
    प्राण पिंड सर्वस गया, सुखी न देख्या कोय।।126।।
    साहिबजी के नाम मां, विरहा पीड़ पुकार।
    ताला-बेली रोवणा, दादू है दीदार।।127।।
    साहिबजी के नाम मां, भाव भक्ति विश्वास।
    लै समाधि लागा रहे, दादू सांई पास।।128।।
    साहिबजी के नाम मां, मति बुधि ज्ञान विचार।
    प्रेम प्रीति सनेह सुख, दादू ज्योति अपार।।129।।
    साहिबजी के नाम मां, सब कुछ भरे भंडार।
    नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार।।130।।
    जिसमें सब कुछ सो लिया, निरंजन का नांउ।
    दादू हिरदै राखिये, मैं बलिहारी जांउ।।131।।

    ।।इति सुमिरण का अंग सम्पूर्ण।।