पल्लव सुमित्रानंदन पंत

    0
    267
    मुख पृष्ठ / साहित्यकोश / पल्लव सुमित्रानंदन पंत

    Pallav Sumitranandan Pant

    पल्लव सुमित्रानंदन पंत

    1. पल्लव

    अरे! ये पल्लव-बाल!
    सजा सुमनों के सौरभ-हार
    गूँथते वे उपहार;
    अभी तो हैं ये नवल-प्रवाल,
    नहीं छूटो तरु-डाल;
    विश्व पर विस्मित-चितवन डाल,
    हिलाते अधर-प्रवाल!

    न पत्रों का मर्मरु संगीत,
    न पुरुषों का रस, राग, पराग;
    एक अस्फुट, अस्पष्ट, अगीत,
    सुप्ति की ये स्वप्निल मुसकान;
    सरल शिशुओं के शुचि अनुराग,
    वन्य विहगों के गान !

    हृदय के प्रणय कुंज में लीन
    मूक कोकिल का मादक गान,
    बहा जब तन मन बंधन हीन
    मधुरता से अपनी अनजान;
    खिल उठी रोओं सी तत्काल
    पल्लवों की यह पुलकित डाल !

    प्रथम मधु के फूलों का बाण
    दुरा उर में, कर मृदु आघात,
    रुधिर से फूट पड़ी रुचिमान
    पल्लवों की यह सजल प्रभात;
    शिराओं में उर की अज्ञात
    नव्य जग जीवन कर गतिवान !

    दिवस का इनमें रजत-प्रसार
    उषा का स्वर्ण-सुहाग;
    निशा का तुहिन-अश्रु-श्रृंगार,
    साँझ का निःस्वन राग;
    नवोढ़ा की लज्जा सुकुमार,
    तरुणतम-सुन्दरता की आग!

    कल्पना के ये विह्वल बाल,
    आँख के अश्रु, हृदय के हास;
    वेदना के प्रदीप की ज्वाल,
    प्रणय के ये मधुमास;
    सुछवि के छाया वन की साँस
    भर गई इनमें हाव, हुलास !

    आज पल्लवित हुई है डाल,
    झुकेगा कल गुंजित-मधुमास !
    मुग्ध होंगे मधु से मधु-बाल,
    सुरभि से अस्थिर मरुताकाश !

    (नवम्बर १९२४)

    2. उच्छ्वास

    ( सावन-भादों)

    (सावन)

    सिसकते, अस्थिर मानस से
    बाल बादल सा उठकर आज
    सरल, अस्कूट उच्छ्वास !
    अपने छाया के पंखों में
    (नीरव घोष भरे शंखों में)
    मेरे आँसू गूँथ, फैल गंभीर मेघ सा,
    आच्छादित कर ले सारा आकाश !

    यह अमूल्य मोती का साज,
    इन सुवर्णमय, सरस परों में
    (शुचि स्वभाव से भरे सरों में)
    तुझको पहना जगत देखले; -यह स्वर्गीय प्रकाश !

    मंद, विद्युत सा हँसकर,
    वज्र सा उर में धंसकर

    गरज, गगन के गान ! गरज गंभीर स्वरों में,
    भर अपना संदेश उरों में, औ’ अधरों में;
    बरस धरा में, बरस सरित, गिरि, सर, सागर में,
    हर मेरा संताप, पाप जग का क्षणभर में !

    हृदय के सुरभित साँस!
    जरा है आदरणीय;
    सुखद यौवन ! बिलास् उपवन रमणीय;
    शैशव ही है एक स्नेह की वस्तु, सरल, कमनीय,
    -बालिका ही थी वह भी!

    सरलपन ही था उसका मन
    निरालापन था आभूषण,
    कान से मिले अजान नयन
    सहज था सजा सजीला तन !
    सुरीले, ढीले अधरों बीच
    अधूरा उसका लचका गान
    विचक बचपन को, मन को खींच
    उचित बन जाता था उपमान ।

    छपी सी पी सी मृदु मुसकान
    छिपीसी, खिंची सखी सी साथ,
    उसी की उपमा सी बन, मान
    गिरा का धरती थी, धर हाथ !

    रंगीले, गीले फूलों-से
    अधखिले भावों से प्रमुदित
    बाल्य सरिता के फूलों से
    खेलती थी तरंग सी नित !
    -इसी में था असीम अवसित !

    मधुरिमा के मधुमास !
    मेरा मधुकर का सा जीवन
    कठिन कर्म है, कोमल है मन;
    विपुल मृदुल सुमनों से सुरभित,
    विकसित है विस्तृत जग उपवन !

    यहीं हैं मेरे तन, मन, प्राण,
    यही हैं ध्यान, यही अभिमान;
    धूलि की ढेरी में अनजान
    छिपे हैं मेरे मधुमय गान !

    कुटिल कांटे हैं कहीं कठोर,
    जटिल तरु जाल हैं किसी ओर,
    सुमन दल चुन चुन कर निशि-भोर
    खोजना है अजान वह छोर ।
    -नवल कलिका थी वह !

    उसके उस सरलपने से
    मैंने था हृदय सजाया,
    नित मधुर मधुर गीतों से
    उसका उर था उकसाया ।

    कह उसे कल्पनाओं की
    कल कल्प लता, अपनाया;
    बहु नवल भावनाओं का
    उसमें पराग था पाया ।

    मैं मंद हास सा उसके
    मृदु अधरों पर मंडराया;
    औ’ उसकी सुखद सुरभि से
    प्रतिदिन समीप खिंच आया ।

    पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
    पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश !

    मेखलाकार पर्वत अपार
    अपने सहस्र दृग सुमन फाड़
    अवलोक रहा है बार बार
    नीचे जल में निज महाकार;

    -जिसके परणों में पला ताल
    दर्पण सा फैला है विशाल ! !

    गिरि का गौरव गाकर झर् झर्
    मद से नस नस उत्तेजित कर
    मोती की लड़ियों से सुन्दर
    झरते हैं झाग भरे निर्झर !

    गिरिवर के उर से उठ उठकर
    उच्चाकांक्षाओं – से तरुवर
    हैं झाँक रहे नीरव नभ पर,
    अनिमेष, अटक कुछ चिन्तापर !

    -उड़ गया, अचानक, लो, भूधर
    फड़का अपार वारिद के पर !
    रव शेष रह गए हैं निर्झर
    है टूट पडा भू पर अंबर !

    धंस गए धरा में सभय शाल
    उठ रहा धुंआं, जल गया ताल !
    -यों जलद यान में विचर, विचर,
    था इन्द्र खेलता इन्द्रजाल !
    (वह सरला उस गिरि को कहती थी बादल घर !)

    इस तरह मेरे चितेरे हृदय की
    बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी;
    सरल शैशव की सुखद सुधि सी वही
    बालिका मेरी मनोरम मित्र थी!

    (भादों)

    दीप के बचे विकास !
    अनिल सा लोक लोक में,
    हर्ष में और शोक में,
    कहाँ नहीं है स्नेह ? साँस सा सबके उर में !

    रुदन, क्रीड़न, आलिंगन,
    भरण, सेवन, आराधन,
    शशि की सी ये कलित कलाएँ किलक रही हैं पुर पुर में !

    यही तो है बचपन का हास
    खिले यौवन का मधुप विलास,
    प्रौढ़ता का वह बुद्धि विकास,
    जरा का अंतर्नयन प्रकाश !
    जन्मदिन का है यही हुलास,
    मृत्यु का यही दीर्घ नि:श्वास !

    है यह वैदिक वाद;
    विश्व का सुख दुखमय उन्माद !
    एक्तामय है इसका नाद-
    गिरा हो जाती है सनयन,
    नयन करते नीरव भाषण;
    श्रवण तक आ जाता है मन,
    स्वयं मन करता बात श्रवण ।

    अणुओं में रहता है हास
    हास में अश्रुकणों का भास;
    श्वास में छिपा हुआ उच्छ्वास
    और उच्छ्वासों ही में प्यास !

    बँधे हैं जीवन तार;
    सब में छिपी हुई है यह झंकार !
    हो जाता संसार
    नहीं तो दारुण हाहाकार !

    मुरली के-से सुरसीले
    हैं इसके छिद्र सुरीले;
    अगणित होने पर भी तो
    तारों-से हैं चमकीले ।

    अचल हो उठते हैं चंचल;
    चपल बन जाते हैं अविचल;

    पिघल पड़ते हैं पाहन दल;
    कुलिश भी होजाता कोमल !

    चबाता भी है तो गुण से
    डोर कर में है, मन आकाश;
    पटकता भी है तो गुण से,
    खींचने को चकई सा पास !

    मर्म पीडा के हास !

    रोग का है उपचार;
    पाप का भी परिहार;
    है अदेह संदेह, नहीं है इसका कुछ संस्कार !
    हृदय की है यह दुर्बल हार !!

    खींच लो इसको, कहीं क्या छोर है ?
    द्रोपदी का यह दुरंत दुकूल है !
    फैलता है ह्रदय में नभ बेलि सा,
    खोज लो, इसका कहीं क्या मूल है ?

    यही तो कांटे सा चुपचाप
    उगा उस तरुवर में, सुकुमार
    सुमन वह था जिसमें अविकार-
    वेध डाला मधुकर निष्पाप ! !

    बड़ों में दुर्बलता है शाप !
    नहीं चल सकते गिरिवर राह,
    न रुक सकता है सौरभवाह !

    तरल हो उठता उदधि अथाह,
    सूर का दुख देता है दाह !
    देख हाय ! यह, उर से रह रह निकल रही है आह,
    व्यथा का रुकता नहीं प्रवाह !

    सिड़ी के गूढ़ हुलास !
    बीनते हैं प्रसून दल;
    तोड़ते ही हैं मृदु फल;
    देखा नहीं किसी को चुनते कोमल कोंपल ! !

    अभी पल्लवित हुआ था स्नेह,
    लाज का भी न गया था राग ;
    पड़ा पाला सा हा ! संदेह,
    कर दिया वह नव राग विराग ।

    हो गया था पतझड़, मधुकाल,
    पत्र तो आते हाय, नवल ।
    झड़ गये स्नेह वृंत से फूल,
    लगा यह असमय कैसा फल !

    मिले थे दो मानस अज्ञात,
    स्नेह शशि विजित था भरपूर;
    अनिल सा कर अकरुण आघात,
    प्रेम प्रतिमा करदी वह चूर !!

    घूमता है सम्मुख वह रूप
    सुदर्शन हुए सुदर्शन चक्र !
    ढाल सा रखवाला शशि आज
    हो गया है हा ! असि सा वक्र !!

    बालकों का सा मारा हाथ,
    कर दिए विकल ह्रदय के तार !
    नहीं अब रुकती है झंकार,
    यहीं था हा ! क्या एक सितार ?
    हुई मरु की मरीचिका आज,
    मुझे गंगा की पावन धार !

    कहाँ है उत्कंठा का पार ! !
    इसी वेदना में विलीन हो अब मेरा संसार !
    तुम्हें, जो चाहो, है अधिकार !
    टूट जा यहीं यह ह्रदय हार ! ! !

    x x x

    कौन जान सका किसी के हृदय को ?
    सच नहीं होता सदा अनुमान है !
    कौन भेद सका अगम आकाश को ?
    कौन समझ सका उदधि का गान है ?
    है सभी तो ओर दुर्बलता यही,
    समभता कोई नहीं-क्या सार है !
    निरपराधों के लिए भी तो अहा !
    हो गया संसार कारागार है ! !

    (सितम्बर, १९२१)

    3. आँसू

    (भादों की भरन) (१)

    अपलक आँखों में
    उमड़ उर के सुरभित उच्छ्वास !
    सजल जलधर से बन जलधार;
    प्रेममय वे प्रिय पावस मास
    पुन: नयनों में कर साकार;
    मूक कणों की कातर वाणी भर इनमें अविकार,
    दिव्य स्वर पा आंसू का तार
    बहा दे हृदयोद्गार !

    आह, यह मेरा गीला गान!
    वर्ण वर्ण है उर की कंपन,
    शब्द शब्द है सुधि की दंशन;
    चरण चरण है आह,
    कथा है कण कण करुण अथाह;
    बूंद में है बाड़व का दाह !
    प्रथम भी ये नयनों के बाल
    खिलाये हैं नादान;
    आज मणियों ही की तो माल
    ह्रदय में बिखर गई अनजान !
    टूटते हैं असंख्य उड़गण,
    रिक्त हो गया चाँद का थाल !
    गल गया मन मिश्री का कन,
    नई सीखी पलकों ने बान ।

    विरह है अथवा यह वरदान !
    कल्पना में है कसकती वेदना,
    अश्रु में जीता, सिसकता गान है;
    शुन्य आहों में सुरीले छंद हैं,
    मधुर लय का क्या कहीं अवसान है !

    वियोगी होगा पहिला कवि,
    आह से उपजा होगा गान;
    उमड़ कर आँखों से चुपचाप
    वही होगी कविता अनजान !

    हाय, किसके उर में
    उतारूँ अपने उर का भार !
    किसे अब दूँ उपहार
    गूँथ यह अश्रुकणों का हार ! !

    मेरा पावस ऋतु सा जीवन,
    मानस सा उमड़ा अपार मन;
    गहरे, धुँधले, धुले, सांवले,
    मेघों-से मेरे भरे नयन!

    कभी उर में अगणित मृदु भाव
    कूजते हैं विहगों-से हाय !
    अरुण कलियों- से कोमल घाव
    कभी खुल पड़ते हैं असहाय !

    इंद्रधनु सा आशा का सेतु
    अनिल में अटका कभी अछोर,
    कभी कुहरे सी धुमिल घोर,
    दीखती भावी चारों ओर !

    तड़ित् सा सुमुखि ! तुम्हारा ध्यान
    प्रभा के पलक मार, उर चीर,
    गूढ़ गर्जन कर जब गंभीर
    मुझे करता है अधिक अधीर,

    जुगनुओं-से उड़ मेरे प्राण
    खोजते हैं तब तुम्हें निदान !

    धधकती है जलदों से ज्वाल,
    बन गया नीलम व्योम प्रवाल;
    आज सोने का संध्याकाल
    जल रहा जतुगृह-सा विकराल;

    पटक रवि को बलि सा पाताल
    एक ही वामन पग में-
    लपकता है तमिस्र तत्काल,
    -धुएँ का विश्व विशाल !

    चिनगियों-से तारों को डाल
    आग का सा अँगार शशि लाल
    लहकता है, फैला मणि ज्वाल
    जगत को डसता है तम व्याल !

    पूर्व सुधि सहसा जब सुकुमारि !
    सरल शुक सी सुखकर सुर में
    तुम्हारी भोली बातें
    कभी दुहराती है उर में;

    अगन-से मेरे पुलकित प्राण
    सहस्रों सरस स्वरों में कूक,
    तुम्हारा करते हैं आह्वान,
    गिरा रहती है श्रुति सी मूक !

    देखता हूँ, जब उपवन
    पियालों में फूलों के
    प्रिये! मर भर अपना यौवन
    पिलाता है मधुकर को,

    नवोढ़ा बाल लहर
    अचानक उपकूलों के
    प्रसूनों के ढिंग रुक कर
    सरकती है सत्वर;

    अकेली आकुलता सी प्राण !
    कहीं तब करती मृदु आघात,
    सिहर उठता कृश गात,
    ठहर जाते है पग अज्ञात !

    देखता हूँ, जब पतला
    इंद्रधनुषी हलका
    रेशमी घूँघट बादल का
    खोलती है कुमुद कला;

    तुम्हारे ही मुख का तो ध्यान
    मुझे करता तब अंतर्धान;
    न जाने तुमसे मेरे प्राण
    चाहते क्या आदान !

    x x x

    बादलों के छायामय मेल
    घूमते हैं आँखों में, फैल !
    अवनि औ’ अंबर के वे खेल
    शैल में जलद, जलद में शैल ।
    शिखर पर विचर मरुत रखवाल
    वेणु में भरता था जब स्वर,
    मेमनों – से मेघों के बाल
    कुदकते थे प्रमुदित गिरि पर !

    द्विरद दंतों – से उठ सुंदर
    सुखद कर सीकर – से बढ़ कर,
    भूति – से शोभित बिखर बिखर,
    फैल फिर कटि के-से परिकर,
    बदल यों विविध देश जलधर
    बनाते थे गिरि को गजवर !

    ईद्रधनु की सुनकर टंकार
    उचक चपला के चंचल बाल,
    दौड़ते थे गिरि के उस पार
    देख उड़ते-विशिखों की धार;

    मरुत जब उनको द्रुत इंकार,
    रोक देता था मेघासार ।
    अचल के जब वे विमल विचार
    अवनि से उठ उठ कर ऊपर,
    विपुल व्यापकता में अविकार
    लीन हो जाते थे सत्वर,

    विहंगम सा बैठा गिरि पर
    सुहाता था विशाल अंबर !

    पपीहों की वह पीन पुकार,
    निर्झरों की भारी झर झर;
    झींगुरों की भीनी झनकार
    घनों की गुरु गंभीर गहर;
    बिन्दुओं की छनती छनकार,
    दादुरों के वे दुहरे स्वर,

    हृदय हरते थे विविध प्रकार
    शैल-पावस के प्रश्नोत्तर !

    खैंच ऐंचीला भ्रू सुरचाप-
    शैल की सुधि यों बारंबार–
    हिला हरियाली का सुदुकूल,
    झुला झरनों का झलमल-हार;
    जलद पट से दिखला मुख चंद्र,
    पलक पल पल चपला के मार;

    भग्न उर पर भूधर सा हाय !
    सुमुखि ! धर देती है साकार !

    (२)

    करुण है हाय ! प्रणय,
    नहीं दुरता है जहाँ दुराव;
    करुणतर है वह भय
    चाहता है जो सदा बचाव;

    करुणतम भग्न हृदय,
    नहीं भरता है जिसका घाव,
    करुण अतिशय उनका संशय
    छुड़ाते हैं जो जुड़े स्वभाव !!

    किए भी हुआ कहाँ संयोग ?
    टला टाले कब इसका वास ?
    स्वयं ही तो आया यह पास,
    गया भी, बिना प्रयास !

    कभी तो अब तक पावन प्रेम
    नहीं कहलाया पापाचार,
    हुई मुझको ही मदिरा आज
    हाय क्या गंगाजल की धार ! !

    हृदय । रो, अपने दुख का भार !
    ह्रदय ! रो, उनको है अधिकार !
    हृदय ! रो यह जड़ स्वेच्छाचार,
    शिशिर का सा समीर संचार !

    प्रथम, इच्छा का पारावार,
    सुखद आशा का स्वर्गाभास;
    स्नेह का वासंती संसार,
    पुन: उच्छ्वासों का आकाश !

    -यही तो है जीवन का गान,
    सुख का आदि और अवसान !

    सिसकते हैं समुद्र-से मन,
    उमड़ते हैं नभ-से लोचन;
    विश्व वाणी ही है क्रंदन,
    विश्व का काव्य अश्रु कन ।

    गगन के भी उर में हैं घाव,
    देखतीं ताराएँ भी राह;
    बंधा विद्युत् छबि में जलवाह
    चंद्र की चितवन में भी चाह;

    दिखाते जड़ भी तो अपनाव
    अनिल भी भरती ठंडी आह !

    हाय ! मेरा जीवन,
    प्रेम औ” आँसू के कन !
    आह मेरा अक्षय धन,
    अपरिमित सुंदरता औ’ मन !

    -एक वीणा की मृदु झंकार !
    कहाँ है सुंदरता का पार !
    तुम्हें किस दर्पण में सुकुमारि !
    दिखाऊँ मैं साकार ?
    तुम्हारे छूने में था प्राण,
    संग में पावन गंगा स्नान;
    तुम्हारी वाणी में कल्याणि ।
    त्रिवेणी की लहरों का गान !
    अपरिचित चितवन में था प्रात,
    सुधामय सांसों में उपचार !
    तुम्हारी छाया में आधार,
    सुखद चेष्टाओं में आभार !

    करुण भोहों में था आकाश,
    हास में शैशव का संसार;
    तुम्हारी आंखों में कर वास
    प्रेम ने पाया था आकार !

    कपोलों में उर के मृदु भाव
    श्रवण नयनों में प्रिय बर्ताव;
    सरल संकेतों में संकोच;
    मृदुल अधरों में मधुर दुराव !
    उषा का था उर में आवास,
    मुकुल का मुख में मृदुल विकास,
    चाँदनी का स्वभाव में भास
    विचारों में बच्चों के साँस !
    बिन्दु में थी तुम सिन्धु अनंत
    एक सुर में समस्त संगीत,
    एक कलिका में अखिल वसंत,
    धरा में थी तुम स्वर्ग पुनीत !

    विधुर उर के मृदु भावों से
    तुम्हारा कर नित नव श्रृंगार,
    पूजता हूँ मैं तुम्हें कुमारि ।
    मूँद दुहरे दृग द्वार !

    अचल पलकों में मूर्ति सँवार
    पान करता हूँ रूप अपार,
    पिघल पड़ते हैं प्राण,
    उबल चलती है दृगजल धार ।

    बालकों सा ही तो मैं हाय !
    याद कर रोता हूँ अजान;
    न जाने, होकर भी असहाय,
    पुन: किससे करता हूँ मान ।

    xxx

    सुप्ति हो स्वल्प वियोग
    नव मिलन को अनिमेष,
    दैव ! जीवन भर का विश्लेष
    मृत्यु ही है नि:शेष !!

    xxx

    मूँद पलकों में प्रिया के ध्यान को
    थाम ले अब, हृदय ! इस आह्वान को !
    त्रिभुवन की भी तो श्री भर सकती नहीं
    प्रेयसी के शून्य, पावन स्थान को ।
    तेरे उज्वल आँसू सुमनों में सदा
    वास करेंगे, भग्न हृदय, उनकी व्यथा
    अनिल पोंछेगी, करुण उनकी कथा
    मधुप बालिकाएँ गाएंगी सर्वदा ।

    (दिसम्बर १९२१)

    4. विनय

    मा! मेरे जीवन की हार
    तेरा मंजुल हृदय-हार हो,
    अश्रु-कणों का यह उपहार;

    मेरे सफल-श्रमों का सार
    तेरे मस्तक का हो उज्जवल
    श्रम-जलमय मुक्तालंकार।

    मेरे भूरि-दुखों का भार
    तेरी उर-इच्छा का फल हो,
    तेरी आशा का श्रृंगार;

    मेरे रति, कृति, व्रत, आचार
    मा! तेरी निर्भयता हों नित
    तेरे पूजन के उपचार-
    यही विनय है बारम्बार।

    (जनवरी १९१८)

    5. वीचि-विलास

    अरी सलिल की लोल हिलोर !
    यह कैसा स्वर्गीय हुलास ?
    सरिता की चंचल दृग कोर !
    यह जग को अविदित उल्लास ।

    आ, मेरे मृदु अंग झकोर,
    नयनों को निज छबि में बोर,
    मेरे उर में भर यह रोर !

    गूढ़ सांस सी यति गतिहीन
    अपनी ही कंपन में लीन,
    सजल कल्पना सी साकार
    पुन: पुन: प्रिय, पुन: नवीन,

    तुम शैशव स्मिति सी सुकुमार,
    मर्म रहित, पर मधुर अपार,
    खिल पड़ती हो विना विचार !

    वारि बेलि सी फैल अमूल,
    छा अपत्र सरिता के कूल,
    विकसा औ’ सकुचा नवजात
    बिना नाल के फेनिल फूल;

    छुईमुई सी तुम पश्चात
    छूकर अपना ही मृदु गात,
    मुरझा जाती हो अज्ञात !

    स्वर्ण स्वप्न सी कर अभिसार
    जल के पलकों में सुकुमार,
    फूट आप ही आप अजान
    मधुर वेणु की सी झंकार;

    तुम इच्छाओं सी असमान,
    छोड़ चिह्न उर में गतिवान,
    हो जाती हो अंतर्धान !

    मुग्धा की सी मृदु मुसकान
    खिलते ही लज्जा से म्लान;
    स्वर्गिक सुत की सी आभास-
    अतिशयता में अचिर, महान-

    दिव्य भूति सी आ तुम पास,
    कर जाती हो क्षणिक विलास,
    आकुल उर को दे आश्वास !

    ताल ताल में थिरक अमन्द,
    सौ सौ छंदों में स्वच्छन्द
    गाती हो निस्तल के गान,
    सिन्ध गिरा सी अगम, अनन्त;

    इंदु करों से लिख अम्लान
    तारों के रोचक आख्यान,
    अंबर के रहस्य द्युतिमान !

    चला मीन दृग चारों ओर,
    यह गह चंचल अंचल छोर,
    रुचिर रुपहरे पंख पसार
    अरी वारि की परी किशोर !

    तुम जल थल में अनिलाकार,
    अपनी ही लघिमा पर वार,
    करती हो बहुरूप विहार !

    अंग भंग में व्योम मरोर,
    भौंहों में तारों के झोंर
    नचा, नाचती हो भर पूर
    तुम किरणों की बना हिंडोर,

    निज अधरों पर कोमल क्रूर,
    शशि से दीपित प्रणय कपूर
    चाँदी का चुम्बन कर चूर !

    खेल मिचौनी सी निशि भोर,
    कुटिल काल का भी चित चोर,
    जन्म मरण से कर परिहास,
    बढ़ असीम की ओर अछोर;

    तुम फिर फिर सुधि ही सोच्छ्वास
    जी उठती हो बिना प्रयास,
    ज्वाला सी, पाकर वातास !

    ओ अकूल की उज्वल हास ।
    अरी अतल की पुलकित श्वास !
    महानन्द की मधुर उमंग !
    चिर शाश्वत की अस्थिर लास !

    मेरे मन की विविध तरंग
    रंगिणि । सब तेरे ही संग
    एक रुप में मिलें अनंग !

    ( मई, १९२३)

    6. मधुकरी

    सिखा दो ना, हे मधुप कुमारि !
    मुझे भी अपने मीठे गान,
    कुसुम के चुने कटोरों से,
    करा दो ना, कुछ कुछ मधुपान !
    नवल कलियों के धोरे झूम,
    प्रसूनों के अधरों को चूम,
    मुदित, कवि सी तुम अपना पाठ
    सीखती हो सखि! जग में घूम;

    सुना दो ना, तब हे सुकुमारि !
    मुझे भी ये केसर के गान!

    किसी के उर में तुम अनजान
    कभी बँध जाती, बन चितचोर;
    अधखिले, खिले, सुकोमल गान
    गूँथती हो फिर उड़ उड़ भोर;

    मुझे भी बतला दो न कुमारि!
    मधुर निशि स्वजनों वे ये गान !

    सूँघ चुन कर, सखि ! सारे फूल,
    सहज बिंध बँध, निज सुख दुख भूल,
    सरस रचती हो ऐसा राग
    धूल बन जाती है मधुमूल;

    पिला दो ना, तब हे सुकुमारि !
    इसी से थोडे मधुमय गान;
    कुसुम के खुले कटोरों से
    करा दो ना, कुछ कुछ मधुपान !

    (सितम्बर १९२२)

    7. मोह

    छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया,
    तोड़ प्रकृति से भी माया,

    बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
    भूल अभी से इस जग को!

    तज कर तरल-तरंगों को,
    इन्द्र-धनुष के रंगों को,

    तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
    भूल अभी से इस जग को!

    कोयल का वह कोमल-बोल,
    मधुकर की वीणा अनमोल,

    कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि! श्रवन?
    भूल अभी से इस जग को!

    ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
    सुधा रश्मि से उतरा जल,

    ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
    भूल अभी से इस जग को!

    (जनवरी १९१८)

    8. मौन-निमन्त्रण

    स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
    चकित रहता शिशु सा नादान ,
    विश्व के पलकों पर सुकुमार
    विचरते हैं जब स्वप्न अजान,

    न जाने नक्षत्रों से कौन
    निमंत्रण देता मुझको मौन !

    सघन मेघों का भीमाकाश
    गरजता है जब तमसाकार,
    दीर्घ भरता समीर निःश्वास,
    प्रखर झरती जब पावस-धार ;

    न जाने ,तपक तड़ित में कौन
    मुझे इंगित करता तब मौन !

    देख वसुधा का यौवन भार
    गूंज उठता है जब मधुमास,
    विधुर उर के-से मृदु उद्गार
    कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास,

    न जाने, सौरभ के मिस कौन
    संदेशा मुझे भेजता मौन !

    क्षुब्ध जल शिखरों को जब बात
    सिंधु में मथकर फेनाकार ,
    बुलबुलों का व्याकुल संसार
    बना,बिथुरा देती अज्ञात ,

    उठा तब लहरों से कर कौन
    न जाने, मुझे बुलाता कौन !

    स्वर्ण,सुख,श्री सौरभ में भोर
    विश्व को देती है जब बोर
    विहग कुल की कल-कंठ हिलोर
    मिला देती भू नभ के छोर ;

    न जाने, अलस पलक-दल कौन
    खोल देता तब मेरे मौन !

    तुमुल तम में जब एकाकार
    ऊँघता एक साथ संसार ,
    भीरु झींगुर-कुल की झंकार
    कँपा देती निद्रा के तार

    न जाने, खद्योतों से कौन
    मुझे पथ दिखलाता तब मौन !

    कनक छाया में जबकि सकल
    खोलती कलिका उर के द्वार
    सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल
    तड़प, बन जाते हैं गुंजार;

    न जाने, ढुलक ओस में कौन
    खींच लेता मेरे दृग मौन !

    बिछा कार्यों का गुरुतर भार
    दिवस को दे सुवर्ण अवसान ,
    शून्य शय्या में श्रमित अपार,
    जुड़ाता जब मैं आकुल प्राण ;

    न जाने, मुझे स्वप्न में कौन
    फिराता छाया-जग में मौन !

    न जाने कौन अये द्युतिमान !
    जान मुझको अबोध, अज्ञान,
    सुझाते हों तुम पथ अजान
    फूँक देते छिद्रों में गान ;

    अहे सुख-दुःख के सहचर मौन !
    नहीं कह सकता तुम हो कौन !

    9. वसन्त-श्री

    उस फैली हरियाली में,
    कौन अकेली खेल रही मा!
    वह अपनी वय-बाली में?
    सजा हृदय की थाली में–

    क्रीड़ा, कौतूहल, कोमलता,
    मोद, मधुरिमा, हास, विलास,
    लीला, विस्मय, अस्फुटता, भय,
    स्नेह, पुलक, सुख, सरल-हुलास!
    ऊषा की मृदु-लाली में–

    किसका पूजन करती पल पल
    बाल-चपलता से अपनी?
    मृदु-कोमलता से वह अपनी,
    सहज-सरलता से अपनी?
    मधुऋतु की तरु-डाली में–

    रूप, रंग, रज, सुरभि, मधुर-मधु,
    भर कर मुकुलित अंगों में
    मा! क्या तुम्हें रिझाती है वह?
    खिल खिल बाल-उमंगों में,
    हिल मिल हृदय-तरंगों में!

    (मार्च १९१८)

    10. विश्व-वेणु

    हाँ, -हम मारुत के मृदुल झकोर,
    नील व्योम के अंचल छोर;
    बाल कल्पना-से अनजान
    फिरते रहते हैं निशि भोर;
    उर उर के प्रिय, जग के प्राण !

    हरियाली से ढंक मृदु गात,
    कानों में भर सौ सौ बात;
    हमें झुलाते हैं अविराम
    विश्व पुलक-से तरु के पात,
    कुसुमित पलनों में अभिराम !

    चारु नभचरों-से वय हीन,
    अपनी ही मृदु छवि में लीन,
    कर सहसा शीतल भ्रु पात,
    चंचलपन ही में आसीन,
    हम पुलकित कर देते गात !

    गुंजित कुंजों में सुकुमार,
    (भौरों के सुरभित अभिसार)
    आ, जा, खोल, फेर, स्वच्छंद
    पत्रों के बहु छिद्रित द्वार,
    हम क्रीड़ा करते सानंद !

    चूम मौन कलियों का मान,
    खिला मलिन मुख में मुसकान,
    गूढ़ स्नेह का सा नि:श्वास
    पा कुसुमों से सौरभ दान,
    छा जाते हम अवनि अकास !

    चंचल कर सरसी के प्राण,
    सौ सौ स्वप्नों सी छबिमान,
    लहरों में खिल सानुप्रास,
    गा वारिधि छंदों में गान,
    करते हम ज्योत्सना का लास !

    प्रैट्स वेणु वन में आलाप,
    जगा रेणु के लोड़ित सांप;
    भय से पीले तरु के पात
    भगा बावलों-से वे – आप,
    करते नित नाना उत्पात !

    अस्थि हीन जलदों के बाल,
    खींच मींच औ’ फेंक, उछाल,
    रचते विविध मनोहर रूप
    मार जिला उनको तत्काल,
    फैला माया जाल अनूप !

    निज अविरल गति में उड्डीन,
    उच्छृंखलता में स्वाधीन;
    वातायन से आ द्रुत भोर
    लेते मृदु पलकों को छीन
    हम सुखमय स्वप्नों के चोर !

    चुन कलियों की कोमल सांस
    किसलय अधरों का हिम हास;
    चिर अतीत स्मृति सी अनजान
    ला सुमनों की मृदुल सुवास
    पिघला देते तन, मन, प्राण ।

    हर सुदूर से अस्फुट तान,
    आकुल कर पथिकों के कान,
    विश्व वेणु के – से झंकार
    हम जग के सुख – दुखमय गान
    पहुँचाते अनंत के द्वार !

    हम नभ की निस्सीम हिलोर
    डुबा दिशाओं के दस छोर
    नव जीवन कंपन संचार
    करते जग में चारों ओर,
    अमर, अगोचर, औ’ अविकार !

    ( मार्च, १९२३)

    11. शिशु

    कौन तुम अतुल, अरूप, अनाम ?
    अये अभिनव, अभिराम [

    मृदुता ही है बस आकार,
    मथुरिमा-छबि श्रृंगार;
    न अंगों में है रंग उभार,
    न मृदु उर में उद्गार;
    निरे साँसों के पिंजर-द्वार !
    कौन हो तुम अकलंक, अकाम ?

    कामना-से माँ की सुकुमार
    स्नेह में चिर-साकार;
    मृदुल कुड्मल-से जिसे न ज्ञात
    सुरभि का निज संसार;
    स्रोत-से नव, अवदात,
    स्खलित अविदित-पथ पर अविचार;
    कौन तुम गूढ़, गहन, अज्ञात ?
    अहे निरुपम, नवजात !

    वेणु-से जिसकी मधुमय तान
    दुरी हो अंतर में अनजान;
    विरल उडु-से सरसी में तात !
    इतर हो जिसका वासस्थान;
    लहर-से लघु, नादान,
    कम्प अम्बुधि की एक महान;
    विमल हिम-जल-से एक प्रभात
    कहाँ से उतरे तुम छबिमान !

    गीति-से जीवन में लयमान,
    भाव जिसके अस्पष्ट, अजान;
    सुरभि-से जिसे विहान
    उड़ा लाया हो प्राण;
    स्वप्न-से निद्रित-सजग समान,
    सुप्ति से जिसे न अपना ज्ञान;
    (रश्मि-से शुचि-रुचिमान
    वीचि में पड़ी वितान;
    स्वीय-स्मिति-से ही हे अज्ञान,
    दिव्यता का निज तुम्हें न ध्यान !

    खेलती अधरों पर मुसकान;
    पूर्व-सुधि-सी अम्लान;
    सरल उर की-सी मृदु आलाप,
    अनवगत जिसका गान,
    कौन सी अमर-गिरा यह, प्राण!
    कौन से राग, छन्द, आख्यान?
    स्वप्न-लोकों में किन चुपचाप
    विचरते तुम ड़च्छा-गतिवान !

    न अपना ही, न जगत का ज्ञान,
    न परिचित हैं निज नयन, न कान;
    दीखता है जग कैसा तात !
    नाम, गुण रूप अजान ?
    तुम्हीं-सा हूँ मैं भी अज्ञात,
    वत्स ! जग है अज्ञेय महान !

    (नवम्बर १९२३)

    12. विसर्जन

    अनुपम ! इस सुंदर छवि से
    मैं आज सजा लूँ निज मन,
    अपलक अपार चितवन पर
    अर्पण कर दूं निज यौवन !

    इस मंद हास में बह कर
    गा लूँ मैं बेसुर-‘प्रियतम’,
    बस इस पागलपन में ही
    अवसित कर हूँ निज जीवन ।

    नव कुसुमों में छिप छिप कर
    जब तुम मधु पान करोगे,
    फूली न समाऊँगी मैं
    उस सुख से है जीवन धन !

    यदि निज उर के कांटों को
    तुम मुझे न पहनाऔगे,
    उस विरह वेदना से मैं
    नित तड़पूँगी कोमल तन !

    अवलोक अल्पता मेरी
    उपहार न चाहे दो तुम,
    पर कुपित न होना मुझ पर
    दो चाहे हार दया धन !

    तुम मुझे भूना दो मन से
    मैं इसे भूल जाऊंगी,
    पर वंचित मुझे न रखना
    अपनी सेवा से पावन !
    x x x

    मैं सखियों से कह आऊँ-
    प्रस्तुत है पद की दासी;
    वे चाहें मुझ पर हँस लें
    मैं खडी रहूँगी सनयन ।

    (जून १९१९)

    12. नारी-रूप

    घने लहरे रेशम के बाल–
    धरा है सिर में मैंने, देवि !
    तुम्हारा यह स्वर्गिक श्रृंगार,
    स्वर्ण का सुरभित भार ।
    मलिन्दों से उलझी गुंजार,
    मृणालों से मृदु तार;
    मेघ से संध्या का संसार
    वारि से ऊर्मि उभार;
    -मिले हैं इन्हें विविध उपहार,
    तरुण तम से विस्तार:

    स्नेहमयि ! सुंदरतामयि !

    तुम्हारे रोम रोम से, नारि !
    मूझे है स्नेह अपार;
    तुम्हारा मृदु उर ही, सुकुमारि !
    मूझे है स्वर्गागार !
    तुम्हारे गुण हैं मेरे गान,
    मृदुल दुर्बलता, ध्यान;
    तुम्हारी पावनता, अभिमान,
    शक्ति, पूजन सम्मान;
    अकेली सुन्दरता कल्याणि !
    सकल ऐश्वर्यों की संधान !

    स्वप्नमयि । हे मायामयि !

    तुम्हीं हो स्पृहा, अश्रु औ’ हास,
    सृष्टि के उर की सांस;
    तुम्हीं इच्छाओं की अवसान,
    तुम्हीं स्वर्गिक आभास;
    तुम्हारी सेवा में अनजान
    हृदय है मेरा अंतर्धान ?
    देवि ! मा ! सहचरि ! प्राण !

    (मई, १९२२)

    13. निर्झरी

    यह कैसा जीवन का गान
    अलि, कीमत कल मल टल मल?
    अरी शैल बाले नादान,
    यह अविरल कलकल छल छल?

    झर मर कर पत्रों के पास,
    रण मण रोड़ों पर सायास,
    हँस हँस सिकता से परिहास
    करती हो अलि, तुम झलमल !

    स्वर्ण बेली-सी खिली विहान,
    निशि में तारों की-सी यान;
    रजत तार – सी शुचि रुचिमान
    फिरती हो रंगिणि, रल मल !

    दिखा भंगिमय भृकुटि विलास
    उपलों पर बहु रंगी लास,
    फैलाती हो फेनिल हास,
    फूलों के कूलों पर चल ।

    अलि, यह क्या केवल दिखलाव,
    भूल व्यथा का मुखर भुलाव ?
    अथवा जीवन का बहलाव ?
    सजल आँसुओं की अंचल !

    14. जीवन-यान

    अहे विश्व! हे विश्व-व्यथित-मन!
    किधर बह रहा है यह जीवन?
    यह लघु-पोत, पात, तृण, रज-कण,
    अस्थिर-भीरु-वितान,
    किधर?–किस ओर?–अछोर,–अजान,
    डोलता है यह दुर्बल-यान?

    मूक-बुद्बुदों-से लहरों में
    मेरे व्याकुल-गान
    फूट पड़ते निःश्वास-समान,
    किसे है हा! पर उनका ध्यान!

    कहाँ दुरे हो मेरे ध्रुव!
    हे पथ-दर्शक! द्युतिमान!
    दृगों से बरसा यह अपिधान
    देव! कब दोगे दर्शन-दान?

    (अगस्त १९२३)

    15. बादल

    सुरपति के हम हैं अनुचर,
    जगत्प्राण के भी सहचर;
    मेघदूत की सजल कल्पना,
    चातक के चिर जीवनधर;

    मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर,
    सुभग स्वाति के मुक्ताकर;
    विहग वर्ग के गर्भ विधायक,
    कृषक बालिका के जलधर !

    जलाशयों में कमल दलों-सा
    हमें खिलाता नित दिनकर,
    पर बालक-सा वायु सकल दल
    बिखरा देता चुन सत्वर;

    लधु लहरों के चल पलनों में
    हमें झुलाता जब सागर,
    वहीं चील-सा झपट, बाँह गह,
    हमको ले जाता ऊपर ।

    भूमि गर्भ में छिप विहंग-से,
    फैला कोमल, रोमिल पंख ,
    हम असंख्य अस्फुट बीजों में,
    सेते साँस, छुडा जड़ पंक !

    विपुल कल्पना से त्रिभुवन की
    विविध रूप धर भर नभ अंक,
    हम फिर क्रीड़ा कौतुक करते,
    छा अनंत उर में निःशंक !

    कभी चौकड़ी भरते मृग-से
    भू पर चरण नहीं धरते ,
    मत्त मतगंज कभी झूमते,
    सजग शशक नभ को चरते;

    कभी कीश-से अनिल डाल में
    नीरवता से मुँह भरते ,
    बृहत गृद्ध-से विहग छदों को ,
    बिखरते नभ,में तरते !

    कभी अचानक भूतों का सा
    प्रकटा विकट महा आकार
    कड़क,कड़क जब हंसते हम सब ,
    थर्रा उठता है संसार ;

    फिर परियों के बच्चों से हम
    सुभग सीप के पंख पसार,
    समुद तैरते शुचि ज्योत्स्ना में,
    पकड़ इंदु के कर सुकुमार !

    अनिल विलोड़ित गगन सिंधु में
    प्रलय बाढ़ से चारो ओर
    उमड़-उमड़ हम लहराते हैं
    बरसा उपल, तिमिर घनघोर;

    बात बात में, तूल तोम सा
    व्योम विटप से झटक ,झकोर
    हमें उड़ा ले जाता जब द्रुत
    दल बल युत घुस वातुल चोर !

    बुदबुद द्युति तारक दल तरलित
    तम के यमुना जल में श्याम
    हम विशाल जंबाल जाल-से
    बहते हैं अमूल, अविराम;

    दमयंती-सी कुमुद कला के
    रजत करों में फिर अभिराम
    स्वर्ण हंस-से हम मृदु ध्वनि कर,
    कहते प्रिय संदेश ललाम !

    दुहरा विद्युतदाम चढ़ा द्रुत,
    इंद्रधनुष की कर टंकार;
    विकट पटह-से निर्घोषित हो,
    बरसा विशिखों-सा आसार;

    चूर्ण-चूर्ण कर वज्रायुध से
    भूधर को अति भीमाकार
    मदोन्मत्त वासव सेना-से
    करते हम नित वायु विहार !

    स्वर्ण भृंग तारावलि वेष्टित,
    गुंजित, पुंजित, तरल, रसाल,
    मघुगृह-से हम गगन पटल में,
    लटके रहते विपुल विशाल !

    जालिक-सा आ अनिल, हमारा
    नील सलिल में फैला जाल,
    उन्हें फंसा लेता फिर सहसा
    मीनों के-से चंचल बाल !

    संध्या का मादक पराग पी,
    झूम मलिन्दों-से अभिराम,
    नभ के नील कमल में निर्भय
    करते हम विमुग्ध विश्राम;

    फिर बाड़व-से सांध्य सिन्धु में
    सुलग, सोख उसको अविराम,
    बिखरा देते तारावलि-से
    नभ में उसके रत्न निकाम !

    धीरे-धीरे संशय-से उठ,
    बढ़ अपयश-से शीघ्र अछोर,
    नभ के उर में उमड़ मोह-से
    फैल लालसा-से निशि भोर;

    इंद्रचाप-सी व्योम भृकुटि पर
    लटक मौन चिंता-से घोर
    घोष भरे विप्लव भय-से हम
    छा जाते द्रुत चारों ओर !

    व्योम विपिन में वसंत सा
    खिलता नव पल्लवित प्रभात ,
    बरते हम तब अनिल स्रोत में
    गिर तमाल तम के से पात ;

    उदयाचल से बाल हंस फिर
    उड़ता अंबर में अवदात
    फ़ैल स्वर्ण पंखों से हम भी,
    करते द्रुत मारुत से बात !

    पर्वत से लघु धूलि.धूलि से
    पर्वत बन ,पल में साकार-
    काल चक्र से चढ़ते गिरते,
    पल में जलधर,फिर जलधार;

    कभी हवा में महल बनाकर,
    सेतु बाँधकर कभी अपार ,
    हम विलीन हों जाते सहसा
    विभव भूति ही से निस्सार !

    हम सागर के धवल हास हैं
    जल के धूम ,गगन की धूल ,
    अनिल फेन उषा के पल्लव ,
    वारि वसन,वसुधा के मूल ;

    नभ में अवनि,अवनि में अंबर ,
    सलिल भस्म,मारुत के फूल,
    हम हीं जल में थल,थल में जल,
    दिन के तम ,पावक के तूल !

    व्योम बेलि,ताराओं में गति ,
    चलते अचल, गगन के गान,
    हम अपलक तारों की तंद्रा,
    ज्योत्सना के हिम,शशि के यान;

    पवन धेनु,रवि के पांशुल श्रम ,
    सलिल अनल के विरल वितान !
    व्योम पलक,जल खग ,बहते थल,
    अंबुधि की कल्पना महान !

    धूम-धुआँरे ,काजल कारे ,
    हम हीं बिकरारे बादल ,
    मदन राज के बीर बहादुर ,
    पावस के उड़ते फणिधर !

    चमक झमकमय मंत्र वशीकर
    छहर घहरमय विष सीकर,
    स्वर्ग सेतु-से इंद्रधनुषधर ,
    कामरूप घनश्याम अमर !

    16. स्मृति

    (उच्छ्वास की बालिका के प्रति)

    आँख में ‘आँसू’ भर अनजान,
    अधर पर धर ‘उच्छ्वास’,
    समाती है जब उर में प्राण ।
    तुम्हारी सुधि की सुरभित सांस;
    डुबा देता है मुझे सदेह
    सूर सागर वह स्नेह !

    रूप का राशि-राशि यह रास,
    दृगों की यमुना श्याम;
    तुम्हारे स्वर का वेणु विलास,
    ह्रदय का वृंदा धाम,

    देवि, मथुरा था वह आमोद,
    दैव ! व्रज, अह, यह विरह विषाद ।
    आह, वे दिन ! -द्वापर की बात !
    भूति-! भारत को ज्ञात !

    (नवम्बर, १९२२)

    17. आकांक्षा

    तुहिन बिन्दु बनकर सुंदर
    नभ से भू पर समुद उतर,
    मा, जब तू सस्मित सुमनों को
    आभूषित करती नित प्रात,
    ऋतुपति के लीलास्थल में;

    मैं न चाहती तब वे कण
    हों मेरे मुक्ताभूषण,
    पर, मेरे ही स्नेह-करों से
    सुमन सुसज्जित हों वे मात,
    फूले तेरे अंचल में !

    जलद यान में फिर लघुभार,
    जब तू जग को मुक्ताहार
    देती है उपहार रूप मा,
    सुन चातक की आर्त पुकार,
    जगती का करने उपकार;

    मैं न चाहती तब वह हार
    करे, जननि, मेरा श्रृंगार,
    पर मैं ही चातकिनी बनकर
    तुझे पुकारूँ बारंबार,
    हरने जग का ताप अपार !
    (अक्टूबर, १९२२)

    18. विश्व-व्याप्ति

    स्पृहा के विश्व, हृदय के हास !
    कल्पना के सुख, स्नेह विकास !
    फूल, तुम कहाँ रहे अब फूल ?

    अनिल में ? बनकर ऊर्मिल गान,
    स्वर्ण किरणों में कर मुसकान,

    झूलते हो झोंकों की झूल;
    फूल । तुम कहाँ रहे अब फूल ?

    अवनि में ? बन अशोक का फूल,
    विलम अलि ध्वनि में, लिपटा धूल,

    गए क्या मेरी गोदी भूल ?
    फूल, तुम कहाँ रहे अब फूल ?

    सलिल में ? उछल-उछल, हिल-हिल,
    लहरियों में सलील खिल-खिल,

    थिरकते, गह-गह अनिल दुकूल?
    फूल, तुम कहाँ रहे अब फूल ?

    अनल में ? ज्वाला बन पावन,
    दग्ध कर मोह मलिन बंधन,

    जला सुधि मेरी चुके समूल?
    फूल, तुम कहाँ रहे अब फूल?

    गगन में ? बन शशि कला शकल,
    देख नलिनी-सी मुझे विकल,

    बहाते ओस अश्रु या स्थूल ?
    फूल, तुम कहाँ रहे अब फूल?

    स्वप्न थे तुम, मैं थी निद्रित,
    सुकृत थे तुम, मैं हूँ कलुषित,

    पा चुके तुम भव सागर कूल,
    फूल, तुम कहाँ रहे अब फूल ?
    (जूलाई, १९१९)

    19. याचना

    बना मधुर मेरा जीवन!
    नव नव सुमनों से चुन चुन कर
    धूलि, सुरभि, मधुरस, हिम-कण,
    मेरे उर की मृदु-कलिका में
    भरदे, करदे विकसित मन।

    बना मधुर मेरा भाषण!
    बंशी-से ही कर दे मेरे
    सरल प्राण औ’ सरस वचन,
    जैसा जैसा मुझको छेड़ें
    बोलूँ अधिक मधुर, मोहन;

    जो अकर्ण-अहि को भी सहसा
    करदे मन्त्र-मुग्ध, नत-फन,
    रोम रोम के छिद्रों से मा !
    फूटे तेरा राग गहन,
    बना मधुर मेरा तन, मन !

    (जनवरी १९१९)

    20. स्याही का बूँद

    गीत लिखती थी मैं उनके,-

    अचानक, यह स्याही का बूँद
    लेखनी से गिरकर, सुकुमार
    गोल तारा-सा नभ से कूद,
    सोधने को क्या स्वर का तार
    सजनि, आया है मेरे पास ?

    अर्ध निद्रित-सा, विस्मृत-सा,
    न जागृत-सा, न विमूर्छित-सा,
    अर्ध जीवित-सा औ’ मृत-सा,
    न हर्षित-सा, न विषमित-सा,
    गिरा का है क्या यह परिहास ?

    एकटक, पागल-सा यह आज;
    अपरिचित-सा, वाचक-सा कौन
    यहाँ आया छिप-छिप निव्यजि,
    मुग्ध-सा, चिन्तित-सा, जड़ मौन,
    सजनि, यह कौतुक है या रास !

    योग का-सा यह नीरव तार,
    ब्रह्म माया का-सा संसार,
    सिन्धु-सा घट में, -यह उपहार
    कल्पना ने क्या दिया अपार,
    कली में छिपा वसंत विकास !
    (मई, १९२० )

    21. परिवर्तन

    (१)
    कहां आज वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
    भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
    ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?

    राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
    स्वर्ग की सुषमा जब साभार
    धरा पर करती थी अभिसार!

    प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
    (स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
    गूंज उठते थे बारंबार,
    सृष्टि के प्रथमोद्गार!
    नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
    ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार!

    अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
    कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
    दुरित, दु:ख-दैन्य न थे जब ज्ञात,
    अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात!

    (२)
    हाय ! सब मिथ्या बात !-
    आज तो सौरभ का मधुमास
    शिशिर में भरता सूनी साँस !

    वही मधुऋतु की गुंजित डाल
    झुकी थी जो यौवन के भार,
    अकिंचनता में निज तत्काल
    सिहर उठती, -जीवन है भार !
    आज पावस नद के उद्गार
    काल के बनते चिह्न कराल
    प्रात का सोने का संसार;
    जला देती संध्या की ज्वाल ।

    अखिल यौवन के रंग उभार
    हड्डियों के हिलते कंकाल;
    कचों के चिकने, काले व्याल
    केंचुली, कांस, सिवार;
    गूँजते हैं सबके दिन चार,
    सभी फिर हाहाकार !

    (३)
    आज बचपन का कोमल गात
    जरा का पीला पात !
    चार दिन सुखद चाँदनी राल
    और फिर अन्धकार, अज्ञात !

    शिशिर-सा झर नयनों का नीर
    झुलस देता गालों के फूल,
    प्रणय का चुम्बन छोड़ अधीर
    अधर जाते अधरों को भूल !

    मृदुल होंठों का हिमजल हास
    उड़ा जाता नि:श्वास समीर,
    सरल भौंहों का शरदाकाश
    घेर लेते घन, घिर गम्भीर !

    शून्य सांसों का विधुर वियोग
    छुड़ाता अधर मधुर संयोग;
    मिलन के पल केवल दो, चार,
    विरह के कल्प अपार !

    अरे, ये अपलक चार-नयन
    आठ-आँसू रोते निरुपाय;
    उठे-रोओँ के आलिंगन
    कसक उठते काँटों-से हाय !
    (४)
    किसी को सोने के सुख-साज
    मिल गये यदि ॠण भी कुछ आज,
    चुका लेता दुख कल ही व्याज,
    काल को नहीं किसी की लाज !

    विपुल मणि-रत्नों का छबि-जाल,
    इन्द्रधनु की-सी छटा विशाल-
    विभव की विद्युत्-ज्वाल
    चमक, छिप जाती है तत्काल;

    मोतियों-जड़ी ओस की डार
    हिला जाता चुपचाप बयार !
    (५)
    खोलता इधर जन्म लोचन,
    मूँदती उधर मृत्यु क्षण, क्षण;
    अभी उत्सव औ’ हास-हुलास,
    अभी अवसाद, अश्रु, उच्छ्वास !

    अचिरता देख जगत की आप
    शून्य भरता समीर नि:श्वास,
    डालता पातों पर चुपचाप,
    ओस के आँसू नीलाकाश;

    सिसक उठता समुद्र का मन
    सिहर उठते उडगन !

    (६)
    अहे निष्ठुर परिवर्तन!
    तुम्हारा ही तांडव नर्तन
    विश्व का करुण विवर्तन!
    तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
    निखिल उत्थान, पतन!
    अहे वासुकि सहस्र फन!
    लक्ष्य अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरंतर
    छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !
    शत-शत फेनोच्छ्वासित,स्फीत फुतकार भयंकर
    घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !
    मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पान्तर ,
    अखिल विश्व की विवर,
    वक्र कुंडल
    दिग्मंडल !

    (७)
    अह दुर्जेय विश्वजित !
    नवाते शत सुरवर नरनाथ
    तुम्हारे इन्द्रासन तल माथ;
    घूमते शत-शत भाग्य अनाथ,
    सतत रथ के चक्रों के साथ !
    तुम नृशंस से जगती पर चढ़ अनियंत्रित ,
    करते हो संसृति को उत्पीड़न, पद-मर्दित ,
    नग्न नगर कर,भग्न भवन,प्रतिमाएँ खंडित
    हर लेते हो विभव,कला,कौशल चिर संचित !
    आधि,व्याधि,बहुवृष्टि,वात,उत्पात,अमंगल
    वह्नि,बाढ़,भूकम्प,-तुम्हारे विपुल सैन्य दल;
    अहे निरंकुश ! पदाघात से जिनके विह्वल
    हिल-हिल उठता है टल-मल
    पद-दलित धरातल !

    (८)
    जगत का अविरत ह्रतकंपन
    तुम्हारा ही भय -सूचन ;
    निखिल पलकों का मौन पतन
    तुम्हारा ही आमंत्रण !
    विपुल वासना विकच विश्व का मानस-शतदल
    छान रहे तुम,कुटिल काल-कृमि-से घुस पल-पल;
    तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण-शस्य-दल
    दलमल देते,वर्षोपल बन, वांछित कृषिफल !
    अये ,सतत ध्वनि स्पंदित जगती का दिग्मंडल
    नैश गगन-सा सकल
    तुम्हारा ही समाधिस्थल !

    (९)
    काल का अकरुण मृकुटि विलास
    तुम्हारा ही परिहास;
    विश्व का अश्रु-पूर्ण इतिहास
    तुम्हारा ही इतिहास ।

    एक कठोर कटाक्ष तुम्हारा अखिल प्रलयकर
    समर छेड़ देता निसर्ग संसृति में निर्भर;
    भूमि चूम जाते अभ्र ध्वज सौध, श्रृंगवर,
    नष्ट-भ्रष्ट साम्राज्य–भूति के मेघाडंबर !
    अये, एक रोमांच तुम्हारा दिग्भू कंपन,
    गिर-गिर पड़ते भीत पक्षि पोतों-से उडुगन;
    आलोड़ित अंबुधि फेनोन्नत कर शत-शत फन,
    मुग्ध भूजंगम-सा, इंगित पर करता नर्तन ।
    दिक् पिंजर में बद्ध, गजाधिप-सा विनतानन,
    वाताहत हो गगन
    आर्त करता गुरु गर्जन ।

    (१०)
    जगत की शत कातर चीत्कार
    बेधतीं बधिर, तुम्हारे कान !
    अश्रु स्रोतों की अगणित धार
    सींचतीं उर पाषाण !

    अरे क्षण-क्षण सौ-सौ नि:श्वास
    छा रहे जगती का आकाश !
    चतुर्दिक् घहर-घहर आक्रांति ।
    ग्रस्त करती सुख-शांति !

    (११)
    हाय री दुर्बल भ्रांति ! –
    कहाँ नश्वर जगती में शांति ?
    सृष्टि ही का तात्पर्य अशांति !
    जगत अविरत जीवन संग्राम,
    स्वप्न है यहाँ विराम !

    एक सौ वर्ष, नगर उपवन,
    एक सौ वर्ष, विजन वन !
    -यही तो है असार संसार,
    सृजन, सिंचन, संहार !

    आज गर्वोन्नत हर्म्य अपार,
    रत्न दीपावलि, मंत्रोच्चार;
    उलूकों के कल भग्न विहार,
    झिल्लियों की झनकार !

    दिवस निशि का यह विश्व विशाल
    मेघ मारुत का माया जाल !

    (१२)
    अरे, देखो इस पार-
    दिवस की आभा में साकार
    दिगंबर, सहम रहा संसार !
    हाय, जग के करतार !

    प्रात ही तो कहलाई मात,
    पयोधर बने उरोज उदार,
    मधुर उर इच्छा को अज्ञात
    प्रथम ही मिला मृदुल आकार;
    छिन गया हाय, गोद का बाल,
    गड़ी है बिना बाल की नाल !

    अभी तो मुकुट बँधा था माँथ,
    हुए कल ही हलदी के हाथ;
    खुले भी न थे लाज के बोल,
    खिले भी चुंबन शून्य कपोल:

    हाय ! रुक गया यहीं संसार
    बना सिंदूर अंगार !
    वात हत लतिका यह सुकुमार
    पड़ी है छिन्नाधार !!

    (१३)
    कांपता उधर दैन्य निरुपाय,
    रज्जु-सा, छिद्रों का कृश काय !
    न उर में गृह का तनिक दुलार,
    उदर ही में दानों का भार !

    भूँकता सिड़ी शिशिर का श्वान
    चीरता हरे ! अचीर शरीर;
    न अधरों में स्वर, तन में प्राण,
    न नयनों ही में नीर !

    (१४)
    सकल रोओं से हाथ पसार
    लूटता इधर लोभ गृह द्वार;
    उधर वामन डग स्नेच्छाचार
    नापता जगती का विस्तार !
    टिड्डियों-सा छा अत्याचार
    चाट जाता संसार !

    (२३)
    कामनाओं के विविध प्रहार
    छेड़ जगती के उर के तार,
    जगाते जीवन की झंकार
    रुफूर्ति करते संचार;

    चूम सुख दुख के पुलिन अपार
    छलकती ज्ञानामृत की धार !

    पिघल होंठों का हिलता, हास
    दृगों को देता जीवन दान,
    वेदना ही में तपकर प्राण
    दमक, दिखलाते स्वर्ण हुलास !

    तरसते हैं हम आठोंयाम,
    इसी से सुख अति सरस, प्रकाम;
    झेलते निशि दिन का संग्राम,
    इसी से जय अभिराम;

    अलभ है इष्ट, अत: अनमोल,
    साधना ही जीवन का मोल !

    (२४)
    बिना दुख के सब सुख निस्सार,
    बिना आँसू के जीवन भार;
    दीन दुर्बल है रे संसार,
    इसी से दया, क्षमा औ’ प्यार !

    (२५)
    आज का दुख, कल का आह्लाद,
    और कल का सुख, आज विषाद;
    समस्या स्वप्न गूढ़ संसार,
    पूर्ति जिसकी उसपार
    जगत जीवन का अर्थ विकास,
    मृत्यु, गति क्रम का ह्रास !

    (२६)
    हमारे काम न अपने काम,
    नहीं हम, जो हम ज्ञात;
    अरे, निज छाया में उपनाम
    छिपे हैं हम अपरुप;
    गंवाने आए हैं अज्ञात
    गंवाकर पाते स्वीय स्वरूप !

    (२७)
    जगत की सुंदरता का चाँद
    सजा लांछन को भी अवदात,
    सुहाता बदल, बदल, दिनरात,
    नवलता हो जग का आह्लाद !

    (२८)
    स्वर्ण शैशव स्वप्नों का जाल,
    मंजरित यौवन, सरस रसाल;
    प्रौढ़ता, छाया वट सुविशाल,
    स्थविरता, नीरव सायंकाल;

    वही विस्मय का शिशु नादान
    रूप पर मँडरा, बन गुंजार,
    प्रणय से बिंध, बँध, चुन-चुन सार,
    मधुर जीवन का मधु कर पान;

    एक बचपन ही में अनजान
    जागते, सोते, हम दिनरात;
    वृद्ध बालक फिर एक प्रभात
    देखता नव्य स्वप्न अज्ञात;

    मूंद प्राचीन मरण,
    खोल नूतन जीवन ।

    (२९)
    विश्वमय हे परिवर्तन !
    अतल से उमड़ अकूल, अपार
    मेघ- से विपुलाकार,
    दिशावधि में पल विविध प्रकार
    अतल में मिलते तुम अविकार ।
    अहे अनिर्वचनीय ! रूप पर भव्य, भयंकर,
    इंद्रजाल सा तुम अनंत में रचते सुंदर;
    गरज गरज, हँस हँस, चढ़ गिर, छा ढा भू अंबर,
    करते जगती को अजस्र जीवन से उर्वर;
    अखिल विश्व की आशाओं का इंद्रचाप वर
    अहे तुम्हारी भीम मृकुटि पर
    अटका निर्भर !

    (३०)
    एक औ’ बहु के बीच अजान
    घूमते तुम नित चक्र समान,
    जगत के उर में छोड़ महान
    गहन चिन्हों में ज्ञान ।

    परिवर्तित कर अगणित नूतन दृश्य निरंतर,
    अभिनय करते विश्व मंच पर तुम मायाकर !
    जहाँ हास के अधर, अश्रु के नयन करुणतर
    पाठ सीखते संकेतों में प्रकट, अगोचर;
    शिक्षास्थल यह विश्व मंच, तुम नायक नटवर,
    प्रकृति नर्त्तकी सुघर
    अखिल में व्याप्त सूत्रधर !

    ( ३१)
    हमारे निज सुख, दुख, नि:श्वास
    तूम्हें केवल परिहास;
    तुम्हारी ही विधि पर विश्वास
    हमारा चिर आश्वास !

    ऐ अनंत हृत्कंप ! तुम्हारा अविरत स्पंदन
    सृष्टि शिराओं में संचारित करता जीवन,
    खोल जगत के शत- शत नक्षत्रों-से लोचन,
    भेदन करते अंधकार तुम जग का क्षण-क्षण;
    सत्य तुम्हारी राज यष्टि, सम्मुख नत त्रिभुवन,
    भूप, अकिंचन,
    अटल शास्ति नित करते पालन !

    (३२)
    तुम्हारा ही अशेष व्यापार,
    हमारा भ्रम, मिथ्याहंकार;
    तुम्हीं में निराकार साकार,
    मृत्यु जीवन सब एकाकार !

    अहे महांबुधि ! लहरों-से शत लोक, चराचर,
    क्रीडा करते सतत तुम्हारे रुफीत वक्ष पर;
    तुंग तरंगों से शत युग, शत-शत कल्पाँतर
    उगल, महोदर में विलीन करते तुम सत्वर;
    शत सहस्र रवि शशि, असंख्य ग्रह, उपग्रह, उडुगण,
    जलते बुझते हैं स्फुलिंग-से तुममें तत्क्षण;
    अरे विश्व में अखिल, दिशावधि, कर्म वचन, मन,
    तुम्हीं चिरंतन
    अहे विवर्तन हीन विवर्तन !

    (१९२४)
    (यह कविता अभी अधूरी है)

    22. छाया-काल

    स्वस्ति, जीवन के छाया काल ।
    सुप्त स्वप्नों के सजग सकाल !
    मूक मानस के मुखर मराल !
    स्वस्ति, मेरे कवि बाल !

    तुम्हारा मानस था सोच्छ्वास,
    अलस पलकों में स्वप्न विलास;
    आँसुओं की आँखों में प्यास,
    गिरा में था मधुमास !

    बदलता बादल- सा नित वेश
    तुम्हारा जग था छाया शेष;
    निशा, अपलक नक्षत्रोन्मेष,
    दिवस, छवि का परिवेश !

    दिव्य हो भोला बालापन,
    नव्य जीवन, पर, परिवर्तन,
    स्वस्ति, मेरे अनंग नूतन !
    पुरातन मदन दहन ।

    (दिसम्बर, १९२५)