पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ- अज्ञेय

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    Pahle Main Sannata Bunta Hoon Agyeya

    अनुक्रम

    पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ- अज्ञेय

    1. एक सन्नाटा बुनता हूँ

    पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ।
    उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ।
    ताना: ताना मज़बूत चाहिए: कहाँ से मिलेगा?
    पर कोई है जो उसे बदल देगा,
    जो उसे रसों में बोर कर रंजित करेगा, तभी तो वह खिलेगा।
    मैं एक गाढ़े का तार उठाता हूँ:
    मैं तो मरण से बँधा हूँ; पर किसी के-और इसी तार के सहारे
    काल से पार पाता हूँ।
    फिर बाना: पर रंग क्या मेरी पसन्द के हैं?
    अभिप्राय भी क्या मेरे छन्द के हैं?
    पाता हूँ कि मेरा मन ही तो गिर्री है, डोरा है;
    इधर से उधर, उधर से इधर; हाथ मेरा काम करता है
    नक्शा किसी और का उभरता है।
    यों बुन जाता है जाल सन्नाटे का
    और मुझ में कुछ है कि उस से घिर जाता हूँ।
    सच मानिए, मैं नहीं है वह
    क्यों कि मैं जब पहचानता हूँ तब
    अपने को उस जाल के बाहर पाता हूँ।
    फिर कुछ बँधता है जो मैं न हूँ पर मेरा है,
    वही कल्पक है।
    जिस का कहा भीतर कहीं सुनता हूँ:
    ‘तो तू क्या कवि है? क्यों और शब्द जोड़ना चाहता है?
    कविता तो यह रखी है।’
    हाँ तो। वही मेरी सखी है, मेरी सगी है।
    जिस के लिए फिर
    दूसरा सन्नाटा बुनता हूँ।

    2. निमाड़: चैत

    (1)
    पेड़ अपनी-अपनी छाया को
    आतप से
    ओट देते
    चुप-चाप खड़े हैं।

    तपती हवा
    उन के पत्ते झराती जाती है।

    (2)
    छाया को
    झरते पत्ते
    नहीं ढँकते,
    पत्तों को ही
    छाया छा लेती है।

    3. तारे

    तारे, तू तारा देख।
    काश कि मैं तुझे देखूँ
    तारों की हज़ारहा आँखों से।

    4. खिसक गयी है धूप

    पैताने से धीरे-धीरे
    खिसक गयी है धूप।
    सिरहाने रखे हैं
    पीले गुलाब।

    क्या नहीं तुम्हें भी
    दिखा इनका जोड़-
    दर्द तुम में भी उभरा?

    5. खुले में खड़ा पेड़

    भूल कर
    सवेरे
    देहात की सैर करने गया था
    वहाँ मैं ने देखा
    खुले में खड़ा
    पेड़।
    और लौट कर
    मैं ने घरवाली को डाँटा है,
    बच्ची को पीटा है:
    दफ्तर पहुँच कर बॉस पर कुढ़ूँगा
    और बड़े बॉस को
    भिचे दाँतों के बीच से सिसकारती गाली दूँगा।
    क्यों मेरी अकल मारी गयी थी कि मैं
    देहात में देखने गया
    खुले में खड़ा पेड़?

    6. तुम सोए

    तुम सोये
    नींद में
    अधमुँदे हाथ
    सहसा हुए
    कँपने को
    कँपने में
    और जकड़े
    मानो किसी
    अपने को
    पकड़े
    कौन दीखा
    सपने में
    कहाँ खोये
    तुम किस के साथ
    अधमुँदे हाथ
    नींद में
    तुम सोये।

    7. मेज़ के आर-पार

    मेज़ के आर-पार
    आमने-सामने हम बैठे हैं
    हमारी आँखों में
    लिहाज है
    हमारी बातों में
    निहोरे
    हमारे (अलग-अलग)
    विचारों में
    एक-दूसरे को कष्ट न पहुँचाने की
    अकथित व्यग्रता।
    अभी बैरा के आने पर सूची में
    मैं खोजने लगूँगा कोई ऐसी चीज़ जो तुम्हें रुचती हो,
    और तुम मँगाओगी कोई ऐसी जो तुम्हारे जाने
    मुझे पसन्द है।
    हमारे बीच
    और मेज़ के ऊपर
    सब कुछ ठीक है, ठीक-ठाक है;
    नहीं है तो एक
    मेज़ के नीचे
    एक के पैर पर दूसरे का निर्मम दबाव
    एक की हथेली में दूसरे की निर्दयी चिकोटी।

    8. हाँ, दोस्त

    हाँ, दोस्त,
    तुम ने पहाड़ की पगडंडी चुनी
    और मैं ने सागर की लहर।
    पहाड़ की पगडंडी:
    सँकरी, पथरीली,
    ढाँटी,पर स्पष्ट लक्ष्य की ओर जाती हुई:
    मातबर और भरोसेदार
    पगडंडी जो एक दिन निश्चय तुम्हें
    पड़ाव पर पहुँचा देगी।
    सागर की लहर
    विशाल, चिकनी,
    सपाट
    पर बिछलती फिसलती हमेशा अज्ञात अदृश्य को टेरती हुई,
    बेभरोस और आवारा…
    लहर जो न कभी कहीं पहुँचेगी न पहुँचाएगी
    न पहुँचने देगी, जो डुबोएगी नहीं तो वहीं
    लौटा लाएगी
    जहाँ से चले थे, सिवा इस के
    कि वह वहीं तब तक नहीं रह गया होगा।
    ठीक है, दोस्त
    मैं ने लहर चुनी
    तुम ने पगडंडी:
    तुम
    अपनी राह पर
    सुख से तो हो?
    जानते तो हो कि कहाँ हो?
    मैं-मैं मानता हूँ कि इतना ही बहुत है कि अभी
    जानता हूँ कि आशीर्वाद में हूँ-जियो, मेरे दोस्त,
    जियो, जियो, जियो…

    जुलाई, 1970

    9. कई नगर थे जो हमें

    कई नगर थे
    जो हमें देखने थे।
    जिन के बारे में पहले पुस्तकों में पढ़ कर
    उन्हें परिचित बना लिया था
    और फिर अखबारों में पढ़ कर
    जिन से फिर अनजान हो गये थे।
    पर वे सब शहर-
    सुन्दर, मनोरम, पहचाने
    पराये, आतंक-भरे
    रात की उड़ान में
    अनदेखे पार हो गये।
    कहाँ हैं वे नगर? वे हैं भी?
    हवाई अड्डों से निकलते यात्रियों के चेहरों में
    उन की छायाएँ हैं:
    यह: जिस के टोप और अखबार के बीच में भवें दीखती हैं-
    इस की आँखों में एक नगर की मुर्दा आबादी है;
    यह-जो अनिच्छुक धीरे हाथों से
    अपना झोला
    दिखाने के लिए खोल रहा है,
    उस की उँगलियों के गट्टों में
    और एक नगर के खँडहर हैं।
    और यह-जिस की आँखें
    सब की आँखों से टकराती हैं, पर जिस की दीठ
    किसी से मिलती नहीं, उस का चेहरा
    और एक क़िलेबन्द शहर का पहरे-घिरा परकोटा है।
    नगर वे हैं, पर हम
    अपनी रात की उड़ान में
    सब पार कर आये हैं
    एक जगमग अड्डे से
    और एक जगमग अड्डे तक।

    4 अक्टूबर, 1970

    10. कोई हैं जो

    कोई हैं
    जो अतीत में जीते हैं:
    भाग्यवान् हैं वे, क्यों कि उन्हें कभी कुछ नहीं होगा।
    कोई हैं
    जो भविष्य में जीते हैं:
    भाग्वान् हैं वे, क्यों कि वे आगे देखते ही चुक जाएँगे।
    कोई हैं जो-
    पर जो इस खोज में, इस प्रतीक्षा में हैं
    कि वर्तमान हो जाए-
    वे कहाँ हैं, किस में जीते हैं?
    वर्तमान-निरन्तर होता हुआ
    क्या वह अपने को पाता है?
    या कि घूमता ही जाता है?
    और मैं-कहाँ है वह पकड़ कि मैं अस्ति को झँझोड़ लूँ…

    8 अक्टूबर, 1970

    11. प्राचीन ग्रंथागार में

    हाँ, इसे मैं छू सकता हूँ-उस की लिखावट को:
    उस को मैं छू नहीं सकता। वह लिख कर चला गया है।
    यहाँ, पुस्तकालय के इस तिजोरी-बन्द धुँधले सन्नाटे में मैं
    उस की लिपि की छुअन से रोमांचित हो सकता हूँ
    वह-वह चला गया है।
    उस के शिकरों ने
    मार लिये हैं असंख्य तीतर, बटेर, मुनाल,
    उस के घोड़ों ने रौंद ली हैं सैकड़ों फसलें, दुहाइयाँ, अस्मतें,
    उस के कवच पर बरस चुके हैं सैकड़ों फूल,
    सुन्दरियों के रूमाल, हार-गहने-
    उस की बर्छियों पर टँक चुके हैं हिरन, सुअर, हलवाहे, बेगारी,
    काफ़िर, विपक्षी सूरमा,
    उस की छाती पर चमक चुके हैं जेहादों के सितारे, दंगलों के फ़ीते,
    राजकृपाओं के तमगे;
    धर्म-गुरुओं की असीसों के सलीब।
    मार-काट, खून-खराबा, लूट-पाट करता हुआ
    चिंघाड़ और दहाड़ के बीच वह चला गया है
    इतिहास के आँगन के पार।
    यहाँ, ऐतिहासिक संग्रहालय में, रह गयी है
    उस की लिखावट
    सनद करती हुई कि उस की उदार अनुकम्पा से ही
    पुस्तकालय बना है, खड़ा है, चलता है
    और सँभालता है उस की लिखावट
    जिसे मैं छू सकता हूँ।
    उसे ही मैं नहीं छू सकता:
    वह चला गया है।
    पर क्या इतिहास भी उसे नहीं छू सकता?
    या कि क्या मैं उस के इतिहास को नहीं छू सकता?
    पलट दो यह पन्ना; और यह
    जिस पर उस की शबीह है; और यह
    जो सूना है। और भी इतिहास
    बनने को है, बन रहा है:
    ग्रन्थागार से सड़क के दूसरी पार
    दफ़्तर है अखबार का।

    12. हम घूम आए शहर

    गाड़ी ठहराने के लिए
    जगह खोजते-खोजते
    हम घूम आये शहर:
    बीमे की क़िस्तें चुकाते
    बीत गयी ज़िन्दगी।
    अतीत से कट गये
    चढ़ा कर फूल चन्दन।
    अब जिस में जीते हैं
    उस से मिले तो क्या मिले?
    खीसें निपोरता किताबी अभिनन्दन?

    13. घर की याद

    क्या हुआ अगर किसी को घर की याद आती है
    और वह उसे देश कह कर देशप्रेमी हो जाता है?
    या कि उसे लोगों के चेहरों के साथ बाँध कर
    निजी चेहरे हों तो (गीति-काव्यकार?)
    या कि (जिस-तिस के हों तो)-चलो-मानववादी?
    याद मुझे भी आती है: इस से क्या कि जिस को आती है
    वह दूसरों की भाषा में घर नहीं है?
    दृश्य: परिस्थितियाँ, ऋतुओं के स्वर, सौरभ, रंग;
    गतियों के आकार-जैसे हिरन की कूद
    या सारस की कुलाँच
    या छायाओं के जाल-डोरों में से
    किरण-पंछियों की सरकन?
    क्या हुआ
    अगर मेरी यादों की भूमि
    वह (कल्पित) भूमि नहीं है जिसे भाव-भूमि कहते हैं, वरन्
    वह है जिस पर भावना और कल्पना दोनों टिकते हैं:
    गोचर अनुभवों की भूमि?
    अगर मेरा घर
    वैसा नहीं है जिसे सिर्फ़ सोचा जा सकता है, वरन्
    वैसा है जिसे देखा, छुआ, सूँघा, या चखा जा सके?
    चाहे सिर्फ़ मेरी आँखों से, मेरे स्पर्श, मेरी नासा,
    मेरी जीभ से? क्या हुआ?
    मुझे भी याद आती है
    घर की, देश की, एकान्त अपने की
    अपनी हर यात्रा में:
    उस से अगर यात्रा रुकती नहीं
    या यह यायावर क्षेत्र-संन्यास नहीं लेता
    तो क्या हुआ?…

    24 अक्टूबर, 1970

    14. शिशिर का भोर

    उतना-सा प्रकाश
    कि अँधेरा दीखने लगे,
    उतनी-सी वर्षा
    कि सन्नाटा सुनाई दे जाए;
    उतना-सा दर्द याद आए
    कि भूल गया हूँ,
    भूल गया हूँ
    हाइडेलबर्ग

    25 अक्टूबर, 1970

    15. समाधि-लेख

    एक समुद्र, एक हवा, एक नाव,
    एक आकांक्षा, एक याद:
    इन्हीं के लाये मैं यहाँ आया।
    यानी तुम्हारे।
    पर तुम कहाँ हो? कौन-से किनारे?

    1970

    16. मृत्युर्धावति

    क्या डर ही
    बसा हुआ है सब में-
    डर ही से भागता है
    पाँचवाँ सवार?
    और उन डरे हुओं के डर से
    भाग रहे हैं सब
    मानते हुए अपने को अशरण,
    बे-सहार:
    क्या कोई नहीं है द्वार
    इस भय के पार?
    इससे क्या नहीं है निस्तार?
    या कि वह भय ही है
    एक द्वार
    उस तक जो
    सब को दौड़ाता है
    निर्विकार?

    17. देखिए न मेरी कारगुजारी

    अब देखिए न मेरी कारगुज़ारी
    कि मैं मँगनी के घोड़े पर
    सवारी कर
    ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान
    और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दूकान
    से किराया
    वसूल कर लाया हूँ
    थैली वाले को थैली
    तोड़े वाले को तोड़ा
    -और घोड़े वाले को घोड़ा।
    सब को सब का लौटा दिया
    अब मेरे पास यह घमंड है
    कि सारा समाज मेरा एहसानमन्द है।

    18. दुःसाहसी हेमंती फूल

    लोहे
    और कंकरीट के जाल के बीच
    पत्तियाँ रंग बदल रही हैं।
    एक दुःसाहसी
    हेमन्ती फूल खिला हुआ है।
    मेरा युद्ध प्रकृति की सृष्टियों से नहीं
    मानव की अपसृष्टियों से है।
    शैतान
    केवल शैतान से लड़ सकता है।
    हम अपने अस्त्र चुन सकते हैं: अपना
    शत्रु नहीं। वह हमें
    चुना-चुनाया मिलता है।

    19. हरा अंधकार

    रूपाकार
    सब अन्धकार में हैं:
    प्रकाश की सुरंग में
    मैं उन्हें बेधता चला जाता हूँ,
    उन्हें पकड़ नहीं पाता।
    मेरी चेतना में इस की पहचान है
    कि अन्धकार भी
    एक चरम रूपाकार है,
    सत्य का, यथार्थ का विस्तार है;
    पर मेरे शब्द की इतनी समाई नहीं-
    यह मेरी भाषा की हार है।
    प्रकाश मेरे अग्रजों का है
    कविता का है, परम्परा का है,
    पोढ़ा है, खरा है:
    अन्धकार मेरा है,
    कच्चा है, हरा है।

    बर्मिंगहम-लन्दन (रेल में), 14 नवम्बर, 1970

    20. विदेश में कमरे

    वहाँ विदेशों में
    कई बार कई कमरे मैं ने छोड़े हैं
    जिस में छोड़ते समय
    लौट कर देखा है
    कि सब कुछ
    ज्यों-का-त्यों है न!-यानी
    कि कहीं कोई छाप
    बची तो नहीं रह गयी है
    जो मेरी है
    जिसे कि अगला कमरेदार
    ग़ैर समझे!
    किसी कमरे में
    मैं ने अपना कुछ नहीं छोड़ा
    सिवा कभी, कहीं, कुछ कूड़ा
    जिसे मेरे हटते ही साफ कर दिया जाएगा
    क्यों कि कमरे में फिर दूसरा
    कमरेदार भर दिया जाएगा।
    सभ्यता: गति है
    कि हटते जाओ अपने-आप
    और छोड़ो नहीं
    ऐसी कोई छाप
    कि दूसरों को अस्वस्तिकर हो;
    थोड़ा कूड़ा-अधिक नहीं, इतना कि हटाने वाला
    (और क्रमेण फिर हटने वाला) मान ले
    कि सभ्यता नवीकरण है, प्रगति है।
    और यहाँ, देस में मैं
    रेल की पटरी के किनारे बैठा हूँ
    और यहाँ लौट-लौट कर देखता हूँ
    कि सब कुछ
    ज्यों-का त्यों है न!
    यानी कि हर चीज़ पर मेरी छाप बनी तो है न
    जिस से कि मैं उसे अपना पहचानूँ!
    यह मेरी बक्स है, यह मेरी बिस्तर,
    यह मेरा झोला, मेरा हजामत का सामान,
    मेरा सुई-धागा, मेरी कमीज़ से टूटा हआ बटन
    यह मेरी कापी, जिस में यह मेरी लिखावट
    और यह यह मेरा अपना नाम।
    तो मैं हूँ, न!
    यहाँ, देश में, मैं हूँ न!

    नवम्बर, 1970

    21. वह नकारता रहे

    वे कहते गये हाँ, हाँ,
    और फूल-हार
    उन पर चढ़ते गये;
    पाँवड़ों और वन्दनवारों की
    सुरंग-सी में वे निर्द्वन्द्व
    बढ़ते गये।
    सुखी रहें वे
    अपनी हाँ में।
    लेकिन जिस का नकार
    उस की नियति है
    वह भी नकारता रहे
    निर्द्वन्द्व, निरनुताप।
    बार-बार-जब भी पूछा जाय!
    वह हारता रहे,
    टूटता हुआ
    इतिहास की तिकठी पर
    निर्विकार-
    वह नकारता रहे।

    22. बलि पुरुष

    ख़ून के धब्बों से
    अँतराते हुए
    पैरों के सम, निधड़क छापे।
    भीड़ की आँखों में बरसती घृणा के
    पार जाते हुए
    उस के प्राण क्यों नहीं काँपे?
    सभी पहचानते थे कि वह
    निरीह है, अकेला है, अन्तर्मुखी है:
    पर क्या जानते थे कि वह बलि मनोनीत है
    इस ज्ञान में वह कितना सुखी है?

    23. कभी-अब

    कभी ऐसा था
    कि वे वहाँ
    ऊँचे खम्भों पर
    अकेले थे।
    हम यहाँ
    ठट्ठ के ठट्ठ
    बोलते थे
    जैकारे।
    अब ऐसा है
    कि वहाँ
    एक बड़े चबूतरे पर
    भीड़ है
    और हम यहाँ
    ठट्ठ के ठट्ठ
    अकेले हैं।

    24. उनके घुड़सवार

    उन के घुड़सवार
    हम ने घोड़ों पर से उतार लिये।
    हमारे युग में
    घुड़सवारी का चलन नहीं रहा।
    (घोड़ों का रातिब हमीं को खाने को मिलता रहा।)
    उन की मूर्तियाँ गला दी गयीं:
    धातु क्या हुआ,
    पता नहीं। उस के तो पिये तो नहीं बने।
    कहीं तोपें तो नहीं बनीं?
    -यह पूछने के लिए
    उन्हीं के द्वारे जाना पड़ेगा
    जिन के पास अब घोड़े नहीं हैं:
    वे अनुकूलित वायु में या विमानों में सफ़र करते हैं।
    उन की भी मूर्तियाँ बनेंगी।
    चौराहों पर जहाँ अब ध्यान देने के लिए
    हरी-पीली-लाल बत्तियाँ हैं,
    पैदलों द्वारा उपेक्षणीय भी कुछ होना चाहिए।
    लेकिन हम:
    हम जब हमारी सड़कों पर चलेंगे,
    तब आँख उठा कर किस की ओर देखेंगे?

    25. हीरो

    सिर से कंधों तक ढँके हुए
    वे कहते रहे
    कि पीठ नहीं दिखाएंगे–
    और हम उन्हें सराहते रहे।

    पर जब गिरने पर
    उनके नकाब उल्टे तो
    उनके चेहरे नहीं थे।

    26. जो पुल बनाएँगे

    जो पुल बनाएँगे
    वे अनिवार्यतः
    पीछे रह जाएँगे।
    सेनाएँ हो जाएँगी पार
    मारे जाएँगे रावण
    जयी होंगे राम;
    जो निर्माता रहे
    इतिहास में बन्दर कहलाएँगे।

    27. बाबू ने कहा

    बाबू ने कहा: विदेश जाना
    तो और भी करना सो करना
    गौ-मांस मत खाना।
    अन्तिम पद निषेध का था,
    स्वाभाविक था उस का मन से उतरना:
    बाक़ी बापू की मान कर
    करते रहे और सब करना।

    28. नन्दा देवी-1

    ऊपर तुम, नन्दा!
    नीचे तरु-रेखा से
    मिलती हरियाली पर
    बिखरे रेवड को
    दुलार से टेरती-सी
    गड़रिये की बाँसुरी की तान:
    और भी नीचे
    कट गिरे वन की चिरी पट्टियों के बीच से
    नये खनि-यन्त्र की
    भट्ठी से उठे धुएँ का फन्दा।
    नदी की घरेती-सी वत्सल कुहनी के मोड़ में
    सिहरते-लहरते शिशु धान।
    चलता ही जाता है यह
    अन्तहीन, अन-सुलझ
    गोरख-धन्धा!
    दूर, ऊपर तुम, नन्दा!

    बिनसर, सितम्बर, 1972

    29. नन्दा देवी-2

    वहाँ दूर शहर में
    बड़ी भारी सरकार है
    कल की समृद्धि की योजना का
    फैला कारोबार है,
    और यहाँ
    इस पर्वती गाँव में
    छोटी-से-छोटी चीज़ की भी दरकार है,
    आज की भूख-बेबसी की
    बेमुरव्वत मार है।
    कल के लिए हमें
    नाज का वायदा है-
    आज ठेकेदार को
    हमारे पेड़ काट ले जाने दो;
    कल हाकिम
    भेड़ों के आयात की
    योजना सुनाने आवेंगे-
    आज बच्चों को
    भूखा ही सो जाने दो।
    जहाँ तक तक दीठ जाती है
    फैली हैं नंगी तलैटियाँ-
    एक-एक कर सूख गये हैं
    नाले, नीले और सोते।
    कुछ भूख, कुछ अज्ञान, कुछ लोभ में
    अपनी सम्पदा हम रहे हैं खोते।
    ज़िन्दगी में जो रहा नहीं
    याद उस की
    बिसूरते लोक-गीतों में
    कहाँ तक रहेंगे सँजोते!

    बिनसर, सितम्बर, 1972

    30. नन्दा देवी-3

    तुम
    वहाँ हो
    मन्दिर तुम्हारा
    यहाँ है।
    और हम–
    हमारे हाथ, हमारी सुमिरनी–
    यहाँ है–
    और हमारा मन
    वह कहाँ है?

    बिनसर, सितम्बर, 1972

    31. नन्दा देवी-4

    वह दूर
    शिखर
    यह सम्मुख
    सरसी
    वहाँ दल के दल बादल
    यहाँ सिहरते
    कमल
    वह तुम। मैं
    यह मैं। तुम
    यह एक मेघ की बढ़ती लेखा
    आप्त सकल अनुराग, व्यक्त;
    वह हटती धुँधलाती क्षिति-रेखा:
    सन्धि-सन्धि में बसा
    विकल निःसीम विरह।

    बिनसर, सितम्बर, 1972

    32. नन्दा देवी-5

    समस्या बूढ़ी हड्डियों की नहीं
    बूढ़े स्नायु-जाल की है।
    हड्डियाँ चटक जाएँ तो जाएँ
    मगर चलते-चलते;
    देह जब गिरे तो गिरे
    अपनी गति से
    भीतर ही भीतर गलते-गलते।
    कैसे यह स्नायु-जाल उसे चलाता जाये
    आयु के पल-पल ढलते-ढलते!
    तुम्ही, पर तुम्हीं पर, तुम्हीं पर
    टिके रहें थिर नयन-आत्मा के दिये-
    अन्त तक जलते-जलते!

    सितम्बर, 1972

    33. नन्दा देवी-6

    नन्दा,
    बीस-तीस-पचास वर्षों में
    तुम्हारी वन-राजियों की लुगदी बना कर
    हम उस पर
    अखबार छाप चुके होंगे
    तुम्हारे सन्नाटे को चींथ रहे होंगे
    हमारे धुँधआते शक्तिमान ट्रक,
    तुम्हारे झरने-सोते सूख चुके होंगे
    और तुम्हारी नदियाँ
    ला सकेंगी केवल शस्य-भक्षी बाढ़ें
    या आँतों को उमेठने वाली बीमारियाँ,
    तुम्हारा आकाश हो चुका होगा
    हमारे अतिस्वन विमानों के
    धूम-सूत्रों का गुंझर।
    नन्दा, जल्दी ही-
    बीस-तीस-पचास बरसों में
    हम तुम्हारे नीचे एक मरु बिछा चुका होंगे
    और तुम्हारे उस नदी-धौत सीढ़ी वाले मन्दिर में
    जला करेगा एक मरु-दीप!

    सितम्बर, 1972

    34. नन्दा देवी-7

    पुआल के घेरदार घाघरे
    झूल गये पेड़ों पर,
    घास के गट्ठे लादे आती हैं
    वन-कन्याएँ
    पैर साधे मेड़ों पर।
    चला चल डगर पर।
    नन्दा को निहारते।
    तुड़ चुके सेब, धान
    गया खलिहानों में,
    सुन पड़ती है
    आस की गमक एक
    गड़रिये की तानों में।
    चला चल डगर पर
    नन्दा को निहारते।
    लौटती हुई बकरियाँ
    मढ़ जाती हैं
    कतकी धूप के ढलते सोने में।
    एक सुख है सब बाँटने में
    एक सुख सब जुगोने में,
    जहाँ दोनों एक हो जाएँ
    एक सुख है वहाँ होने में
    चला चल डगर पर
    नन्दा को निहारते।

    बिनसर, सितम्बर, 1972

    35. नन्दा देवी-8

    यह भी तो एक सुख है
    (अपने ढंग का क्रियाशील)
    कि चुप निहारा करूँ
    तुम्हें धीरे-धीरे खुलते!
    तुम्हारी भुजा को बादलों के उबटन से
    तुम्हारे बदन को हिम-नवनीत से
    तुम्हारे विशद वक्ष को
    धूप की धाराओं से धुलते!
    यह भी तो एक योग है
    कि मैं चुपचाप सब कुछ भोगता हूँ
    पाता हूँ सुखों को,
    निसर्ग के अगोचर प्रसादों को,
    गहरे आनन्दों को
    अपनाता हूँ;
    पर सब कुछ को बाँहों में
    समेटने के प्रयास में
    स्वयं दे दिया जाता हूँ!

    सितम्बर, 1972

    36. नन्दा देवी-9

    कितनी जल्दी
    तुम उझकीं
    झिझकीं
    ओट हो गईं, नन्दा!
    उतने ही में बीन ले गईं
    धूप-कुन्दन की
    अन्तिम कनिका
    देवदारु के तनों के बीच
    फिर तन गई
    धुन्ध की झीनी यवनिका।

    बिनसर, नवम्बर, 1972

    37. नन्दा देवी-10

    सीधी जाती डगर थी
    क्यों एकाएक दो में बँट गयी?
    एक ओर पियराते पाकड़,
    धूप, दूर गाँव की झलक,
    खगों की सीटियाँ
    बाँसुरी में न जाने किस सपनों की
    दुनिया की ललक
    दूसरी ओर बाँज की काई-लदी
    बाँहों की घनी छाँह,
    एक गीला ठिठुरता अँधेरा, दूर
    चिहुँकता कहीं काँकड़,
    प्रश्न उछालता लंगूर।
    जहाँ भी दोराहा आता है
    मैं दोनों पर चलता हूँ।
    सभी जानते हैं कि यों
    मैं चरम वरण को टालता
    और अपने को छलता हूँ।
    पर कोई यह तो बताये
    कि क्या कवि
    वही नहीं है जिसे पता है
    कि मैं ही वह वनानल हूँ
    जिस में मैं ही
    अनुपल जलता हूँ!
    ऐसा होगा तो
    कि फिर मिल जाएँगी दोनों राहें।
    कवि नहीं वरेगा,
    कवि को घेर लेंगी
    वरण की बाँहें।
    पर कौन कहेगा कि कवि
    तब भी कवि रहेगा।
    -जब साधक के भीतर
    प्रपात की धार-सा
    एक ही गुंजार करता
    अद्वैत बहेगा?

    सितम्बर, 1972

    38. नन्दा देवी-11

    कमल खिला
    दो कुमुद मुँदे
    नाल लहरायी
    सिहरती झील
    गहरायी कुहासा
    घिर गया।
    हंस ने डैने कुरेदे
    ग्रीवा झुला पल-भर को
    निहारा विलगता फिर तिर गया।

    बिनसर, नवम्बर, 1972

    39. नन्दा देवी-12

    ललछौंहे
    पाँकड़ के नीचे से
    गुज़रती डगर पर
    तुम्हारी देह-धार लहर गयी
    धूप की कूची ने सभी कुछ को
    सुनहली प्रभा से घेर दिया।
    देख-देख संसृति
    एक पल-भर ठहर गयी।
    फिर सूरज कहीं ढलक गया,
    साँझ ने धुन्ध-धूसर हाथ
    सारे चित्र पर फेर दिया।
    इधर एक राग-भरी स्मरण-रेख,
    उधर अनुराग की उदासी
    मेरे अन्तस्तल में गहर गयी।

    बिनसर, नवम्बर, 1972

    40. नन्दा देवी-13

    यूथ से निकल कर
    घनी वनराजियों का आश्रय छोड़ कर
    गजराज पर्वत की ओर दौड़ा है:
    पर्वत चढ़ेगा।
    कोई प्रयोजन नहीं है पर्वत पर
    पर गजराज पर्वत चढ़ेगा।
    पिछड़ता हुआ यूथ
    बिछुड़ता हुआ मुड़ता हुआ
    जान गया है कि गजराज
    मृत्यु की ओर जा रहा है:
    शिखर की ओर दौड़ने की प्रेरणा
    मृत्यु की पुकार है।
    उधर की दुर्निवार
    गजराज बढ़ेगा।
    यह नहीं कि यूथ जानता है
    यह नहीं कि गजराज पहचानता है
    कि मृत्यु क्या है: एक कुछ चरम है
    एक कुछ शिखर है
    एक कुछ दुर्निवार है
    एक कुछ नियति है।
    शिखर पर क्या है, गजराज?
    …मृत्यु क्या मृत्यु ही है शिखर पर?
    मृत्यु शिखर पर ही क्यों है?
    क्या यहाँ नहीं है, नहीं हो सकती?
    कहाँ नहीं है, जो शिखर पर हो?
    मृत्यु ही शिखर है कदाचित्?
    किस का शिखर?
    क्या शिखर की ओर
    दुर्निवार जाना ही प्रमाण है
    कि शिखर बस एक आयाम है-
    किस का आयाम?
    तो शिखर से आगे क्या है?
    त्वादृङ् नो भूथान्नचिकेता प्रष्टा…
    तो क्या मैं शिकार की ओर दौड़ा हूँ
    या शिखर से आगे?
    किस का शिखर?
    महतः परमव्यक्तम्
    शिखर से आगे क्या है, गजराज?
    अव्यक्तात्तपुरुषः परः
    पांडव हिमालय गये थे: पांडव-
    पर युधिष्ठिर कहाँ गये थे?
    शिखर से आगे क्या है?
    त्वादृङ् नो भूयान्नचिकेता प्रष्टा…
    शिखर से आगे क्या है?
    क्या…क्या…? है, है…
    सा काष्ठा सा परा गति…
    यूथ से निकल कर गजराज…

    बिनसर, नवम्बर, 1972

    41. नन्दा देवी-14

    निचले
    हर शिखर पर
    देवल:
    ऊपर
    निराकार
    तुम
    केवल…

    बिनसर, नवम्बर, 1972

    42. नन्दा देवी-15

    रात में
    मेरे भीतर सागर उमड़ा
    और बोला: तुम कौन हो? तुम क्यों समझते हो
    कि तुम हो?
    देखो, मैं हूँ, मैं हूँ,
    केवल मैं हूँ…
    मैं खो गया सागर उमड़ता रहा
    उस की उमड़न में दबा
    मैं सो गया
    सोता रहा
    और सागर
    होता रहा, होता रहा, होता रहा…
    भोर में जब पहली किरण ने नन्दा का भाल छुआ,
    तो नन्दा ने कहा: यह देखो, मैं हूँ:
    मैं हूँ तो तुम्हारा माथा
    कभी भी नीचा क्यों होगा?
    तब किरण ने मुझे भी छुआ:
    मैं हुआ।

    बिनसर, नवम्बर, 1972

    43. वन-झरने की धार

    मुड़ी डगर
    मैं ठिठक गया।
    वन-झरने की धार
    साल के पत्ते पर से
    झरती रही।
    मैं ने हाथ पसार
    दिये, वह शीतलता चमकीली
    मेरी अँजुरी भरती रही।
    गिरती बिखरती
    एक कल-कल
    करती रही:
    भूल गया मैं क्लान्ति, तृषा,
    अवसाद; याद
    बस एक
    हर रोम में
    सिहरती रही।
    लोच-भरी एड़ियाँ-
    लहरती
    तुम्हारी चाल के संग-संग
    मेरी चेतना
    विहरती रही।
    आह! धार वह वन-झरने की
    भरती अँजुरी से
    झरती रही।
    और याद से सिहरती
    मेरी मति
    तुम्हारी लहरती गति के
    साथ विचरती रही।
    मैं ठिठक रहा
    मुड़ गयी डगर
    वन-झरने-सी तुम
    मुझे भिंजाती
    चली गयीं सो
    चली गयीं…

    1972

    44. दिन तेरा

    दिन तेरा
    मैं दिन का
    पल-छिन मेरे तू धारा
    मैं तिनका भोर सवेरे
    प्रकाश ने टेरा दिन तेरा
    तू मेरा…

    1972

    45. धार पर

    हाँ, हूँ तो, मैं धार पर हूँ
    गिर सकता हूँ।
    पर तुम-तुम पर्वत हो कि चट्टान हो
    कि नदी हो कि सागर हो

    (मैं धार पर हूँ)
    तुम आँधी हो कि उजाला हो
    कि गर्त्त हो कि तीखी शराब हो कि तपा मरुस्थल हो
    (मैं धार पर हूँ)

    कि तुम सपना हो कि कगार तोड़ती बाढ़ हो
    कि तलवार कि भादों की भरन हो
    कि व्रत का निशि-जागर हो-
    (मैं धार पर हूँ)

    कि तुम-तुम-तुम उन्माद हो
    कि विधना की कृपा हो कि मरन हो कि प्यार हो
    जो मैं धार पर हूँ…

    1972

    46. जियो मेरे

    जियो, मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो
    जिन की साहिबी टोपनुमा छतों पर गौरव ध्वज फहराता है
    लेकिन जिन के शौचालयों में व्यवस्था नहीं है
    कि निवृत्त हो कर हाथ धो सकें!
    (पुरखे तो हाथ धोते थे न? आज़ादी से ही हाथ धो लेंगे, तो कैसा?)
    जियो, मेरे आज़ाद देश के शानदार शासको
    जिन की साहिबी भेजे वाली देसी खोपड़ियों पर
    चिट्टी दूधिया टोपियाँ फब दिखाती हैं,
    जिन के बाथरूम की सन्दली, अँगूरी, चम्पई, फ़ाख़्तई
    रंग की बेसिनी, नहानी, चौकी तक ही तहज़ीब
    सब में दिखता है अंग्रेज़ी रईसी ठाठ
    लेकिन सफ़ाई का काग़ज़ रखने की कंजूस बनिए की तमीज़…
    जियो, मेरे आज़ाद देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधियो
    जो विदेश जा कर विदेशी-नंग देखने के लिए पैसे दे कर
    टिकट खरीदते हो
    पर जो घर लौट कर देसी नंग ढकने के लिए
    ख़ज़ाने में पैसा नहीं पाते,
    और अपनी जेब में-पर जो देश का प्रतिनिधि हो वह
    जेब में हाथ डाले भी
    तो क्या ज़रूरी है कि जेब अपनी हो;
    जियो, मेरे आज़ाद देश के रोशन-जमीर लोक-नेताओ:
    जिन की मर्यादा वह हाथी का पैर है जिस में
    सब की मर्यादा समा जाती है-
    जैसे धरती में सीता समा गयी थी!
    एक थे वह राम जिन्हें विभीषण की खोज में जाना पड़ा,
    जा कर जलानी पड़ी लंका:
    एक है यह राम-राज्य, बजे जहाँ अविराम
    विराट् रूप विभीषण का डंका!
    राम का क्या काम यहाँ? अजी राम का नाम लो!
    चाम, जाम, दाम, ताम-झाम, काम-कितनी
    धर्मनिरपेक्ष तुकें अभी बाक़ी हैं!
    जो सधे साध लो, साधो-
    नहीं तो बने रहो मिट्टी के माधो…

    1975

    47. चले चलो, ऊधो

    अब चले चलो, ऊधो!
    इहाँ न मिलिहैं माधो!
    अच्छा है इस वृन्दावन-नन्दग्राम-मथुरा में मरना-
    और उधर, वहाँ दूर द्वारका पार फिर उभरना
    दम साधो
    और गहरे गमीर में कूदो।
    चले चलो, ऊधो!

    हाइडेलबर्ग, मई, 1975

    48. विदा का क्षण

    नहीं! विदा का क्षण
    समझ में नहीं आता।
    कहने के लिए बोल नहीं मिलते।
    और बोल नहीं हैं तो
    कैसे कहूँ कि सोच कुछ सकता हूँ?
    केवल एक अन्धी काली घुमड़न
    जो बरस कर सरसा सकती है
    सब डुबा सकती है
    या जो बहिया बन कर सब समेटती हुई
    पीछे एक मरु-बंजर भर
    छोड़ जा सकती है।
    नहीं, विदा का क्षण
    समझ में नहीं आता, नहीं आता।

    1975

    49. वीणा

    पहले उस ने कहा देखो-देखो आकाश वह प्रकाश का सागर अछोर
    और मैं ने देखा तिरते पंछी फैलाये डैने मानो नावें
    पसारे पाल जातीं दूर अजाने किनारे की ओर
    फिर उस ने कहा देखो-देखो वह विस्तार
    हरियाली का और मैं ने देखा धूप में चमकते
    पत्ते और गहरी छायाएँ असंख्य पतंगों-झींगुरों की झनकार
    और मर्मर और गुंजार से सिहरी और छिपते
    सरसराते सोते और अटकते झरते सुदूर प्रपात
    फिर उस ने कहा देखो-देखो पर देखो तो सही ज़रा
    ये ठट्ठ के ठट्ठ लोग और मैं ने उन्हें देखा
    मानो बहिया उमड़ती आ रही और उन की आँखों में ठहरा
    दुःख और भूख और लालसा और घृणा और करुणा और व्यथा अनकही
    पर फिर एकाएक उस का तना फुसफुसाता स्वर
    और घना हो कर बोला पर क्या
    तुम ने भीतर भी देखा अन्धकार में टटोला और मेरा
    जी डोल गया एक झुरझुरी मुझे कँपाती रही और मैं डूब गया
    पर तब फिर उस ने कहा मगर वह तो है वह सागर प्रकाश का
    और वह फैला अछोर और एक विस्तार हरियाली का
    और वह बिछा था चारों ओर और लोग और
    लोग थे ठट्ठ के ठट्ठ लेते हिलोर
    और उन के बीच उन से घिरा मैं विभोर उन के बीच उन के बीच…

    1975

    50. तुम्हारे गण

    तुम्हारा घाम नया अंकुर हरियाता है
    तुम्हारा जल पनपाता है
    तुम्हारा मृग चौकड़ियाँ भरता आता है
    चर जाता है।
    तुम्हारा कवि जो देख रहा है मुग्ध
    गाता है, गाता है!
    हँसती रहने देना जब आवे दिन
    तब देह बुझे या टूटे, इन आँखों को
    हँसती रहने देना।
    हाथों ने बहुत अनर्थ किये
    पग ठौर-कुठौर चले,
    मन के आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
    वाणी ने (जाने-अनजाने) सौ झूठ कहे
    पर आँखों ने हार दुःख अवसान
    मृत्यु का अन्धकार भी देखा तो
    सच-सच देखा।
    इस पार उन्हें जब आवे दिन-
    ले जावे पर उस पार
    उन्हें फिर भी आलोक-कथा
    सच्ची कहने देना: अपलक
    हँसती रहने देना!
    जब आवे दिन

    सितम्बर, 1975

    51. हँसती रहने देना

    जब आवे दिन
    तब देह बुझे या टूटे
    इन आँखों को
    हँसती रहने देना!

    हाथों ने बहुत अनर्थ किये
    पग ठौर-कुठौर चले
    मन के
    आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
    वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे

    पर आँखों ने
    हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का
    अंधकार भी देखा तो
    सच-सच देखा

    इस पार
    उन्हें जब आवे दिन
    ले जावे
    पर उस पार
    उन्हें
    फिर भी आलोक कथा
    सच्ची कहने देना
    अपलक
    हँसती रहने देना
    जब आवे दिन!