कुकुरमुत्ता सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

    0
    241
    मुख पृष्ठ / साहित्यकोश / कुकुरमुत्ता सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

    Kukurmutta Suryakant Tripathi Nirala

    कुकुरमुत्ता सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

    1. कुकुरमुत्ता

    (१)
    एक थे नव्वाब,
    फ़ारस से मंगाए थे गुलाब।
    बड़ी बाड़ी में लगाए
    देशी पौधे भी उगाए
    रखे माली, कई नौकर
    गजनवी का बाग मनहर
    लग रहा था।
    एक सपना जग रहा था
    सांस पर तहजबी की,
    गोद पर तरतीब की।
    क्यारियां सुन्दर बनी
    चमन में फैली घनी।
    फूलों के पौधे वहाँ
    लग रहे थे खुशनुमा।
    बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,
    जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी,
    चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास,
    गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज,
    और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई,
    रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई,
    आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद,
    जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद।
    फ़लों के भी पेड़ थे,
    आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे।
    चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,
    लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,
    चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां,
    बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ।
    साफ़ राह, सरा दानों ओर,
    दूर तक फैले हुए कुल छोर,
    बीच में आरामगाह
    दे रही थी बड़प्पन की थाह।
    कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी,
    कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी।
    आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
    बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;
    वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
    पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
    “अब, सुन बे, गुलाब,
    भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
    खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
    डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
    कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
    माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
    हाथ जिसके तू लगा,
    पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
    औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
    तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
    शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
    तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
    वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
    कांटो ही से भरा है यह सोच तू
    कली जो चटकी अभी
    सूखकर कांटा हुई होती कभी।
    रोज पड़ता रहा पानी,
    तू हरामी खानदानी।
    चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
    जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
    बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
    जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
    ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
    पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा।
    देख मुझको, मैं बढ़ा
    डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा
    और अपने से उगा मैं
    बिना दाने का चुगा मैं
    कलम मेरा नही लगता
    मेरा जीवन आप जगता
    तू है नकली, मै हूँ मौलिक
    तू है बकरा, मै हूँ कौलिक
    तू रंगा और मैं धुला
    पानी मैं, तू बुलबुला
    तूने दुनिया को बिगाड़ा
    मैंने गिरते से उभाड़ा
    तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर
    एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।

    काम मुझ ही से सधा है
    शेर भी मुझसे गधा है
    चीन में मेरी नकल, छाता बना
    छत्र भारत का वही, कैसा तना
    सब जगह तू देख ले
    आज का फिर रूप पैराशूट ले।
    विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ।
    काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ।
    उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी
    और लम्बी कहानी-
    सामने लाकर मुझे बेंड़ा
    देख कैंडा
    तीर से खींचा धनुष मैं राम का।
    काम का-
    पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का।
    सुबह का सूरज हूँ मैं ही
    चांद मैं ही शाम का।
    कलजुगी मैं ढाल
    नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल।
    मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला
    सारी दुनिया तोलती गल्ला
    मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला
    मेरे उल्लू, मेरे लल्ला
    कहे रूपया या अधन्ना
    हो बनारस या न्यवन्ना
    रूप मेरा, मै चमकता
    गोला मेरा ही बमकता।
    लगाता हूँ पार मैं ही
    डुबाता मझधार मैं ही।
    डब्बे का मैं ही नमूना
    पान मैं ही, मैं ही चूना

    मैं कुकुरमुत्ता हूँ,
    पर बेन्जाइन (Bengoin) वैसे
    बने दर्शनशास्त्र जैसे।
    ओमफ़लस (Omphalos) और ब्रहमावर्त
    वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त
    जैसे सिकुड़न और साड़ी,
    ज्यों सफ़ाई और माड़ी।
    कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन
    जैसे फ़्रायड और लीटन।
    फ़ेलसी और फ़लसफ़ा
    जरूरत और हो रफ़ा।
    सरसता में फ़्राड
    केपिटल में जैसे लेनिनग्राड।
    सच समझ जैसे रकीब
    लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब

    मैं डबल जब, बना डमरू
    इकबगल, तब बना वीणा।
    मन्द्र होकर कभी निकला
    कभी बनकर ध्वनि छीणा।
    मैं पुरूष और मैं ही अबला।
    मै मृदंग और मैं ही तबला।
    चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार
    दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।
    मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बने
    संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने
    मन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदा
    जीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा।
    वायलिन मुझसे बजा
    बेन्जो मुझसे सजा।
    घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घड़ियाल,
    शंख, तुरही, मजीरे, करताल,
    करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर,
    बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर,
    मानते हैं सब मुझे ये बायें से,
    जानते हैं दाये से।

    ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह
    देख, सब में लगी है मेरी गिरह
    नाच में यह मेरा ही जीवन खुला
    पैरों से मैं ही तुला।
    कत्थक हो या कथकली या बालडान्स,
    क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्स
    बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा,
    पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटका
    नाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन,
    सब में मेरी ही गढ़न।
    किसी भी तरह का हावभाव,
    मेरा ही रहता है सबमें ताव।
    मैने बदलें पैंतरे,
    जहां भी शासक लड़े।
    पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां,
    मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां।
    नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता,
    नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता।

    नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ का
    नहीं मेरा बदन आठोगांठ का।
    रस-ही-रस मैं हो रहा
    सफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा।
    दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,
    रस में मैं डूबा-उतराया।
    मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने
    मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने।
    टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े
    हाफ़िज-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े।
    कहीं का रोड़ा, कही का पत्थर
    टी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारा
    पढ़नेवाले ने भी जिगर पर रखकर
    हाथ, कहां, ‘लिख दिया जहां सारा’।
    ज्यादा देखने को आंख दबाकर
    शाम को किसी ने जैसे देखा तारा।
    जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते ही
    रोका नहीं रूकता जोश का पारा
    यहीं से यह कुल हुआ
    जैसे अम्मा से बुआ।
    मेरी सूरत के नमूने पीरामेड
    मेरा चेला था यूक्लीड।
    रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर,
    जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दर
    मैं ही सबका जनक
    जेवर जैसे कनक।
    हो कुतुबमीनार,
    ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,
    विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,
    मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्ता
    सेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर,
    गुम्बदों में, गढ़न में मेरी मुहर।
    एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च
    पड़ती है मेरी ही टार्च।
    पहले के हो, बीच के हो या आज के
    चेहरे से पिद्दी के हों या बाज के।
    चीन के फ़ारस के या जापान के
    अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।
    ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के
    कहीं की भी मकड़ी के।
    बुने जाले जैसे मकां कुल मेरे
    छत्ते के हैं घेरे।

    सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेप
    टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।
    और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,
    देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट।
    घूमता हूं सर चढ़ा,
    तू नहीं, मैं ही बड़ा।”

    (२)
    बाग के बाहर पड़े थे झोपड़े
    दूर से जो देख रहे थे अधगड़े।
    जगह गन्दी, रूका, सड़ता हुआ पानी
    मोरियों मे; जिन्दगी की लन्तरानी-
    बिलबिलाते किड़े, बिखरी हड्डियां
    सेलरों की, परों की थी गड्डियां
    कहीं मुर्गी, कही अण्डे,
    धूप खाते हुए कण्डे।
    हवा बदबू से मिली
    हर तरह की बासीली पड़ी गयी।
    रहते थे नव्वाब के खादिम
    अफ़्रिका के आदमी आदिम-
    खानसामां, बावर्ची और चोबदार;
    सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार,
    तामजानवाले कुछ देशी कहार,
    नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार,
    फ़ीलवान, ऊंटवान, गाड़ीवान
    एक खासा हिन्दु-मुस्लिम खानदान।
    एक ही रस्सी से किस्मत की बंधा
    काटता था जिन्दगी गिरता-सधा।
    बच्चे, बुड्ढे, औरते और नौजवान
    रह्ते थे उस बस्ती में, कुछ बागबान
    पेट के मारे वहां पर आ बसे
    साथ उनके रहे, रोये और हंसे।

    एक मालिन
    बीबी मोना माली की थी बंगालिन;
    लड़की उसकी, नाम गोली
    वह नव्वाबजादी की थी हमजोली।
    नाम था नव्वाबजादी का बहार
    नजरों में सारा जहां फ़र्माबरदार।
    सारंगी जैसी चढ़ी
    पोएट्री में बोलती थी
    प्रोज में बिल्कुल अड़ी।
    गोली की मां बंगालिन, बहुत शिष्ट
    पोयट्री की स्पेशलिस्ट।
    बातों जैसे मजती थी
    सारंगी वह बजती थी।
    सुनकर राग, सरगम तान
    खिलती थी बहार की जान।
    गोली की मां सोचती थी-
    गुर मिला,
    बिना पकड़े खिचे कान
    देखादेखी बोली में
    मां की अदा सीखी नन्हीं गोली ने।
    इसलिए बहार वहां बारहोमास
    डटी रही गोली की मां के
    कभी गोली के पास।
    सुबहो-शाम दोनों वक्त जाती थी
    खुशामद से तनतनाई आती थी।
    गोली डांडी पर पासंगवाली कौड़ी
    स्टीमबोट की डोंगी, फ़िरती दौड़ी।
    पर कहेंगे-
    ‘साथ-ही-साथ वहां दोनो रहती थीं
    अपनी-अपनी कहती थी।
    दोनों के दिल मिले थे
    तारे खुले-खिले थे।
    हाथ पकड़े घूमती थीं
    खिलखिलाती झूमती थीं।
    इक पर इक करती थीं चोट
    हंसकर होतीं लोटपोट।
    सात का दोनों का सिन
    खुशी से कटते थे दिन।
    महल में भी गोली जाया करती थी
    जैसे यहां बहार आया करती थी।

    एक दिन हंसकर बहार यह बोली-
    “चलो, बाग घूम आयें हम, गोली।”
    दोनों चली, जैसे धूप, और छांह
    गोली के गले पड़ी बहार की बांह।
    साथ टेरियर और एक नौकरानी।
    सामने कुछ औरतें भरती थीं पानी
    सिटपिटायी जैसे अड़गड़े मे देखा मर्द को
    बाबू ने देखा हो उठती गर्दन को।
    निकल जाने पर बहार के, बोली
    पहली दूसरी से, “देखो, वह गोली
    मोना बंगाली की लड़की ।
    भैंस भड़्की,
    ऎसी उसकी मां की सूरत
    मगर है नव्वाब की आंखों मे मूरत।
    रोज जाती है महल को, जगे भाग
    आखं का जब उतरा पानी, लगे आग,
    रोज ढोया आ रहा है माल-असबाब
    बन रहे हैं गहने-जेवर
    पकता है कलिया-कबाब।”
    झटके से सिर-आंख पर फ़िर लिये घड़े
    चली ठनकाती कड़े।
    बाग में आयी बहार
    चम्पे की लम्बी कतार
    देखती बढ़्ती गयी
    फ़ूल पर अड़ती गयी।
    मौलसिरी की छांह में
    कुछ देर बैठ बेन्च पर
    फ़िर निगाह डाली एक रेन्ज पर
    देखा फ़िर कुछ उड़ रही थी तितलियां
    डालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियां।
    भौरें गूंजते, हुए मतवाले-से
    उड़ गया इक मकड़ी के फ़ंसकर बड़े-से जाले से।
    फ़िर निगाह उठायी आसमान की ओर
    देखती रही कि कितनी दूर तक छोर
    देखा, उठ रही थी धूप-
    पड़ती फ़ुनगियों पर, चमचमाया रूप।
    पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़े
    ताज पहने, है खड़े।
    आया माली, हाथ गुलदस्ते लिये
    गुलबहार को दिये।
    गोली को इक गुलदस्ता
    सूंघकर हंसकर बहार ने दिया।
    जरा बैठकर उठी, तिरछी गली
    होती कुन्ज को चली!
    देखी फ़ारांसीसी लिली
    और गुलबकावली।
    फ़िर गुलाबजामुन का बाग छोड़ा
    तूतो के पेड़ो से बायें मुंह मोड़ा।
    एक बगल की झाड़ी
    बढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी।
    देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फ़ूल
    लहराया जी का सागर अकूल।
    दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ता
    जैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता’।
    सकपकायी, बहार देखने लगी
    जैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दगी।
    भूल गयी, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यार
    सिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार।
    टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकार
    तोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनके निसार।
    बहुत उगे थे तब तक
    उसने कुल अपने आंचल में
    तोड़कर रखे अब तक।
    घूमी प्यार से
    मुसकराती देखकर बोली बहार से-
    “देखो जी भरकर गुलाब
    हम खायंगे कुकुरमुत्ते का कबाब।”
    कुकुरमुत्ते की कहानी
    सुनी उससे जीभ में बहार की आया पानी।
    पूछा “क्या इसका कबाब
    होगा ऎसा भी लजीज?
    जितनी भाजियां दुनिया में
    इसके सामने नाचीज?”
    गोली बोली-“जैसी खुशबू
    इसका वैसा ही स्वाद,
    खाते खाते हर एक को
    आ जाती है बिहिश्त की याद
    सच समझ लो, इसका कलिया
    तेल का भूना कबाब,
    भाजियों में वैसा
    जैसा आदमियों मे नव्वाब”

    “नहीं ऎसा कहते री मालिन की
    छोकड़ी बंगालिन की!”
    डांटा नौकरानी ने-
    चढ़ी-आंख कानी ने।
    लेकिन यह, कुछ एक घूंट लार के
    जा चुके थे पेट में तब तक बहार के।
    “नहीं नही, अगर इसको कुछ कहा”
    पलटकर बहार ने उसे डांटा-
    “कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है,
    इसके साथ यहां जाना है।”
    “बता, गोली” पूछा उसने,
    “कुकुरमुत्ते का कबाब
    वैसी खुशबु देता है
    जैसी कि देता है गुलाब!”
    गोली ने बनाया मुंह
    बाये घूमकर फ़िर एक छोटी-सी निकाली “उंह!”
    कहा, “बकरा हो या दुम्बा
    मुर्ग या कोई परिन्दा
    इसके सामने सब छू:
    सबसे बढ़कर इसकी खुशबु।
    भरता है गुलाब पानी
    इसके आगे मरती है इन सबकी नानी।”
    चाव से गोली चली
    बहार उसके पीछे हो ली,
    उसके पीछे टेरियर, फ़िर नौकरानी
    पोंछती जो आंख कानी।
    चली गोली आगे जैसे डिक्टेटर
    बहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर।
    उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर-
    आधुनिक पोयेट (Poet)
    पीछे बांदी बचत की सोचती
    केपीटलिस्ट क्वेट।
    झोपड़ी में जल्दी चलकर गोली आयी
    जोर से ‘मां’ चिल्लायी।
    मां ने दरवाजा खोला,
    आंखो से सबको तोला।
    भीतर आ डलिये मे रक्खे
    मोली ने वे कुकुरमुत्ते।
    देखकर मां खिल गयी।
    निधि जैसे मिल गयी।
    कहा गोली ने, “अम्मा,
    कलिया-कबाब जल्द बना।
    पकाना मसालेदार
    अच्छा, खायेंगी बहार।
    पतली-पतली चपातियां
    उनके लिए सेख लेना।”
    जला ज्यों ही उधर चूल्हा,
    खेलने लगीं दोनों दुल्हन-दूल्हा।
    कोठरी में अलग चलकर
    बांदी की कानी को छलकर।
    टेरियर था बराती
    आज का गोली का साथ।
    हो गयी शादी कि फ़िर दूल्हन-बहार से।
    दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से।
    इस तरह कुछ वक्त बीता, खाना तैयार
    हो गया, खाने चलीं गोली और बहार।
    कैसे कहें भाव जो मां की आंखो से बरसे
    थाली लगायी बड़े समादर से।
    खाते ही बहार ने यह फ़रमाया,
    “ऎसा खाना आज तक नही खाया”
    शौक से लेकर सवाद
    खाती रहीं दोनो
    कुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब।
    बांदी को भी थोड़ा-सा
    गोली की मां ने कबाब परोसा।
    अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भी
    बाद को ला दिया,
    हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया।

    कुकुरमुत्ते की कहानी
    सुनी जब बहार से
    नव्वाब के मुंह आया पानी।
    बांदी से की पूछताछ,
    उनको हो गया विश्वास।
    माली को बुला भेजा,
    कहा, “कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताजा-ताजा।”
    माली ने कहा, “हुजूर,
    कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज हो मन्जूर,
    रहे है अब सिर्फ़ गुलाब।”
    गुस्सा आया, कांपने लगे नव्वाब।
    बोले; “चल, गुलाब जहां थे, उगा,
    सबके साथ हम भी चाहते है अब कुकुरमुत्ता।”
    बोला माली, “फ़रमाएं मआफ़ खता,
    कुकुरमुत्ता अब उगाया नहीं उगता।”

    2. गर्म पकौड़ी

    गर्म पकौड़ी-
    ऐ गर्म पकौड़ी,
    तेल की भुनी
    नमक मिर्च की मिली,
    ऐ गर्म पकौड़ी !
    मेरी जीभ जल गयी
    सिसकियां निकल रहीं,
    लार की बूंदें कितनी टपकीं,
    पर दाढ़ तले दबा ही रक्‍खा मैंने

    कंजूस ने ज्‍यों कौड़ी,
    पहले तूने मुझ को खींचा,
    दिल ले कर फिर कपड़े-सा फींचा,
    अरी, तेरे लिए छोड़ी
    बम्‍हन की पकाई
    मैंने घी की कचौड़ी।

    3. प्रेम-संगीत

    बम्हन का लड़का
    मैं उसको प्यार करता हूँ।

    जात की कहारिन वह,
    मेरे घर की है पनहारिन वह,
    आती है होते तड़का,
    उसके पीछे मैं मरता हूँ।

    कोयल-सी काली, अरे,
    चाल नहीं उसकी मतवाली,
    ब्याह नहीं हुआ, तभी भड़का,
    दिल मेरा, मैं आहें भरता हूँ।

    रोज़ आकर जगाती है सबको,
    मैं ही समझता हूँ इस ढब को,
    ले जाती है मटका बड़का,
    मैं देख-देखकर धीरज धरता हूँ।

    (रचनाकाल: 22 फरवरी, 1939)

    4. रानी और कानी

    माँ उसको कहती है रानी
    आदर से, जैसा है नाम;
    लेकिन उसका उल्टा रूप,
    चेचक के दाग, काली, नक-चिप्टी,
    गंजा-सर, एक आँख कानी।

    रानी अब हो गई सयानी,
    बीनती है, काँड़ती है, कूटती है, पीसती है,
    डलियों के सीले अपने रूखे हाथों मीसती है,
    घर बुहारती है, करकट फेंकती है,
    और घड़ों भरती है पानी;
    फिर भी माँ का दिल बैठा रहा,
    एक चोर घर में पैठा रहा,
    सोचती रहती है दिन-रात
    कानी की शादी की बात,
    मन मसोसकर वह रहती है
    जब पड़ोस की कोई कहती है-
    “औरत की जात रानी,
    ब्याह भला कैसे हो
    कानी जो है वह!”

    सुनकर कानी का दिल हिल गया,
    काँपे कुल अंग,
    दाईं आँख से
    आँसू भी बह चले माँ के दुख से,
    लेकिन वह बाईं आँख कानी
    ज्यो-की-त्यों रह गई रखती निगरानी।

    (रचनाकाल : 1939 ई.)

    5. मास्को डायेलाग्स

    मेरे नए मित्र हैं श्रीयुत गिडवानीजी,
    बहुत बड़े सोश्यलिस्ट,
    “मास्को डायेलाग्स” लेकर आए हैं मिलने।
    मुस्कराकर कहा, “यह मास्को डायेलाग्स है,
    सुभाष बाबू ने इसे जेल में मंगाया था।
    भेंट किया था मुझको जब थे पहाड़ पर।
    ’35 तक, मुश्किल से पिछड़े इस मुल्क में
    दो प्रतियाँ आई थीं।”
    फिर कहा, “वक्‍त नहीं मिलता है,
    बड़े भाई साहब का बँगला बन रहा है,
    देखभाल करता हूँ।”
    फिर कहा, “मेरे समाज में बड़े-बड़े आदमी हैं,
    एक-से हैं एक मूर्ख;
    उनको फँसाना है,
    ऐसे कोई साला एक धेला नहीं देने का।
    उपन्यास लिखा है,
    जरा देख दीजिए।
    अगर कहीं छप जाए
    तो प्रभाव पड़ जाए उल्लू के पट्ठों पर;
    मनमाना रुपया फिर ले लूँ इन लोगों से;
    नए किसी बँगले में एक प्रेस खोल दूँ;
    आप भी वहाँ चलें,
    चैन की बंसी बजे।”
    देखा उपन्यास मैंने,
    श्रीगणेश में मिला-
    “पृय असनेहमयी स्यामा मुझे प्रैम है।”
    इसको फिर रख दिया, देखा “मास्को डायेलाग्स”,
    देखा गिडवानी को।

    (रचनाकाल: 1940 ई.)

    6. खेल

    जेठ की दुपहर, दिवाकर प्रखरतर,
    जली है भू, चली है लू भासकर।

    राह निर्जन, मन्द चितवन से खड़ा
    एक लड़का, बना है छड़ का कड़ा।

    उम्र नौ-दस साल की, बस, तौलता
    दिल की चढ़कर पकरिये पर बोलता।

    तना मोटा था, पड़ा छोटा सुकर,
    बाँह से भरकर चढ़ा, आया उतर।

    डाल देखी, चढ़ा ऊपर पकड़कर,
    दम लिया कुछ देर बैठा अकड़कर।

    शाख पर चढ़ता हुआ, ऊपर गया,
    नाक बैठाकर निकाला स्वर नया,

    “भूत हों जितने जहाँ जमदूत हों,
    अब हमारा घर भरें वे खारुओं।”

    (रचनाकाल : 1942 ई.)

    7. खजोहरा

    दौड़ते हैं बादल ये काले काले,
    हाईकोर्ट के वकले मतवाले।

    जहाँ चाहिए वहाँ नहीं बरसे,
    धान सूखे देखकर नहीं तरसे।

    जहाँ पानी भरा वहाँ छूट पड़े,
    क़हक़हे लगाते हुए टूट पड़े।

    फिर भी यह बस्ती है मोद पर
    नातिन जैसे नानी की गोद पर;

    नाम है हिलगी, बनी है भूचुम्बी
    जैसी लौकी की लम्बी तुम्बी।

    कच्चे घर ऊबड़खावड़, गन्दे
    गलियारे, बन्द पड़े कुल धन्धे।

    लोग बैठे लेते हैं जमहाई,
    ठण्डी-ठण्डी चलती है पुरवाई।

    खरीफ निराई जा चुकी है, नहीं
    करने को रहा कोई काम कहीं।

    बारिश से बढ़ी ज्वार, बाजरा, उर्द,
    गाँव हरे-भरे कुल, कलाँ और खुर्द।

    लोग रोज़ रात को आल्हा गाते
    ढोलक पर, अपना जी बहलाते।

    झूला झूलती गाती हैं सावन
    औरतें, “नहीं आये मनभावन !”

    लड़के पंगे मारते हैं बढ़ – बढ़कर
    गूंज रहा है भरा हुआ अम्बर।

    सावन में भतीजा होने को हुआ
    पहले से बुला लायी गयी बुआ।

    नैहर में घूंघट के उठने से
    बुआजी की जान बची छुटने से।

    ब्याह के पहले के प्यारे – प्यारे
    गाँव के नज्जारे जग गये सारे।

    याद आयी सहेलियाँ, साथी कुल;
    तरह-तरह की हुईं रंगरेलियाँ कुल ।

    मुन्नी – मुन्ने जितने हैं चुन्नी – चुन्ने,
    आँखों पर फिरते हैं सभी टुन्नी-टुन्ने ।

    कोई नहीं, लड़कियाँ गयी ससुराल,
    लड़के गये बढ़कर परदेस, यह हाल ।

    मगर दिल बहलाने के लिए फिलहाल
    बुआ नहाने चली वह बाग का ताल ।

    पिछला पहर दिन का, पीली पड़ी धूप;
    सारे गाँव का हुआ सुनहला रूप ।

    सब्जे – सब्जे पर सोने का पानी चढ़ा,
    हुस्न और जमाल जैसे और बढ़ा।

    गाँव के किनारे निकल आयी बुआ,
    बंधी जगतवाला दायें मिला कुआं।

    नीम से लगा कच्चा चबूतरा,
    टिन्ना बैठा काट रहा था दोहरा।

    देखकर बुआ को मुस्कराया, पूछा-
    “अकेली – अकेली कहाँ चली बुआ ?”

    गुस्सा आया, बुआ काँपने लगी,
    गालियों से गला नापने लगी।

    आगे बढ़ी, चढ़े आवरू खमदार,
    स्वाभिमान से पड़े पहलू दमदार ।

    वायी वगल कुछ आगे बढ़ी कि पड़ी
    गाँव के किनारे की बड़ी गड़ही।

    भरी हुई किनारे तक, उमड़ चली,
    बहती हुई गाँव के नाले से मिली ।

    मेंढ़क एक बोलता है जैसे सुकरात,
    दूसरा फ़लातूं सुन रहा है बात।

    तेज हवा से पछाँह को झुके
    ज्वार के पौधे सिपाही जैसे दिखे।

    वनविलाव मार्लबरी जैसा अड़ा
    घोसले के पास गूलर पर चढ़ा।

    इसी वक्‍त बिल से लोमड़ी निकली,
    इधर – उधर देखती आगे बढ़ी।

    भुजैल एक बोलती है “पण्डित जी”
    मेड़ के किनारे चुगती है पिड़की ।

    सतभैये एक पेड़ के नीचे
    दूसरी पार्टी से लड़ाते हैं पंजे ।

    एक डाल पर बैठी हुई रुकमिन
    बुआ को याद आये पी से मिलने के दिन ।

    एक पेड़ पर वये के झोझें दिखी
    अलग-अलग झूले जैसी कितनी लटकी ।

    एक तरफ भगा हुआ मोर गया,
    झाड़ी से चौगड़ा कूदता निकला।

    दूर चला जाता है हिरनो का झुण्ड,
    भैंसों के लेवारेवाला मिला कुण्ड ।

    दौड़कर बबूल पर चढ़ा गिरदान,
    देखा बुआ ने भवो की तिरछी वान।

    चौतरफा आम के पेड़ों से घिरा,
    बुआ को नहानेवाला ताल मिला ।

    कितना पुराना, किसका खोदाया हुआ,
    गाँव के किसी को यह मालूम न था।

    बाँध ताल के, बारिश से छटकर,
    ढाल में अब बदल गये थे कटकर ।

    मिट्टी भर जाने से ताल उथला था,
    डूबने से लोगों को बचाता रहा।

    किनारे – किनारे लगे आम के पेड़,
    दूर से उठायी ऊँची – ऊँची मेड़।

    मिट्टी के सबब दूध ऐसा था पानी,
    खुश होकर बुआ ने नहाने की ठानी।

    उतरी जैसे ठाकुर की विजयिनी हो,
    जिसके दिल में नहीं आज-कल-परसो;

    एक प्रेम हो ऐड़ी से चोटी तक,
    जिसको चाहती है दुबली से मोटी तक ।

    बुआ ताल में पैठी जैसे हथनी,
    डर के मारे काँपने लगा पानी;

    लहरें भगीं चढ़ने को किनारे पर,
    बाँधा पानी बुआ ने बाहों से भरकर।

    नीव के खम्भे हों, पैर कीच में है;
    जाँघ से छाती तक अंग बीच में है।

    सोचा, कभी नहाती थी दिन-दिन भर,
    लडकियों को गाड़ती थी गिन-गिनकर ।

    विजय का मद आया कि देखे भुजदण्ड,
    पहले से और चढ़े हुए, और प्रचण्ड ।

    साँस ली बुआ ने, तेज़ चली हवा,
    झोका पुरवाई का एक आ लगा।

    बुआ के ऊपर की आम की जो डाल
    झोके से पुरवाई के हिली तत्काल ।

    छमा माँगने को मदनजसा बैठा
    डाल पर बड़ा – सा खजोहरा था;

    रोयाँ हर एक उसका तीर फूल का था
    सुन्दरी की ओर को तना हुआ।

    बुआ के कन्धे पर टूटकर आया,
    चाँटे के पड़ते ही पिलौधा हुआ;

    रोएं आये कन्‍धों, हथेलियों पर,
    बांहों पर, पानी पर बहेलियों पर।

    जहाँ – जहाँ गड़े, ज़ोर की खुजली
    उठी, बुआ ताल के बाहर निकली।

    निकलते, कुल अंगों में पानी के साथ,
    फैली, खुजलाने लगी वे दोनो हाथ ।

    एक छन में जलन सौगुनी बढ़ी,
    बुआ जैसे अंगारों पर हो खड़ी;

    धोती बदलनी थी, पर न बदल सकी,
    मात नील गाय को करती वे भगी।

    अंधेरा हो आया था, इतनी भलाई,
    कोई उनकी न देख पाया भगाई।

    चौकड़ी उठाती गाँव को आयी,
    दरवाज़े “अम्मा” की आवाजें लगायी ।

    अम्मा ने जल्द आकर दरवाज़ा खोला,
    पूछा, “अरी बिट्टो, तुमको क्या हुआ?”

    बुआ ने कहा, “मुआ खजोहरा,
    नहाते – नहाते मुझको लग गया ।”

    घी ले आयी अम्मा, पूछा “कहाँ लगे ?”
    बुआ ने कहा कि नहीं बची जगह।

    (खजोहरा=एक तरह का रोएँदार छोटा कीड़ा
    जिसके स्पर्श से खुजली होने लगती है।)

    (अगस्त, 1941)

    8. स्फटिक-शिला

    स्फटिक-शिला जाना था।
    रामलाल से कहा
    उमड़ पड़े रामलाल
    बोले, “कुछ रुकिए, फिलहाल
    गाड़ी तैयार नहीं;
    यार, कहीं
    ठोकर खा जाइएगा।
    कौन कहे, सही हाथ-पैर लौट आइएगा।
    कई नाले पड़ते हैं।
    चढ़ते है, उतरते हैं।
    नौजवाँ, देहाती, पहलवाँ
    थकते हैं;
    तन्दुरुस्त छकते हैं ।
    गाड़ी से चलेंगे।
    दर्द कहीं बढ़ा तो मलेंगे
    पैर।
    आदमी भी साथ हैं।” “खैर”,
    मैंने कहा, “चलने की कही,
    और देखे है पैर
    अपना भी होगा यों गैर?”

    गाड़ी आयी,
    ख़य्याम की जैसी हो रुबाई
    आधी रात को चढ़े
    चित्रकूट को बढ़े।
    मिला किला पेशवों का करवी में
    लिखा हुआ जैसे कुछ अरबी में
    रात को ऐसा दिखा
    किस्मत में जैसे कुछ हो लिखा।
    पयस्विनी नदी पड़ी
    जैसे लाज से गड़ी।
    पानी थोड़ा-थोड़ा-सा।
    गड़ा जैसे रोड़ा-सा
    मेरे मन में । पूछा
    रामलाल से, “जो कुछ भी दिखता है, छूंछा,
    ऐसा ही भरा है ?”
    “जीता है कौन, कौन मरा है,
    मुझको मालूम नहीं,
    लेकिन यह है सही-
    स्फटिक-शिला में नदी
    बहुत काफी गहरी है
    भौर बहुत चौड़ी भी
    हालाँकि जगह वह यहाँ से बहुत ऊँची है,
    मगर वहाँ रहते हैं,”-
    रामलाल ने कहा । (ऐसा ही कहते हैं।)
    बैल दो थे, साँवलिया
    और धौला । धौला गरियार था।
    बायें जुता। अक्सर चलती-चलती
    गाड़ी मुड़ जाती थी बुरी तरह बायें को।
    पूंछ ऐंठकर धौले को फिर-फिर दायें को
    हांकता था रामलाल का भाई
    ता-ता-ता-ता करता । शहनाई
    सुनकर मैं हँसता था।
    ढाल से उतरकर वह बैल वहाँ धँसता था
    इसी समय दलदल में
    बायें मुड़ा
    पानी की कलकल में
    रामलाल डूबे हुए।
    यानी बहुत ऊबे हुए।
    बैल डालकर जुआ
    भग खड़ा हुआ।
    बच्चे को बड़े आदमी-जैसा
    देखता था साँवलिया
    जुआ डालकर वही खड़ा।
    धौले की ओर को चुमकारता बढ़ा
    रामलाल का भाई। कड़े हाथ
    पकड़ ली धौले की ऐंठी नाथ।
    जुए को फिर मोड़कर,
    उतरे हुए लोगों की मदद से छोड़कर
    राह पर,
    बैलों को फिर जोता।
    चला धौला अपनी ही पुरानी चाल फिर रोता।
    नदी को पारकर
    गाड़ी आयी राह पर
    स्यारों की जोड़ी मिली
    कहीं कोई झाड़ी खिली
    रही होगी, खुशबू से
    जान पड़ा । लोग बैठे जैसे चूसे
    दमड़ी के आम हों,
    गीले फिर भी, जैसे हों मास सावन या भादों।
    राम-राम जपते थे,
    काम से यों तपते थे
    मिली और गाड़ियां
    करवी को जाती हुई, छोटी-छोटी झाड़ियाँ।
    पौ फटी।
    रात कटी।

    धूहों से धूएँ के
    वहाँ के पहाड़ दिखे।
    रामलाल ने कहा,
    “भरतकूप वह, अहा।
    गुप्त गोदावरी वहाँ, उस पहाड के उधर,
    वह देखो, श्रीकामदगिरि सुन्दर;
    सावन में जब देखा
    मोरों की बादलों से और नीली रही रेखा,
    हरे उस पहाड़ पर।
    पयस्विनी अररररर
    बहती चली जाती है,
    त्रेता की बात जैसे कहती चली जाती है।
    बड़े-बड़े हरे पेड़
    करते हैं जैसे छेड़
    पावस-समीर से
    लहराते धीर जैसे।
    वह है हनुमद्धारा, पञ्चकोसी का पहाड़,
    वह वहाँ है देवांगणा, यहाँ से पड़ती है आड़
    स्फटिक-शिला को, आश्रम
    अत्रि-अनसूया का और भी है मनोरम
    स्वच्छ मन्दाकिनी नदी झरनों से यही निकली,
    पहाड़ों के बीच पड़ी
    बादलों में जैसे बिजली।
    फूट रहे हैं सस्वर
    नये स्रोत, झरने नये, गिरियों को फोड़कर ।”

    आगे बढ़े।
    फले आम बड़े-बड़े झुके हुए देख पड़े
    गौदों में या इकले।
    आदमी वहाँ से कुछ चले हुए आ निकले।
    गाड़ियाँ भी जाती थी,
    बैठी हुई देवियाँ इठलाती थी।

    सीतापुर पास आया।
    एक जगह पेड़ की आ पड़ी घनी-घनी छाया।
    अक्कासी आती हुई देखकर
    रामलाल बोले एक डण्डे से टेककर,
    “सर को झुका लीजिएगा,
    जरा ध्यान दीजिएगा,
    जगह ऊँची-खाली है,
    कुछ आगे नाली है।”
    सीतापुर पारकर पयस्विनी फिर उतरी
    गाड़ी पकड़े गली
    नये गाँव को चली।
    ऊँचा चढ़ती हुई, कहीं पर अड़ती हुई,
    हवेली की वगल से
    आगे बढ़ी गाड़ी वह । लिये हुए कुछ फल से
    एक दल यात्रियों का जाता हुआ देख पड़ा।
    छोड़कर उसको आगे बढ़ा फिर हमारा लढा।
    राह के किनारे खुदरो दरख्त से बँधा हुआ
    कच्चा चबूतरा मिला,
    कुछ राह घेरे हुए । पत्थर एक रक्खा था
    महादेवी की जगह पर । भाव मगर पक्का था।-
    दखल जैसे जमाना चाहता था कोई अपना,
    सत्य को जो बनाये हुए था वहाँ कल्पना।
    बायें कुछ ही दूरी पर थी छोटी एक कुटिया,
    छोटा-सा बबूल वह उसकी थी लकुटिया।
    धौले ने न जाने कैसे यहाँ ऐसा मारा जोर,
    दायें गयी गाड़ी, बायें मुड़ी जैसे, एक कोर
    कटी चबूतरे की कि कुटिया से निकली
    काली एक नारी गाली देती, खाती ढिकली
    देखकर चबूतरा।
    जैसे कोयी अप्सरा
    नाचने लगी हो गालियों से भाव बतलाकर
    दोनों हाथ फैलाकर।
    मैंने देखा, बड़ा मैला
    मन उसका समाज से,
    चोट खायी हुई वह रामजी के राज से,
    शूद्रों को मिला नहीं
    जिनसे कुछ भी कहीं।
    ढाढस बंधाया मैंने मीठे-मीठे शब्द कहकर,
    देखती रही वह आँसुओं की आंखों रह-रहकर।

    कुछ दूर बढ़े भौर रुकने का ठौर था,
    गाड़ी खड़ी हुई, अन्त जहाँ, एक पौर था।
    द्वार पर चलकर
    रामलाल ने पुकारा । तरुनी ने निकलकर
    गाड़ी देखी । बंधी हुई गाय के छू लिये खुर
    देखा फिर स्नेहभरी चितवन से जैसे सुर-
    बधू हो । फिर चली गयी भीतर को धीरे से,
    भेजा लड़की को, बोल बोली जो हीरे-जैसे-
    “चालपायी दाली है,
    बैथ जाव, काली है।”
    बैठे कुछ देर हम लड़की व एकटक
    देखती रही हमको छोड़कर बकझक।
    बैलों को बांधकर चारापानी करके
    स्फटिक-शिला को कुछ तेज़ चाल हम चले
    नये गाँव की तरफ़ से । देखा वह प्रमोद-वन
    टूसरे किनारे से । हनुमद्धारा को देखकर
    खिल गया हमारा मन।

    वन था पहाड़ पर,
    कहा कि दहाड़कर
    शेर जब दूटता है,
    तब कांप उठता है
    जंगल, वे सभी पेड़
    जैसे कांपते हों भेड़।
    यह बघेलखण्ड है,
    बड़ा ही प्रचण्ड है,
    बाघ यहाँ का । कहा,
    आगे वह जानकी ही कुण्ड अब दिख रहा।

    हमने नदी पार की,
    एक पनचक्की मिली
    अर्जुन के बड़े-बड़े
    पेड़ खड़े थे अकड़े।
    बन्दर वहाँ के सब
    जैसे बिना-कलरव
    कोई हो गृहवास
    निष्प्रभ तथा उदास।
    घने पेड़, छाया-तल,
    स्वच्छ और शीतल जल।
    यह है जानकीकुण्ड।
    मछलियों के झुण्ड-झुण्ड।
    कोई नहीं मारता है।
    चारा खिला-खिलाकर सिधारता है।
    बड़ी-बड़ी शिलायों से टकराता हुआ जल
    करता है अविराम कलकल-कलकल।
    किनारे-किनारे बने साधुयों के वरवास
    जो कि हैं अनन्य-दास
    सीता-रामचन्द्र के
    रहते अतन्द्र-से।

    रम्य यह स्थल देखते हुए किनारे से
    चले हम हारे जैसे
    ऊपर-ऊपर । एक अच्छा आम का बग़ीचा मिला,
    छोटे-छोटे जंगली पेड़ों से वन वह रहा खिला।
    वहाँ रामलाल ने दिखाया फिर पहाड़ वह
    जहाँ बैठा था जयन्त दवा । “काढ़कर वह
    कौन तीर मारा राम ने जो पहुंचा वहाँ?
    मुझे झूठ जान पड़ता है, कहता यहाँ।
    साधुयों से डर के मारे मैने नही पूछा।
    मुझे जान पड़ता है भरा हुआ सब छूंछा।”
    रामलाल ने कहा।
    मैंने रामलाल को जवाब छोटा-सा दिया
    “होगा जैसा भी किया।”
    देखने लगा मैं कहकर उस वन को।
    भूल जाता है मन को
    देखता हुआ पथिक
    चित्त हुआ समाहित।
    ऊँची-नीची गलियों की झाड़ियों में लगा तिन-
    सूखा मटमैला दाग ।-बाढ़ के याद आये दिन।
    साँप बड़े ज़हरीले; टीलों पर रहते हैं,
    बिच्छू, लकड़बग्घे, रीछ, चीते, यहाँ कहते हैं;
    पेड़ों पर विचखोपड़।
    चिरौजी, बहेड़ा, हड़
    और पेड़, बड़े-बड़े,
    जंगल-के-जंगल खड़े।
    बड़े बाघ और दूर रहते हैं,
    पानी पीने रात को आते हैं, लोग कहते हैं,
    या शिकार के लिए,
    या कि भूले-भटके।
    चले कुछ और हम,
    मन्दाकिनी देख पड़ी भरी हुई मनोरम।
    सचमुच ही यहाँ पानी नीचे से बहुत भरा,
    देखकर जी हुआ हरा।
    जैसे एक झील हो,
    काला-काला स्वच्छ जल बहता सलील हो।
    सघन द्रुमो की छाँह
    शाखों से बढ़ाये बांह
    पानी के बीच उठे पत्थरों पर उगी झाड़ियाँ,
    बैठी हुई सारस ही की जातिवाली चिड़ियाँ।
    उँची-उँची उधर हैं पहाड़ियाँ।
    किनारे पर वैसे ही आवास और गुफाएँ बनी,
    एक झाड़ी देखी घनी।
    यात्री नहाते हुए।
    इक्के-दुक्के लोग वहाँ आते और जाते हुए।
    एक बाबा ने कहा, “भौरादहार है,
    आराम यहाँ कीजिएगा ?”
    खड़ा हुआ स्फटिक-शिला मैं देखता ही रहा।

    आँख पड़ी युवती पर
    आई थी जो नहाकर,
    गीली धोती स्टी हुई भरी देह मे, सुघर
    उठे पुष्ट स्तन, दुष्ट मन को मरोड़कर,
    आयत दृगों का मुख खुला हुआ छोड़कर।
    बदन कही से नही काँपता।
    कुछ भी संकोच नही ढांपता।
    वर्तुल उठे हुए उरोजों पर अड़ी थी निगाह
    चोच जैसे जयन्त की, नहीं जैसे कोई चाह
    देखने की मुझे और,
    कैसे भरे दिव्य स्तन, हैं ये कितने कठोर।
    मेरा तन कांप उठा, याद आयी जानकी।
    कहा, तुम राम को,
    कैसे दिये हैं दर्शन !

    (सम्भावित रचनाकाल : 1942 ई. का पूर्वार्ध)