खिचड़ी विप्लव देखा हमने नागार्जुन

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    Khichdi Viplava Dekha Hamne Nagarjun

    अनुक्रम

    खिचड़ी विप्लव देखा हमने नागार्जुन

    तुम तो नहीं गईं थीं आग लगाने

    तुम तो नहीं गईं थीं आग लगाने
    तुम्हारे हाथ मे तो गीला चीथडा नहीं था.
    आँचल की ओट में तुमने तो हथगोले नहीं छिपा रखे थे.
    भूख वाला भड़काऊ पर्चा भी तो नहीं बाँट रही थी तुम,
    दातौन के लिए नीम की टहनी भी कहाँ थी तुम्हारे हाँथ में,
    हाय राम ,तुमतो गंगा नहा कर वापस लौट रही थी.
    कंधे पर गीली धोती थी,हाँथ में गंगाजल वाला लोटा था
    बी .एस .ऍफ़ . के उस जवान का क्या बिगाडा था तुमने?
    हाय राम,जांघ में ही गोली लगनी थी तुम्हारे !
    जिसके इशारे पर नाच रहे हैं हुकूमत के चक्के
    वो भी एक औरत है!
    वो नहीं आयेगी अस्पताल में तुम्हे देखने
    सीमान्त नहीं हुआ करती एक मामूली औरत की जांघ
    और तुम शहीद सीमा -सैनिक की बीवी भी तो नहीं हो
    की वो तुमसे हाँथ मिलाने आएंगी!

    इन्दु जी क्या हुआ आपको

    क्या हुआ आपको?
    क्या हुआ आपको?
    सत्ता की मस्ती में
    भूल गई बाप को?
    इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
    बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
    क्या हुआ आपको?
    क्या हुआ आपको?

    आपकी चाल-ढाल देख- देख लोग हैं दंग
    हकूमती नशे का वाह-वाह कैसा चढ़ा रंग
    सच-सच बताओ भी
    क्या हुआ आपको
    यों भला भूल गईं बाप को!

    छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको
    काले चिकने माल का मस्का लगा आपको
    किसी ने टोका तो ठस्का लगा आपको
    अन्ट-शन्ट बक रही जनून में
    शासन का नशा घुला ख़ून में
    फूल से भी हल्का
    समझ लिया आपने हत्या के पाप को
    इन्दु जी, क्या हुआ आपको
    बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!

    बचपन में गांधी के पास रहीं
    तरुणाई में टैगोर के पास रहीं
    अब क्यों उलट दिया ‘संगत’ की छाप को?
    क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको
    बेटे को याद रखा, भूल गई बाप को
    इन्दु जी, इन्दु जी, इन्दु जी, इन्दु जी…

    रानी महारानी आप
    नवाबों की नानी आप
    नफ़ाख़ोर सेठों की अपनी सगी माई आप
    काले बाज़ार की कीचड़ आप, काई आप

    सुन रहीं गिन रहीं
    गिन रहीं सुन रहीं
    सुन रहीं सुन रहीं
    गिन रहीं गिन रहीं
    हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को
    एक-एक टाप को, एक-एक टाप को

    सुन रहीं गिन रहीं
    एक-एक टाप को
    हिटलर के घोड़े की, हिटलर के घोड़े की
    एक-एक टाप को…
    छात्रों के ख़ून का नशा चढ़ा आपको
    यही हुआ आपको
    यही हुआ आपको

    (१९७४ में रचित)

    लाइए, मैं चरण चूमूं आपके

    देवि, अब तो कटें बंधन पाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    जिद निभाई, डग बढ़ाए नाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    सौ नमूने बने इनकी छाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    किए पूरे सभी सपने बाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    हो गए हैं विगत क्षण अभिशाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    मिट गए हैं चिह्न अन्तस्ताप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    दया उमड़ी, गुल खिले शर-चाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    सिद्धी होगी, मिलेंगे फल जाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    थक गए हैं हाथ गोबर थाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    खो गए लय बोल के, आलाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    कढ़ी आहें, जमे बादल भाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    देवि, अब तो कटे बँधन पाप के
    लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

    (१९७४)

    बाघिन

    लम्बी जिह्वा, मदमाते दृग झपक रहे हैं
    बूँद लहू के उन जबड़ों से टपक रहे हैं
    चबा चुकी है ताजे शिशुमुंडों को गिन-गिन
    गुर्राती है, टीले पर बैठी है बाघिन

    पकड़ो, पकड़ो, अपना ही मुँह आप न नोचे!
    पगलाई है, जाने, अगले क्षण क्या सोचे!
    इस बाघिन को रखेंगे हम चिड़ियाघर में
    ऐसा जन्तु मिलेगा भी क्या त्रिभुवन भर में!

    (१९७४)

    फिसल रही चांदनी

    पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी
    नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही
    जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी
    पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर–
    चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी
    दूर उधर, बुर्जों पर उछल रही चाँदनी

    आँगन में, दूबों पर गिर पड़ी–
    अब मगर किस कदर संभल रही चाँदनी
    पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर
    नाच रही, कूद रही, उछल रही चाँदनी
    वो देखो, सामने
    पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी

    (१९७६)

    जाने, तुम कैसी डायन हो

    जाने, तुम कैसी डायन हो !
    अपने ही वाहन को गुप-चुप लील गई हो !
    शंका-कातर भक्तजनों के सौ-सौ मृदु उर छील गई हो !
    क्या कसूर था बेचारे का ?
    नाम ललित था, काम ललित थे
    तन-मन-धन श्रद्धा-विगलित थे
    आह, तुम्हारे ही चरणों में उसके तो पल-पल अर्पित थे
    जादूगर था जुगालियों का, नव कुबेर चवर्ण-चर्वित थे
    जाने कैसी उतावली है,
    जाने कैसी घबराहट है
    दिल के अंदर दुविधाओं की
    जाने कैसी टकराहट है
    जाने, तुम कैसी डायन हो !

    (1975)

    इसके लेखे संसद-फंसद सब फिजूल है

    इसके लेखे संसद-फंसद सब फ़िजूल है
    इसके लेखे संविधान काग़ज़ी फूल है
    इसके लेखे
    सत्य-अंहिसा-क्षमा-शांति-करुणा-मानवता
    बूढ़ों की बकवास मात्र है
    इसके लेखे गांधी-नेहरू-तिलक आदि परिहास-पात्र हैं
    इसके लेखे दंडनीति ही परम सत्य है, ठोस हक़ीक़त
    इसके लेखे बन्दूकें ही चरम सत्य है, ठोस हक़ीक़त

    जय हो, जय हो, हिटलर की नानी की जय हो!
    जय हो, जय हो, बाघों की रानी की जय हो!
    जय हो, जय हो, हिटलर की नानी की जय हो!

    (1975)

    सत्य

    सत्य को लकवा मार गया है
    वह लंबे काठ की तरह
    पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
    वह फटी–फटी आँखों से
    टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
    कोई भी सामने से आए–जाए
    सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
    पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
    सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

    सत्य को लकवा मार गया है
    गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
    सोचना बंद
    समझना बंद
    याद करना बंद
    याद रखना बंद
    दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
    सत्य को लकवा मार गया है
    कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
    तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
    ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
    सत्य को लकवा मार गया है

    वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
    सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
    वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
    वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
    वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक

    लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

    जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
    पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
    जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
    उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
    लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
    जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
    लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!

    अहिंसा

    105 साल की उम्र होगी उसकी
    जाने किस दुर्घटना में
    आधी-आधी कटी थीं बाँहें
    झुर्रियों भरा गन्दुमी सूरत का चेहरा
    धँसी-धँसी आँखें…
    राजघाट पर गाँधी समाधि के बाहर
    वह सबेरे-सबेरे नज़र आती है
    जाने कब किसने उसे एक मृगछाला दिया था
    मृगछाला के रोएँ लगभग उड़ चुके हैं
    मुलायम-चिकनी मृगछाला के उसी अद्धे पर
    वो पीठ के सहारे लेटी
    सामने अलमुनियम का भिक्षा पात्र है
    नए सिक्कों और इकटकही-दुटकही नए नोटों से
    करीब-करीब आधा भर चुका है वो पात्र
    अभी-अभी एक तरूण शान्ति-सैनिक आएगा
    अपनी सर्वोदयी थैली में भिक्षापात्र की रकम डालेगा
    झुक के बुढ़िया के कान में कुछ कहेगा
    आहिस्ते-आहिस्ते वापस लौट जाएगा
    थोड़ी देर बाद
    शान्ति सेना की एक छोकरी आएगी
    शीशे के लम्बे गिलास में मौसम्बी का जूस लिए
    बुढ़िया धीरे-धीरे गिलास खाली कर डालेगी
    पीठ और गर्दन में
    हरियाणवी तरुणी के सुस्पष्ट हाथ का सहारा पाकर
    बुदबुदाएगी फुसफुसी आवाज में – जियो बेटा
    बुढ़िया का जीर्ण-शीर्ण कलेवर
    हासिल करेगा ताज़गी

    यह अहिंसा है
    इमर्जेन्सी में भी
    मौसम्बी के तीन गिलास जूस मिलते हैं
    नित्य-नियमित, ठीक वक्त पर
    दुपहर की धूप में वह छाँह के तले पहुँचा दी जाएगी
    बारिश में तम्बू तान जाएँगे मिलिटरी वाले
    हिंसा की छत्र-छाया में
    सुरक्षित है अहिंसा…
    गीता और धम्मपद और संतवाणी के पद
    इस बुढ़िया के लिए भर लिए गए हैं रिकार्ड में
    यह निष्ठापूर्वक रोज सुबह-शाम
    सुनती है रामधुन, सुनती है पद
    ‘आपातकालीन संकट’ को
    इस बुढ़िया की आशीष प्राप्त है

    (1975 में रचित)

    चंदू, मैंने सपना देखा

    चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा
    चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा
    चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू
    चंदू,मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू

    मैंने सपना देखा देखा, कल परसों ही छूट रहे हो
    चंदू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो
    चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलंडर
    चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर मैं हूँ अंदर
    चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से पटना आए हो
    चंदू, मैंने सपना देखा, मेरे लिए शहद लाए हो

    चंदू मैंने सपना देखा, फैल गया है सुयश तुम्हारा
    चंदू मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा
    चंदू मैंने सपना देखा, तुम तो बहुत बड़े डाक्टर हो
    चंदू मैंने सपना देखा, अपनी ड्यूटी में तत्पर हो

    चंदू, मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम
    चंदू, मैंने सपना देखा, पुलिस-यान में बैठे हो तुम
    चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ अंदर
    चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलेंडर

    (1976)

    लालू साहू

    शोक विह्वल लालू साहू
    आपनी पत्नी की चिता में
    कूद गया
    लाख मना किया लोगों ने
    लाख-लाख मिन्नतें कीं
    अनुरोध किया लाख-लाख
    लालू ने एक न सुनी…
    63 वर्षीय लालू 60 वर्षीया पत्नी की
    चिता में अपने को डालकर ‘सती’ हो गया
    अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक एफ़.एस. बाखरे ने आज
    यहाँ बतलाया–
    लालू सलेमताबाद के निकट बंघी गाँव का रहने वाला था
    पत्नी अर्से से बीमार थी
    लालू ने महीनों उसकी परिचर्या की
    मगर वो बच न सकी
    निकटवर्ती नदी के किनारे चिता प्रज्वलित हुई
    दिवंगत की लाश जलने लगी
    लालू जबरन उस चिता में कूद गया

    लालू की काया बुरी तरह झुलस गई थी
    लोगों ने खींच-खाँचकर उसे बाहर निकाला
    मगर लालू को बचाया न जा सका
    थोड़ी देर बाद ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए
    पीछे–
    मॄत लालू का शव भी उसकी पत्नी की चिता में ही
    डाल दिया गया
    पीछे–
    पुलिस वालों ने लालू के अवशेषों को
    अपने कब्ज़े में ले लिया…
    इस प्रकार एक पति उस रोज़ ‘सती’ हो गया
    और अब दिवंगत पति (लालू साहू) के नाम
    पुलिस वाले केस चलाएंगे…
    क्या इस हमदर्द कवि को तथाकथित अभियुक्त के पक्ष में
    भावात्मक साक्ष्य देना होगा बाहर जाकर ?

    (1976), (जब नागार्जुन इमरजेंसी के दौरान जेल में थे)

    प्रतिबद्ध हूँ

    प्रतिबद्ध हूँ
    संबद्ध हूँ
    आबद्ध हूँ

    प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ –
    बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त –
    संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ…
    अविवेकी भीड़ की ‘भेड़या-धसान’ के खिलाफ़…
    अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए…
    अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर…
    प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!

    संबद्ध हूँ, जी हाँ, संबद्ध हूँ –
    सचर-अचर सृष्टि से…
    शीत से, ताप से, धूप से, ओस से, हिमपात से…
    राग से, द्वेष से, क्रोध से, घृणा से, हर्ष से, शोक से, उमंग से, आक्रोश से…
    निश्चय-अनिश्चय से, संशय-भ्रम से, क्रम से, व्यतिक्रम से…
    निष्ठा-अनिष्ठा से, आस्था-अनास्था से, संकल्प-विकल्प से…
    जीवन से, मृत्यु से, नाश-निर्माण से, शाप-वरदान से…
    उत्थान से, पतन से, प्रकाश से, तिमिर से…
    दंभ से, मान से, अणु से, महान से…
    लघु-लघुतर-लघुतम से, महा-महाविशाल से…
    पल-अनुपल से, काल-महाकाल से…
    पृथ्वी-पाताल से, ग्रह-उपग्रह से, निहरिका-जल से…
    रिक्त से, शून्य से, व्याप्ति-अव्याप्ति-महाव्याप्ति से…
    अथ से, इति से, अस्ति से, नास्ति से…
    सबसे और किसी से नहीं
    और जाने किस-किस से…
    संबद्ध हूँं, जी हॉँ, शतदा संबद्ध हूँ।
    रूप-रस-गंध और स्पर्श से, शब्द से…
    नाद से, ध्वनि से, स्वर से, इंगित-आकृति से…
    सच से, झूठ से, दोनों की मिलावट से…
    विधि से, निषेध से, पुण्य से, पाप से…
    उज्जवल से, मलिन से, लाभ से, हानि से…
    गति से, अगति से, प्रगति से, दुर्गति से…
    यश से, कलंक से, नाम-दुर्नाम से…
    संबद्ध हूँं, जी हॉँ, शतदा संबद्ध हूँ!

    आबद्ध हूँ, जी हाँ आबद्ध हूँ –
    स्वजन-परिजन के प्यार की डोर में…
    प्रियजन के पलकों की कोर में…
    सपनीली रातों के भोर में…
    बहुरूपा कल्पना रानी के आलिंगन-पाश में…
    तीसरी-चौथी पीढ़ियों के दंतुरित शिशु-सुलभ हास में…
    लाख-लाख मुखड़ों के तरुण हुलास में…
    आबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा आबद्ध हूँ!

    हाथ लगे आज पहली बार

    हाथ लगे आज पहली बार
    तीन सर्कुलर, साइक्लोस्टाइलवाले
    UNA द्वारा प्रचारित
    पहली बार आज लगे हाथ
    अहसास हुआ पहली बार आज…
    गत वर्ष की प्रज्वलित अग्निशिखा
    जल रही है कहीं-न-कहीं, देश के किसी कोने में
    सुलग रही है वो आँच किन्हीं दिलों के अन्दर…
    ‘अन्डर ग्राउण्ड न्यूज़ एजेन्सी’ यानि UNA
    फ़ंक्शन कर रही है कहीं न कहीं!
    नए महाप्रभुओं द्वारा लादी गई तानाशाही
    ज़रूर ही पंक्चर होगी

    तार-तार होगी ज़रूर ही
    जनवाद का सूरज डूब नहीं जाएगा
    गहन नहीं लगा रहेगा हमेशा अभिनव फ़ासिज़्म का…
    अहसास हुआ पहली बार आज
    छपरा जेल की इस गुफ़ा के अन्दर
    ठीक डेढ़ बजे रात में

    (रचनाकाल : 1975)

    सुबह-सुबह

    सुबह-सुबह
    तालाब के दो फेरे लगाए

    सुबह-सुबह
    रात्रि शेष की भीगी दूबों पर
    नंगे पाँव चहलकदमी की

    सुबह-सुबह
    हाथ-पैर ठिठुरे, सुन्न हुए
    माघ की कड़ी सर्दी के मारे

    सुबह-सुबह
    अधसूखी पतइयों का कौड़ा तापा
    आम के कच्चे पत्तों का
    जलता, कड़ुवा कसैला सौरभ लिया

    सुबह-सुबह
    गँवई अलाव के निकट
    घेरे में बैठने-बतियाने का सुख लूटा

    सुबह-सुबह
    आंचलिक बोलियों का मिक्स्चर
    कानों की इन कटोरियों में भरकर लौटा
    सुबह-सुबह

    (1976 में रचित)

    वसन्त की अगवानी

    रंग-बिरंगी खिली-अधखिली
    किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ
    तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
    झूम रही हैं…
    चूम रही हैं–
    कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को !!
    इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-मुई की लोच-लाज को !!
    तरुण आम की ये मंजरियाँ…
    उद्धित जग की ये किन्नरियाँ
    अपने ही कोमल-कच्चे वृन्तों की मनहर सन्धि भंगिमा
    अनुपल इनमें भरती जाती
    ललित लास्य की लोल लहरियाँ !!
    तरुण आम की ये मंजरियाँ !!
    रंग-बिरंगी खिली-अधखिली…

    (1976)

    इन सलाखों से टिकाकर भाल

    इन सलाखों से टिकाकर भाल
    सोचता ही रहूँगा चिरकाल
    और भी तो पकेंगे कुछ बाल
    जाने किस की / जाने किस की
    और भी तो गलेगी कुछ दाल
    न टपकेगी कि उनकी राल
    चाँद पूछेगा न दिल का हाल
    सामने आकर करेगा वो न एक सवाल
    मैं सलाखों से टिकाए भाल
    सोचता ही रहूँगा चिरकाल

    (1976)

    होते रहेंगे बहरे ये कान जाने कब तक

    होते रहेंगे बहरे ये कान जाने कब तक
    ताम-झाम वाले नकली मेघों की दहाड़ में
    अभी तो करुणामय हमदर्द बादल
    दूर, बहुत दूर, छिपे हैं ऊपर आड़ में

    यों ही गुजरेंगे हमेशा नहीं दिन
    बेहोशी में, खीझ में, घुटन में, ऊबों में
    आएंगी वापस ज़रूर हरियालियां
    घिसी-पिटी झुलसी हुई दूबों में

    (१९७६ में रचित)

    हरे-हरे नए-नए पात

    हरे-हरे नए-नए पात…
    पकड़ी ने ढक लिए अपने सब गात
    पोर-पोर, डाल-डाल
    पेट-पीठ और दायरा विशाल
    ऋतुपति ने कर लिए खूब आत्मसात
    हरे-हरे नए-नए पात
    ढक लिए अपने सब गात
    पकड़ी सयाना वो पेड़
    कर रहा गुप-चुप ही बात
    ढक लिए अपने सब गात
    चमक रहे
    दमक रहे
    हिल रही डुल रही खिल रही खुल रही
    पूनम की फागनी रात
    पकड़ी ने ढक लिए सब अपने गात

    1976 में रचित

    तीस साल के बाद…

    शासक बदले, झंडा बदला, तीस साल के बाद
    नेहरू-शास्त्री और इन्दिरा हमें रहेंगे याद

    जनता बदली, नेता बदले तीस साल के बाद
    बदला समर, विजेता बदले तीस साल के बाद

    कोटि-कोटि मतपत्र बन गए जादू वाले बाण
    मूर्छित भारत-माँ के तन में वापस आए प्राण

    प्रभुता की पीनक में नेहरू पुत्री थी बदहोश
    जन गण मन में दबा पड़ा था बहुत-बहुत आक्रोश

    नसबन्दी के ज़ोर-जुलुम से मचा बहुत कोहराम
    किया सभी ने उस शासन को अन्तिम बार सलाम

    (१९७७)

    तुनुक मिजाजी नही चलेगी

    तुनुक मिजाजी नहीं चलेगी
    नहीं चलेगा जी यह नाटक
    सुन लो जी भाई मुरार जी
    बन्द करो अब अपने त्राटक

    तुम पर बोझ न होगी जनता
    ख़ुद अपने दुख-दैन्य हरेगी
    हां, हां, तुम बूढी मशीन हो
    जनता तुमको ठीक करेगी

    बद्तमीज हो, बदजुबान हो…
    इन बच्चों से कुछ तो सीखो
    सबके ऊपर हो, अब प्रभु जी
    अकड़ू-मल जैसा मत दीखो

    नहीं, किसी को रिझा सकेंगे
    इनके नकली लाड़-प्यार जी
    अजी निछावर कर दूंगा मैं
    एक तरूण पर सौ मुरार जी

    नेहरू की पुत्री तो क्या थी!
    भस्मासुर की माता थी वो
    अब भी है उसको मुगालता
    भारत भाग्य विधाता थी वो

    सच-सच बोलो, उसके आगे
    तुम क्या थे भाई मुरार जी
    सूखे-रूखे काठ-सरीखे
    पड़े हुए थे निराकार जी

    तुम्हें छू दिया तरूण-क्रान्ति ने
    लोकशक्ति कौंधी रग-रग में
    अब तुम लहरों पर सवार हो
    विस्मय फैल गया है जग में

    कोटि-कोटि मत-आहुतियों में
    ख़ालिस स्वर्ण-समान ढले हो
    तुम चुनाव के हवन-कुंड से
    अग्नि-पुरुष जैसे निकले हो

    तरुण हिन्द के शासन का रथ
    खींच सकोगे पाँच साल क्या?
    ज़िद्दी हो परले दरज़े के
    खाओगे सौ-सौ उबाल क्या!

    क्या से क्या तो हुआ अचानक
    दिल का शतदल कमल खिल गया
    तुमको तो, प्रभु, एक जन्म में
    सौ जन्मों का सुफल मिल गया

    मन ही मन तुम किया करो, प्रिय
    विनयपत्रिका का पारायण
    अपनी तो खुलने वाली है
    फिर से शायद वो कारायण

    अभी नहीं ज़्यादा रगड़ूंगा
    मौज करो, भाई मुरार जी!
    संकट की बेला आई तो
    मुझ को भी लेना पुकार जी!

    (१९७७)

    थकित-चकित-भ्रमित-भग्न मन

    थकित-चकित-भ्रमित-भग्न मन को
    स्फूर्ति देता है किसी समर्थ का सहारा
    तो क्या मुझे भी प्रभु की सत्ता स्वीकार होगी
    तो क्या मुझे भी आस्तिक बन जाना होगा?
    सुख-सुविधा और ऐश-आराम के साधन
    डाल देते हैं दरार प्रखर नास्तिकता की भीत में
    बड़ा ही मादक होता है ‘यथास्थिति’ का शहद
    बड़ी ही मीठी होती है ‘गतानुगतिकता’ की संजीवनी
    धर्मभीरु पारंपरिक जन-समुदायों की
    बूँद-बूँद संचित श्रद्धा के सौ-सौ भाँड़
    जमा हैं, जमा होते रहेंगे
    मठों के अंदर…
    तो क्या मुझे भी बुढ़ापे में ‘पुष्टई’ के लिए
    वापस नहीं जाना है किसी मठ के अंदर?

    (1975)

    नए सिरे से

    नए सिरे से
    घिरे-घिरे से
    हमने झेले
    तानाशाही के वे हमले
    आगे भी झेलें हम शायद
    तानाशाही के वे हमले… नए सिरे से
    घिरे-घिरे से
    “बदल-बदल कर चखा करे तू दुख-दर्दों का स्वाद”
    “शुद्ध स्वदेशी तानाशाही आए तुझको याद”
    “फिर-फिर तुझको हुलसित रक्खे अपना ही उन्माद”
    “तुझे गर्व है, बना रहे तू अपना ही अपवाद”

    (रचनाकाल : 1977)

    धोखे में डाल सकते हैं

    हम कुछ नहीं हैं
    कुछ नहीं हैं हम
    हाँ, हम ढोंगी हैं प्रथम श्रेणी के
    आत्मवंचक… पर-प्रतारक… बगुला-धर्मी
    यानी धोखेबाज़
    जी हाँ, हम धोखेबाज़ हैं
    जी हाँ, हम ठग हैं… झुट्ठे हैं
    न अहिंसा में हमारा विश्वास है
    मन, वचन, कर्म… हमारा कुछ भी स्वच्छ नहीं है
    हम किसी की भी ‘जय’ बोल सकते हैं
    हम किसी को भी धोखे में डाल सकते हैं

    (रचनाकाल : 1975)

    ख़ूब सज रहे

    ख़ूब सज रहे आगे-आगे पंडे
    सरों पर लिए गैस के हंडे
    बड़े-बड़े रथ, बड़ी गाड़ियाँ, बड़े-बड़े हैं झंडे
    बाँहों में ताबीज़ें चमकीं, चमके काले गंडे
    सौ-सौ ग्राम वज़न है, कछुओं ने डाले हैं अण्डे
    बढ़े आ रहे, चढ़े आ रहे, चिकमगलूरी पंडे
    बुढ़िया पर कैसी फबती है दस हज़ार की सिल्कन साड़ी
    उफ़, इसकी बकवास सुनेंगे लाख-लाख बम्भोल अनाड़ी
    तिल-तिल कर आगे खिसकेगी प्रजातंत्र की खच्चर-गाड़ी
    पूरब, पश्चिम, दक्खिन, उत्तर आसमान में उड़े कबाड़ी

    (रचनाकाल : 1978)

    हाय अलीगढ़

    हाय, अलीगढ़!
    हाय, अलीगढ़!
    बोल, बोल, तू ये कैसे दंगे हैं
    हाय, अलीगढ़!
    हाय, अलीगढ़!
    शान्ति चाहते, सभी रहम के भिखमंगे हैं
    सच बतलाऊँ?
    मुझको तो लगता है, प्यारे,
    हुए इकट्ठे इत्तिफ़ाक से, सारे हो नंगे हैं
    सच बतलाऊँ?
    तेरे उर के दुख-दरपन में
    हुए उजागर
    सब कोढ़ी-भिखमंगे हैं
    फ़िकर पड़ी, बस, अपनी-अपनी
    बड़े बोल हैं
    ढमक ढोल हैं
    पाँच स्वार्थ हैं पाँच दलों के
    हदें न दिखतीं कुटिल चालाकी
    ओर-छोर दिखते न छलों के
    बत्तिस-चौंसठ मनसूबे हैं आठ दलों के

    (रचनाकाल : 1978)

    देवरस-दानवरस

    देवरस-दानवरस
    पी लेगा मानव रस
    होंगे सब विकृत-विरस
    क्या षटरस, क्या नवरस
    होंगे सब विजित-विवश
    क्या तो तीव्र क्या तो ठस
    देवरस- दानवरस
    पी लेगा मानव रस

    सर्वग्रास-सर्वत्रास
    होगा अब इतिहास
    फैलाएगा उजास
    पशु-विप्लव पशु-विलास
    जन-लक्ष्मी अति उदास
    छोड़ेगी बस उसाँस
    चरेगी हरी घास
    संस्कृति की गलित लाश

    कूड़ों के आस-पास
    ढूंढेंगे प्रात-राश
    ग्रामदास- नगरदास
    देखेगा जग विकास
    अंत्योदय-अंत्यनाश
    होगा अब इतिहास
    सर्वत्रास-सर्वग्रास

    (रचनाकाल : 1978)

    क्रान्ति सुगबुगाई है

    क्रान्ति सुगबुगाई है
    करवट बदली है क्रान्ति ने
    मगर वह अभी भी उसी तरह लेटी है
    एक बार इस ओर देखकर
    उसने फिर से फेर लिया है
    अपना मुँह उसी ओर
    ’सम्पूर्ण क्रान्ति’ और ’समग्र विप्लव’ के मंजु घोष
    उसके कानों के अन्दर
    खीज भर रहे हैं या गुदगुदी
    यह आज नहीं, कल बतला सकूँगा !
    अभी तो देख रहा हूँ
    लेटी हुई क्रान्ति की स्पन्दनशील पीठ
    अभी तो इस पर रेंग रहे हैं चींटें
    वे भली-भाँति आश्वस्त हैं
    इस उथल-पुथल में
    एक भी हाथ उन पर नहीं उठेगा
    चलता रहा उनका धन्धा
    वे अच्छी तरह आश्वस्त हैं
    वे क्रान्ति की पीठ पर मज़े में टहल-बूल रहे हैं
    क्रान्ति सुगबुगाई थी ज़रूर
    लेकिन करवट बदल कर
    उसने फिर उसी दीवार की ओर
    मुँह फेर लिया है
    मोटे सलाखों वाली काली दीवार की ओर !

    मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
    न सुसज्जित मंच है, न फूलों का ढेर
    न बन्दनवार, न मालाएँ
    न जय-जयकार
    न करेंसी नोटॊं की गड्डियों के उपहार

    मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
    नारकीय यन्त्रणा देकर
    तथाकथित ’अभियोग’ कबूल करवाने वाले
    एलैक्ट्रिक कण्डक्टर हैं

    मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
    लट्ठधारी साधारण पुलिसमैन नहीं हैं
    वहाँ तो मुस्तैद है अपनी ड्यूटी में
    डी० आई० जी० रैंक का घुटा हुआ अधेड़ बर्बर
    कमीनी निगाहों — तिहरी मुस्कानों वाला
    मोटे होठों में मोटा सिगार दबाए हुए
    वो अब तक कर चुका है
    जाने, कितने तरुणों का नितम्ब-भंजन
    जाने कितनी तरुणियों के भगाँकुर
    करवा दिए हैं सुन्न
    डलवा-डलवा कर बिजली के सिरिंज

    मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
    शिष्ट सम्भ्रान्त आई० ए० एस० ऑफ़िसर नहीं है
    वहाँ तो हिटलर का नाती है
    तोजो का पोता है
    मुसोलिनी का भांजा है
    दीवार की इस ओर के
    कोमल कण्ठों से निकले नरम-गरम नारे
    वहाँ तक नहीं पहुँच पाते हैं
    पहुँच भी पाएँ तो बर्बर हत्यारा
    अपने कानों के अन्दर गुदगुदी ही महसूस करेगा
    उसे बार-बार हंसी छूटेगी
    सरलमति बालकों की खानदानी नादानी पर
    [गत् वर्ष उस बर्बर डी० आई० जी० की साली भी बैठ गई थी
    बारह घण्टों वाले प्रतीक अनशन पर, चौराहे के सामने
    रिक्शा वालों ने कहा था : “हाय, राम !
    सोने की चूड़ियाँ भी इस तमाशे में शामिल हैं !”

    मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
    अविराम चालू हैं यन्त्रणाएँ
    अग्निस्नान और अग्निदीक्षा की
    वहाँ क्रान्ति और विप्लव
    तरुण शान्ति सेना वालों के
    सुगन्धित कर्मकाण्ड नहीं हुआ करते !

    मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
    काम नहीं आएँगे शिथिल संकल्प
    तरल भावाकुलता
    शीतोष्ण उद्‍वेलन
    वाक्य-विन्यास का कौशल
    गणित की निपुणता
    कुलीनता के नखरे

    मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
    कोई गुंजाइश नहीं होगी
    उत्पीड़न की छायाछवियाँ उतारने की
    क्रान्ति और विप्लव का फिल्मीकरण
    कहीं और होता होगा

    बार-बार लाखों की भीड़ जुटी
    बार-बार सुरीले कण्ठों से लहराई
    “जाग उठी तरुणाई… जाग उठी तरुणाई”
    बार-बार खचाखच भरा गाँधी मैदान
    बार-बार प्रदर्शन में आए लाखों लाख जवान
    बार-बार वापस गए
    बार-बार आए
    बार-बार आए
    बार-बार वापस गए
    हवा में भर उठी इंक़लाब के कपूर की ख़ुशबू
    बार-बार गूँजा आसमान
    बार-बार उमड़ आए नौजवान
    बार-बार लौट गए नौजवान

    हरिजन गाथा

    (एक)

    ऐसा तो कभी नहीं हुआ था !
    महसूस करने लगीं वे
    एक अनोखी बेचैनी
    एक अपूर्व आकुलता
    उनकी गर्भकुक्षियों के अन्दर
    बार-बार उठने लगी टीसें
    लगाने लगे दौड़ उनके भ्रूण
    अंदर ही अंदर
    ऐसा तो कभी नहीं हुआ था

    ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
    हरिजन-माताएँ अपने भ्रूणों के जनकों को
    खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में
    ऐसा तो कभी नहीं हुआ था…

    ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
    एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं–
    तेरह के तेरह अभागे–
    अकिंचन मनुपुत्र
    ज़िन्दा झोंक दिये गए हों
    प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में
    साधन सम्पन्न ऊँची जातियों वाले
    सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !
    ऐसा तो कभी नहीं हुआ था…

    ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
    महज दस मील दूर पड़ता हो थाना
    और दारोगा जी तक बार-बार
    ख़बरें पहुँचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की

    और, निरन्तर कई दिनों तक
    चलती रही हों तैयारियाँ सरेआम
    (किरासिन के कनस्तर, मोटे-मोटे लक्क्ड़,
    उपलों के ढेर, सूखी घास-फूस के पूले
    जुटाए गए हों उल्लासपूर्वक)
    और एक विराट चिताकुंड के लिए
    खोदा गया हो गड्ढा हँस-हँस कर
    और ऊँची जातियों वाली वो समूची आबादी
    आ गई हो होली वाले ‘सुपर मौज’ मूड में
    और, इस तरह ज़िन्दा झोंक दिए गए हों

    तेरह के तेरह अभागे मनुपुत्र
    सौ-सौ भाग्यवान मनुपुत्रों द्वारा
    ऐसा तो कभी नहीं हुआ था…
    ऐसा तो कभी नहीं हुआ था…

    (दो)

    चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग
    ऐसा नवजातक
    न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !
    पैदा हुआ है दस रोज़ पहले अपनी बिरादरी में
    क्या करेगा भला आगे चलकर ?
    रामजी के आसरे जी गया अगर
    कौन सी माटी गोड़ेगा ?
    कौन सा ढेला फोड़ेगा ?
    मग्गह का यह बदनाम इलाका
    जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से
    पैदा हुआ बेचारा–
    भूमिहीन बंधुआ मज़दूरों के घर में
    जीवन गुजारेगा हैवान की तरह
    भटकेगा जहाँ-तहाँ बनमानुस-जैसा
    अधपेटा रहेगा अधनंगा डोलेगा
    तोतला होगा कि साफ़-साफ़ बोलेगा
    जाने क्या करेगा
    बहादुर होगा कि बेमौत मरेगा…
    फ़िक्र की तलैया में खाने लगे गोते
    वयस्क बुजुर्ग दोनों, एक ही बिरादरी के हरिजन
    सोचने लगे बार-बार…
    कैसे तो अनोखे हैं अभागे के हाथ-पैर
    राम जी ही करेंगे इसकी खैर
    हम कैसे जानेंगे, हम ठहरे हैवान
    देखो तो कैसा मुलुर-मुलुर देख रहा शैतान !
    सोचते रहे दोनों बार-बार…

    हाल ही में घटित हुआ था वो विराट दुष्कांड…
    झोंक दिए गए थे तेरह निरपराध हरिजन
    सुसज्जित चिता में…

    यह पैशाचिक नरमेध
    पैदा कर गया है दहशत जन-जन के मन में
    इन बूढ़ों की तो नींद ही उड़ गई है तब से !
    बाक़ी नहीं बचे हैं पलकों के निशान
    दिखते हैं दृगों के कोर ही कोर
    देती है जब-तब पहरा पपोटों पर
    सील-मुहर सूखी कीचड़ की

    उनमें से एक बोला दूसरे से
    बच्चे की हथेलियों के निशान
    दिखलायेंगे गुरुजी से
    वो ज़रूर कुछ न कु़छ बतलायेंगे
    इसकी किस्मत के बारे में

    देखो तो ससुरे के कान हैं कैसे लम्बे
    आँखें हैं छोटी पर कितनी तेज़ हैं
    कैसी तेज़ रोशनी फूट रही है इन से !
    सिर हिलाकर और स्वर खींच कर
    बुद्धू ने कहा–
    हां जी खदेरन, गुरु जी ही देखेंगे इसको
    बताएँगे वही इस कलुए की किस्मत के बारे में
    चलो, चलें, बुला लावें गुरु महाराज को…

    पास खड़ी थी दस साला छोकरी
    दद्दू के हाथों से ले लिया शिशु को
    संभल कर चली गई झोंपड़ी के अन्दर

    अगले नहीं, उससे अगले रोज़
    पधारे गुरु महाराज
    रैदासी कुटिया के अधेड़ संत गरीबदास
    बकरी वाली गंगा-जमनी दाढ़ी थी
    लटक रहा था गले से
    अँगूठानुमा ज़रा-सा टुकड़ा तुलसी काठ का
    कद था नाटा, सूरत थी साँवली
    कपार पर, बाईं तरफ घोड़े के खुर का
    निशान था
    चेहरा था गोल-मटोल, आँखें थीं घुच्ची
    बदन कठमस्त था…
    ऐसे आप अधेड़ संत गरीबदास पधारे
    चमर टोली में…

    ‘अरे भगाओ इस बालक को
    होगा यह भारी उत्पाती
    जुलुम मिटाएँगे धरती से
    इसके साथी और संघाती

    ‘यह उन सबका लीडर होगा
    नाम छ्पेगा अख़बारों में
    बड़े-बड़े मिलने आएँगे
    लद-लद कर मोटर-कारों में

    ‘खान खोदने वाले सौ-सौ
    मज़दूरों के बीच पलेगा
    युग की आँचों में फ़ौलादी
    साँचे-सा यह वहीं ढलेगा

    ‘इसे भेज दो झरिया-फरिया
    माँ भी शिशु के साथ रहेगी
    बतला देना, अपना असली
    नाम-पता कुछ नहीं कहेगी

    ‘आज भगाओ, अभी भगाओ
    तुम लोगों को मोह न घेरे
    होशियार, इस शिशु के पीछे
    लगा रहे हैं गीदड़ फेरे

    ‘बड़े-बड़े इन भूमिधरों को
    यदि इसका कुछ पता चल गया
    दीन-हीन छोटे लोगों को
    समझो फिर दुर्भाग्य छ्ल गया

    ‘जनबल-धनबल सभी जुटेगा
    हथियारों की कमी न होगी
    लेकिन अपने लेखे इसको
    हर्ष न होगा, गमी न होगी

    ‘ सब के दुख में दुखी रहेगा
    सबके सुख में सुख मानेगा
    समझ-बूझ कर ही समता का
    असली मुद्दा पहचानेगा

    ‘ अरे देखना इसके डर से
    थर-थर कांपेंगे हत्यारे
    चोर-उचक्के- गुंडे-डाकू
    सभी फिरेंगे मारे-मारे

    ‘इसकी अपनी पार्टी होगी
    इसका अपना ही दल होगा
    अजी देखना, इसके लेखे
    जंगल में ही मंगल होगा

    ‘श्याम सलोना यह अछूत शिशु
    हम सब का उद्धार करेगा
    आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का
    बेड़ा सचमुच पार करेगा

    ‘हिंसा और अहिंसा दोनों
    बहनें इसको प्यार करेंगी
    इसके आगे आपस में वे
    कभी नहीं तकरार करेंगी…’

    इतना कहकर उस बाबा ने
    दस-दस के छह नोट निकाले
    बस, फिर उसके होंठों पर थे
    अपनी उँगलियों के ताले

    फिर तो उस बाबा की आँखें
    बार-बार गीली हो आईं
    साफ़ सिलेटी हृदय-गगन में
    जाने कैसी सुधियाँ छाईं

    नव शिशु का सिर सूंघ रहा था
    विह्वल होकर बार-बार वो
    सांस खींचता था रह-रह कर
    गुमसुम-सा था लगातार वो

    पाँच महीने होने आए
    हत्याकांड मचा था कैसा !
    प्रबल वर्ग ने निम्न वर्ग पर
    पहले नहीं किया था ऐसा !

    देख रहा था नवजातक के
    दाएँ कर की नरम हथेली
    सोच रहा था– इस गरीब ने
    सूक्ष्म रूप में विपदा झेली

    आड़ी-तिरछी रेखाओं में
    हथियारों के ही निशान हैं
    खुखरी है, बम है, असि भी है
    गंडासा-भाला प्रधान हैं

    दिल ने कहा– दलित माँओं के
    सब बच्चे अब बागी होंगे
    अग्निपुत्र होंगे वे अन्तिम
    विप्लव में सहभागी होंगे

    दिल ने कहा–अरे यह बच्चा
    सचमुच अवतारी वराह है
    इसकी भावी लीलाओं की
    सारी धरती चरागाह है

    दिल ने कहा– अरे हम तो बस
    पिटते आए, रोते आए !
    बकरी के खुर जितना पानी
    उसमें सौ-सौ गोते खाए !

    दिल ने कहा– अरे यह बालक
    निम्न वर्ग का नायक होगा
    नई ऋचाओं का निर्माता
    नए वेद का गायक होगा

    होंगे इसके सौ सहयोद्धा
    लाख-लाख जन अनुचर होंगे
    होगा कर्म-वचन का पक्का
    फ़ोटो इसके घर-घर होंगे

    दिल ने कहा– अरे इस शिशु को
    दुनिया भर में कीर्ति मिलेगी
    इस कलुए की तदबीरों से
    शोषण की बुनियाद हिलेगी

    दिल ने कहा– अभी जो भी शिशु
    इस बस्ती में पैदा होंगे
    सब के सब सूरमा बनेंगे
    सब के सब ही शैदा होंगे

    दस दिन वाले श्याम सलोने
    शिशु मुख की यह छ्टा निराली
    दिल ने कहा–भला क्या देखें
    नज़रें गीली पलकों वाली
    थाम लिए विह्वल बाबा ने
    अभिनव लघु मानव के मृदु पग
    पाकर इनके परस जादुई
    भूमि अकंटक होगी लगभग
    बिजली की फुर्ती से बाबा
    उठा वहां से, बाहर आया
    वह था मानो पीछे-पीछे
    आगे थी भास्वर शिशु-छाया

    लौटा नहीं कुटी में बाबा
    नदी किनारे निकल गया था
    लेकिन इन दोनों को तो अब
    लगता सब कुछ नया-नया था

    (तीन)

    ‘सुनते हो’ बोला खदेरन
    बुद्धू भाई देर नहीं करनी है इसमें
    चलो, कहीं बच्चे को रख आवें…
    बतला गए हैं अभी-अभी
    गुरु महाराज,
    बच्चे को माँ-सहित हटा देना है कहीं
    फौरन बुद्धू भाई !’…
    बुद्धू ने अपना माथा हिलाया
    खदेरन की बात पर
    एक नहीं, तीन बार !
    बोला मगर एक शब्द नहीं
    व्याप रही थी गम्भीरता चेहरे पर
    था भी तो वही उम्र में बड़ा
    (सत्तर से कम का तो भला क्या रहा होगा !)
    ‘तो चलो !
    उठो फौरन उठो !
    शाम की गाड़ी से निकल चलेंगे
    मालूम नहीं होगा किसी को…
    लौटने में तीन-चार रोज़ तो लग ही जाएँगे…
    ‘बुद्धू भाई तुम तो अपने घर जाओ
    खाओ,पियो, आराम कर लो
    रात में गाड़ी के अन्दर जागना ही तो पड़ेगा…
    रास्ते के लिए थोड़ा चना-चबेना जुटा लेना
    मैं इत्ते में करता हूं तैयार
    समझा-बुझा कर
    सुखिया और उसकी सास को…’

    बुद्धू ने पूछा, धरती टेक कर
    उठते-उठते–
    ‘झरिया,गिरिडिह, बोकारो
    कहाँ रखोगे छोकरे को ?
    वहीं न ? जहाँ अपनी बिरादरी के
    कुली-मज़ूर होंगे सौ-पचास ?
    चार-छै महीने बाद ही
    कोई काम पकड़ लेगी सुखिया भी…’
    और, फिर अपने आप से
    धीमी आवाज़ में कहने लगा बुद्धू
    छोकरे की बदनसीबी तो देखो
    माँ के पेट में था तभी इसका बाप भी
    झोंक दिया गया उसी आग में…
    बेचारी सुखिया जैसे-तैसे पाल ही लेगी इसको
    मैं तो इसे साल-साल देख आया करूँगा
    जब तक है चलने-फिरने की ताकत चोले में…
    तो क्या आगे भी इस कलु॒ए के लिए
    भेजते रहेंगे खर्ची गुरु महाराज ?…

    बढ़ आया बुद्धू अपने छ्प्पर की तरफ़
    नाचते रहे लेकिन माथे के अन्दर
    गुरु महाराज के मुंह से निकले हुए
    हथियारों के नाम और आकार-प्रकार
    खुखरी, भाला, गंडासा, बम तलवार…
    तलवार, बम, गंडासा, भाला, खुखरी…

    (१९७७)