ग्राम्या सुमित्रानंदन पंत

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    Gramya Sumitranandan Pant

    अनुक्रम

    ग्राम्या सुमित्रानंदन पंत

    1. स्वप्न पट

    ग्राम नहीं, वे ग्राम आज
    औ’ नगर न नगर जनाकर,
    मानव कर से निखिल प्रकृति जग
    संस्कृत, सार्थक, सुंदर।

    देश राष्ट्र वे नहीं,
    जीर्ण जग पतझर त्रास समापन,
    नील गगन है: हरित धरा:
    नव युग: नव मानव जीवन।

    आज मिट गए दैन्य दुःख,
    सब क्षुधा तृषा के क्रंदन
    भावी स्वप्नों के पट पर
    युग जीवन करता नर्तन।

    डूब गए सब तर्क वाद,
    सब देशों राष्ट्रों के रण,
    डूब गया रव घोर क्रांति का,
    शांत विश्व संघर्षण।

    जाति वर्ण की, श्रेणि वर्ग की
    तोड़ भित्तियाँ दुर्धर
    युग युग के बंदीगृह से
    मानवता निकली बाहर।

    नाच रहे रवि शशि,
    दिगंत में,-नाच रहे ग्रह उडुगण,
    नाच रहा भूगोल,
    नाचते नर नारी हर्षित मन।

    फुल्ल रक्त शतदल पर शोभित
    युग लक्ष्मी लोकोज्ज्वल
    अयुत करों से लुटा रही
    जन हित, जन बल, जन मंगल!

    ग्राम नहीं वे, नगर नहीं वे,-
    मुक्त दिशा औ’ क्षण से
    जीवन की क्षुद्रता निखिल
    मिट गई मनुज जीवन से।

    2. ग्राम कवि

    यहाँ न पल्लव वन में मर्मर,
    यहाँ न मधु विहगों में गुंजन,
    जीवन का संगीत बन रहा
    यहाँ अतृप्त हृदय का रोदन!

    यहाँ नहीं शब्दों में बँधती
    आदर्शों की प्रतिमा जीवित,
    यहाँ व्यर्थ है चित्र गीत में
    सुंदरता को करना संचित!

    यहाँ धरा का मुख कुरूप है,
    कुत्सित गर्हित जन का जीवन,
    सुंदरता का मूल्य वहाँ क्या
    जहाँ उदर है क्षुब्ध, नग्न तन?-

    जहाँ दैन्य जर्जर असंख्य जन
    पशु-जघन्य क्षण करते यापन,
    कीड़ों-से रेंगते मनुज शिशु,
    जहाँ अकाल वृद्ध है यौवन!

    सुलभ यहाँ रे कवि को जग में
    युग का नहीं सत्य शिव सुंदर,
    कँप कँप उठते उसके उर की
    व्यथा विमूर्छित वीणा के स्वर!

    3. ग्राम

    बृहद् ग्रंथ मानव जीवन का, काल ध्वंस से कवलित,
    ग्राम आज है पृष्ठ जनों की करुण कथा का जीवित!
    युग युग का इतिहास सभ्यताओं का इसमें संचित,
    संस्कृतियों की ह्रास वृद्धि जन शोषण से रेखांकित।

    हिंस्र विजेताओं, भूपों के आक्रमणों की निर्दय
    जीर्ण हस्तलिपि यह नृशंस गृह संघर्षों की निश्चय!
    धर्मों का उत्पात, जातियों वर्गों का उत्पीड़न,
    इसमें चिर संकलित रूढ़ि, विश्वास, विचार सनातन।
    घर घर के बिखरे पन्नों में नग्न, क्षुधार्त कहानी,
    जन मन के दयनीय भाव कर सकती प्रकट न वाणी।
    मानव दुर्गति की गाथा से ओतप्रोत मर्मांतक
    सदियों के अत्याचारों की सूची यह रोमांचक!

    मनुष्यत्व के मूलतत्त्व ग्रामों ही में अंतर्हित,
    उपादान भावी संस्कृति के भरे यहाँ हैं अविकृत।
    शिक्षा के सत्याभासों से ग्राम नहीं हैं पीड़ित,
    जीवन के संस्कार अविद्या-तम में जन के रक्षित।

    4. ग्राम दृष्टि

    देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
    सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से।
    ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन,
    जन हैं, जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन।
    रूप जगत है, रूप दृष्टि है, रूप बोधमय है मन,
    माता पिता, बंधु बांधव, परिजन, पुरजन, भू गो धन।
    रूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, जाति पाँति के बंधन,
    नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल,-जीवन चक्र सनातन।
    जन्म मरण के, सुख दुख के ताने बानों का जीवन,
    निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन!

    देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
    सोच रहा हूँ जग पर, मानव जीवन पर जन मन से।
    रूढ़ि नहीं है, रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम,
    जन जन में है जीव, जीव जीवन में सब जन हैं सम।
    ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन,
    प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन।
    मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,
    वृथा धर्म, गण तंत्र,-उन्हें यदि प्रिय न जीव जन जीवन!

    5. ग्राम चित्र

    यहाँ नहीं है चहल पहल वैभव विस्मित जीवन की,
    यहाँ डोलती वायु म्लान सौरभ मर्मर ले वन की।
    आता मौन प्रभात अकेला, संध्या भरी उदासी,
    यहाँ घूमती दोपहरी में स्वप्नों की छाया सी।
    यहाँ नहीं विद्युत दीपों का दिवस निशा में निर्मित,
    अँधियाली में रहती गहरी अँधियाली भय-कल्पित।

    यहाँ खर्व नर (बानर?) रहते युग युग से अभिशापित,
    अन्न वस्त्र पीड़ित असभ्य, निर्बुद्धि, पंक में पालित।
    यह तो मानव लोक नहीं रे, यह है नरक अपरिचित,
    यह भारत का ग्राम,-सभ्यता, संस्कृति से निर्वासित।
    झाड़ फूँस के विवर,-यही क्या जीवन शिल्पी के घर?
    कीड़ों-से रेंगते कौन ये? बुद्धिप्राण नारी नर?
    अकथनीय क्षुद्रता, विवशता भरी यहाँ के जग में,
    गृह- गृह में है कलह, खेत में कलह, कलह है मग में!

    यह रवि शशि का लोक,-जहाँ हँसते समूह में उडुगण,
    जहाँ चहकते विहग, बदलते क्षण क्षण विद्युत् प्रभ घन।
    यहाँ वनस्पति रहते, रहती खेतों की हरियाली,
    यहाँ फूल हैं, यहाँ ओस, कोकिला, आम की डाली!
    ये रहते हैं यहाँ,-और नीला नभ, बोई धरती,
    सूरज का चौड़ा प्रकाश, ज्योत्स्ना चुपचाप विचरती!
    प्रकृति धाम यह: तृण तृण, कण कण जहाँ प्रफुल्लित जीवित,
    यहाँ अकेला मानव ही रे चिर विषण्ण जीवनन्मृत!

    (दिसंबर’ ३९)

    6. ग्राम युवती

    उन्मद यौवन से उभर
    घटा सी नव असाढ़ की सुन्दर,
    अति श्याम वरण,
    श्लथ, मंद चरण,
    इठलाती आती ग्राम युवति
    वह गजगति
    सर्प डगर पर!

    सरकाती-पट,
    खिसकाती-लट, –
    शरमाती झट
    वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट!
    हँसती खलखल
    अबला चंचल
    ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल
    भर फेनोज्वल दशनों से अधरों के तट!

    वह मग में रुक,
    मानो कुछ झुक,
    आँचल सँभालती, फेर नयन मुख,
    पा प्रिय पद की आहट;
    आ ग्राम युवक,
    प्रेमी याचक,
    जब उसे ताकता है इकटक,
    उल्लसित,
    चकित,
    वह लेती मूँद पलक पट।

    पनघट पर
    मोहित नारी नर!-
    जब जल से भर
    भारी गागर
    खींचती उबहनी वह, बरबस
    चोली से उभर उभर कसमस
    खिंचते सँग युग रस भरे कलश;-
    जल छलकाती,
    रस बरसाती,
    बल खाती वह घर को जाती,
    सिर पर घट
    उर पर धर पट!

    कानों में गुड़हल
    खोंस,-धवल
    या कुँई, कनेर, लोध पाटल;
    वह हरसिंगार से कच सँवार,
    मृदु मौलसिरी के गूँथ हार,
    गउओं सँग करती वन विहार,
    पिक चातक के सँग दे पुकार,-
    वह कुंद, काँस से,
    अमलतास से,
    आम्र मौर, सहजन, पलाश से,
    निर्जन में सज ऋतु सिंगार।

    तन पर यौवन सुषमाशाली,
    मुख पर श्रमकण, रवि की लाली,
    सिर पर धर स्वर्ण शस्य डाली,
    वह मेड़ों पर आती जाती,
    उरु मटकाती,
    कटि लचकाती,
    चिर वर्षातप हिम की पाली
    धनि श्याम वरण,
    अति क्षिप्र चरण,
    अधरों से धरे पकी बाली।

    रे दो दिन का
    उसका यौवन!
    सपना छिन का
    रहता न स्मरण!
    दुःखों से पिस,
    दुर्दिन में घिस,
    जर्जर हो जाता उसका तन!
    ढह जाता असमय यौवन धन!
    बह जाता तट का तिनका
    जो लहरों से हँस-खेला कुछ क्षण!!

    (दिसंबर’ ३९)

    7. ग्राम नारी

    स्वाभाविक नारी जन की लज्जा से वेष्टित,
    नित कर्म निष्ठ, अंगो की हृष्ट पुष्ट सुन्दर,
    श्रम से हैं जिसके क्षुधा काम चिर मर्यादित,
    वह स्वस्थ ग्राम नारी, नर की जीवन सहचर।

    वह शोभा पात्र नहीं कुसुमादपि मृदुल गात्र,
    वह नैसर्गिक जीवन संस्कारों से चालित;
    सत्याभासों में पली न छायामूर्ति मात्र,
    जीवन रण में सक्षम, संघर्षों से शिक्षित।

    वह वर्ग नारियों सी न सुज्ञ, संस्कृत कृत्रिम,
    रंजित कपोल भ्रू अधर, अंग सुरभित वासित;
    छाया प्रकाश की सृष्टि, -उसे सम ऊष्मा हिम,
    वह नहीं कुलों की काम वंदिनी अभिशापित!

    स्थिर, स्नेह स्निग्ध है उसका उज्जवल दृष्टिपात,
    वह द्वन्द्व ग्रंथि से मुक्त मानवी है प्राकृत,
    नागरियों का नट रंग प्रणय उसको न ज्ञात,
    संमोहन, विभ्रम, अंग भंगिमा में अपठित।

    उसमें यत्नों से रक्षित, वैभव से पोषित
    सौन्दर्य मधुरिमा नहीं, न शोभा सौकुमार्य,
    वह नहीं स्वप्नशायिनी प्रेयसी ही परिचित,
    वह नर की सहधर्मिणी, सदा प्रिय जिसे कार्य।

    पिक चातक की मादक पुकार से उसका मन
    हो उठता नहीं प्रणय स्मृतियों से आंदोलित,
    चिर क्षुधा शीत की चीत्कारें, दुख का क्रंदन
    जीवन के पथ से उसे नहीं करते विचलित।

    है माँस पेशियों में उसके दृढ़ कोमलता,
    संयोग अवयवों में, अश्लथ उसके उरोज,
    कृत्रिम रति की है नहीं हृदय में आकुलता,
    उद्दीप्त न करता उसे भाव कल्पित मनोज!

    वह स्नेह, शील, सेवा, ममता की मधुर मूर्ति,
    यद्यपि चिर दैन्य, अविद्या के तम से पीड़ित,
    कर रही मानवी के अभाव की आज पूर्ति
    अग्रजा नागरी की,—यह ग्राम वधू निश्चित।

    (दिसंबर’ ३९)

    8. कठपुतले

    ये जीवित हैं या जीवन्मृत!
    या किसी काल विष से मूर्छित?
    ये मनुजाकृति ग्रामिक अगणित!
    स्थावर, विषण्ण, जड़वत, स्तंभित!

    किस महारात्रि तम में निद्रित
    ये प्रेत?—स्वप्नवत् संचालित!
    किस मोह मंत्र से रे कीलित
    ये दैव दग्ध, जग के पीड़ित!

    बाम्हन, ठाकुर, लाला, कहार,
    कुर्मी, अहीर, बारी, कुम्हार,
    नाई, कोरी, पासी, चमार,
    शोषित किसान या ज़मीदार,-

    ये हैं खाते पीते, रहते,
    चलते फिरते, रोते हँसते,
    लड़ते मिलते, सोते जगते,
    आनंद, नृत्य, उत्सव करते;-

    पर जैसे कठपुतले निर्मित,
    छल प्रतिमाएँ भूषित सज्जित!
    युग युग की प्रेतात्मा अविदित
    इनकी गति विधि करती यंत्रित।

    ये छाया तन, ये माया जन,
    विश्वास मूढ़ नर नारी गण,
    चिर रूढ़ि रीतियों के गोपन
    सूत्रों में बँध करते नर्तन।

    पा गत संस्कारों के इंगित
    ये क्रियाचार करते निश्चित,
    कल्पित स्वर में मुखरित, स्पंदित
    क्षण भर को ज्यों लगते जीवित!

    ये मनुज नहीं हैं रे जागृत
    जिनका उर भावों से दोलित,
    जिनमें महदाकांक्षाएँ नित
    होतीं समुद्र सी आलोड़ित।

    जो बुद्धिप्राण, करते चिन्तन,
    तत्वान्वेषण, सत्यालोचन,
    जो जीवन शिल्पी चिर शोभन
    संचारित करते भव जीवन।

    ये दारु मूर्तियाँ हैं चित्रित,
    जो घोर अविद्या में मोहित;
    ये मानव नहीं, जीव शापित,
    चेतना विहीन, आत्म विस्मृत!

    (दिसंबर’ ३९)

    9. वे आँखें

    अंधकार की गुहा सरीखी
    उन आँखों से डरता है मन,
    भरा दूर तक उनमें दारुण
    दैन्‍य दुख का नीरव रोदन!
    अह, अथाह नैराश्य, विवशता का
    उनमें भीषण सूनापन,
    मानव के पाशव पीड़न का
    देतीं वे निर्मम विज्ञापन!

    फूट रहा उनसे गहरा आतंक,
    क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम,
    डूब कालिमा में उनकी
    कँपता मन, उनमें मरघट का तम!
    ग्रस लेती दर्शक को वह
    दुर्ज्ञेय, दया की भूखी चितवन,
    झूल रहा उस छाया-पट में
    युग युग का जर्जर जन जीवन!

    वह स्‍वाधीन किसान रहा,
    अभिमान भरा आँखों में इसका,
    छोड़ उसे मँझधार आज
    संसार कगार सदृश बह खिसका!
    लहराते वे खेत दृगों में
    हुया बेदख़ल वह अब जिनसे,
    हँसती थी उनके जीवन की
    हरियाली जिनके तृन तृन से!

    आँखों ही में घूमा करता
    वह उसकी आँखों का तारा,
    कारकुनों की लाठी से जो
    गया जवानी ही में मारा!
    बिका दिया घर द्वार,
    महाजन ने न ब्‍याज की कौड़ी छोड़ी,
    रह रह आँखों में चुभती वह
    कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!

    उजरी उसके सिवा किसे कब
    पास दुहाने आने देती?
    अह, आँखों में नाचा करती
    उजड़ गई जो सुख की खेती!
    बिना दवा दर्पन के घरनी
    स्‍वरग चली,-आँखें आतीं भर,
    देख रेख के बिना दुधमुँही
    बिटिया दो दिन बाद गई मर!

    घर में विधवा रही पतोहू,
    लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
    पकड़ मँगाया कोतवाल नें,
    डूब कुँए में मरी एक दिन!
    ख़ैर, पैर की जूती, जोरू
    न सही एक, दूसरी आती,
    पर जवान लड़के की सुध कर
    साँप लोटते, फटती छाती!

    पिछले सुख की स्‍मृति आँखों में
    क्षण भर एक चमक है लाती,
    तुरत शून्‍य में गड़ वह चितवन
    तीखी नोक सदृश बन जाती।
    मानव की चेतना न ममता
    रहती तब आँखों में उस क्षण!
    हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,
    दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण!

    उस अवचेतन क्षण में मानो
    वे सुदूर करतीं अवलोकन
    ज्योति तमस के परदों पर
    युग जीवन के पट का परिवर्तन!
    अंधकार की अतल गुहा सी
    अह, उन आँखों से डरता मन,
    वर्ग सभ्यता के मंदिर के
    निचले तल की वे वातायन!

    (जनवरी’ ४०)

    10. गाँव के लड़के

    मिट्टी से भी मटमैले तन,
    अधफटे, कुचैले, जीर्ण वसन,-
    ज्यों मिट्टी के हों बने हुए
    ये गँवई लड़के—भू के धन!

    कोई खंडित, कोई कुंठित,
    कृश बाहु, पसलियाँ रेखांकित,
    टहनी सी टाँगें, बढ़ा पेट,
    टेढ़े मेढ़े, विकलांग घृणित!

    विज्ञान चिकित्सा से वंचित,
    ये नहीं धात्रियों से रक्षित,
    ज्यों स्वास्थ्य सेज हो, ये सुख से
    लोटते धूल में चिर परिचित!

    पशुओं सी भीत मूक चितवन,
    प्राकृतिक स्फूर्ति से प्रेरित मन,
    तृण तरुओं-से उग-बढ़, झर-गिर,
    ये ढोते जीवन क्रम के क्षण!

    कुल मान न करना इन्हें वहन,
    चेतना ज्ञान से नहीं गहन,
    जग जीवन धारा में बहते
    ये मूक, पंगु बालू के कण!

    कर्दम में पोषित जन्मजात,
    जीवन ऐश्वर्य न इन्हें ज्ञान,
    ये सुखी या दुखी? पशुओं-से
    जो सोते जगते साँझ प्रात!

    इन कीड़ों का भी मनुज बीज,
    यह सोच हृदय उठता पसीज,
    मानव प्रति मानव की विरक्ति
    उपजाती मन में क्षोभ खीझ!

    (फ़रवरी’४०)

    11. वह बुड्ढा

    खड़ा द्वार पर, लाठी टेके,
    वह जीवन का बूढ़ा पंजर,
    चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी
    हिलते हड्डी के ढाँचे पर।
    उभरी ढीली नसें जाल सी
    सूखी ठठरी से हैं लिपटीं,
    पतझर में ठूँठे तरु से ज्यों
    सूनी अमरबेल हो चिपटी।

    उसका लंबा डील डौल है,
    हट्टी कट्टी काठी चौड़ी,
    इस खँडहर में बिजली सी
    उन्मत्त जवानी होगी दौड़ी!
    बैठी छाती की हड्डी अब,
    झुकी रीढ़ कमटा सी टेढ़ी,
    पिचका पेट, गढ़े कंधों पर,
    फटी बिबाई से हैं एड़ी।

    बैठे, टेक धरती पर माथा,
    वह सलाम करता है झुककर,
    उस धरती से पाँव उठा लेने को
    जी करता है क्षण भर!
    घुटनों से मुड़ उसकी लंबी
    टाँगें जाँघें सटी परस्पर,
    झुका बीच में शीश, झुर्रियों का
    झाँझर मुख निकला बाहर।

    हाथ जोड़, चौड़े पंजों की
    गुँथी अँगुलियों को कर सन्मुख,
    मौन त्रस्त चितवन से,
    कातर वाणी से वह कहता निज दुख।
    गर्मी के दिन, धरे उपरनी सिर पर,
    लुंगी से ढाँपे तन,-
    नंगी देह भरी बालों से,-
    वन मानुस सा लगता वह जन।

    भूखा है: पैसे पा, कुछ गुनमुना,
    खड़ा हो, जाता वह घर,
    पिछले पैरों के बल उठ
    जैसे कोई चल रहा जानवर!
    काली नारकीय छाया निज
    छोड़ गया वह मेरे भीतर,
    पैशाचिक सा कुछ: दुःखों से
    मनुज गया शायद उसमें मर!

    (जनवरी’४०)

    12. धोबियों का नृत्य

    लो, छन छन, छन छन,
    छन छन, छन छन,
    नाच गुजरिया हरती मन!

    उसके पैरों में घुँघरू कल,
    नट की कटि में घंटियाँ तरल,
    वह फिरकी सी फिरती चंचल,
    नट की कटि खाती सौ सौ बल,

    लो, छन छन, छन छन,
    छन छन, छन छन,
    ठुमुक गुजरिया हरती मन!

    उड़ रहा ढोल धाधिन, धातिन,
    औ’ हुड़ुक घुड़ुकता ढिम ढिम ढिन,
    मंजीर खनकते खिन खिन खिन,
    मद मस्त रजक, होली का दिन,

    लो, छन छन, छन छन,
    छन छन, छन छन,
    थिरक गुजरिया हरती मन!

    वह काम शिखा सी रही सिहर,
    नट की कटि में लालसा भँवर,
    कँप कँप नितंब उसके थर थर
    भर रहे घंटियों में रति स्वर,

    लो, छन छन, छन छन,
    छन छन, छन छन,
    मत्त गुजरिया हरती मन!

    फहराता लँहगा लहर लहर,
    उड़ रही ओढ़नी फर फर फर,
    चोली के कंदुक रहे उघर,
    (स्त्री नहीं गुजरिया, वह है नर!)

    लो, छन छन, छन छन,
    छन छन, छन छन,
    हुलस गुजरिया हरती मन!

    उर की अतृप्त वासना उभर
    इस ढोल मँजीरे के स्वर पर
    नाचती, गान के फैला पर,
    प्रिय जन गण को उत्सव अवसर,—

    लो, छन छन, छन छन,
    छन छन, छन छन,
    चतुर गुजरिया हरती मन!

    (जनवरी’ ४०)

    13. ग्राम वधू

    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    मा से मिल, गोदी पर सिर धर,
    गा गा बिटिया रोती जी भर,
    जन जन का मन करुणा कातर,
    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    भीड़ लग गई लो, स्टेशन पर,
    सुन यात्री ऊँचा रोदन स्वर
    झाँक रहे खिड़की से बाहर,
    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    चिन्तातुर सब, कौन गया मर,
    पहियों से दब, कट पटरी पर,
    पुलिस कर रही कहीं पकड़-धर?
    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    मिलती ताई से गा रोकर,
    मौसी से वह आपा खोकर,
    बारी बारी रो, चुप होकर,
    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    बिदा फुआ से ले हाहाकर,
    सखियों से रो धो बतिया कर,
    पड़ोसिनों पर टूट, रँभा कर,
    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    मा कहती,-रखना सँभाल घर,
    मौसी,-धनि, लाना गोदी भर,
    सखियाँ,-जाना हमें मत बिसर,
    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    नहीं आसुँओं से आँचल तर,
    जन बिछोह से हृदय न कातर,
    रोती वह, रोने का अवसर,
    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    लो, अब गाड़ी चल दी भर भर,
    बतलाती धनि पति से हँस कर,
    सुस्थिर डिब्बे के नारी नर,
    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    रोना गाना यहाँ चलन भर,
    आता उसमें उभर न अंतर,
    रूढ़ि यंत्र जन जीवन परिकर,
    जाती ग्राम वधू पति के घर!

    (जनवरी’ ४०)

    14. ग्राम श्री

    फैली खेतों में दूर तलक
    मख़मल की कोमल हरियाली,
    लिपटीं जिस से रवि की किरणें
    चाँदी की-सी उजली जाली !

    रोमाँचित-सी लगती वसुधा
    आयी जौ-गेहूँ में बाली
    अरहर सनई की सोने की
    किंकिणियाँ हैं शोभाशाली
    उड़ती भीनी तैलाक्त गन्ध
    फूली सरसों पीली-पीली,
    लो, हरित धरा से झाँक रही
    नीलम की कलि, तीसी नीली,
    रँग-रँग के फूलों में रिलमिल
    हँस रही संखिया मटर खड़ी,
    मख़मली पेटियों-सी लटकी
    छीमियाँ, छिपाये बीज लड़ी !

    अब रजत-स्वर्ण मंजरियों से
    लद गयी आम्र-तरु की डाली,
    झर रहे ढाँक, पीपल के दल,
    हो उठी कोकिला मतवाली !
    महके कटहल, मुकुलित जामुन,
    जंगल में झरबेरी झूली,
    फूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,
    आलू, गोभी, बैगन, मूली !

    पीले मीठे अमरूदों में
    अब लाल-लाल चित्तियाँ पड़ीं
    पक गये सुनहले मधुर बेर,
    अँवली से तरु की डाल जड़ीं !
    लहलह पालक,महमह धनिया,
    लौकी औ’ सेम फली,फैलीं !
    मख़मली टमाटर हुए लाल,
    मिरचों की बड़ी हरी थैली !
    गंजी को मार गया पाला,
    अरहर के फूलों को झुलसा,
    हाँका करती दिन-भर बन्दर
    अब मालिन की लड़की तुलसा !
    बालाएँ गजरा काट-काट,
    कुछ कह गुपचुप हँसतीं किन-किन
    चाँदी की-सी घण्टियाँ तरल
    बजती रहती रह-रह खिन-खिन!

    बगिया के छोटे पेड़ों पर
    सुन्दर लगते छोटे छाजन,
    सुन्दर गेहूँ, की बालों पर
    मोती के दानों से हिमकन !
    प्रात: ओझल हो जाता जग,
    भू पर आता ज्यों उतर गगन,
    सुन्दर लगते फिर कुहरे से
    उठते-से खेत, बाग़, गॄह वन !

    लटके तरुओं पर विहग नीड़
    वनचर लड़कों को हुए ज्ञात,
    रेखा-छवि विरल टहनियों की
    ठूँठे तरुओं के नग्न गात !
    आँगन में दौड़ रहे पत्ते,
    धूमती भँवर-सी शिशिर-वात,
    बदली छँटने पर लगती प्रिय
    ऋतुमती धरित्री सद्य-स्नात !

    हँसमुख हरियाली हिम-आतप
    सुख से अलसाए-से सोये,
    भीगी अँधियाली में निशि की
    तारक स्वप्नों में-से-खोये,-
    मरकत डिब्बे-सा खुला ग्राम-
    जिस पर नीलम नभ-आच्छादन-
    निरुपम हिमान्त में स्निग्ध-शान्त
    निज शोभा से हरता न-मनज !

    15. नहान

    जन पर्व मकर संक्रांति आज
    उमड़ा नहान को जन समाज
    गंगा तट पर सब छोड़ काज।

    नारी नर कई कोस पैदल
    आरहे चले लो, दल के दल,
    गंगा दर्शन को पुण्योज्वल!
    लड़के, बच्चे, बूढ़े, जवान,
    रोगी, भोगी, छोटे, महान,
    क्षेत्रपति, महाजन औ’ किसान।

    दादा, नानी, चाचा, ताई,
    मौसा, फूफी, मामा, माई,
    मिल ससुर, बहू, भावज, भाई।

    गा रहीं स्त्रियाँ मंगल कीर्तन,
    भर रहे तान नव युवक मगन,
    हँसते, बतलाते बालक गण।

    अतलस, सिंगी, केला औ’ सन
    गोटे गोखुरू टँगे,-स्त्री जन
    पहनीं, छींटें, फुलवर, साटन।

    बहु काले, लाल, हरे, नीले,
    बैगनीं, गुलाबी, पट पीले,
    रँग रँग के हलके, चटकीले।

    सिर पर है चँदवा शीशफूल,
    कानों में झुमके रहे झूल,
    बिरिया, गलचुमनी, कर्णफूल।

    माँथे के टीके पर जन मन,
    नासा में नथिया, फुलिया, कन,
    बेसर, बुलाक, झुलनी, लटकन।

    गल में कटवा, कंठा, हँसली,
    उर में हुमेल, कल चंपकली।
    जुगनी, चौकी, मूँगे नक़ली।

    बाँहों में बहु बहुँटे, जोशन,
    बाजूबँद, पट्टी, बाँक सुषम,
    गहने ही गँवारिनों के धन!

    कँगने, पहुँची, मृदु पहुँचों पर
    पिछला, मँझुवा, अगला क्रमतर,
    चूड़ियाँ, फूल की मठियाँ वर।

    हथफूल पीठ पर कर के धर,
    उँगलियाँ मुँदरियों से सब भर,
    आरसी अँगूठे में देकर—

    वे कटि में चल करधनी पहन,
    पाँवों में पायज़ेब, झाँझन,
    बहु छड़े, कड़े, बिछिया शोभन,-

    यों सोने चाँदी से झंकृत,
    जातीं वे पीतल गिलट खचित,
    बहु भाँति गोदना से चित्रित।

    ये शत, सहस्र नर नारी जन
    लगते प्रहृष्ट सब, मुक्त, प्रमन,
    हैं आज न नित्य कर्म बंधन!

    विश्वास मूढ़, निःसंशय मन,
    करने आये ये पुण्यार्जन,
    युग युग से मार्ग भ्रष्ट जनगण।

    इनमें विश्वास अगाध, अटल,
    इनको चाहिए प्रकाश नवल,
    भर सके नया जो इनमें बल!

    ये छोटी बस्ती में कुछ क्षण
    भर गये आज जीवन स्पंदन,—
    प्रिय लगता जनगण सम्मेलन।

    (फ़रवरी’ ४०)

    16. गंगा

    अब आधा जल निश्चल, पीला,
    आधा जल चंचल औ’, नीला-
    गीले तन पर मृदु संध्यातप
    सिमटा रेशम पट-सा ढीला!

    ऐसे सोने के साँझ प्रात,
    ऐसे चाँदी के दिवस रात,
    ले जाती बहा कहाँ गंगा
    जीवन के युग-क्षण-किसे ज्ञात!

    विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,
    किरणोज्ज्वल चल कल उर्मि निरत,
    यमुना गोमती आदि से मिल
    होती यह सागर में परिणत।
    यह भौगोलिक गंगा परिचित,
    जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,
    इस जड़ गंगा से मिली हुई
    जन गंगा एक और जीवित!

    वह विष्णुपदी, शिवमौलि स्रुता,
    वह भीष्म प्रसू औ’ जह्न सुता,
    वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,
    वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता।

    वह गंगा, यह केवल छाया,
    वह लोक चेतना, यह माया,
    वह आत्मवाहिनी ज्योति सरी,
    यह भू पतिता, कंचुक काया।

    वह गंगा जन मन से नि:सृत,
    जिसमें बहु बुदबुद युग निर्तित,
    वह आज तरंगित संसृति के
    मृत सैकत को करने प्लावित।

    दिशि दिशि का जन मन वाहित कर,
    वह बनी अकूल अतल सागर,
    भर देगी दिशि पल पुलिनों में
    वह नव नव जीवन की मृदु उर्वर!

    अब नभ पर रेखा शशि शोभित
    गंगा का जल श्यामल कंपित,
    लहरों पर चाँदी की किरणें
    करती प्रकाशमय कुछ अंकित!

    17. चमारों का नाच

    अररर…….
    मचा खूब हुल्लड़ हुड़दंग,
    धमक धमाधम रहा मृदंग,
    उछल कूद, बकवाद, झड़प में
    खेल रही खुल हृदय उमंग
    यह चमार चौदस का ढंग।

    ठनक कसावर रहा ठनाठन,
    थिरक चमारिन रही छनाछन,
    झूम झूम बाँसुरी करिंगा
    बजा रहा बेसुध सब हरिजन,
    गीत नृत्य के सँग है प्रहसन!

    मजलिस का मसख़रा करिंगा
    बना हुआ है रंग बिरंगा,
    भरे चिरकुटों से वह सारी
    देह हँसाता खूब लफंगा,
    स्वाँग युद्ध का रच बेढंगा!

    बँधा चाम का तवा पीठ पर,
    पहुँचे पर बद्धी का हंटर,
    लिये हाथ में ढ़ाल, टेड़ही
    दुमुहा सी बलखाई सुन्दर—
    इतराता वह बन मुरलीधर!

    ज़मीदार पर फबती कसता,
    बाम्हन ठाकुर पर है हँसता,
    बालों में वक्रोक्ति काकु औ’
    श्लेश बोल जाता वह सस्ता,
    कल काँटा को कह कलकत्ता।

    घमासान हो रहा है समर,
    उसे बुलाने आये अफ़सर,
    गोला फट कर आँख उड़ा दे,
    छिपा हुआ वह, उसे यही डर,
    खौफ़ न मरने का रत्ती भर।

    काका, उसका है साथी नट,
    गदके उस पर जमा पटापट,
    उसे टोकता,—गोली खाकर
    आँख जायगी, क्यों बे नटखट?
    भुन न जायगा भुनगे सा झट?’

    गोली खाई ही हैं!’ ’चल हट!’
    ’कई—भाँग की!’ वाः, मेरे भट!’
    ’सच काका!’ भगवान राम
    सीसे की गोली!’ ’रामधे?’ ’विकट!’
    गदका उस पर पड़ता चटपट।

    वह भी फ़ौरन बद्धी कसकर
    काका को देता प्रत्युतर,
    खेत रह गए जब सब रण में
    तब वह निधड़क, गुस्से में भर,
    लड़ने को निकला था बाहर!

    लट्टू उसके गुन पर हरिजन,
    छेड़ रहा वंशी फिर मोहन,
    तिरछी चितवन से जन मन हर
    इठला रही चमारिन छन छन,
    ठनक कसावर बजता ठन ठन!

    ये समाज के नीच अधम जन,
    नाच कूद कर बहलाते मन,
    वर्णों के पद दलित चरण ये
    मिटा रहे निज कसक औ’ कुढ़न
    कर उच्छृंखलता, उद्धतपन।

    अररर……….
    शोर, हँसी, हुल्लड़, हुड़दंग,
    धमक रहा धाग्ड़ांग मृदंग,
    मार पीट बकवास झड़प में
    रंग दिखाती महुआ, भंग
    यह चमार चौदस का ढंग!

    (जनवरी’ ४०)

    18. कहारों का रुद्र नृत्य

    रंग रंग के चीरों से भर अंग, चीरवासा-से,
    दैन्य शून्य में अप्रतिहत जीवन की अभिलाषा-से,
    जटा घटा सिर पर, यौवन की श्मश्रु छटा आनन पर,
    छोटी बड़ी तूँबियाँ, रँग रँग की गुरियाँ सज तन पर,
    हुलस नृत्य करते तुम, अटपट धर पटु पद, उच्छृंखल
    आकांक्षा से समुच्छ्वसित जन मन का हिला धरातल!

    फड़क रहे अवयव, आवेश विवश मुद्राएँ अंकित;
    प्रखर लालसा की ज्वालाओं सी अंगुलियाँ कंपित;
    ऊष्ण देश के तुम प्रगाढ़ जीवनोल्लास-से निर्भर,
    बर्हभार उद्दाम कामना के से खुले मनोहर!
    एक हाथ में ताम्र डमरु धर, एक शिवा की कटि पर,
    नृत्य तरंगित रुद्ध पूर-से तुम जन मन के सुखकर!

    वाद्यों के उन्मत्त घोष से, गायन स्वर से कंपित
    जन इच्छा का गाढ़ चित्र कर हृदय पटल पर अंकित,
    खोल गए संसार नया तुम मेरे मन में, क्षण भर
    जन संस्कृति का तिग्म स्फीत सौन्दर्य स्वप्न दिखला कर!
    युग युग के सत्याभासों से पीड़ित मेरा अन्तर
    जन मानव गौरव पर विस्मित: मैं भावी चिन्तनपर!

    (फ़रवरी’ ४०)

    19. भारतमाता

    भारत माता
    ग्रामवासिनी।
    खेतों में फैला है श्यामल
    धूल भरा मैला सा आँचल,
    गंगा यमुना में आँसू जल,
    मिट्टी कि प्रतिमा
    उदासिनी।

    दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
    अधरों में चिर नीरव रोदन,
    युग युग के तम से विषण्ण मन,
    वह अपने घर में
    प्रवासिनी।

    तीस कोटि संतान नग्न तन,
    अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन,
    मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
    नत मस्तक
    तरु तल निवासिनी!

    स्वर्ण शस्य पर -पदतल लुंठित,
    धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
    क्रन्दन कंपित अधर मौन स्मित,
    राहु ग्रसित
    शरदेन्दु हासिनी।

    चिन्तित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
    नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
    आनन श्री छाया-शशि उपमित,
    ज्ञान मूढ़
    गीता प्रकाशिनी!

    सफल आज उसका तप संयम,
    पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
    हरती जन मन भय, भव तम भ्रम,
    जग जननी
    जीवन विकासिनी।

    (जनवरी’ ४०)

    20. चरख़ा गीत

    भ्रम, भ्रम, भ्रम,-
    घूम घूम भ्रम भ्रम रे चरख़ा
    कहता: ’मैं जन का परम सखा,
    जीवन का सीधा सा नुसख़ा—
    श्रम, श्रम, श्रम!’

    कहता: ’हे अगणित दरिद्रगण!
    जिनके पास न अन्न, धन, वसन,
    मैं जीवन उन्नति का साधन-
    क्रम, क्रम, क्रम!’

    भ्रम, भ्रम, भ्रम,-
    ’धुन रुई, निर्धनता दो धुन,
    कात सूत, जीवन पट लो बुन;
    अकर्मण्य, सिर मत धुन, मत धुन,
    थम, थम, थम!’

    ’नग्न गात यदि भारत मा का,
    तो खादी समृद्धि की राका,
    हरो देश की दरिद्रता का
    तम, तम, तम!’

    भ्रम, भ्रम, भ्रम,-
    कहता चरख़ा प्रजातंत्र से;
    ’मैं कामद हूँ सभी मंत्र से’;
    कहता हँस आधुनिक यंत्र से,
    ’नम, नम, नम!’

    ’सेवक पालक शोषित जन का,
    रक्षक मैं स्वदेश के धन का,
    कातो हे, काटो तन मन का
    भ्रम, भ्रम, भ्रम,-

    (दिसंबर’ ३९)

    21. महात्मा जी के प्रति

    निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीप शिखोदय!-
    जिनकी ज्योति छटा के क्षण से प्लावित आज दिगंचल,-
    गत आदर्शों का अभिभव ही मानव आत्मा की जय,
    अत: पराजय आज तुम्हारी जय से चिर लोकोज्वल!

    मानव आत्मा के प्रतीक! आदर्शों से तुम ऊपर,
    निज उद्देश्यों से महान, निज यश से विशद, चिरंतन;
    सिद्ध नहीं, तुम लोक सिद्धि के साधक बने महत्तर,
    विजित आज तुम नर वरेण्य, गणजन विजयी साधारण!

    युग युग की संस्कृतियों का चुन तुमने सार सनातन
    नव संस्कृति का शिलान्यास करना चाहा भव शुभकर,
    साम्राज्यों ने ठुकरा दिया युगों का वैभव पाहन-
    पदाघात से मोह मुक्त हो गया आज जन अन्तर!

    दलित देश के दुर्दम नेता, हे ध्रुव, धीर, धुरंधर,
    आत्म शक्ति से दिया जाति शव को तुमने जीवन बल;
    विश्व सभ्यता का होना था नखशिख नव रूपांतर,
    राम राज्य का स्वप्न तुम्हारा हुआ न यों ही निष्फल!

    विकसित व्यक्तिवाद के मूल्यों का विनाश था निश्चय,
    वृद्ध विश्व सामंत काल का था केवल जड़ खँडहर!
    हे भारत के हृदय! तुम्हारे साथ आज नि:संशय
    चूर्ण हो गया विगत सांस्कृतिक हृदय जगत का जर्जर!

    गत संस्कृतियों का आदर्शों का था नियत पराभव,
    वर्ग व्यक्ति की आत्मा पर थे सौध धाम, जिनके स्थित;
    तोड़ युगों के स्वर्ण पाश अब मुक्त हो रहा मानव,
    जन मानवता की भव संस्कृति आज हो रही निर्मित!

    किए प्रयोग नीति सत्यों के तुमने जन जीवन पर,
    भावादर्श न सिद्ध कर सके सामूहिक-जीवन-हित;
    अधोमूल अश्वत्थ विश्व, शाखाएँ संस्कृतियाँ वर,
    वस्तु विभव पर ही जनगण का भाव विभव अवलंबित!

    वस्तु सत्य का करते भी तुम जग में यदि आवाहन,
    सब से पहले विमुख तुम्हारे होता निर्धन भारत;
    मध्य युगों की नैतिकता में पोषित शोषित-जनगण
    बिना भाव-स्वप्नों को परखे कब हो सकते जाग्रत?

    सफल तुम्हारा सत्यान्वेषण, मानव सत्यान्वेषक!
    धर्म, नीति के मान अचिर सब, अचिर शास्त्र, दर्शन मत,
    शासन जन गण तंत्र अचिर-युग स्थितियाँ जिनकी प्रेषक,
    मानव गुण, भव रूप नाम होते परिवर्तित युगपत!

    पूर्ण पुरुष, विकसित मानव तुम, जीवन सिद्ध अहिंसक,
    मुक्त-हुए-तुम-मुक्त-हुए-जन, हे जग वंद्य महात्मन्!
    देख रहे मानव भविष्य तुम मनश्चक्षु बन अपलक,
    धन्य, तुम्हारे श्री चरणों से धरा आज चिर पावन!

    (दिसंबर’ ३९)

    22. राष्ट्र गान

    जन भारत हे!
    भारत हे!

    स्वर्ग स्तंभवत् गौरव मस्तक
    उन्नत हिमवत् हे,
    जन भारत हे,
    जाग्रत् भारत हे!

    गगन चुंबि विजयी तिरंग ध्वज
    इंद्रचापमत् हे,
    कोटि कोटि हम श्रम जीवी सुत
    संभ्रम युत नत हे,
    सर्व एक मत, एक ध्येय रत,
    सर्व श्रेय व्रत हे,
    जन भारत हे,
    जाग्रत् भारत हे!

    समुच्चरित शत शत कंठो से
    जन युग स्वागत हे,
    सिन्धु तरंगित, मलय श्वसित,
    गंगाजल ऊर्मि निरत हे,
    शरद इंदु स्मित अभिनंदन हित,
    प्रतिध्वनित पर्वत हे,
    स्वागत हे, स्वागत हे,
    जन भारत हे,
    जाग्रत् भारत हे!

    स्वर्ग खंड षड ऋतु परिक्रमित,
    आम्र मंजरित, मधुप गुंजरित,
    कुसुमित फल द्रुम पिक कल कूजित
    उर्वर, अभिमत हे,
    दश दिशि हरित शस्य श्री हर्षित
    पुलक राशिवत् हे,
    जन भारत हे,
    जाग्रत् भारत हे!

    जाति धर्म मत, वर्ग श्रेणि शत,
    नीति रीति गत हे
    मानवता में सकल समागत
    जन मन परिणत हे,
    अहिंसास्त्र जन का मनुजोचित
    चिर अप्रतिहत हे,
    बल के विमुख, सत्य के सन्मुख
    हम श्रद्धानत हे,
    जन भारत हे,
    जाग्रत् भारत हे!

    किरण केलि रत रक्त विजय ध्वज
    युग प्रभातमत् हे,
    कीर्ति स्तंभवत् उन्नत मस्तक
    प्रहरी हिमवत् हे,
    पद तल छू शत फेनिलोर्मि फन
    शेषोदधि नत हे,
    वर्ग मुक्त हम श्रमिक कृषिक जन
    चिर शरणागत हे,
    जन भारत हे,
    जाग्रत् भारत हे!

    (जनवरी’ ४०)

    23. ग्राम देवता

    राम राम,
    हे ग्राम देवता, भूति ग्राम !
    तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्णकाम,
    शिर पर शोभित वर छत्र तड़ित स्मित घन श्याम,
    वन पवन मर्मरित-व्यजन, अन्न फल श्री ललाम।

    तुम कोटि बाहु, वर हलधर, वृष वाहन बलिष्ठ,
    मित असन, निर्वसन, क्षीणोदर, चिर सौम्य शिष्ट;
    शिर स्वर्ण शस्य मंजरी मुकुट, गणपति वरिष्ठ,
    वाग्युद्ध वीर, क्षण क्रुद्ध धीर, नित कर्म निष्ठ।

    पिक वयनी मधुऋतु से प्रति वत्सर अभिनंदित,
    नव आम्र मंजरी मलय तुम्हें करता अर्पित।
    प्रावृट्‍ में तव प्रांगण घन गर्जन से हर्षित,
    मरकत कल्पित नव हरित प्ररोहों में पुलकित!

    शशि मुखी शरद करती परिक्रमा कुंद स्मित,
    वेणी में खोंसे काँस, कान में कुँई लसित।
    हिम तुमको करता तुहिन मोतियों से भूषित,
    बहु सोन कोक युग्मों से तव सरि-सर कूजित।
    अभिराम तुम्हारा बाह्य रूप, मोहित कवि मन,
    नभ के नीलम संपुट में तुम मरकत शोभन!
    पर, खोल आज निज अंतःपुर के पट गोपन
    चिर मोह मुक्त कर दिया, देव! तुमने यह जन!

    राम राम,
    हे ग्राम देवता, रूढ़ि धाम!
    तुम स्थिर, परिवर्तन रहित, कल्पवत्‌ एक याम,
    जीवन संघर्षण विरत, प्रगति पथ के विराम,
    शिक्षक तुम, दस वर्षों से मैं सेवक, प्रणाम।
    कवि अल्प, उडुप मति, भव तितीर्षु,-दुस्तर अपार,
    कल्पना पुत्र मैं, भावी द्रष्टा, निराधार,
    सौन्दर्य स्वप्नचर,- नीति दंडधर तुम उदार,
    चिर परम्परा के रक्षक, जन हित मुक्त द्वार।

    दिखलाया तुमने भारतीयता का स्वरूप,
    जन मर्यादा का स्रोत शून्य चिर अंध कूप,
    जग से अबोध, जानता न था मैं छाँह धूप,
    तुम युग युग के जन विश्वासों के जीर्ण स्तूप!

    यह वही अवध! तुलसी की संस्कृति का निवास!
    श्री राम यहीं करते जन मानस में विलास!
    अह, सतयुग के खँडहर का यह दयनीय ह्रास!
    वह अकथनीय मानसिक दैन्य का बना ग्रास!!

    ये श्रीमानों के भवन आज साकेत धाम!
    संयम तप के आदर्श बन गए भोग काम!
    आराधित सत्व यहाँ, पूजित धन, वंश, नाम!
    यह विकसित व्यक्तिवाद की संस्कृति! राम राम!!

    श्री राम रहे सामंत काल के ध्रुव प्रकाश,
    पशुजीवी युग में नव कृषि संस्कृति के विकास;
    कर सके नहीं वे मध्य युगों का तम विनाश,
    जन रहे सनातनता के तब से क्रीत दास!

    पशु-युग में थे गणदेवों के पूजित पशुपति,
    थी रुद्रचरों से कुंठित कृषि युग की उन्नति ।
    श्री राम रुद्र की शिव में कर जन हित परिणति,
    जीवित कर गए अहल्या को, थे सीतापति!

    वाल्मीकि बाद आए श्री व्यास जगत वंदित,
    वह कृषि संस्कृति का चरमोन्नत युग था निश्चित;
    बन गए राम तब कृष्ण, भेद मात्रा का मित,
    वैभव युग की वंशी से कर जन मन मोहित।

    तब से युग युग के हुए चित्रपट परिवर्तित,
    तुलसी ने कृषि मन युग अनुरूप किया निर्मित।
    खोगया सत्य का रूप, रह गया नामामृत,
    जन समाचरित वह सगुण बन गया आराधित!

    गत सक्रिय गुण बन रूढ़ि रीति के जाल गहन
    कृषि प्रमुख देश के लिए होगए जड़ बंधन।
    जन नही, यंत्र जीवनोपाय के अब वाहन,
    संस्कृति के केन्द्र न वर्ग अधिप, जन साधारण!

    उच्छिष्ट युगों का आज सनातनवत्‌ प्रचलित,
    बन गईं चिरंतन रीति नीतियाँ, – स्थितियाँ मृत।
    गत संस्कृतियाँ थी विकसित वर्ग व्यक्ति आश्रित,
    तब वर्ग व्यक्ति गुण, जन समूह गुण अब विकसित।

    अति-मानवीय था निश्चित विकसित व्यक्तिवाद,
    मनुजों में जिसने भरा देव पशु का प्रमाद।
    जन जीवन बना न विशद, रहा वह निराह्लाद,
    विकसित नर नर-अपवाद नही, जन-गुण-विवाद।

    तब था न वाष्प, विद्युत का जग में हुआ उदय,
    ये मनुज यंत्र, युग पुरुष सहस्र हस्त बलमय।
    अब यंत्र मनुज के कर पद बल, सेवक समुदय,
    सामंत मान अब व्यर्थ,- समृद्ध विश्व अतिशय।

    अब मनुष्यता को नैतिकता पर पानी जय,
    गत वर्ग गुणों को जन संस्कृति में होना लय;
    देशों राष्ट्रों को मानव जग बनना निश्चय,
    अंतर जग को फिर लेना वहिर्जगत आश्रय।

    राम राम,
    हे ग्राम्य देवता, यथा नाम ।
    शिक्षक हो तुम, मै शिष्य, तुम्हें सविनय प्रणाम।
    विजया, महुआ, ताड़ी, गाँजा पी सुबह शाम
    तुम समाधिस्थ नित रहो, तुम्हें जग से न काम!

    पंडित, पंडे, ओझा, मुखिया औ’ साधु, संत
    दिखलाते रहते तुम्हें स्वर्ग अपवर्ग पंथ।
    जो था, जो है, जो होगा,-सब लिख गए ग्रंथ,
    विज्ञान ज्ञान से बड़े तुम्हारे मंत्र तंत्र।

    युग युग से जनगण, देव! तुम्हारे पराधीन,
    दारिद्र्य दुःख के कर्दम में कृमि सदृश लीन!
    बहु रोग शोक पीड़ित, विद्या बल बुद्धि हीन,
    तुम राम राज्य के स्वप्न देखते उदासीन!

    जन अमानुषी आदर्शो के तम से कवलित,
    माया उनको जग, मिथ्या जीवन, देह अनित;
    वे चिर निवृत्ति के भोगी,-त्याग विराग विहित,
    निज आचरणों में नरक जीवियों तुल्य पतित!

    वे देव भाव के प्रेमी,-पशुओं से कुत्सित,
    नैतिकता के पोषक,- मनुष्यता से वंचित,
    बहु नारी सेवी,- – पतिव्रता ध्येयी निज हित,
    वैधव्य विधायक,- बहु विवाह वादी निश्चित।

    सामाजिक जीवन के अयोग्य, ममता प्रधान,
    संघर्षण विमुख, अटल उनको विधि का विधान।
    जग से अलिप्त वे, पुनर्जन्म का उन्हें ध्यान,
    मानव स्वभाव के द्रोही, श्वानों के समान।

    राम राम,
    हे ग्राम देव, लो हृदय थाम,
    अब जन स्वातंत्र्य युद्ध की जग में धूम धाम।
    उद्यत जनगण युग क्रांति के लिए बाँध लाम,
    तुम रूढ़ि रीति की खा अफ़ीम, लो चिर विराम!

    यह जन स्वातंत्र्य नही, जनैक्य का वाहक रण,
    यह अर्थ राजनीतिक न, सांस्कृति संघर्षण।
    युग युग की खंड मनुजता, दिशि दिशि के जनगण
    मानवता में मिल रहे,- ऐतिहासिक यह क्षण!

    नव मानवता में जाति वर्ग होंगे सब क्षय,
    राष्ट्रों के युग वृत्तांश परिधि मे जग की लय।
    जन आज अहिंसक, होंगे कल स्नेही, सहृदय,
    हिन्दु, ईसाई, मुसलमान,-मानव निश्चय।

    मानवता अब तक देश काल के थी आश्रित,
    संस्कृतियाँ सकल परिस्थितियों से थीं पीड़ित।
    गत देश काल मानव के बल से आज विजित,
    अब खर्व विगत नैतिकता, मनुष्यता विकसित।

    छायाएँ हैं संस्कृतियाँ, मानव की निश्चित,
    वह केन्द्र, परिस्थितियों के गुण उसमें बिम्बित।
    मानवी चेतना खोल युगों के गुण कवलित
    अब नव संस्कृति के वसनों से होगी भूषित।

    विश्वास धर्म, संस्कृतियाँ, नीति रीतियाँ गत
    जन संघर्षण में होगी ध्वंस, लीन, परिणत।
    बंधन विमुक्त हो मानव आत्मा अप्रतिहत
    नव मानवता का सद्य करेगी युग स्वागत।

    राम राम,
    हे ग्राम देवता, रूढ़िधाम!
    तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्ण काम,
    जड़वत्, परिवर्तन शून्य, कल्प शत एक याम,
    शिक्षक हो तुम, मैं शिष्य, तुम्हें शत शत प्रणाम।

    (जनवरी’ ४०)

    24. संध्या के बाद

    सिमटा पंख साँझ की लाली
    जा बैठी अब तरु शिखरों पर,
    ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
    झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर।
    ज्योति स्तंभ सा धँस सरिता में
    सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
    बृहद्‌ जिह्म विश्लथ कैंचुल सा
    लगता चितकबरा गंगाजल।

    धूपछाँह के रँग की रेती
    अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित,
    नील लहरियों में लोड़ित
    पीला जल रजत जलद से बिम्बित।
    सिकता, सलिल, समीर सदा से
    स्नेह पाश में बँधे समुज्वल,
    अनिल पिघल कर सलिल,
    सलिल ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल!

    शंख घंट बजते मंदिर में,
    लहरों में होता लय-कंपन,
    दीप शिखा सा ज्वलित कलश
    नभ में उठकर करता नीरांजन।
    तट पर बगुलों सी वृद्धाएँ,
    विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
    मंथर धारा में बहता
    जिनका अदृश्य गति अंतर रोदन।

    दूर, तमस रेखाओं सी,
    उड़ते पंखों की गति सी चित्रित
    सोन खगों की पाँति
    आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित।
    स्वर्ण चूर्ण सी उड़ती गोरज
    किरणों की बादल सी जल कर,
    सनन् तीर सा जाता नभ में
    ज्योतित पंखों कंठो का स्वर।

    लौटे खग, गाएँ घर लौटीं,
    लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर,
    छिपे गृहों में म्लान चराचर,
    छाया भी हो गई अगोचर।
    लौट पैंठ से व्यापारी भी
    जाते घर, उस पार नाव पर,
    ऊँटों, घोड़ों के सँग बैठे
    ख़ाली बोरों पर, हुक्क़ा भर।

    जाड़ों की सूनी द्वाभा में
    झूल रही निशि छाया गहरी,
    डूब रहे निष्प्रभ विषाद में
    खेत, बाग़, गृह, तरु, तट, लहरी।
    बिरहा गाते गाड़ी वाले,
    भूँक भूँक कर लड़ते कूकर,
    हुआ हुआ करते सियार
    देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!

    माली की मँड़ई से उठ,
    नभ-के-नीचे-नभ-सी धूमाली
    मंद पवन में तिरती
    नीली रेशम की सी हलकी जाली।
    बत्ती जला दुकानों में
    बैठे सब क़स्बे के व्यापारी,
    मौन मंद आभा में
    हिम की ऊँघ रही लंबी अँधियारी।

    धुँआ अधिक देती है
    टिन की ढिबरी, कम करती उजियाला,
    मन से कढ़ अवसाद श्रांति
    आँखों के आगे बुनती जाला।
    छोटी सी बस्ती के भीतर
    लेन देन के थोथे सपने
    दीपक के मंडल में मिलकर
    मँडराते घिर सुख दुख अपने।

    कँप कँप उठते लौ के सँग
    कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
    क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
    गोपन मन को दे दी हो भाषा।
    लीन हो गई क्षण में बस्ती,
    मिट्टी खपरे के घर आँगन,
    भूल गए लाला अपनी सुधि,
    भूल गया सब ब्याज, मूलधन!

    सकुची सी परचून किराने की ढेरी
    लग रहीं तुच्छतर,
    इस नीरव प्रदोष में आकुल
    उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
    अनुभव करता लाला का मन
    छोटी हस्ती का सस्तापन,
    जाग उठा उसमें मानव,
    औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न।

    दैन्य दुःख अपमान ग्लानि
    चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
    बिना आय की क्लांति बन रही
    उसके जीवन की परिभाषा।
    जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
    वह दिन भर बैठा गद्दी पर
    बात बात पर झूठ बोलता
    कौड़ी की स्पर्धा में मर मर।

    फिर भी क्या कुटुंब पलता है?
    रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन?
    बना पारहा वह पक्का घर?
    मन में सुख है? जुटता है धन?
    खिसक गई कंधो से कथड़ी,
    ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
    सोच रहा बस्ती का बनिया
    घोर विवशता का निज कारण!

    शहरी बनियों सा वह भी उठ
    क्यों बन जाता नहीं महाजन?
    रोक दिए हैं किसने उसकी
    जीवन उन्नति के सब साधन?
    यह क्या संभव नहीं,
    व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
    कर्म और गुण के समान ही
    सकल आय व्यय का हो वितरण?

    घुसे घरौंदों में मिट्टी के
    अपनी अपनी सोच रहे जन,
    क्या ऐसा कुछ नहीं,
    फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
    मिलकर जन निर्माण करें जग,
    मिलकर भोग करें जीवन का,
    जन विमुक्त हों जन शोषण से,
    हो समाज अधिकारी धन का?

    दरिद्रता पापों की जननी,
    मिटें जनों के पाप, ताप, भय,
    सुंदर हों अधिवास, वसन, तन,
    पशु पर फिर मानव की हो जय?
    व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
    दोषी जन के दुःख क्लेश की,
    जन का श्रम जन में बँट जाए,
    प्रजा सुखी हो देश देश की!

    टूट गया वह स्वप्न वणिक का,
    आई जब बुढ़िया बेचारी
    आध पाव आटा लेने,-
    लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
    चीख़ उठा घुघ्घू डालों में,
    लोगों ने पट दिए द्वार पर,
    निगल रहा बस्ती को धीरे
    गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!

    (दिसंबर’ ३९)

    25. खिड़की से

    पूस: निशा का प्रथम प्रहर: खिड़की से बाहर
    दूर क्षितिज तक स्तब्ध आम्र वन सोया: क्षण भर
    दिन का भ्रम होता: पूनो ने तृण तरुओं पर
    चाँदी मढ़ दी है, भू को स्वप्नों से जड़कर!
    चारु चंद्रिकातप से पुलकित निखिल धरातल
    चमक रहा है, ज्यों जल में बिम्बित जग उज्वल!

    स्पष्ट दीखते,-खिड़की की जाली में विजड़ित
    कटहल, लीची, आम,-घूक गेंदुर से कंपित;
    फाटक औ हाते के खंभे, बगिया के पथ,
    आधी जगत कुँए की, कुरिया की छाजन श्लथ;
    अस्पताल का भाग, मेहराबें, दरवाज़े,
    स्फटिक सदृश जो चमक रहे चूने से ताज़े।
    औ’,-टेढ़ी मेढ़ी दिगंत रेखा के ऊपर
    पास पास दो पेड़ ताड़ के खड़े मनोहर!

    आधी खिड़की पर अगणित ताराओं से स्मित
    हरित धरा के ऊपर नीलांबर छायांकित।
    कचपचिया (कृत्तिका) सामने शोभित सुंदर
    मोती के गुच्छे सी: भरणी ज्यों त्रिकोण वर!
    पास रोहिणी, प्रिय मिलनातुर, बाँह खोलकर,
    सेंदुर की बेंदी दे, जुड़ुओं को गोदी भर।
    लुब्ध दृष्टि लुब्धक, समीप ही, छोड़ रहा शर
    आदि काल से मृग पर: मृग शिर सहज मनोहर!

    उधर जड़े पुखराज लाल-से गुरु औ मंगल
    साथ साथ, जिनमें अवश्य गुरु सबसे उज्वल!
    हस्ता है प्रत्यक्ष: कठिन वृश्चिक का मिलना,
    वह शायद आर्द्रा, कहता हिमजल सा हिलना।
    ज्योति फेन सी स्वर्गंगा नभ बीच तरंगित,
    परियों की माया सरसी सी छायालोकित;
    ज्वलित पुंज ताराओं के वाष्पों से सस्मित,
    नीलम के नभ में रत्नक प्रभ पुल सी निर्मित।

    खोज रहा हूँ कहाँ उदित सप्तर्षि गगन में
    अरुंधती को लिए साथ, विस्मित-से मन में!
    प्रश्न चिह्न-से जो अनादि से नभ में अंकित,
    उत्तर में स्थिर ध्रुव की ओर किए चिर इंगित,
    पूछ रहे हों संसृति का रहस्य ज्यों अविदित,-
    ‘क्या है वह ध्रुव सत्य? गहन नभ जिससे ज्योतित!’

    ज्योत्सना में विकसित सहस्रदल-भू पर, अंबर
    शोभित ज्यों लावण्य स्वप्न अपलक नयनों पर!
    यह प्रतिदिन का दृश्य नहीं, छल से वातायन
    आज खुल गया अप्सरियों के जग में मोहन!

    चिर परिचित माया बल से बन गए अपरिचित,
    निखिल वास्तविक जगत कल्पना से ज्यों चित्रित!
    आज असुंदरता, कुरूपता भव से ओझल!
    सब कुछ सुंदर ही सुंदर, उज्वल ही उज्वल!

    एक शक्ति से, कहते, जग प्रपंच यह विकसित,
    एक ज्योति कर से समस्त जड़ चेतन निर्मित;
    सच है यह: आलोक पाश में बँधे चराचर
    आज आदि कारण की ओर खींचते अंतर!

    क्षुद्र आत्म-पर भूल, भूत सब हुए समन्वित,
    तृण, तरु से तारालि-सत्य है एक अखंडित!
    मानव ही क्यों इस असीम समता से वंचित?
    ज्योति भीत, युग युग से तमस विमूढ़, विभाजित!!

    (दिसंबर’ ३९)

    26. रेखा चित्र

    चाँदी की चौड़ी रेती,
    फिर स्वर्णिम गंगा धारा,
    जिसके निश्चल उर पर विजड़ित
    रत्न छाय नभ सारा!

    फिर बालू का नासा
    लंबा ग्राह तुंड सा फैला,
    छितरी जल रेखा-
    कछार फिर गया दूर तक मैला!

    जिस पर मछुओं की मँड़ई,
    औ’ तरबूज़ों के ऊपर,
    बीच बीच में, सरपत के मूँठे
    खग-से खोले पर!

    पीछे, चित्रित विटप पाँति
    लहराई सांध्य क्षितिज पर,
    जिससे सट कर
    नील धूम्र रेखा ज्यों खिंची समांतर।

    बर्ह पुच्छ-से जलद पंख
    अंबर में बिखरे सुंदर
    रंग रंग की हलकी गहरी
    छायाएँ छिटका कर।

    सब से ऊपर निर्जन नभ में
    अपलक संध्या तारा,
    नीरव औ’ निःसंग,
    खोजता सा कुछ, चिर पथहारा!

    साँझ,- नदी का सूना तट,
    मिलता है नहीं किनारा,
    खोज रहा एकाकी जीवन
    साथी, स्नेह सहारा!

    (जनवरी’ ४०)

    27. दिवा स्वप्न

    दिन की इस विस्तृत आभा में, खुली नाव पर,
    आर पार के दृश्य लग रहे साधारणतर।
    केवल नील फलक सा नभ, सैकत रजतोज्वल,
    और तरल विल्लौर वेश्मतल सा गंगा जल-
    चपल पवन के पदाचार से अहरह स्पंदित-
    शांत हास्य से अंतर को करते आह्लादित।
    मुक्त स्निग्ध उल्लास उमड़ जल हिलकोरों पर
    नृत्य कर रहा, टकरा पुलकित तट छोरों पर।

    यह सैकत तट पिघल पिघल यदि बन जाता जल
    बह सकती यदि धरा चूमती हुई दिगंचल,
    यदि न डुबाता जल, रह कर चिर मृदुल तरलतर,
    तो मै नाव छोड़, गंगा के गलित स्फटिक पर
    आज लोटता, ज्योति जड़ित लहरों सँग जी भर!
    किरणों से खेलता मिचौंनी मैं लुक छिप कर,
    लहरों के अंचल में फेन पिरोता सुंदर,
    हँसता कल कल: मत्त नाचता, झूल पैंग भर!

    कैसा सुंदर होता, वदन न होता गीला,
    लिपटा रहता सलिल रेशमी पट सा ढीला!
    यह जल गीला नहीं, गलित नभ केवल चंचल,
    गीला लगता हमें, न भीगा हुआ स्वयं जल।
    हाँ, चित्रित-से लगते तृण-तरु भू पर बिम्बित,
    मेरे चल पद चूम धरणि हो उठती कंपित।

    एक सूर्य होता नभ में, सौ भू पर विजड़ित,
    सिहर सिहर क्षिति मारुत को करती आलिंगित।
    निशि में ताराओं से होती धरा जब खचित
    स्वप्न देखता स्वर्ग लोक में मैं ज्योत्स्ना स्मित!

    गुन के बल चल रही प्रतनु नौका चढ़ाव पर,
    बदल रहे तट दृश्य चित्रपट पर ज्यों सुंदर।
    वह, जल से सट कर उड़ते है चटुल पनेवा,
    इन पंखो की परियों को चाहिए न खेवा!
    दमक रही उजियारी छाती, करछौंहे पर,
    श्याम घनों से झलक रही बिजली क्षण क्षण पर!
    उधर कगारे पर अटका है पीपल तरुवर
    लंबी, टेढ़ी जड़ें जटा सी छितरीं बाहर।
    लोट रहा सामने सूस पनडुब्बी सा तिर,
    पूँछ मार जल से चमकीली, करवट खा फिर।

    सोन कोक के जोड़े बालू की चाँदो पर
    चोंचों से सहला पर, क्रीड़ा करते सुखकर।
    बैठ न पातीं, चक्कर देतीं देव दिलाई,
    तिरती लहरों पर सुफ़ेद काली परछाँई।
    लो, मछरंगा उतर तीर सा नीचे क्षण में,
    पकड़ तड़पती मछली को, उड़ गया गगन में।
    नरकुल सी चोंचें ले चाहा फिरते फर्‌ फर्‌।
    मँडराते सुरख़ाब व्योम में, आर्त नाद कर,-
    काले, पीले, खैरे, बहुरंगे चित्रित पर
    चमक रहे बारी बारी स्मित आभा से भर!

    वह, टीले के ऊपर, तूँबी सा, बबूल पर,
    सरपत का घोंसला बया का लटका सुंदर!
    दूर उधर, जंगल में भीटा एक मनोहर
    दिखलाई देता है वन-देवों का सा घर।
    जहाँ खेलते छायातप, मारुत तरु-मर्मर,
    स्वप्न देखती विजन शांति में मौन दोपहर!
    वन की परियाँ धूपछाँह की साड़ी पहने
    जहाँ विचरतीं चुनने ऋतु कुसुमों के गहने।

    वहाँ मत्त करती मन नव मुकुलों की सौरभ,
    गुंजित रहता सतत द्रुमों का हरित श्वसित नभ!
    वहाँ गिलहरी दौड़ा करती तरु डालों पर
    चंचल लहरी सी, मृदु रोमिल पूँछ उठा कर।
    और वन्य विहगों-कीटों के सौ सौ प्रिय स्वर
    गीत वाद्य से बहलाते शोकाकुल अंतर।

    वहीं कहीं, जी करता, मैं जाकर छिप जाऊँ,
    मानव जग के क्रंदन से छुटकारा पाऊँ।
    प्रकृति नीड़ मे व्योम खगों के गाने गाऊँ,
    अपने चिर स्नेहातुर उर की व्यथा भुलाऊँ!

    (जनवरी’ ४०)

    28. सौन्दर्य कला

    नव वसंत की रूप राशि का ऋतु उत्सव यह उपवन,
    सोच रहा हूँ, जन जग से क्या सचमुच लगता शोभन!
    या यह केवल प्रतिक्रिया, जो वर्गों के संस्कृत जन
    मन में जागृत करते, कुसुमित अंग, कंटकावृत मन!

    रंग रंग के खिले फ़्लॉक्स, वरवीना, छपे डियांथस,
    नत दृग ऐटिह्रिनम, तितली सी पेंज़ी, पॉपी सालस;
    हँसमुख कैंडीटफ्ट, रेशमी चटकीले नैशटरशम,
    खिली स्वीट पी,- – एवंडंस, फ़िल वास्केट औ’ ब्लू बैंटम।
    दुहरे कार्नेशंस, स्वीट सुलतान सहज रोमांचित,
    ऊँचे हाली हॉक, लार्कस्पर पुष्प स्तंभ से शोभित।

    फूले बहु मख़मली, रेशमी, मृदुल गुलाबों के दल,
    धवल मिसेज एंड्रू कार्नेगी, ब्रिटिश क्वीन हिम उज्वल।
    जोसेफ़ हिल, सनबर्स्ट पीत, स्वर्णिम लेडी हेलिंडन,
    ग्रेंड मुगल, रिचमंड, विकच ब्लैक प्रिंस नील लोहित तन।
    फ़ेअरी क्वीन, मार्गेरेट मृदु वीलियम शीन चिर पाटल,
    बटन रोज़ बहु लाल, ताम्र, माखनी रंग के कोमल।

    विविध आयताकार, वर्ग षट्कोण क्यारियाँ सुषमित,
    वर्तुल, अंडाकृति, नव रुचि से कटी छँटी, दूर्वावृत।
    चित्रित-से उपवन में शत रंगो में आतप-छाया,
    सुरभि श्वसित मारुत, पुलकित कुसुमों की कंपित काया।
    नव वसंत की श्री शोभा का दर्पण सा यह उपवन,
    सोच रहा हूँ, क्या विवर्ण जन जग से लगता शोभन!

    इस मटमैली पृथ्वी ने सतरंगी रवि किरणों से
    खींच लिए किस माया बल से सब रँग आभरणों से।
    युग युग से किन सूक्ष्म बीज कोषों से विकसित होकर
    राशि राशि ये रूप रंग भू पर हो रहे निछावर!
    जीवन ये भर सके नहीं मृन्मय तन में धरती के,
    सुंदरता के सब प्रयोग लग रहे प्रकृति के फीके!

    जग विकास क्रम में सुंदरता कब की हुई पराजित,
    तितली, पक्षी, पुष्प वर्ग इसके प्रमाण हैं जीवित।
    हृदय नहीं इस सुंदरता के, भावोन्मेष न मन में,
    अंगों का उल्लास न चिर रहता, कुम्हलाता क्षण में!
    हुआ सृष्टि में बुद्ध हॄदय जीवों का तभी पदार्पण,
    जड़ सुंदरता को निसर्ग कर सका न आत्म समर्पण,
    मानव उर में भर ममत्व जीवों के जीवन के प्रति
    चिर विकास प्रिय प्रकृति देखती तब से मानव परिणति।

    आज मानवी संस्कृतियाँ हैं वर्ग चयन से पीड़ित,
    पुष्प पक्षियों सी वे अपने ही विकास में सीमित।
    इस विशाल जन जीवन के जग से हो जाति विभाजित
    व्यापक मनुष्यत्व से वे सब आज हो रहीं वंचित!
    हृदय हीन, अस्तित्व मुग्ध ये वर्गों के जन निश्चित,
    वेश वसन भूषित बहु पुष्प-वनस्पतियों से शोभित!
    हुआ कभी सौन्दर्य कला युग अंत प्रकृति जीवन में,
    मानव जग से जाने को वह अब युग परिवर्तन में।

    हृदय, प्रेम के पूर्ण हृदय से निखिल प्रकृति जग शासित,
    जीव प्रेम के सन्मुख रे जीवन सौन्दर्य पराजित!
    नव वसंत की वर्ग कला का दर्शन गृह यह उपवन,
    सोच रहा हूँ विश्री जन जग से लगता क्या शोभन!

    (फ़रवरी’ ४०)

    29. स्वीट पी के प्रति

    कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!
    शयन कक्ष, दर्शन गृह की श्रृंगार!
    उपवन के यत्नों से पोषित.
    पुष्प पात्र में शोभित, रक्षित,
    कुम्हलाती जाती हो तुम, निज शोभा ही के भार!
    कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!

    सुभग रेशमी वसन तुम्हारे
    सुरँग, सुरुचिमय,-
    अपलक रहते लोचन!
    फूट फूट अंगों से सारे
    सौरभ अतिशय
    पुलकित कर देती मन!
    उन्नत वर्ग वृंत पर निर्भर,
    तुम संस्कृत हो, सहज सुघर,
    औ’ निश्चय वानस्पत्य चयन में
    दोनों निर्विशेष हो सुंदर!
    निबल शिराओं में, मृदु तन में
    बहती युग युग से जीवन के सूक्ष्म रुधिर की धार!
    कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!

    मृदुल मलय के स्नेह स्पर्श से
    होता तन में कंपन,
    जीवन के ऐश्वर्य हर्ष से
    करता उर नित नर्तन,-
    केवल हास विलास मयी तुम
    शोभा ही में शोभन,
    प्रणय कुंज में साँझ प्रात
    करती हो गोपन कूजन!
    जग से चिर अज्ञात,
    तुम्हें बाँधे निकुंज गृह द्वार!
    कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!

    हाय, न क्या आंदोलित होता
    हृदय तुम्हारा
    सुन जगती का क्रंदन?
    क्षुधित व्यथित मानव रोता
    जीवन पथ हारा
    सह दुःसह उत्पीड़न !
    छोड़ स्वर्ण पिंजर
    न निकल आओगी बाहर
    खोल वंश अवगुंठन?
    युग युग से दुख कातर
    द्वार खड़े नारी नर
    देते तुम्हें निमंत्रण!
    जग प्रांगण में क्या न करोगी तुम जन हित अभिसार?
    कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार !

    क्या न बिछाओगी जन पथ पर
    स्नेह सुरभि मय
    पलक पँखड़ियो के दल?
    स्निग्ध दृष्टि से जन मन हर
    आँचल से ढँक दोगी न शूल चय? जर्जर मानव पदतल!
    क्या न करोगी जन स्वागत
    सस्मित मुख से?
    होने को आज युगान्तर!
    शोषित दलित हो रहे जाग्रत,
    उनके सुख से
    समुच्छ्वसित क्या नहीं तुम्हारा अंतर?
    क्या न, विजय से फूल, बनोगी तुम जन उर का हार?
    कुल वधुओं सी अयि सलज्ज, सुकुमार!

    हाय, नहीं करुणा ममता है मन में कहीं तुम्हारे!
    तुम्हें बुलाते
    रोते गाते
    युग युग से जन हारे!
    ऊँची डाली से तुम क्षण भर
    नहीं उतर सकती जन भू पर!
    फूली रहती
    भूली रहती
    शोभा ही के मारे!
    केवल हास विलास मयी तुम!
    केवल मनोभिलाष मयी तुम!
    विभव भोग उल्लास मयी तुम!
    तुमको अपनाने के सारे
    व्यर्थ प्रयत्न हमारे!
    बधिरा तुम निष्ठुरा,-
    जनों की विफल सकल मनुहार!
    कुल वधुओं सी अयि सलज्ज सुकुमार!

    (फ़रवरी’ ४०)

    30. कला के प्रति

    तुम भाव प्रवण हो।
    जीवन पिय हो, सहनशील सहृदय हो, कोमल मन हो।
    ग्राम तुम्हारा वास रूढ़ियों का गढ़ है चिर जर्जर,
    उच्च वंश मर्यादा केवल स्वर्ण-रत्नप्रभ पिंजर।
    जीर्ण परिस्थितियाँ ये तुम में आज हो रहीं बिम्बित,
    सीमित होती जाती हो तुम, अपने ही में अवसित।
    तुम्हें तुम्हारा मधुर शील कर रहा अजान पराजित,
    वृद्ध हो रही हो तुम प्रतिदिन नहीं हो रही विकसित।

    नारी की सुंदरता पर मैं होता नहीं विमोहित,
    शोभा का ऐश्वर्य मुझे करता अवश्य आनंदित।
    विशद स्त्रीत्व का ही मैं मन में करता हूँ निज पूजन,
    जब आभा देही नारी आह्लाद प्रेम कर वर्षण
    मधुर मानवी की महिमा से भू को करती पावन।
    तुम में सब गुण हैं: तोड़ो अपने भय कल्पित बन्धन,
    जड़ समाज के कर्दम से उठ कर सरोज सी ऊपर,
    अपने अंतर के विकास से जीवन के दल दो भर।
    सत्य नहीं बाहर: नारी का सत्य तुम्हारे भीतर,
    भीतर ही से करो नियंत्रित जीवन को, छोड़ो डर।

    (दिसम्बर’ ३९)

    31. स्त्री

    यदि स्वर्ग कहीं है पृथ्वी पर, तो वह नारी उर के भीतर,
    दल पर दल खोल हृदय के अस्तर
    जब बिठलाती प्रसन्न होकर
    वह अमर प्रणय के शतदल पर!

    मादकता जग में कहीं अगर, वह नारी अधरों में सुखकर,
    क्षण में प्राणों की पीड़ा हर,
    नव जीवन का दे सकती वर
    वह अधरों पर धर मदिराधर।

    यदि कहीं नरक है इस भू पर, तो वह भी नारी के अन्दर,
    वासनावर्त में डाल प्रखर
    वह अंध गर्त में चिर दुस्तर
    नर को ढकेल सकती सत्वर!

    32. आधुनिका

    पशुओं से मृदु चर्म, पक्षियों से ले प्रिय रोमिल पर,
    ऋतु कुसुमों से सुरँग सुरुचिमय चित्र वस्त्र ले सुंदर,
    सुभग रूज़, लिप स्टिक, ब्रौ स्टिक, पौडर से कर मुख रंजित,
    अंगराग, क्यूटेक्स अलक्तक से बन नख शिख शोभित;
    ’सागर तल से ले मुक्ताफल, खानों से मणि उज्वल’,
    रजत स्वर्ण में अंकित तुम फिरती अप्सरि सी चंचल।

    शिक्षित तुम संस्कृत, युग के सत्याभासों से पोषित,
    समकक्षिणी नरों की तुम, निज द्वन्द्व मूल्य पर गर्वित।
    नारी की सौन्दर्य मधुरिमा औ’ महिमा से मंडित,
    तुम नारी उर की विभूति से, हृदय सत्य से वंचित!
    प्रेम, दया, सहृदयता, शील, क्षमा, पर दुख कातरता,
    तुममें तप, संयम, सहिष्णुता नहीं त्याग, तत्परता।

    लहरी सी तुम चपल लालसा श्वास वायु से नर्तित,
    तितली सी तुम फूल फूल पर मँडराती मधुक्षण हित!
    मार्जारी तुम, नहीं प्रेम को करती आत्म समर्पण,
    तुम्हें सुहाता रंग प्रणय, धन पद मद, आत्म प्रदर्शन!
    तुम सब कुछ हो, फूल, लहर, तितली, विहगी, मार्जारी,
    आधुनिके, तुम अगर नहीं कुछ, नहीं सिर्फ़ तुम नारी!

    (फ़रवरी’ ४०)

    33. मज़दूरनी के प्रति

    नारी की संज्ञा भुला, नरों के संग बैठ,
    चिर जन्म सुहृद सी जन हृदयों में सहज पैठ,
    जो बँटा रही तुम जग जीवन का काम काज
    तुम प्रिय हो मुझे: न छूती तुमको काम लाज।

    सर से आँचल खिसका है,-धूल भरा जूड़ा,-
    अधखुला वक्ष,-ढोती तुम सिर पर धर कूड़ा;
    हँसती, बतलाती सहोदरा सी जन जन से,
    यौवन का स्वास्थ्य झलकता आतप सा तन से।

    कुल वधू सुलभ संरक्षणता से हो वंचित,
    निज बंधन खो, तुमने स्वतंत्रता की अर्जित।
    स्त्री नहीं, बन गई आज मानवी तुम निश्चित,
    जिसके प्रिय अंगो को छू अनिलातप पुलकित!

    निज द्वन्द्व प्रतिष्ठा भूल जनों के बैठ साथ,
    जो बँटा रही तुम काम काज में मधुर हाथ,
    तुमने निज तन की तुच्छ कंचुकी को उतार
    जग के हित खोल दिए नारी के हृदय द्वार!

    (फ़रवरी’ ४०)

    34. नारी

    हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंठित,
    वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित!
    युग युग की वंदिनी, देह की कारा में निज सीमित,
    वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित!

    सदाचार की सीमा उसके तन से है निर्धारित,
    पूत योनि वह: मूल्य चर्म पर केवल उसका अंकित;
    अंग अंग उसका नर के वासना चिह्न से मुद्रित,
    वह नर की छाया, इंगित संचालित, चिर पद लुंठित!

    वह समाज की नहीं इकाई,-शून्य समान अनिश्चित,
    उसका जीवन मान मान पर नर के है अवलंबित।
    मुक्त हृदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,
    दृष्टि, स्पर्श संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित!

    योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,
    उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।
    द्वन्द्व क्षुधित मानव समाज पशु जग से भी है गर्हित,
    नर नारी के सहज स्नेह से सूक्ष्म वृत्ति हों विकसित।

    आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित
    नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित।
    सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,
    नर नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत।

    (दिसंबर’ ३९)

    35. द्वन्द्व प्रणय

    धिक रे मनुष्य, तुम स्वच्छ, स्वस्थ, निश्छल चुंबन
    अंकित कर सकते नहीं प्रिया के अधरों पर?
    मन में लज्जित, जन से शंकित, चुपके गोपन
    तुम प्रेम प्रकट करते हो नारी से, कायर!
    क्या गुह्य, क्षुद्र ही बना रहेगा, बुद्धिमान!
    नर नारी का स्वाभाविक, स्वर्गिक आकर्षण?
    क्या मिल न सकेंगे प्राणों से प्रेमार्त प्राण
    ज्यों मिलते सुरभि समीर, कुसुम अलि, लहर किरण?
    क्या क्षुधा तृषा औ’ स्वप्न जागरण सा सुन्दर
    है नहीं काम भी नैसर्गिक, जीवन द्योतक?
    बन जाता अमृत न देह-गरल छू प्रेम-अधर?
    उज्वल करता न प्रणय सुवर्ण, तन का पावक?

    पशु पक्षी से फिर सीखो प्रणय कला, मानव!
    जो आदि जीव, जीवन संस्कारों से प्रेरित,
    खग युग्म गान गा करते मधुर प्रणय अनुभव,
    मृग मिथुन शृंग से अंगो को कर मृदु मर्दित!
    मत कहो मांस की दुर्बलता, हे जीव प्रवर!
    है पुण्य तीर्थ नर नारी जन का हृदय मिलन,
    आनंदित होओ, गर्वित, यह जीवन का वर,
    गौरव दो द्वन्द्व प्रणय को, पृथ्वी हो पावन!

    (दिसंबर’ ३९)

    36. १९४०

    समर भूमि पर मानव शोणित से रंजित निर्भीक चरण धर,
    अभिनंदित हो दिग घोषित तोपों के गर्जन से प्रलयंकर,
    शुभागमन नव वर्ष कर रहा, हालाडोला पर चढ़ दुर्धर,
    वृहद विमानों के पंखो से बरसा कर विष वह्नि निरंतर!

    इधर अड़ा साम्राज्यवाद, शत शत विनाश के ले आयोजन,
    उधर प्रतिक्रिया रुद्ध शक्तियाँ क्रुद्ध दे रहीं युद्ध निमंत्रण!
    सत्य न्याय के बाने पहने, सत्व लुब्ध लड़ रहे राष्ट्रगण,
    सिन्धु तरंगों पर क्रय विक्रय स्पर्धा उठ गिर करती नर्तन!
    धू-धू करती वाष्प शक्ति, विद्युत ध्वनि करती दीर्ण दिगंतर,
    ध्वंस भ्रंश करते विस्फोटक धनिक सभ्यता के गढ़ जर्जर!
    तुमुल वर्ग संघर्ष में निहित जनगण का भविष्य लोकोत्तर,
    इंद्रचाप पुल सा नव वत्सर शोभित प्रलय प्रभ मेघों पर!

    आओ हे दुर्धर्ष वर्ष! आओ विनाश के साथ नव सृजन,
    विंश शताब्दी का महान विज्ञान ज्ञान ले, उत्तर यौवन!

    (जनवरी’ ४०)

    37. सूत्रधार

    तुम धन्य, वस्त्र व्यवसाय कला के सूत्रधार,
    बर्बर जन के तन से हर वल्कल, चर्म भार,
    तुमने आदिम मानव की हर नव द्वन्द्व लाज,
    बन शीत ताप हित कवच, बचाया जन समाज।
    तकली, चरख़े, करघे से अब आधुनिक यंत्र,
    तुम बने: यंत्र बल पर ही मानव लोक तंत्र
    स्थापित करने को अब: मानवता का विकास
    यंत्रों के संग हुआ, सिखलाता नृ-इतिहास।

    जड़ नहीं यंत्र: वे भाव रूप: संस्कृति द्योतक:
    वे विश्व शिराएँ, निखिल सभ्यता के पोषक।
    रेडियो, तार औ’ फ़ोन,-वाष्प, जल, वायु यान,
    मिट गया दिशावधि का जिनसे व्यवधान मान,-
    धावित जिनमें दिशि दिशि का मन,-वार्ता, विचार,
    संस्कृति, संगीत,-गगन में झंकृत निराकार।

    जीवन सौन्दर्य प्रतीक यंत्र: जन के शिक्षक:
    युग क्रांति प्रवर्तक औ’ भावी के पथ दर्शक।
    वे कृत्रिम, निर्मित नहीं, जगत क्रम में विकसित,
    मानव भी यंत्र, विविध युग स्थितियों में वर्धित।
    दार्शनिक सत्य यह नहीं,-यंत्र जड़, मानव कृत,
    वे हैं अमूर्त: जीवन विकास की कृति निश्चित।

    (फ़रवरी’ ४०)

    38. संस्कृति का प्रश्न

    राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज जगत के सन्मुख,
    अर्थ साम्य भी मिटा न सकता मानव जीवन के दुख।
    व्यर्थ सकल इतिहासों, विज्ञानों का सागर मंथन,
    वहाँ नहीं युग लक्ष्मी, जीवन सुधा, इंदु जन मोहन!

    आज वृहत सांस्कृतिक समस्या जग के निकट उपस्थित,
    खंड मनुजता को युग युग की होना है नव निर्मित,
    विविध जाति, वर्गों, धर्मों को होना सहज समन्वित,
    मध्य युगों की नैतिकता को मानवता में विकसित।

    जग जीवन के अंतर्मुख नियमों से स्वयं प्रवर्तित
    मानव का अवचेतन मन हो गया आज परिवर्तित।
    वाह्य चेतनाओं में उसके क्षोभ, क्रांति, उत्पीड़न,
    विगत सभ्यता दंत शून्य फणि सी करती युग नर्तन!

    व्यर्थ आज राष्ट्रों का विग्रह, औ’ तोपों का गर्जन,
    रोक न सकते जीवन की गति शत विनाश आयोजन।
    नव प्रकाश में तमस युगों का होगा स्वयं निमज्जित,
    प्रतिक्रियाएँ विगत गुणों की होंगी शनैः पराजित!

    (जनवरी’ ४०)

    39. सांस्कृतिक हृदय

    कृषि युग से वाहित मानव का सांस्कृतिक हृदय
    जो गत समाज की रीति नीतियों का समुदय,
    आचार विचारों में जो बहु देता परिचय,
    उपजाता मन में सुख दुख, आशा, भय, संशय,
    जो भले बुरे का ज्ञान हमें देता निश्चित
    सामंत जगत में हुआ मनुज के वह निर्मित।

    उन युग स्थितियों का आज दृश्य पट परिवर्तित,
    प्रस्तर युग की सभ्यता हो रही अब अवसित।
    जो अंतर जग था वाह्य जगत पर अवलंबित
    वह बदल रहा युगपत युग स्थितियों से प्रेरित।
    बहु जाति धर्म औ’ नीति कर्म में पा विकास
    गत सगुण आज लय होने को: औ’ नव प्रकाश
    नव स्थितियों के सर्जन से हो अब शनैः उदय
    बन रहा मनुज की नव आत्मा, सांस्कृतिक हृदय।

    (फ़रवरी’ ४०)

    40. भारत ग्राम

    सारा भारत है आज एक रे महा ग्राम!
    हैं मानचित्र ग्रामों के, उसके प्रथित नगर
    ग्रामीण हृदय में उसके शिक्षित संस्कृत नर,
    जीवन पर जिनका दृष्टि कोण प्राकृत, बर्बर,
    वे सामाजिक जन नहीं, व्यक्ति हैं अहंकाम।

    है वही क्षुद्र चेतना, व्यक्तिगत राग द्वेष,
    लघु स्वार्थ वही, अधिकार सत्व तृष्णा अशेष,
    आदर्श, अंधविश्वास वही,-हो सभ्य वेश,
    संचालित करते जीवन जन का क्षुधा काम।

    वे परंपरा प्रेमी, परिवर्तन से विभीत,
    ईश्वर परोक्ष से ग्रस्त, भाग्य के दास क्रीत,
    कुल जाति कीर्ति प्रिय उन्हें, नहीं मनुजत्व प्रीत,
    भव प्रगति मार्ग में उनके पूर्ण धरा विराम।

    लौकिक से नहीं, अलौकिक से है उन्हें प्रीति,
    वे पाप पुण्य संत्रस्त, कर्म गति पर प्रतीति
    उपचेतन मन से पीड़ित, जीवन उन्हें ईति,
    है स्वर्ग मुक्ति कामना, मर्त्य से नहीं काम।

    आदिम मानव करता अब भी जन में निवास,
    सामूहिक संज्ञा का जिसकी न हुआ विकास,
    जन जीवी जन दारिद्रय दुःख के बने ग्रास,
    परवशा यहाँ की चर्म सती ललना ललाम!

    जन द्विपद: कर सके देश काल को नहीं विजित,
    वे वाष्प वायु यानों से हुए नहीं विकसित,
    वे वर्ग जीव, जिनसे जीवन साधन अधिकृत,
    लालायित करते उन्हें वही धन, धरणि, धाम।

    ललकार रहा जग को भौतिक विज्ञान आज,
    मानव को निर्मित करना होगा नव समाज,
    विद्युत औ’ वाष्प करेंगे जन निर्माण काज,
    सामूहिक मंगल हो समान: समदृष्टि राम!

    (दिसंबर’ ३९)

    41. स्वप्न और सत्य

    आज भी सुंदरता के स्वप्न
    हृदय में भरते मधु गुंजार,
    वर्ग कवियों ने जिनको गूँथ
    रचा भू स्वर्ग, स्वर्ण संसार!

    आज भी आदर्शों के सौध
    मुग्ध करते जन मन अनजान,
    देश देशों के कालि’ दास
    गा चुके जिनके गौरव गान!

    मुहम्मद, ईशा, मूसा, बुद्ध
    केन्द्र संस्कृतियों के, श्री राम,
    हृदय में श्रद्धा, संभ्रम, भक्ति
    जगाते,-विकसित व्यक्ति ललाम!

    धर्म, बहु दर्शन, नीति, चरित्र
    सूक्ष्म चिर का गाते इतिहास,
    व्यवस्थाएँ, संस्थाएँ, तंत्र
    बाँधते मन बन स्वर्णिम पाश!

    आज पर, जग जीवन का चक्र
    दिशा गति बदल चुका अनिवार,
    सिन्धु में जन युग के उद्दाम
    उठ रहा नव्य शक्ति का ज्वार!

    आज मानव जीवन का सत्य
    धर रहा नये रूप आकार,
    आज युग का गुण है-जन-रूप,
    रूप-जन संस्कृति के आधार!

    स्थूल, जन आदर्शों की सृष्टि
    कर रही नव संस्कृति निर्माण,
    स्थूल-युग का शिव, सुंदर, सत्य,
    स्थूल ही सूक्ष्म आज, जन-प्राण!

    (दिसंबर’ ३९)

    42. बापू

    चरमोन्नत जग में जब कि आज विज्ञान ज्ञान,
    बहु भौतिक साधन, यंत्र यान, वैभव महान,
    सेवक हैं विद्युत वाष्प शक्ति: धन बल नितांत,
    फिर क्यों जग में उत्पीड़न? जीवन यों अशांत?

    मानव नें पाई देश काल पर जय निश्चय,
    मानव के पास नहीं मानव का आज हृदय!
    चर्वित उसका विज्ञान ज्ञान: वह नहीं पचित;
    भौतिक मद से मानव आत्मा हो गई विजित!
    है श्लाघ्य मनुज का भौतिक संचय का प्रयास,
    मानवी भावना का क्या पर उसमें विकास?
    चाहिये विश्व को आज भाव का नवोन्मेष,
    मानव उर में फिर मानवता का हो प्रवेश!

    बापू! तुम पर हैं आज लगे जग के लोचन,
    तुम खोल नहीं जाओगे मानव के बंधन?

    (दिसंबर’ ३९)

    43. अहिंसा

    बंधन बन रही अहिंसा आज जनों के हित,
    वह मनुजोचित निश्चित, कब? जब जन हों विकसित।
    भावात्मक आज नहीं वह; वह अभाव वाचक:
    उसका भावात्मक रूप प्रेम केवल सार्थक।
    हिंसा विनाश यदि, नहीं अहिंसा मात्र सृजन,
    वह लक्ष्य शून्य अब: भर न सकी जन में जीवन;
    निष्क्रिय: उपचेतन ग्रस्त: एक देशीय परम,
    सांस्कृतिक प्रगति से रहित आज, जन हित दुर्गम।

    हैं सृजन विनाश सृष्टि के आवश्यक साधन
    यह प्राणि शास्त्र का सत्य नहीं, जीवन दर्शन।
    इस द्वन्द्व जगत में द्वन्द्वातीत निहित संगति,
    ’है जीव जीव का जीवन’,-रोक न सका प्रगति।
    भव तत्व प्रेम: साधन हैं उभय विनाश सृजन,
    साधन बन सकते नहीं सृष्टि गति में बंधन!

    (फ़रवरी’ ४०)

    44. पतझर

    झरो, झरो, झरो,
    जंगम जग प्रांगण में,
    जीवन संघर्षण में
    नव युग परिवर्तन में
    मन के पीले पत्तो!
    झरो, झरो, झरो,

    सन सन शिशिर समीरण
    देता क्रांति निमंत्रण!
    यह जीवन विस्मृति क्षण,-
    जीर्ण जगत के पत्तो!
    टरो, टरो, टरो!

    कँप कर, उड़ कर, गिर गर,
    दब कर, पिस कर, चर मर,
    मिट्टी में मिल निर्भर,
    अमर बीज के पत्तो!
    मरो! मरो! मरो!

    तुम पतझर, तुम मधु-जय!
    पीले दल, नव किसलय,
    तुम्हीं सृजन, वर्धन, लय,
    आवागमनी पत्तो!
    सरो, सरो, सरो!

    जाने से लगता भय?
    जग में रहना सुखमय?
    फिर आओगे निश्चय।
    निज चिरत्व से पत्तो!
    डरो, डरो, डरो!

    जन्म मरण से होकर,
    जन्म मरण को खोकर,
    स्वप्नों में जग सोकर,
    मधु पतझर के पत्तो!
    तरो, तरो, तरो!

    (फ़रवरी’ ४०)

    45. उद्बोधन

    खोलो वासना के वसन,
    नारी नर!

    वाणी के बहु रूप, बहु वेश, बहु विभूषण,
    खोलो सब, बोलो सब,
    एक वाणी,-एक प्राण, एक स्वर!
    वाणी केवल भावों-विचारों की वाहन,
    खोलो भेद भावना के मनोवसन
    नारी नर!

    खोलो जीर्ण विश्वासों, संस्कारों के शीर्ण वसन,
    रूढ़ियों, रीतियों, आचारों के अवगुंठन,
    छिन्न करो पुराचीन संस्कृतियों के जड़ बन्धन,-
    जाति वर्ण, श्रेणि वर्ग से विमुक्त जन नूतन
    विश्व सभ्यता का शिलान्यास करें भव शोभन;
    देश राष्ट्र मुक्त धरणि पुण्य तीर्थ हो पावन।
    मोह पुरातन का वासना है, वासना दुस्तर,
    खोलो सनातनता के शुष्क वसन,
    नारी नर!

    समरांगण बना आज मानव उपचेतन मन,
    नाच रहे युग युग के प्रेत जहाँ छाया-तन;
    धर्म वहाँ, कर्म वहाँ, नीति रीति, रूढ़ि चलन,
    तर्क वाद, सत्व न्याय, शास्त्र वहाँ, षड दर्शन;
    खंड खंड में विभक्त विश्व चेतना प्रांगण,
    भित्तियाँ खड़ी हैं वहाँ देश काल की दुर्धर!
    ध्वंस करो, भ्रंश करो, खँडहर हैं ये खँडहर,
    खोलो विगत सभ्यता के क्षुद्र वसन
    नारी नर!

    नव चेतन मनुज आज करें धरणि पर विचरण,
    मुक्त गगन में समूह शोभन ज्यों तारागण;
    प्राणों प्राणों में रहे ध्वनित प्रेम का स्पंदन,
    जन से जन में रे बहे, मन से मन में जीवन;
    मानव हो मानव-हो मानव में मानवपन
    अन्न वस्त्र से प्रसन्न, शिक्षित हों सर्व जन;
    सुंदर हों वेश, सब के निवास हों सुंदर,
    खोलो परंपरा के कुरूप वसन,
    नारी नर!

    (दिसंबर’ ३९)

    46. नव इंद्रिय

    नव जीवन को इंद्रिय दो हे, मानव को,
    नव जीवन की नव इंद्रिय,
    नव मानवता का अनुभव कर सके मनुज
    नव चेतनता से सक्रिय!

    स्वर्ग खंड इस पुण्य भूमि पर
    प्रेत युगों से करते तांडव,
    भव मानव का मिलन तीर्थ
    बन रहा रक्त चंडी का रौरव!
    अनिर्वाप्य साम्राज्य लालसा
    अगणित नर आहुति देती नव,
    जाति वर्ग औ’ देश राष्ट्र में
    आज छिड़ा प्रलयंकर विप्लव!

    नव युग की नव आत्मा दो पशु मानव को,
    नव जीवन की नव इंद्रिय,
    भव मानवता का साम्राज्य बने भू पर
    दश दिशि के जनगण को प्रिय।

    (सितंबर’ ३९)

    47. कवि किसान

    जोतो हे कवि, निज प्रतिभा के
    फल से निष्ठुर मानव अंतर,
    चिर जीर्ण विगत की खाद डाल
    जन-भूमि बनाओ सम सुंदर।

    बोओ, फिर जन मन में बोओ,
    तुम ज्योति पंख नव बीज अमर,
    जग जीवन के अंकुर हँस हँस
    भू को हरीतिमा से दें भर।
    पृथ्वी से खोद निराओ, कवि,
    मिथ्या विश्वासों के तृण खर,
    सींचो अमृतोपम वाणी की
    धारा से मन, भव हो उर्वर।

    नव मानवता का स्वर्ण-शस्य-
    सौन्दर्य लवाओ जन-सुखकर,
    तुम जग गृहिणी, जीवन किसान,
    जन हित भंडार भरो निर्भर।

    (जनवरी’ ४०)

    48. वाणी

    तुम वहन कर सको जन मन में मेरे विचार,
    वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार।

    भव कर्म आज युग की स्थितियों से है पीड़ित,
    जग का रूपांतर भी जनैक्य पर अवलंबित,
    तुम रूप कर्म से मुक्त, शब्द के पंख मार,
    कर सको सुदूर मनोनभ में जन के विहार,
    वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार।

    चित शून्य,-आज जग, नव निनाद से हो गुंजित,
    मन जड़,-उसमें नव स्थितियों के गुण हों जागृत,
    तुम जड़ चेतन की सीमाओं के आर पार
    झंकृत भविष्य का सत्य कर सको स्वराकार,
    वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार।

    युग कर्म शब्द, युग रूप शब्द, युग सत्य शब्द,
    शब्दित कर भावी के सहस्र शत मूक अब्द,
    ज्योतित कर जन मन के जीवन का अंधकार,
    तुम खोल सको मानव उर के निःशब्द द्वार,
    वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार।

    (फ़रवरी’ ४०)

    49. नक्षत्र

    [अपनी कॉटेज के प्रति]

    मेरे निकुंज, नक्षत्र वास!
    इस छाया मर्मर के वन में
    तू स्वप्न नीड़ सा निर्जन में
    है बना प्राण पिक का विलास!

    लहरी पर दीपित ग्रह समान
    इस भू उभार पर भासमान,
    तू बना मूक चेतनावान
    पा मेरे सुख दुख, भाव’च्छ्वास!

    आती जग की छवि स्वर्ण प्रात,
    स्वप्नों की नभ सी रजत रात,
    भरती दश दिशि की चारवात
    तुझमें वन वन की सुरभि साँस!

    कितनी आशाएँ, मनोल्लास,
    संकल्प महत, उच्चाभिलाष,
    तुझमें प्रतिक्षण करते निवास,-
    है मौन श्रेय साधन प्रयास!

    तू मुझे छिपाए रह अजान
    निज स्वर्ण मर्म में खग समान,
    होगा अग जग का कंठ गान
    तेरे इन प्राणों का प्रकाश!
    मेरे निकुंज, नक्षत्र वास!

    (१९३२)

    50. आँगन से

    रोमांचित हो उठे आज नव वर्षा के स्पर्शों से?
    छोटे से आँगन मेरे, तुम रीते थे वर्षों से!
    नव दूर्वा के हरे प्ररोहों से अब भरे मनोहर
    मरकत के टुकड़े से लगते तुम विजड़ित भू उर पर!

    जन निवास से दूर, नीड़ में वन तरुओं के छिपकर,
    भू उरोज-से उभरे इस एकांत मौन भीटे पर
    कोमल शाद्वल अंचल पर लेटा मैं स्मित चिन्तापर,
    जीवन की हँसमुख हरीतिमा को देखूँ आँखें भर!

    एक ओर गहरी खाई में सोया तरुओं का तम
    केका रव से चकित, बखेरे सुख स्वप्नों का संभ्रम!
    और दूसरी ओर मंजरित आम्र विपिन कर मुखरित
    मधु में पिक, पावस में पी-खग करे हृदय को हर्षित!

    हरित भरित वन नीम उच्छ्वसित शाखाओं पर विह्वल
    वक्षभार, हाँ, रहे झुकाए मेरे ऊपर कोमल!

    (अगस्त’ ३९)

    51. याद

    बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर,
    मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!
    वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,
    नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर!

    मैं बरामदे में लेटा, शैय्या पर, पीड़ित अवयव,
    मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!
    सक्रिय यह सकरुण विषाद,-मेघों से उमड़ उमड़ कर
    भावी के बहु स्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!

    मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को,
    बर्हभार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को;
    आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल,
    अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल!

    कम्पित करता वक्ष धरा का घन गभीर गर्जन स्वर,
    भू पर ही आगया उतर शत धाराओं में अंबर!
    भीनी भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर
    एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर!

    नव असाढ़ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल,
    पीड़ित एकाकी शय्या पर, शत भावों से विह्वल,
    एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्वल
    याद दिलाती मुझे हृदय में रहती जो तुम निश्चल!

    (जुलाई’ ३९)

    52. गुलदावदी

    शय्या ग्रस्त रहा मैं दो दिन, फूलदान में हँसमुख
    चंद्र मल्लिका के फूलों को रहा देखता सन्मुख।
    गुलदावदी कहूँ,—कोमलता की सीमा ये कोमल!
    शैशव स्मिति इनमें जीवन की भरी स्वच्छ, सद्योज्वल!

    पुंज पुंज उल्लास, लीन लावण्य राशि में अपने,
    मृदु पंखड़ियों के पलकों पर देख रहा हो सपने!
    उज्वल सूरज का प्रकाश, ज्योत्स्ना भी उज्वल, शीतल,
    उज्वल सौरभ-अनिल, और उज्वल निर्मल सरसी जल;
    इन फूलों की उज्वलता छू लेती अंतर के स्तर,
    मधुर अवयवों में बँध वह ज्यों हो आगई निकटतर!
    मृदुल दलों के अंगजाल से फूट त्वचा-कोमल सुख
    सहृदय मानवीय स्पर्शों से हर लेता मन का दुख!

    तृण तृण में औ’ निखिल प्रकृति में जीवन की है क्षमता,
    पर मानव का हृदय लुभाती मानव करुणा ममता!

    (दिसंबर’ ३९)

    53. विनय

    विज्ञान ज्ञान बहु सुलभ, सुलभ बहु नीति धर्म,
    संकल्प कर सकें जन, इच्छा अनुरूप कर्म।
    उपचेतन मन पर विजय पा सके चेतन मन,
    मानव को दो यह शक्ति: पूर्ण जग के कारण!

    मनुजों की लघु चेतना मिटे, लघु अहंकार,
    नव युग के गुण से विगत गुणों का अंधकार।
    हो शांत जाति विद्वेष, वर्ग गत रक्त समर,
    हों शांत युगों के प्रेत, मुक्त मानव अंतर।
    संस्कृत हों सब जन, स्नेही हों, सहृदय, सुंदर,
    संयुक्त कर्म पर हो संयुक्त विश्व निर्भर।
    राष्ट्रों से राष्ट्र मिलें, देशों से देश आज,
    मानव से मानव,-हो जीवन निर्माण काज।

    हो धरणि जनों की, जगत स्वर्ग,-जीवन का घर,
    नव मानव को दो, प्रभु! भव मानवता का वर!

    (फ़रवरी’ ४०)