रामचरितमानस गोस्वामी तुलसीदास

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    Ramcharitmanas Goswami Tulsidas

    रामचरितमानस गोस्वामी तुलसीदास

    बाल काण्ड श्री रामचरितमानस गोस्वामी तुलसीदास जी

    ॥श्री गणेशाय नमः ॥
    श्रीजानकीवल्लभो विजयते
    श्री रामचरित मानस

    प्रथम सोपान
    (बालकाण्ड)

    श्लोक

    वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
    मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥
    भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
    याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
    वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
    यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
    सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
    वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
    उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
    सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
    यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
    यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
    यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
    वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
    नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
    रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
    स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
    भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥7॥

    सो0-जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
    करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥
    मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
    जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥2॥
    नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
    करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥
    कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
    जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥
    बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
    महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
    बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
    अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
    सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
    जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
    श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती॥
    दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
    उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
    सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
    दो0-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
    कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥

    एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
    मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥
    भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
    बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी॥
    सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
    सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥
    जदपि कबित रस एकउ नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं॥
    सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा॥
    धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
    भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥
    छं0-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की॥
    गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
    प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी॥
    भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥
    दो0-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
    दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥10(क)॥
    स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
    गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥10(ख)॥

    गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
    तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥
    बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
    सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥
    साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
    जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥
    मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
    राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
    बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
    हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥
    बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
    सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥
    अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
    दो0-सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
    लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥

    मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
    सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
    बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
    जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
    मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
    सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
    बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
    सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
    सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
    बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥
    बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
    सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥
    दो0-बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
    अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3(क)॥
    संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
    बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥3(ख)॥

    बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
    पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
    हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
    जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
    तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
    उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥
    पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
    बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
    पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
    बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥
    बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥
    दो0-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
    जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥

    मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
    बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥
    बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
    बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥
    उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
    सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥
    भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
    सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
    गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥
    दो0-भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
    सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥

    खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
    तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥
    भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
    कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥
    दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
    दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥
    माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
    कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥
    सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥
    दो0-जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
    संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥

    अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
    काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई॥
    सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
    खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥
    लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
    उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥
    किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
    हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥
    गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
    साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी॥
    धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
    सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥
    दो0-ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
    होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥7(क)॥
    सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
    ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥7(ख)॥
    जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
    बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
    देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
    बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7(घ)॥

    आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
    सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
    जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
    निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही॥
    करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
    सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥
    मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
    छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
    जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
    हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥
    निज कवित केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
    जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥
    जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
    सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥
    दो0-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
    पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास॥8॥

    खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
    हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥
    कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
    भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥
    प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
    हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की॥
    राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
    कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥
    आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
    भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥
    कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे॥
    दो0-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
    सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥9॥

    मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
    नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥
    तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
    भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥
    राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
    कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥
    कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
    हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥
    जौं बरषइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥
    दो0-जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
    पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

    जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
    चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़ें॥
    बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
    तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥
    जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
    ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥
    समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
    एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
    कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
    कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥
    जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
    समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥
    दो0-सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
    नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥12॥

    सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
    तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥
    एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
    ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥
    सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
    जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥
    गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
    बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहि पुनीत सुफल निज बानी॥
    तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
    मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥

    दो0-अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
    चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥

    एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
    ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥
    चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
    कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥
    जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
    भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें॥
    होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
    जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥
    कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
    राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥
    तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥
    दो0-सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
    सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥14(क)॥
    सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
    करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥14(ख)॥
    कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
    बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल॥14(ग)॥

    सो0-बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।
    सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥14(घ)॥
    बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
    जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥14(ङ)॥
    बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ।
    संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥14(च)॥
    दो0-बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि।
    होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि॥14(छ)॥

    पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
    मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥
    गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥
    सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके॥
    कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
    अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
    सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
    सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥
    भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
    जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥
    होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी॥
    दो0-सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
    तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15॥

    बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
    प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥
    सिय निंदक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
    बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥
    प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
    दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥
    करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
    जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥
    सो0-बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
    बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥
    प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
    जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
    प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
    राम चरन पंकज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥
    बंदउँ लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
    रघुपति कीरति बिमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥
    सेष सहस्त्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
    सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥
    रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
    महावीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
    सो0-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन।
    जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥
    कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥
    बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥
    रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
    बंदउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥
    सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
    प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥
    जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की॥
    ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
    पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
    राजिवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुख दायक॥
    दो0-गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
    बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥

    बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
    बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
    महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
    महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
    जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
    सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी॥
    हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
    नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥
    दो0-बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥
    राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥

    आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
    सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
    कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
    बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥
    नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
    भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।
    स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
    जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥
    दो0-एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
    तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥

    समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
    नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
    को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥
    देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
    रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
    सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥
    नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
    अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥
    दो0-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
    तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥

    नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
    ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥
    जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
    साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥
    जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
    राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
    चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
    चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥
    दो0-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
    नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥

    अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
    मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥
    प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
    एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥
    उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
    ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन धन आनँद रासी॥
    अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
    नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
    दो0-निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
    कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥

    राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
    नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
    राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
    रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी॥
    सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
    भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू॥
    दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥।
    निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥
    दो0-सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
    नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥

    राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
    नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
    राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
    नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
    राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
    राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥
    सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
    फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥
    दो0-ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
    रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥
    मासपारायण, पहला विश्राम

    नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
    सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥
    नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
    नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
    ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
    सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥
    अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
    कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
    दो0-नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
    जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥

    चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
    बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥
    ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
    कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन जन मीना॥
    नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
    राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥
    नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
    कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥
    दो0-राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
    जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥

    भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
    सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
    मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
    राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो॥
    लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
    गनी गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥
    सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
    साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥
    सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
    यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥
    रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥
    दो0-सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
    उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥28(क)॥
    हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
    साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28(ख)॥

    अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
    समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥
    सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
    कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥
    रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
    जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली॥
    सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥
    ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥
    दो0-प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान॥
    तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥29(क)॥
    राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
    जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29(ख)॥
    एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
    बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29(ग)॥

    जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
    कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥
    संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
    सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥
    तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
    ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥
    जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
    औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥
    दो0-मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
    समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30(क)॥
    श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
    किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30(ख)

    तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
    भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥
    जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
    निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥
    बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
    रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥
    रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
    सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥
    असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
    संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥
    जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
    रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥
    सिवप्रय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
    सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥
    दो0- राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
    तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥

    राम चरित चिंतामनि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
    जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥
    सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
    जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥
    समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
    सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥
    काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
    अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥
    मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
    हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥
    अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
    सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥
    सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
    सेवक मन मानस मराल से। पावक गंग तंरग माल से॥
    दो0-कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
    दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥32(क)॥
    रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
    सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥32(ख)॥

    कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
    सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथाप्रबंध बिचित्र बनाई॥
    जेहि यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई॥
    कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
    रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
    नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥
    कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
    करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सारद रति मानी॥
    दो0-राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
    सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥

    एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
    पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥
    सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥
    संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥
    नौमी भौम बार मधु मासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
    जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥
    असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
    जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥
    दो0-मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर।
    जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर॥34॥

    दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
    नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारद बिमलमति॥
    राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
    चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहि संसारा॥
    सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी॥
    बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा। सुनत नसाहिं काम मद दंभा॥
    रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
    मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई॥
    रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ संभु सुहावन पावन॥
    त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥
    रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
    तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥
    कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥
    दो0-जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
    अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥

    संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
    करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥
    सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
    बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥
    लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
    प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥
    सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
    मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
    भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥
    दो0-सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
    तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥

    सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
    रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥
    राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
    पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई॥
    छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
    अरथ अनूप सुमाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥
    सुकृत पुंज मंजुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
    धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥
    अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
    नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥
    सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना॥
    संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥
    भगति निरुपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
    सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पत रति रस बेद बखाना॥
    औरउ कथा अनेक प्रसंगा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा॥
    दो0-पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
    माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥37॥

    जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
    सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥
    अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
    संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥
    तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
    आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥
    कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
    गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥
    बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयंकर नाना॥
    दो0-जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
    तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥

    जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई॥
    जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥
    करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
    जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा॥
    सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
    सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥
    ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥
    जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥
    अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
    भयउ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥
    चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
    सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥
    नदी पुनीत सुमानस नंदिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥
    दो0-श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
    संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल॥39॥

    रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
    सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥
    जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
    त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरुप सिंधु समुहानी॥
    मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
    बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥
    उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
    रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई॥
    दो0-बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
    नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग॥40॥

    सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
    नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥
    सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
    घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥
    सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
    कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥
    राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा॥
    काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥
    दो0-समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग।
    कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

    कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
    हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥
    बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
    ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥
    बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
    राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥
    सती सिरोमनि सिय गुनगाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
    भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥
    दो0- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
    भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास॥42॥

    आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
    अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥
    राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानौ॥
    भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥
    काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
    सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥
    जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
    तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी॥
    दो0-मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ।
    सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ॥43(क)॥

    अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
    कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद॥43(ख)॥
    भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
    तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥
    माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
    देव दनुज किंनर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
    पूजहि माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
    भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥
    तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
    मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥
    दो0-ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।

    कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥44॥

    एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
    प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥
    एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
    जगबालिक मुनि परम बिबेकी। भरव्दाज राखे पद टेकी॥
    सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
    करि पूजा मुनि सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥
    नाथ एक संसउ बड़ मोरें। करगत बेदतत्व सबु तोरें॥
    कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥
    दो0-संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
    होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥45॥

    अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
    रास नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥
    संतत जपत संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
    आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥
    सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
    रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥
    एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
    नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा॥
    दो0-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
    सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥

    जैसे मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
    जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥
    राममगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी॥
    चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा॥
    तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
    महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥
    रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
    ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥
    दो0-कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
    भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥

    एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
    संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥
    रामकथा मुनीबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
    रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥
    कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
    मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥
    तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
    पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥
    दो0-ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
    गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48(क)॥

    सो0-संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ॥
    तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48(ख)॥
    रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
    जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥
    एहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेहि समय जाइ दससीसा॥
    लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥
    करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
    मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥
    बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
    कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुख ताकें॥
    दो0-अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
    जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥

    संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा॥
    भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी॥
    जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
    चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
    सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
    संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥
    तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधमा॥
    भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥
    दो0-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
    सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद॥ 50॥

    चौ०-बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
    खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥१॥
    संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
    अस संसय मन भयउ अपारा। होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥२॥
    जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
    सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥३॥
    जासु कथा कुभंज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
    सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥४॥
    छं०-मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
    कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
    सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
    अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि॥
    सो०-लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
    बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥५१॥

    चौ०-जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
    तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥१॥
    जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
    चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई॥२॥
    इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
    मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥३॥
    होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
    अस कहि लगे जपन हरिनामा। गई सती जहँ प्रभु सुखधामा॥४॥
    दो०-पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप।
    आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप॥५२॥

    चौ०-लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
    कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥१॥
    सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
    सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥२॥
    सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
    निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥३॥
    जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
    कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥४॥
    दो०-राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
    सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥५३॥

    चौ०-मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
    जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥१॥
    जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
    सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥२॥
    फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥
    जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥३॥
    देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
    बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥४॥
    दो०-सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
    जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥५४॥

    चौ०-देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
    जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥१॥
    पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
    अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥२॥
    सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भई सभीता॥
    हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥३॥
    बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
    पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥४॥
    दो०-गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
    लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥५५॥
    मासपारायण, दूसरा विश्राम

    चौ०-सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
    कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥१॥
    जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
    तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥२॥
    बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
    हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥३॥
    सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
    जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥४॥
    दो०-परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
    प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥५६॥

    चौ०-तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
    एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥१॥
    अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
    चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥२॥
    अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
    सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥३॥
    कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
    जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥४॥
    दो०-सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
    कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥५७क॥
    सो०-जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
    बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥५७ख॥

    चौ०-हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहि बरनी॥
    कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥१॥
    संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
    निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥२॥
    सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
    बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥३॥
    तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
    संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥४॥
    दो०-सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
    मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥५८॥

    चौ०-नित नव सोचु सतीं उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
    मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥१॥
    सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
    अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥२॥
    कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
    जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥३॥
    तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
    जौं मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥४॥
    दो०- तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
    होइ मरनु जेहि बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥५९॥

    चौ०-एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
    बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥१॥
    राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
    जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥२॥
    लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
    देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥३॥
    बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमानु हृदयँ तब आवा॥
    नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥४॥
    दो०- दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
    नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥६०॥

    चौ०-किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
    बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥१॥
    सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥
    सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥२॥
    पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
    जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥३॥
    पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
    बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥४॥
    दो०-पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
    तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥६१॥

    चौ०-कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
    दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥१॥
    ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
    जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥२॥
    जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
    तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥३॥
    भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
    कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥४॥
    दो०-कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
    दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥६२॥

    चौ०-पिता भवन जब गई भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
    सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥१॥
    दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥
    सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख संभु कर भागा॥२॥
    तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
    पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥३॥
    जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
    समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥४॥
    दो०-सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
    सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥६३॥

    चौ०-सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
    सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥१॥
    संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
    काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥२॥
    जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
    पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥३॥
    तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
    अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥४॥
    दो०-सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
    जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥६४॥

    चौ०-समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
    जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥१॥
    भे जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
    यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संक्षेप बखानी॥२॥
    सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
    तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥३॥
    जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाई॥
    जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥४॥
    दो०-सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
    प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥६५॥

    चौ०-सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
    सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहि अनुरागा॥१॥
    सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
    नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥२॥
    नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
    सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥३॥
    नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥
    निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥४॥
    दो०-त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि॥
    कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥६६॥

    चौ०-कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
    सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥१॥
    सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
    सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥२॥
    होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
    एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा॥३॥
    सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
    अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥४॥
    दो०-जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष॥
    अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥६७॥

    चौ०-सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
    नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥१॥
    सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
    होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥२॥
    उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
    जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥३॥
    झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दंपति सखीं सयानी॥
    उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥४॥
    दो०-कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
    देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥६८॥

    चौ०-तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
    जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीं॥१॥
    जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने॥
    जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥२॥
    जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
    भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥३॥
    सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
    समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥४॥
    दो०-जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान।
    परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥६९॥

    चौ०-सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
    सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥१॥
    संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
    दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥२॥
    जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
    जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥३॥
    बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
    इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥४॥
    दो०-अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
    होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥७०॥

    चौ०-कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
    पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥१॥
    जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा॥
    न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥२॥
    जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
    सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥३॥
    अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
    बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥४॥
    दो०-प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
    पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥७१॥

    चौ०-अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू॥
    करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहि कलेसू॥१॥
    नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
    अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥२॥
    सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
    उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥३॥
    बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
    जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥४॥
    दो०-सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
    सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥७२॥

    चौ०-करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
    मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥१॥
    तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
    तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥२॥
    तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥
    सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥३॥
    मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥
    प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥४॥
    दो०-बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ॥
    पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥७३॥

    चौ०-उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
    अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥१॥
    नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
    संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥२॥
    कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
    बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोई खाई॥३॥
    पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नाम तब भयउ अपरना॥
    देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥४॥
    दो०-भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
    परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥७४॥

    चौ०-अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
    अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥१॥
    आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
    मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥२॥
    सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
    उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥३॥
    जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥
    जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥४॥
    दो०-चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
    बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥७५॥

    चौ०-कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
    जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥१॥
    एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
    नेमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥२॥
    प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥
    बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥३॥
    बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥
    अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥४॥
    दो०-अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
    जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥७६॥

    चौ०-कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
    सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥१॥
    मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
    तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥२॥
    प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
    कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥३॥
    अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥
    तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥४॥
    दो०-पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
    गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥७७॥

    चौ०-रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥
    बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥१॥
    केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
    कहत बचत मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥२॥
    मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥
    नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥३॥
    देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥४॥
    दो०-सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।
    नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥७८॥

    चौ०-दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
    चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥१॥
    नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
    मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥२॥
    तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
    निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥३॥
    कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
    पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥४॥
    दो०-अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।
    सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥७९॥

    चौ०-अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
    अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥१॥
    दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥
    अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥२॥
    सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥
    कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥३॥
    नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ॥
    गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥४॥
    दो०-महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
    जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥८०॥

    चौ०-जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
    अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥१॥
    जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
    तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥२॥
    जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
    तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू॥३॥
    मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥
    देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥४॥
    दो०-तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु।
    नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥८१॥

    चौ०-जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥
    बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥१॥
    भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
    मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥२॥
    तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
    तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥३॥
    अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
    तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥४॥
    दो०-सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
    संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥८२॥

    चौ०-मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
    सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥१॥
    तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
    जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥२॥
    पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥
    तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥३॥
    एहि बिधि भलेहि देवहित होई। मर अति नीक कहइ सबु कोई॥
    अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥४॥
    दो०-सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
    संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥८३॥

    चौ०-तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
    पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥१॥
    अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
    चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा॥२॥
    तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
    कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥३॥
    ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
    सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा॥४॥
    छं०-भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
    सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
    होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
    दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
    दो०-जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
    ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥८४॥

    चौ०-सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
    नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥१॥
    जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
    पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥२॥
    मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसिदिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
    देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥३॥
    इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
    सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥४॥
    छं०-भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
    देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
    अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
    दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
    सो०-धरी न काहूँ धीर सबके मन मनसिज हरे।
    जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥८५॥

    उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
    सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥१॥
    भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
    रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥२॥
    फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
    प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥३॥
    बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
    जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥४॥
    छं०-जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
    सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
    बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
    कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा॥
    दो०-सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
    चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥८६॥

    चौ०-देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
    सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥१॥
    छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥
    भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥२॥
    सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
    तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा॥३॥
    हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
    समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥४॥
    छं०-जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
    रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।
    अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
    प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
    दो०-अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
    बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥८७॥

    चौ०-जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
    कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥१॥
    रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
    देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥२॥
    सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
    पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥३॥
    बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
    कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥४॥
    दो०-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
    निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥८८॥

    चौ०-यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन।
    कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥१॥
    सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
    पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥२॥
    सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
    तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥३॥
    अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
    प्रथम गए जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥४॥
    दो०-कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस।
    अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥८९॥
    मासपारायण,तीसरा विश्राम

    चौ०-सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
    तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥१॥
    हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
    जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥२॥
    तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥
    तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥३॥
    तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
    गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥४॥
    दो०-हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास॥
    चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥९०॥

    चौ०-सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
    बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥१॥
    हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई॥
    सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥२॥
    पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
    जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥३॥
    लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
    सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥४॥
    दो०-लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
    होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥९१॥

    सिवहि संभुगन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
    कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥१॥
    ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
    गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥२॥
    कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
    देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥३॥
    बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
    सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥४॥
    दो०-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
    बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥९२॥

    चौ०-बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
    बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥१॥
    मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
    अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥२॥
    सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
    नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥॥३॥
    कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
    बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥४॥
    छं०-तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
    भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
    खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
    बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
    सो०-नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।
    देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥९३॥
    जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
    इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥१॥
    सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
    बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥२॥
    कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
    गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥॥३॥
    प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
    पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥४॥
    छं०-लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
    बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
    मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं॥
    बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
    दो०-जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
    रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥९४॥

    चौ०-नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
    करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥१॥
    हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
    सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥२॥
    धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
    गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥॥३॥
    कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
    बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥४॥
    छं०-तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
    सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
    जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
    देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
    दो०-समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
    बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥९५॥

    चौ०-लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
    मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥१॥
    कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
    बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥२॥
    भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
    मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी॥३॥
    अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
    जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥४॥
    छं०- कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
    जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
    तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं॥
    घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
    दो०-भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
    करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥९६॥

    चौ०-नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
    अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा॥१॥
    साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
    पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कै पीरा॥२॥
    जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
    अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥३॥
    करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
    तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥४॥
    छं०-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
    दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
    सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं॥
    बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥
    दो०-तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
    समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥९७॥

    चौ०-तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥
    मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥१॥
    अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
    जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥२॥
    जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥
    तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥३॥
    एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥
    भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥४॥
    छं०-सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं।
    हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
    अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
    अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया॥
    दो०-सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
    छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥९८॥

    चौ०-तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
    नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥१॥
    लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना॥
    भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥२॥
    सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
    सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥३॥
    बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
    नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥४॥
    छं०-गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
    भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
    जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
    अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
    दो०-बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
    समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥९९॥

    चौ०-बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
    बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥१॥
    सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥
    बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥२॥
    बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई॥
    देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥३॥
    जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
    सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥४॥
    छं०-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
    सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा॥
    छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ॥
    अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
    दो०-मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
    कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥१००॥

    जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
    गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
    पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
    बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
    बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
    हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
    दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
    अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
    छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
    का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
    सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
    पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
    दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
    छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥

    बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
    जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
    करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
    बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
    कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
    भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
    पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥
    सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
    छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
    फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥
    जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
    सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
    दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
    बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

    तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
    आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
    जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
    जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥
    करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
    हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
    तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
    आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
    छं0-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
    तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
    यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
    कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
    दो0-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
    बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥

    संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
    बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
    प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
    अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
    सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
    बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
    सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
    पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
    दो0-प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
    सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥

    मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
    सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
    राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
    तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
    सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
    जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
    प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
    परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
    दो0-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
    बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥105॥

    हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
    तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
    त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
    एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
    निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
    कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
    तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
    भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
    दो0-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
    नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥

    बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
    पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥
    जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
    बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
    पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
    कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
    बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
    चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
    दो0-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
    जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

    जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
    तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
    जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
    ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
    प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
    सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
    तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
    रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
    दो0-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
    देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥

    जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
    अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
    मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
    तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
    अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
    प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
    तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
    कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
    दो0-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
    बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥

    जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
    गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
    अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
    प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
    पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
    कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
    बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
    राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥
    दो0-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
    प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥

    पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
    भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
    औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
    जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
    तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
    प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
    हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
    श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
    दो0-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
    रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥

    झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
    जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
    बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
    मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
    करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
    धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
    पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
    तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
    दो0-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
    सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥

    तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
    जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
    नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
    ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
    जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
    जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
    कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
    गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
    दो0-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
    सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

    रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
    रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
    राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
    जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
    तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
    उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
    एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
    तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
    दो0-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
    पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥

    अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
    लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
    कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
    मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
    जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
    हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
    बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
    जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥
    सो0-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
    सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥

    सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
    अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
    जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
    जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
    राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
    सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
    हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
    राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥
    दो0-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
    रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥

    निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
    जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥
    चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
    उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
    बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
    सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
    जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
    जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
    दो0-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
    जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥

    एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
    जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
    जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
    आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
    बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
    आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
    तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
    असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
    दो0-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
    सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥

    कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
    सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
    बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
    सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
    राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
    अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
    सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
    भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
    दो0-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
    बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥

    ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
    तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥
    नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
    अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥
    प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
    राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
    नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
    उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
    दो0-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
    बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120(क)॥
    सो0-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
    कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥120(ख)॥
    सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
    सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥120(ग)॥
    हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
    मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120(घ॥

    नवान्हपारायन,पहला विश्राम

    मासपारायण, चौथा विश्राम

    सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
    हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
    राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
    तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
    तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
    जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
    करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
    तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥
    दो0-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
    जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥

    सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
    राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
    जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
    द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
    बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
    कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
    बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
    होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
    दो0-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
    कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥

    मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
    एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
    कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
    एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥
    एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
    संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
    परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
    दो0-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
    जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥

    तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
    तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
    एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
    प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
    नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
    गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥
    कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
    यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
    दो0- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
    जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124(क)॥
    सो0-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
    भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124(ख)॥

    हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
    आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
    निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
    सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
    मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥
    सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
    सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
    जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
    दो0-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
    छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥

    तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
    कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥
    चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
    रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
    करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥
    देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
    काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
    सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
    दो0- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
    गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥126॥

    भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
    नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
    मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
    सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
    तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
    मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
    बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
    तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥
    दो0-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
    भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥

    राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
    संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
    एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
    छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
    हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
    बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
    काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
    अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
    दो0-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
    तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥

    सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥
    ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
    नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
    करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
    बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
    मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥
    तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
    श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
    दो0-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
    श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥

    बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
    तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
    सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
    बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
    सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
    करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
    मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
    सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
    दो0-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
    कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥

    देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
    लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
    जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
    सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
    लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
    सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
    करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
    जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
    दो0-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
    जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥

    हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
    मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
    बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
    प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
    अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
    आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
    जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
    निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
    दो0-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
    सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥

    कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
    एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
    माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
    गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
    निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
    मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें॥
    मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
    सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
    दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
    बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥

    जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
    तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
    करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
    रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
    मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
    जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
    काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
    मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
    दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
    देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥

    जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली॥
    पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
    धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
    दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
    मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
    तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
    अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
    बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
    दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
    हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥

    पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
    फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥
    देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
    बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
    बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
    सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
    पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
    मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥
    दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
    स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥

    परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
    भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
    डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
    करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
    भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
    बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
    कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
    मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
    दो0-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
    निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥

    जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
    तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
    मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
    मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
    जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
    कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
    जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
    अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
    दो0-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
    सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥

    हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
    अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
    हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
    श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
    निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
    भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
    समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
    चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
    दो0-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
    सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥139॥

    एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
    कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
    तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
    बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
    हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
    रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
    यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
    प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥
    सो0-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥
    अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥

    अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
    जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
    जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
    जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
    अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
    लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
    भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
    लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
    दो0-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
    राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥141॥

    स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
    दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
    नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
    लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥
    देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
    आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
    सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
    तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
    सो0-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
    हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥

    बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
    तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
    बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
    पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
    पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
    आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
    जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
    कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
    दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
    बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥

    करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
    पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
    उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥
    अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
    नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
    संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
    ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
    जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥
    दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
    संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥

    बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
    बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
    मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
    अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
    प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
    मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
    मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
    ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
    दो0-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
    बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥

    सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
    सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
    जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
    जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
    जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
    देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
    दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
    भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
    दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
    लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥

    सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
    अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
    नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
    भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
    कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
    उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
    केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
    करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
    दो0-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
    नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥147॥

    पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
    बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
    जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
    भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
    छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
    चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
    हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
    सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
    दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
    मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥

    सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
    नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
    एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
    तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
    जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
    तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
    सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
    सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
    दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
    चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥

    देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
    आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
    सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
    जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
    प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
    तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
    अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
    जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
    दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
    सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥

    सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
    जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥
    मातु बिबेक अलोकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
    बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनति प्रभु मोरी॥
    सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
    मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥
    अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
    अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥
    सो0-तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि।
    होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥151॥

    इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे॥
    अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥
    जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
    आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥
    पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
    पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना॥
    दंपति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
    समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥
    दो0-यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
    भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥152॥

    मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम

    सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥
    बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥
    धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
    तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥
    राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
    अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥
    भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥
    जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥
    दो0-जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
    प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥153॥

    नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
    सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥
    सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
    सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥
    बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
    जँह तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआई॥
    सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें॥
    सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥
    दो0-स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
    अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥

    भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
    सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥
    सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
    गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥
    भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
    दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना। सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना॥
    नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥
    बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥
    दो0-जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
    बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥

    हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
    करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥
    चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
    बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥
    फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
    बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं॥
    कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
    घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥
    दो0-नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
    चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥

    आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
    तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥
    तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
    प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ संग लागा॥
    गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
    अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥
    कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
    अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥
    दो0-खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
    खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥157॥

    फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
    जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥
    समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
    गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥
    रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
    तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा॥
    राउ तृषित नहि सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
    उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥
    दो0 भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ।
    मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158॥

    गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
    आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥
    को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥
    चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥
    नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
    फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडे भाग देखउँ पद आई॥
    हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
    कह मुनि तात भयउ अँधियारा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥
    दो0- निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान।
    बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥159(क)॥
    तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
    आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥159(ख)॥

    भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
    नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥
    पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
    मोहि मुनिस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥
    तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुह्रद सो कपट सयाना॥
    बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥
    समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
    सरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥
    दो0-कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत।
    नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति॥160॥

    कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
    सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥
    तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
    तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥
    जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
    सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥
    सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
    सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥
    दो0-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
    लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥161(क)॥
    सो0-तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
    सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥161(ख)

    तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
    प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥
    तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
    अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥
    जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
    देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥
    नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई॥
    कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥
    दो0-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
    नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥

    जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
    तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥
    तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
    भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥
    करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
    उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥
    सुनि महिप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहत तब लयऊ॥
    कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥
    सो0-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
    मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥163॥

    नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
    गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥
    देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
    उपजि परि ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥
    अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
    सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥
    कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
    प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥
    दो0-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
    एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥

    कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
    कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥
    तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
    जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥
    चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
    बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला॥
    हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
    तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥
    दो0-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि।
    मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥165॥

    तातें मै तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
    छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥
    यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
    आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥
    सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
    राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥
    जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
    एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥
    दो0-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
    तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ॥166॥

    सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
    अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥
    मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
    आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥
    जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
    सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥
    बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
    जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥
    दो0- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
    मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥167॥

    जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
    सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥
    अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
    जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
    जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
    अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥
    पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
    जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥
    दो0-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
    मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिंûकरिब जेवनार॥168॥

    एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
    करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥
    और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥
    तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥
    तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
    मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥
    गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
    मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता॥
    दो0-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
    जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥

    सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
    श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥
    कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
    परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥
    तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
    प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥
    तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥
    जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥
    दो0-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
    अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥

    तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
    मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥
    अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
    परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥
    कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥
    तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥
    भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
    नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥
    दो0-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
    लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥171॥

    आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
    जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥
    मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी॥
    कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥
    गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
    उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा॥
    जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
    समय जानि उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥
    दो0-नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
    बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥172॥

    उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
    मायामय तेहिं कीन्ह रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥
    बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
    भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥
    परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
    बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥
    भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
    भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस आव मुख बानी॥
    दो0-बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
    जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥173॥

    छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
    ईस्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥
    संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
    नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥
    बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
    चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥
    तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
    सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥
    दो0-भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
    किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥174॥

    अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
    सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिचरत हंस काग किय जेहीं॥
    उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
    तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥
    घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होई लराई॥
    जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥
    सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
    रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥
    दो0-भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
    धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥।175॥

    काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
    दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥
    भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥
    सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥
    नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
    रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥
    कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥
    कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥
    दो0-उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
    तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176॥

    कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
    गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥
    करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
    हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥
    एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
    पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥
    जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
    सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥
    दो0-गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
    तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥177॥

    तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
    मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥
    सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
    हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥
    गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
    सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनिभवन अपारा॥
    भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
    तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥
    दो0-खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
    कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥178(क)॥
    हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
    सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥178(ख)॥

    रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥
    अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥
    दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥
    देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥
    फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
    सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥
    जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हे॥
    एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥
    दो0-कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
    मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥179॥

    सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥
    नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥
    अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
    करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा॥
    जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
    समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥
    बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
    जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥
    दो0-कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
    एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180॥

    कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
    दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥
    सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती॥
    सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥
    सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
    ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥
    तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
    द्विजभोजन मख होम सराधा॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥
    दो0-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
    तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥

    मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा॥
    जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥
    तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥
    एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥
    चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी॥
    रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥
    दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
    पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥
    रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा॥
    रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥
    किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥
    ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥
    आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥
    दो0-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
    मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥182(ख)॥
    देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
    जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि॥182ख॥

    इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
    प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥
    देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
    करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥
    जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
    जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥
    सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई॥
    नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना॥
    छं0-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
    आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
    अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
    तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥
    सो0-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
    हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥

    मासपारायण, छठा विश्राम

    बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
    मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
    जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
    अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥
    गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही॥
    सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥
    धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
    निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥
    छं0-सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
    सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
    ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
    जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥
    सो0-धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु।
    जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥184॥

    बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
    पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥
    जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
    तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ॥
    हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
    देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
    अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
    मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥
    दो0-सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
    अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥

    छं0-जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
    गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता॥
    पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
    जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥
    जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
    अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥
    जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
    निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥
    जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
    सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
    जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।
    मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा॥
    सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना।
    जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
    भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।
    मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥
    दो0-जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह।
    गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥186॥

    जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
    अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
    कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
    ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा॥
    तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
    नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥
    हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
    गगन ब्रह्मबानी सुनी काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥
    तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥
    दो0-निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
    बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥187॥

    गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
    जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥
    बनचर देह धरि छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
    गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥
    गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
    यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥
    अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
    धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥
    दो0-कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
    पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥188॥

    एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
    गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥
    निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
    धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥
    सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
    भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥
    जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
    यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥
    दो0-तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ॥
    परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥

    तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आई॥
    अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥
    कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
    कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥
    एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
    जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥
    मंदिर महँ सब राजहिं रानी। सोभा सील तेज की खानीं॥
    सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥
    दो0-जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
    चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190॥

    नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
    मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
    सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
    बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥
    सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
    गगन बिमल सकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥
    बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
    अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥
    दो0-सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
    जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191॥

    छं0-भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
    हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
    लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
    भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥
    कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
    माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
    करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
    सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥
    ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
    मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै॥
    उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
    कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥
    माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा।
    कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
    सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
    यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥
    दो0-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
    निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥

    सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आई सब रानी॥
    हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥
    दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥
    परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठत करत मति धीरा॥
    जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
    परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥
    गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
    अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥
    दो0-नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
    हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥

    ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
    सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥
    बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई। सहज संगार किएँ उठि धाई॥
    कनक कलस मंगल धरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥
    करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
    मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥
    सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
    मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥
    दो0-गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
    हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194॥

    कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
    वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥
    अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
    देखि भानू जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥
    अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी॥
    मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥
    भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मूखर समयँ जनु सानी॥
    कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥
    दो0-मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
    रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥

    यह रहस्य काहू नहिं जाना। दिन मनि चले करत गुनगाना॥
    देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥
    औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
    काक भुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥
    परमानंद प्रेमसुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
    यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥
    तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
    गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥
    दो0-मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस।
    सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥

    कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
    नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥
    करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
    इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥
    जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
    सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥
    बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
    जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥
    दो0-लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
    गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥

    धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
    मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि तेहिं सुख माना॥
    बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
    भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥
    स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
    चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥
    हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
    कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥
    दो0-ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
    सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद॥198॥

    काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
    अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥
    रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
    कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा॥
    भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
    उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥
    कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
    दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥
    सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
    चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥
    पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
    रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा॥
    दो0-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।
    दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥

    एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
    जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥
    रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
    जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥
    भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
    मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥
    एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
    लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै॥
    दो0-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
    सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200॥

    एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥
    निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥
    करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥
    बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥
    गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
    बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥
    इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
    देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥
    दो0-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड।
    रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥ 201॥

    अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
    काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥
    देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥
    देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥
    तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
    बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥
    अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
    हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥
    दो0-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि॥
    अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥ 202॥

    बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
    कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥
    चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
    परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥
    मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
    भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥
    कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई॥
    निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥
    धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥
    दो0-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
    भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥

    बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥
    जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥
    भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
    गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥
    जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
    बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला॥
    करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
    जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥
    दो0- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
    प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥

    बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
    पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥
    जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
    अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥
    जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
    बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥
    प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
    आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥
    दो0-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
    भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥

    यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
    बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी॥
    जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
    देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥
    गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी॥
    तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥
    एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ भाई॥
    ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना॥
    दो0-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
    करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥

    मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा॥
    करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥
    चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
    बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा॥
    पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
    भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥
    तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
    केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥
    असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही॥
    अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥
    दो0-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
    धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥

    सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
    चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥
    मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
    देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही॥
    सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई॥
    कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥
    सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
    तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥
    अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
    मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥
    दो0-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।
    जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208(क)॥
    सो0-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन॥
    कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208(ख)

    अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
    कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥
    स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई॥
    प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना॥
    चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
    एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥
    तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
    जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥
    दो0-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
    कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥209॥

    प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
    होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥
    सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
    बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥
    पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
    मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥
    तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
    भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥
    तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
    धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥
    आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
    पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥
    दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
    चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥

    छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
    देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
    अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
    अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥
    धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
    अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
    मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
    राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥
    मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
    देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
    बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
    पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥
    जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
    सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
    एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
    जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी॥
    दो0-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
    तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥211॥

    मासपारायण, सातवाँ विश्राम

    चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
    गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥
    तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
    हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥
    पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
    बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥
    गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
    बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥
    दो0-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
    फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212॥

    बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
    चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥
    धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना॥
    चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥
    मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
    पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥
    अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
    होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥
    दो0-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
    सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥

    सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
    बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥
    सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
    पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥
    देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई॥
    कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥
    भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥
    बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥
    दो0-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
    चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥

    कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
    बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥
    कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
    तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥
    स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
    उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥
    भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
    मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥
    दो0-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
    बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥

    कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
    ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥
    सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
    ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥
    इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
    कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥
    ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
    रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥
    दो0-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
    मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥

    मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ॥
    सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥
    इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
    सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥
    पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
    म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥
    सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
    करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥
    दो0-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
    बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥

    लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
    प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥
    राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी॥
    परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥
    नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
    जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ॥
    सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
    धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥
    दो0-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
    करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥218॥

    मासपारायण, आठवाँ विश्राम

    नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम

    मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
    बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥
    पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
    तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥
    केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
    सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥
    कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
    चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी॥
    दो0-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
    नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥

    देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
    धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी॥
    निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
    जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥
    कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
    सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥
    बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
    अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही॥
    दो0-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
    अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220॥

    कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥
    कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥
    ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
    मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥
    स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
    कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥
    गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
    लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥
    दो0-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
    आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥

    देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
    जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥
    कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
    सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥
    कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता॥
    तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥
    जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
    सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥
    दो0-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
    यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥

    बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का॥
    कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा॥
    सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
    सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥
    परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
    सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥
    जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
    तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी॥
    दो0-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
    जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥223॥

    पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
    अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥
    चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला॥
    तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥
    कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
    तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥
    जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी॥
    पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥
    दो0-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
    तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥

    सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥
    निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥
    राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
    लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥
    भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥
    कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥
    जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
    कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई॥
    दो0-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
    गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥

    निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥
    कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥
    मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
    जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥
    तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
    बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥
    चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
    पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥
    दो0-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान॥
    गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥

    सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
    समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥
    भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
    लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥
    नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥
    चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥
    मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
    बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥
    दो0-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
    परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥

    चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
    तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥
    संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी॥
    सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥
    मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥
    पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥
    एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
    तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥
    दो0-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
    कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन॥228॥

    देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
    स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥
    सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥
    एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥
    जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी॥
    बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥
    तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
    चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥
    दो0-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत॥
    चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥

    कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
    मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही॥मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥
    अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
    भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥
    देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
    जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥
    सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
    सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥
    दो0-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
    बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥

    तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
    पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥
    जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
    सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥
    रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
    मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥
    जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
    मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥
    दो0-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
    मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥231॥

    चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥
    जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥
    लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
    देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥
    थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
    अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥
    लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
    जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥
    दो0-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
    निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥232॥

    सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
    मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥
    भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
    बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥
    चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥
    मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥
    उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
    सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥
    दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
    देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥

    धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥
    बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥
    सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
    नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥
    परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता॥
    पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥
    गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
    धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने॥
    दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
    निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥ 234॥

    जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
    प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥
    परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही॥
    गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥
    जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
    जय गज बदन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
    नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
    भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
    दो0-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
    महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥

    सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
    देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
    मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
    कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥
    बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
    सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥
    सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
    नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥
    छं0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
    करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
    एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
    तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
    सो0-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
    मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥236॥

    हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
    राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥
    सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
    सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥
    करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
    बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥
    प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
    बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥
    दो0-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
    सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥237॥

    घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
    कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥
    बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥
    सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥
    करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
    बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥
    उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥
    बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥
    दो0-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
    जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥

    नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
    कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥
    ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
    उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥
    रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
    तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥
    बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
    नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥
    सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
    जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥
    दो0-सतानंदûपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
    चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239॥

    सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
    लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥
    हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
    पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥
    रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
    चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥
    देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
    तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू॥
    दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
    उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240॥

    राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
    गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥
    राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
    जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
    देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
    डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥
    रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा॥
    पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥
    दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
    जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241॥

    बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
    जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥
    सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
    जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥
    हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
    रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥
    उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
    एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥
    दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
    सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242॥

    सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
    सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥
    चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी॥
    कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥
    कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
    भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥
    पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
    रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥
    दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
    बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥

    कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे॥
    पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥
    देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
    हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥
    करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
    जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥
    निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
    भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥
    दो0-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
    मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥

    प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे॥
    असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥
    बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
    अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥
    बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
    तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥
    एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
    यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥
    सो0-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के॥
    जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥

    ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
    सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥
    जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
    सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥
    सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
    करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥
    अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
    देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥
    दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
    चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं॥246॥

    सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥
    उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥
    सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
    जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥
    गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
    बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥
    जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई॥
    सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥
    दो0-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
    तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥

    चलिं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
    सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥
    भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥
    रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥
    हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई॥
    पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥
    सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
    मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥
    दो0-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि॥
    लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥

    राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
    सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥
    हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
    बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू॥
    जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू॥
    एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥
    तब बंदीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥
    कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥
    दो0-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
    पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249॥

    नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
    रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥
    सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
    त्रिभुवन जय समेत बैदेही॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥
    सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
    परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥
    तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
    जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥
    दो0-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
    मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥

    भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
    डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥
    सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
    कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥
    श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
    नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥
    दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
    देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥
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