पद्मावत मलिक मुहम्मद जायसी
Padmavat Malik Muhammad Jayasi
1. स्तुति-खंड
सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥
कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥
कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥
कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥
कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥
कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥
कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥
कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि ।
पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥
अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की,
(कुरान की आयत) कैलास=बिहिश्त,स्वर्ग; इस शब्द का प्रयोग
जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है)
कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥
कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥
कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥
कीन्हेसि बनखँड औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥
कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उड़हिं जहँ चहईं ॥
कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥
कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥
निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक ।
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥
जिनका शिकार किया जाता है, आरन=आरण्य, बाज=बिना,
जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज)
कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥
कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥
कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥
कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥
कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥
कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥
कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥
कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि ।
भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥
इंदुर=चूहा, चाँटी=चींटी, भौकस=दानव, सहस अठारह=
अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार))
कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बड़ाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥
कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥
कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥
कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार ।
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥
धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥
जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥
ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥
पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥
ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥
सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥
जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह ।
और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥
आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥
सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥
छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥
परबत ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥
बज्रांह तिनकहिं मारि उड़ाई । तिनहि बज्र करि देई बड़ाई ॥
ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥
काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥
सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर ।
एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥
अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥
परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥
ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥
जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥
हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥
और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥
जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह ।
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥
एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥
जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥
स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥
है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥
ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि ।
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥
और जो दीन्हेसि रतन अमोला । ताकर मरम न जानै भोला ॥
दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥
दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥
दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥
जोबन मरम जान पै बूढ़ा । मिला न तरुनापा जग ढूँढ़ा ॥
दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥
काया-मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत ।
सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥
अति अपार करता कर करना । बरनि न कोई पावै बरना ॥
सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥
जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥
जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद औ गगन तराई ॥
सब लिखनी कै लिखु संसारा । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥
ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥
ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥
बड़ गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग ।
औ अस गुनी सँवारे, जो गुन करै अनेग ॥10॥
कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥
प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥
दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥
जौ न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥
दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढ़त सिखे ॥
जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥
जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥
गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख औ जोख ।
वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥
में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया,
मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती, जगत-बसीठ=
संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला,पैगंबर, लेख जोख=
कर्मों का हिसाब, दुसरे ठाँव….वै लिखे=ईश्वर ने मुहम्मद
को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् अपने से दूसरा दरजा
दिया, पाढ़त=पढ़ंत,मंत्र,आयत)
चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥
अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥
पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥
पुनि उसमान पंडित बड़ गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥
चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥
चारिउ एक मतै, एक बाना । एक पंथ औ एक सँधाना ॥
बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥
जो पुरान बिधि पठवा सोई पढ़त गरंथ ।
और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥
संधान=खोज,उद्देश्य,लक्ष्य)
सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥
ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥
जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥
सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥
तह लगि राज खड़ग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥
हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥
औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥
दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज ।
बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥
पठान था, जुलकरन=जुलकरनैन,सिकंदर की एक अरबी
उपाधि, काँदौ=कर्दम,कीचड़)
बरनौं सूर भूमिपति राजा । भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥
हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उड़हिं होइ धूरी ॥
रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥
भुइँ उड़ि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥
डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥
मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥
अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥
जो गढ़ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर ।
जब वह चढ़ै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥
अदल कहौं पुहुमी जस होई । चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥
नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥
अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥
परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥
गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥
नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥
धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥
सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ ।
गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥
की नथ, पारा=सकता है, निनारा=अलग 2)
पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥
ससि चौदसि जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥
पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥
जैस भानु जग ऊपर तपा । सबै रूप ओहि आगे छपा ॥
अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥
सौंह दीठि कै हेरि न जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥
रूप सवाई दिन दिन चढ़ा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढ़ा ॥
रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढ़ि ।
मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढ़ि ॥16॥
अपेक्षाकृत (बढ़कर), करा=कला, ससि चौदसि=पूर्णिमा
(मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि
गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन की चौदहवीं तिथि
पड़ती है)
पुनि दातार दई जग कीन्हा । अस जग दान न काहू दीन्हा ॥
बलि विक्रम दानी बड़ कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥
सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥
दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥
कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥
जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥
दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥
ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान ।
ना अस भयउ न होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥
सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥
लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥
मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥
खार समुद्र पाप मोर मेला । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥
उन्ह मोर कर बूड़त कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥
जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥
दस्तगीर गाढ़े कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥
जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद ।
वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥
दिया,बाँह का सहारा दिया, अँजोर=उजाला, खिखिंद=
किष्किंध पर्वत)
ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥
सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥
दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥
दुहुँ खंभ टेके सब महीं । दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥
जेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, निरमल भइ काया ॥
मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर ।
जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥
गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥
अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥
अहलदाद भल तेहि कर गुरू । दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥
सैयद मुहमद कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला ॥
दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥
भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥
ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥
वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर ।
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥
करनेवाले, उताइल=जल्दी, मेरइ लिये=मिला लिया, सैयद राजे=
सैयद राजे हामिदशाह, उन्ह हुत=उनके द्वारा)
एक नयन कबि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥
चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥
जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥
जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥
जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥
जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥
एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ ।
सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥
पर का तीखा चेप,चोपी)
चारि मीन कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥
युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥
पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥
मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खड़ग जुझारू ॥
सेख बड़े, बड़ सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड़ माना ।
चारिउ चतुरदसा गुन पढ़े । औ संजोग गोसाईं गढ़े ॥
बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥
मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त ।
एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त?॥22॥
चतुरदसा गुन=चौदह विद्याएँ)
जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥
औ बिनती पँडितन सन भजा । टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥
हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥
हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥
रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥
जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया?॥
फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥
मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु ।
जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥
की लकड़ी, तारु=(क) तालू (ख) ताला कूँजी=कुँजी, फेरे भेष=वेष
बदलते हुए, तपा=तपस्वी)
सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥
सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ़ आनी ॥
अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥
सुना साहि गढ़ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥
आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥
कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥
नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड़ चाँटा ॥
भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥
2. सिंहलद्वीप वर्णन-खंड
सिंघलदीप कथा अब गावौं । औ सो पदमिनी बरनि सुनावौं ॥
निरमल दरपन भाँति बिसेखा । जौ जेहि रूप सो तैसई देखा ॥
धनि सो दीप जहँ दीपक-बारी । औ पदमिनि जो दई सँवारी ॥
सात दीप बरनै सब लोगू । एकौ दीप न ओहि सरि जोगू ॥
दियादीप नहिं तस उँजियारा । सरनदीप सर होइ न पारा ॥
जंबूदीप कहौं तस नाहीं । लंकदीप सरि पूज न छाहीं ॥
दीप गभस्थल आरन परा । दीप महुस्थल मानुस-हरा ॥
सब संसार परथमैं आए सातौं दीप ।
एक दीप नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप ॥1॥
कहते थे, हरा=शून्य)
ग्रंध्रबसेन सुगंध नरेसू । सो राजा, वह ताकर देसू ॥
लंका सुना जो रावन राजू । तेहु चाहि बड़ ताकर साजू ॥
छप्पन कोटि कटक दल साजा । सबै छत्रपति औ गढ़ -राजा ॥
सोरह सहस घोड़ घोड़सारा । स्यामकरन अरु बाँक तुखारा ॥
सात सहस हस्ती सिंघली । जनु कबिलास एरावत बली ॥
अस्वपतिक-सिरमोर कहावै । गजपतीक आँकुस-गज नावै ॥
नरपतीक कहँ और नरिंदू?। भूपतीक जग दूसर इंदू ॥
ऐस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ ।
सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न कोइ ॥2॥
(बढ़कर) बनिस्बत, कविलास=स्वर्ग)
जबहि दीप नियरावा जाई । जनु कबिलास नियर भा आई ॥
घन अमराउ लाग चहुँ पासा । उठा भूमि हुत लागि अकासा ॥
तरिवर सबै मलयगिरि लाई । भइ जग छाँह रैनि होइ आई ॥
मलय-समीर सोहावन छाहाँ । जेठ जाड़ लागै तेहि माहाँ ॥
ओही छाँह रैनि होइ आवै । हरियर सबै अकास देखावै ॥
पथिक जो पहुँचै सहि कै घामू । दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू ॥
जेइ वह पाई छाँह अनूपा । फिरि नहिं आइ सहै यह धूपा ॥
अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत ।
फूलै फरै छवौ ऋतु , जानहु सदा बसंत ॥3॥
फरै आँब अति सघन सोहाए । औ जस फरे अधिक सिर नाए ॥
कटहर डार पींड सन पाके । बड़हर, सो अनूप अति ताके ॥
खिरनी पाकि खाँड अस मीठी । जामुन पाकि भँवर अति डीठी ॥
नरियर फरे फरी फरहरी । फुरै जानु इंद्रासन पुरी ॥
पुनि महुआ चुअ अधिक मिठासू । मधु जस मीठ, पुहुप जस बासू ॥
और खजहजा अनबन नाऊँ । देखा सब राउन-अमराऊ ॥
लाग सबै जस अमृत साखा । रहै लोभाइ सोइ जो चाखा ॥
लवग सुपारी जायफल सब फर फरे अपूर ।
आसपास घन इमिली औ घन तार खजूर ॥4॥
के फल, अनबन=भिन्न भिन्न)
बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा । करहिं हुलास देखि कै साखा ॥
भोर होत बोलहिं चुहुचूही । बोलहिं पाँडुक “एकै तूही”” ॥
सारौं सुआ जो रहचह करही । कुरहिं परेवा औ करबरहीं ॥
“पीव पीव”कर लाग पपीहा । “तुही तुही” कर गडुरी जीहा ॥
`कुहू कुहू’ करि कोइल राखा । औ भिंगराज बोल बहु भाखा ॥
`दही दही’ करि महरि पुकारा । हारिल बिनवै आपन हारा ॥
कुहुकहिं मोर सोहावन लागा । होइ कुराहर बोलहि कागा ॥
जावत पंखी जगत के भरि बैठे अमराउँ ।
आपनि आपनि भाषा लेहिं दई कर नाउँ ॥5॥
सारौं=सारिका,मैना, महरि=महोख से मिलती जुलती एक छोटी
चिड़िया जिसे ग्वालिन और अहीरिन भी कहते हैं, हारा=हाल,
अथवा लाचारी,दीनता)
पैग पैग पर कुआँ बावरी । साजी बैठक और पाँवरी ॥
और कुंड बहु ठावहिं ठाऊँ। औ सब तीरथ तिन्ह के नाऊँ ॥
मठ मंडप चहुँ पास सँवारे । तपा जपा सब आसन मारे ॥
कोइ सु ऋषीसुर, कोइ सन्यासी । कोई रामजती बिसवासी ॥
कोई ब्रह्मचार पथ लागे । कोइ सो दिगंबर बिचरहिं नाँगे ॥
कोई सु महेसुर जंगम जती । कोइ एक परखै देबी सती ॥
कोई सुरसती कोई जोगी । निरास पथ बैठ बियोगी ॥
सेवरा, खेवरा, बानपर, सिध, साधक, अवधूत ।
आसन मारे बैट सब जारि आतमा भूत ॥6॥
ब्रह्मचर्य, सुरसती=सरस्वती (दसनामियों में ), खेवरा=
सेवड़ों का एक भेद)
मानसरोदक बरनौं काहा । भरा समुद अस अति अवगाहा ॥
पानि मोती अस निरमल तासू । अमृत आनि कपूर सुबासू ॥
लंकदीप कै सिला अनाई । बाँधा सरवर घाट बनाई ॥
खँड खँड सीढ़ी भईं गरेरी । उतरहिं चढ़हिं लोग चहुँ फेरी ॥
फूला कँवल रहा होइ राता । सहस सहस पखुरिन कर छाता ॥
उलथहिं सीफ , मोति उतराहीं । चुगहिं हंस औ केलि कराहीं ॥
खनि पतार पानी तहँ काढ़ा । छीरसमुद निकसा हुत बाढ़ा ॥
ऊपर पाल चहूँ दिसि अमृत-फल सब रूख ।
देखि रूप सरवर कै गै पियास औ भूख ॥7॥
किनारा,भीटा)
पानि भरै आवहिं पनिहारी । रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥
पदुमगंध तिन्ह अंग बसाहीं । भँवर लागि तिन्ह सँग फिराहीं ॥
लंक-सिंघिनी, सारँगनैनी । हंसगामिनी कोकिलबैनी ॥
आवहिं झुंड सो पाँतिहिं पाँती । गवन सोहाइ सु भाँतिहिं भाँती ॥
कनक कलस मुखचंद दिपाहीं । रहस केलि सन आवहिं जाहीं ॥
जा सहुँ वै हेरैं चख नारी ।बाँक नैन जनु हनहिं कटारी ॥
केस मेघावर सिर ता पाईं । चमकहिं दसन बीजु कै नाईं ॥
माथे कनक गागरी आवहिं रूप अनूप ।
जेहि के अस पनहारी सो रानी केहि रूप ॥8॥
ताल तलाव बरनि नहिं जाहीं । सूझै वार पार किछु नाहीं ॥
फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गगन महँ तारे ॥
उतरहिं मेघ चढ़हि लेइ पानी चमकहिं मच्छ बीजु कै बानी ॥
पौंरहि पंख सुसंगहिं संगा । सेत पीत राते बहु रंगा ॥
चकई चकवा केलि कराहीं । निसि के बिछोह, दिनहिं मिलि जाहीं ॥
कुररहिं सारस करहिं हुलासा । जीवन मरन सो एकहिं पासा ॥
बोलहिं सोन ढेक बगलेदी । रही अबोल मीन जल-भेदी ॥
नग अमोल तेहि तालहिं दिनहिं बरहिं जस दीप ।
जो मरजिया होइ तहँ सो पावै वह सीप ॥9॥
मरजिया=जान जोखिम में डालकर विकट स्थानों से व्यापार
की वस्तुएँ लानेवाले,जीवकिया,जैसे, गोता खोर)
आस-पास बहु अमृत बारी । फरीं अपूर होइ रखवारी ॥
नारग नीबू सुरँग जंभीरा । औ बदाम बहु भेद अँजीरा ॥
गलगल तुरज सदाफर फरे । नारँग अति राते रस भरे ॥
किसमिस सेव फरे नौ पाता । दारिउँ दाख देखि मन राता ॥
लागि सुहाई हरफारयोरी । उनै रही केरा कै घौरी ॥
फरे तूत कमरख औ न्योजी । रायकरौंदा बेर चिरौंजी ॥
संगतरा व छुहारा दीठे । और खजहजा खाटे मीठे ॥
पानि देहिं खँडवानी कुवहिं खाँड बहु मेलि ।
लागी घरी ग्हट कै सीचहिं अमृतबेल ॥10॥
पुनि फुलवारि लागि चहुँ पासा । बिरिछ बेधि चंदन भइ बासा ॥
बहुत फूल फूलीं घनबेली । केवड़ा चंपा कुंद चमेली ॥
सुरँग गुलाल कदम और कूजा । सुगँध बकौरी गंध्रब पूजा ॥
जाही जूही बगुचन लावा । पुहुप सुदरसन लाग सुहावा ॥
नागेसर सदबरग नेवारी । औ सिंगारहार फुलवारी ॥
सोनजरद फूलीं सेवती । रूपमंजरी और मालती ॥
मौलसिरी बेइलि औ करना । सबै फूल फूले बहुबरना ॥
तेहिं सिर फूल चढ़हिं वै जेहि माथे मनि-भाग ।
आछहिं सदा सुगंध बहु जनु बसंत औ फाग ॥11॥
होते हैं, घनबेली=बेला की एक जाति, नागेसर=नागकेसर,
बकौरी=बकावली, बगुचा=(गट्ठा) ढेर,राशि, सिंगार-हार=
हरिसिंगार,शेफालिका)
सिंगलनगर देखु पुनि बसा । धनि राजा अस जे कै दसा ॥
ऊँची पौरी ऊँच अवासा । जनु कैलास इंद्र कर वासा ॥
राव रंक सब घर घर सुखी । जो दीखै सौ हँसता-मुखी ॥
रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोतें अगर मेद औ गौरा ॥
सब चौपारहि चंदन खभा । ओंठँघि सभासद बैठे सभा ॥
मनहुँ सभा देवतन्ह कर जुरी । परी दीठि इंद्रासन पुरी ॥
सबै गुनी औ पंडित ज्ञाता । संसकिरित सबके मुख बाता ॥
अस कै मंदिर सँवारे जनु सिवलोक अनूप ।
घर घर नारि पदमिनी मोहहिं दरसन-रूप ॥12॥
पीठ टिकाकर)
पुनि देखी सिंघल फै हाटा । नवो निद्धि लछिमी सब बाटा ॥
कनक हाट सब कुहकुहँ लीपी । बैठ महाजन सिंघलदीपी ॥
रचहिं हथौड़ा रूपन ढारी । चित्र कटाव अनेक सवारी ॥
सोन रूप भल भयऊ पसारा । धवल सिरीं पोतहिं घर बारा ॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हीरा लाल सो अनबन जोती ॥
औ कपूर बेना कस्तूरी । चंदन अगर रहा भरपूरी ॥
जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा । ता कहँ आन हाट कित लाहा?॥
कोई करै बेसाहिनी, काहू केर बिकाइ ।
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गवाइ ॥13॥
बेना=खस वा गंधबेन, बेसाहनी=खरीद)
पुनि सिंगारहाट भल देसा । किए सिंगार बैठीं तहँ बेसा ॥
मुख तमोल तन चीर कुसुंभी । कानन कनक जड़ाऊ खुंभी ॥
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं । नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं ॥
भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी । मारहिं बान सान सौं फेरी ॥
अलक कपोल डोल हँसि देहीं । लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं ॥
कुच कंचुक जानौ जुग सारी । अंचल देहिं सुभावहिं ढारी ॥
केत खिलार हारि तेहि पासा । हाथ झारि उठि चलहिं निरासा ॥
चेटक लाइ हरहिं मन जब लहि होइ गथ फेंट ।
साँठ नाठि उटि भए बटाऊ, ना पहिचान न भेंट ॥14॥
लौंग या कील, सारी=सारि,पासा, गथ=पूँजी)
लेइ के फूल बैठि फुलहारी । पान अपूरब धरे सँवारी ॥
सोंधा सबै बैठ ले गाँधी । फूल कपूर खिरौरी बाँधी ॥
कतहूँ पंडित पढ़हिं पुरानू । धरमपंथ कर करहिं बखानू ॥
कतहूँ कथा कहै किछु कोई । कतहूँ नाच-कूद भल होई ॥
कतहुँ चिरहँटा पंखी लावा । कतहूँ पखंडी काठ नचावा ॥
कतहूँ नाद सबद होइ भला । कतहूँ नाटक चेटक-कला ॥
कतहुँ काहु ठगविद्या लाई । कतहुँ लेहिं मानुष बौराई ॥
चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच ।
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच ॥15॥
खिरौरी=केवड़ा देकर बाँधी हुई या कत्थे की टिकिया, चिरहँटा=
बहेलिया, पखंडी=कठपुतलीवाला)
पुनि आए सिंघल गढ़ पासा । का बरनौं जनु लाग अकासा ॥
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी । ऊपर इंद्र लोक पर दीठी ॥
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका । काँपै जाँघ, जाइ नहिं झाँका ॥
अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो सपत-पतारहिं जाई ॥
नव पौरी बाँकी, नवखंडा । नवौ जो चढ़े जाइ बरम्हंडा ॥
कंचन कोट जरे नग सीसा । नखतहिं भरी बीजु जनु दीसा ॥
लंका चाहि ऊँच गढ़ ताका । निरखि न जाइ, दीठि तन थाका ॥
हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ़ सुमेर ।
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर ॥16॥
निति गढ़ बाँचि चलै ससि सूरू । नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू ॥
पौरी नवौ बज्र कै साजी । सहस सहस तहँ बैठे पाजी ॥
फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी । काँपै पावैं चपत वह पौरी ॥
पौरहि पौरि सिंह गढ़ि काढ़े । डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढ़े ॥
बहुबिधान वै नाहर गढ़े । जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढ़े ॥
टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा । कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा ॥
कनक सिला गढ़ि सीढ़ी लाई । जगमगाहि गढ़ ऊपर ताइ ॥
नवौं खंड नव पौरी , औ तहँ बज्र-केवार ।
चारि बसेरे सौं चढ़ै, सत सौं उतरे पार ॥17॥
गरज कर लिया)
नव पौरी पर दसवँ दुवारा । तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥
घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥
परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा?॥
तुम्ह तेहि चाक चढ़े हौ काँचे । आएहु रहै न थिर होइ बाँचे ॥
घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ । का निचिंत होइ सोउ बटाऊ?॥
पहरहिं पहर गजर निति होई । हिया बजर, मन जाग न सोई ॥
मुहमद जीवन-जल भरन, रहँट-घरी कै रीति ।
घरी जो आई ज्यों भरी , ढरी,जनम गा बीति ॥18॥
गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी । पनिहारी जैसे दुरपदी ॥
और कुंड एक मोतीचूरू । पानी अमृत, कीच कपूरु ॥
ओहि क पानि राजा पै पीया । बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया ॥
कंचन-बिरछि एक तेहि पासा । जस कलपतरु इंद्र-कविलासा ॥
मूल पतार, सरग ओहि साखा । अमरबेलि को पाव, को चाखा?॥
चाँद पात औ फूल तराईं । होइ उजियार नगर जहँ ताई ॥
वह फल पावै तप करि कोई । बिरधि खाइ तौ जोबन होई ॥
राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग ।
जेइ पावा सो अमर भा, ना किछु व्याधि न रोग ॥19॥
घड़ी पूरी हुई (पुराने समय में समय जानने के लिये पानी भरी
नाँद में एक घड़िया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा
दिया जाता था । जब पानी भर जाने पर घड़िया डूब जाती
थी तब एक घड़ी का बीतना माना जाता था)
गढ़ पर बसहिं झारि गढ़पती । असुपति, गजपति, भू-नर-पती ॥
सब धौराहर सोने साजा । अपने अपने घर सब राजा ॥
रूपवंत धनवंत सभागे । परस पखान पौरि तिन्ह लागे ॥
भोग-विलास सदा सब माना । दुख चिंता कोइ जनम न जाना ॥
मँदिर मँदिर सब के चौपारी । बैठि कुँवर सब खेलहिं सारी ॥
पासा ढरहिं खेल भल होई । खड़गदान सरि पूज न कोई ॥
भाँट बरनि कहि कीरति भली । पावहिं हस्ति घोड़ सिंघली ॥
मँदिर मँदिर फुलवारी, चोवा चंदन बास ।
निसि दिन रहै बसंत तहँ छवौ ऋतु बारह मास ॥20॥
झारि=बिल्कुल या समूह, सरि पूज=बराबरी को
पहुँचता है, खड़गदान=तलवार चलाना)
पुनि चलि देखा राज-दुआरा । मानुष फिरहिं पाइ नहिं बारा ॥
हस्ति सिंघली बाँधे बारा । जनु सजीव सब ठाढ़ पहारा ॥
कौनौ सेत, पीत रतनारे । कौनौं हरे, धूम औ कारे ॥
बरनहिं बरन गगन जस मेघा । औ तिन्ह गगन पीठी जनु ठेघा ॥
सिंघल के बरनौं सिंघली । एक एक चाहि एक एक बली ॥
गिरि पहार वै पैगहि पेलहिं । बिरिछ उचारि डारि मुख मेलहिं ॥
माते तेइ सब गरजहिं बाँधे । निसि दिन रहहिं महाउत काँधे ॥
धरती भार न अगवै, पाँव धरत उठ हालि ।
कुरुम टुटै, भुइँ फाटै तिन हस्तिन के चालि ॥21॥
पुनि बाँधे रजबार तुरंगा । का बरनौं जस उन्हकै रंगा ॥
लील, समंद चाल जग जाने । हाँसुल, भौंर, गियाह बखाने ॥
हरे, कुरंग, महुअ बहु भाँती । गरर, कोकाह, बुलाह सु पाँती ॥
तीख तुखार चाँड औ बाँके । सँचरहिं पौरि ताज बिनु हाँके ॥
मन तें अगमन डोलहिं बागा । लेत उसास गगन सिर लागा ॥
पौन-समान समुद पर धावहिं । बूड़ न पाँव, पार होइ आवहिं ॥
थिर न रहहिं, रिस लोह चबाहीं । भाँजहिं पूँछ, सीस उपराहीं ॥
अस तुखार सब देखे जनु मन के रथवाह ।
नैन-पलक पहुँचावहिं जहँ पहुँचा कोइ चाह ॥22॥
कुम्मैत हिनाई,मेहँदी के रंग का और पैर कुछ काले,
भौंर=मुश्की, कियाह=ताड़ के पके फल के रंग का, हरे=
सब्जा, कुरंग=लाख के रंग का या नीला कुम्मेत, महुअ=
महुए के रंग का, गरर=लाल और सफेद मिले रोएँ का,
गर्रा, कोकाह=सफेद रंग का, बुलाह=बुल्लाह,गर्दन और
पूँछ के बाल पीले, ताजा=ताजियाना,चाबुक, अगमन=
आगे, तुखार=तुषार देश के घोड़े, यहाँ घोड़े)
राजसभा पुनि देख बईठी । इंद्रसभा जनु परि गै डीठी ॥
धनि राजा असि सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलवारी ॥
मुकुट बाँधि सब बैठे राजा । दर निसान नित जिन्हके बाजा ॥
रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा । माथे छात, बैठ सब पाटा ॥
मानहुँ कँवल सरोवर फूले । सभा क रूप देखि मन भूले ॥
पान कपूर मेद कस्तूरी । सुगँध बास भरि रही अपूरी ॥
माँझ ऊँच इंद्रासन साजा । गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा ॥
छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप ।
सभा कँवल अस बिगसै, माथे बड़ परताप ॥23॥
तवै=तपता है)
साजा राजमंदिर कैलासू । सोने कर सब धरति अकासू ॥
सात खंड धौराहर साजा । उहै सँवारि सकै अस राजा ॥
हीरा ईंट, कपूर गिलावा । औ नग लाइ सरग लै लावा ॥
जावत सबै उरेह उरेहे । भाँति भाँति नग लाग उबेहे ॥
भाव कटाव सब अनबत भाँती । चित्र कोरि कै पाँतिहिं पाँती ॥
लाग खंभ-मनि-मानिक जरे । निसि दिन रहहिं दीप जनु बरे ॥
देखि धौरहर कर उँजियारा । छपि गए चाँद सुरुज औ तारा ॥
सुना सात बैकुंठ जस तस साजे खँड सात ।
बेहर बेहर भाव तस खंड खंड उपरात ॥24॥
बेहर बेहर=अलग अलग)
वरनों राजमंदिर रनिवासू । जनु अछरीन्ह भरा कविलासू ॥
सोरह सहस पदमिनी रानी । एक एक तें रूप बखानी ॥
अतिसुरूप औ अति सुकुवाँरी । पान फूल के रहहिं अधारी ॥
तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट-परधानी ॥
पाट बैठि रह किए सिंगारू । सब रानी ओहि करहिं जोहारू ॥
निति नौरंग सुरंगम सोई । प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई ॥
सकल दीप महँ जेती रानी । तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी ॥
कुँवर बतीसो-लच्छनी अस सब माँ अनूप ।
जावत सिंघलदीप के सबै बखानैं रूप ॥25॥
3. जन्म-खंड
चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी ॥
भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी ॥
सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ ॥
प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई ॥
पुनि वह जोति मातु-घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई ॥
जस अवधान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू ॥
जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया ॥
सोने मँदिर सँवारहिं औ चंदन सब लीप ।
दिया जो मनि सिवलोक महँ उपना सिंघलदीप ॥1॥
भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी ॥
जानौ सूर किरिन-हुति काढ़ी । सुरुज-कला घाटि, वह बाढ़ी ॥
भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कविलासू ॥
इते रूप मूरति परगटी । पूनौ ससी छीन होइ घटी ॥
घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाड़ि भुइँ गई ॥
पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधि निरमई ॥
पदुमगंध बेधा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा ॥
इते रूप भै कन्या जेहिं सरि पूज न कोइ ।
धनि सो देस रुपवंता जहाँ जन्म अस होइ ॥2॥
लगाता हुआ, रतन=राजा रतनसेन की ओर लक्ष्य है,
निरमरा=निर्मल, जमबारू=यमद्वार)
भै छठि राति छठीं सुख मानी । रइस कूद सौं रैनि बिहानी ॥
भा विहान पंडित सब आए । काढ़ि पुरान जनम अरथाए ॥
उत्तिम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भूइँ, दिपा अकासू ॥
कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया ॥
सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा ॥
तेहि तें अधिक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा ॥
सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू ॥
राम अजुध्या ऊपने लछन बतीसो संग ।
रावन रूप सौं भूलिहि दीपक जैस पतंग ॥3॥
कहेन्हि जनमपत्री जो लिखी । देइ असीस बहुरे जोतिषी ॥
पाँच बरस महँ भय सो बारी । कीन्ह पुरान पढ़ै बैसारी ॥
भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी ॥
सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरुप दई औतारी ॥
एक पदमिनी औ पंडित पढ़ी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढ़ी ॥
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढ़ी औ लोनी ॥
सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं ॥
राजा कहै गरब कै अहौं इंद्र सिवलोक ।
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक ॥4॥
कोंई=कुमुदिनी)
बारह बरस माहँ भै रानी । राजै सुना सँजोग सयानी ॥
सात खंड धौराहर तासू । सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू ॥
औ दीन्ही सँग सखी सहेली । जो सँग करैं रहसि रस-केली ॥
सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगीस कोईं ॥
सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ ॥
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती ॥
कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना ॥
रहहिं एक सँग दोउ, पढ़हिं सासतर वेद ।
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद ॥5॥
भै उनंत पदमावति बारी । रचि रचि विधि सब कला सँवारी ॥
जग बेधा तेहि अंग-सुबासा । भँवर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
बेनी नाग मलयागिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी ॥
भौंह धनुक साधे सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै ॥
नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा ॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक-गँभीरा ॥
केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धारे ॥
जग कोइ दीठि न आवै आछहि नैन अकास ।
जोगि जती संन्यासी तप साधहि तेहि आस ॥6॥
एक दिवस पदमावति रानी । हीरामन तइँ कहा सयानी ॥
सुनु हीरामन कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई ॥
पिता हमार न चालै बाता । त्रसहि बोलि सकै नहिं माता ॥
देस देस के बर मोहि आवहिं । पिता हमार न आँख लगावहिं ॥
जोबन मोर भयउ जस गंगा । देइ देइ हम्ह लाग अनंगा ॥
हीरामन तब कहा बुझाई । विधि कर लिखा मेटि नहिं जाई ॥
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा ॥
जौ लगि मैं फिरि आवौं मन चित धरहु निवारि ।
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि ॥7॥
राजन सुना दीठी भै आना । बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना ॥
भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ ॥
सत्रु सुआ के नाऊ बारी । सुनि धाए जस धाव मँजारी ॥
तब लगि रानी सुआ छपावा । जब लगि ब्याध न आवै पावा ॥
पिता क आयसु माथे मोरे । कहहु जाय विनवौ कर जोरे ॥
पंखि न कोई होइ सुजानू । जानै भृगुति कि जान उड़ानू ॥
सुआ जो पढ़ै पढ़ाए बैना । तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना ॥
मानिक मोती देखि वह हिये न ज्ञान करेइ ।
दारिउँ दाख जानि कै अवहिं ठोर भरि लेइ ॥8॥
वै तौ फिरे उतर अस पावा । बिनवा सुआ हिये डर खावा ॥
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ । होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ ॥
मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला? ॥
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा?॥
जेहि घर काल-मजारी नाचा । पंखहि पाउँ जीउ नहिं बाँचा ॥
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा ॥
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा ॥
मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस ।
केरा केलि करै का जौं भा बैरि परोस ॥9॥
उनंत=ओनंत,भार से झुकी (यौवन के), `बारी’ शब्द के
कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है)
रानी उतर दीन्ह कै माया । जौ जिउ जाउ रहै किमि काया? ॥
हीरामन! तू प्रान परेवा । धोख न लाग करत तोहिं सेवा ॥
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं । पींजर हिये घालि कै राखौं ॥
हौं मानुस, तू पंखि पियारा । धरन क प्रीति तहाँ केइ मारा? ॥
का सौ प्रीति तन माँह बिलाई?। सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई ॥
प्रीति मार लै हियै न सोचू । ओहि पंथ भल होइ कि पोचू ॥
प्रीति-पहार-भार जो काँधा । सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा ॥
सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव ।
सत्रु अहै जो करिया कबहुँ सो बोरे नाव ॥10॥
4. मानसरोदक-खंड
एक दिवस पून्यो तिथि आई । मानसरोदक चली नहाई ॥
पदमावति सब सखी बुलाई । जनु फुलवारि सबै चलि आई ॥
कोइ चंपा कोइ कुंद सहेली । कोइ सु केत, करना, रस बेली ॥
कोइ सु गुलाल सुदरसन राती । कोइ सो बकावरि-बकुचन भाँती ॥
कोइ सो मौलसिरि, पुहपावती । कोइ जाही जूही सेवती ॥
कोई सोनजरद कोइ केसर । कोइ सिंगार-हार नागेसर ॥
कोइ कूजा सदबर्ग चमेली । कोई कदम सुरस रस-बेली ॥
चलीं सबै मालति सँग फूलीं कवँल कुमोद ।
बेधि रहे गन गँधरब बास-परमदामोद ॥1॥
खेलत मानसरोवर गईं । जाइ पाल पर ठाढ़ी भईं ॥
देखि सरोवर हँसै कुलेली । पदमावति सौं कहहिं सहेली
ए रानी! मन देखु बिचारी । एहि नैहर रहना दिन चारी ॥
जौ लगि अहै पिता कर राजू । खेलि लेहु जो खेलहु आजु ॥
पुनि सासुर हम गवनब काली । कित हम, कित यह सरवर-पाली ॥
कित आवन पुनि अपने हाथा । कित मिलि कै खेलब एक साथा ॥
सासु ननद बोलिन्ह जिउ लेहीं । दारुन ससुर न निसरै देहीं ॥
पिउ पियार सिर ऊपर, पुनि सो करै दहुँ काह ।
दहुँ सुख राखै की दुख, दहुँ कस जनम निबाह ॥2॥
मिलहिं रहसि सब चढ़हिं हिंडोरी । झूलि लेहिं सुख बारी भोरी ॥
झूलि लेहु नैहर जब ताईं । फिरि नहिं झूलन देइहिं साईं ॥
पुनि सासुर लेइ राखहिं तहाँ । नैहर चाह न पाउब जहाँ ॥
कित यह धूप, कहाँ यह छाँहा । रहब सखी बिनु मंदिर माहाँ ॥
गुन पूछहि औ लाइहि दोखू । कौन उतर पाउब तहँ मोखू ॥
सासु ननद के भौंह सिकोरे । रहब सँकोचि दुवौ कर जोरे ॥
कित यह रहसि जो आउब करना । ससुरेइ अंत जनम भरना ॥
कित नैहर पुनि आउब, कित ससुरे यह खेल ।
आपु आपु कहँ होइहिं परब पंखि जस डेल ॥3॥
सरवर तीर पदमिनी आई । खोंपा छोरि केस मुकलाई ॥
ससि-मुख, अंग मलयगिरि बासा । नागिन झाँपि लीन्ह चहुँ पासा ॥
ओनई घटा परी जग छाँहा । ससि के सरन लीन्ह जनु राहाँ ॥
छपि गै दिनहिं भानु कै दसा । लेइ निसि नखत चाँद परगसा ॥
भूलि चकोर दीठि मुख लावा । मेघघटा महँ चंद देखावा ॥
दसन दामिनी, कोकिल भाखी । भौंहैं धनुख गगन लेइ राखी ॥
नैन -खँजन दुइ केलि करेहीं । कुच-नारँग मधुकर रस लेहीं ॥
सरवर रूप बिमोहा, हिये होलोरहि लेइ ।
पाँव छुवै मकु पावौं एहि मिस लहरहि देइ ॥4॥
मकु=कदाचित्)
धरी तीर सब कंचुकि सारी । सरवर महँ पैठीं सब बारी ॥
पाइ नीर जानौं सब बेली । हुलसहिं करहिं काम कै केली ॥
करिल केस बिसहर बिस-हरे । लहरैं लेहिं कवँल मुख धरे ॥
नवल बसंत सँवारी करी । होइ प्रगट जानहु रस-भरी ॥
उठी कोंप जस दारिवँ दाखा । भई उनंत पेम कै साखा ॥
सरवर नहिं समाइ संसारा । चाँद नहाइ पैट लेइ तारा ॥
धनि सो नीर ससि तरई ऊईं । अब कित दीठ कमल औ कूईं ॥
चकई बिछुरि पुकारै , कहाँ मिलौं, हो नाहँ ।
एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माँह ॥5॥
उनंत=झुकती हुई)
लागीं केलि करै मझ नीरा । हंस लजाइ बैठ ओहि तीरा ॥
पदमावति कौतुक कहँ राखी । तुम ससि होहु तराइन्ह साखी ॥
बाद मेलि कै खेल पसारा । हार देइ जो खेलत हारा ॥
सँवरिहि साँवरि, गोरिहि । आपनि लीन्ह सो जोरी ॥
बूझि खेल खेलहु एक साथा । हार न होइ पराए हाथा ॥
आजुहि खेल, बहुरि कित होई । खेल गए कित खेलै कोई?॥
धनि सो खेल खेल सह पेमा । रउताई औ कूसल खेमा? ॥
मुहमद बाजी पेम कै ज्यों भावै त्यों खेल ।
तिल फूलहि के सँग ज्यों होइ फुलायल तेल ॥6॥
रउताई=रावत या स्वामी होने का भाव,ठकुराई, फुलायल=
फुलेल)
सखी एक तेइ खेल ना जाना । भै अचेत मनि-हार गवाँना ॥
कवँल डार गहि भै बेकरारा । कासौं पुकारौं आपन हारा ॥
कित खेलै अइउँ एहि साथा । हार गँवाइ चलिउँ लेइ हाथा ॥
घर पैठत पूँछब यह हारू । कौन उतर पाउब पैसारू ॥
नैन सीप आँसू तस भरे । जानौ मोति गिरहिं सब ढरे ॥
सखिन कहा बौरी कोकिला । कौन पानि जेहि पौन न मिला? ॥
हार गँवाइ सो ऐसै रोवा । हेरि हेराइ लेइ जौं खौवा ॥
लागीं सब मिलि हेरै बूड़ि बूड़ि एक साथ ।
कोइ उठी मोती लेइ, काहू घोंघा हाथ ॥7॥
कहा मानसर चाह सो पाई । पारस-रूप इहाँ लगि आई ॥
भा निरमल तिन्ह पायँन्ह परसे । पावा रूप रूप के दरसे ॥
मलय-समीर बास तन आई । भा सीतल, गै तपनि बुझाई ॥
न जनौं कौन पौन लेइ आवा । पुन्य-दसा भै पाप गँवावा ॥
ततखन हार बेगि उतिराना । पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना ॥
बिगसा कुमुद देखि ससि-रेखा । भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा ॥
पावा रूप रूप जस चहा । ससि-मुख जनु दरपन होइ रहा ॥
नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर ।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर ॥8॥
5. सुआ-खंड
पदमावति तहँ खेल दुलारी । सुआ मँदिर महँ देखि मजारी ॥
कहेसि चलौं जौ लहि तन पाँखा । जिउ लै उड़ा ताकि बन ढाँखा ॥
जाइ परा बन खँड जिउ लीन्हें । मिले पँखि, बहु आदर कीन्हें ॥
आनि धरेन्हि आगे फरि साखा । भुगुति भेंट जौ लहि बिधि राखा ॥
पाइ भुगुति सुख तेहि मन भएऊ । दुख जो अहा बिसरि सब गएऊ ॥
ए गुसाइँ तूँ ऐस विधाता । जावत जीव सबन्ह भुकदाता ॥
पाहन महँ नहिं पतँग बिसारा । जहँ तोहि सुनिर दीन्ह तुइँ चारा ॥
तौ लहि सोग बिछोह कर भोजन परा न पेट ।
पुनि बिसरन भा सुमिरना जब संपति भै भेंट ॥1॥
पदमावति पहँ आइ भँडारी । कहेसि मँदिर महँ परी मजारी ॥
सुआ जो उत्तर देत रह पूछा । उडिगा, पिंजर न बोलै छूँछा ॥
रानी सुना सबहिं सुख गएऊ । जनु निसि परी, अस्त दिन भएऊ ॥
गहने गही चाँद कै करा । आँसु गगन जस नखतन्ह भरा ॥
टूट पाल सरवर बहि लागे । कवँल बूड़, मधुकर उड़ि भागे ॥
एहि विधि आँसु नखत होइ चूए । गगन छाँ सरवर महँ ऊए ॥
चिहुर चुईं मोतिन कै माला । अब सँकेतबाँधा चहुँ पाला ॥
उड़ि यह सुअटा कहँ बसा खोजु सखी सो बासु ।
दहुँ है धरती की सरग, पौन न पावै तासु ॥2॥
जौ लहि पींजर अहा परेवा । रहा बंदि महँ, कीन्हेसि सेवा ॥
तेहि बंदि हुति छुटै जो पावा । पुनि फिरि बंदि होइ कित आवा?॥
वै उड़ान-फर तहियै खाए । जब भा पँखी, पाँख तन आए ॥
पींजर जेहिक सौंपि तेहि गएउ । जो जाकर सो ताकर भएउ ॥
दस दुवार जेहि पींजर माँहा । कैसे बाँच मँजारी पाहाँ?॥
चहूँ पास समुझावहिं सखी । कहाँ सो अब पाउब, गा पँखी ॥
यह धरती अस केतन लीला । पेट गाढ़ अस, बहुरि न ढीला ॥
जहाँ न राति न दिवस है , जहाँ न पौन न पानि ।
तेहि बन सुअटा चलि बसा कौन मिलावै आनि ॥3॥
सुए तहाँ दिन दस कल काटी । आय बियाध ढुका लेइ टाटी ॥
पैग पैग भुईं चापत आवा । पंखिन्ह देखि हिए डर खावा ॥
देखिय किछु अचरज अनभला । तरिवर एक आवत है चला ॥
एहि बन रहत गई हम्ह आऊ । तरिवर चलत न देखा काऊ ॥
आज तो तरिवर चल, भल नाहीं । आवहु यह बन छाँड़ि पराहीं ॥
वै तौ उड़े और बन ताका । पंडित सुआ भूलि मन थाका ॥
साखा देखि राजु जनु पावा । बैठ निचिंत चला वह आवा ॥
पाँच बान कर खोंचा, लासा भरे सो पाँच ।
पाँख भरे तन अरुझा, कित मारे बिनु बाँच ॥4॥
चिड़िया फँसाने का बाँस)
बँधिगा सुआ करत सुख केली । चूरि पाँख मेलेसि धरि डेली ॥
तहवाँ बहुत पंखि खरभरहीं । आपु आपु महँ रोदन करही ॥
बिखदाना कित होत अँगूरा । जेहि भा मरन डह्न धरि चूरा ॥
जौं न होत चारा कै आसा । कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा?॥
यह बिष चअरै सब बुधि ठगी । औ भा काल हाथ लेइ लगी ॥
एहि झूठी माया मन भूला । ज्यों पंखी तैसे तन फूला ॥
यह मन कठिन मरै नहिं मारा । काल न देख, देख पै चारा ॥
हम तौ बुद्धि गँवावा विष-चारा अस खाइ ।
तै सुअटा पंडित होइ कैसे बाझा आइ?॥5॥
ढुकत=छिपाता, लगी=लग्गी,बाँस की छड़, फूला=हर्ष
और गर्व से इतराया, अँगूरा=अंकुर)
सुए कहा हमहूँ अस भूले । टूट हिंडोल-गरब जेहि भूले ॥
केरा के बन लीन्ह बसेरा परा साथ तहँ बैरी केरा ॥
सुख कुरबारि फरहरी खाना । ओहु विष भा जब व्याध तुलाना ॥
काहेक भोग बिरिछ अस फरा । आड़ लाइ पंखिन्ह कहँ धरा?॥
सुखी निचिंत जोरि धन करना । यह न चिंत आगे है मरना ॥
भूले हमहुँ गरब तेहि माहाँ । सो बिसरा पावा जेहि पाहाँ ॥
होइ निचिंत बैठे तेहि आड़ा । तब जाना खोंचा हिए गाड़ा ॥
चरत न खुरुक कीन्ह जिउ, तब रे चरा सुख सोइ ।
अब जो पाँद परा गिउ, तब रोए का होइ? ॥6॥
आ पहुँचा, जेहि पाहाँ=जिस (ईश्वर) से, गिउ=ग्रीवा,गला)
सुनि कै उतन आँसु पुनि पोंछे । कौन पंखि बाँधा बुधि -ओछे ॥
पंखिन्ह जौ बुधि होइ उजारी । पढ़ा सुआ कित धरै मजारी?॥
कित तीतिर बन जीभ उघेला । सो कित हँकरि फाँद गिउ मेला ॥
तादिन व्याध भए जिउलेवा । उठे पाँख भा नावँ परेवा ॥
भै बियाधि तिसना सँग खाधू । सूझै भुगुति, न सूझ बियाधू ॥
हमहिं लोभवै मेला चारा । हमहिं गर्बवै चाहै मारा ॥
हम निचिंत वह आव छिपाना । कौन बियाधहि दोष अपाना ॥
सो औगुन कित कीजिए जिउ दीजै जेहि काज ।
अब कहना है किछु नहीं, मस्ट भली, पखिराज ॥7॥
6. रत्नसेन-जन्म-खंड
चित्रसेन चितउर गढ़ राजा । कै गढ़ कोट चित्र सम साजा ॥
तेहि कुल रतनसेन उजियारा । धनि जननी जनमा अस बारा ॥
पंडित गुनि सामुद्रिक देखा । देखि रूप औ लखन बिसेखा ॥
रतनसेन यह कुल-निरमरा । रतन-जोति मन माथे परा ॥
पदुम पदारथ लिखी सो जोरी । चाँद सुरुज जस होइ अँजोरी ॥
जस मालति कहँ भौंर वियोघी । तस ओहि लागि होइ यह जोगी ।
सिंघलदीप जाइ यह पावै । सिद्ध होइ चितउर लेइ आवै ॥
मोग भोज जस माना, विक्रम साका कीन्ह ।
परखि सो रतन पारखी सबै लखन लिखि दीन्ह ॥1॥
लखन=लक्षण)
7. बनिजारा-खंड
चितउरगढ़ कर एक बनिजारा । सिंघलदीप चला बैपारा ॥
बाम्हन हुत निपट भिखारी । सो पुनि चलत बैपारी ॥
ऋन काहू सन लीन्हेसि काढ़ी । मकु तहँ गए होइ किछु बाढ़ी ॥
मारग कठिन बहुत दुख भएऊ । नाँघि समुद्र दीप ओहि गएऊ ॥
देखि हाट किछु सूझ न ओरा । सबै बहुत, किछु दीख न थोरा ॥
पै सुठि ऊँच बनिज तहँ केरा । धनी पाव, निधनी मुख हेरा ॥
लाख करोरिन्ह बस्तु बिकाई । सहसन केरि न कोउ ओनाई ॥
सबहीं लीन्ह बेसाहना औ घर कीन्ह बहोर ।
बाम्हन तहवाँ लेइ का? गाँठि साँठि सिठि थोर ॥1॥
चाहे,जैसे, बहोर=लौटना, साँठि=पूँजी,धन, सुठि=खूब)
झूरै ठाढ़ हौं, काहे क आवा? बनिज न मिला, रहा पछितावा ॥
लाभ जानि आएउँ एहि हाटा । मूर गँवाइ चलेउँ तेहि बाटा ॥
का मैं मरन-सिखावन सिखी । आएउँ मरै, मीचु हति लिखी ॥
अपने चलत सो कीन्ह कुबानी । लाभ न देख, मूर भै हानी ॥
का मैं बोआ जनम ओहि भूँजी? । खोइ चलेउँ घरहू कै पूँजी ॥
जेहि व्योहरिया कर व्यौहारू । का लेइ देव जौ छेंकिहि बारू ॥
घर कैसे पैठब मैं छूछे । कौन उततर देबौं तेहि पूछे ॥
साथि चले, सँग बीछुरा, भए बिच समुद पहार ।
आस-निरासा हौं फिरौं, तू बिधि देहि अधार ॥2॥
भूँजि=बोआ भुनकर, भूनकर बोने से बीज नहीं जमता)
तबहिं व्याध सुआ लेइ आवा । कंचन-बरन अनूप सुहावा ॥
बेंचै लाग हाट लै ओही । मोल रतन मानिक जहँ होहीं ॥
सुअहिं को पूछ? पतंग-मँडारे । चल न, दीख आछै मन मारे ॥
बाम्हन आइ सुआ सौं पूछा । दहुँ, गुनवंत, कि निरगुन छूछा?॥
कहु परबत्ते! गुन तोहि पाहाँ । गुन न छपाइय हिरदय माहाँ ॥
हम तुम जाति बराम्हन दोऊ । जातिहि जाति पूछ सब कोऊ ॥
पंडित हौ तौ सुनावहु वेदू । बिनु पूछे पाइय नहिं भेदू ॥
हौं बाम्हन औ पंडित, कहु आपन गुन सोइ ।
पढ़े के आगे जो पढ़ै दून लाभ तेहि होइ ॥3॥
तब गुन मोहि अहा, हो देवा!। जब पिंजर हुत छूट परेवा ॥
अब गुन कौन जो बँद, जजमाना । घालि मँजूसा बेचै आना ॥
पंडित होइ सो हाट न चढ़ा । चहौं बिकाय, भूलि गा पढ़ा ॥
दुइ मारग देखौं यहि हाटा । दई चलावै दहुँ केहि बाटा ॥
रोवत रकत भएउ मुख राता । तन भा पियर कहौं का बाता?॥
राते स्याम कंठ दुइ गीवाँ । तेहिं दइ फंद डरौं सुठि जीवा ॥
अब हौं कंठ फंद दुइ चीन्हा । दहुँ ए चाह का कीन्हा?॥
पढ़ी गुन देखा बहुत मैं, है आगे डर सोइ ।
धुंध जगत सब जानि कै भूलि रहा बुधि खोइ ॥4॥
के गले पर होती है, धुंध=अंधकार, परमँस=दूसरे का
माँस, खाधू=खानेवाला)
सुनि बाम्हन बिनवा चिरिहारू । करि पंखिन्ह कहँ मया न मारू ॥
निठुर होइ जिउ बधसि परावा । हत्या केर न तोहि डर आवा ॥
कहसि पंखि का दोस जनावा । निठुर तेइ जे परमँस खावा ॥
आवहिं रोइ, जात पुनि रोना । तबहुँ न तजहिं भोग सुख सोना ॥
औ जानहिं तन होइहि नासू । पोखैं माँसु पराये माँसू ॥
जौ न होंहिं अस परमँस-खाधू ।कित पंखिन्ह कहँ धरै बियाधू?॥
जो व्याधा नित पंखिन्ह धरई । सो बेचत मन लोभ न करई ॥
बाम्हन सुआ वेसाहा सुनि मति बेद गरंथ ।
मिला आइ कै साथिन्ह, भा चितउर के पंथ ॥5॥
तब लगि चित्रसेन सर साजा । रतनसेन चितउर भा राजा ॥
आइ बात तेहि आगे चली । राजा बनिज आए सिंघली ॥
हैं गजमोति भरी सब सीपी । और वस्तु बहु सिंघल दीपी ॥
बाम्हन एक सुआ लेइ आवा । कंचन-बरन अनूप सोहावा ॥
राते स्याम कंठ दुइ काँठा । राते डहन लिखा सब पाठा ॥
औ दुइ नयन सुहावन राता । राते ठोर अमी-रस बाता ॥
मस्तक टीका, काँध जनेऊ । कवि बियास, पंडित सहदेऊ ॥
बोल अरथ सौं बोलै, सुनत सीस सब डोल ।
राज-मंदिर महँ चाहिय अस वह सुआ अमोल ॥6॥
भै रजाइ जन दस दौराए । बाम्हन सुआ बेगि लेइ आए ॥
बिप्र असीस बिनति औधारा । सुआ जीउ नहिं करौं निनारा ॥
मैं यह पेट महा बिसवासी । जेइ सब नाव तपा सन्यासी ॥
डासन सेज जहाँ किछु नाहीं । भुइँ परि रहै लाइ गिउ बाही ॥
आँधर रहे , जो देख न नैना । गूँग रहै, मुख आव न बैना ॥
बहिर रहै, जो स्रवन न सुना । पै यह पेट न रह निरगुना ॥
कै कै फेरा निति यह दोखी । बारहिं बार फिरै, न सँतोखी ॥
सो मोहिं लेइ मँगावै लावै भूख पियास ।
जौ न होत अस बैरी केहु कै आस ॥7॥
न रह निरगुना=अपने गुण या क्रिया के बिना नहीं रहता,
बारहिं बार=द्वार-द्वार)
सुआ असीस दीन्ह बड़ साजू । बड़ परताप अखंडित राजू ।
भागवंत बिधि बड़ औतारा । जहाँ भाग तहँ रूप जोहारा ॥
कोइ केहु पास आस कै गौना । जो निरास डिढ़ आसन मौना ॥
कोइ बिनु पूछे बोल जो बोला । होइ बोल माटी के मोला ॥
पढ़ि गुनि जानि वेद-मति भेऊ । पूछे बात कहैं सहदेऊ ॥
गुनी न कोई आपु सराहा । जो बिकाइ, गुन कहा सो चाहा ॥
जौ लगि गुन परगट नहिं होई । तौ लहि मरम न जानै कोई ॥
चतुरवेद हौं पंडित, हीरामन मोहिं नावँ ।
पदमावति सौं मेरवौं, सेव करौं तेहि ठावँ ॥8॥
रतनसेन हीरामन चीन्हा । एक लाख बाम्हन कहँ दीन्हा ॥
बिप्र असीसि जो कीन्ह पयाना । सुआ सो राजमंदिर महँ आना ॥
बरनौं काह सुआ कै भाखा । धनि सो नावँ हीरामन राखा ॥
जो बोलै राजा मुख जोवा । जानौ मोतिन हार परोवा ॥
जौ बोलै तौ मानिक मूँगा । नाहिं त मौन बाँध रह गूँगा ॥
मनहुँ मारि मुख अमृत मेला । गुरु होइ आप, कीन्ह जग चेला ॥
सुरुज चअँद कै कथा जो कहेऊ । पेम क कहनि लाइ गहेऊ ॥
जौ जौ सुनै धुनै सिर, राजहिं प्रीति अगाहु ।
अस, गुनवंता नाहिं भल, बाउर करिहै काहु ॥9॥
8. नागमती-सुवा-संवाद-खंड
दिन दस पाँच तहाँ जो भए । राजा कतहुँ अहेरै गए ॥
नागमती रूपवंती रानी । सब रनिवास पाट-परधानी ॥
कै सिंगार कर दरपन लीन्हा । दरसन देखि गरब जिउ कीन्हा ॥
बोलहु सुआ पियारे-नाहाँ । मोरे रूप कोइ जग माहाँ?॥
हँसत सुआ पहँ आइ सो नारी । दीन्ह कसौटी ओपनिवारी ॥
सुआ बानि कसि कहु कस सोना । सिंघलदीप तोर कस लोना?॥
कौन रुप तोरी रुपमनी । दहुँ हौं लोनि, कि वै पदमिनी?॥
जो न कहसि सत सुअटा तेहि राजा कै आन ।
है कोई एहि जगत महँ मोरे रूप समान ॥1॥
पर कसकर, लोनी=लावण्यमयी,सुंदरी, आन=शपथ,कसम)
सुमिरि रूप पदमावति केरा । हँसा सुआ, रानी मुख हेरा ॥
जेहि सरवर महँ हंस न आवा । बगुला तेहि सरस हंस कहावा ॥
दई कीन्ह अस जगत अनूपा । एक एक तें आगरि रूपा ॥
कै मन गरब न छाजा काहू । चाँद घटा औ लागेउ राहू ॥
लोनि बिलोनि तहाँ को कहै । लोनी सोई कंत जेहि चहै ॥
का पूछहु सिंघल कै नारी । दिनहिं न पूजै निसि अँधियारी ॥
पुहुप सुवास सो तिन्ह कै काया । जहाँ माथ का बरनौं पाया?॥
गढ़ी सो सोने सोंधे, भरी सो रूपै भाग ।
सुनत रूखि भइ रानी, हिये लोन अस लाग ॥2॥
जौ यह सुआ मँदिर महँ अहई । कबहुँ बात राजा सौं कहई ॥
सुनि राजा पुनि होइ वियोगी । छाँड़ै राज, चलै होइ जोगी ॥
बिख राखिय नहिं, होइ अँकूरू । सबद न देइ भोर तमचूरू ॥
धाय दामिनी बेगि हँकारी । ओहि सौंपा हीये रिस भारी ॥
देखु सुआ यह है मँदचाला । भएउ न ताकर जाकर पाला ॥
मुख कह आन, पेट बस आना । तेहि औगुन दस हाट बिकाना ॥
पंखि न राखिय होइ कुभाखी । लेइ तहँ मारू जहाँ नहिं साखी ॥
जेहि दिन कहँ मैं डरति हौं, रैनि छपावौं सूर ।
लै चह-दीन्ह कवँल कहँ, मोकहँ होइ मयूर ॥3॥
का नाम, मयूर=मोर,मोर नाग का शत्रु है, नागमती के
वाक्य से शुक के शत्रु होने की ध्वनि निकलती है,
`कमल’ में पद्मावती की ध्वनि है)
धाय सुआ लेइ मारै गई । समुझि गियान हिये मति भई ॥
सुआ सो राजा कर बिसरामी । मारि न जाइ चहै जेहि स्वामी ॥
यह पंडित खंडित बैरागू । दोष ताहि जेहि सूझ न आगू ॥
जो तिरिया के काज न जाना । परै धोख, पाछे पछिताना ॥
नागमति नागिनि-बुधि ताऊ । सुआ मयूर होइ नहिं काऊ ॥
जौ न कंत के आयसु माहीं । कौन भरोस नारि कै वाही?॥
मकु यह खोज निसि आए । तुरय-रोग हरि-माथे जाए ॥
दुइ सो छपाए ना छपै एक हत्या एक पाप ।
अंतहि करहिं बिनास लेइ, सेइ साखी देइँ आप ॥4॥
में चूक गया,इससे तोते का जन्म पाया, काऊ=कभी,
मकु=शायद,कदाचित, तुरय=तुरग,घोड़ा, ताऊ=उसकी,
हरि=बंदर, तुरय…जाए=कहते हैं कि घुड़साल में बंदर
रखने से घोड़े नीरोग रहते हैं, उनका रोग बंदर पर
जाता है, सेइ=वे ही,हत्या और पाप ही)
राखा सुआ, धाय मति साजा । भएउ कौज निसि आएउ राजा ॥
रानी उतर मान सौं दीन्हा । पंडित सुआ मजारी लीन्हा ॥
मैं पूछा सिंघल पदमिनी । उतर दीन्ह तुम्ह, को नागिनी?॥
वह जस दिन, तुम निसि अँधियारी । कहाँ बसंत; करील क बारी ॥
का तोर पुरुष रैनि कर राऊ । उलू न जान दिवस कर भाऊ ॥
का वह पंखि कूट मुँह कूटे । अस बड़ बोल जीभ मुख छोटे ॥
जहर चुवै जो जो कह बाता । अस हतियार लिए मुख राता ॥
माथे नहिं बैसारिय जौ सुठि सुआ सलोन ।
कान टुटैं जेहि पहिरे का लेइ करब सो सोन?॥5॥
बैसारिये=बैठाइए)
राजै सुनि वियोग तस माना । जैसे हिय विक्रम पछिताना ॥
बह हीरामन पंडित सूआ । जो बोलै मुख अमृत चूआ ॥
पंडित तुम्ह खंडित निरदोखा । पंडित हुतें परै नहिं धोखा ॥
पंडित केरि जीभ मुख सूधी । पंडित बात न कहै बिरूधी ॥
पंडित सुमति देइ पथ लावा । जो कुपंथि तेहि पँडित न भावा ॥
पंडित राता बदन सरेखा । जो हत्यार रुहिर सो देखा ॥
की परान घट आनहु मती। की चलि होहु सुआ सँग सती ॥
जिनि जानहु कै औगुन मँदिर सोइ सुखराज ।
आयसु मेटें कंत कर काकर भा न अकाज?॥6॥
चतुर, मती=विचार करके)
चाँद जैस धनि उजियारि अही । भा पिउ-रोस, गहन अस गही ॥
परम सोहाग निबाहि न पारी । भा दोहाग सेवा जब हारी ॥
एतनिक दोस बिरचि पिउ रूठा । जो पिउ आपन कहै सो झूठा ॥
ऐसे गरब न भूलै कोई । जेहि डर बहुत पियारी सोई ॥
रानी आइ धाय के पासा । सुआ मुआ सेवँर कै आसा ॥
परा प्रीति-कंचन महँ सीसा । बिहरि न मिलै, स्याम पै दीसा ॥
कहाँ सोनार पास जेहि जाऊँ । देइ सोहाग करै एक ठाऊँ ॥
मैं पिउ -प्रीति भरोसे गरब कीन्ह जिउ माँह ।
तेहि रिस हौं परहेली, रूसेउ नागर नाहँ ॥7॥
(क) सौभाग्य, (ख) सोहागा दे, परहेली=अवहेलना की,
बेपरवाही की)
उतर धाय तब दीन्ह रिसाई । रिस आपुहि, बुधि औरहि खाई ॥
मैं जो कहा रिस जिनि करु बाला । को न गयउ एहि रिस कर घाला?॥
तू रिसभरी न देखेसि आगू । रिस महँ काकर भयउ सोहागू?॥
जेहि रिस तेहि रस जोगे न जाई । बिनु रस हरदि होइ पियराई ॥
बिरसि बिरोध रिसहि पै होई । रिस मारै, तेहि मार न कोई ॥
जेहि रिस कै मरिए, रस जीजै । सो रस तजि रिस कबहुँ न कीजै ॥
कंत-सोहाग कि पाइय साधा । पावै सोइ जो ओहि चित बाँधा ॥
रहै जो पिय के आयसु औ बरतै होइ हीन ।
सोइ चाँद अस निरमल, जनम न होइ मलीन ॥8॥
जाता, बिरस=अनबन, साधा=साध या लालसा मात्र से,
हीन=दीन,नम्र)
जुआ-हारि समुझी मन रानी । सुआ दीन्ह राजा कहुँ आनी ॥
मानु पीय! हौं गरब न कीन्हा । कंत तुम्हार मरम मैं लीन्हा ॥
सेवा करै जो बरहौ मासा । एतनिक औगुन करहु बिनासा ॥
जौं तुम्ह देइ नाइ कै गीवा । छाँड़हुँ नहिं बिनु मारे जीवा ॥
मिलतहु महँ जनु अहौ निनारे । तुम्ह सौं अहै अदेस, पियारे!॥
मैं जानेउँ तुम्ह मोही माहाँ । देखौं ताकि तौ हौ सब पाहाँ ॥
का रानी, का चेरी कोई । जा कहँ मया करहु भल सोई ॥
तुम्ह सौं कोइ न जीता, हारे बररुचि भोज ।
पहिलै आपु जो खोवै करै तुम्हार सो खोज ॥9॥
9. राजा-सुआ-संवाद-खंड
राजै कहा सत्य कहु सूआ । बिनु सत जन सेंवर कर भूआ ॥
होइ मुख रात सत्य के बाता । जहाँ सत्य तहँ धरम सँघाता ॥
बाँधी सिहिटि अहै सत केरी । लछिमी अहै सत्य कै चेरी ॥
सत्य जहाँ साहस सिधि पावा । औ सतबादी पुरुष कहावा ॥
सत कहँ सती सँवारे सरा । आगि लाइ चहुँ दिसि सत जरा ॥
दुइ जग तरा सत्य जेइ राखा । और पियार दइहि सत भाखा ॥
सो सत छाँड़ि जो धरम बिनासा । भा मतिहीन धरम करि नासा ॥
तुम्ह सयान औ पंडित, असत न भाखौं काउ ।
सत्य कहहु तुम मोसौं, दुहुँ काकर अनियाउ ॥1॥
सत्य कहत राजा जिउ जाऊ । पै मुख असत न भाखौं काऊ ॥
हौं सत लेइ निसरेउँ एहि बूते । सिंघलदीप राजघर हूँते ॥
पदमावति राजा कै बारी । पदुम-गंध ससि बिधि औतारी ॥
ससि मुख, अंग मलयगिरि रानी । कनक सुगंध दुआदस बानी ॥
अहैं जो पदमिनि सिंघल माहाँ । सुगँध रूप सब तिन्हकै छाहाँ ॥
हीरामन हौं तेहिक परेवा । कंठा फूट करत तेहि सेवा ॥
औ पाएउँ मानुष कै भाषा । नाहिं त पंखि मूठि भर पाँखा ॥
जौ लहि जिऔं रात दिन सँवरौं ओहि कर नावँ ।
मुख राता, तत हरियर दुहूँ जगत लेइ जावँ ॥2॥
गले में कंठे की लकीर प्रकट हुई,सयाना हुआ)
हीरामन जो कवँल बखाना । सुनि राजा होइ भँवर भुलाना ॥
आगे आव, पंखि उजियारा । कहँ सो दीप पतँग कै मारा ॥
अहा जो कनक सुबासित ठाऊँ । कस न होइ हीरामन नाऊँ ॥
को राजा, कस दीप उतंगू । जेहि रे सुनत मन भएउ पतंगू ॥
सुनि समिद्र भा चख किलकिला । कवँलहि चहौं भँवर होइ मिला ॥
कहु सुगंध धनि कस निरमली । भा अलि-संग, कि अबहीं कली?॥
औ कहु तहँ जहँ पदमिनी लोनी । घर-घर सब के होइ जो होनी ॥
सबै बखान तहाँ कर कहत सो मोसौं आव ।
चहौं दीप वह देखा,सुनत उठा अस चाव ॥3॥
किलकिला=जल के ऊपर मछली के लिये मँडराने वाला
एक जलपक्षी, होनी=बात,ब्यवहार)
का राजा हौं बरनौं तासू । सिंघलदीप आहि कैलासू ॥
जो गा तहाँ भुलाना सोई । गा जुग बीति न बहुरा कोई ॥
घर घर पदमिनि छतिसौ जाती ।सदा बसंत दिवस औ राती ॥
जेहि जेहि बरन फूल फुलवारी । तेहि तेहि बरन सुगंध सो नारी ॥
गंध्रबसेन तहाँ बड़ राजा । अछरिन्ह महँ इंद्रासन साजा ॥
सो पदमावति तेहि कर बारी । जो सब दीप माँह उजियारी ॥
चहूँ खंड के बर जो ओनाही । गरबहि राजा बोलै नाहीं ॥
उअत खंड के बर जो ओनाही । गरबहि राजा बोलै नाहीं ॥
उअत सूर जस देखिय चाँद छपै तेहि धूप ।
ऐसे सबे जाहिं छपि पदमावति के रूप ॥4॥
सुनि रवि-नावँ रतन भा राता । पंडित फेरि उहै कहु बाता ॥
तें सुरंग मूरत वह कही । चित महँ लागि चित्र होइ रही ॥
जनु होइ सुरुज आइ मन बसी । सब घट पूरि हिये परगसी ॥
अब हौं सुरुज, चाँद वह छाया । जल बिनुमीन, रकत बिनु काया ॥
किरिन-करा भा प्रेम -अँकूरू । जौ ससि सरग, मिलौं होइ सूरू ॥
सहसौ करा रूप मन भूला । जहँ जहँ दीठ कवँल जनु फूला ॥
तहाँ भवँर जिउ कँवला गंधी । भइ ससि राहु केरि रिनि बंधी ॥
तीनि लोक चौदह खंड सबै परै मोहिं सूझि ।
पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु, जो देखा मन बूझि ॥5॥
पेम सुनत मन भूल न राजा । कठिन पेम, सिर देइ तौ छाजा ॥
पेम-फाँद जो परा न छूटा । जीउ दीन्ह पै फाँद न टूटा ॥
गिरगिट छंद धरै दुख तेता । खन खन पीत, रात खन सेता ॥
जान पुछार जो भा बनबासी । रोंव रोंव परे फँद नगवासी ॥
पाँखन्ह फिरि फिरि परा सो फाँदू । उड़ि न सकै, अरुझा भा बाँदू ॥
`मुयों मुयों’ अहनिसि चिल्लाई । ओही रोस नागन्ह धै खाई ॥
पंडुक, सुआ, कंक वह चीन्हा । जेहिं गिउ परा चाहि जिउ दीन्हा ॥
तितिर-गिउ जो फाँद है, नित्ति पुकारै दोख ।
सो कित हँकार फाँद गिउ (मेलै) कित मारे होइ मोख ॥6॥
का फंदा,नागपाश, धै=धरकर, चीन्हा=चिह्न,लकीर)
राजै लीन्ह ऊबि कै साँसा । ऐस बोल जिनि बोलु निरासा ॥
भलेहि पेम है कठिन दुहेला । दुइ जग तरा पेम जेइ खेला ॥
दुख भीतर जो पेम-मधु राखा । जग नहिं मरन सहै जो चाखा ॥
जो नहिं सीस पेम-पथ लावा । सो प्रिथिमी महँ काहे क आवा? ॥
अब मैं पंथ पेम सिर मेला । पाँव न ठेलु, राखु कै चेला ॥
पेम -बार सो कहै जो देखा । जो न देख का जान विसेखा?॥
तौ लगि दुख पीतम नहिं भेंटा । मिलै, तौ जाइ जनम-दुख मेटा ॥
जस अनूप, तू बरनेसि, नखसिख बरनु सिंगार ।
है मोहिं आस मिलै कै, जौ मेरवै करतार ॥7॥
पाँव न ठेलु=पैर से न ठुकरा,तिरस्कार न कर, बिसेखा=मर्म)
10. नखशिख खंड
का सिंगार ओहि बरनौं, राजा । ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा ॥
प्रथम सीस कस्तूरी केसा । बलि बासुकि, का और नरेसा ॥
भौंर केस, वह मालति रानी । बिसहर लुरे लेहिं अरघानी ॥
बेनी छोरि झार जौं बारा । सरग पतार होइ अँधियारा ॥
कोंपर कुटिल केस नग कारे । लहरन्हि भरे भुअंग बैसारे ॥
बेधे जनों मलयगिरि बासा । सीस चढ़े लोटहिं चहँ पासा ॥
घुँघरवार अलकै विषभरी । सँकरैं पेम चहैं गिउ परी ॥
अस फदवार केस वै परा सीस गिउ फाँद ।
अस्टौ कुरी नाग सब अरुझ केस के बाँद ॥1॥
निछावर हैं, लूरे=लुढँते या लहरते हुए, अरघानि=महँक,
आघ्राण, अस्टकुरी=अष्टकुलनाग (ये हैं:- वासुकि, तक्षक,
कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंखचूड़, महापद्म, धनंजय)
बरनौं माँग सीस उपराहीं । सेंदुर अबहिं चढ़ा जेहि नाहीं ॥
बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ । उजियर पंथ रैनि महँ कीआ ॥
कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महँ दामिनि परगसी ॥
सरु-किरिन जनु गगन बिसेखी । जमुना माँह सुरसती देखी ॥
खाँडै धार रुहिर नु भरा । करवत लेइ बेनी पर धरा ॥
तेहि पर पूरि धरे जो मोती । जमुना माँझ गंग कै सोती ॥
करवत तपा लेहिं होइ चूरू । मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरू ॥
कनक दुवासन बानि होइ चह सोहाग वह माँग ।
सेवा करहिं नखत सब उवै गगन जस गाँग ॥2॥
त्रिवेणी संगम पर अपना शरीर आरे से चिरवाते थे, इसी
को करवट लेन कहते थे । काशी में भी एक स्थान था
जिसे काशी करवट कहते हैं, तपा=तपस्वी, सोहाग=
सौभाग्य,सोहागा)
कहौं लिलार दुइज कै जोती । दुइजन जोति कहाँ जग ओती ॥
सहस किरिन जो सुरुज दिपाई । देखि लिलार सोउ छपि जाई ॥
का सरवर तेहि देउँ मयंकू । चाँद कलंकी, वह निकलंकू ॥
औ चाँदहि पुनि राहु गरासा । वह बिनु राहु सदा परगासा ॥
तेहि लिलार पर तलक बईठा । दुइज-पाट जानहु ध्रुव दीठा ॥
कनक-पाट जनु बैठा राजा । सबै सिंगार अत्र लेइ साजा ॥
ओहि आगे थिर रहा न कोऊ । दहुँ का कहँ अस जुरै सँजोगू ॥
खरग, धनुक, चक बान दुइ, जग-मारन तिन्ह नावँ ।
सुनि कै परा मुरुछि कै (राजा) मोकहँ हए कुठावँ ॥3॥
भौहैं स्याम धनुक जनु ताना । जा सहुँ हेर मार विष-बाना ॥
हनै धुनै उन्ह भौंहनि चढ़े । केइ हतियार काल अस गढ़े?॥
उहै धनुक किरसुन पर अहा । उहै धनुक राघौ कर गहा ॥
ओहि धनुक रावन संघारा । ओहि धनुक कंसासुर मारा ॥
ओहि धनुक बैधा हुत राहू । मारा ओहि सहस्राबाहू ॥
उहै धनुक मैं थापहँ चीन्हा । धानुक आप बेझ जग कीन्हा ॥
उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता । अछरी छपीं, छपीं गोपीता ॥
भौंह धनुक, धनि धानुक, दूसर सरि न कराइ ।
गगन धनुक जो ऊगै लाजहि सो छपि जाइ ॥4॥
नैन बाँक,सरि पूज न कोऊ । मानसरोदक उथलहिं दोऊ ॥
राते कँवल करहिं अलि भवाँ । घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ ॥
उठहि तुरंग लेहिं नहिं बागा । चहहिं उलथि गगन कइँ लागा ॥
पवन झकोरहिं देइ हिलोरा । सरग लाइ भुइँ लाइ बहोरा ॥
जग डोलै डोलत नैनाहाँ । उलटि अडार जाहिं पल माहाँ ॥
जबहिं फिराहिं गगन गहि बोरा । अस वै भौंर चक्र के जोरा ॥
समुद-हिलोर फिरहिं जनु झूले । खंजन लरहिं, मिरिग जनु भूले ॥
सुभर सरोवर नयन वै, मानिक भरे तरंग ।
आवत तीर फिरावहीं काल भौंर तेहिं संग ॥5॥
जाना चाहते हैं,उड़कर भागना चाहते हैं)
बरुनी का बरनौ इमि बनी । साधे बान जानु दुइ अनी ॥
जुरी राम रावन कै सेना ।बीच समुद्र भए दुइ नैना ॥
बारहिं पार बनावरि साधा । जा सहुँ हेर लाग विष-बाधा ॥
उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा?। बेधि रहा सगरौ संसारा ॥
गगन नखत जो जाहिं न गने । वै सब बान ओही के हने ॥
धरती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ़ देहिं सब साखी ॥
रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढ़े । सूतहि सूत बेध अस गाढ़े ॥
बरुनि-बान अस ओपहँ, बेधे रन बन-ढ़ाँख ।
सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखहि तन सब पाँख ॥6॥
पल भर में उलट जाते हैं, फिरावहीं=चक्कर देते हैं, अनी=सेना,
बनावरिं=बाणावलि,तीरों की पंक्ति, साखी=साक्ष्य,गवाही, रन=
अरण्य)
नासिक खरग देउँ कह जोगू । खरग खीन, वह बदन-सँजोगू ॥
नासिक देखि लजानेउ सूआ । सूक अइ बेसरि होइ ऊआ ॥
सुआ जो पिअर हिरामन लाजा । और भाव का बरनौं राजा ॥
सुआ, सो नाक कठोर पँवारी । वह कोंवर तिल-पुहुप सँवारी ॥
पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा । मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ॥
अधर दसन पर नासिक सोभा । दारिउँ बिंब देखि सुक लोभा ॥
खंजन दुहुँ दिसि केलि कराही । दहुँ वह रस कोउ पाव कि नाहीं ॥
देखि अमिय-रस अधरन्ह भएउ नासिका कीर ।
पौन बास पहुँचावै, अस रम छाँड़ न तीर ॥7॥
एक औजार जिससे लोहे में छेद करते हैं, हिरकाइ लेइ=
पास सटा ले)
अधर सुरंग अमी-रस-भरे । बिंब सुरंग लाजि बन फरे ॥
फूल दुपहरी जानौं राता । फूल झरहिं ज्यों ज्यों कह बाता ॥
हीरा लेइ सो विद्रुम-धारा । बिहँसत जगत होइ उजियारा ॥
भए मँझीठ पानन्ह रँग लागे । कुसुम -रंग थिर रहै न आगे ॥
अस कै अधर अमी भरि राखे । अबहिं अछूत, न काहू चाखे ॥
मुख तँबोल-रँग-धारहि रसा । केहि मुख जोग जो अमृत बसा?॥
राता जगत देखि रँगराती । रुहिर भरे आछहि बिहँसाती ॥
अमी अधर अस राजा सब जग आस करेइ ।
केहि कहँ कवँल बिगासा, को मधुकर रस लेइ?॥8॥
ज्योति के प्रसार से जगत में उजाला होना, कहकर कवि ने
उषा या अरुणोदय का बड़ा सुन्दर गूढ़ संकेत रखा है, मजीठ=
बहुत गहरा मजीठ के रंगका लाल, धार=खड़ी रेखा)
दसन चौक बैठे जनु हीरा । औ बिच बिच रंग स्याम गँभीरा ॥
जस भादौं-निसि दामिनि दीसी । चमकि उठै तस बनी बतीसी ॥
वह सुजोति हीरा उपराहीं । हीरा-जाति सो तेहि परछाहीं ॥
जेहि दिन दसनजोति निरमई । बहुतै जोति जोति ओहि भई ॥
रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती । रतन पदारथ मानिक मोती ॥
जहँ जहँ बिहँसि सुभावहि हँसी । तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी ॥
दामिनि दमकि न सरवरि पूजी । पुनि ओहि जोति और को दूजी?॥
हँसत दसन अस चमके पाहन उठे झरक्कि ।
दारिउँ सरि जो न कै सका , फाटेउ हिया दरक्कि ॥9॥
झलक गए,अनेक प्रकार के रत्नों के रूप में हो गए)
रसना कहौं जो कह रस बाता । अमृत-बैन सुनत मन राता ॥
हरै सो सुर चातक कोकिला । बिनुबसंत यह बैन न मिला ॥
चातक कोकिल रहहिं जो नाहीं । सुहि वह बैन लाज छपि जाहीं ॥
भरे प्रेम-रस बोलै बोला । सुनै सो माति घूमि कै डोला ॥
चतुरवेद-मत सब ओहि पाहाँ । रिग,जजु, सअम अथरबन माहाँ ॥
एक एक बोल अरथ चौगुना । इंद्र मोह, बरम्हा सिर धुना ॥
अमर, भागवत, पिंगल गीता । अरथ बूझि पंडित नही जीता ॥
भासवती औ ब्याकरन, पिंगल पढ़ै पुरान ।
बेद-भेद सौं बात कह, सुजनन्ह लागै बान ॥10॥
ग्रंथ, सुजनन्ह=सुजानों या चतुरों को)
पुनि बरनौं का सुरंग कपोला । एक नारँग दुइ किए अमोला ॥
पुहुप-पंक रस अमृत साँधे । केइ यह सुरँग खरौरा बाँधे?॥
तेहि कपोल बाएँ तिल परा । जेइ तिल देखि सो तिल तिल जरा ॥
जनु घुँघची ओहि तिल करमुहीं । बिरह-बान साधे सामुहीं ॥
अगिनि-बान जानौ तिल सूझा । एक कटाछ लाख दस झूझा ॥
सो तिल गाल नहिं गएऊ । अब वह गाल काल जग भएऊ ॥
देखत नैन परी परिछाहीं । तेहि तें रात साम उपराहीं ॥
सो तिल देखि कपोल पर गगन रहा धुव गाड़ि ।
खिनहिं उठै खिन बूड़ै, डोलै नहिं तिल छाँड़ि ॥11॥
करमुँहा=काले मुँहवाला)
स्रवन सीप दुइ दीप सँवारे । कुँडल कनक रचे उजियारे ॥
मनि-मंडल झलकैं अति लोने । जनु कौंधा लौकहि दुइ कोने ॥
दुहुँ दिसि चाँद सुरुज चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥
तेहि पर खूँट दीप दुइ बारे । दुइ धुव दुऔ खूँट बैसारे ॥
पहिरे खुंभी सिंगलदीपी । जनौं भरी कचपचिआ सीपी ॥
खिन खिन जबहि चीर सिर गहै । काँपति बीजु दुऔ दिसि रहै ॥
डरपहिं देवलोक सिंघला । परै न बीजु टूटि एक कला ॥
करहिं नखत सब सेवा स्रवन दीन्ह अस दोउ ।
चाँद सुरुज अस गोहने और जगत का कोउ?॥12॥
गहना, खूँट=कोने, खुंभी=कान का एक गहना, कचपचिया=
कृतिका नक्षत्र जिसमें बहुत से तारे एक गुच्छे में दिखाई
पड़ते हैं, गोहने=साथ में,सेवा में)
बरनौं गीउ कंबु कै रीसी । कंचन-तार-लागि जनु सीसी ॥
कुंदै फेरि जानु गिउ काढ़ी । हरी पुछार ठगी जनु ठाढ़ी ॥
जनु हिय काढ़ि परवा ठाढ़ा । तेहि तै अधिक भाव गिउ बाढ़ा ॥
चाक चढ़ाइ साँच जनु कीन्हा । बाग तुरंग जानु गहि लीन्हा ॥
गए मयूर तमचूर जो हारे । उहै पुकारहिं साँझ सकारे ॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । घूँट जो पीक लीक सब देखा ॥
धनि ओहि गीउ दीन्ह बिधि भाऊ । दहुँ कासौं लेइ करै मेराऊ ॥
कंटसिरी मुकुतावली सोहै अभरन गीउ ।
लागै कंठहार होइ को तप साधा जीउ?॥13॥
पुछार=मोर, साँच=साँचा, भाई=खराद पर घुमाई हुई)
कनक-दंड दुइ भुजा कलाई । जानौं फेरि कुँदेरै भाई ॥
कदलि-गाभ कै जानौ जोरी । औ राती ओहि कँवल-हथोरी ॥
जानो रकत हथोरी बूड़ी । रवि-परभात तात, वै जूड़ी ॥
हिया काढ़ि जनु लीन्हेसि हाथा । रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ॥
औ पहिरे नग-जरी अँगूठी । जग बिनु जीउ,जीउ ओहि मूठी ॥
बाहूँ कंगन, टाड़ सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
जानौ गति बेड़िन देखराई । बाँह डोलाइ जीउ लेइ जाई ॥
भुज -उपमा पौंनार नहिं, खीन भयउ तेहि चिंत ।
ठाँवहि ठाँव बेध भा, ऊबि साँस लेइ निंत ॥14॥
बाँह पर पहनने का एक गहना, बेड़िन=नाचने गानेवाली
एक जाति, पौंनार=पद्मनाल=कमल का डंठल, ठाँवहिं
ठाँव..निंत=कमलनाल में काँटे से होते हैं और वह सदा
पानी के ऊपर उठा रहता है)
हिया थार, कुच कंचन लारू । कनक कचौर उठे जनु चारू ॥
कुंदन बेल साजि जनु कूँदे । अमृत रतन मोन दुइ मूँदे ॥
बेधे भौंर कंट केतकी । चाहहिं बेध कीण्ह कंचुकी ॥
जोबन बान लेहिं नहिं बागा । चाहहिं हुलसि हिये हठ लागा ॥
अगिनि-बान दुइ जानौं साधे । जग बेधहिं जौं होहिं न बाँधे ॥
उतँग जँभीर होइ रखवारी । छुइ को सकै राजा कै बारी ॥
दारउँ दाख फरे अनचाखे । अस नारँग दहुँ का कहँ राखे ॥
राजा बहुत मुए तपि लाइ लाइ भुइँ माथ ।
काहू छुवै न पाए , गए मरोरत हाथ ॥15॥
बारी=(क) कन्या (ख) बगीचा)
पेट परत जनु चंदन लावा । कुहँकुहँ-केसर-बरन सुहावा ॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरा । पान फूल के रहै अधारा ॥
साम भुअंगिनि रोमावली । नाभी निकसि कवँल कहँ चली ॥
आइ दुऔ नारँग बिच भई । देखि मयूर ठमकि रहि गई ॥
मनहुँ चढ़ी भौंरन्ह पाँती । चंदन-खाँभ बास कै माती ॥
की कालिंदी बिरह-सताई । चलि पयाग अरइल बिच आई ॥
नाभि-कुंड बिच बारानसी । सौंह को होइ, मीचु तहँ बसी ॥
सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तन आस ।
बहुत धूम घुटि घुटि मिए, उतर न देइ निरास ॥16॥
करवत=आरा, करसी=उपले या कंडे की आग जिसमें शरीर
सिझाना बड़ा तप समझा जाता था)
बैरिनि पीठि लीन्ह वह पाछे । जनु फिरि चली अपछरा काछे ॥
मलयागिरि कै पीठि सँवारी । बेनी नागिनि चढ़ी जो कारी ॥
लहरैं देति पीठि जनु चढ़ी । चीर ओहार केंचुली मढ़ी ॥
दहुँ का कहँ अस बेनी कीन्हीं । चंदन बास भुअंगै लीन्हीं ॥
किरसुन करा चढ़ा ओहि माथे । तब तौ छूट,अब छुटै न नाथे ॥
कारे कवँल गहे मुक देखा । ससि पाछे जनु राहु बिसेखा ॥
को देखै पावै वह नागू । सो देखै जेहि के सिर भागू ॥
पन्नग पंकज मुख गहे खंजन तहाँ बईठ ।
छत्र, सिंघासन, राज, धन ताकहँ होइ जो डीठ ॥17॥
पंकज….बईठ=सर्प के सिर या कमल पर बैठै खंजन
को देखने से राज्य मिलता है, ऐसा ज्योतिष में
लिखा है)
लंक पुहुमि अस आहि न काहू । केहरि कहौं न ओहि सरि ताहू ॥
बसा लंक बरनै जग झीनो । तेहि तें अधिक लंक वह खीनी ॥
परिहँस पियर भए तेहिं बसा । लिए डंक लोगन्ह कह डसा ॥
मानहुँ नाल खंड दुइ भए । दुहूँ बिच लंक-तार रहि गए ॥
हिय के मुरे चलै वह तागा । पैग देत कित सहि सक लागा?॥
छुद्रघंटिका मोहहिं राजा । इंद्र-अखाड़ आइ जनु बाजा ॥
मानहुँ बीन गहे कामिनी । गावहि सबै राग रागिनी ॥
सिंघ न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनबासु ।
तेहि रिस मानुस-रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु ॥18॥
नाल.. …गए=कमल के नाल को तोड़ने पर दोनों खंडों
के बीच महीन महीन सूत लगे रह जाते हैं तागा=सूत,
छुद्र-घंटिका=घुँघरूदार करधनी)
नाभिकुंड सो मयल-समीरू । समुद-भँवर जस भँवै गँभीरू ॥
बहुतै भँवर बवंडर भए । पहुँचि न सके सरग कहँ गए ॥
चंदन माँझ कुरंगिनी खोजू । दहुँ को पाउ , को राजा भोजू ॥
को ओहि लागि हिवंचल सीझा । का कहँ लिखी, ऐस को रीझा?॥
तीवइ कवँल सुगंध सरीरू । समुद-लहरि सोहै तन चीरू ॥
भूलहिं रतन पाट के झोंपा । साजि मैन अस का पर कोपा?॥
अबहिं सो अहैं कवँल कै करी । न जनौ कौन भौंर कहँ धरी ॥
बेधि रहा जग बासना परिमल मेद सुगंध ।
तेहि अरघानि भौंर सब लुबुधे तजहिं न बंध ॥19॥
हिवंचल=हिमाचल, तीवह=स्त्री, समुद्र लहरि=लहरिया
कपड़ा, झोंपा=गुच्छा, अरघनि=आघ्राण,महक)
बरनौं नितंब लंक कै सोभा । औ गज-गवन देखि मन लोभा ॥
जुरे जंघ सोभा अति पाए । केरा-खंभ फेरि जनु लाए ॥
कवल-चरन अति रात बिसेखी । रहैं पाट पर, पुहुमि न देखी ॥
देवता हाथ हाथ पगु लेहिं । जहँ पगु धरै सीस तहँ देहीं ॥
माथे भाग कोउ अस पावा । चरन-कँवल लेइ सीस चढ़ावा ॥
चूरा चाँद सुरुज उजियारा । पायल बीच करहिं झनकारा ॥
अनवट बिछिया नखत तराई । पहुँचि सकै को पायँन ताईं ॥
बरनि सिंगार न जानेउँ नखसिख जैस अभोग ।
तस जग किछुइ न पाएउँ उपमा देउँ ओहि जोग ॥20॥
पद्मावत मलिक मुहम्मद जायसी
11. प्रेम-खंड
सुनतहि राजा गा मुरझाई । जानौं लहरि सुरुज कै आई ॥
प्रेम-घाव-दुख जान न कोई । जेहि लागै जानै पै सोई ॥
परा सो पेम-समुद्र अपारा । लहरहिं लहर होइ बिसँभारा ॥
बिरह-भौंर होइ भाँवरि देई । खिनखिन जीउ हिलोरा लेई ॥
खिनहिं उसास बूड़ि जिउ जाई । खिनहिं उठै निसरै बोराई ॥
खिनहिं पीत, खिनहोइ मुख सेता । खिनहिं चेत, खिन होइ अचेता ॥
कठिन मरन तें प्रेम-बेवस्था । ना जिउ जियै, न दसवँ अवस्था ॥
जनु लेनिहार न लेहिं जिउ, हरहिं तरासहिं ताहिं ।
एतनै बोल आव मुख, करैं तराहि तराहि” ॥1॥
लेनिहार=प्राण लेने वाले, हरहिं=धीरे धीरे, तरासहि=त्रास
दिखाते हैं)
जहँ लगि कुटुँब लोग औ नेगी । राजा राय आए सब बेगी ॥
जावत गुनी गारुड़ी आए । ओझा, बैद, सयान बोलाए ॥
चरचहिं चेर्टा परिखहिं नारी । नियर नाहिं ओषद तहँ बारी ॥
राजहिं आहि लखन कै करा । सकति-कान मोहा है परा ॥
नहिं सो राम, हनिवँत बड़ि दूरी । को लेइ आव सजीवन -मूरी?॥
बिनय करहिं जे गढ़पती । का जिउ कीन्ह, कौन मति मती?॥
कहहु सो पीर, काह पुनि खाँगा?। समुद सुमेरु आव तुम्ह माँगा ॥
धावन तहाँ पठावहु, देहिं लाख दस रोक ।
होइ सो बेलि जेहि बारी, आनहिं सबै बरोक ॥2॥
भाँपते हैं, करा=लीला,दशा, खाँगा=घटा, रोक=रोकड़,
रुपया, पाठांतर -“थोक”, बरोक=बरच्छा,फलदान)
जब भा चेत उठा बैरागा । बाउर जनौं सोइ उठि जागा ॥
आवत जग बालक जस रोआ । उठा रोइ `हा ज्ञान सो खौआ ‘ ॥
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ । इहाँ मरनपुर आएउँ कहाँ?॥
केइ उपकार मरन कर कीन्हा । सकति हँकारि जीउ हरि लीन्हा ॥
सोवत रहा जहाँ सुख-साखा । कस न तहाँ सोवत बिधि राखा?॥
अब जिउ उहाँ, इहाँ तन सूना । कब लगि रहै परान-बिहूना ॥
जौ जिउ घटहि काल के हाथा । घट न नीक पै जीउ -निसाथा ॥
अहुठ हाथ तन-सरवर, हिया कवँल तेहि माँह ।
नैनहिं जानहु नीयरे, कर पहुँचत औगाह ॥3॥
अहुठ=साढ़े तीन)
सबन्ह कहामन समुझहु राजा । काल सेंति कै जूझ न छाजा ॥
तासौं जूझ जात जो जीता । जानत कृष्ण तजा गोपीता ॥
औ न नेह काहू सौं कीजै । नाँव मिटै, काहे जिउ दीजै ॥
पहिले सुख नेहहिं जब जोरा । पुनि होइ कठिन निबाहत ओरा ॥
अहुठ हाथ तन जैस सुमेरू । पहुँचि न जाइ परा तस फेरू ॥
ज्ञान-दिस्टि सौं जाइ पहुँचा । पेम अदिस्ट गगन तें ऊँचा ॥
धुव तें ऊँच पेम-धुव ऊआ । सिर देइ पाँव देइ सो छूआ ॥
तुम राजा औ सुखिया, करहु राज-सुख भोग ।
एहि रे पंथ सो पहुँचै सहै जो दुःख बियोग ॥4॥
काटकर उसपर पैर रखकर खड़ा हो)
सुऐ कहा मन बूझहू राजा । करब पिरीत कठिन है काजा ॥
तुम रजा जेईं घर पोई । कवँल न भेंटेउ, भेंटेउ कोई ॥
जानहिं भौंर जौ तेहि पथ लूटे । जीउ दीन्ह औ दिएहु न छूटे ॥
कठिन आहिं सिंघल कर राजू । पाइय नाहिं झूझ कर साजू ॥
ओहि पथ जाइ जो होइ उदासी । जोगी, जती तपा, सन्यासी ॥
भौग किए जौं पावत भोगू । तजि सो भो कोइ करत न जोगू ॥
तुम राजा चाहहु सुख पावा । भोगहि जोग करत नहिं भावा ॥
साधन्ह सिद्धि न पाइय जौ लगि सधै न तप्प ।
सो पै जानै बापुरा करै जो सीस कलप्प ॥5॥
अर्थात आराम चैन से रहे, साधन्ह=केवल साध या इच्छा ने,
कलप्प करै=काट डाले)
का भा जोग-कथनि के कथे । निकसै घिउ न बिना दधि मथे ॥
जौ लहि आप हेराइ न कोई । तौ लहि हेरत पाव न सोई ॥
पेम -पहार कठिन बिधि गढ़ा । सो पै चढ़ै जो सिर सौं चढ़ा ॥
पंथ सूरि कै उठा अँकूरू । चोर चढ़ै, की चढ़ मंसूरू ॥
तू राजा का पहिरसि कंथा । तोरे घरहहि माँझ दस पंथा ॥
काम, क्रोध, तिस्ना, मद माया । पाँचौ चोर न छाँडहिं काया ॥
नवौ सेंध तिन्ह कै दिठियारा । घर मूसहिं निसि, की उजियारा ॥
अबहू जागु अजाना, होत आव निसि भोर ।
तब किछु हाथ न लागहिं मूसि जाहिं जब चोर ॥6॥
सुनि सो बात राजा मन जागा । पलक न मार, पेम चित लागा ॥
नैनन्ह ढरहिं मोति औ मूँगा । जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा ॥
हिय कै जोति दीप वह सूझा । यह जो दीप अँधियारा बुझा ॥
उलटि दीठी माया सौं रूठो । पटि न फिरी जानि कै झूठी ॥
झझौ पै नाहीं अहथिर दसा । जग उजार का कीजिय बसा ॥
गुरू बिरह-चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला ॥
अब करि फनिग भृंग कै करा । भौंर होहुँ जेहि कारन जरा ॥
फूल फूल फिरि पूछौं जौ पहुँचौं ओहि केत ॥
तन नेवछावरि कै मिलौं ज्यों मधुकर जिउ देत ॥7॥
फनगा,फतिंगा,पतंग, भृंग=कीड़ा जिसके विषय में
प्रसिद्ध है कि और पतिंगों को अपने रूप का कर
लेता है, करा=कला,व्यापार, कैत=ओर,तरफ,अथवा केतकी)
बंधु मीत बहुतै समुझावा । मान न राजा कोउ भुलावा ॥
उपजि पेम-पीर जेहि आई । परबोधत होइ अधिक सो आई ॥
अमृत बात कहत बिष जाना । पेम क बचन मीठ कै माना ॥
जो ओहि विषै मारिकै खाई । पूँछहु तेहि सन पेम-मिठाई ॥
पूँछहु बात भरथरिहि जाई । अमृत-राज तजा विष खाई ॥
औ महेस बड़ सिद्ध कहावा । उनहूँ विषै कंठ पै लावा ॥
होत आव रवि-किरिन बिकासा। हनुवँत होइ को देइ सुआसा ॥
तुम सब सिद्धि मनावहु हिइ गनेस सिधि लेव ।
चेला को न चलावै तुलै गुरू जेहि भेव?॥8॥
अध्यात्म पक्ष में विषय; पहले यदि संजीवनी बूटी आ जायगी
तो वे बचेंगे तब राम को हनुमान जी ने ही आशा बँधाई थी,
तुलै गुरू जेहि मेव=जिस भेद तक गुरु पहुँचता है)
12. जोगी-खंड
तजा राज, राजा भा जोगी । औ किंगरी कर गहेउ बियोगी ॥
तन बिसँभर मन बाउर लटा । अरुझा पेम, परी सिर जटा ॥
चंद्र-बदन औ चंदन-देहा । भसम चढ़ाइ कीन्ह तन खेहा ॥
मेखल, सिंघी, चक्र धँधारी । जोगबाट, रुदराछ, अधारी ॥
कंथा पहिरि दंड कर गहा । सिद्ध होइ कहँ गोरख कहा ॥
मुद्रा स्रवन, खंठ जपमाला । कर उदपान, काँध बघछाला ॥
पाँवरि पाँव, दीन्ह सिर छाता । खप्पर लीन्ह भेस करि राता ॥
चला भुगुति माँगै कहँ, साधि कया तप जोग ।
सिद्ध होइ पदमावति, जेहि कर हिये बियोग ॥1॥
मेखल=मेखला, सिंघी=सींग का बाजा जो फूँकने से
बजता है, धँधारी=एक में गुछी हुई लोहे की पतली
कड़ियाँ जिनमें उलझे हुए डोरे या कौड़ी को गोरखपंथी
साधु अद्भुत रीति से निकाला करते हैं; गोरखधंधा,
अधारी=झोला जो दोहरा होता है, मुद्रा=स्फटिक का
कुंडल जिसे गोरखपंथी कान में बहुत बड़ा छेद करके
पहनते हैं, उदपान=कमंडलु, पाँवरि=खड़ाऊँ, राता=गेरुआ)
गनक कहहिं गनि गौन न आजू । दिन लेइ चलहु, होइ सिध काजू ॥
पेम-पंथ दिन घरी न देखा । तब देखै जब होइ सरेखा ॥
जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँसू । कया न रकत, नैन नहिं आँसू ॥
पंडित भूल, न जानै चालू । जिउ लेत दिन पूछ न कालू ॥
सती कि बौरी पूछिहि पाँडे । औ घर पैठि कि सैंतै भाँडे ॥
मरै जो चलै गंग गति लेई । तेहि दिन कहाँ घरी को देई?॥
मैं घर बार कहाँ कर पावा । घरी के आपन, अंत परावा ॥
हौं रे पथिक पखेरू; जेहि बन मोर निबाहु ।
खेलि चला तेहि बन कहँ, तुम अपने घर जाहु ॥2॥
या सहेजती है)
चहुँ दिसि आन साँटया फेरी । भै कटकाई राजा केरी ॥
जावत अहहिं सकल अरकाना । साँभर लेहु, दूरि है जाना ॥
सिंघलदीप जाइ अब चाहा । मोल न पाउब जहाँ बेसाहा ॥
सब निबहै तहँ आपनि साँठी । साँठि बिना सो रह मुख माटी ॥
राजा चला साजि कै जोगू । साजहु बेगि चलहु सब लोगू ॥
गरब जो चड़े तुरब कै पीठी । अब भुइँ चलहु सरग कै डीठी ॥
मंतर लेहु होहु सँग-लागू । गुदर जाइ ब होइहि आगू ॥
का निचिंत रे मानुस, आपन चीते आछु ।
लेहि सजग होइ अगमन, मन पछिताव न पाछु ॥3॥
के साथ चलने की तैयारी, अरकाना=अरकान-दौलत;सरदार,
साँभर=संबल,कलेऊ, साँठि=पूँजी, तुरय=तुरग, गुदर होइहि=
पेश होइए, आपनि चीते आछु=अपने चेत या होश में रह,
आगमन=आगे,पहले से)
बिनवै रतनसेन कै माया । माथै छात, पाट निति पाया ॥
बिलसहु नौ लख लच्छि पियारी । राज छाँड़ि जिनि होहु भिखारी ॥
निति चंदन लागै जेहि देहा । सो तन देख भरत अब खेहा ॥
सब दिन रहेहु करत तुम भोगू । सो कैसे साधव तप जोगू?॥
कैसे धूप सहब बिनु छाहाँ । कैसे नींद परिहि भुइ माहाँ?॥
कैसे ओढ़व काथरि कंथा । कैसे पाँव चलब तुम पंथा?॥
कैसे सहब खीनहि खिन भूखा । कैसे खाब कुरकुटा रूखा?॥
राजपाट, दर; परिगह तुम्ह ही सौं उजियार ।
बैठि भोग रस मानहु, खै न चलहु अँधियार ॥4॥
मोटा कुटा अन्न, दर=दल या राजद्वार, परिगह=
परिग्रह,परिजन,परिवार के लोग)
मोंहि यह लोभ सुनाव न माया । काकर सुख, काकर यह काया ॥
जो निआन तन होइहि छारा । माटहि पोखि मरै को भारा?॥
का भूलौं एहि चंदन चोवा । बैरी जहाँ अंग कर रोवाँ ॥
हाथ, पाँव, सरन औं आँखी । ए सब उहाँ भरहि मिलि साखी ॥
सूत सूत तन बोलहिं दोखू । कहु कैसे होइहि गति मोखू ॥
जौं भल होत राज औ भोगू । गोपिचंद नहिं साधत जोगू ॥
उन्ह हिय-दीठि जो देख परेबा । तजा राज कजरी-बन सेवा ॥
देखि अंत अस होइहि गुरू दीन्ह उपदेस ।
सिंघलदीप जाब हम, माता! देहु अदेस ॥5॥
भरहिं=साक्ष्य या गवाही देते हैं, देख परेवा=पक्षी की
सी अपनी दशा देखी, कजरीबन=कदलीवन)
रोवहिं नागमती रनिवासू । केइ तुम्ह कंत दीन्ह बनबासू?॥
अब को हमहिं करिहि भोगिनी । हमहुँ साथ होब जोगिनी ॥
की हम्ह लावहु अपने साथा । की अब मारि चलहु एहि हाथा ॥
तुम्ह अस बिछुरै पीउ पिरीता । जहँवाँ राम तहाँ सँग सीता ॥
जौ लहि जिउ सँग छाँड़ न काया । करिहौं सेव, पखरिहों पाया ॥
भलेहि पदमिनी रूप अनूपा । हमतें कोइ न आगरि रूपा ॥
भवै भलेहि पुरुखन कै डीठी । जिनहिं जान तिन्ह दीन्ही पीठी ॥
देहिं असीस सबै मिलि, तुम्ह माथे नित छात ।
राज करहु चितउरगढ़, राखउ पिय! अहिबात ॥6॥
पहचान हो जाती है उन्हें छोड़ नए के लिये दौड़ा करती है)
तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी । मूरुख सो जो मतै घर नारी ॥
राघव जो सीता सँग लाई । रावन हरी, कवन सिधि पाई?॥
यह संसार सपन कर लेखा । बिछुरि गए जानौं नहिं देखा ॥
राजा भरथरि सुना जो ज्ञानी । जेहि के घर सोरह सै रानी ॥
कुच लीन्हे तरवा सहराई । भा जोगी, कोउ संग न लाई ॥
जोगहि काह भौग सौं काजू । चहै न धन धरनी औ राजू ॥
जूड़ कुरकुटा भीखहि चाहा । जोगी तात भात कर काहा?॥
कहा न मानै राजा, तजी सबाईं भीर ।
चला छाँड़ि कै रोवत, फिरि कै देइ न धीर ॥7॥
रोवत माय, न बहुरत बारा । रतन चला, घर भा अँधियारा ॥
बार मोर जौ राजहि रता । सो लै चला, सुआ परबता ॥
रोवहिं रानी, तजहिं पराना । नोचहिं बार, करहिं खरिहाना ॥
चूरहिं गिउ-अभरन, उर-हारा । अब कापर हम करब सिंगारा?॥
जा कहँ कहहिं रहसि कै पीऊ । सोइ चला, काकर यह जीऊ ॥
मरै चहहिं, पै मरै न पावहिं । उठे आगि, सब लोग बुझावहिं ॥
घरी एक सुठि भएउ अँदोरा । पुनि पाछे बीता होइ रोरा ॥
टूटे मन नौ मोती, फूटे मन दस काँच ।
लान्ह समेटि सब अभरन, होइगा दुख के नाच ॥8॥
अँदोरा=हलचल,कोलाहल)
निकसा राजा सिंगी पूरी । छाँड़ा नगर मैलि कै धूरी ॥
राय रान सब भए बियोगी । सोरह सहस कुँवर भए जोगी ॥
माया मोह हरा सेइ हाथा ।देखेन्हि बूझि निआन न साथा ॥
छाँड़ेन्हि लोग कुटुँब सब कोऊ । भए निनान सुख दुख तजि दोऊ ॥
सँवरैं राजा सोइ अकेला । जेहि के पंथ चले होइ चेला ॥
नगर नगर औ गाँवहिं गाँवाँ । छाँड़ि चले सब ठाँवहि ठावाँ ॥
काकर मढ़, काकर घर माया । ताकर सब जाकर जिउ काया ॥
चला कटक जोगिन्ह कर कै गेरुआ सब भेसु ।
कोस बीस चारिहु दिसि जानों फुला टेसु ॥9॥
आगे सगुन सगुनिये ताका । दहिने माछ रूप के टाँका ॥
भरे कलस तरुनी जल आई । `दहिउ लेहु’ ग्वालिनि गोहराई ॥
मालिनि आव मौर लिए गाँथे । खंजन बैठ नाग के माथे ॥
दहिने मिरिग आइ बन धाएँ । प्रतीहार बोला खर बाएँ ॥
बिरिख सँवरिया दहिने बोला । बाएँ दिसा चापु चरि डोला ॥
बाएँ अकासी धौरी आई । लोवा दरस आई दिखराई ॥
बाएँ कुररी, दहिने कूचा । पहुँचै भुगुति जैस मन रूचा ॥
जा कहँ सगुन होहिं अस औ गवनै जेहि आस ।
अस्ट महासिधि तेहि कहँ, जस कवि कहा बियास ॥10॥
चाँदी, टाँका=बरतन, मौर=फूलों का मुकुट जो विवाह में
दूल्हे को पहनाया जाता है, गाँथे=गूथे हुए, बिरिख=वृष,
बैल, सँवरिया=साँवला,काला, चाषु=चाष,नीलकंठ, अकासी
धौरी=क्षेमकरी चील जिसका सिर सफेद और सब अंग
लाल या खेरा होता है, लोवा=लोमड़ी, कुररी=टिटिहरी,
कूचा=क्रौंच,कराकुल,कूज)
भयउ पयान चला पुनि राजा । सिंगि-नाद जोगिन कर बाजा ॥
कहेन्हि आजु किछु थोर पयाना । काल्हि पयान दूरि है जाना ॥
ओहि मिलान जौ पहुँचै कोई । तब हम कहब पुरुष भल सोई ॥
है आगे परबत कै बाटा । बिषम पहार अगम सुठि घाटा ॥
बिच बिच नदी खोह औ नारा । ठावहिं ठाँव बैठ बटपारा ॥
हनुवँत केर सुनब पुनि हाँका । दहुँ को पार होइ, को थाका ॥
अस मन जानि सँभारहु आगू । अगुआ केर होहु पछलागू ॥
करहिं पयान भोर उठि, पंथ कोस दस जाहिं ।
पंथी पंथा जे चलहिं, ते का रहहिं ओठाहिं ॥11॥
करहु दीठी थिर होइ बटाऊ । आगे देखि धरहु भुइँ पाऊ ॥
जो रे उबट होइ परे बुलाने । गए मारि, पथ चलै न जाने ॥
पाँयन पहिरि लेहु सब पौंरी काँट धसैं, न गड़ै अँकरौरी ॥
परे आइ बन परबत माहाँ । दंडाकरन बीझ-बन जाहाँ ॥
सघन ढाँख-बन चहुँदिसि फूला । बहु दुख पाव उहाँ कर भूला ॥
झाखर जहाँ सो छाँडहु पंथा । हिलगि मकोइ न फारहु कंथा ॥
दहिने बिदर, चँदेरी बाएँ । दहुँ कहँ होइ बाट दुइ ठाएँ ॥
एक बाट गइ सिंघल, दूसरि लंक समीप ।
हैं आगे पथ दूऔ, दहु गौनब केहि दीप ॥12॥
दंडकारण्य, बीझबन=सघन वन, झाँखर=कँटीली झाड़ियाँ,
हिलगि=सटकर)
ततखन बोला सुआ सरेखा । अगुआ सोइ पंथ जेइ देखा ॥
सो का उड़ै न जेहि तन पाँखू । लेइ सो परासहि बूड़त साखू ॥
जस अंधा अंधै कर संगी । पंथ न पाव होइ सहलंगी ॥
सुनु मत, काज चहसि जौं साजा । बीजानगर विजयगिरि राजा ॥
पहुचौ जहागोंड औ कोला । तजि बाएँ अँधियार, खटोला ॥
दक्खिन दहिने रहहि तिलंगा । उत्तर बाएँ गढ़-काटंगा ॥
माँझ रतनपुर सिंघदुवारा ।झारखंड देइ बाँव पहारा ॥
आगे पाव उड़ैसा, बाएँ दिए सो बाट ।
दहिनावरत देइ कै, उतरु समुद के घाट ॥13॥
डूबते समय पत्ते को ही पकड़ता है, परास=पलास,
पत्ता, सहलंगी=सँगलगा,साथी, बीजानगर=विजयानगरम्,
गोंड औ कोल=जंगली जातियाँ, अँधियार=अँजारी जो
बीजापुर का एक महाल था, खटोला=गढ़मंडला का
पश्चिम भाग, गढ़ काटंग=गढ़ कटंग,जबलपुर के
आसपास का प्रदेश, रतनपुर=विलासपुर के जिले में
आजकल है, सिंघ दुवारा=छिंदवाड़ा, झारखंड=छत्तीसगढ़
और गोंडवाने का उत्तर भाग, सौंर=चादर, सेंती=से)
होत पयान जाइ दिन केरा । मिरिगारन महँ भएउ बसेरा ॥
कुस-साँथरि भइ सौंर सुपेती । करवट आइ बनी भुइँ सेंती ॥
चलि दस कोस ओस तन भीजा । काया मिलि तेहिं भसम मलीजा ॥
ठाँव ठाँव सब सोअहिं चेला । राजा जागै आपु अकेला ॥
जेहि के हिये पेम-रंग जामा । का तेहि भूख नीद बिसरामा ॥
बन अँधियार, रैनि अँधियारी । भादों बिरह भएउ अति भारी ॥
किंगरी हाथ गहे बैरागी । पाँच तंतु धुन ओही लागी ॥
नैन लाग तेहि मारग पदमावति जेहि दीप ।
जैस सेवातिहि सेवै बन चातक, जल सीप ॥14॥
13. राजा-गजपति-संवाद-खंड
मासेक लाग चलत तेहि बाटा । उतरे जाइ समुद के घाटा ॥
रतनसेन भा जोगी-जती । सुनि भेंटै आवा गजपती ॥
जोगी आपु, कटक सब चेला । कौन दीप कहँ चाहहिं खेला ॥
” आए भलेहि, मया अब कीजै । पहनाई कहँ आयसु दीजै”
“सुनहु गजपती उतर हमारा । हम्ह तुम्ह एकै, भाव निरारा ॥
नेवतहु तेहि जेहि नहिं यह भाऊ । जो निहचै तेहि लाउ नसाऊ ॥
इहै बहुत जौ बोहित पावौं । तुम्ह तैं सिंघलदीप सिधावौं ॥
जहाँ मोहिं निजु जाना कटक होउँ लेइ पार ।
जौं रे जिऔं तौ बहुरौं, मरौं ओहि के बार” ॥1॥
मन की मौज में जाना चाहते हैं, लाउ=लाव,लगाव,प्रेम)
गजपती कहा “सीस पर माँगा । बोहित नाव न होइहि खाँगा ॥
ए सब देउँ आनि नव-गढ़े । फूल सोइ जो महेसुर चढ़े ॥
पै गोसाइँ सन एक बिनाती । मारग कठिन, जाब केहि भाँती ॥
सात समुद्र असूझ अपारा । मारग मगर मच्छ घरियारा ॥
उठै लहरि नहिं जाइ सँभारी । भागहि कोइ निबहै बैपारी ॥
तुम सुखिया अपने घर राजा । जोखउँ एत सहहु केहि काजा?॥
सिंघलदीप जाइ सो कोई । हाथ लिए आपन जिउ होई ॥
खार, खीर, दधि, जल उदधि, सुर, किलकिला अकूत ।
को चढ़ि नाँघै समुद ए, है काकर अस बूत?”॥2॥
खाँगा=कमी, किलकिला=एक समुद्र का नाम, अकूत=
अपार, बूत=बूता,बल)
“गजपती यह मन सकती-सीऊ । पै जेहि पेम कहाँ तेहि जीऊ
जो पहिले सिर दै पगु धरई । मूए केर मीचु का करई?॥
सुख त्यागा, दुख साँभर लीन्हा । तब पयान सिंघल-मुँह कीन्हा ॥
भौंरा जान कवँल कै प्रीती । जेहि पहँ बिथा पेम कै बीती ॥
औ जेइ समुद पेम कर देखा । तेइ एहि समुद बूँद करि लेखा ॥
सात समुद सत कीन्ह सँभारू । जौं धरती, का गरुअ पहारू?॥
जौ पै जीउ बाँध सत बेरा । बरु जिउ जाइ फिरै नहिं फेरा ॥
रंगनाथ हौं जा कर, हाथ ओहि के नाथ ।
गहे नाथ सो खैंचै, फेरे फिरै न माथ ॥3॥
हौं=रंग या प्रेम में जोगी हूँ जिसका, नाथ=नकेल,रस्सी,
माथ=सिर या रुख तथा नाव का अग्रभाग)
पेम-समुद्र जो अति अवगाहा । जहाँ न वार न पार न थाहा ॥
जो एहि खीर-समुद महँ परे । जीउ गँवाइ हंस होइ तरे ॥
हौं पदमावति कर भिखमंगा । दीठि न आव समुद औ गंगा ॥
जेहि कारन गिउ काथरि कंथा । जहाँ सो मिलै जावँ तेहि पंथा ॥
अब एहि समुद परेउँ होइ मरा । मुए केर पानी का करा?॥
मर होइ बहा कतहुँ लेइ जाऊ । ओहि के पंथ कोउ धरि खाऊ ॥
अस मैं जानि समुद महँ परऊँ । जौ कोइ खाइ बेगि निसतरऊँ ॥
सरग सीस, धर धती, हिया सो पेम-समुद ।
नैन कौडिया होइ रहे, लेइ लेइ उठहिं सो बुंद ॥4॥
कौडिया=कौडिल्ला नाम का पक्षी जो पानी में से मछली
पकड़कर फिर ऊपर उड़ने लगता है)
कठिन वियोग जाग दुख-दाहू । जरतहि मरतहि ओर निबाहू ॥
डर लज्जा तहँ दुवौ गवाँनी । देखै किछु न आगि नहिं पानी ॥
आगि देखि वह आगे धावा । पानि देखि तेहि सौंह धँसावा ॥
अस बाउर न बुझाए बूझा । जेहि पथ जाइ नीक सो सुझा ॥
मगर-मच्छ-डर हिये न लेखा । आपुहि चहै पार भा देखा ॥
औ न खाहि ओहि सिंघ सदूरा । काठहु चाहि अधिक सो झूरा ॥
काया माया संग न आथी । जेहिह जिउ सौंपा सोई साथी ॥
जो किछु दरब अहा सँग दान दीन्ह संसार ।
ना जानी केहि सत सेंती दैव उतारै पार ॥5॥
धनि जीवन औ ताकर हीया । ऊँच जगत महँ जाकर दीया ॥
दिया सो जप तप सब उपराहीं । दिया बराबर जग किछु नाहीं ॥
एक दिया ते दशगुन लहा । दिया देखि सब जग मुख चहा ॥
दिया करै आगे उजियारा । जहाँ न दिया तहाँ अँधियारा ॥
दिया मँदिर निसि करै अँजोरा । दिया नाहिं घर मूसहिं चोरा ॥
हातिम करन दिया जो सिखा । दिया रहा धर्मन्ह महँ लिखा ॥
दिया सो काज दुवौ जग आवा । इहाँ जो दिया उहाँ सब पावा ॥
“निरमल पंथ कीन्ह तेइ जेइ रे दिया किछु हाथ ।
किछु न कोइ लेइ जाइहि दिया जाइ पै साथ” ॥6॥
हुआ,दान,दीपक)
14. बोहित-खंड
सो न डोल देखा गजपती । राजा सत्त दत्त दुहुँ सती ॥
अपनेहि काया, आपनेहि कंथा । जीउ दीन्ह अगुमन तेहि पंथा ॥
निहचै चला भरम जिउ खोई । साहस जहाँ सिद्धि तहँ होई ॥
निहचै चला छाँड़ि कै राजू । बोहित दीन्ह, दीन्ह सब साजू ॥
चढ़ा बेगि, तब बोहित पेले । धनि सो पुरुष पेम जेइ खेले ॥
पेम-पंथ जौं पहुँचै पारा । बहुरि न मिलै आइ एहि छारा ॥
तेहि पावा उत्तिम कैलासू । जहाँ न मीचु, सदा सुख-बासू ॥
एहि जीवन कै आस का? जस सपना पल आधु ।
मुहमद जियतहि जे मुए तिन्ह पुरुषन्ह कह साधु ॥1॥
पक्का है, पेले=झोंक से चले)
जस बन रेंगि चलै गज-ठाटी । बोहित चले, समुद गा पाटी ॥
धावहि बोहित मन उपराहीं । सहस कोस एक पल महँ जाहीं ॥
समुद अपार सरग जनु लागा । सरग न घाल गनै बैरागा ॥
ततखन चाल्हा एक देखावा । जनु धौलागिरि परबत आवा ॥
उठी हिलोर जो चाल्ह नराजी । लहरि अकास लागि भुइँ बाजी ॥
राजा सेंती किँवर सब कहहीं । अस अस मच्छ समुद महँ अहहीं ॥
तेहि रे पंथ हम चाहहिं गवना । होहु सँजूत बहुरि नहिं अवना ॥
गुरु हमार तुम राजा, हम चेला तुम नाथ ।
जहाँ पाँव गुरु राखै, चेला राखै माथ ॥2॥
पसंगे, बराबर भी नहीं गिनता,कुछ नहीं समझता, घाल=
घलुआ,थोड़ी सी और वस्तु जो सौदे के ऊपर बेचनेवाला
देता है, चाल्हा=एक मछली,चेल्हवा, नराजी=नाराज हुई,
भुइँ बाजी=भूमि पर पड़ी, सँजूत=सावधान,तैयार)
केवट हँसे सो सुनत गवेजा । समुद न जानु कुवाँ कर मेजा ॥
यह तौ चाल्ह न लागै कोहू । का कहिहौ जब देखिहौ रोहू?॥
सो अबहीं तुम्ह देखा नाहीं । जेहि मुख ऐसे सहस समाहीं ॥
राजपंखि तेहि पर मेडराहीं । सहस कोस तिन्ह कै परछाहीं ॥
तेइ ओहि मच्छ ठोर भरि लेहीं । सावक-मुख चारा लेइ देहीं ॥
गरजै गगन पंखि जब बोला । डोल समुद्र डैन जब डोला ॥
तहाँ चाँद औ सूर असूझा । चढ़ै सोइ जो अगुमन बूझा ॥
दस महँ एक जाइ कोइ करम, धरम, तप, नेम ।
बोहित पार होइ जब तबहि कुसल औ खेम ॥3॥
राजै कहा कीन्ह मैं पेमा । जहाँ पेम कहँ कूसल खेमा ॥
तुम्ह खेवहु जौ खैवै पारहु । जैसे आपु तरहु मोहिं तारहु ॥
मोहिं कुसल कर सोच न ओता । कुसल होत जौ जनम न होता ॥
धरती सरग जाँत-पट दोऊ । जो तेहि बिच जिउ राख न कोऊ ।
हौं अब कुसल एक पै माँगौं । पेम-पंथ त बाँधि न खाँगौं ॥
जौ सत हिय तौ नयनहिं दीया । समुद न डरै पैठि मरजीया ॥
तहँ लगि हेरौं समुद ढंढोरी । जहँ लगि रतन पदारथ जोरी ॥
सप्त पतार खोजि कै काढ़ौं वेद गरंथ ।
सात सरग चढ़ि धावौं पदमावति जेहि पंथ ॥4॥
मर-जीया=जी पर खेलकर विकट स्थानों से
व्यापार की वस्तु (जैसे, मोती, शिलाजीत,
कस्तूरी) लाने वाले,जिवकिया, ढंढोरी=छानकर)
15. सात समुद्र-खंड
सायर तरे हिये सत पूरा । जौ जिउ सत, कायर पुनि सूरा ॥
तेइ सत बिहित कुरी चलाए । तेइ सत पवन पंख जनु लाए ॥
सत साथी, सत कर संसारू । सत्त खेइ लेइ लावै पारू ॥
सत्त ताक सब आगू पाछू । जहँ तहँ मगर मच्छ औ काछू ॥
उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा । चढ़ै सरग औ परै पतारा ॥
डोलहिं बोहित लहरैं खाही । खिन तर होहिं, खिनहिं उपराहीं ॥
राजै सो सत हिरदै बाँधा । जेहि सत टेकि करै गिरि काँधा ॥
खार समुद सो नाँघा, आए समुद जहँ खीर ।
मिले समुद वै सातौ, बेहर बेहर नीर ॥1॥
खीर-समुद का बरनौं नीरू । सेत सरूप, पियत जस खीरू ॥
उलथहिं मानिक, मोती, हीरा । दरब देखि मन होइ न थीरा ॥
मनुआ चाह दरब औ भोगू । पंथ भुलाइ बिनासै जोगू ॥
जोगी होइ सो मनहिं सँभारै । दरब हाथ कर समुद पवारै ॥
दरब लेइ सोई जो राजा । जो जोगी तेहिके केहि काजा?॥
पंथहि पंथ दरब रिपु होई । ठग, बटमार, चोर सँग सोई ॥
पंथी सो जो दरब सौं रूसे । दरब समेटि बहुत अस मूसे ॥
खीर-समुद सो नाँघा, आए समुद-दधि माँह ॥
जो है नेह क बाउर तिन्ह कहँ धूप न छाँह ॥2॥
मूसे=मूसे गए,ठगे गए)
दधि-समुद्र देखत तस दाधा । पेम क लुबुध दगध पै साधा ॥
पेम जो दाधा धनि वह जीऊ । दधि जमाइ मथि काढ़े घीऊ ॥
दधि एक बूँद जाम सब खीरू । काँजी-बूँद बिनसि होइ नीरू ॥
साँस डाँडि, मन मथनी गाढ़ी । हिये चोट बिनु फूट न साढ़ी ॥
जेहि जिउ पेम चदन तेहि आगी । पेम बिहून फिरै डर भागी ॥
पेम कै आगि जरै जौं कोई । दुख तेहि कर न अँबिरथा होई ॥
जो जानै सत आपुहि जारै । निसत हिये सत करै न पारै ॥
दधि-समुद्र पुनि पार भे, पेमहि कहा सँभार?।
भावै पानी सिर परै, भावै परै अँगार ॥3॥
दाधा=जला, डाँडि=डाँडी,डोरि, अँबिरथा=वृथा,निष्फल,
निसत=सत्य विहीन, भावै=चाहे)
आए उदधि समुद्र अपारा । धरती सरग जरै तेहि झारा ॥
आगि जो उपनी ओहि समुंदा । लंका जरी ओहि एक बुंदा ॥
बिरह जो उपना ओहि तें गाढ़ा । खिन न बुझाइ जगत महँ बाढ़ा ॥
जहाँ सो बिरह आगि कहँ डीठी । सौंह जरै, फिरि देइ न पीठी ॥
जग महँ कठिन खड़ग कै धारा । तेहि तें अधिक बिरह कै झारा ॥
अगम पंथ जो ऐस न होई । साथ किए पावै सब कोई ॥
तेहि समुद्र महँ राजा परा । जरा चहै पै रोवँ न जरा ॥
तलफै तेल कराह जिमि इमि तलफै सब नीर ।
यह जो मलयगिरि प्रेम कर बेधा समुद समीर ॥4॥
आग को क्या ध्यान में लाता है, सौंह=सामने, यह जो
मलयगिरि=राजा)
सुरा-समुद पुनि राजा आवा । महुआ मद-छाता दिखरावा ॥
जो तेहि पियै सो भाँवरि लेई । सीस फिरै, पथ पैगु न देई ॥
पेम-सुरा जेहि के हिय माहाँ । कित बैठे महुआ कै छाहाँ ॥
गुरू के पास दाख-रस रसा । बैरी बबुर मारि मन कसा ॥
बिरह के दगध कीन्ह तन भाठी । हाड़ जराइ दीन्ह सब काठी ॥
नैन-णीर सौं पोता किया । तस मद चुवा बरा जस दिया ॥
बिरह सरागन्हि भूँजै माँसू । गिरि परै रकत कै आँसू ॥
मुहमद मद जो पेम कर गए दीप तेहि साथ ।
सीस न देइ पतंग होइ तौ लगि लहै न खाध ॥5॥
सीस फिरै=सिर घूमता है, मन कसा=मन वश
में किया, काठी=ईंधन, पोता=मिट्टी के लेप पर
गीले कपड़े का पुचारा जो भबके से अर्क उतारने
में बरतन के ऊपर दिया जाता है, सराग=सलाख,
शलाका,सीख जिसमें गोदकर माँस भूनते हैं,
खाध=खाद्य,भोग)
पुनि किलकिला समुद महँ आए । गा धीरज, देखत डर खाए ॥
भा किलकिल अस उठै हिलोरा । जनु अकास टूटै चहुँ ओरा ॥
उठै लहरि परबत कै नाईं । फिरि आवै जोजन सौ ताईं ॥
धरती लेइ सरग लहि बाढ़ा । सकल समुद जानहुँ भा ठाढ़ा ॥
नीर होइ तर ऊपर सोई । माथे रंभ समुद जस होइ ॥
फिरत समुद जोजन सौ ताका । जैसे भँवै केहाँर क चाका ॥
भै परलै नियराना जबहीं । मरै जो जब परलै तेहि तबहीं ॥
गै औसान सबन्ह कर देखि समुद कै बाढ़ि ।
नियर होत जनु लीलै, रहा नैन अस काढ़ि ॥6॥
शब्द, औसान=होश-हवास)
हीरामन राजा सौं बोला । एही समुद आए सत डोला ॥
सिंहलदीप जो नाहिं निबाहू । एही ठाँव साँकर सब काहू ॥
एहि किलकिला समुद्र गँभीरू । जेहि गुन होइ सो पावै तीरू ॥
इहै समुद्र-पंथ मझधारा । खाँडे कै असि धार निनारा ॥
तीस सहस्र कोस कै पाटा । अस साँकर चलि सकै न चाँटा ॥
खाँडै चाहि पैनि बहुताई । बार चाहि ताकर पतराई ॥
एही ठाँव कहँ गुरु सँग लीजिय । गुरु सँग होइ पार तौ कीजिय ॥
मरन जियन एहि पंथहि, एही आस निरास ।
परा सो गएअउ पतारहि, तरा सो गा कबिलास ॥7॥
राजै दीन्ह कटक कहँ बीरा । सुपुरुष होहु, करहु मन धीरा ॥
ठाकुर जेहिक सूर भा कोई । कटक सूर पुनि आपुहि होई ॥
जौ लहि सती न जिउ सत बाँधा । तौ लहि देइ कहाँर न काँधा ॥
पेम-समुद महँ बाँधा बेरा । यह सब समुद बूँद जेहि केरा ॥
ना हौं सरग क चाहौं राजू । ना मोहिं नरक सेंति किछु काजू ॥
चाहौं ओहि कर दरसन पावा । जेइ मोहिं आनि पेम-पथ लावा ॥
काठहि काह गाढ़ का ढीला? । बूड़ न समुद, मगर नहिं लीला ॥
कान समुद धँसि लीन्हेसि, भा पाछे सब कोइ ।
कोइ काहू न सँभारे, आपनि आपनि होइ ॥8॥
कान=कर्ण,पतवार)
कोइ बोहित जस पौन उड़ाहीं । कोई चमकि बीजु अस जाहीं ॥
कोई जस भल धाव तुखारू । कोई जैस बैल गरियारू ॥
कोई जानहुँ हरुआ रथ हाँका । कोई गरुअ भार बहु थाका ॥
कोई रेंगहिं जानहुँ चाँटी । कोई टूटि होहिं तर माटी ॥
कोई खाहिं पौन कर झोला । कोइ करहिं पात अस डोला ॥
कोई परहिं भौंर जल माहाँ । फिरत रहहिं, कोइ देइ न बाहाँ ॥
राजा कर भा अगमन खेवा । खेवक आगे सुआ परेवा ॥
कोइ दिन मिला सबेरे, कोइ आवा पछ-राति ।
जाकर जस जस साजु हुत सो उतरा तेहि भाँति ॥9॥
झोंका,झकोरा, अगमन=आगे, पछ-राति=पिछली रात, हुत=था)
सतएँ समुद मानसर आए । मन जो कीण्ह साहस, सिधि पाए ॥
देखि मानसर रूप सोहावा । हिय हिलास पुरइनि होइ छावा ॥
गा अँधियार, रैन-मसि छूटी । भा भिनसार किरिन-रवि फूटी ॥
`अस्ति अस्ति सब साथी बोले । अंध जो अहे नैन बिधि खोले ॥
कवँल बिगस तस बिहँसी देहीं । भौंर दसन होइ कै रस लेहीं ॥
हँसहिं हंस औ करहिं किरीरा । चुनहिं रतन मुकुताहल हीरा ॥
जो अस आव साधि तप जोगू । पूजै आस, मान रस भोगू ॥
भौंर जो मनसा मानसर, लीन्ह कँवलरस आइ ।
घुन जो हियाव न कै सका, झर काठ तस खाइ ॥10॥
`अस्ति अस्ति’=जिस सिंहल द्वीप के लिए इतना तप
साधा वह वास्तव में है, अध्यात्मपक्ष में `ईश्वर या
परलोक है’, किरीरा=क्रीड़ा, मुकताहल=मुक्ताफल,
मनसा=मन में संकल्प किया, हियाव=जीवट,साहस)
16. सिंहलद्वीप-खंड
पूछा राजै कहु गुरु सूआ । न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ ॥
पौन बास सीतल लेइ आवा । कया दहत चंदनु जनु लावा ॥
कबहुँ न एस जुड़ान सरीरू । परा अगिनि महँ मलय-समीरू ॥
निकसत आव किरिन-रविरेखा । तिमिर गए निरमल जग देखा ॥
उठै मेघ अस जानहुँ आगे । चमकै बीजु गगन पर लागै ॥
तेहि ऊपर जनु ससि परगासा । औ सो चंद कचपची गरासा ॥
और नखत चहुँ दिसि उजियारे । ठावहिं ठाँव दीप अस बारे ॥
और दखिन दिसि नीयरे कंचन-मेरु देखाव ।
जनु बसंत ऋतु आवै तैसि तैसि बास जग आव ॥1॥
तूँ राजा जस बिकरम आदी । तू हरिचंद बैन सतबादी ॥
गोपिचंद तुइँ जीता जोगू । औ भरथरी न पूज बियोगू ॥
गोरख सिद्धि दीन्ह तोहि हाथू । तारी गुरू मछंदरनाथू ॥
जीत पेम तुइँ भूमि अकासू । दीठि परा सिंघल-कबिलासू ॥
वह जो मेघ गढ़ लाग अकासा । बिजुरी कनय-कोट चहु पासा ॥
तेहि पर ससि जो कचपचि भरा । राजमंदिर सोने नग जरा ॥
और जो नखत देख चहुँ पासा । सब रानिन्ह कै आहिं अवासा ॥
गगन सरोवर, ससि-कँवल कुमुद-तराइन्ह पास ।
तू रवि उआ, भौंर होइ पौन मिला लेइ बास ॥2॥
(वेन का पुत्र पृथु), तारी=ताली,कुंजी, मछंदरनाथ=
मत्स्येंद्रनाथ,गोरखनाथ के गुरु, कनय=कनक,सोना)
सो गढ़ देखु गगन तें ऊँचा । नैनन्ह देखा, कर न पहुँचा ॥
बिजुरी चक्र फिरै चहुँ फेरी । औ जमकात फिरै जम केरी ॥
धाइ जो बाजा कै मन साधा । मारा चक्र भएउ दुइ आधा ॥
चाँद सुरुज औ नखत तराईं । तेहि डर अँतरिख फिरहिं सबाई ॥
पौन जाइ तहँ पहुँचै चहा । मारा तैस लोटि भुइँ रहा ॥
अगिनि उठी, जरि बुझी निआना । धुआँ उठा, उठि बीच बिलाना ॥
पानि उठा उठि जाइ न छूआ । बहुरा रोइ, आइ भुइँ चूआ ॥
रावन चहा सौंह होइ उतरि गए दस माथ ।
संकर धरा लिलाट भुइँ और को जोगीनाथ?॥3॥
पहुँचा,डटा, तैस=ऐसा, निआन=अंत में, जोगीनाथ=
योगीश्वर)
तहाँ देखु पदमावति रामा । भौंर न जाइ, न पंखी नामा ॥
अब तोहि देउँ सिद्धि एक जोगू । पहिले दरस होइ, तब भोगू ॥
कंचन-मेरु देखाव सो जहाँ । महादेव कर मंडप तहाँ ॥
ओहि-क खंड जस परबत मेरू । मेरुहि लागि होइ अति फेरू ॥
माघ मास, पाछिल पछ लागे । सिरी-पंचिमी होइहि आगे ॥
उघरहि महादेव कर बारू । पूजिहि जाइ सकल संसारू ॥
पदमावति पुनि पूजै आवा । होइहि एहि मिस दीठि-मेरावा ॥
तुम्ह गौनहु ओहि मंडप, हौं पदमावति पास ।
पूजै आइ बसंत जब तब पूजै मन-आस ॥4॥
परस्पर दर्शन)
राजै कहा दरस जौं पावौं । परबत काह, गगन कहँ धावौं ॥
जेहि परबत पर दरसन लहना । सिर सौं चढ़ौं, पाँव का कहना ॥
मोहूँ भावै ऊँचै ठाऊँ । ऊँचै लेउँ पिरीतम नाऊँ ॥
पुरुषहि चाहिय ऊँच हियाऊ । दिन दिन ऊँचे राखै पाऊ ॥
सदा ऊँच पै सेइय बारा । ऊँचै सौ कीजिय बेवहारा ॥
ऊँचै चढ़ै, ऊँच खँड सूझा । ऊँचे पास ऊँच मति बूझा ॥
ऊँचे सँग संगति निति कीजै । ऊँचे काज जीउ पुनि दीजै ॥
दिन दिन ऊँच होइ सो जेहि ऊँचे पर चाउ ।
ऊँचे चढ़त जो खसि परै ऊँच न छाँड़िय काउ ॥5॥
हीरामन देइ बचा कहानी । चला जहाँ पदमावति रानी ॥
राजा चला सँवरि सो लता । परबत कहँ जो चला परबता ॥
का परबत चढ़ि देखै राजा । ऊँच मँडप सोने सब साजा ॥
अमृत सदाफर फरे अपूरी । औ तहँ लागि सजीवन-मूरी ॥
चौमुख मंडप चहूँ केवारा । बैठे देवता चहूँ दुवारा ॥
भीतर मँडप चारि खँभ लागे । जिन्ह वै छुए पाप तिन्ह भागे ॥
संख घंट घन बाजहिं सोई । औ बहु होम जाप तहँ होई ॥
महादेव कर मंडप जग मानुस तहँ आव ।
जस हींछा मन जेहि के सो तैसे फल पाव ॥6॥
पद्मावती, परबता=सुआ (सुए का प्यार का नाम)
17. मंडपगमन-खंड
राजा बाउर बिरह-बियोगी । चेला सहस तीस सँग जोगी
पदमावति के दरसन-आसा । दंडवत कीन्ह मँडप चहुँ पासा ॥
पुरुब बार कै सिर नावा । नावत सीस देव पहँ आवा ॥
नमो नमो नारायन देवा । का मैं जोग, करौं तोरि सेवा ॥
तूँ दयाल सब के उपराहीं । सेवा केरि आस तोहि नाहीं ॥
ना मोहि गुन, न जीभ-बाता । तूँ दयाल, गुन निरगुन दाता ॥
पुरवहु मोरि दरस कै आसा । हौं मारग जोवौं धरि साँसा ॥
तेहि बिधि बिनै न जानौं जेहि बिधि अस्तुति तोरि ।
करहु सुदिस्टि मोहिं पर, हींछा पूजै मोहि ॥1॥
कै अस्तुति जब बहुत मनावा । सबद अकूत मँडप महँ आवा ॥
मानुष पेम भएउ बैकुंठी । नाहिं त काह, छार भरि मूठी ॥
पेमहि माँह बिरह-रस रसा । मैन के घर मधु अमृत बसा ॥
निसत धाइ जौं मरै त काहा । सत जौं करै बैठि तेहि लाहा ॥
एक बार जौं मन देइ सेवा । सेवहि फल प्रसन्न होइ देवा ॥
सुनि कै सबद मँडप झनकारा । बैठा आइ पुरुब के बारा ॥
पिंड चड़ाइ छार जेति आँटी । माटी भएउ अंत जो माटी ॥
माटी मोल न किछु लहै, औ माटी सब मोल ।
दिस्टि जौं माटी सौं करै, माटी होइ अमोल ॥2॥
पिंड=शरीर, जोति=जितनी, आँटी=अँटी;हाथ में समाई,
माटी सो दिस्टि करै=सब कुछ मिट्टी समझे या शरीर
मिट्टी में मिलाए, माटी=शरीर, तपा=तपस्वी)
बैठ सिंघछाला होइ तपा । `पदमावति पदमावति’ जपा ॥
दीठि समाधि ओही सौं लागी । जेहि दरसन कारन बैरागी ॥
किंगरी गहे बजावै झूरै । भोर साँझ सिंगी निति पूरै ॥
कंथा जरै, आगि जनु लाई । विरह-धँधार जरत न बुझाई ॥
नैन रात निसि मारग जागे । चढ़ै चकोर जानि ससि लागे ॥
कुंडल गहे सीस भुँइ लावा । पाँवरि होउँ जहाँ ओहि पावा ॥
जटा छोरि कै बार बहारौं । जेहि पथ आव सीस तहँ वारौं ॥
चारिहु चक्र फिरौ मैं, डँडं न रहौं थिर मार ।
होइ कै भसम पौन सँग (धावौ) जहाँ परान-अधार ॥3॥
बहारौं=झाड़ू लगाऊँ, थिर मार=स्थिर होकर)
18. पदमावती-वियोग-खंड
पदमावति तेहि जोग सँजोगा । परी पेम-बसे बियोगा ॥
नींद न परै रैनि जौं आबा । सेज केंवाच जानु कोइ लावा ॥
दहै चंद औ चंदन चीरू दगध करै तन बिरह गँभीरू ॥
कलप समान रेनि तेहि बाढ़ी । तिलतिल भर जुग जुग जिमि गाढ़ी ॥
गहै बीन मकु रैनि बिहाई । ससि-बाहन तहँ रहै ओनाई ॥
पुनि धनि सिंघ उरेहै लागै । ऐसहि बिथा रैनि सब जागै ॥
कहँ वह भौंर कवँल रस-लेवा । आइ परै होइ घिरिन परेवा ॥
से धनि बिरह-पतंग भइ, जरा चहै तेहि दीप ।
कंत न आव भिरिंग होइ, का चंदन तन लीप?॥1॥
प्रभाव से, केंवाच=कपिकच्छु जिसके छू जाने से बदन
में खुजली होती है,केमच, गहै बीन…..ओनाई=बीन
लेकर बैठती है कि कदाचित इसी से रात बीते, पर
उस बीन के सुर पर मोहित होकर चंद्रमा का वाहन
मृग ठहर जाता है जिससे रात और बड़ी हो जाती
है, सिंघ उरेहै लागै=सिंह का चित्र बनाने लगती है,
जिससे चंद्रमा का मृग डरकर भागे, घिरिन परेवा=
गिरहबाज कबूतर, धनि=धन्या स्त्री, कंत न आव
भिरिंग होइ=पति रूप भृंग आकर जब मुझे अपने
रंग में मिला लेगा तभी जलने से बच सकती हूँ,
लीप=लेप करती हो)
परी बिरह बन जानहुँ घेरी । अगम असूझ जहाँ लगि हेरी ॥
चतुर दिसा चितवै जनु भूली । सो बन कहँ जहँ मालति फूली?॥
कवँल भौंर ओही बन पावै । को मिलाइ तन-तपनि बुझावै?॥
अंग अंग अस कँवल सरीरा । हिय भा पियर कहै पर पीरा ॥
चहै दरस रबि कीन्ह बिगासू । भौंर-दीठि मनो लागि अकासू ॥
पूँछै धाय, बारि! कहु बाता । तुइँ जस कँवल फूल रँग राता ॥
केसर बरन हिया भा तोरा । मानहुँ मनहिं भएउ किछु भोरा ॥
पौन न पावै संचरै, भौंर न तहाँ बईठ ।
भूलि कुरंगिनि कस भई, जानु सिंघ तुइँ डीठ ॥2॥
होता है, परपीरा=दूसरे का दुःख या वियोग, भौंर-दीठि
मनो लागि अकासू=कमल पर जैसे भौंरे होते हैं वैसे ही
कमल सी पद्मावती की काली पुतलियाँ उस सूर्य का
विकास देखने को आकाश कौ ओर लगी हैं, भोरा=भ्रम)
धाय सिंघ बरू खातेउ मारी । की तसि रहति अही जसि बारी ॥
जोबन सुनेउँ की नवल बसंतू । तेहि बन परेउ हस्ति मैमंतू ॥
अब जोबन-बारी को राखा । कुंजर-बिरह बिधंसै साखा ॥
मैं जानेउँ जोबन रस भोगू ।जोबन कठिन सँताप बियोगू ॥
जोबन गरुअ अपेल पहारू । सहि न जाइ जोबन कर भारू ॥
जोबन अस मैमंत न कोई । नवैं हस्ति जौं आँकुस होई ॥
जोबन भर भादौं जस गंगा । लहरैं देइ, समाइ न अंगा ॥
परिउँ अथाह, धाय! हौं जोबन-उदधि गँभीर ।
तेहि चितवौ चारिहु दिसि जो गहि लावै तीर ॥3॥
पदमावति! तुइ समुद सयानी । तोहि सर समुद न पूजै, रानी ॥
नदी समाहिं समुद महँ आई । समुद डोलि कहु कहाँ समाई ॥?
अबहिं कवँल-करी हित तोरा । आइहि भौंर जो तो कहँ जोरा ॥
जोबन-तुरी हाथ गहि लीजिय । जहाँ जाइ तहँ जाइ न दीजिय ॥
जोबन जोर मात गज अहै । गहहुँ ज्ञान-आँकुस जिमि रहै ॥
अबहिं बारि पेम न खेला । का जानसि कस होइ दुहेला ॥
गगन दीठि करु नाइ तराहीं । सुरुज देखु कर आवै नाहीं ॥
जब लगि पीउ मिलै नहिं, साधु पेम कै पीर ।
जैसे सीप सेवाति कहँ तपै समुद मँझ नीर ॥4॥
मतवाला, दुहेला=कठिन खेल, गगन दीठि …तराहीं=
पहले कह आए हैं कि “भौर-दीठि मनो लागि अकासू”)
दहै, धाय! जोबन एहि जीऊ । जानहुँ परा अगिनि महँ घीऊ ॥
करबत सहौं होत दुइ आधा । सहि न जाइ जोबन कै दाधा ॥
बिरह समुद्र भरा असँभारा । भौंर मेलि जिउ लहरिन्ह मारा ॥
बिहग-नाग होइ सिर चढ़ि डसा । होइ अगिनि चंदन महँ बसा ॥
जोबन पंखी, बिरह बियाधू । केहरि भयउ कुरंगिनि-खाधू ॥
कनक-पानि कित जोबन कीन्हा । औटन कठिन बिरह ओहि दीन्हा ॥
जोबन-जलहि बिरह-मसि छूआ । फूलहिं भौंर, फरहिं भा सूआ ॥
जोबन चाँद उआ जस, बिरह भएउ सँग राहु ।
घटतहि घटत छीन भइ, कहै न पारौं काहु ॥5॥
को चंदन से भी ताप होना प्रसिद्ध है, केहरि भएउ….खाधू=
जैसे हिरनी के लिये सिंह, वैसे ही यौवन के लिये विरह
हुआ, औटन=पानी का गरम करके खौलाया जाना, मसि=
कालिमा, फूलहि भौंर …सूआ=जैसे फूल को बिगाड़नेवाला
भौंरा और फल को नष्ट करनेवाला तोता हुआ वैसे ही
यौवन को नष्ट करने वाला विरह हुआ)
नैन ज्यौं चक्र फिरै चहुँ ओरा । बरजै धाय, समाहिं न कोरा ॥
कहेसि पेम जौं उपना, बारी । बाँधु सत्त, मन डोल न भारी ॥
जेहि जिउ महँ होइ सत्त-पहारू । परै पहार न बाँकै बारू ॥
सती जो जरे पेम सत लागी । जौं सत हिये तौ सीतल आगी ॥
जोबन चाँद जो चौदस -करा । बिरह के चिनगी सो पुनि जरा ॥
पौन बाँध सो जोगी जती । काम बाँध सो कामिनि सती ॥
आव बसंत फूल फुलवारी । देव-बार सब जैहैं बारी ॥
तुम्ह पुनि जाहु बसंत लेइ, पूजि मनावहु देव ।
जीउ पाइ जग जनम है, पीउ पाइ के सैव ॥6॥
जब लगि अवधि आइ नियराई । दिन जुग-जुग बिरहनि कहँ जाई ॥
भूख नींद निसि-दिन गै दौऊ । हियै मारि जस कलपै कोऊ ॥
रोवँ रोवँ जनु लागहि चाँटे । सूत सूत बेधहिं जनु काँटे ॥
दगधि कराह जरै जस घीऊ । बेगि न आव मलयगिरि पीऊ ॥
कौन देव कहँ जाइ के परसौं । जेहि सुमेरु हिय लाइय कर सौं ॥
गुपुति जो फूलि साँस परगटै । अब होइ सुभर दहहि हम्ह घटै ॥
भा सँजोग जो रे भा जरना । भोगहि भए भोगि का करना ॥
जोबन चंचल ढीठ है, करै निकाजै काज ।
धनि कुलवंति जो कुल धरै कै जोबन मन लाज ॥7॥
सुमेरु को हाथ से हृदय में लगाऊँ, होइ सुभर=अधिक
भरकर,उमड़कर, घटैं=हमारे शरीर को, निकाजै=निकम्मा
ही, जोबन=यौवनावस्था में)
19. पदमावती-सुआ-भेंट-खंड
तेहि बियोग हीरामन आवा । पदमावति जानहुँ जिउ पावा ॥
कंठ लाइ सूआ सौं रोई । अधिक मोह जौं मिलै बिछोई
आगि उठे दुख हिये गँभीरू । नैनहिं आइ चुवा होइ नीरू ॥
रही रोइ जब पदमिनि रानी । हँसि पूछहिं सब सखी सयानी ॥
मिले रहस भा चाहिय दूना । कित रोइय जौं मिलै बिछूना?
तेहि क उतर पदमावति कहा । बिछुरन-दुख जो हिये भरि रहा ॥
मिलत हिये आएउ सुख भरा । वह दुख नैन-नीर होइ ढरा ॥
बिछुरंता जब भेंटै सो जानै जेहि नेह ।
सुक्ख-सुहेला उग्गवै दुःख झरै जिमि मेह ॥1॥
सुहेला=सुहैल या अगस्त तारा, झरै=छँट जाता है, दूर हो
जाता है, मेह=मेघ,बादल)
पुनि रानी हँसि कूसल पूछा । कित गवनेहु पींजर कै छूँछा ॥
रानी! तुम्ह जुग जुग सुख पाटू । छाज न पंखिहि पीजर -ठाटू ॥
जब भा पंख कहाँ थिर रहना । चाहै उड़ा पंखि जौं डहना ॥
पींजर महँ जो परेवा घेरा । आइ मजारि कीन्ह तहँ फेरा ॥
दिन एक आइ हाथ पै मेला । तेहि डर बनोबास कहँ खेला ॥
तहाँ बियाध आइ नर साधा । छूटि न पाव मीचु कर बाँधा ॥
वै धरि बेचा बाम्हन हाथा । जंबूदीप गएउँ तेहहि साथा ॥
तहाँ चित्र चितउरगढ़ चित्रसेन कर राज ।
टीका दीन्ह पुत्र कहँ, आपु लीन्ह सर साज ॥2॥
दिन एक ..मेला=किसी दिन अवश्य हाथ डालेगी, नर=
नरसल,जिसमें लासा लगाकर बहेलिए चिड़िया फँसाते
हैं, चित्र=विचित्र, सर साज लीन्ह=चिता पर चढ़ा;मर गया)
बैठ जो राज पिता के ठाऊँ । राजा रतनसेन ओहि नाऊँ ॥
बरनौं काह देस मनियारा । जहँ अस नग उपना उजियारा ॥
धनि माता औ पिता बखाना । जेहिके बंस अंस अस आना ॥
लछन बतीसौ कुल निरमला । बरनि न जाइ रूप औ कला ॥
वै हौं लीन्ह, अहा अस भागू । चाहै सोने मिला सोहागू ॥
सो नग देखि हींछा भइ मोरी । है यह रतन पदारथ जोरी ॥
है ससि जोग इहै पै भानु । तहाँ तुम्हार मैं कीन्ह बखानू ॥
कहाँ रतन रतनागर, कंचन कहाँ सुमेर ।
दैव जो जोरी दुहुँ लिखी मिलै सो कौनेहु फेर ॥3॥
रत्नाकर,समुद्र)
सुनत बिरह-चिनगी ओहि परी । रतन पाव जौं कंचन-करी ॥
कठिन पेम विरहा दुख भारी । राज छाँड़ि भा जोगि भिखारी ॥
मालति लागि भौंर जस होइ । होइ बाउर निसरा बुधि खोई ॥
कहेसि पतंग होइ धनि लेऊँ । सिंघलदीप जाइ जिउ देऊँ ॥
पुनि ओहि कोउ न छाँड़ अकेला । सोरह सहस कुँवर भए चेला ॥
और गनै को संग सहाई?। महादेव मढ़ मेला जाई ॥
सूरुज पुरुष दरस के ताईं । चितवै चंद चकोर कै नाईं ॥
तुम्ह बारी रस जोग जेहि, कँवलहि जस अरघानि ।
तस सूरुज परगास कै, भौंर मिलाएउँ आनि ॥4॥
निमित्त, मेला=पहुँचा, दरस के ताईं=दर्शन के लिये)
हीरामन जो कही यह बाता । सुनिकै रतन पदारथ राता ॥
जस सूरुज देखे होइ ओपा । तस भा बिरह कामदल कोपा ॥
सुनि कै जोगी केर बखानू । पदमावति मन भा अभिमानू ॥
कंचन करी न काँचहि लोभा । जौं नग होइ पाव तब सोभा ॥
कंचन जौं कसिए कै ताता । तब जानिय दहुँ पीत की राता ॥
नग कर मरम सो जड़िया जाना । जड़ै जो अस नग देखि बखाना ॥
को अब हाथ सिंघ मुख घालै । को यह बात पिता सौं चालै ॥
सरग इंद्र डरि काँपै, बासुकि डरै पतार ।
कहाँ सो अस बर प्रिथिमी मोहि जोग संसार ॥5॥
कि राता=पीला कि लाल,पीला सोना,मध्यम और लाल
चोखा माना जाता है)
तू रानी ससि कंचन-करा । वह नग रतन सूर निरमरा ॥
बिरह-बजागि बीच का कोई । आगि जो छुवै जाइ जरि सोई ॥
आगि बुझाइ परे जल गाढ़ै । वह न बुझाइ आपु ही बाढ़ै॥
बिरह के आगि सूर जरि काँपा । रातिहि दिवस जरै ओहि तापा ॥
खिनहिं सरग खिन जाइ पतारा । थिर न रहै एहि आगि अपारा ॥
धनि सो जीउ दगध इमि सहै । अकसर जरै, न दूसर कहै ॥
सुलगि भीतर होइ सावाँ । परगट होइ न कहै दुख नावाँ ॥
काह कहौं हौं ओहि सौं जेइ दुख कीन्ह निमेट ।
तेहि दिन आगि करै वह (बाहर) जेहि दिन होइ सो भेंट ॥6॥
सावाँ=श्याम, साँवला, काह कहौं हौं…निमेट=सूआ रानी
से पूछता है कि मैं उस राजा के पास जाकर क्या संदेसा
कहूँ जिसने न मिटने वाला दुःख उठाया है)
सुनि कै धनि, ` जारी अस कया’ मन भा मयन, हिये भै मया ॥
देखौं जाइ जरै कस भानू । कंचन जरे अधिक होइ बानू ॥
अब जौं मरै वह पेम-बियोगी । हत्या मोहिं, जेहि कारन जोगी ॥
सुनि कै रतन पदारथ राता । हीरामन सौं कह यह बाता ॥
जौं वह जोग सँभारै छाला । पाइहिं भुगुति, देहुँ जयमाला ॥
आव बसंत कुसल जौं पावौं । पूजा मिस मंडप कहँ आवौं ॥
गुरु के बैन फूल हौं गाँथे । देखौं नैन, चढ़ावैं माथे ॥
कवँल-भवर तुम्ह बरना, मैं माना पुनि सोइ ।
चाँद सूर कहँ चाहिए, जौं रे सूर वह होइ ॥7॥
(गुरु के) कहने से उसके प्रेम की माला मैंने गूँथ ली)
हीरामन जो सुना रस-बाता । पावा पान भएउ मुख राता ॥
चला सुआ, रानी तब कहा । भा जो परावा कैसे रहा?॥
जो निति चलै सँवारे पाँखा । आजु जो रहा, काल्हि को राखा?॥
न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ । आएहु मिलै, चलेहु मिलि, सूआ ॥
मिलि कै बिछुरि मरन कै आना । कित आएहु जौं चलेहु निदाना? ॥
तनु रानी हौं रहतेउँ राँधा । कैसे रहौं बचन कर बाँधा ॥
ताकरि दिस्टि ऐसि तुम्ह सेवा । जैसे कुंज मन रहै परेवा ॥
बसै मीन जल धरती, अंबा बसै अकास ।
जौं पिरीत पै दुवौ महँ अंत होहिं एक पास ॥8॥
राँधा=पास,समीप, ताकरि=रतनसेन की, तुम्ह सेवा=तुम्हारी
सेवा में, अंबा=आम का फल, बसै मीन…पास=जब मछली
पकाई जाती है तब उसमें आम की खटाई पड़ जाती है;
इस प्रकार इस प्रकार आम और मछली का संयोग हो
जाता है । जिस प्रकार आम और मछली दोनों का प्रेम
एक जल के साथ होने से दोनों में प्रेम-संबंध होता है,
उसी प्रकार मेरा और रतनसेन का प्रेम तुम पर है इससे
जब दोनों विवाह के द्वारा एक साथ हो जायँगे तब मैं
भी वहीं रहूँगा, मारग=मार्ग में (लगे हुए), आदि=प्रेम
का मूल मंत्र)
आवा सुआ बैठ जहँ जोगी । मारग नैन, बियोग बियोगी ॥
आइ पेम-रस कहा सँदेसा । गोरख मिला, मिला उपदेसा ॥
तुम्ह कहँ गुरू मया बहु कीन्हा । कीन्ह अदेस, आदि कहि दीन्हा ॥
सबद, एक उन्ह कहा अकेला । गुरु जस भिंग, फनिग जस चेला ॥
भिंगी ओहि पाँखि पै लेई । एकहि बार छीनि जिउ देई ॥
ताकहु गुरु करै असि माया । नव औतार देइ, नव काया ॥
होई अमर जो मरि कै जीया । भौंर कवँल मिलि कै मधु पीया ॥
आवै ऋतु-बसंत जब तब मधुकर तब बासु ।
जोगी जोग जो इमि करै सिद्धि समापत तासु ॥9॥
20. बसंत-खंड
दैऊ देउ कै सो ऋतु गँवाई । सिरी-पंचमी पहुँची आई ॥
भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ । खिन न सोहाइ धूप औ छाहाँ ॥
पदमावति सब सखी हँकारी । जावत सिंघलदीप कै बारी ॥
आजु बसंत नवल ऋतुराजा । पंचमि होइ, जगत सब साजा ॥
नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा । सीस परासहि सेंदुर दीन्हा ॥
बिगसि फूल फूले बहु बासा । भौंर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥
पियर-पात -दुख झरे निपाते । सुख पल्लव उपने होइ राते ॥
अवधि आइ सो पूजी जो हींछा मन कीन्ह ।
चलहु देवगढ़ गोहने, चहहुँ सो पूजा दीन्ह ॥1॥
बुलाया, बारी=कुमारियाँ, गोहने=साथ में,सेवा में)
फिरी आन ऋतु-बाजन बाजे । ओ सिंगार बारिन्ह सब साजे ॥
कवँल-कली पदमावति रानी । होइ मालति जानौं बिगसानी ॥
तारा-मँडल पहिरि भल चोला । भरे सीस सब नखत अमोला ॥
सखी कुमोद सहस दस संगा । सबै सुगंध चढ़ाए अंगा ॥
सब राजा रायन्ह कै बारी । बरन बरन पहिरे सब सारी ॥
सबै सुरूप, पदमिनी जाती । पान, फूल सेंदुर सब राती ॥
करहिं किलोल सुरंग-रँगीली । औ चोवा चंदन सब गीली ॥
चहुँ दिसि रही सो बासना फुलवारी अस फूलि ।
वै बसंत सौं भूलीं, गा बसंत उन्ह भूलि ॥2॥
मालती के समान होकर, तारा-मंडल=एक वस्त्र का नाम,
चाँद तारा, कुमोद=कुमुदिनी)
भै आहा पदमावति चली छत्तिस कुरि भइँ गोहन भली ॥
भइँ गोरी सँग पहिरि पटोरा । बाम्हनि ठाँव सहस अँग मोरा ॥
अगरवारि गज गौन करेई । बैसिनि पावँ हंसगति देई ॥
चंदेलिनि ठमकहिं पगु धारा । चली चौहानि, होइ झनकारा ॥
चली सोनारि सोहाग सोहाती । औ कलवारि पेम-मधु-माती ॥
बानिनि चली सेंदुर दिए माँगा । कयथिनि चली समाइँ न आँगा ॥
पटइनि पहिरि सुरँग-तन चोला । औ बरइनि मुख खात तमोला ॥
चलीं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ ।
बिस्वनाथ कै पूजा, पदमावति के साथ ॥3॥
कुलों की, बौसिनि=बैस क्षत्रियों की स्त्रियाँ, बानिनि=बनियाइन,
पउनि=पानेवाली,आश्रित,पौनी,परजा, डार=डाला)
कवँल सहाय चलीं फुलवारी । फर फूलन सब करहिं धमारी ॥
आपु आपु महँ करहिं जोहारू । यह बसंत सब कर तिवहारू ॥
चहै मनोरा झूमक होई । फर औ फूल लिएउ सब कोई ॥
फागु खेलि पुनि दाहब होरी । सैंतब खेह, उड़ाउब झोरी ॥
आजु साज पुनि दिवस न दूजा । खेलि बसंत लेहु कै पूजा ॥
भा आयसु पदमावति केरा । बहुरि न आइ करब हम फेरा ॥
तस हम कहँ होइहि रखवारी । पुनि हम कहाँ, कहाँ यह बारी ॥
पुनि रे चलब घर आपने पूजि बिसेसर-देव ।
जेहि काहुहि होइ खेलना आजु खेलि हँसि लेव ॥4॥
झूमक=एक प्रकार के गीत जिसे स्त्रियाँ झुँड बाँधकर
गाती हैं;इसके प्रत्येक पद में “मनोरा झूमक हो” यह
वाक्य आता है, सैंतब=समेट कर इकट्ठा करेंगी)
काहू गही आँब कै डारा । काहू जाँबु बिरह अति झारा ॥
कोइ नारँग कोइ झाड़ चिरौंजी । कोइ कटहर, बड़हर, कोइ न्यौजी ॥
कोइ दारिउँ कोइ दाख औ खीरी । कोइ सदाफर, तुरँज जँभीरी ॥
कोइ जायफर, लौंग, सुपारी । कोइ नरियर, कोइ गुवा, छोहारी ॥
कोइ बिजौंर, करौंदा-जूरी । कोइ अमिली, कोइ महुअ, खजूरी ॥
काहू हरफारेवरि कसौंदा । कोइ अँवरा, कोइ राय-करौंदा ॥
काहू गही केरा कै घौरी । काहू हाथ परी निंबकौरी ॥
काहू पाई णीयरे, कोउ गए किछु दूरि ।
काहू खेल भएउ बिष, काहू अमृत-मूरि ॥5॥
दिखाई देती है, न्योजी=चिलगोजा, खीरी=खिरनी, गुवा=
गुवाक,दक्खिनि सुपारी)
पुनि बीनहिं सब फूल सहेली । खोजहिं आस-पास सब बेली ॥
कोइ केवड़ा, कोइ चंप नेवारी । कोइ केतकि मालति फुलवारी ॥
कोइ सदबरग, कुंद, कोइ करना । कोइ चमेलि, नागेसर बरना ॥
कोइ मौलसिरि, पुहुप बकौरी । कोई रूपमंजरी गौरी ॥
कोइ सिंगारहार तेहि पाहाँ । कोइ सेवती, कदम के छाहाँ ॥
कोइ चंदन फूलहिं जनु फूली । कोइ अजान-बीरो तर भूली ॥
(कोइ) फूल पाव, कोइ पाती, जेहि के हाथ जो आँट ॥
(कोइ) हारचीर अरुझाना, जहाँ छुवै तहँ काँट ॥6॥
अजानबीरो=एक बड़ा पेड़ जिसके संबंध में कहा जाता है
कि उसके नीचे जाने से आदमी को सुध-बुध भूल जाती है)
फर फूलन्ह सब डार ओढ़ाई । झुंड बाँधि कै पंचम गाई ॥
बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी । मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी ॥
सिंगि संख, डफ बाजन बाजे । बंसी, महुअर सुरसँग साजे ॥
और कहिय जो बाजन भले । भाँति भाँति सब बाजत चले ॥
रथहिं चढ़ी सब रूप-सोहाई । लेइ बसंत मठ-मँडप सिधाई ॥
नवल बसंत; नवल सब बारी । सेंदुर बुक्का होइ धमारी ॥
खिनहिं चलहिं; खिन चाँचरि होई । नाच कूद भूला सब कोई ॥
सेंदुर-खेह उड़ा अस, गगन भएउ सब रात ।
राती सगरिउ धरती, राते बिरिछन्ह पात ॥7॥
एहिं बिधि खेलति सिंघलरानी । महादेव-मढ़ जाइ तुलानी ॥
सकल देवता देखै लागे । दिस्टि पाप सब ततछन भागै ॥
एइ कबिलास इंद्र कै अछरी । की कहुँ तें आईं परमेसरी ॥
कोई कहै पदमिनी आईं । कोइ कहै ससि नखत तराईं ॥
कोई कहै फूली फुलवारी । फूल ऐसि देखहु सब बारी ॥
एक सुरूप औ सुंदर सारी । जानहु दिया सकल महि बारी ॥
मुरुछि परै जोई मुख जोहै । जानहु मिरिग दियारहि मोहै ॥
कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु चाँप ।
कोइ पतंग भा दीपक, कोइ अधजर तन काँप ॥8॥
में दिखाई पड़ता है;मृगतृष्णा, चाँप=चंपा,चंपे की महक
भौंरा नहीं सह सकता)
पदमावति गै देव-दुवारा । भीतर मँडप कीन्ह पैसारा ॥
देवहि संसै भा जिउ केरा । भागौं केहि दिसि मंडप घेरा ॥
एक जोहार कीन्ह औ दूजा । तिसरे आइ चढ़ाएसि पूजा ॥
फर फूलन्ह सब मँडप भरावा । चंदन अगर देव नहवावा ॥
लेइ सेंदुर आगे भै खरी । परसि देव पुनि पायन्ह परी ॥
`और सहेली सबै बियाहीं । मो कहँ देव! कतहुँ बर नाहीं ॥
हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा । गुनि निरगुनि दाता तुम देवा ॥
बर सौं जोग मोहि मेरवहु, कलस जाति हौं मानि ।
जेहि दिन हींछा पूजै बेगि चढ़ावहुँ आनि ॥9॥
हींछि हींछि बिनवा जस जानी । पुनि कर जोरि ठाड़ि भइ रानी ॥
उतरु को देइ, देव मरि गएउ । सबत अकूत मँडप महँ भएउ ॥
काटि पवारा जैस परेवा । सोएव ईस, और को देवा ॥
भा बिनु जिउ नहिं आवत ओझा । बिष भइ पूरि, काल भा गोझा ॥
जो देखै जनु बिसहर-डसा । देखि चरित पदमावति हँसा ॥
भल हम आइ मनावा देवा । गा जनु सोइ, को मानै सेवा? ॥
कौ हींछा पूरै, दुख खोवा । जेहि मानै आए सोइ सोवा ॥
जेहि धरि सखी उठावहिं, सीस विकल नहिं डोल ।
धर कोइ जीव न जानौं, मुख रे बकत कुबोल ॥10॥
उपाध्याय,पुजारी, पूरि=पूरी, गोझा=एक पकवान, पिराक,
खोवा=खोव, धर=शरीर)
ततखन एक सखी बिहँसानी । कौतुक आइ न देखहु रानी ॥
पुरुब द्वार मढ़ जोगी छाए । न जनौं कौन देस तें आए ॥
जनु उन्ह जोग तंत तन खेला । सिद्ध होइ निसरे सब चेला ॥
उन्ह महँ एक गुरू जो कहावा । जनु गुड़ देइ काहू बौरावा ॥
कुँवर बतीसौ लच्छन राता । दसएँ लछन कहै एक बाता ॥
जानौं आहि गोपिचंद जोगी । की सो आहि भरथरी वियोगी ॥
वै पिंगला गए कजरी-आरन । ए सिंघल आए केहि कारन?॥
यह मूरति, यह मुद्रा, हम न देख अवधूत ।
जानौं होहिं न जोगी कोइ राजा कर पूत ॥11॥
दसवाँ लक्षण `सत्य’ है, पिंगला=पिंगला नाड़ी साधने के
लिये अथवा पिंगला नाम की अपनी रानी के कारण,
कजरी आरन=कदलीबन)
सुनि सो बात रानी रथ चढ़ी । कहँ अस जोगी देखौं मढ़ी ॥
लेइ सँग सखी कीन्ह तहँ फेरा । जोगिन्ह आइ अपछरन्ह घेरा ॥
नयन कचोर पेम-पद भरे । भइ सुदिस्टि जोगी सहुँ टरे ॥
जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा । नैन रोपि नैनहिं जिउ दीन्हा ॥
जेहि मद चढ़ा परा तेहि पाले । सुधि न रही ओहि एक पियाले ॥
परा माति गोरख कर चेला । जिउ तन छाँड़ि सरग कहँ खेला ॥
किंगरी गहे जो हुत बैरागी । मरतिहु बार उहै धुनि लागी ॥
जेहि धंधा जाकर मन लागै सपनेहु सूझ सो धंध ।
तेहि कारन तपसी तप साधहिं, करहिं पेम मन बंध ॥12॥
नैन रोपि…दीन्हा=आँखों में ही पद्मावती के नेत्रों के मद को
लेकर बेसुध हो गया)
पदमावति जस सुना बखानू । सहस-करा देखेसि तस भानू ॥
मेलेसि चंदन मकु खिन जागा । अधिकौ सूत, सीर तन लागा ॥
तब चंदन आखर हिय लिखे । भीख लेइ तुइ जोग न सिखे ॥
घरी आइ तब गा तूँ सोई । कैसे भुगुति परापति होई?॥
अब जौं सूर अहौ ससि राता । आएउ चढ़ि सो गगन पुनि साता ॥
लिखि कै बात सखिन सौं कही । इहै ठाँव हौं बारति रही ॥
परगट होहुँ न होइ अस भंगू । जगत या कर होइ पतंगू ॥
जा सहुँ हौं चख हेरौं सोइ ठाँव जिउ देइ ।
एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ?॥13॥
अक्षर, ठाँव=अवसर,मौका, बारति रही=बचाती रही, भगू=
रंग में भंग,उपद्रव)
कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका । परबत छाँड़ि सिंगलगढ़ ताका ॥
बलि भए सबै देवता बली । हात्यारि हत्या लेइ चली ॥
को अस हितू मुए गह बाहीं । जौं पै जिउ अपने घट नाहीं ॥
जौ लहि जिउ आपन सब कोई । बिनु जिउ कोइ न आपन होई ॥
भाइ बंधु औ मीत पियारा । बिनु जिउ घरी न राखै पारा ॥
बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा । छार मिलावै सौ हित पूरा ॥
तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा । को उठि बैठि गरब सौं गाजा ॥
परी कथा भुइँ लोटे, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ ।
को उठाइ बैठारै बाज पियारे जीव ॥14॥
भीउँ=बलि और भीम कहलाने वाला, बाज=बिना,बगैर,छोड़कर)
पदमावति सो मँदिर पईठी । हँसत सिंघासन जाइ बईठी ॥
निसि सूती सुनि कथा बिहारी । भा बिहान कह सखी हँकारी ॥
देव पूजि जस आइउँ काली । सपन एक निसि देखिउँ, आली ॥
जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा । ओ रवि उदय पछिउँ दिसि कीन्हा ॥
पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा । चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा ॥
दिन औ राति भए जनु एका । राम आइ रावन-गढ़ छेकाँ ॥
तस किछु कहा न जाइ निखेधा । अरजुन-बान राहु गा बेधा ॥
जानहु लंक सब लूटी, हनुवँ बिधंसी बारि ।
जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कहु सपन बिचारि ॥15॥
ऐसी निषिद्ध या बुरी बात है, राहु=रोहू मछली, राहु गा
बेधा=मत्स्यबेध हुआ)
सखी सो बोली सपन-बिचारू । काल्हि जो गइहुँ देव के बारू ॥
पूजि मनाइहुँ बहुतै भाँती । परसन आइ भए तुम्ह राती ॥
सूरुज पुरुष चाँद तुम रानी । अस वर दैउ मेरावै आनी ॥
पच्छिउँ खंड कर राजा कोई । सो आवा बर तुम्ह कहँ होई ॥
किछु पुनि जूझ लागि तुम्ह रामा । रावन सौं होइहि सँगरामा ॥
चाँद सुरुज सौं होइ बियाहू । बारि बिधंसब बेधब राहू ॥
जस ऊषा कहँ अनिरुध मिला । मेटि न जाइ लिखा पुरबिला ॥
सुख सोहाग जो तुम्ह कहँ पान फूल रस भोग ।
आजु काल्हि भा चाहै, अस सपने क सँजोग ॥16॥
राम=रत्नसेन, रावण=गंधर्वसेन), बारि बिधंसब=संभोग
के समय श्रंगार के अस्तव्यस्त होने का संकेत,बगीचा,
पुरबिला=पूर्व जन्म का, संजोग=फल या व्यवस्था)
21. राजा-रत्नसेन-सती-खंड
कै बसंत पदमावति गई । राजहि तब बसंत सुधि भई ॥
जो जागा न बसंत न बारी । ना वह खेल, न खेलनहारी ॥
ना वह ओहि कर रूप सुहाई । गै हेराइ, पुनि दिस्टि न आई ॥
फूल झरे, सूखी फुलवारी । दीठि परी उकठी सब बारी ॥
केइ यह बसत बसंत उजारा?। गा सो चाँद, अथवा लेइ तारा॥
अब तेहि बिनु जग भा अँधकूपा । वह सुख छाँह, जरौं दुख-धूपा ॥
बिरह-दवा को जरत सिरावा?। को पीतम सौं करै मेरावा?॥
हिये देख तब चंदन खेवरा, मिलि कै लिखा बिछोव ।
हाथ मींजि सिर धुनि कै रोवै जो निचींत अस सोव ॥1॥
खौरा हुआ,चित्रित किया या लगाया हुआ)
जस बिछोह जल मीन दुहेला । जल हुँत काढ़ि अगिनि महँ मेला ॥
चंदन-आँक दाग हिय परे । बुझहिं न ते आखर परजरे ॥
जनु सर-आगि होइ हिय लागे । सब तन दागि सिंघ बन दागे ॥
जरहिं मिरिग बन-खँड तेहि ज्वाला । औ ते जरहिं बैठ तेहि छाला ॥
कित ते आँक लिखे जौं सोवा । मकु आँकन्ह तेइ करत बिछौवा ॥
जैस दुसंतहि साकुंतला । मधवानलहि काम-कंदला ॥
भा बिछोह जस नलहि दमावति । मैना मूँदि छपी पदमावति ॥
आइ बसंत जो छिप रहा होइ फूलन्ह के भेस ।
केहि बिधि पावौं भौंर होइ, कौन गुरू-उपदेस ॥2॥
सब…दागे=मानों उन्हीं अग्निबाणों से झुलसकर
सिंह के शरीर में दाग बन गए हैं और बन में
आग लगा करती है, कितते आँक…सोवा=जब
सोया था तब वे अंक क्यों लिखे गए;दूसरे पक्ष
में जब जीव अज्ञान-दशा में गर्भ में रहता है
तब भाग्य का लेख क्यों लिखा जाता है,
दमावति=दमयंती)
रोवै रतन-माल जनु चूरा । जहँ होइ ठाढ़, होइ तहँ कूरा ॥
कहाँ बसंत औ कोकिल-बैना । कहाँ कुसुम अति बेधा नैना ॥
कहाँ सो मूरति परी जो डीठी । काढ़ि लिहेसि जिउ हिये पईठी ॥
कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा?। जौं सुबसंत करीलहि काहा?॥
पात-बिछोह रूख जो फूला । सो महुआ रोवै अस भुला ॥
टपकैं महुअ आँसु तस परहीं । होइ महुआ बसमत ज्यों झरहीं ॥
मोर बसंत सो पदमिनि बरी । जेहि बिनु भएउ बसंत उजारी ॥
पावा नवल बसंत पुनि बहु बहु आरति बहु चोप ।
ऐस न जाना अंत ही पात झरहिं, होइ कोप ॥3॥
उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है? करील
के वन में वसंत के जाने ही से क्या? आरति=
दुःख, चोप=चाह)
अरे मलिछ बिसवासी देवा । कित मैं आइ कीन्ह तोरि सेवा ॥
आपनि नाव चढ़ै जो देई । सो तौ पार उतारे खेई ॥
सुफल लागि पग टेकेउँ तोरा । सुआ क सेंबर तू भा मोरा ॥
पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा । सो ऐसे बूड़ै मझ धारा ॥
पाहन सेवा कहाँ पसीजा?। जनम न ओद होइ जो भीजा ॥
बाउर सोइ जो पाहन पूजा । सकत को भार लेइ सिर दूजा?॥
काहे न जिय सोइ निरासा । मुए जियत मन जाकरि आसा ॥
सिंघ तरेंदा जेइ गहा पार भए तेहि साथ ।
ते पै बूड़े बाउरे भेंड़-पूंछि जिन्ह हाथ ॥4॥
देव कहा सुनु, बउरे राजा । देवहि अगुमन मारा गाजा ॥
जौं पहिलेहि अपने सिर परई । सो का काहुक धरहरि करई ॥
पदमावति राजा कै बारी । आइ सखिन्ह सह बदन उघारी ॥
जैस चाँद गोहने सब तारा । परेउँ भुलाइ देखि उजियारा ॥
चमकहिं दसन बीजु कै नाई । नैन-चक्र जमकात भवाँई ॥
हौं तेहि दीप पतंग होइ परा । जिउ जम काढ़ि सरग लेइ धरा ॥
बहुरि न जानौं दहुँ का भई । दहुँ कविलास कि कहुँ अपसई ॥
अब हौं मरौं निसाँसी, हिये न आवै साँस ।
रोगिया की को चालै, वेदहि जहाँ उपास?॥5॥
या सेवा में, अपसई=गायब हो गई, निसाँसी=बेदम,
को चालै=कौन चलावै?)
आनहि दोस देहुँ का काहू । संगी कया, मया नहिं ताहू ॥
हता पियारा मीत बिछोई । साथ न लाग आपु गै सोई ॥
का मैं कीन्ह जो काया पोषी । दूषन मोहिं, आप निरदोषी ॥
फागु बसंत खेलि गई गोरी । मोहि तन लाइ बिरह कै होरी ॥
अब कस कहाँ छार सिर मेलौं?। छार जो होहुँ फाग तब खेलौं ॥
कित तप कीन्ह छाँड़ि कै राजू । गएउ अहार न भा सिध काजू ॥
पाएउ नहिं होइ जोगी जती । अब सर चढ़ौं जरौं जस सती ॥
आइ जो पीतम फिरि गा, मिला न आइ बसंत ।
अब तन होरी घालि कै, जारि करौं भसमंत ॥6॥
ककनू पंखि जैस सर साजा । तस सर साजि जरा चह राजा ॥
सकल देवता आइ तुलाने । दहुँ का होइ देव असथाने ॥
बिरह -अगिनि बज्रागि असूझा । जरै सूर न बुझाए बूझा ॥
तेहि के जरत जो उठै बजागी । तिनउँ लोक जरैं तेहि लागी ॥
अबहि कि घरी सो चिनगी छूटै । जरहिं पहार पहन सब फूटै ॥
देवता सबै भसम होइ जाहीं । छार समेटे पाउब नाहीं ॥
धरती सरग होइ सब ताता । है कोई एहि राख बिधाता ॥
मुहमद चिंनगी पेम कै, सुनि महि गगन डेराइ ।
धनि बिरही औ धनि हिया, तहँ अस अगिनि समाइ ॥7॥
पूरी होने पर वह घोंसले में बैठकर गाने लगता है जिससे
आग लग जाती है और वह जल जाता है)
हनुवँत बीर लंक जेइ जारी । परवत उहै अहा रखवारी ॥
बैठि तहाँ होइ लंका ताका । छठएँ मास देइ उठि हाँका ॥
तेहि कै आगि उहौ पुनि जरा ।लंका छाड़ि पलंका परा ॥
जाइ तहा वै कहा संदेसू । पारबती औ जहाँ महेसू ॥
जोगी आहि बियोगी कोई । तुम्हरे मँडप आगि तेइ बोई ॥
जरा लँगूर सु राता उहाँ । निकसि जो भागि भएउँ करमुहाँ ॥
तेहि बज्रागि जरै हौं लागा । बजरअंग जरतहि उठि भागा ॥
रावन लंका हौं दही, वह हौं दाहै आव ।
गए पहार सब औटि कै, को राखै गहि पाव?॥8॥
के भी आगे`पलंका’ नामक कल्पित द्वीप)
22. पार्वती-महेश-खंड
ततखन पहुँचे आइ महेसू । बाहन बैल, कुस्टि कर भेसू ॥
काथरि कया हड़ावरि बाँधे । मुंड-माल औ हत्या काँधे ॥
सेसनाग जाके कँठमाला । तनु भभुति, हस्ती कर छाला ॥
पहुँची रुद्र-कवँल कै गटा । ससि माथे औ सुरसरि जटा ॥
चँवर घंट औ डँवरू हाथा । गौरा पारबती धनि साथा ॥
औ हनुवंत बीर सँग आवा । धरे भेस बादर जस छावा ॥
अवतहि कहेन्हि न लावहु आगी । तेहि कै सपथ जरहु जेहि लागी ॥
की तप करै न पारेहु, की रे नसाएहु जोग?।
जियत जीउ कस काढहु? कहहु सो मोहिं बियोग ॥1॥
काल?, रुद्र-कँवल=रुद्राक्ष, गटा=गट्टा,गोल दाना)
कहेसि मोहिं बातन्ह बिलमावा । हत्या केरि न डर तोहि आवा ॥
जरै देहु, दुख जरौं अपारा । निस्तर पाइ जाउँ एक बारा ॥
जस भरथरी लागि पिंगला । मो कहँ पदमावति सिंघला ॥
मै पुनि तजा राज औ भोगू । सुनि सो नावँ लीन्ह तप जोगू ॥
एहि मढ़ सेएउँ आइ निरासा । गइ सो पूजि, मन पूजि न आसा ॥
मैं यह जिउ डाढे पर दाधा । आधा निकसि रहा, घट आधा ॥
जो अधजर सो विलँब न आवा । करत बिलंब बहुत दुख पावा!!
एतना बोल कहत मुख, उठी बिरह कै आगि ।
जौं महेस न बुझावत, जाति सकल जग लागि ॥2॥
पारबती मन उपना चाऊ । देखों कुँवर केर सत भाऊ ॥
ओहि एहि बीच, की पेमहि पूजा । तन मन एक, कि मारग दूजा ॥
भइ सुरूप जानहुँ अपछरा । बिहँसि कुँवर कर आँचर धरा ॥
सुनहु कुँवर मोसौं एक बाता । जस मोहिं रंग न औरहि राता ॥
औ बिधि रूप दीन्ह है तोकों । उठा सो सबद जाइ सिव-लोका ॥
तब हौं तोपहँ इंद्र पठाई । गइ पदमिनि तैं अछरी पाई ॥
अब तजु जरन, मरन, तप जोगू । मोसौं मानु जनम भरि भोगू ॥
हौं अछरी कबिलास कै जेहि सरि पूज न कोइ ।
मोहि तजि सँवरि जो ओहि मरसि, कौन लाभ तेहि होइ?॥3॥
कुछ अंतर रह गया है कि वह अंतर प्रेम से भर गया है
और दोनों अभिन्न हो गए हैं, राता=ललित,सुंदर, तोकाँ=
तुझको)
भलेहिं रंग अछरी तोर राता । मोहिं दूसरे सौं भाव न बाता ॥
मोहिं ओहि सँवरि मुए तस लाहा । नैन जो देखसि पूछसि काहा?॥
अबहिं ताहि जिउ देइ न पावा । तोहि असि अछरी ठाढ़ि मनावा ॥
जौं जिउ देइहौं ओहि कै आसा । न जानौं काह होइ कबिलासा ॥
हौं कबिलास काह लै करऊँ?। सोइ कबिलास लागि जेहि मरऊँ ॥
ओहि के बार जीउ नहिं बारौं । सिर उतारि नेवछावरि सारौं ॥
ताकरि चाह कहै जो आई । दोउ जगत तेहि देहुँ बड़ाई ॥
ओहि न मोरि किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ ।
तेहि निरास पीतम कहँ, जिउ न देउँ का देउँ? ॥4॥
चाह=खबर, निरास=जिसे किसी की आशा न हो;जो
किसी के आसरे का न हो)
गौरइ हँसि महेस सौं कहा । निहचै एहि बिरहानल दहा ॥
निहचै यह ओहि कारन तपा । परिमल पेम न आछे छपा ॥
निहचै पेम-पीर यह जागा । कसे कसौटी कंचन लागा ॥
बदन पियर जल डभकहिं नैना । परगट दुवौ पेम के बैना ॥
यह एहि जनम लागि ओहि सीझा । चहै न औरहि, ओही रीझा ॥
महादेव देवन्ह के पिता । तुम्हरी सरन राम रन जिता ॥
एहूँ कहँ तसमया केरहू । पुरवहु आस, कि हत्या लेहू ॥
हत्या दुइ के चढ़ाए काँधे बहु अपराध ।
तीसर यह लेउ माथे, जौ लेवै कै साध ॥5॥
डभकहिं=डबडबाते है,आर्द्र होते हैं, परगट…बैना=दोनों
(पीले मुख ओर गीले नेत्र) प्रेम के बचन या बात
प्रकट करते हैं, हत्या दुइ=दोनों कंधों पर एक एक)
सुनि कै महादेव कै भाखा । सिद्धि पुरुष राजै मन लाखा ॥
सिद्धहि अंग न बैठे माखी । सिद्ध पलक नहिं लावै आँखी ॥
सिद्धहि संग होइ नहिं छाया । सिद्धहि होइ भूख नहिं माया ॥
जेहि गज सिद्ध गोसाईं कीन्हा । परगट गुपुत रहै को चीन्हा?॥
बैल चढ़ा कुस्टी कर भेसू । गिरजापति सत आहि महेसू ॥
चीन्हे सोइ रहै जो खोजा । जस बिक्रम औ राजा भोजा ॥
जो ओहि तंत सत्त सौं हेरा । गएउ हेराइ जो ओहि भा मेरा ॥
बिनु गुरु पंथ न पाइय, भूलै सो जो मेट ।
जोगी सिद्ध होइ तब जब गोरख सौं भेंट ॥6॥
सिद्धान्त को नहीं मानता)
ततखन रतनसेन गहबरा । रोउब छाँड़ि पाँव लेइ परा ॥
मातै पितै जनम कित पाला । जो अस फाँद पेम गिउ घाला?॥
धरती सरग मिले हुत दोऊ । केइ निनार कै दीन्ह बिछोऊ?॥
पदिक पदारथ कर-हुँत खोवा । टूटहि रतन, रतन तस रोवा ॥
गगन मेघ जस बरसै भला । पुहुमी पूरि सलिल बहि चला ॥
सायर टूट, सिखर गा पाटा । सूझ न बार पार कहुँ घाटा ॥
पौन पानि होइ होइ सब गिरई । पेम के फंद कोइ जनि परई ॥
तस रोवै जस जिउ जरै, गिरे रकत औ माँसु ।
रोवँ रोवँ सब रोवहिं सूत सूत भरि आँसु ॥7॥
गा पाटा=(पानी से) पट गया)
रोवत बूड़ि उठा संसारू । महादेव तब भएउ मयारू ॥
कहेन्हि “नरोव, बहुत तैं रोवा । अब ईसर भा, दारिद खोवा ॥
जो दुख सहै होइ दुख ओकाँ । दुख बिनु सुख न जाइ सिवलोका ॥
अब तैं सिद्ध भएसि सिधि पाई । दरपन-कया छूटि गई काई ॥
कहौं बात अब हौं उपदेसी । लागु पंथ, भूले परदेसी ॥
जौं लगि चोर सेंधि नहि देई ।राजा केरि न मूसै पेई ॥
चढ़ें न जाइ बार ओहि खूँदी । परै त सेंधि सीस-बल मूँदी ॥
कहौं सो तोहि सिंहलगढ़, है खँड सात चढ़ाव ।
फिरा न कोई जियत जिउ सरग-पंथ देइ पाव ॥8॥
मूसै पेई=मूसने पाता है, चढ़ें न…खूँदी=कूदकर चढ़ने से उस
द्वार तक नहीं जा सकता)
गढ़ तस बाँक जैसि तोरि काया । पुरुष देखु ओही कै छाया ॥
पाइय नाहिं जूझ हठि कीन्हे । जेइ पावा तेइ आपुहि चीन्हे ॥
नौ पौरी तेहि गढ़ मझियारा । औ तहँ फिरहिं पाँच कोटवारा ॥
दसवँ दुआर गुपुत एक ताका । अगम चड़ाव, बाट सुठि बाँका ॥
भेदै जाइ सोइ वह घाटी । जो लहि भेद, चढ़ै होइ चाँटी ॥
गढ़ँ तर कुंड, सुरँग तेहि माहाँ । तहँ वह पंथ कहौं तोहि पाहाँ ॥
चोर बैठ जस सेंधि सँवारी । जुआ पैंत जस लाव जुआरी ॥
जस मरजिया समुद धँस, हाथ आव तब सीप ।
ढूँढि लेइ जो सरग-दुआरी चड़ै सो सिंघलदीप ॥9॥
चींटी के समान धीरे धीरे योगियों के पिपीलिका मार्ग
से चढ़ता है, पैंत=दाँव)
दसवँ दुआर ताल कै लेखा । उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा ॥
जाइ सो तहाँ साँस मन बंधी । जस धँसि लीन्ह कान्ह कालिंदी ॥
तू मन नाथु मारि कै साँसा । जो पै मरहि अबहिं करु नासा ॥
परगट लोकचार कहु बाता । गुपुत लाउ कन जासौं राता ॥
“हौं हौं” कहत सबै मति खोई । जौं तू नाहि आहि सब कोई ॥
जियतहि जूरे मरै एक बारा । पुनि का मीचु, को मारै पारा?॥
आपुहि गुरू सो आपुहि चेला । आपुहि सब औ आपु अकेला ॥
आपुहि मीच जियन पुनि, आपुहि तन मन सोइ ।
आपुहि आपु करै जो चाहै, कहाँ सो दूसर कोइ? ॥10॥
लोकाचार की, जुरै=जुट जाय)