आधुनिक युग के स्त्री-प्रश्न
अंजलि कुमारी
शोधार्थी (पी.एचडी)
हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय
ई-मेल- anju11091992@gmail.com
सारांश- प्रस्तुत आलेख में स्त्री-जीवन से संबन्धित उन समस्याओं की चर्चा की गयी है आधुनिक युग की स्त्रियों के समक्ष खड़ी हैं । आधुनिक स्त्री हमारे समाज में दोहरी भूमिकाओं में प्रस्तुत है । नयी स्त्री की ये समस्याएँ नए स्त्री प्रश्नों को जन्म देती हैं । अपनी प्रवृत्ति में ये प्रश्न प्राचीन स्त्री-प्रश्नों की ही भाँति गंभीर और उलझे हुये हैं । इनके सुलझने में केवल स्त्री नहीं वरन उसके आस-पास के पूरे परिवेश, स्त्री से जुड़े प्रत्येक स्तर एवं प्रत्येक व्यक्ति का सहयोग अपेक्षित है जो इसे एक जटिल प्रक्रिया बनाता है । यह आलेख उन्हीं सब मुद्दों व उनके समाधान के विभिन्न प्रस्तावों के एक प्रयास को समेटता है । स्त्री के व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक जीवन की विविध परिस्थियों के माध्यम से हम इन स्त्री-प्रश्नों को समझने का प्रयास करेंगे ।
की-वर्ड्स- आधुनिकता, स्त्री-प्रश्न, सेल्फ-आइडेंटिटी, स्त्री का नया अवतार (सुपर-वूमेन), विवाह का प्रश्न, स्त्री की दोहरी भूमिका, स्त्री स्वातंत्र्य और सामंजस्य
शोध विस्तार
आधुनिक युग के आगमन के साथ ही ‘मनुष्य’ केंद्र में आता है । इस ‘मनुष्य’ शब्द में केवल ‘पुरुष’ अंतर्निहित नहीं है, अब ‘स्त्री’ भी इस धारा में शामिल है । ‘सेल्फ आइडेंटिटी’ की अवधारणा ने इस दौर में अपनी जगह बनायी और पारंपरिक युग में जो दहलीज़ के पीछे, दरवाज़े की ओट में, पर्दे के भीतर छिपी खड़ी थी, वह स्त्री अब कदम बढ़ाकर चौखट के बाहर आयी है । दो गज़ का घूँघट अब उठ चुका है, ओट अब ‘नेतृत्व’ में परिवर्तित हो चुका है । घर की लक्ष्मी अब धनर्जन हेतु घर से बाहर आकर काम करने लगी है । ऐसे में भारतीय समाज में सदियों से पैठ जमाये संकुचित परिवेश और मानसिकता, रूढ़ियों एवं कुरीतियों से स्त्री कुछ उबर पायी है और अपना अस्तित्व स्थापित करने के नवीन अवसर उसे प्राप्त हुये हैं । अब उसका कार्यक्षेत्र विस्तृत है और इसके विस्तार के साथ ही स्त्री हेतु उत्तरदायित्वों ने भी विस्तार पाया है, उनका कार्यभार बढ़ गया है । आज स्त्रियाँ घर और बाहर की दोहरी भूमिकाओं में नज़र आती हैं । स्त्री आज अपने नए अवतार में ‘सुपर वूमेन’ के रूप में प्रस्तुत है जिसे आजकल ‘पावर वूमेन’ भी कहा जा रहा है । “यह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, अपनी उपलब्धियों पर गर्व करने वाली, आत्मविश्वास, अधिकार और समृद्धि से भरी ‘पावर वूमेन’ है जो पुरुषों की बॉस भी हो सकती है ।”1 यह स्त्री अपनी और परिवार की आवश्यकताओं हेतु सदैव तत्पर है । किन्तु नए दायित्व नयी चुनौतियों को जन्म देते हैं, इससे आज की स्त्री अछूती नहीं है । हम स्त्री-जीवन की कुछ स्थितियों के आधार पर इसकी चर्चा करेंगे ।
लड़की जब अपने मता-पिता के संरक्षण में है माँ-बाप उसकी प्रतिभा को पहचानते हुये उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । अच्छा परिणाम प्राप्त होने पर सभी उसकी सराहना करते हैं । एक रोज़ वह होनहार लड़की अपनी मेहनत से अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेती है । वह परिवार की आर्थिक व्यवस्था में अपना योगदान देना आरंभ करती है । वह अब अपने लिए भौतिक संसाधन जुटाने में सक्षम है । ऐसे में उसे पुरुष की कुछ खास आवश्यकता अपने जीवन में महसूस नहीं होती । अब विवाह और संतति से वह कतराने लगी है क्योंकि यह उसके जीवन की स्वच्छंदता में बाधक हो सकते हैं । विवाह के बाद उसे परवश हो जाने का भय सताता है ।
“जिस असुरक्षा के कारण औरत पति के घर को छोड़ नहीं पाती थी, उस आर्थिक सुरक्षा को आज औरत ने पा लिया है और जब उसे लागने लगा है कि यदि पति उसका आदर नहीं करता और उसे घर और बाहर कि ज़िम्मेदारी स्वयं पूरी करनी है, बच्चे पैदा करने के बाद उनका लालन-पालन स्वयं करना है, तो फिर पति नाम के रिश्ते कि ज़रूरत क्या है? तनख्वाह वह लाती है । समाज में उसे कुर्सी के चलते सम्मान मिला हुआ है । वह अपने मातहतों पर हुक्म चलती लेती है । सहकर्मियों से समय पड़ने पर सहायता मिल जाती है, फिर यह विवाह किसलिए? पिटने, जलने, लड़ने, या फिर तलाक़ के लिए ? इससे बेहतर है, शादी की ही न जाए । उसकी जगह भौतिक सुखों को अपनी मेहनत से प्राप्त कर चैन-भरी ज़िंदगी गुज़ारी जाए ।”2
यह उन्हें अधिक सहज प्रतीत होता है । अब जब स्त्रियाँ सुशिक्षित, आत्मनिर्भर और स्वच्छंद हैं तब माँ-बाप कि पसंद से शादी करने का दबाव भी उन पर नहीं रह गया है । हाँ, यह ज़रूर है कि उन्हें अब जीवन में ‘पति’ के रूप में ऐसे पुरुष की आवश्यकता है जो उनको समझ सकें, उनके अस्तित्व और उनके काम की कद्र करें, कार्यस्थल पर स्त्री के पुरुष सहयोगियों को लेकर मन में कोई शंका न रखें, स्त्री के पारिवारिक-व्यावसायिक जीवन के भार को हल्का बनाने में उन्हें सहयोग दें, दोहरे काम के बोझ तले उनकी स्थिति को समझते हुये उनके साथ खड़े रह सकें । विवाह को आपसी सहयोग से केवल स्त्री के लिए संकट का कारण बनने से बचायें । अन्यथा ‘विवाह’ कामकाजी स्त्रियों हेतु ‘सिर पर लदा भारी बोझ’ मात्र बनकर रह जाएगा । समस्या यह है की सभी स्त्रियों को ऐसा साथी मिल पाना मुश्किल है, चाहे वह उन्हें स्वेच्छा से ही क्यों न चुनें । पुरुष दंभ को त्याग स्त्री का सहचर बन सकने वाले साथी का समाज में अभाव है । इसके लिए पुरुष-मानसिकता में परिवर्तन अपेक्षित है ।
दूसरी स्थिति वह है जहाँ नौकरीपेशा स्त्री का विवाह हो गया और वह संयुक्त परिवार वाले ससुराल में चली गयी । नयी पीढ़ी तो आधुनिक है किन्तु पुरानी पीढ़ी के लोग जो घर के ‘गार्जियन’ हैं, वे पारंपरिक और रूढ़िवादी मूल्यों-मान्यताओं का अनुसरण करने वाले होते हैं । ऐसे में ‘सास’ के रूप में जो स्त्री वहाँ मौजूद है वह अपने जीवन की परिस्थितियों द्वारा ही नयी पढ़ी-लिखी बहू का मूल्यांकन करेगी । बहू से की जाने वाली अपेक्षाओं का पतिगृह में कोई अंत नहीं होता । प्राचीन और नवीन मूल्यों की टकराहट से सम्बन्धों में बिखराव का खतरा बढ़ जाता है । पुरानी पीढ़ी तो लकीर का फकीर बनी अपनी मानसिकता पर अडिग अटल रहेगी । समंजस्य स्थापित कर सकने का सम्पूर्ण दायित्व नयी पीढ़ी का ही होगा और वो भी केवल बहू रूपी स्त्री पर । इस स्थिति में स्त्री सबसे ज़्यादा ‘एडजस्टमेंट’ करती है । पति के घर वालों को बहू के धन कमाने का तो सुख महसूस होगा किन्तु साथ ही घर के काम में तनिक भी ढील वे बर्दाश्त नहीं कर सकते । नौकरी के लिए जाने से पहले और नौकरी से लौटकर स्त्री घर के सभी काम समय से पूर्ण करने को विवश है, अन्यथा वह घरेलू आलोचना का शिकार बनती है । कार्यस्थल के निश्चित समय या अत्यधिक कार्यभार के कारण यदि स्त्री घरेलू कामकाज में कुछ अक्षमता महसूस करे तो उस पर चारों ओर से अपना काम ठीक तरह से करने का दबाव बना रहता है और यदि कार्य संभाला नहीं जा रहा तो पति या उसके घरवालों की ओर से उसे नौकरी छोड़ने तक की सलाह दे दी जाती है । इन परिस्थितियों से कुशलतापूर्वक निपटने के लिए पतिगृह के लोगों का घरेलू कार्यों में सहयोग एवं ‘मौरल सपोर्ट’ अपेक्षित है । ऐसा न होने पर स्त्री हर प्रकार के कार्यभार से त्रस्त मानसिक यंत्रणा, चिड़चिड़ापन व ‘स्ट्रैस एवं फ्रस्ट्रेशन’ का शिकार हो सकती है ।
“पारंपरिक विवाहिता और स्वावलम्बी बने रहने में स्त्री पर जिम्मेवारियों में वृद्धि होती है, बदले में उसे तनाव व थकान मिलती है । पुरुष प्रधान परिवेश में परवरिश स्त्री से ‘अधिकारों का त्याग’ मांगता है और स्वावलंबन ‘अधिकारों की चाह’, इन दोनों के बीच बँटी हुयी स्त्री निरंतर तनाव झेलती है और टुकड़ा-टुकड़ा जीती है ।”3
इस प्रकार बाहरी श्रम में तो स्त्रियाँ भागीदार बन चुकी हैं किन्तु घरेलू श्रम में पति या पतिगृह के लोग स्त्री के साथ वह श्रम बाँटना नहीं चाहते । पितृसत्तात्मक दंभ इसके आड़े आता है ।
आधुनिक युग में एकल परिवारों की संकल्पना बढ़ रही है, किन्तु संयुक्त परिवार अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुये हैं । और एकल परिवारों में पति-पत्नी यदि आपसी सहयोग-सामंजस्य से घर चला भी लेते हैं तो वहाँ फिर दूसरी तरह की समस्यायें सामने आती हैं ।
तीसरी स्थिति में स्त्री के समक्ष चुनौती है उसके ‘मातृत्व का प्रश्न’ । इसे भी हम संयुक्त एवं एकल परिवार के आलोक में समझेंगे ।
“विवाह के परंपरागत एवं मुख्य उद्देश्यों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य संतानोत्पत्ति है । स्त्री के मातृत्व को उसकी पूर्णता और गरिमा से जोड़ा जाता है । स्त्री का समस्त अभिनंदन उसके मातृ रूप में संस्थित होने का अर्चन है ।”4
संयुक्त परिवारों में कामकाजी स्त्रियाँ यदि अपने करियर पर ध्यान देना चाहती हैं तब भी संतानोत्पत्ति हेतु उन पर पारिवारिक दबाव बना रहता है । परिवार की वंशावली में वृद्धि विवाह के बाद स्त्री का मूल कार्य समझा जाता है ।
“मातृत्व स्त्री पर अतिरिक्त भार डालता है एवं उसके कार्य को लगभग तिगुना कर देता है । यह अतिरिक्त कार्य स्त्री के कामकाजी होने पर समस्या को बढ़ा देता है । कैरिअर और आत्म-विकास की दृष्टि से जो वर्ष महत्वपूर्ण होते हैं उन्हीं वर्षों को वैज्ञानिक दृष्टि से माँ बनने के लिए उपयुक्त माना जाता है । मानव-शिशु के परनिर्भरता की अवधि लंबी होती है ।”5
एकल परिवार में यदि स्त्री कामकाजी है तो मातृत्व-सुख के लिए पूरी योजना के साथ पति-पत्नी को तैयार होना आवश्यक है । स्त्री और पुरुष दोनों के नौकरीपेशा होने के साथ संतान के दायित्व का प्रश्न चिंता का विषय हो जाता है । किसी पारिवारिक देखभाल करने वाले के अभाव में स्त्री को अपनी संतान को बहुत छोटी उम्र में ही या तो किसी ‘बेबी डे केयर सेंटर’ में ‘बेबी-सिटर’ के पास छोड़ना होगा या किसी आया के भरोसे । ऐसे में बच्चे की सही देखभाल और सुरक्षा का प्रश्न बड़ा प्रश्न साबित होता है । कार्यस्थल पर कार्यरत स्त्री का अधिकतर ध्यान अपनी संतान पर केन्द्रित होता है और वह अपने काम से लगातार ‘डिस्ट्रेक्ट’ रहती है । कोई विकल्प न होने पर स्त्री बच्चे की अच्छी परवरिश के लिए अपनी नौकरी छोड़ने पर विवश होती है । इस प्रकार की परिस्थितियों में संतानोत्पत्ति स्त्री के लिए एक अतिरिक्त कार्यभार बन जाता है । करियर और मातृत्व में से किसी एक का चुनाव नवीन स्त्री-प्रश्नों में शामिल है ।
सदियों से मुक्ति की आकांक्षा में छटपटाती स्त्री आधुनिक युग में पिछली शताब्दियों की तुलना में स्वतंत्र हो चुकी है । अब उसके समक्ष किसी के अधिकार-क्षेत्र की वस्तु बन कर जबरन जीवन-यापन करने की कोई विवशता नहीं है । जो वर्षों से अपने जीवन में समझौतावादी रुख अपनाती आयी थी, आज वह घर और बाहर की बागडोर अपने हाथों में संभाले एक अधिक ज़िम्मेवार स्त्री के रूप में खड़ी है ।
चौथी स्थिति में स्त्री के व्यक्तिगत जीवन में समझौता न कर अपने अनुसार जीने की कला को उसके आत्मकेंद्रित होने का परिचायक समझा जाता है । जिन मुद्दों पर पहले परिवार में स्त्री के झुकने-दबने की शर्त पर सुलह हो जाया करती थी आज वह स्त्री के आत्म-सम्मान का प्रश्न बन चुके हैं और स्त्री उन प्रश्नों पर बोलने का साहस करना और दृढ़ता से खड़े होना अब जानती है । ऐसे में स्त्री के न दबने का एवं उसके प्रतिरोध का परिणाम पारिवारिक विघटन के रूप में सामने आ जाता है । तलाक़शुदा एकाकी जीवन सम्बन्धों की आत्मीयता एवं विश्वास को तो ठेस पहुँचाता ही है, साथ ही, कुंठा, संत्रास, अवसाद आदि मानसिक विकारों का कारण भी बनता है ।
निष्कर्षतः हम देखते हैं कि आधुनिक युग स्त्री-स्वातंत्र्य का युग है । अपनी इच्छानुसार जीने की चाह स्त्री के भीतर पनपी है और वह इस दिशा में अग्रसर है । इस दौर में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने का हुनर स्त्री ने सीखा है । वह सपने देखती है, उन्हें अपने दम पर, अपनी मेहनत से पूरा करती है । किन्तु युग-परवर्तन और स्त्री की स्थिति में बदलाव के साथ उसके समक्ष नयी चुनौतियाँ भी प्रस्तुत हुयी हैं । स्त्री के जीवन में आज नवीन भूमिकायें शामिल तो हुयी हैं किन्तु प्राचीन भूमिकाओं के स्थानापन्न के साथ नहीं अपितु उनके साथ जुड़ कर । इन नूतन भूमिकाओं के साथ उत्पन्न हुयी हैं कुछ ऐसी समस्याएँ जो स्त्री के व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक जीवन में द्वंद्व की स्थिति पैदा करती हैं । इन्हीं समस्याओं से जन्म होता है नए स्त्री-प्रश्नों का । बदलते युग के स्त्री-प्रश्न भी प्राचीन युग की ही भाँति विकट एवं जटिल हैं । ऐसे में अपने जीवन में सामंजस्य की स्थिति को स्थापित कर पाना आज की स्त्री के समक्ष एक बड़ा सवाल है ।
संदर्भ ग्रंथ सूची :-
- ‘स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ’ – रेखा कस्तवार, पृष्ठ-92, दूसरा संस्करण-2016, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली-110002
- ‘औरत के लिए औरत’ – नासिरा शर्मा, पृष्ठ-137, संस्करण-2014, सामयिक प्रकाशन, नयी दिल्ली-110002
- ‘स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ’ – रेखा कस्तवार, पृष्ठ-93 (द्वितीयक स्त्रोत)
- वही ” , पृष्ठ-141 (द्वितीयक स्त्रोत)
- वही ” , पृष्ठ-142