वैश्विक परिदृश्य में दलित साहित्य
अनिता जायसवाल
हिन्दी दलित साहित्य की पहली कहानी कौन-सी है यह विवाद रहता है परंतु प्रसध्दि दलित समीक्षक डॉ एन.सिह सहित अनेक साहित्यकारों का यह मानना रहा है अर्थात जयप्रकाश कर्दम का उपन्यास है।‘ छापर’ हिन्दी दलित साहित्य का प्रथम उपन्यास है। यही स्थिती हिन्दी कहानी की भी है। समस्या पर लिखी यह है कि हम दलित समस्या पर लिखी पहली कहानी किसे माने। संतीश द्वरा रचित हिन्दी की दलित कहानी ‘वचनबद्द’ है जो अप्रैल 1975 में ‘मुक्ति’ स्मारिका में प्रकाशित हुई थी उसके बाद डॉ ‘मीनू’ मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘सबसे बड़ा सुख’ और ओमप्रकाश वाल्मीकि कहानी ‘अंधेरी बस्ती’ का हैं। में कहानीयां क्रमशः कथालोक में 1978 में और निर्णायक भी (दलित पत्रिका) में अगस्त 1980 के अंक में प्रकाशित हुई थी।
हिन्दी के दलित कहानीकारों की वरिष्ठ पीढ़ी में ओमप्रकाश, वाल्मीकि, मोहनदास, नैमिषशराय, सूरजपाल चौहान ,जयप्रकाश कर्दम, बुध्दशरण हंस, कुसुम मेघालय के नाम विशेष उल्लेखनीय है। तो नयी पीढ़ी में पुरन सिहं, अनिता भारती रजतरानी ‘मीनू’ रजनी दिसोदिया, मुकेश मानस उमेशकुमार सिहं, सूरज बडजात्या आदि के नाम उल्लेखनीय है ।
सही मायने में देखे तो 1980 के बाद से हिन्दी साहित्य में कहानी लेखन कर प्रति सजगता दिखाई देनी शुरू होती है 1990 के बाद इस दिशा में उत्साहजनक गतिशीलता आई और फुटकर कहनियों के अलावा अनेक कहानिकारों के कहानी संग्रह प्रकाशित हुई संग्रहों में मोहनदास नैमिशराय का आवाजे ओमप्रकाश वाल्मीकि का सलाम डॉ ठाकुर प्रसाद राही का संग और अन्य कहानियाँ संग और अन्य कहानियाँ सत्यप्रकाश का चंद्रमोलि का रक्तबीज,सूरजपाल चौहान का हैरी कब आएगा कुसुम वियोगी का चार इंच की कलम,डॉ सुशील टाकभौर के दो कहानी संग्रह टूटता बहम और अनुभूति के धेरे तथा युवा लेखक विपिन बिहारी के तीन कथा संग्रह अपना मकान पुनर्वास और आधे पर अंत विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
अध्ययन की दृष्टि से हिन्दी की दलित कहानियों को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है यथा-आदर्शवादी कहानियाँ, यथार्थपरक कहानियाँ और चेतना मूलक कहानियाँ । यह कहने की आवश्कता नहीं है कि दलित साहित्य का प्रेरणा-स्त्रोत बाबा साहब ने जातिविर्दान और वर्ग विहीन समाज के रूप में ऐसे समाज की कल्पना की जो समता,न्याय, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व पर आधारीत हो उँच-नीच छुआछुत आदि के लिए कोई जगह नहीं हो हिन्दी में ऐसे कई दलित कहानियाँ मिलती है । जिनमे समाज- परिवर्तन का आदर्श कई रूपों में देखने में मिलता है ।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी है पच्चीस चौका डेढ़ सौ। अशिक्षित जनसमुदाय का शोषण किस प्रकार युग-युगों से किया जा रहा ही । इस कहानी में मिलता है । सुदीप नामक दलित बालक पढ़ लिखकर नौकरी प्राप्त कर लेता है। पहली तनख्वाह लेकर वह घर वापस आ रहा है । घर आकर उसने अपने पिता को नोट गिनकर समझाता है कि पच्चीस चौका सौ है डेढं सौ नहीं तब भी वह दलित पिता इस पर विश्वास करने के लिए तैयार हो जाता है कि पच्चीस चौका सौ डेढ़ सौ नहीं जैसे कि उसके मालिक चौधरी ने उसे समझाया था। इस पहचान से उसके मन में चौधरी को लेकर जो विश्वास रूढ़ हो चुका था । वह हमेशा के लिए बिखर जाता है। और उसका मन घृणा और प्रतिशोध की भावना से भर जाता है । तब वह कहता है। कीड़े पड़ेगे चौधरी……. को पानी देने वाला भी नहीं बचेगा यह कहानी प्रेमचन्द की सवा सेर गेहूँ की याद दिलाने वाली कहानी है । इस कहानी में सौ रुपया कर्ज लेकर सुदीप का पिता अपनी पत्नी का इलाज करवाता है। जिसके लिए उसे जिन्दगी भर कर्जदार बने रहना पड़ता है। वह उस कर्ज को चुकाने के लिए दिन-रात मेहनत करता पर ऋणमुक्त नहीं हो पाता है। इसलिए वह चौधरी को कोसता है और श्राप देता है इसके आगे कहने के लिए उससे बढ़कर चौधरी के खिलाफ कुछ करने की क्षमता नहीं । फिर भी इस कथन से पूरे विरोध और प्रतिशोध की आवाज़ मुखर हो उठती है।
इस तरह अंगारा में जमना नामक सत्रह वर्षीय चमार लड़की पर अत्याचार होता है मोहनदास नैमिशराय की कहानी अपना गाँव कबूतरी नामक दलित युवती की कथा प्रस्तुत करते हुए ठाकुरों के अत्याचारों का पर्दाफाश किया है। इसके अलवा भी बहुत सी कहानियाँ है जो इसी भाव पर आधारित है। यह दलितों की मानसिकता स्पष्ट है। वे अन्याय,अत्याचार,अपमान के खिलाफ संघर्ष करके अपने को विजयी देखना चाहते है दलित साहित्य में अधिकांश कहानियाँ यथार्थपरक है । इन कहानियों में सवर्ण हिन्दू समाज के सामवादी चरित्र और दलितों के प्रति उनके व्यवहार का सहज और यथार्थ रूप चित्रित किया गया है। डॉ. श्यौरजसिंह वेचैन की कहानी भी इसी विषय पर केन्द्रीत है ।
इस कहानी में सवर्ण प्राध्यापक अपने पर्यवेक्षण में शोध कार्य कर रही दलित छात्रा का दैहिक शोषण कर उसे गर्भवती बना देता है जो बाद में एक पुत्र को जन्म देकर कुँवारी माँ बनने को अभिशप्त होती है ।हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में दलित आलोचनाग्रंथ, दलित शोधग्रंथ समीक्षात्मकग्रंथ भी लिखे गये है । यदि देखा जाए तो दलित चेतना को जीवित स्तर तक पहुँचाने में महात्मा ज्योतिराव फुले एवं सावित्रीबाई फुले का बड़ा योगदान है।
दलित विमर्श की चर्चा समाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक संदर्भ तलाशे जायें तो सभी मूल स्वर मुख्य धारा से अलग रहने की छटपटाहट अभिव्यक्त करता है ।
संदर्भ ग्रंथ –
- हिशिए से बाहर- डॉ. रजत रानी मीनु
- यातना की परछाई-डॉ.ड एन सिंह
- हिन्दी समकालीन कहानी विविध विमर्श-डॉ दयानन्द तिवारी
- दलित साहित्य दो हाजार-जयप्रकाश संदर्भ
- समकालीन दलित- डॉ. कुसुम वियोगी
शोध छात्रा
अनिता जायसवाल
मोबाइल न.9821541336
श्री जगदीश प्रसाद झाबरमल टीबड़ेवाला विश्वविद्याल
विद्यानगरी, चुरूरोड़,झुन्झुनु, राजस्थान।