वैदिक साहित्य में स्त्री महिमामंडन का सच
चित्रलेखा अंशु
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वैदिक साहित्य के विषय में यह कहा जाता है कि यह अत्यधिक संपन्न तथा विविध है एवं इसमें मानव कल्याण की बात, एकता की शक्ति, किसी भी धर्म को मानने की आजादी, जिस भाषा में सुविधा हो, उसमें बात करने की स्वतंत्रता, उस साहित्य की सामान्य जन के प्रति लोकतान्त्रिक व्यवहार को दर्शाता है। किन्तु आगे चलकर कुछ विशेष सत्तालोलुपता से वशीभूत उच्च वर्गीय लोगों के द्वारा जब इसे धर्म से जोड़ा गया एवं इसकी धार्मिक व्यख्या की गई तो कुछ वर्गों को वैदिक साहित्य को पढ़ने या उन्हें व्यवहार में लाने से वंचित कर दिया गया। उन वर्गों में श्रमजीवी समूह, महिलाएं एवं दलित (शूद्र) वर्ग शामिल थे। कारण यह था कि सत्ता एवं संसाधन को प्राप्त करने के लिए आतुर वे लोग नहीं चाहते थे कि संसाधनों का बँटवारा बराबरी में हो इससे उन्हें भी एक समान होना पड़ेगा। जबकि वे विशेषाधिकार प्राप्त एवं संसाधनों से लैस होना चाहते थे। अत: उन्होंने मानसिक एवं शारीरिक गुलामी करवाने हेतु शूद्रों, स्त्रियों तथा सर्वहारा वर्गों को वैदिक साहित्य को सुनने तथा पढ़ने से वंचित कर दिया ताकि न तो ये लोग वेद को पढ़ सकें और न ही उसमें लिखी गई मानवतावादी विचारों को अपनाकर लोकतांत्रिक व्यावहार में शामिल हो सकें। साजिश यहीं समाप्त नहीं हुई बल्कि स्त्रियों तथा शूद्रों के वेद में तथा इतिहास बनाने में दिए गए योगदान को ही खारिज करने का प्रयास किया गया। ये साजिश धर्म का विश्लेष्ण करने वाले ठेकेदारों के माध्यम से संभव हो सका। इस सच्चाई से पर्दा उठाने का काम डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने किया। 1946 में शूद्रों पर प्रकाशित अपनी पुस्तक में शूद्रों के बारे में प्रचलित बहुत सी धारणाओं का उचित खंडन करते हुए अम्बेडकर ने लिखा है, “शूद्रों के लिए कहा जाता है कि वे अनार्य थे, आर्यों के शत्रु थे। आर्यों ने उन्हें जीता था और दास बना लिया था। ऐसा था तो यजुर्वेद और अथर्ववेद के ऋषि शूद्रों के लिए गौरव की कामना क्यों करते हैं? शूद्रों का अनुग्रह पाने की इच्छा क्यों प्रकट करते हैं? शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें वेद के अध्ययन का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो शूद्र सुदास ऋग्वेद के मन्त्रों के रचनाकार कैसे हुए? शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो सुदास ने अश्वमेघ यज्ञ कैसे किया था? शतपथ ब्राम्हण शूद्र को यज्ञकर्ता के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है? और उसे कैसे संबोधन करना चाहिए, इसके लिए शब्द भी बना है। शूद्रों के लिए कहा जाता है कि वे संपत्ति संग्रह नहीं कर सकते। ऐसा था तो मैत्रायणी और कठक संहिताओं में धनी और समृद्ध शूद्रों का उल्लेख कैसे है? शूद्रों के लिए कहा जाता है कि सेवक के रूप में तीन वर्णों की सेवा करना उसका काम है। यदि ऐसा था तो शूद्र राजा कैसे हुए जैसाकि सुदास के उदाहरण से, तथा सायण द्वारा दिए अन्य उदाहरणों से मालूम होता है?”[1]
प्रारंभ में वैदिक साहित्य में शामिल शूद्रों की तथाकथित मजबूत स्थिति को बाबा साहब ने अपनी पुस्तक के माध्यम से दिखाने की चेष्टा की है जिसे इतिहासकारों ने हाशियाकृत कर दिया था। अब महिला प्रश्नों की बारी थी क्योंकि समाज में दोनों की स्थिति एक जैसी होने के कारण दोनों को एक ही वर्ग में शामिल किया गया था। वैदिक साहित्यों को लेकर इतिहास में एक संशय की स्थिति बनी रही है लगभग हर ऐतिहासिक पुस्तक में महिला की वैदिक काल में अच्छी स्थिति को दर्शाया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के बुद्धिजीवियों द्वारा भी इस ऐतिहासिक तथ्य को उभारने की कोशिश की गई कि भारतीय स्त्रियों की स्थिति वैदिक काल में अच्छी थी। प्रश्न यह उठता है कि उन्नीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों द्वारा ऐसा कहने के पीछे कोई रणनीति तो नहीं थी जिसमें वे वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति अच्छी होने की बात कर रहे थे। इसके पीछे एक लम्बी बहस छुपी हुई है। प्रश्न यह है कि ऐसी बातें समाज में इसलिए तो नहीं की गई क्योंकि उपनिवेशिक काल में पश्चिम के लेखकों के द्वारा भारतीय महिला की निम्न स्थिति की बातें लगातार की जा रही थी। उसी के प्रतिरोधस्वरूप भारतीय बुद्धिजीवियों ने वैश्विक फलक पर वेद में कुछ अनुश्रुतियाँ लिखने वाली महिलाओं की अच्छी स्थिति (काल्पनिक) दिखाने की कोशिश की। ताकि स्त्रियों की निम्न स्थिति को अच्छी बताकर उसका सामान्यीकरण किया जा सके। तथा उस काल में उन महिलाओं का प्रतिनिधित्व संपूर्ण समाज पर अधिरोपित किया जा सके।
नारीवादी दृष्टि से जो भी जानकारियाँ हासिल की गई हैं वे इस बात को प्रमाणित करती हैं कि उन्नीसवीं सदी के स्त्री सुधारवादी आन्दोलन पश्चिमी ताने के प्रतिरोध फलस्वरूप ही उभरे और उन्होंने वास्तव में स्त्रियों की निम्न स्थिति को महसूस किया। इस शोध लेख में ऋग्वेद काल में स्त्री की स्थिति का विश्लेषण किया गया है। विशेष रूप से जिन स्त्रियों की स्थिति अच्छी बताकर स्त्री सशक्तिकरण का दावा वेदकालीन समाज में किया जाता रहा है। क्योंकि ऐसी बातें प्रचारित की जाती हैं कि वेदकाल में स्त्रियाँ उच्च स्थान पर थी बाद के कालों में उनकी स्थिति का ह्वास हुआ है। ऋग्वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ है अत: इसके अध्ययन से ही जांच शुरू करनी होगी।
यह बात साबित हो चुकी है कि सत्ता तथा वर्चस्व का सीधा संबंध अर्थोपार्जन से जुड़ा हुआ है और अर्थ से पितृसत्ता जुड़ी हुई है इसीलिए आर्थिक ढांचे के समानांतर समाज की पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति का अध्ययन करते हुए समाज में स्त्री की प्रस्थिति का मूल्यांकन करना होगा। ऋग्वेदिक कालीन समाज मुख्यत: पशुपालन पर केन्द्रित थी। जनजातीय युद्ध बहुधा गाय-बैल के लिए लड़े जाते थे और इंद्र[2] का एक प्रमुख कार्य था शत्रुओं से अपने समर्थ के गे-बैल पुन: प्राप्त करना। ऐसा प्रतीत होता है कि मवेशी ‘गण’ तथा ‘परिषद’ कही जाने वाली जनजातीय इकाइयों के होते थे। अनुमान यह लगाया जाता है कि अनेक पीढ़ियों तथा सगोत्र सम्बन्धियों से युक्त विशाल परिवारों का मवेशियों पर स्वामित्व होता था। “जनजातीय सन्दर्भों में स्त्रियों को उत्पादकों का उत्पादक”[3] कहा गया है। “इस कारण उनके लिए युद्ध लादे जाते थे”[4]।
पशुचारी अर्थव्यवस्था पर आश्रित तथा सदा ही युद्धरत और लूटपाट पर आधारित इस समाज में स्त्रियों की भागीदारी क्या रही उसे ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं के माध्यम से विश्लेषित किया जा सकता है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मानव सभ्यता की उत्पत्ति तथा इसके विकास में स्त्री तथा पुरुष की बराबर की भूमिका रही है किन्तु स्त्रियों द्वारा की गई भागीदारी को इतिहास बनाने वालों ने उपेक्षित कर दिया। इसी कारण जब-जब नारीवादी दृष्टि से सत्य की पड़ताल की गई तो वस्तुस्थिति प्रकट हो गई। स्त्री उपेक्षा की शुरुआत ऋग्वेद के काल से ही हो गई थी जब उसके परवर्ती मंडल में उल्लिखित वर्णव्यवस्था का दैवीय सिद्धांत केवल पुरुषों के वर्ण का निर्धारण करता दिखता है। बहरहाल दैवीय सिद्धांत की सर्वविदित आलोचना होती है क्योंकि यह वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं किन्तु प्राचीन धरोहर होने के नाते इसका भी विश्लेष्ण करना महत्वपूर्ण है। स्त्री की उत्पत्ति कैसे और किस वर्ण में हुई इस विषय में इसमें कोई जानकारी नहीं दी गई है अर्थात उसे एक मानव की श्रेणी में रखा ही नहीं गया है। “स्त्री की उत्पत्ति पर पुरुष सूक्त में कुछ नहीं लिखा गया है”[5]। फिर भी स्त्रियाँ समाज के पुनरुत्पादन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाती रही।
कोई व्यक्ति कितना शक्तिशाली है यह उसकी पूंजी संबंधित सम्पन्नता से तय होता है। पितृसत्ता का आधार निजी संपत्ति के बाद ही अस्तित्व में आया। यदि ऐतिहासिक तथ्यों के माध्यम से इस बात की पुष्टि की जाती है कि वैदिक कालीन समाज में स्त्री उच्च स्थान पर थी तो स्वयं वैदिक तथ्य इस बात को प्रमाणिक क्यों नहीं करते! हम स्त्री की अच्छी स्थिति का मूल्यांकन उसके हाथ में संपत्ति, संसाधन तथा उसके निर्णय लेने के अधिकार से करेंगे किन्तु ऋग्वेद में ‘स्त्रीधन’ के विषय में कोई स्पष्ट संकेत प्रस्तुत नहीं किया गया है। “न केवल ऋग्वेद बल्कि सम्पूर्ण वैदिक साहित्य स्त्री के संपत्ति संबंधी अधिकार एवं उत्तराधिकार के सवाल पर मौन है”[6]।
समाज पशुचारी होने के कारण जमीन जैसी किसी संपत्ति का स्थान न था। किन्तु युद्ध पशुओं के लिए लड़े जाते थी क्योंकि उस समय पशु ही संपत्ति के स्रोत थे अत: युद्ध में कुछ स्त्रियों की भागीदारी के उल्लेख हमें ऋग्वेद की ऋचाओं में प्राप्त होते हैं। पहले[7], पांचवे[8] तथा दसवें[9] मंडल की ऋचाएँ काफी महत्वपूर्ण हैं जिसमें उन स्त्रियों का वर्णन किया गया है जिन्होंने पशुओं के लिए युद्ध किए। पहले मंडल में पिश्वपला[10] नमक स्त्री के न केवल युद्ध में भाग लेने बल्कि घायल होने के संकेत भी प्राप्त होते हैं। पांचवे मंडल में शाशीयसी[11] के परम साहस एवं योग्यता का वर्णन किया गया है। उसी प्रकार दसवें मंडल में मुद्गलानी[12] का रथ के सारथी के रूप में युद्ध में उपस्थित होने के प्रमाण मिलते हैं। तीन स्त्रियों के उदाहरण महत्वपूर्ण अवश्य हैं किन्तु सम्पूर्ण स्त्रियों का प्रतिनिधित्व एवं सशक्तिकरण इससे नहीं प्रमाणित होता है। वैदिक साहित्य की स्त्री द्वेष से संबंधित ऋचाएँ[13] यह बताती हैं कि पशुचारी पृष्ठभूमि वाले इस समाज में पितृसत्ता की जड़े कितनी मजबूत थीं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल[14] में इंद्र की उपासना में जो ऋचाएँ लिखी गई हैं उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘पुत्री अपने विवाह के पश्चात पितृकुल का त्याग कर देती है अत: पैतृक संपत्ति पर उसका कोई अधिकार नहीं’। ऋग्वेद के दसवें मंडल में ‘द्यूतक्रीड़ा’ पर लिखी गई ऋचा में पति द्वारा पत्नी को दाव पर लगाने की उल्लेख मिलता है।
“न मा मिमेथ जिहील एषा शिवा सखिभ्य उत मह्र्यमासीत।
अक्षस्याहमेकपरस्य हेतोरामुव्रतामप जायामरोधम”[15]।
समाज में महिलाओं के मानवाधिकार क्या और किस प्रकार हैं इसे विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में समझने की आवश्यकता है। आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक तथा विशेषाधिकार के रूप में प्रजनन संबंधी अधिकार के रूप में हम मानवाधिकारों को स्पष्ट कर सकते हैं। किसी समाज में यदि ये अधिकार महिलाओं को प्राप्त न हो तो उससे असमान लैंगिक संबंधों के प्रमाणिक संकेत प्राप्त होते हैं। उपरोक्त उदाहरणों से महिलाओं के आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक अधकारों का स्पष्टीकरण मिल चुका है कि महिलाओं को किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त न थे। जेंडर को लेकर भेद-भाव के संकेत भी प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद में पुरुष संतान की प्राप्ति की कामना की जाती थी। “दिलेर, पराक्रमी तथा साहसी संतान (पुत्र) प्राप्ति की प्रार्थना”[16]। “स्त्री संतान (पुत्री) के लिए कोई प्रार्थना नहीं है”[17]।
ऋग्वेद में लिखी गई ऋचाओं में से अधिकतर रचना ऋषियों द्वारा की गई हैं। उसमें अधिकतर मन्त्र शैली की रचनाएँ की गई हैं जिसके द्वारा लोग देवताओं से सदैव अपने आवश्यक संसाधनों की पूर्ती हेतु प्रार्थना करते रहते थे। किन्तु उसमें कुछ मन्त्रों अर्थात ऋचाओं की रचना ऋषिकाओं[18] के द्वारा भी की गई हैं। पांचवें, आठवें और दसवें मंडल में शामिल ऋषिकाओं के विषयवस्तु लगभग एक जैसे लगते हैं। विश्वतारा, आत्रेयी, रात्रि, जरिता, श्रद्धा कामायनी, इन्द्रमातर, गोधा द्वारा रचित मन्त्र सामान्य प्रकृति के हैं। किन्तु रोमाशा, लोपामुद्रा[19], अपाला[20], यमी के मन्त्र अपनी यौन अभिव्यक्ति के ऊपर केन्द्रित हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि संबंधों के परे जाकर ये अपनी यौन स्वतंत्रता की उद्घोषणा कर रही हैं। “इस क्रम में यमी का उल्लेख किया जा सकता है जो अपने भाई यम को यौन संबंधों के लिए आमंत्रित करती है[21]। संभवत: इस तरह के संबंधों की उस समाज में स्वीकृति हो तथा वे अधिक उत्पादक माने जाते हों! “इंद्र तथा उनके मित्र वृषाकपि और पत्नी इन्द्रनी के बीच हुए संवाद स्त्री यौनिकता, उसकी अभिव्यक्ति एवं उसे नियंत्रित तथा संचालित करने पर केन्द्रित है”[22]। “उर्वशी का पुरुरवा के साथ सशर्त संबंध बनाना और शर्त टूटने पर पुरुरवा को ठुकरा देना उल्लेखनीय है[23]। “अपाला द्वरा रचित आठवें मंडल का सूक्त सं.91 एक स्त्री के मनोभावों की चर्चा करता है अत: यह अति विशिष्ट है[24]। “इंद्राणी और शची पौलोमी की ऋचाएँ सौतनों का उल्लेख करती हैं। प्रेम में इंद्र द्वारा एकनिष्ठता दिखाए जाने तथा सौतनों से मुक्ति पाने के लिए इन्द्राणी द्वारा रचित सूक्त अत्यंत रोचक है क्योंकि इसमें जादू-टोन का विस्तार से वर्णन है[25]। इस प्रकार के उदाहरण महिलाओं को यौन पिपासु की तरह दर्शाने की चेष्टा कर रहें हैं। इससे यह संकेत प्राप्त हो रहा है कि ये महिलाऐं समाज में यौनाभिव्यक्ति से संबंधित ऋचाएँ लिखकर कोई बौद्धिक योगदान नहीं कर रही हैं बल्कि अपने यौन संसाधनों की पूर्ती हेतु ही इनके द्वारा सभी युक्तियाँ की जा रही है। ये भी लग रहा है कि केवल महिलाऐं ही अपने यौनिक संबंधों हेतु परेशान हैं, पुरुषों की ऐसी कोई इच्छा नहीं। या तो पुरुष बहुत महान हैं जिन्हें अपनी यौनिकता पर नियंत्रण को लेकर महारत हासिल है और महिलाऐं अपनी यौनिकता को लेकर अनियंत्रित और संभवत: सशंकित भी लगती हैं। महिलाओं की इस नैसर्गिक इच्छा को यौन पिपासु दिखाना कहाँ तक उचित है? क्या नैसर्गिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति करना बौद्धिक रूप से लोगों को सतही साबित कर सकता है! इन ऋषिकाओं द्वारा यौनाभिव्यक्ति से संबंधित श्रुतियों का उचित मूल्यांकन न करते हुए इतिहासकारों तथा बुद्धिजीवियों द्वारा आलोचना करना उन महिलाओं द्वारा की गई किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति को नकारना है। केवल इन श्रुतियों को ही नहीं बल्कि यौनाभिव्यक्ति के इतर भी जिन महिलाओं ने श्रुतियों की रचना की उन श्रुतियों को भी सामाजिक उपयोगिता के लिहाज से नजरअंदाज कर दिया गया।
ऋग्वेद से जो भी तथ्य प्राप्त हुए हैं वह महिलाओं के वेदकालीन समाज में अच्छी स्थिति का दावा करने वाले लोगों के ऊपर एक प्रश्न खड़ा करते हैं कि क्या महिलाओं की सशक्त स्थिति केवल यौनिकता के मुद्दे से जोड़कर देखी जा रही थी? यदि यह सत्य है तो स्वतंत्र इच्छा को अभिव्यक्त करने वाली ये महिलाऐं पितृसत्ता को ग्राह्य क्यों नहीं थीं? क्यों इनके द्वारा रचित ऋचाओं को समाज द्वारा उपयोगी ऋचाओं में नहीं गिना जाता? आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक अधिकारों की आवश्यकता महिलाओं को नहीं थी? जिन महिलाओं की स्थिति अच्छी थी भी तो वे किस वर्ग और श्रेणी की थीं, उसपर भी ध्यान देना आवश्यक है। ऋचाएं लिखने वाली महिलाऐं उच्च वर्ग तथा सभी प्रकार के संसाधनों से लैस थीं जो सम्पूर्ण समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहीं थीं। इसके साथ ही यौनिकता का मुद्दा भारतीय समाज में हमेशा से एक दबी हुई परिकल्पना के रूप मौजूद रही है। जब-जब लोगों ने खुल कर अपनी यौनिकता को प्रदर्शित किया है कि हमें अमुक जाति, अमुक व्यक्ति या अमुक धर्म के व्यक्ति के साथ विवाह करना है या संबंध में जाना है तो समाज ने सदा उसे उपेक्षित किया क्योंकि यौनिकता के मुद्दे को तय करने की जिम्मेदारी या तो परिवार या फिर जाति तथा धर्म संस्कृति के ठेकेदारों की है। इन्हीं लोगों ने समाज की संरचना विभन्न जाति, वर्ग, धर्म और समुदाय के नाम पर की है। विवाह संस्था के माध्यम से यौनिकता निर्धारण करने की जिम्मेदारी पारिवारिक पितृसत्ता के द्वारा की जाती है। तभी तो विवाह संस्था आज तक कायम है। विवाह के माध्यम से परिवार यह तय करता है कि किसी स्त्री को या पुरुष को किसके साथ और कब संबंध स्थापित करना है। इस नियमों को स्थापित करने के लिए कानून और रीति रिवाज का सहारा लिया गया है। कई समाजों में यौनिकता संबंधी स्वायत्त निर्णय लेने पर फतवा और ऑनर किलिंग जैसे अमानवीय कृत्य तक हो जाते हैं जो मनुष्यों के जीवन जीने के अधिकार में एक सेंघ की तरह है।
समकालीन समय में समलिंगी संबंधों के लिए अपनी यौनिकता अभिव्यक्त करने वाले लोगों पर कानून द्वारा इसे अवैध कर दिया गया है। जबकि यौनिकता का मसला, जात-पात, लिंग, नस्ल एवं प्रकृति से परे है। समाज में यौनिकता को अभिव्यक्त करने वाले लोगों को बुरे लोगों की श्रेणी में रखा जाता है और समाज के मानकों के अनुसार यह घृणित अभिव्यक्ति है। पहले भी यही बात वैदिक समाज में अपनी यौनाभिव्यक्ति को प्रदर्शित करनेवाली महिलाओं के लिए मानी जाती थी और आज यह मसला समाज, धर्म और यहाँ तक कानून के लिए भी अवैध ही है? तो क्या यह मानवों के जीवन जीने के अधिकारों का यह हनन नहीं? क्या हमारा समाज अपने को आधुनिक कहने का हकदार है? दो हजार साल प्राचीन मानसिकता आज भी हमारे समाज में मौजूद है क्या यह मानवाधिकार हनन का परिचायक नहीं? क्या यह स्त्री अधिकार हनन का परिचायक नहीं? यहीं पर वेदकालीन समाज की स्त्रियों के सशक्तिकरण का दावा करनेवाले और आधुनिक समाज में स्त्री अधिकारों की वकालत करनेवाले लोगों की कलई खुल जाती है।
संदर्भ ग्रंथ
अंबेडकर,डॉ. बी.आर(2007), सम्पूर्ण वांग्मय, वो.7,सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली
इंद्र का उल्लेख ऋग्वेद में सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता के रूप में मिलता है|
शर्मा,आर.एस(1993),प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
चटोपाध्याय,अन्नपूर्णा(2009), स्टडींग द इकानामिक पोजीशन आफ वुमन इन धर्मशास्त्राज, रावत प्रकाशन, नई दिल्ली
वृहदारन्यक उपनिषद,
ऋग्वेद से हमें 16 ऋषिकाओं के नाम मिलते हैं| उदा.रोमशा(ऋ.वे.1.126.7),लोपामुद्रा(ऋ.वे.i.179.1-6),विश्वतारा अत्रेयी(ऋ.वे.v.28.1-6),अपाला(ऋ.वे.viii.91.1-7),यमी(ऋ.वे.x.10.1-14),घोषा(ऋ.वे.x.40),सूर्या(ऋ.वे.x.85.1-47)उर्वशी(ऋ.वे.x.95.1.18),रात्रि(ऋ.वे.x.127.1-8),जरिता(ऋ.वे.x.142.1-2),इन्द्राणी(ऋ.वे.x.145.1-6)श्रद्धा कामायनी(ऋ.वे.x.151.1-5),इन्द्र्मातर(ऋ.वे.x.153.1-5),शची पौलोमी(ऋ.वे.x.159.1-6)गोधा(ऋ.वे.x.134.7),सरमा देव्शुनी(ऋ.वे.x.108.2,4,6,8,10-11).
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अंबेडकर,डॉ. बी.आर(2007), सम्पूर्ण वांग्मय, वो.7, पृ.207-208 ↑
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.इंद्र का उल्लेख ऋग्वेद में सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता के रूप में मिलता है| ↑
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.शर्मा,आर.एस(1993),प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएं, पृ.60 ↑
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वही, पृ.72 ↑
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ऋ.वे.x.90.1-16 ↑
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चटोपाध्याय,अन्नपूर्णा(2009), स्टडींग द इकानामिक पोजीशन आफ वुमन इन धर्मशास्त्राज, पृ.203 ↑
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ऋ.वे.I.112.10;ऋ.वे.I.116.15 ↑
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ऋ.वे.V.30.9;ऋ.वे.V.61.5-8 ↑
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ऋ.वे.x.102;1-2 ↑
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ऋ.वे.I.112.10 ↑
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ऋ.वे.V.61.6 ↑
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ऋ.वे.x.102.2 ↑
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ऋ.वे.vii.104.17;viii.33.17;viii.33.17;x.95.15 ↑
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ऋ.वे.iii.31.2 ↑
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ऋ.वे.x.34.2 ↑
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ऋ.वे.i.23.24;54.ii;85.12;94.8;iii.2;117.25;129.7(सभी प्रथम मंडल में) ↑
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वृहदारन्यक उपनिषद,vi.4.17 ↑
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ऋग्वेद से हमें 16 ऋषिकाओं के नाम मिलते हैं| उदा.रोमशा(ऋ.वे.1.126.7),लोपामुद्रा(ऋ.वे.i.179.1-6),विश्वतारा अत्रेयी(ऋ.वे.v.28.1-6),अपाला(ऋ.वे.viii.91.1-7),यमी(ऋ.वे.x.10.1-14),घोषा(ऋ.वे.x.40),सूर्या(ऋ.वे.x.85.1-47)उर्वशी(ऋ.वे.x.95.1.18),रात्रि(ऋ.वे.x.127.1-8),जरिता(ऋ.वे.x.142.1-2),इन्द्राणी(ऋ.वे.x.145.1-6)श्रद्धा कामायनी(ऋ.वे.x.151.1-5),इन्द्र्मातर(ऋ.वे.x.153.1-5),शची पौलोमी(ऋ.वे.x.159.1-6)गोधा(ऋ.वे.x.134.7),सरमा देव्शुनी(ऋ.वे.x.108.2,4,6,8,10-11). ↑
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ऋ.वे.i.126.7 ↑
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ऋ.वे.i.179.1 ↑
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ऋ.वे.x.10.7 ↑
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ऋ.वे.x.86.1-23 ↑
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ऋ.वे.x.95.1-18 ↑
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ऋ.वे.viii.91.2,ऋ.वे.viii.91.4 ↑
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ऋ.वे.x.145.1,195.2 ↑