उत्तराखंड की लोक गाथाएँ : जागर के संदर्भ में

दिवाकर भटेले

पी.एच.डी. शोधार्थी (इतिहास)

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन

मो.न.- 8860069749

divakar.divakar1987@gmail.com

सारांश

उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं में लोक गाथाओं का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं में जागर गाथाओं की अपनी अलग पहचान है।जागर गाथाएँ लोक संस्कृति के अभिन्न अंग लोक गाथाओं के अंतर्गत आती है। जागर का आयोजन देव अवतरण से संबंधित है। जिसके माध्यम से देवता का आव्हान कर मानव शरीर में देवता का अवतरण कराया जाता है। इन गाथाओं से उत्तराखंड की संस्कृति को समझने में बहुत आसानी होती है। क्यों कि इनके कथानक में वहां की संस्कृति की झलक देखी जा सकती हैं।उत्तराखंड की संस्कृति विभिन्न तत्वों के सम्मिश्रण से व्युत्पन्न हुई एक साझी संस्कृति है, जिसके निर्माण में समय-समय पर विभिन्न कारकों ने अपना प्रभाव स्थापित किया है। उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं के निर्माण के लिए उत्तरदाई कारकों के अंतर्गत उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति, कृषि की कमतर संभावनाएं, आवागमन के साधनों की कमी, मध्य काल में हुए प्रवास और स्थानीय समुदाय का न्यूनतम संपर्क विशेष उल्लेखनीय है।उत्तराखंड में प्रचलित धार्मिक मान्यताएं विभिन्न संप्रदाय समुदायों के प्रभाव को प्रदर्शित करती हैं ।जटिल भौगोलिक स्थिति और समय-समय पर होने वाले प्राकृतिक प्रकोप के फलस्वरुप यहां के निवासियों की शक्ति पूजा ,टोटम और अलौकिक शक्तियों में बहुत आस्था है। उत्तराखंड के जनमानस की हिंदू धर्म के प्रमुख देवी देवताओं की अपेक्षा स्थानीय लोक देवी-देवताओं पर अधिक आस्था है। उत्तराखंड के जनमानस के द्वारा रचित और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित यह लोक गाथाएं जनसामान्य के जीवन से संबंधित विभिन्न पक्षों का बोध कराती हैं ,अतः इन लोक गाथाओं के माध्यम से शासक वर्ग के इतिहास के साथ ही जन सामान्य की परिस्थिति और सामाजिक सांस्कृतिक प्रवेश की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

बीज शब्द- जागर, लोक गाथाएँ, पवाडें, प्रणय गाथाएँ, चैती गाथाएँ, देव जात्राएँ, आवजी-बाजगी

शोध आलेख

लोक गाथाएँ उत्तराखंड की संस्कृति का अभिन्न अंग है ।इन गाथाओं की उत्पत्ति कैसे हुई इसे समझने के लिए इन लोक गाथाओं की उत्पत्ति के संबंध में दिए गए विभिन्न सिद्धांतों को समझना आवश्यक है ।इसके साथ ही लोक गाथाओं की विशेषताओं का उल्लेख करना भी समीचीन होगा। लोक गाथाओं की उत्पत्ति विषयक विभिन्न विद्वानों द्वारा समय-समय पर विभिन्न सिद्धांत प्रतिपादित किए जाते रहे हैं । जैसे जर्मनी के विद्वान जैकब ग्रिम ने लोक गाथाओं पर किए गए अपने अनुसंधान में यह पाया की लोक गाथाओं का निर्माण स्वतः होता है। वह लोकगाथा के निर्माण के लिए व्यक्ति विशेष की जगह समुदाय को प्रमुखता प्रदान करते थे उनका मानना था की इन गाथाओं का निर्माण किसी समुदाय द्वारा ही किया जा सकता है। लोक गाथा के निर्माण के संबंध में अगस्त विल्हेम श्लेगल, जैकब ग्रिम से भिन्न मत रखते हैं। उनका मानना है की लोक गाथाओं का निर्माण किसी समुदाय द्वारा नहीं किया जा सकता बल्कि यह किसी व्यक्ति विशेष की ही रचना होती है। स्टेंथल ने भी लोक गाथा संबंधित अपने सिद्धांत में समुदाय वाद को ही प्रमुखता दी है। उनका मानना है कि किसी जाति विशेष के संपूर्ण व्यक्तियों के द्वारा ही लोक गाथाओं का निर्माण किया जाता है। उन्होंने लोक गाथा के निर्माण को आदिम समाज से जोड़ते हुए लिखा है कि आदिम समाज और प्राचीन असभ्य जातियों में भावनाएं और मूल प्रवृत्तियां एक समान ही पाई जाती थी और समुदाय की प्रधानता ही सर्वोच्च हुआ करती थी। इंग्लैंड के विद्वान विशप पर्सी द्वारा भी लोक कथाओं की उत्पत्ति संबंध सिद्धांत दिया गया है। उनके सिद्धांत को चारण वाद के नाम से जाना जाता है। पर्सी का मत है की लोक गाथाओं की रचना चारणों अथवा भाटों के द्वारा की गई है। फ्रांसिस जेम्स चाइल्ड के मतानुसार लोक गाथाओं की रचना भी किसी काव्य की तरह व्यक्ति विशेष के द्वारा की जाती है। परंतु लोक गाथाओं के संदर्भ में उसके रचनाकार का कोई विशेष महत्व नहीं होता है।व्यक्ति विशेष की कृति होने के पश्चात भी लोक गाथा विभिन्न व्यक्तियों द्वारा गाई जाती हैं जिसके फलस्वरूप लोक गाथाओं में परिवर्तन और परिवर्धन रहता है। भारतीय साहित्यकार कृष्ण देव उपाध्याय ने भी लोक कथाओं से संबंधित एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। जिसे समन्वयवाद के नाम से जाना जाता है। उपर्युक्त उल्लिखित सिद्धांत लोक गाथाओं की उत्पत्ति का कारण है उनका मानना कि किसी एक वाद को इन लोक गाथाओं की निष्पत्ति का कारण मानना समीचीन प्रतीत नहीं होता है।

लोक गाथाओं की विशेषताएँ

लोक गाथाओं की कुछ मौलिक विशेषताएं होती है यथाः प्रमाणिक मूल पाठ का अभाव ,रचयिता का अज्ञात होना, ,संगीत और नृत्य का अभिन्न साहचर्य, स्थानीयता का प्रचुर पुट ,मौखिक प्रवृत्ति, उपदेशात्मक प्रवृत्ति का अत्यन्ताभाव ,रचियता के व्यक्तित्व का अनस्तित्व, लंबा कथानक ,टेक पदों की पुनः आवृत्ति। उल्लेखित विशेषताओं के अनुसार हम देख सकते है कि कुछ विशेषताएँ ऐसी है जिसे प्रायः सभी लोक गाथाओं में देख सकते है। कि इसका रचयिता के बारे में जानकारी प्राप्त नही होती है। साथ ही इन गाथाओं का कोई प्रमाणिक मूल पाठ भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। संभवत: यह गाथाएं प्राय: जाति समुदाय या समूह के द्वारा सम्मिलित तौर पर रची जाती हैं, इसलिए गाथाओं के मूल पाठ का पता लगाना मुश्किल कार्य है। समय दर समय जनसामान्य अपनी सहूलियत के अनुसार इन गाथाओं में परिवर्तन तथा परिवर्धन करता रहता है और साथ ही साथ समुदाय विशेषों में भाषा क्षेत्र के आधार पर एक ही गाथा के अनेक रूप निर्मित कर दिए जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में यह पता करना अत्यंत दुष्कर कार्य हो जाता है। कि विभिन्न रूपों के अंतर्गत गाथा का मूल पाठ कौन सा है। संगीत और नृत्य लोक गाथाओं के अभिन्न अंग होते हैं। गाथाओं की प्रस्तुति के समय नृत्य और वाद्य के प्रयोग से गाथाओं को मनोरंजक और रुचिकर रूप प्रदान किया जाता है। लोक गाथाओं की एक विशेषता उसमें स्थानीयता का समुचित उल्लेख होना भी है ,जिस प्रदेश क्षेत्र विशेष में जो लोक गाथा प्रचलित होती है उस क्षेत्र की स्थानीय ,सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का वर्णन लोक गाथा में देखने को मिलता है। मौखिक प्रवृत्ति लोक गाथाओं की मौलिक विशेषता है प्रायः लोक गाथाओं का प्रचार और प्रसार पीढ़ी- दर- पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होता रहता है। कुछ विद्वानों का तो मत है कि यदि लोग गाथाएं लिपिबद्ध कर दी जाती है तो उनकी अभिवृद्धि नहीं होती है।

उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपरा

उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं में लोक गाथाएँ, लोकगीत, लोक नृत्य ,देव जात्राएँ , उत्सव ,पर्व, मेले इत्यादि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अगर हम उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं पर दृष्टिपात करे तो हिन्दू धर्म की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है और इसके साथ ही सांस्कृतिक परंपराओं में स्थानीयता का भाव दृष्टिगत होता है। स्थानीय तत्वों का समावेश ही उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपराओं को विशेषता प्रदान करता है। उत्तराखंड में प्रचलित संस्कृति के विभिन्न आयामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रस्तुत है।

लोक गाथाएँ

गोविंद चातक ने उत्तराखंड में प्रचलित लोक गाथाओं को चार भागों में विभाजित किया है।

  1. जागर गाथाएँ अथवा धार्मिक गाथाएँ
  2. पवाडे अथवा वीरगाथाएँ
  3. प्रणय गाथाएँ
  4. चैती गाथाएँ

जागर अथवा धार्मिक गाथाएँ मुख्य तौर पर धार्मिक अनुष्ठानों में देवताओं के आव्हान और नर्तन के लिए गाई जाती हैं। इसके साथ ही आवजी-बाजगी समुदाय (उत्तराखंड में वाद्य यंत्रों के वादक समुदायों को आवजी-बाजगी समुदाय कहा जाता है) सवणो॔ के द्वार पर जाकर वाद्य यंत्र( ढोल, दमौ, हुडकी इत्यादि) बजाते हुए देवताओं की धार्मिक गाथाओं का गायन करते हैं। जागर एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है जागरण या जगाना। जागर उत्तराखंड में देव- आराधना और देव आह्वान की एक धार्मिक- अनुष्ठानिक विधि है, जिसमें विशेष कर्मकांडीय पद्धति से मानव शरीर में देवता का अवतरण करवाया जाता है। जागर की प्रक्रिया से आराध्य देव अथवा आह्वान किए गए देवता को किसी मनोकामना पूर्ण होने पर धन्यवाद प्रदान किया जाता है अथवा कष्टों के निवारण के परिपेक्ष्य में देवता से प्रार्थना की जाती है। उत्तराखंड में प्रसिद्ध वीर गाथाओं को पवाड़ा कहा जाता है। इन गाथाओं में युद्ध के अवसरों पर नायकों के शौर्य वर्णन, साहस और पराक्रम के विवरण मिलते हैं। जीतू बगड़्वाल ,कुफू चौहान, माधौसिंह भंडारी ,राना रावत, जगदेव पंवार इत्यादि पात्रों की वीर गाथाएँ पवाडों के तौर पर प्रचलित है। प्रणय गाथाएं भी उत्तराखंड की संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। प्रणय गाथाओं के अंतर्गत नायक- नायिकाओं के प्रणय प्रसंगों और प्रेम आख्यानों के विवरण मिलते हैं। जीतू-भरना, गजू-मालारी ,राजुला -मालूशाही ,फ्यूली- रौतेली इत्यादि गाथाओं को हम प्रणय गाथाओ तौर पर देख सकते हैं। प्रणय गाथाओं में भी नायक- नायिकाओं के शौर्य पराक्रम के विवरण प्राप्त होते हैं। चैती गाथाऍं वे गाथाएँ हैं जो आवजी-वादक समुदाय के द्वारा हिंदू पंचांग के चैत माह में सवर्ण वर्गों के ग्रहद्वार पर अन्न मांगते हुए गाई जाती हैं। इन गाथाओं के विवरण में स्त्रियों का अपने मायके और परिजनों, विशेषकर अपने भाइयों के प्रति अपार स्नेह की अभिव्यक्ति दृष्टिगत होती है ।सदेई की गाथा,जसी की गाथा, सरू की गाथा और गोरधना की गाथा को चैती गाथाओं के तौर पर जाना जाता है।मुख्य तथ्य यह है कि गाथाओं के विवरणों के अनुसार इनमें विभाजन करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। वीर गाथाऍं, प्रणय गाथाएँ भी हैं और प्रणय गाथाओं में शौर्य,पराक्रम, साहस जैसे वीरता की भावना के विवरण भी मिलते हैं। इसी प्रकार चैती गाथाओं के विवरणों में भी प्रणय प्रसंगों का उल्लेख है। जागर गाथा में शौर्य और प्रणय के प्रसंग प्राप्त होते हैं।

जागर शब्द को कई तरह से विश्लेषित किया जा सकता है। एक अर्थ में इसे देव अवतरण की प्रक्रिया की कर्मकांडीय पद्धति के तौर पर समझा जाता है और इसके साथ ही कर्मकांडीय पद्धति में देव गाथा के रूप में गाया जाता है। एंड्रयू अल्टर ने जागरण शब्द के अर्थ में कहा है कि, जागरण का तात्पर्य है जगाना इसमें देवता को आस्था पूर्वक जगाना शामिल है। ऐसा समझा जाता है की जागरण की कर्मकांडी प्रक्रिया में देवता नाचने और वार्तालाप के लिए आता है। गढ़वाल में जागर और जागरण शब्द के बीच विभेद किया जाता है। जागरण शब्द धार्मिक उत्सव को प्रदर्शित करता है। वही जागर का तात्पर्य उन क्रियाकलापों से है जिनमें नाटकीय प्रदर्शन, गीत, गाथा और उसे प्रदर्शित करने वाले लोग और उनके समूह सम्मिलित हैं।

जागर के प्रकार

स्थल के अनुसार जागर के दो रूप देखने को मिलते हैं: भीतरी जागर एवं बाहरी जागर।भीतरी जागर का आयोजन मुख्यतः घर में ही संपन्न किया जाता है। यह घर के अंदर किसी चौकोर आगन में या घर के किसी कक्ष में हो सकता है। भीतरी जागर में सामान्यतः घर के लोग तथा पारिवारिक सदस्य सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार के जागरण में बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित होता है। अगर भीतरी जागर के आयोजन में उपयोग किए जाने वाले वाद्य यंत्रों पर गौर करें तो उसका स्वरूप भी बाहरी जागर के वाद्य यंत्रों से अलग दिखाई देता है। भीतरी जागर में प्रयुक्त होने वाले वाद्य यंत्रों में मुख्य तौर पर कांसे की थाली, हुड़का और बांसुरी जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। भीतरी जागर की समय अवधि मुख्यतः 1 दिन या रात्रि की होती है बाहरी जागरों का आयोजन सामान्य तौर पर किसी देवस्थल के प्रांगण अथवा गांव के सामूहिक स्थान पर किया जाता है। जिस गांव में बाहरी जागर का आयोजन किया जा रहा होता है। उसमें उस गांव के निवासियों के अतिरिक्त आस-पास के गांव के लोग भी सम्मिलित होते हैं। एक और जहाँ भीतरी जागर में आयोजनकर्ता एवं डंगरियों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है,वही दूसरी ओर बाहरी जागर में आयोजनकर्ता एवं डंगरियोंकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती है। बाहरी जागर के आयोजन से पूर्व जिस जगह पर बाहरी जागर का आयोजन किया जाना है उस स्थल को साफ किया जाता है और उस स्थल के चारों ओर बड़े-बड़े झंडे जो सामान्यतः लाल और सफेद रंग के होते हैं लगाए जाते हैं। झंडे इस बात का सूचक होते हैं कि, इस स्थान पर कोई धार्मिक कृत्य होने वाला है। बाहरी जागर में प्रयुक्त होने वाले वाद्य यंत्रों में मुख्य तौर पर ढोल, नगाड़े और रणसिंघा जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।

जागर में भाग लेने वाले लोग और उनकी भूमिका

जागर की अनुष्ठानिक प्रक्रिया में कुछ लोगों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है जिन्हें जानना आवश्यक है।

1: जगरिया

2: डंगरिया

3: स्योंकार-स्योंनाई

4: बाजगी

इसके अलावा स्योंकार के घर के अन्य सदस्य संबंधी मित्रगण गांव पड़ोस के लोग भी जागर में दर्शक की तरह शामिल होते हैं तथा देवता से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

जागर के संबंध में गाथा गायक को जगरिया कहा जाता है। इसका मुख्य कार्य देवता की जीवनी, उसके प्रमुख मानवीय और दैवीय गुणों को लोक वाद्यों के वादन के साथ एक विशेष शैली में गाकर देवता को जागृत कर उसका अवतरण डंगरिया के शरीर में कराना होता है। जागर के संदर्भ में डंगरिया उस व्यक्ति को कहते हैं जिसके शरीर में देवता का अवतरण होता है।अवतरण के संदर्भ में यह भी देखने को मिलता है की देवी देवताओं का अवतरण स्त्री-पुरुष दोनों शरीर में हो सकता है। जिस घर के लोगों द्वारा जागर आयोजित किया जाता है उस घर के स्वामी को स्योंकार कहा जाता है। इसे जगरिया का ग्राहक भी कहा जा सकता है। गृह स्वामी की पत्नी को स्योंनाई कहा जाता है इस प्रकार स्योंकार-स्योंनाई जागर के मेजबान होते हैं और जगरिया इनके द्वारा ही अनुष्ठान के शुरू होने से पहले की पवित्रीकरण की क्रिया करवाता है। बाजगी जागर की अनुष्ठानिक प्रक्रिया में जगरिया के साथ गायन में तथा वाद्य यंत्रों को बजाने में सहयोग करते।हैं इस प्रकार से जगरिया के वह सहायक होते हैं। बाजगी को हिवारी भी कहा जाता है।

लोक गाथाएं समाज का प्रतिबिंब होती है। लोक गाथाओं में सामाजिक विश्वासों, व्यवहारों ,विचारों प्रचलित मान्यताओं आदि का विवरण होता है। इन गाथाओं में मे तत्कालीन प्रचलित रीति रिवाज, मान्यताओं ,विश्वास , जातीय संरचना एवं सामाजिक संबंधों के प्रति दृष्टिकोण इत्यादि के संदर्भ में उल्लेख प्राप्त होते हैं। इन गाथाओं में जहां एक और ईर्ष्या, द्वेष, कलह,विवाहेत्तर संबंध और कामासक्ति जैसे सामाजिक विचारों से संबंधित प्रश्नों का विवरण है, वहीं दूसरी ओर वीरता, साहस, निष्ठा, बलिदान, प्रेम और उदारता जैसे मानवतावादी विचारों का उल्लेख भी किया जाता है। इन गाथाओं में मनुष्य की कठिन और विपरीत परिस्थितियों में देवी देवताओं के द्वारा उनकी सहायता किए जाने संबंधी विवरण उपलब्ध होते हैं। इन लोक गाथाओं का सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करने के पश्चात हमें उत्तराखंड की सामाजिक संगठन के साथ ही वहां प्रचलित धार्मिक- सामाजिक रीति-रिवाजों और विभिन्न समुदायों की प्रथाओं का अध्ययन भी प्राप्त हो जाता है ।क्योंकि इन्हीं समाजों के द्वारा पूर्व में इन लोक गाथाओं का रचना की गई है।निश्चित तौर पर इनकी सामाजिक मान्यताओं, प्रथा और धार्मिक परंपराओं का लोक गाथा के निर्माण पर अत्यंत गहरा प्रभाव रहा होगा।उत्तराखंड में प्रचलित इन लोग गाथाओं केअध्ययन से सामाजिक मान्यताओं और प्रथाओं की जानकारी प्राप्त होती है। लोक गाथाओं के आधार पर सामाजिक संगठन और समाज में प्रचलित परंपराओं प्रथाओं का अध्ययन किया जा सकता है ।इन लोक गाथाओं के प्रसंग तत्कालीन समय में प्रचलित धार्मिक परंपराओं प्रचलित मान्यताओं, सामाजिक भेदभाव, सामाजिक व्यवस्था ,महिलाओं की परिस्थिति और मानवीय विवादों की अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते दिखाई देते है।

उत्तराखंड की संस्कृति में जागर गाथाओ का महत्वपूर्ण स्थान देखने को मिलता है ।यह गाथााएँ वहां के लोकजीवन की अभिव्यक्ति हैं। उत्तराखंड की संस्कृति में प्रचलित जागर गाथाएँ वहाँ के समाज की राजनैतिक ,सामाजिक एवं धार्मिक अवस्था का चित्र प्रस्तुत करती हैं। तथा साथ ही वहां के निवासियों के मनोभावों, दर्शन एवं भक्ति आंदोलन के प्रभाव की अभिव्यंजना प्रदर्शित करती हैं। जागर गाथा में जहां एक और पौराणिक कालीन साहित्य में वर्णित कथाओं का समावेश देखने को मिलता है, वहीं दूसरी ओर मध्यकालीन राजनीतिक व्यवस्था एवं ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण भी दृष्टिगोचर होता है ।इन गाथाओं में प्रेम, युद्ध ,सौन्दर्य निरूपण ,अभाव के वृतांत एवं मानवीय व्यवहारों जैसे ईर्ष्या, द्वेष, छल, करूणा के विवरण भी उपलब्ध होते हैं। रूढ़िवादिता, अंधविश्वास ,तंत्र -मंत्र ,जादू -टोना जैसे लोक विश्वासों के प्रसंग इन गाथाओं में प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं।इन जागर गाथाओं की श्रॅखला उत्तराखंड के निवासियों के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है ।ब्राह्मणनिष्ठ परंपराओं के मुख्य देवी देवताओं से परे स्थानीय समुदायों में पूजित लोक देवी-देवताओं की परंपरा एवं उनकी आराधना पद्धति यहां तुलनात्मक रूप से अधिक महत्वपूर्ण है ।लोक देवी देवताओं की आराधना पद्धति ब्राह्मणनिष्ठ परंपरा का अनुसरण ना करते हुए स्थानीय स्तर पर विकसित की गई है , जिसमें ब्राह्मणनिष्ठ परंपरा में कर्मकांड संपन्न करवाने वाले ब्राह्मण वर्ग के पुरोहितों की कोई भूमिका नहीं होती है।

संदर्भ सूची

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