उषा प्रियंवदा के कथा साहित्य में बदलते स्त्री-पुरुष संबंध
अर्चना मीणा,
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय,
मोबाइल: 9953583025,
ईमेल: anu31814@gmail.com,
शोध सार
यह अध्ययन उषा प्रियंवदा के कथा साहित्य में बदलते स्त्री-पुरुष के संबंधों से संबंधित है। उषा प्रियंवदा समकालीन नारी चेतना का सशक्त चित्रण करने वाली लेखिका है। इनके कथा साहित्य में स्त्री -पुरुष संबंधों में प्रतिस्पर्धा अस्मिता की रक्षा तथा व्यक्तिपरक भोगवाद आदि का चित्रण है। इनके साहित्य में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के टकराव के कारण स्त्री – पुरुषों के बदलते संबंधों का विवेचन है कि आज पति-पत्नी एक दूसरे के सहायक न होकर निजी व्यक्तित्व की चाह में तनावग्रस्त, कुण्ठा, अकेलापन ,विवाह-विच्छेद आदि की स्थिति को सामने लायी है।
बीज शब्द: कथा, साहित्य, स्त्री, पुरुष, संबंध, चित्रण, संस्कृति
मूल आलेख
आधुनिकता बोध की तीव्रता आज के जीवन के क्षेत्र में दिखाई देती है। आज की जीवन व्यवस्था में संबंध और नातेदारी चल नहीं पाती है। पुत्र अब परलोक के लिए नहीं इहलोक के लिए जरूरी हो गया है। पति-पत्नी के संबंधो में अब बदलाव आ चुका है। पुरुष आज अधिक स्वतंत्र सैक्स की मांग कर रहा है विवाह विच्छेद को आज तटस्थ भाव से देखा जा रहा है स्थापित मान्यताओं के विरोध में जाकर नारियां अब कई पुरुषों से अपने संबंध स्थापित कर रही हैं। हिन्दी की आधुनिक कथा लेखिकाओं ने वर्तमान समाज में नारी की सजगता, दांपत्य तथा पारिवारिक जीवन की स्थिति, कामकाजी नारी में अपनी स्वतंत्रता की चिंता आदि बातों का वास्तविक चित्रण किया है। नारी होने के नाते नारी-वर्ण की कठिनाइयों और वास्तविकताओं का चित्रण कथा- लेखकों की अपेक्षा कथा लेखिकायें ही स्वाभाविकता और सच्चाई के साथ कर सकती हैं। हिन्दी आधुनिक लेखिकाओं में उषा प्रियंवदा का स्थान सर्वोपरि है। वह समकालीन नारी चेतना सशक्त चित्रण करने वाली लेखिका है। इनके साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों में प्रतिस्पर्धा अस्मिता की रक्षा तथा व्यक्तिपरक भोगवाद आदि का चित्रण है।
बदलते स्त्री-पुरुष संबंध
बदलते सामाजिक परिवेश के कारण पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन आया है जिसका प्रभाव स्त्री-पुरुष का साथ जहाँ उनकी जैविक आवश्यकता है, वहाँ अपनी अस्मिता बनाये रखना उनकी मानसिक आवश्यकता है। आज तक हमारे समाज में स्त्री सभी मोर्चों पर पुरुषों के आधिपत्य को स्वीकार करती रही पर आधुनिकता की प्रक्रिया में वह इससे धीरे-धीरे मुक्त होने का प्रयास कर रही है। इस मुक्ति की यात्रा में जीवन के जैविक व व्यवहारिक मानसिक पक्षों को ध्यान में रखना आवश्यक है। स्त्री-पुरुष के संबंधों में तीसरे आदमी की उपस्थिति को लेकर सोच और रवैये में अंतर आता गया है। स्त्री-पुरुषो के संबंधों में आर्थिक संदर्भ को लेकर व्यक्ति स्वतंत्रता के कारण रिश्तों में बदलाव आया है। आर्थिक स्वतंत्रता के अतिरिक्त स्त्री मानसिक स्वतंत्रता भी चाहती है। उषा प्रियवंदा के अधिकांश कथा- साहित्य में स्त्री- पुरुष के बदलते रिश्तों का नया स्वरूप देखने को मिल रहा है कि दो संस्कृति के टकरावों से रिश्तों में क्या- क्या परिवर्तन आता रहा है।
उषा प्रियंवदा के कथा-साहित्य में यथार्थ को जैसे के तैसे रूप में प्रस्तुत किया है आज भी परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हो गयी है कि विश्वास के स्थान पर संदेश जागृत हो जाता है आज का आदमी चिंता ग्रस्त है। प्रतिक्षा से ऊबा हुआ है भीड़ में भी अकेला है। आज सत्य असत्य, नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य, मूल्य और वर्जनाओं के अर्थ बदल गये हैं। नारी कामकाजी होने के नाते किसी पर निर्भर नहीं है। वह अपने फैसले खुद लेती है। इसलिए पुरुष सत्ता डगमगाती जा रही है। विवाह अब युवकों को मीनिंगलैस रस्म लगती है। विवाह विच्छेद को आज तटस्थ भाव से देखा जा रहा है स्थापित मान्यताओं के विरोध में जाकर नारियाँ अब कई पुरुषों से अपने संबंध स्थापित कर रही है और लिव-इन रिलेशनशिप एक सामान्य बात हो गयी है।
लेखिका के कथा साहित्य में विदेशी और भारतीय वातावरण का विचित्र व रहस्यमय सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया है। भारतीय परिवेश में उनके उपन्यास व कहानियों के पात्र आधुनिक मानसिकता के कारण विसंगतियों का सामना करते हैं तथा विदेशी परिवेश में भारतीय संस्कारों के कारण विसंगतियों में फंस कर रह जाते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में भारतीय – अभारतीय तत्वों को संजोया है।
परिस्थितियों से पलायन कर जाना आज के मनुष्य की आदत बन गई है। समाज ने जो भी सम्बल प्रदान किये हैं वह उसे स्वीकार्य नहीं है और नवीन सम्बल वह बना नहीं पाया है। पुराने मूल्य पूर्णतः टूटे नहीं हैं, नये मूल्य पूर्णतः स्थापित नहीं हो पाये। परिणामस्वरुप मनुष्य दोनों के मध्य अटक कर रह गया है। इस संदर्भ में उषा प्रियंवदा की ‘एक कोई दूसरा’, ‘सागर पार का संगीत’, ‘पिघलती हुई बर्फ‘, ‘टूटे हुये’ आदि कहानियाँ हैं। इनमें शून्यता, एकाकीपन, निराशा तथा अजनबीपन आदि अनुभूतियों लक्षित होती है।
लेखिका की अधिकांश कहानियों में यह देखने को मिलता है कि विवाहित दंपत्तियों के बीच प्रेम नहीं केवल सम्बन्ध है। संबंधों के बीच लगभग निरावेग ठंडापन है जिसके कारण विवाहित जीवन संबंधों को ढोते रहने की प्रक्रिया से अधिक कुछ नहीं। यह पारस्परिक उदासीनता या निरपेक्षता के बीच में किसी तीसरे के आ जाने से यानी प्रेम के त्रिकोण बनने से पैदा नहीं होती, बल्कि एक ही छत के नीचे रहते हुये अपनी जीवन अपने ढंग से जीने की स्वतंत्रता से पैदा होती है तथा पति-पत्नी एक दूसरे के लिए नहीं, अपनी जिंदगी अपने लिये जीते हैं। विवाह जैसे उनके लिये एक समझौता है। दांपत्य संबंधों में ऊब आ रही है।
उषा प्रियंवदा ने देशी और विदेशी परिवेषों में स्त्री पुरुषों के संबंधों को उजागर किया है। आज की नारी में स्वतंत्रता के उपरांत जो परिवर्तन आये हैं। वह भी इसके साहित्य में देखने को मिला है तथा साथ ही पति – पत्नी के संबंधों का स्वरूप क्या है। स्वतंत्रता के बाद की बदलते परिवेश में पत्नी का परस्परागत स्वरूप बदलता दिखा है पत्नी के जीवन में भी स्वच्छंद दृष्टिकोण आया है। यह सब परिवर्तन का कारण भारतीय और विदेशी संस्कृति के टकराव से अधिक देखने को मिला है।
निष्कर्ष
उषा प्रियंवदा के कथा साहित्य में सामाजिक यथार्थवाद और मनोविश्लेषणवाद विशेष रूप से दर्शनीय है स्त्री-पुरुष संबंध सबसे अधिक प्राकृतिक है दोनों एक गाड़ी के दो पहिए हैं इसलिए दोनों के साथ होने में गति रहती है। उषा प्रियंवदा ने स्त्री-पुरुषों के संबंधों को नैसर्गिक आवश्यकता के रूप में ग्रहण किया है तथा इन्होंने मानक के अंतरंग पक्षों को समझते हुए उनके अंदर की कुंठा, भय, यौन-आकांक्षा, आगे बढ़ने की चाह, पाश्चात्य सभ्यता के प्रति ललक इत्यादि को स्पष्ट रूप से अपनी रचनाओं में जीवंत रूप में अभिव्यक्त करने की कोशिश की है।
संदर्भ सूची-
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- ‘जिंदगी और गुलाब के फूल’, 2008, डॉ उषा प्रियंवदा , भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, दसवाँ संस्करण ।
- ‘कितना बड़ा झूठ’, 2008, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली , पहला संस्करण ।
- ‘रुकोगी नहीं राधिका’, 2019, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली ,पॉंचवाँ संस्करण ।
- ‘शेष यात्रा ’, 1994, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , प्राइवेट लिमिटेड, 8 नेताजी सुभाष मार्ग ,नई दिल्ली – 110002 पहला संस्करण ।
- ‘पचपन खंभे लाल दीवारें ’, 1962, डॉ उषा प्रियंवदा , राजकमल प्रकाशन , प्राइवेट लिमिटेड , 1- बी ,नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज , नई दिल्ली , 110002 पहला संस्करण ।
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