हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के १२४ वे उन्मुखी कार्यक्रम के सभी प्रतिभागियों के पीएच.डी. शोध प्रबंध में उल्लिखित परिकल्पनाएँ (Hypothesis), उद्देश्य (Objectives), एवं निष्कर्ष ( Findings) का स्वरुप : एक अवलोकन

डॉ. रमा प्रकाश नवले

डॉ. प्रेरणा पाण्डेय

डॉ. मंजु पुरी

प्रस्तावना एवं विषय चयन का महत्व

पिछले कई सालों से अध्ययन – अध्यापन करते समय तथा शोधार्थियों से शोध कार्य करवाते समय यह ध्यान में आया कि शोधार्थी अनुसंधान प्रविधि से परिचित नहीं होता| यदि अनुसंधान प्रविधि से परिचित होता है तो परिकल्पनाओं (Hypothesis) के बारे में वह जानता नहीं है| परिकल्पनाएँ अर्थात क्या? परिकल्पनाओं का स्वरूप क्या होता है? परिकल्पनाएँ किस तरह लिखी जाती हैं? इन परिकल्पनाओं का शोधकार्य में क्या महत्व है? – इन सारी बातों के प्रति शोधकर्ता अनभिज्ञ होता है | शोधकार्य का प्रारंभ वास्तव में मन में उठी किसी जिज्ञासा, किसी प्रश्न या कोई समस्या से होता है| जिज्ञासा ही शोधार्थी को शोधकार्य करने के लिए बाध्य करती है| प्रश्न का उत्त्तर पाने की ललक शोधार्थी को चलाती है और समस्या का समाधान ढूँढे बिना शोधार्थी को शान्ति नहीं मिलती| परंतु यह अनुभव है कि न तो शोधार्थी के मन में कोई जिज्ञासा होती है, और न ही उनके मन में कुछ प्रश्न होते हैं और ना ही किसी समस्या को लेकर शोधार्थी निर्देशक के पास आता है| यह स्थिति अक्सर दिखाई देती है अपवादात्मक रूप में ही कोई शोधार्थी, वास्तविक शोधार्थी के रूप में दिखाई देता है| अनुसंधान में विषय चयन का बहुत महत्व होता है| यह एक लंबी प्रक्रिया भी है| शोधार्थी पहले कुछ पढ़े, उस विषय में उसकी रूचि बढे तब कही वह उस विषय पर शोध के बारे में सोच सकता है| शोधार्थी की किसी विषय के बारे में सोचने की प्रक्रिया शुरू होना शोध की पहली सीढ़ी है| पंजीकरण के पूर्व की यह प्रक्रिया लंबे समय तक चलती है | सोचने की प्रक्रिया के कारण ही अनुसंधानकर्ता अपनी रूचि के क्षेत्र का चयन कर सकता है| अनुसंधान कर्ता को अपनी रूचि के क्षेत्र में अध्ययन करने की स्थिति इस प्रक्रिया से ही निर्माण हो सकती है और इसी प्रक्रिया के कारण उपर्युक्त प्रश्न उसके मन में निर्मित होते हैं| परन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है| शोधार्थी तो सीधे शोधनिर्देशक के पास पहुंचता है और शोधनिर्देशक से ही यह कहता है कि – “कोई आसान विषय आप ही दीजिए; ताकि शोधकार्य जल्दी से जल्दी पूरा हो जाए|” शोधनिर्देशक को भी अपने शोधार्थियों की संख्या बढ़ानी होती है | वह उसे विषय दे देता है और काम शुरू हो जाता है| शोधकार्य का प्रारंभ ही उचित पद्धति से न होने के कारण न वह परिकल्पनाएँ लिख पाता है और न वह जो कार्य करने जा रहा है उसका उद्देश्य क्या है इस बात का उसे पता चलता है| अनुसंधान में परिकल्पनाएँ उसके दिमाग में नहीं है, शोधकार्य के उद्देश्यों का भी पता नहीं है तब उसके कार्य में भटकाव आ जाता है| दिशा के अभाव में बार – बार शोध कार्य छोड़ देने की इच्छा बलवती होती है| कभी – कभी वह अनुसंधान कार्य पूरा कर नहीं पाता| शोधकार्य आनंद देने के बजाए नीरस और उबाऊ लगने लगता है| उपाधि पाना उसका लक्ष्य है| इसलिए जैसे तैसे वह काम पूरा कर लेता है| ऐसी स्थिति में शोध कार्य के निष्कर्ष स्पष्ट रूप में कैसे आ सकते है? निष्कर्ष भी वह लिख नहीं पाता| शोधप्रबंध जांचने की विधि एक अलग शोध का विषय हो सकता है| इस प्रकार के शोधप्रबंध कचरे के ढेर का हिस्सा बन जाते हैं| विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रविधि सुनिश्चित कराने के बावजूद इस प्रविधि के प्रति गंभीरता से न देखने के कारण शोधकार्य में भारत पिछड़ रहा है; यह बात सर्वविदित है| अनुसंधान में दुनिया के १३० देशों में भारत का स्थान कभी भी १०० के अंदर नहीं आ पाया है| यह चिंताजनक स्थिति है| शोध में सुधार हमारी अनिवार्यता है| इस कार्य के प्रति शोधकर्ताओं को अधिक सतर्क, सक्रिय, परिश्रमी, बनाने की दृष्टि से तथा निश्चित दिशा में काम करने की दृष्टि से प्रयास जरुरी हैं| यही वह प्रश्न है जिसके उत्तर ढूँढने का एक छोटा सा प्रयास इस कार्य द्वारा किया जाना है|

शोधकार्य का अंतर अनुशासनीय दृष्टि से महत्व (Interdisciplinary Approuch)

अनुसंधान की एक निश्चित पद्धति है ; जिसे अनुसंधान प्रविधि कहा जाता है| इस प्रविधि के अनुसार ही शोध कार्य होना चाहिए| इस प्रविधि से, किसी भी संकाय के किसी भी विषय में शोध करनेवाले शोधकर्ता को परिचित होना जरुरी होता है| प्रो. यशपाल ने भारतीय ज्ञान आयोग द्वारा अंतर अनुशासनीय अध्ययन के महत्व को सबसे पहली बार प्रतिपादित किया| उसके बाद अंतर अनुशासनीय दृष्टि से किए जानेवाले अध्ययन का महत्व बढ़ गया| विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अंतर अनुशासनीय शोध पर बल देता है| लघु और बृहत प्रकल्प कार्य को स्वीकृति देते समय शोध विषय का अंतर अनुशासनीय दृष्टि से महत्व देखा जाता है| यह जो छोटा सा प्रकल्प कार्य किया जा रहा है इसका महत्व तो सभी ज्ञान शाखाओं की दृष्टि से है| अनुसंधान प्रविधि का अध्ययन किए बिना किसी भी विषय में शोध कार्य किया ही नहीं जा सकता| शिमला में आयोजित १२४ वे उन्मुखी कार्यक्रम में विभिन्न राज्यों के १६ विषयों के प्रतिभागी सम्मिलित है| इन सभी की दृष्टि से इस विषय का महत्व है| इनमें कुछ शोध निर्देशक हैं, कुछ विद्यावाचस्पति है, कुछेक को अभी विद्यावाचस्पति बनना है| सभी की दृष्टि से इस विषय का महत्व निर्विवाद है| यह शोध प्रकल्प अंतर अनुशासनीय शोध प्रकल्प है|

शोध विषय का राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से महत्व

ऊपर बताया जा चुका है अनुसंधान के क्षेत्र में भारत बहुत पिछड़ रहा है| विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विद्यावाचस्पति उपाधि के लिए पंजीकृत शोधार्थियों के लिए एक पाठ्यक्रम (Ph.D. Course – Work) अनिवार्य किया है| इस पाठ्यक्रम में चार प्रश्नपत्रों में पहला प्रश्नपत्र अनुसन्धान प्रविधि का भी है| हमारे यहाँ बहुत अच्छी –अच्छी योजनाएँ बनती है ; परंतु अमल में लाते समय उसका मूल रूप बच नहीं पाता, यह वास्तविकता सर्वविदित है| किसी भी योजना का प्रत्याभरण (Feed –Back) लेने की पद्धति का अभाव यहाँ है| यदि अनुसंधान प्रविधि का गंभीरता से पालन होता तो हम अनुसन्धान के क्षेत्र में अव्वल न सही, पहले २५ में तो होते| यह प्रश्न अनुसंधानकर्ता को भी छलता है| यह अनुमान जरुर लगाया जा सकता है कि कही कोई सुराख जरुर हो सकता है; जिसके कारण अनुसंधान प्रविधि का गंभीरता से अध्ययन नहीं हो रहा है| इस सुराख को ढूँढ़ने का प्रयास ; यह शोध कार्य है| इस पाठ्यक्रम की व्यावहारिकता का स्वरूप क्या है? जमीनी स्तर पर यह प्रविधि पहुँच चुकी है क्या ; इसे पहचानना राष्ट्रीय कार्य है और इसमें सुधार के लिए बूँद भर किया गया प्रयास भी अंतर्राष्ट्रीय महत्व की ओर संकेत करता है|

पुनरावलोकन (View of Research and Development in the Subject)

शोध प्रविधि पर अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में दर्जनों किताबें लिखी गयी हैं| परंतु इस प्रविधि का व्यावहारिक स्तर पर कितना पालन होता है इस विषय पर हमारी जानकारी में कोई शोध कार्य नहीं हुआ है| शोध-गंगा पर भी इस विषय के बारे में जानकारी लेने का प्रयास किया गया ; परन्तु इस पद्धति का एवं इस प्रकार के विषय पर अभी तक कोई शोध कार्य नहीं हुआ है| इस विषय की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि नमूने के तौर पर विविध भू – भागों से संबंधित तथा विभिन्न विषयों से संबंधित शोध निर्देशकों, विद्यावाचास्पतियों, शोधार्थियों के प्राध्यापकों का ३१ लोगों का समूह मिलना दुर्लभ बात है| इस प्रकार के नमूने का चयन कर शोध कार्य नहीं किया गया है, ऐसा हमारा मानना है|

शिमला में आयोजित १२४वे उन्मुखी कार्यक्रम के अंतर्गत प्रतिभागियों को एक परियोजना (Project) का कार्य पूरा करना होता है| यह कार्य सामूहिक शोध को बढ़ावा देनेवाला कार्य है| सामुहिक अनुसंधान में प्रवृत्त कराना भी समय का तकाज़ा है, जरुरत है| अत: सामूहिक रूप से यह सोचा गया कि क्यों न यू.जी.सी. – एच.आर.डी. सी. शिमला द्वारा आयोजित १२४ वे उन्मुखी कार्यक्रम में सम्मिलित ३१ प्रतिभागियों के इस छोटे से समूह को नमूने के तौर पर चयन कर अध्ययन किया जाएँ? यह एक सुअवसर है ; क्योंकि प्रतिभागियों का यह समूह देश के विभिन्न भू – भागों से जुड़ा है तथा विभिन्न विषयों से संबधित है| ये प्रतिभागी अनुसंधान प्रविधि से परिचित हैं क्या? इन प्रतिभागियों ने अपने शोधकार्य में अनुसंधान प्रविधि का पालन किया है क्या? परिकल्पनाएँ (Hypothesis), शोधकार्य का उद्देश्य (Objectives) और शोधकार्य के निष्कर्ष (Findings) के बारे में वे जानते हैं क्या? अपने शोध प्रबंध में उन्होंने परिकल्पनाएँ (Hypothesis), शोधकार्य का उद्देश्य (Objectives) और शोधकार्य के निष्कर्ष (Findings) स्पष्ट रूप से दिए हैं क्या? आदि बातें जानने की दृष्टि से यह समूह इस कार्य में प्रवृत्त हुआ है|

परियोजना की परिकल्पनाएँ (Hypothesis)

  1. अधिकतर शोधार्थी अनुसंधान प्राविधि से परिचित नहीं होते हैं |
  2. अनुसंधान प्राविधि से परिचित होने के बावजूद परिकल्पनाएँ स्पष्ट रूप से लिख नहीं पाते हैं| साहित्य के क्षेत्र में कार्यरत शोधार्थियों में यह स्थिति और भी चिंताजनक है|
  3. शोधकार्य किसलिए किया जा रहा है इसका स्पष्ट चित्र शोधार्थी के दिमाग में नहीं होता| भिन्न संकायों के शोधार्थियों में यह स्थिति अलग-अलग हो सकती है|
  4. शोधकार्य के अंत में शोधार्थी बहुत स्पष्ट रूप में निष्कर्ष नहीं दे पाता| भिन्न संकायों के शोधार्थियों में यह स्थिति भी अलग-अलग हो सकती है| विज्ञान और वाणीज्य में निष्कर्ष स्पष्ट रूप से आने का औसत अधिक है| कला संकाय के शोधार्थियों में और विशेष कर साहित्य के क्षेत्र के शोधार्थी निष्कर्ष दे नहीं पाते|

परियोजना के उद्देश्य (Objectives)

  1. एच.आर.डी.सी. शिमला द्वारा आयोजित १२४ वे उन्मुखी कार्यक्रम में सम्मिलित प्रतिभागियों के शोधकार्य का अवलोकन करते हुए अनुसंधान प्रविधि का पालन करनेवाले शोधार्थियों का औसत जानना | यह औसत भिन्न – भिन्न संकायों के अनुसार भिन्न है क्या – इसे पहचानना|
  2. शोधकार्य की परिकल्पनाएँ (Hypothesis), शोधकार्य के उद्देश्य (Objectives) तथा शोधकार्य के निष्कर्ष स्पष्ट रूप में उल्लिखित करनेवालों का औसत भिन्न – भिन्न संकायों के अनुसार जानना |
  3. प्राप्त औसत के अनुसार सुधार के उपायों पर भिन्न-भिन्न संकाय के अनुसार उपायों पर विचार करना
  4. पीएच. डी. उपाधि प्राप्त करने हेतु कार्यरत शोधार्थियों को अनुसंधान प्रविधि के प्रति सचेत करना|
  5. शोधकार्य की परिकल्पनाएँ (Hypothesis), शोधकार्य के उद्देश्य (Objectives) तथा शोधकार्य के निष्कर्ष के स्वरुप की समझ बढ़ाना तथा अपने शोधकार्य में स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख करने के प्रति शोधार्थियों को सतर्क करना|

उन्मुखी कार्यक्रम की २८ दिनों की समय सीमा में रोज के नियमित कामकाज के अलावा अनेकों कार्यों की व्यस्तता (कार्यालयीन कामकाज से विरत होने के बाद घर में किए जानेवाले काम) के साथ एक परियोजना का कार्य पूरा करना अपने आप में बहुत बड़ी कसरत है| बड़ी मुश्किल से ८-१० दिन का, रोज औसत डेढ़ या दो घंटे का समय मिलना भी कठिन रहा है| समय की सीमा का ध्यान रखकर यह कार्य करना काफी चुनौतीपूर्ण रहा है| इस समूह ने सबसे पहले चर्चा कर विषय निश्चित किया| शोधकार्य की निश्चित रूप – रेखा बनने के बाद एक प्रश्नावली तैयार की गयी| यह प्रश्नावली सभी प्रतिभागियों में वितरित की गयी| सभी प्रतिभागियों से यह विनम्र निवेदन किया गया कि अधिक से अधिक दो दिन में यह प्रश्नावली भरकर वापिस दी जाए| प्राप्त जानकारी की गोपनीयता के प्रति प्रतिभागियों को आश्वस्त किया गया तथा संचालक एवं समन्वयक से भी इस विषय पर चर्चा की गयी| बावजूद प्रश्नावली भरकर आने में पांच से छह दिन का समय लगा| कुछ लोगों ने प्रश्नावली भरकर दी, कुछ विद्यावाचस्पति नहीं थे तो कुछ ने प्रश्नावली वापिस नहीं की| इस जानकारी को निम्न ग्राफ के माध्यमसे जाना जा सकता है –

आगे ग्राफ दिया जा रहा है – ग्राफ क्रमांक

  1. कुल प्रतिभागियों की संख्या
  2. प्रश्नावली भरकर देनेवालों की संख्या का ग्राफ

ग्राफ क्रमांक १. में कुल प्रतिभागियों की संख्या, जो विद्यावाचस्पति हैं उनकी संख्या तथा जो विद्यावाचस्पति नहीं हैं उनकी संख्या दर्शायी गयी हैं| यू.जी.सी. – एच. आर. डी. सी. समर हिल शिमला द्वारा आयोजित १२४ वे उन्मुखी कार्यक्रम में कुल ३१ प्राध्यापक सदस्य हैं| ये ३१ प्राध्यापक ११ राज्यों से संबंधित हैं पर ९ राज्यों में कार्यरत हैं | यह ९ राज्य इसप्रकार हैं – हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, आसाम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल| १६ विषयों से संबधित ये प्राध्यापक विज्ञान, वाणिज्य, कला, इंजीनियरिंग, पेंटिंग, संगीत, योगा, कंप्यूटर सायंस, फ़ूड टेक्नोलॉजी आदि संकायों से संबधित हैं| अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हमने इन्हें चार वर्गों में बाँटा है –

  1. कला विभाग
  2. वाणिज्य विभाग
  3. विज्ञान विभाग
  4. अन्य कलाएँ (Performing Art)

ग्राफ क्रमांक १. आगे दिखाया जा रहा है

उपर्युक्त ग्राफ क्र. २ में प्रश्नावली भरकर देनेवालों की संख्या दी गयी हैं| कुल ३१ प्रतिभागियों के ३१ फॉर्म वितरित किए गए| उनमें से २३ प्रतिभागियों ने फॉर्म भककर वापिस कर दिए| २३ में ०२ विद्यावाचस्पति नहीं हैं| शेष ०८ प्रतिभागियों में जिन्होंने फॉर्म वापिस नहीं किया उनमें ०४ विद्यावाचस्पति हैं तो ०४ विद्यावाचस्पति नहीं है| ३१ में से कुल २१ प्रतिभागियों की प्रश्नावली के आधारपर जो अवलोकन किया गया इसे निम्न रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है –

शोधकार्यों में उल्लिखित परिकल्पनाएँ (Hypothesis) : अवलोकन

परिकल्पना अर्थात शोध कार्य शुरू करने से पहले किए गए पूर्वानुमान है| ये पूर्वानुमान शोधकार्य के लिए निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं| ये अनुमान हैं, सिद्ध हो भी सकते हैं या नहीं भी| यह एक विचार है जो स्वानुभव या परानुभव से भी होता है| शोधकार्य आरंभ करने के पूर्व परिकल्पना का निर्माण आवश्यक है या नहीं, इस पर मतभेद हैं इस मत को प्रतिपादित करते हुए डॉ विनयमोहन शर्मा लिखते हैं – “एक मत के अनुसार परिकल्पना तभी निर्मित की जा सकती है जब विषय का शोधकार्य काफी आगे बढ़ जाता है| क्योंकि शोधकार्य के पूर्व परिकल्पना की स्पष्ट कल्पना नहीं हो सकती| ———- — – – दूसरा मत – जो परिकल्पना को शोधकार्य के पूर्व आवश्यक मानते हैं| ये दोनों मत विषय के प्रकार को देखकर मान्य या अमान्य किए जा सकते हैं| परिकल्पना की व्याख्या करते हुए डॉ. तिलकसिंह लिखते हैं – “शोधकार्य में परिकल्पना या प्राक्कथन का शाब्दिक अर्थ है पूर्व का कथन अर्थात पहले कहना| शोध कार्य में प्राक्कथन का अर्थ है शोध क्षेत्र में प्रवेश की प्रेरणा, विषय विशेष के प्रति संस्कार, शोधकार्य की प्रक्रिया आदि का उल्लेख|

प्रश्नावली में कई प्रतिभागियों ने परिकल्पना की व्याख्या निम्न रूप से की है –

  • परिकल्पना का अर्थ है समस्या के उत्तर के रूप में प्रस्तावित अनुमानों को ही परिकल्पना कहा जाता है| – योगा प्राध्यापक 3
  • परिकल्पना से अभिप्राय है कि जो कार्य हम अपने शोध में करना चाहते हैं उसकी एक रूपरेखा तैयार कर चलना कि मेरे इस शोधकार्य के पश्चात ये परिणाम निकलने चाहिए | – हिंदी प्राध्यापक 4
  • It is a tentative and formal prediction about the relationship between two or more variables in the population being studied, and the hypothesis translates the research question in to a prediction of expected outcomes. So hypothesis is a statement about the relationship between two or more variables that we set out to prove or disprove in our research. Study. – Music Prof 5

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधारपर स्पष्ट होता है कि परिकल्पना शोधकार्य शुरू करने के पूर्व किया गया अनुमान या विचार है जो शोध के दौरान सिद्ध हो भी सकता है नहीं भी| एक परिकल्पना से दूसरी परिकल्पना जन्म लेती है| आज से ३० – ४० साल पहले परिकल्पना की अनिवार्यता के बारे में मतभेद था| आज अनुसंधान प्रविधि में इसे अधिक महत्व दिया जा रहा है| यह शोधकार्य की दिशा निश्चित करनेवाला सोपान है|

कुल २१ प्रश्नावलियों में से १७ शोधार्थियों ने अपने शोधप्रबंध में परिकल्पनाएँ दी हैं| ०४ शोधार्थियों ने परिकल्पनाओं का उल्लेख नहीं किया हैं| अर्थात १९.०४ % शोधार्थी परिकल्पना का अर्थ एवं स्वरूप नहीं जानते| एक दूसरा कारण परिकल्पनाएँ शोध विषय पर निर्भर होती है ऐसा कुछ विद्वानों का मानना है| इसलिए शोध विषय के अनुसार परिकल्पनाएँ कभी आवश्यक होती है तो कभी आवश्यक हो भी नहीं सकती| कुछेक शोधार्थियों की परिकल्पनाएँ अस्पष्ट हैं| कुछ शोधार्थी केवल उदेश्यों के आधारपर निष्कर्ष लिख रहे हैं|

विभिन्न शाखाओं के शोधार्थियों ने निम्न रूप में परिकल्पनाएँ दी हैं –

  • कुल शोधार्थी २१ में कला संकाय के ०७ शोधार्थी हैं | ०७ शोधार्थियों में से ०६ ने परिकल्पनाएँ दी हैं| ०१ शोधार्थी ने परिकल्पनाएँ दी नहीं है| कला संकाय में परिकल्पानाओं का उल्लेख न करनेवाले शोधार्थियों का औसत १४.२८% है|
  • कुल शोधार्थी २१ में से वाणीज्य संकाय के शोधार्थी ०३ हैं | ०३ शोधार्थियों में से ०२ ने परिकल्पनाएँ दी हैं| ०१ शोधार्थी ने परिकल्पनाएँ दी नहीं है| वाणीज्य संकाय में परिकल्पानाओं का उल्लेख न करनेवाले शोधार्थियों का औसत ३३.३३ % है|
  • कुल शोधार्थी २१ में से विज्ञान संकाय के शोधार्थी ०९ हैं | ०९ शोधार्थियों में से ०८ ने परिकल्पनाएँ दी हैं| ०१ शोधार्थी ने परिकल्पनाएँ दी नहीं है| विज्ञान संकाय में परिकल्पानाओं का उल्लेख न करनेवाले शोधार्थियों का औसत ११.११ % है|
  • कुल शोधार्थी २१ में से परफोर्मिंग आर्ट्स के शोधार्थी ०२ हैं | ०२ शोधार्थियों में से ०१ ने परिकल्पनाएँ दी हैं| ०१ शोधार्थी ने परिकल्पनाएँ दी नहीं है| परफोर्मिंग आर्ट्स में परिकल्पानाओं का उल्लेख न करनेवाले शोधार्थियों का औसत ५०.०० % है|

परिकल्पनाओं का उल्लेख न करनेवाले शोधार्थियों का औसत निम्न रूप से देखा जा सकता है- कला संकाय – १४.२८ %

वाणीज्य संकाय – ३३.३३ %

विज्ञान संकाय -११.११ %

परफोर्मिंग आर्ट्स – ५० %

इसे ग्राफ क्रमांक ३ द्वारा अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है|

उपाय :

  1. अनुसंधान प्रविधि में परिकल्पना का स्वरूप अधिक प्रभावपूर्ण पद्धति से समझाया जाए|
  2. शोध निर्देशक अपने शोधार्थियों को परिकल्पनाएँ लिखने के लिए निर्देशित करे|
  3. शोधार्थी की परिकल्पनाएँ निश्चित हुए बिना उसे शोधकार्य में आगे ना बढाएं | ताकि शोधार्थी की शोध के प्रति गंभीरता बढ़ेगी एवं रुचिकर विषय की ओर वह प्रवृत्त होगा|

उद्देश्य एवं निष्कर्ष : एक अवलोकन

शोध कार्य निश्चित उद्देश्य से किया जाता है| विज्ञान के क्षेत्र में नया आविष्कार या किसी समस्या का समाधान करना शोध है| | जैसे इसी उन्मुखी कार्यक्रम के अंतर्गत विविध होटलों में जो खाना परोसा जा रहा है उसके नमूने संग्रहित कर इस अन्न में कितनी मात्रा में जीवाणु है तथा यह अन्न मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं क्या ? इसका परीक्षण कर निष्कर्ष प्रस्तुत किए जा रहे हैं| यहाँ अन्न का परीक्षण कर मनुष्य स्वास्थ्य को बचाना शोध का उदेश्य है| वाणिज्य के क्षेत्र में भी इसी प्रकार किसी नए तथ्य की ओर अनुसंधानकर्ता संकेत करता है| साहित्य भले ही नया आविष्कार न करता हो पर साहित्य अध्ययन का नया आयाम, नई दृष्टि, नया विचार वह जरुर प्रस्तुत करता है| शोध कर्ता पहले से ही निश्चित लक्ष्य लेकर चलता है| अनुसंधान राष्ट्रीय कार्यों में उपयोगी होता है, देश की योजनाओं को दिशा देता है तथा समाज की पुनर्रचना करने में सहायक होता है|

उपर्युक्त उन्मुखी कार्यक्राम में सम्मिलित करीब करीब सभी प्रतिभागियों ने अपने शोध के उदेश्य स्पष्ट रूप से दिए हैं तथा निष्कर्ष भी प्रस्तुत किए हैं| इन शोध कार्यों के विषय जल, अन्न, जैव विविधता, नैनो पार्टिकल , ड्रग्स, इन्डियन स्टॉक मार्केट, निजीकरण, आर्थिक विकास, विशिष्ट भूभाग का भौगोलिक, अध्ययन, केमेस्ट्री के कई विषय, साहित्य में स्त्री, दलित, संगीत में वादन शैलियाँ, आधुनिकता बोध, युगबोध, संगीत का प्रभाव, वाद्य एवं राष्ट्रीयता, पुराण एवं गीता में आचरणीय मूल्य आदि हैं| जैसे एक प्रतिभागी का लक्ष्य कावेरी के जल की शुद्धता-अशुद्धता का अध्ययन करना है| अध्ययनोपरांत उन्होंने पाया कि कावेरी के जल में अशुद्धियाँ हैं| एक प्रतिभागी ने खमिर जनित अन्न का परीक्षण कर यह सिद्ध किया कि खमीर करके पकाया गया खाद्य स्वास्थ्य के लिए अच्छा और सुपाच्य है| एक प्रतिभागी ने उतरांचल राज्य के गठन के पूर्व तथा बाद की स्थितियों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष रूप में पाया की उत्तरांचल राज्य के गठन के बाद राज्य एवं मंडल के आर्थिक विकास में गति आयी है| साहित्य के क्षेत्र की अध्ययन कर्ता ने लेखक की आधुनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि किस तरह मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा में सहायक है इसे स्पष्ट किया| विश्व की आधी आबादी स्त्री की नई छवि प्रस्तुत कर लेखक किस तरह महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया को मजबूत बना रहा है ; इसकी ओर संकेत किया| तो कुछेक शोधार्थियों ने समाज में उपेक्षित तबका दलित की व्यथा कथा के माध्यमसे लेखक किस तरह इनकी स्थिति में बदलाव चाहता है इसकी ओर संकेत किया है| योगा के क्षेत्र में शोध कार्य कर गीता एवं भागवतपुराण के आचरणीय तत्वों की खोज कर मूल्य शिक्षा की राष्ट्रीय नीति में सहायता की है| कलाएँ संस्कृति की संरक्षक होती हैं| संस्कृति को बचाना है तो कला को बचाना जरुरी है यह निष्कर्ष देते हुए एक प्रतिभागी ने कलाकार (वादक) के प्रति सम्मान की भावना विकसित करने की दृष्टि से प्रयास किया है| महाविद्यालय के छात्रों पर संगीत के प्रभाव का अध्ययन कर एक प्रतिभागी ने संगीत के प्रभाव के करण छात्रों में आये परिवर्तनों को रेखांकित किया है|

उपर्युक्त विविध संकायों के विविध विषयों के शोध कार्य का अवलोकन करने के बाद निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि इन शोधकार्यों के उद्देश्य निश्चित ही राष्ट्रीय नीति में सहायक हो सकते हैं| तुलनात्मक शोध कार्य भी हो रहे हैं ; पर इस कार्य में अधिक स्पष्टता आना आवश्यक है| तुलनात्मक शोध कार्य की निश्चित दिशा अभी स्पष्ट होना आवश्यक है| तुलनात्मक शोध कार्य राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देनेवाले होते हैं| वर्तमान समय अंतर अनुशासनीय ज्ञान शाखाओं का समय है| इन २३ शोधकार्यों में इसका अभाव दिखाई दिया है| साहित्य पर अनुसंधान हो रहे हैं परंतु भाषाओं का अध्ययन नहीं हो पा रहा| भाषावैज्ञानिक शोधकार्यों की कमी भी खलती है| इस परियोजना के शोधकर्ताओं का संबध साहित्य से होने के कारण अन्य संकायों में किस तरह के शोध कार्य होना अपेक्षित है यह बताने में शोधकर्ता असमर्थ हैं | यह इस शोधकार्य की सीमा भी है| इस परियोजना का लक्ष्य बहुत सीमित है| शोधकर्ताओं ने अपने शोधकार्य में परिकल्पनाएँ लिखी है या नहीं और उद्देश्य एवं निष्कर्ष स्पष्ट रूप से दिए गए हैं या नहीं ; केवल इसी का अध्ययन करना है|

निष्कर्ष :

यह परियोजना यू.जी.सी. – एच. आर. डी. सी शिमला द्वारा आयोजित १२४ वे उन्मुखी कार्यक्रम में सम्मिलित प्रतिभागियों के शोधकार्य में परिकल्पनाएँ, उद्देश्य, निष्कर्ष स्पष्ट रूप में दिए जा रहे हैं क्या यह देखने से संबधित है| अनुसंधान प्रविधि से संबंधित तथा अंतर अनुशासनीय यह शोध बहुत कम समय में पूरा किया गया है| शोध विषय बहुत सीमित है| जिस समूह का अध्ययन करना है वह केवल ३१ लोगों का समूह है | परंतु इस छोटे से समूह की सबसे अधिक सशक्त बात यह है कि यह समूह करीब – करीब भारत के व्यापक हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है| ११ राज्यों से जुड़े प्रतिभागी, ९ राज्यों में कार्यरत हैं और १६ विषयों से संबंधित हैं ; यह इस छोटे से समूह की विशेषता है| यह एक दुर्लभ योग है|

शोधकार्य के प्रारंभ में यह अनुमान लगाया गया था कि शोधकर्ता परिकल्पना के स्वरूप को नहीं समझता और न वह अपने शोध प्रबंध में स्पष्ट रूप से परिकल्पनाएँ दे पाता है| प्रश्नावली के आधारपर यह कहा जा सकता है कि यह बात १९.०४ प्रतिशत सच है| यह औसत भी कम नहीं है| अत: यह औसत कम करने की दृष्टि से प्रयास करने होंगे | विभिन्न ज्ञान शाखाओं में इसका औसत कम अधिक है| परफोर्मिंग आर्ट्स में यह बात ५० % सच है तो सबसे कम औसत अर्थात केवल ११.११ % विज्ञान शाखा का है| यह भी अनुमान था कि कला संकाय के लोग परिकल्पनाएँ लिख नहीं पाते| न जाननेवालों में इसी शाखा के लोगों का औसत अधिक होगा| पर शोध कार्य के अंत में यह पता चला कि ८५.७२ % लोग इस प्रविधि से परिचित हैं| साथ ही यह कहना आवश्यक है कि शोधकार्य के उद्देश्य से ये शोधकर्ता भली-भाँती परिचित हैं तथा निष्कर्ष भी स्पष्ट रूप से लिख रहे हैं| अनुसंधान कर्ता को शोध के नए – नए विषयों की ओर बढना चाहिए| खासकर इन सभी शोध प्रबंधों में एक भी प्रबंध अंतर अनुशासनीय नहीं है| वर्तमान समय में अंतर अनुशासनीय शोधकार्यों की ओर बढना अनुसंधान कर्ता का दायित्व है| शोधनिर्देशक को इस प्रकार के शोध कार्यों की पहल करनी चाहिए|

सन्दर्भ ग्रंथ सूची

  1. शोध प्रविधि – डॉ. विनयमोहन शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस , नयी दिल्ली ११०००२, संस्करण १९८० – पृ. ३५.
  2. नवीन शोध विज्ञानं – डॉ. तिलक सिंह, प्रकाशन संस्थान, वसू -२२ नवीन शहादरा, दिल्ली – ११००३२, प्रथम संस्करण १९८२ – पृ. संख्या १५५
  3. प्रश्नावली
  4. प्रश्नावली
  5. प्रश्नावली

संलग्न – ग्राफ

शोध कर्ता

डॉ. रमा प्रकाश नवले

डॉ. प्रेरणा पाण्डेय

डॉ. मंजु पुरी