शेरनी – एक अच्छी फिल्म और कई सवाल
समीक्षा: माधव कृष्ण
अमेज़न प्राइम विडियो पर विद्या बालन अभिनीत शेरनी देखने के बाद अनेक विचार मन में उठे. यह फिल्म डी एफ ओ के पद पर तैनात कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारी विद्या विन्सेंट के विषय में है जो वन विभाग के अपने वरिष्ठ अधिकारियों, स्थानीय नेताओं की राजनीति और पारिवारिक समस्याओं से जूझती हुई, अपने दायित्व का निर्वहन करने का प्रयास करती है. वह एक शेरनी को जीवित पकड़ने का प्रयास करती है ताकि उस शेरनी के दो नवजात बच्चे अनाथ न रह जाएँ. विभागीय राजनीति में फंसकर वह शेरनी को तो नहीं बचा पाती, लेकिन उसके दो नवजात बच्चो को शिकारियों से बचाकर वह उन्हें सही हाथों में सौंप देती है.
विद्या विन्सेंट की कथा सामान्य गृहिणी की कथा है. उसका सीनियर अपने तलाक के विषय में उससे कहता है, “हर कोई एक वन अधिकारी के जीवन को नहीं समझ सकता है.” लेकिन उससे भी एक चरण पहले, हर कोई एक कामकाजी महिला के जीवन को नहीं समझ सकता है. कार्यस्थल के तमाम तनावों के साथ घर को संभालने की जिम्मेदारी. पुरुषों के लिए एक महिला को अपने अधिकारी या सहकर्मी के रूप में स्वीकार करना भी कठिन है. समाज आज भी नौकरी करने वाली महिलाओं को स्वीकार नहीं कर पाया है. पारिवारिक तनावों और घरेलू दबावों के साथ कार्यस्थल जाते हुए और वहाँ रहते हुए घूरती निगाहों और ऐंठती जबानों को उपेक्षित कर पाना आसान नहीं है.
यह फिल्म एक और महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है – संगठन या सामूहिकता में कार्य करते समय वैयक्तिकता को बरकरार रखने का प्रश्न. एक तरफ जहां अधिकारी से लेकर नेता तक शेरनी को प्राइवेट शिकारी के हाथों मरवाकर जन-भावनाओं के साथ खेलने का प्रयास करते हैं, वहीं विद्या विन्सेंट प्रोटोकॉल के अनुरूप वैज्ञानिक तरीके से कार्य करने का प्रयास करती हैं. कई बार मजबूत तर्क देने के बावजूद उनके अधिकारी और मंत्री उनकी बात नहीं सुनते. लेकिन सामूहिकता और टीम वर्क के नाम पर विद्या विन्सेंट चुप रह जाती हैं. चुप रहना संगठन में होने की अनिवार्य शर्त है और मुखर होना संगठन से बाहर होने का रास्ता. कब वैयक्तिक रहना है और कब संगठन का, यह प्राथमिकता मनुष्य को स्वयं तय करनी पड़ती है. इसका कोई ब्लैक एंड वाइट उत्तर नहीं है. कांग्रेस समाजवादी दल ने कांग्रेस के भीतर रहते हुए समाजवादी सिधान्तों के अनुरूप स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ी, जिससे राष्ट्रीय आन्दोलन कमजोर न पड़े. जेपी और आचार्य नरेंद्र देव जैसे प्रतिभावान लोगों ने कांग्रेस को मजबूत किया. सुभाष बाबू ने भी कोई विकल्प न रहने पर कांग्रेस को तोड़ने के बजाय फॉरवर्ड ब्लोक नामक नया दल बनाया ताकि वैयक्तिक विरोध से महत्तर लक्ष्य बाधित न हों. लेकिन १९४८ में समय आने पर और नेहरू जी की कांग्रेस को समाजवाद से दूर जाता देखकर आचार्य नरेंद्र देव ने ११ विधायकों के साथ कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा देकर समाजवादी सिद्धांतों के अनुरूप नयी पार्टी बनाई. जब मैं पीएच डी कर रहे शोधार्थियों में या इस प्रक्रिया से नियुक्त प्रवक्ताओं में ऐसे लोगों के अनुचित कार्यों या वक्तव्यों के विरुद्ध मुखर होने से डरता हुआ देखता हूँ जो उनके करियर में सहायक हो सकते हैं, तो वैयक्तिकता को सुविधानुकूल सहमति के आगे समाप्त होते देखकर कष्ट होता है. संस्थाबद्धता ने इस वैयक्तिकता का बड़ा बेड़ागर्क किया है, और इस कारण इस देश का भी.
इस फिल्म का अंत भी प्रेरणादायक है, विद्या विन्सेंट परिस्थितियों से दुखी होकर इस्तीफा देना चाहती हैं लेकिन अंत में वह अपना इरादा बदल देती हैं. हम किसी जगह को छोड़कर उसे खराब लोगों के लिए आसान बना देते हैं इसलिए छोड़ना हमारा विकल्प नहीं होना चाहिए. अंत में उनका स्थानान्तरण हो जाता है, और वह वहां भी जाते जाते सही कार्य करने में लग जाती हैं. कर्म से कर्त्ता की पहचान नहीं होती. एक तालाब और धर्मशाला बनवाने वाला भी गैंगस्टर हो सकता है. लेकिन कर्त्ता यदि भला है तो उसके सभी कर्म भले होंगे. इसलिए शिक्षा का उद्देश्य ऐसे भले मनुष्यों की फ़ौज तैयार करना होना चाहिए. वे जहां भी रहेंगे, अच्छे कार्यों से समाज को और मानवता को आलोकित करते रहेंगे.
इस फिल्म में एक छोटा लेकिन मजबूत चरित्र प्रोफेसर नूरानी का है जो अपने काम को लेकर पैशनेट और प्रतिबद्ध हैं. एक बार उनका प्राचार्य उनसे अखबार दिखाकर कहता है कि शेरनी को पकड़ने वाली टीमों के बारे में निकला है और उसमें तुम्हारा नाम तक नहीं है, तो प्रोफेसर नूरानी कहते हैं कि, मजा तो काम में है, नाम में क्या रखा है? और इसके बाद वह काम पर निकल जाते हैं जंगलों में. यह आज की मानसिकता को दर्शाता है. मैंने कई साहित्यिक गोष्ठियों में शिरकत की है, जहां साहित्यकारों को संवाद से विषय को प्रस्तुत करने और कुछ नए निष्कर्ष निकालने से अधिक जल्दी अखबार में फोटो सहित छपने की होती है. कई साहित्यकारों ने बाकायदे अपने अपने तरीकों से जातियों के नाम पर या अन्य तरीकों से पत्रकारों से सम्बन्ध बनाये हैं ताकि समय समय पर वह अखबारों की कतरनों में दिख सकें. कई स्थानों पर तो गोष्ठी शुरू होने के पहले ही समाचार बन जाते हैं और वह अखबारों तक पहुंचा दिया जाता है. कई स्थानों पर मैंने साहित्यकारों को केवल खड़े होकर हाव-भाव देकर फोटो खिंचवाते हुए देखा, जिससे अखबार पढने वाले को लगे कि वास्तव में यह बोल रहे हैं और सभी लोग सुन रहे हैं.शुरू में मुझे थोड़ी जिज्ञासा थी कि अखबारों में खबरें कैसे पहुंचाई जाएँ, लेकिन यह सब देखने के बाद विरक्ति हो गयी. मेरा मानना है कि काम बोलना चाहिए, भले इसमें समय लगे. यदि काम को पैसे देकर पुरस्कृत करवाया जाए या किसी तरह से अखबारों में निकलवाया जय, तो वास्तव में वह काम बताने लायक नहीं है. मीडिया का युग है लेकिन मीडिया हमारे व्यक्तित्व का हनन न करे और हमें फेक या नकली न बनाए, इसकी आवश्यकता है.
अपने काम के प्रति पैशनेट और प्रतिबद्ध होने की आवश्यकता है तभी अच्छा काम हो सकता है. बयेपुर देवकली के गंगा आश्रम में मैंने प्रतिदिन भूखों को खाना खाते देखा है, किसी किसी अवसर पर तो ५००० लोग भी खाना खाते हैं, लेकिन गंगा आश्रम ने कभी इसका प्रचार नहीं किया. गांवों में लगने वाली मानव धर्म की शाखाओं में कठिन मुकदमों का निपटारा स्थानीय लोगों की मदद से कर दिया जाता है, लेकिन इसके लिए आश्रम ने कभी अखबारों का प्रयोग नहीं किया. यह अनुकरणीय है.
अखबारों के पास अपने संवाददाता होते हैं जो शिक्षित हैं. उन्हें पत्रकारिता के कार्य हमसे बेहतर आते हैं. उन्हें समय की आवश्यकता के अनुसार समाचार बनाने और खोजने आता है. उनकी उद्यमिता और कुशलता पर समाचार और प्रचार छोडकर. हमें अपना कार्य करना चाहिए.