हिंदी सिनेमा में हाशिये के लोग – शबनम मौसी के संदर्भ में
वैष्णव पी वी
सामाजिक व्यवस्था के अनुसार तीसरी दुनिया का होना बेमतलब है। मानव जाति की पूर्वधारणा है कि लिंग के दो घटक है। वे हैं– स्त्री और पुरुष। जब कोई बच्चा माँ की कोख से नवलोक में पाव रखता है तब उस पर लिंग–व्यवस्था का अतिक्रमण हो जाता है। निरीह एवं बेसुध मन में चिंता उगती है कि वह पुरुष है या स्त्री। अगर कोई हमारे अस्तित्व पर उँगली उठाएँगे तो हमें कैसा लगेगा? जहाँ हमें कोई स्त्री और पुरुष के रूप में नहीं मानते तो हमारी मानसिक–दशा कैसी होगी? यह एक अलग दुनिया की कहानी नहीं है। किन्नर सामाजिक यथार्थ और सच्चाई है। यह पुराण से लेकर वर्तमान तक का सच है। अगर पुरुष पहली श्रेणी है, स्त्री दूसरी है तो इनको लिंग व्यवस्था में तीसरी श्रेणी का दर्जा प्राप्त होना ज़रूरी है। किन्नर अलग दुनिया का प्राणी नहीं बल्कि इसी समाज का अटूट हिस्सा है।
तृतीय लिंग के व्यक्ति को ‘किन्नर’ या ‘ट्रांसजेंडर’ के रूप में अभिहित किया गया है। किन्नर विभाग की समस्या वर्तमान समय में स्त्री–पुरुष वर्ग के सामने एक प्रश्न चिन्ह के रूप में खड़ा रहता है। अपनी अस्मिता की तलाश और अस्तित्व को कायम रखने के लिए समाज में अपनों के बीच संघर्ष कर रहे हैं।
फिल्म निर्माण नई विचारधारा और नवीन विषय को उजागर करके लोकप्रिय होने लगे। नारी समस्या, दलित समस्या, निम्न वर्ग की समस्याएँ एवं प्राकृतिक समस्याएँ फिल्म के केंद्र में आई। स्त्री, दलित, निर्वासित वर्ग, पिछड़े वर्ग आदि पर फिल्म निर्माताओं की नज़र जल्दी पहुँच गयी। लेकिन सामाजिक रूढ़ियों से त्रस्त किन्नर या ट्रांसजेंडर को फिल्म निर्माताओं ने नज़र-अंदाज़ किया। अगर नज़र गयी भी तो गौण रूप में स्थान दिया जाता रहा।
वर्तमान समय में किन्नर जीवन को लेकर हिंदी साहित्य जगत में अनेक प्रकार की साहित्यक रचनाएँ लंबे अंतराल के बाद पुनः विकास की पथ पर है। साहित्य से अधिक हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा की फिल्म में किन्नर या ट्रांसजेंडर की मानसिकता और जीवन संघर्ष का चित्रण होने लगा है। किन्नर समाज सामाजिक व्यवस्था के लिए वर्जित होने के कारण फिल्म ने भी उनकी यथार्थ को अनदेखा किया। इक्कीसवीं सदी में साहित्य से अधिक मीडिया सामाजिक समस्याओं को ध्यान देने लगा। पुराने ज़माने में साहित्य में व्याप्त किन्नर समुदाय अचानक लुप्त हो गया। लेकिन मीडिया और फिल्म इनकी समस्याओं को उजागर करने लगे। फिल्म और मीडिया के आरंभिक दशक में इन्हें गलत रूप में चित्रित करने का प्रयास किया गया। इनकी हँसी-मज़ाक करके इन्हें उपहास का पात्र बनाया गया। कभी उनको क्रूर चित्रित किया गया। उन्हें छोटे किरदार दिए जाते थे। जैसे- बच्चे के जन्म की खुशी में नाचकर पैसे कमाने वाले, ट्रेन से पैसे हड़पने वाले के रूप आदि। इसी वजह से किन्नर के प्रति जो नकारात्मक भाव मीडिया ने शुरुआती दौर पर अपनाया था उससे किन्नर के प्रति समाज का विद्रोह और नापसंदी बढ़ गयी। समाज में पितृसत्तात्मक एवं मातृसत्तात्मक व्यवस्था होने के कारण किन्नर या ट्रांसजेंडर पर उसका प्रभाव तथा विचार हर कहीं छा गया। इसी वजह से फिल्म में किन्नर विमर्श काफ़ी कम पाया गया। भारतीय समाज में बॉलीवुड फिल्म का महत्वपूर्ण स्थान है। बॉलीवुड में परंपरागत विषयों से हटकर काम करने का बहुत अवसर है। लेकिन ट्रांसजेंडर, गे, लेस्बियन, बेयसेकश्युल के विषयों पर गंभीर सोच न के बराबर है।
विश्व फिल्म में किन्नर से संबंधित काफ़ी फ़िल्में बनी हैं। इसकी तुलना में उसी समय भारतीय फिल्मों में किन्नर समस्या को जितना महत्व मिलना था वह न के बराबर रह गया। लेकिन समय के साथ-साथ फिल्म निर्माताओं की सोच में भी बदलाव आया और हाल में जितनी फिल्म निकली है उसमें किन्नर के प्रति सकारात्मक विचार देखने को मिला है। इनकी जीवन-गाथा को चित्रित करते हुए सामाजिक स्तर पर होने वाली समस्याओं का चित्रण गंभीरता के साथ होने लगा है। समाज की पूर्व परंपरा और अलिखित नियमों के प्रति उनका रोष, सामाजिक हक की लड़ाई का चित्रण फिल्मों में होने लगा।
सन् 1991 में किन्नर समाज के सान्निध्य की घोषणा के रूप में महेश भट्ट के निर्देशन में ‘सड़क’ नामक फिल्म दर्शकों के सामने आई। प्रमुख अभिनेता ‘सदाशिव अमरापरकार’ ने खलनायक, जो एक किन्नर की भूमिका अदा किया था। फिल्म के हिजड़ा पात्र महारानी खलनायक के रूप में अभिनेता रवि और अभिनेत्री पूजा के प्रेम में बाधा डालता है। महारानी की भूमिका तथा उनकी लफ्ज स्त्री-पुरुष और रूढ़िगत विचारधारा पर प्रश्न चिन्ह है। सन् 1996 में अमूल पाटेकर की फिल्म ‘दायरा’ बनी। इसमें निर्मल पांडे ने एक ट्रांसजेंडर चरित्र को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। सन् 1997 में चित्रित ‘दरमियाँ’ कल्पना लाजमी की फिल्म है जिसमें किन्नर के प्रति सहानुभूति दिखाया है। किन्नर होने के कारण समाज और परिवार से निष्कासित मन की व्यथा है। महेश भट्ट की फिल्म ‘तमन्ना’ (1997) किन्नर संवेदना का प्रतिफलन है। किन्नर के प्रति सामान्य जनता की अवधारणा का पोल खोलने का प्रयास फिल्म के ज़रिए निर्देशक ने किया है। फिल्म के दो किन्नर पात्र है- ‘टीकू’ और ‘तमन्ना’, वे समाज फैली लिगंगत अवधारणा पर प्रश्न चिन्ह उठाते हैं। समाज की अनदेखेपन के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद किया है। इसकी पटकथा मुंबई के एक हिजड़े समुदाय की वास्तविक कहानी पर आधारित है। हमारी संस्कृति एवं परंपरा प्राचीन काल से ही गौरवान्वित रही है। हमारे वातावरण और संस्कृति को अलग नहीं किया जा सकता। समाज की रूढ़िगत मान्यताओं को मजबूत बनाने के प्रयास से हिजड़ों के प्रति भेदभाव हो रहा है। इन्हें बचपन से लेकर जीवनपर्यंत रूढ़िग्रस्त समाज के अन्याय का शिकार होना पड़ता है। इसमें किन्नरों की समस्याओं का खुला चित्रण है। अशुतोष राना किन्नर की भूमिका में ‘संघर्ष’ (1999) नामक फिल्म में दर्शकों के सामने आते हैं। लज्जा शंकर पाण्डे नामक एक ट्रांसवुमन की किरदार इसमें अदा किया है जो काली माता की पूजा करती है। इसके अतरिक्त और भी हिंदी फिल्मों में किन्नरों का चित्रण मिलता है लेकिन वह कुछ समय के दृश्य तक सीमित है। इन फिल्मों में ‘क्या कूल है हम’ (1995), ‘स्टाइल’ (2001), ‘मस्ती’ (2004), ‘पार्टनर’ (2007) आदि महत्वपूर्ण हैं। हाल ही में निकली फिल्म ‘अलिग्रह’ और ‘कपूर आण्ट सन्स’ में एलजीबीटी का भूमिका है।
सन् 2005 में योगेश भारद्वाज द्वारा चित्रित फिल्म ‘शबनम मौसी’ किन्नर के यथार्थ जीवन पर आधारित है। मध्यप्रदेश के सुहागपुर विधानमंडल से जीतकर विधायक बनी। ‘शबनम मौसी’ समाज में होने वाले अन्याय, किन्नर के प्रति लोगों की मानसिकता, राजनीतिक चाल पर खुला व्यंग है। सन् 2008 में श्याम बेनेगाल द्वारा चित्रित फिल्म ‘वेलकम टु सज्जनपुर’ हिजड़ा समस्या को उजागर करने वाली फिल्म है। इसमें फिल्म निर्माता किन्नर समाज की समस्या को नया मोड़ देकर, उस पर सोचने के लिए दर्शक को मजबूर करते हैं। राजनीति में हिजड़ा लोग वर्जित होते जा रहे हैं। राजनीति में इन्हें नहीं अपनाया गया जिसे जेंडर पोलिटिक्स के नाम से पुकारा जाता है। फिल्म के पात्र महादेव और मुन्नी भाई के बीच होने वाले संवाद से समाज में व्याप्त जेंडर पोलिटिक्स की गंभीर समस्या हमारे सामने आती है- “तुझे सपोर्ट किस जात से मिलेगा, मतलब ब्राह्मण? पटेल? दलित? इस्लाम? कौन? कौन है तेरे साथ।”
हिंदी में ‘बुलेट राजा’, ‘रज्जो’, ‘एस. एम.’, ‘क्यून द डेस्टिनी ऑफ डांस’, ‘राजा हिंदुस्तानी’, ‘नटरंग’, ‘नर्तकी’, ‘ट्राफिक सिग्नल’ आदि फिल्म में भी किन्नर की भूमिका है। ‘क्यून द डेस्टिनी ऑफ डान्स’ पूरी तरह किन्नर पर आधरित है। नाच को फोकस में रखकर बहुसंख्यक समाज से लड़ने वाली अल्पसंख्यकीय किन्नर जीवन की त्रासदीय क्षणों को प्रस्तुत किया गया है।
सन् 2005 में योगेश भरद्वाज के निर्देशन में शबनम मौसी नामक फिल्म दर्शकों के सामने आयी। फिल्म मध्यप्रदेश के सुहागपुर के पूर्व विधायक किन्नर शबनम बानु के निजी और भौतिक जीवन पर आधारित है। शबनम बानु के जन्म से लेकर चुनाव तक की समस्याओं का चित्रण इसमें किया गया है। एक पात्र को केंद्र में रखकर अत्यंत गंभीरता एवं रोचकता के साथ कथा आगे बढ़ती है। फिल्म की शुरुआत में पच्चीस साल तक मुबंई में शबनम के जीवन और बाद के अनूपपुर के जीवन का विवेचनात्मक अध्ययन हमारे सामने रखने का प्रयास किया है। जिस गर्भ से पूर्ण स्त्री और पूर्ण पुरुष का जन्म होता उसी गर्भ से किन्नर शबनम का भी जन्म हुआ। शहर के पुलिस अफसर के घर में जन्म शबनम की बधाई में आए किन्नर उसे जबरदस्ती लेकर जाते हैं क्योंकि हलीमा और संघ समझ गया था कि जिसके बधाई के लिए वह नाचने आए हैं वह एक किन्नर है। बच्चे को बिरादरी में ले जाने के बाद हलीमा बच्चे का पालन पोषण करती है। हलीमा उसको शबनम नाम रखती है। जब बच्चे को पालने का सौभाग्य मिल जाता है उसके अंदर छुपी मातृत्व की भावना धारा की तरह फूट निकलती है। हलीमा गुरु से कहती है- “हलीमा को आज तुमने वह दर्जा दिया, जो दर्जा खुदा भी देने में बेबस्ता है। माँ का दर्जा हलीमा माँ तेरे इज़्जत के से खयामत तक शुक्र गुज़ारेगी अम्मा।” आधी औरत और आधा मर्द होने के कारण बच्चा पैदा करना इनके वश की बात नहीं है। यह भी दूसरों की तरह मन में माँ बनने की, बच्चे-वच्चे पालने की चाह रखती है।
शबनम की देख-रेख बिरादरी में अच्छी तरह हुई। शिक्षा, संगीत एवं नृत्य में तालीम दिया। तालीम की पूर्ति के बाद कहीं काम नहीं मिला क्योंकि वह किन्नर थी। जहाँ भी गया उनको यही जवाब मिला- “कभी हिजड़े को किसी ऑफिस में काम करते देखा है।” इसलिए वह अपनी परंपरागत काम करने के लिए मजबूर हो जाती है। शबनम को इकबाल से हुए प्यार को त्याग देना पड़ता है क्योंकि इनके प्यार को समाज की मान्यता नहीं मिलेगी।
आज के सामाजिक जीवन में धन को महत्वपूर्ण पहलू के रूप में मान्यता मिल चुकी है। अपने परंपरागत पेशे से ऊबकर पैसे के लालच में किन्नर गलत मार्ग की ओर जाता है। बिरादरी के गुरु शबनम को पैसे की लालच देने का प्रयास करती हैं, इससे हलीमा रुठ जाती है- “मैं इतनी गिरी नहीं हूँ कि अपनी बेटी की पीठ बेचकर अपनी अपनी भूख मिटाऊँ।” बीच में हुई धक्का-मुक्की के कारण हलीमा का जान चली जाती है। गुरु आत्म-रक्षा हेतु मौत के ज़िम्मेदार शबनम को टहलाकर पुलिस से गिरफ्तार करवाती है। हलीमा के दाह संस्कार पर आए शबनम सच्चाई को सामने लाती है और पुलिस को धोखा देकर भाग जाती है। पुलिस से बचकर वह मध्यप्रदेश के अनूपपुर गाँव में पहुँचती है। गँवार राघव की बेटी की जान बचाकर उसके घर में रहने लगती है। विधायक रतन सिंह के आदमी पर हाथ रखने पर शबनम को मारने के लिए लल्लू नामक गुण्डा आज्ञा अनुसार गाँव आ जाता है। वह शबनम को नंगा करके पीटने की कोशिश करता है। अपनी मान को कलंकित करने की कोशिश करने वाले लल्लू पर प्रतिवार करती हुई लोगों की मानसिकता पर शबनम व्यंग्य करती है- “मैं इस उम्मीद के साथ मार खायी थी, शायद एक हिजड़े को पिटता देखकर इन मर्दों की मर्दानगी जाग जाए।” शबनम आम जनता की निकृष्ट सोच और उनके डर एवं सहानुभूति पर वार करती है ताकि उनमें मानवता जाग उठे। शबनम लोगों की मानसिकता को निहारती हुई कहती है- “अपने डर और कायरता को सहनशीलता का नाम देकर पहले जागने वालों, आज यह हिजड़ा तुम लोगों में अपना अंश देख रहा है। मैं अपनी बिरादरी छोड़कर आयी थी यह सोचकर कि तुम जैसे इंसान के बीच रहूँगी, मगर मुझे क्या पता था कि मेरी किस्मत में हिजड़ों के बीच रहना ही लिखा था। अगर मैं तन से हिजड़ा हूँ तो तुम मन से हिजड़ा हो। तन का हिजड़ा तो फिर भी ताली पीटकर जीवन जी लेता है, लेकिन मन का हिजड़ा ताली पीटते हुए भी डरता है।” लल्ला अपना आदमी होकर भी रतन सिंह शबनम मौसी को बधाई देता है। ताकि चुनाव में गाँव वालों को अपने साथ रख सके। रतन सिंह को पार्टी उम्मीदवार बनाने के कारण विनोद कुपित होकर उसके खिलाफ़ चाल चलता है। शबनम मौसी को अपने वश में करके रतन सिंह के खिलाफ खड़ा लेता है। स्वार्थी विनोद के मामले को कैसे निपटाए यह रतन बाबू अच्छी तरह जानता था। विनोद दुबारा आकर शबनम से नामांकन वापस लेने को कहता है। शबनम को राजनीति की कुतंत्रो का पता होने से वह पीछे हटने से हिचकती है। शबनम विनोद और सिंह साहब को सख्त जवाब देती है- “मैं जानना चाहता हूँ राजनीति कुत्ती है या राजनेता।” शबनम की राजनीति में उन्नति और लोगों के साथ की हेल-मेल से रतन सिंह अपनी हार को सामने देखता है। इसी डर के मारे शबनम को मारने की सुपारी मदन पंडित को देता है। मारने की उम्मीद रखकर आए मदन शबनम की वाणी की सच्चाई से रूबरु हो जाता है और धंधा छोड़कर शबनम के साथ जुड़ जाती है। शबनम की उन्नति से देखकर गुरु अपने किए पर पछतावा करता है। गुरु और पिता शबनम से मिलते हैं। चुनाव में रतन सिंह की हार हो जाती है। किन्नर की जीत के साथ एक नया इतिहास बन जाता है।
भारतीय फिल्म में कितनी शबनम है? अगर किन्नर की कथा हो रही है तो उसमें कितने किन्नर भूमिका पेश करती है। हिंदी फिल्म में हाशिये समाज कभी-कभी स्थान पा रहा है। लेकिन स्थायित्व कहाँ है। समाज में किन्नर की समस्या को पेश करने में भरद्वाज जी ने जो प्रयास किया है वह सराहनीय है। हाशिये लोग की दशा को फिल्म में प्रस्तुत करने के साथ किन्नर का सान्निध्य भी पक्का करना है। फिल्म की बातों से परे इनकी जीवन क्या है इसे परखना ज़रूरी है। हिंदी फिल्म में किन्नर का चित्रण कम हुआ है। लेकिन समय के साथ बदलाव ज़रूर है। सशक्त रूप में इनकी जीवन पलों को फिल्म अंकित किया है। जो अंकन किन्नर को लेकर हुआ है इसकी वास्तविकता को भी परखना ज़रूरी है।
हिंदी फिल्म के साथ अन्य मीडिया में भी किन्नर का चित्रण आने लगा। ध्यान देने की बात ‘रेड लेबल’ चाय पत्ती के विज्ञापन में किन्नरों ने खुद अभिनय किया है। फिल्म अभिनेता के रूप में किन्नर अंजली का नाम रोशन हुआ है जो केरल से है। इसी तरह हिंदी फिल्म में किन्नर का छाप दिखने लगा है। मीडिया में चित्रित किन्नर जीवन की दुहरा चेहरा है उसे परखने का दात्यित्व हरेक सहृदय का है। किन्नर जो समाज में हाशिये में धकेले गए हैं उसे समाज की मुख्यधारा में स्थान दिलाने में फिल्म अपने ओर से कोशिश कर रहे हैं।समाज की नज़िरए बदल रही है। इसका उदाहरण है- किन्नर जीवन पर आधारित बॉलीवुड़ फिल्म ‘हंसा एक सहयोग’ में अंबिकापुर के ‘किन्नर मुस्कान’ को एक किरदार मिला है। इसी फिल्म की गान में शबनम बानु भी किरदार पेश कर रही है। समाज के विकास में किन्नर भी अपना योगदान दे सकता है। लेकिन समाज की नीच दृष्टि से ये परेशान है। इन हाशिये ज़िंदगी की व्यथा को जनता तक पहुँचाने में साहित्य के साथ फिल्म भी अपना योगदान दे रहा है। किन्नर की हक और जिंदगी का जीवंत चित्र जनता तक पहुँचाने की कोशिश में हैं।
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