संत साहित्य: सामाजिक चेतना के स्त्रोत
मनीष कुमार कुर्रे
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
शास0 दिग्विजय महा0 राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़,
पता – मेरेगाँव, अम्बागढ़ चौकी
जिला – मोहला-मानपुर-अं॰ चौकी, छत्तीसगढ़,
पिनकोड – 491665
सम्पर्क – 9669226959, 6265501890
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सारांश
संत साहित्य आचरण की पवित्रता एवं शुद्धता लेकर लोक के समक्ष आया। उसमें युगबोध एवं लोक चेतना का व्यापक स्वरूप प्रतिफलित है। मध्यकालीन सामाजिक, आर्थिक एवं साँस्कृतिक समस्याओं का संत साहित्य में स्वाभाविक चित्रण हुआ। संतों ने अपने समय के मानव समाज को दोषमुक्त कर परिष्कृत बनाने की चेष्टा की। उनकी साहित्य रचनाओं में मानव की क्षुद्रता, सीमाओं, स्वार्थपरतता, असत्यप्रियता, संकीर्णता, अर्थलोलुतपा, कामुकता आदि का चित्रण, विवेचन और विश्लेषण हुआ है। इसी प्रकार सामाजिक असंगतियों, धार्मिक विडम्बनाओं, बहुदेवोपासना, मूर्ति पूजा आदि समस्याओं की अभिव्यक्ति और निदान भी संत साहित्य में मिलता है। इसमें संदेह नहीं है की संत कवि समाज के सच्चे और सजग प्रहरी थे। संत कवियों ने जीवनदायिनी शक्तियों की ओर जनसामान्य को आकर्षित किया और समाज को सशक्त, निर्दोष एवं कल्याणकारी मार्ग पर अग्रसर करने की चेष्टा की। इस युग के सबसे प्रमुख संत कबीरदास थे। भक्ति कालीन ज्ञानाश्रयी भक्तों के साहित्य को संत साहित्य कहा गया।
बीज शब्द: संत, निर्गुण, चेतना, ज्ञान।
शोध आलेख
उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के मध्य दो धाराएँ प्रवाहित हुई – निगुर्ण काव्य धारा और सगुण काव्य धारा। अब सगुण काव्य धारा में भी दो शाखाएँ हुई – रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी। काव्य की दूसरी धारा निगुर्ण ज्ञानाश्रयी थी। जिसे समकालीन संतों ने अपनी वाणियों में प्रवाहित किया। इसे डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘‘निर्गुण भक्ति साहित्य’’ कहा।1 ज्ञान और भक्ति का मेल अटपटा सा लगता है। ज्ञान को लेकर भ्रमरगीत साहित्य में सगुण कृष्णोपासक कवियों ने गोपियों से उद्धव की खिल्ली उड़ाई है। संत कवियों ने साधना के साथ प्रेम को जोड़कर उसमें लालित्य अवश्य लाने का प्रयास किया, परन्तु उसे भक्ति साहित्य कहना उचित प्रतीत नहीं होता, उसे भक्ति साहित्य ना कह कर यदि संत साहित्य कहा जाये तो अधिक उपयुक्त होगा। संत साहित्य पर नाथ साधुओं और सूफी धर्म की भावना का भी प्रभाव पड़ा लेकिन उनकी भक्ति की आत्मा उससे नितांत भिन्न है। भक्तिकाल (1300 ई0) का भक्ति आन्दोलन दक्षिण से आया, लेकिन व्यापक प्रभाव 15वीं शताब्दी में ही देखा गया। इन संतों में कबीरदास, पीपा, रैदास, धना, सेन, नानकदेव, दादूदयाल, सुन्दरदास आदि आते हैं परन्तु सर्वाधिक प्रसिद्धि कबीरदास को मिली। इसलिए संत साहित्य से ही भक्तिकाल का आरम्भ माना जाता है और संत कबीर को संत साहित्य के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं।
युगबोध:- संतों का व्यक्तित्व सच्चे अर्थों में संवेदनशील था। उनका मानस स्वच्छ और उदार था इसलिए उनका साहित्य जन भावनाओं की सहज प्रवृत्तियों, परिस्थितियों, विकृतियों और विडम्बनाओं का विशाल शब्दचित्र है। दूसरे शब्दों में उन्होंने तात्कालीन समाज का यथार्थ चित्र अंकित किया। संत साहित्य आत्मविश्वास, आशावाद और आस्था की भावना संस्थापित करने में सहायक साहित्य है । इसका प्रमुख प्रयोजन है – त्रस्त, संतप्त, उपेक्षित, उत्पीड़ित मानव को परिज्ञान प्रदान करना।
संक्षेप में निर्गुण संत साहित्य आचरण की पवित्रता एवं शुद्धता लेकर लोक के समक्ष आया। उसमें युगबोध एवं लोक चेतना का व्यापक स्वरूप प्रतिफलित है। मध्यकालीन सामाजिक, आर्थिक एवं साँस्कृतिक समस्याओं का संत साहित्य में स्वाभाविक चित्रण हुआ। संतों ने अपने समय के मानव समाज को दोषमुक्त कर परिष्कृत बनाने की चेष्टा की। उनकी साहित्य रचनाओं में मानव की क्षुद्रता, सीमाओं, स्वार्थपरतता, असत्यप्रियता, संकीर्णता, अर्थलोलुतपा, कामुकता आदि का चित्रण, विवेचन और विश्लेषण हुआ है। इसी प्रकार सामाजिक असंगतियों, धार्मिक विडम्बनाओं, बहुदेवोपासना, मूर्ति पूजा आदि समस्याओं की अभिव्यक्ति और निदान भी संत साहित्य में मिलता है। इसमें संदेह नहीं है की संत कवि समाज के सच्चे और सजग प्रहरी थे। संत कवियों ने जीवनदायिनी शक्तियों की ओर जनसामान्य को आकर्षित किया और समाज को सशक्त, निर्दोष एवं कल्याणकारी मार्ग पर अग्रसर करने की चेष्टा की।2 इस युग के सबसे प्रमुख संत कबीरदास थे। भक्ति कालीन ज्ञानाश्रयी भक्तों के साहित्य को संत साहित्य कहा गया।
संत शब्द: अर्थ एवं परिभाषा:-
वस्तुतः ‘भक्त’ और ‘संत’ शब्द समानार्थी है, लेकिन भक्ति कालीन साहित्य में ‘संत’ शब्द एक परिभाषित शब्द के रूप में प्रयुक्त होता है। निर्गुणोपासक के लिए ‘संत’ शब्द और सगुणोपासक के लिए ‘भक्त‘ शब्द व्यवहृत किया जाता है। ‘संत’ शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ विविध विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूपों में दिया है। जहाँ तक भक्तिकाल का सम्बंध है, यह साधक की एक अवस्था है। जैसे- नाथ पंथ में ‘नाथ’ उस अवस्था का नाम है, जहाँ साधक शून्य में लीन होकर ब्रह्म रूप हो जाता है। उसी प्रकार संत साधक की वह अवस्था है, जहाँ साधक माया से ऊपर उठकर ब्रह्म से तादात्म्य पाता है। संसार की अच्छाई एवं बुराइयों का उस पर कोई असर नहीं होता है। कबीर के काव्य में संतों का यही भाव प्रकट होता है। कबीर संतों में असंतन की एकरूपता स्पष्ट करते हुए कहते हैं:-
साध मिले साहिब मिले, अन्तर रही न रेख।
मनसा-वाचा-कर्मणा, साधु साहिब एक।।3
हिन्दी साहित्य कोश (भाग-1) के अनुसार:- संत शब्द का प्रयोग साधारणतः किसी भी पवित्र आत्मा और सदाचारी पुरुष के लिए किया जाता है। कभी-कभी यह साधु एवं महात्मा शब्दों का पर्याय भी समझ लिया जाता है, किन्तु संतमत शब्द में आ जाने पर इसका एक परिभाषिक शब्द भी हो सकता है, जिसके अनुसार यह उस व्यक्ति का बोध कराता है जिसने सत्रूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया हो। अतएव विशिष्ट लक्षणों के अनुसार संत शब्द का व्यवहार केवल उन आदर्श, महापुरुषों के लिए ही किया जा सकता है। जो पूर्णतः आत्मनिष्ठ होने के अतिरिक्त समाज में रहते हुए, निःस्वार्थ भाव से विश्वकल्याण में प्रवृत्त रहा करते हैं। संतमत को ही कभी-कभी निर्गुण संतमत भी कह देते हैं।4
पंडित परशुराम चतुर्वेदी ने संत शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘’संत’’ शब्द का मौलिक अर्थ है- ‘’शुद्ध अस्तित्व‘’। इस प्रकार ‘संत’ शब्द का प्रयोग नित्य एकरस रहने वाले तत्व के लिए किया जाता है। बाद में इसका समान्यार्थक संत शब्द का अर्थ संकोच हुआ और केवल बारकरी संप्रदाय के प्रचारकों के लिए ही होने लगा।5
संत साहित्य का आविर्भाव:-
संत साहित्य का श्रीगणेश महात्मा कबीरदास जी की रचनाओं से माना जाता है। कबीरदास से पूर्व संत विचारधारा का प्रसार महाराष्ट्र में बारकरी (विट्ठल संप्रदाय) के अंतर्गत हुआ, लेकिन हिन्दी साहित्य का उससे कोई सम्बंध नहीं है, उनमें संत ज्ञानेश्वर-नामदेव ने उत्तर भारत का भ्रमण किया था और हिंदी की कुछ रचनाएँ भी की थी, परन्तु हिन्दी साहित्य में उनको कोई विशेष स्थान नहीं दिया गया है। संत कवियों में कबीरदास, रैदास, पीपा और धना ने साहित्य रचना की। कबीर की रचना साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। कबीरदास के बाद उनके शिष्य धर्मदास का नाम आता है और धर्मदास के पश्चात गुरु नानक देव ने संत संप्रदाय को विकसित किया।
संत साहित्य की दूसरी श्रेणी में दादूदयाल, मुलकदास इत्यादि के नाम आते हैं। दादूदयाल विद्वान संत थे। निरंजनी संप्रदाय के हरिदास भी इसी परम्परा में आते हैं। गुरु नानक देव के संप्रदाय में गुरु ग्रंथ साहिब की रचना प्रमुख है। शेख इब्राहिम के कुछ पद भी गुरु ग्रंथ साहिब में संग्रहित है।6
डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार:- 18 वीं शताब्दी के अंत तक संत परम्परा की क्रांतिकारी भावना नष्ट हो गई थी। संत लोग भी अन्य मठाधीशों के सामान अपने मठ बनाने में लगे थे। जिन लोगों ने माया को ललकारने का साहस किया था उनके अनुयायी माया के घरौदों में बंद हो गए। इसलिए वह साहित्य की सृष्टि न कर सके जो मनुष्य को नया आलोक देता और कठिनाइयों व विपत्तियों से जूझने की प्रेरणा देता।7
गुरु ग्रंथ साहिब में नानक देव के अतिरिक्त नामदेव, त्रिलोचन, परमानन्द, बेनी, रामानन्द, धना, पीपा, सेन, कबीर, रैदास, सूरदास, भीखन, फरीद तथा मीरा के पदों का भी संकलन है। अतः हम कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य में संत साहित्य का आरम्भ संत कबीरदास की काल से माना जाता है और कबीरदास संत साहित्य के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं।
अनंतानन्द, कबीर ,सुखा, सुरसुरा, पद्यावति नरहरि।
पीपा, भावानन्द, रैदासु, धना, सेन, सुरसरि की धरहरि।।8
संत साहित्य का विभाजन:-
कबीर द्वारा परिवर्तित विचारधारा को मान्यता देने वाले साधु संतों की परम्परा आज भी जीवित है। गढ़वा घाट पर, काशी पर आज भी एक साधु की परम्परा जी रही है, जो कबीर विचारों से वृहत् जान पड़ती है। इसी प्रकार न जाने और कितने संप्रदाय होंगे। इन सभी द्वारा निर्मित साहित्य संत साहित्य है। इसके निर्माताओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- 1. रामानन्द के शिष्य मंडली 2. पंथ प्रवर्तक संत। पहला कबीर के समसामयिक है और दूसरा परवर्ती।9
संत दर्शन और संत साहित्य में सामाजिक चेतना
संत संप्रदाय का दर्शन किसी विशेष शास्त्र से नहीं लिया गया है क्योंकि शास्त्रों में संतो की आस्था प्रायः नहीं थी। शास्त्र एक विशेष दृष्टिकोण के लिए या कहा जा सकता है कि वे संप्रदायिकता के आधार पर टिके होते हैं। यह स्पष्ट है कि संतों ने धर्म और दर्शन को संप्रदाय की सम्पत्ति नहीं समझा क्योंकि वेद, धर्म व दर्शन में किसी प्रकार संकीर्णता नहीं लाना चाहते थे। दर्शन अनुभूति और विश्वास से सम्भव माना है। अतः संत संप्रदाय का दर्शन उपनिषद्, भारतीय षट्दर्शन, बौद्ध धर्म, सूफी संप्रदाय, नाथ संप्रदाय की विश्व जननी अनुभूतियों के तत्व को मिलाकर सुसंगठित हुआ है। जिसका प्रभाव संत साहित्य पर पड़ा और संतों के सामाजिक चेतना का आधार भी यही दर्शन ही है। दर्शन के चार तत्व माने जाते हैं- ब्रह्म, जीव, माया, जगत।10
संत साहित्य में समस्त संत काव्य को रख सकते हैं जो जनमानस की अभिव्यक्ति और सामाजिक, धार्मिक चेतना का काव्य है। इस साहित्य (काव्य) के सृष्टा संत जन भले ही शिक्षित और शास्त्रों के ज्ञाता न हो लेकिन अपने युग के सचेत एवं विवेकशील दृष्टा थे। इसीलिए इनका काव्य भक्तिकालीन अन्य काव्य से भिन्न विकसित हुआ।
लोक कल्याण की भावना:- सभी संतों ने लोक कल्याण की भावना से लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। उनका उपदेश अथवा उनकी प्रेरणा किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव कल्याण के लिए है। उन्होंने जो कुछ कहा समाज को पतन की ओर जाने से रोकने के लिए कहा। अब इन्हीं सामाजिक कल्याण के अन्तर्गत हम निम्न बिन्दु को रखेंगे जो इस प्रकार है –
(1) गुरु महत्ता:- संत कवियों ने गुरु को सबसे ऊँचा स्थान दिया है और गुरु को किसी ब्रह्म से कम नहीं बतलाया। संतों का मान्यता था कि गुरु बिना सिद्धि संभव नहीं और ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। एक सद्गुरु ही हमारे जीवन को संवार सकता है। संत साहित्य की पृष्ठभूमि अथवा प्रेरणा स्रोतों के रूप में जिन सिद्ध, नाथ, जैन साहित्य की चर्चा की जाती है, उसमें गुरु तत्व की महिमा है। हिन्दी संत साहित्य में गुरु महात्म्य की एक परम्परा रही है। कबीरदास गुरु की महिमा बताते हुए गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा बतलाया है। यथा:-
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपणै, जिन गोविंद दियो बताय।।
संत गुरु नानक देव जी कहते हैं:-
गुरु बिन कितै न पाइयो, केति कहै कहाये।
गुरु सागरो, रतन गुरु तितु रतन धणोरो राम।।
दादू दयाल की मान्यता है:-
घट घट रामरतन है, दादू लखै न कोय।
सतगुरु सबदा पाइये, सहज ही सिधि होय।।11
(2) रूढ़ियों व बाह्याडम्बरों का खण्डन:- संतों ने सामाजिक, धार्मिक, साँस्कृतिक क्षेत्र में व्याप्त रूढ़ियों और बाह्याडम्बरों का खुलकर विरोध किया। सामाजिक क्षेत्र में वर्ण व्यवस्था के आधार पर तथाकथित धर्म के ठेकेदार निम्न जातियों को उनके सामाजिक-धार्मिक अधिकारों से वंचित रखते थे। इसलिए उन्होंने वर्ण व्यवस्था, जाति-पाँति, छुआछूत को नहीं माना। अधिकांश संत निम्न जातियों के थे अतः वर्ण भेद के दुष्परिणामों को उन्होंने स्वयं अनुभव किया था और सभी ने समानता की कामना की थी।
कबीर दास ने कहा है:-
(क) जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार की पड़ा रहने दो म्यान।।
(ख) जाति-पाँति पूछै नहीं कोई, हरि भजे सो हरि का होई।12
संतों ने हिन्दुओं के जप, तप, संध्या वंदन, माला फेरना, तीर्थ, व्रत, बलि, तिलक आदि को और मुसलमानों के नमाज, रोजा, हलाल पर आघात किया।
मूर्ति पूजा के विरोध में हिन्दुओं को फटकार लगाते हुए कबीरदास जी कहते हैं:-
दुनिया कैसी बावरी, पाथर पूजै जाय।
घर की चकिया कोई न पूजै, जाका पिसा सब खाय।।
मुसलमानों को फटकारते हुए आगे कबीरदास कहते हैं:-
मुल्ला चढ़ी किलकारियां, अल्लाह न बहरा होय ।
जेही कारन तू बांग दे, दिल ही अंदर होय।।
माँस भक्षण का विरोध करते हुए कहते हैं:-
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जे नर बकरी खात है, तिनको कौन हवाल।।
बलि प्रथा का खण्डन करते हुए कहते हैं:-
दिन को रोजा रखत है, राति हनत है गाय।
यह तो खून यहू बन्दगी, कैसे खुसी खुदाय।।13
(3) हिन्दु-मुस्लिम व राम-रहीम एकता पर बल:- सभी संतों ने हिन्दु-मुस्लिम एकता पर बल दिया, उन्होंने ईश्वर को एक मानकर राम और रहीम की एकता पर जोर दिया। कबीरदास ने हिन्दु-मुस्लिम की खाई को बड़ी कुशलता से पाटा। इस समय धर्म विभिन्न मत-मतान्तरों में बट चुका था, तब कबीरदास जैसे महान संतों ने राम-रहीम की एकता को बताकर सारे देश को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया।
उन्होंने हिन्दु व मुस्लिम दोनों को फटकारते हुए प्रश्न किया:-
जो तू बाम्हन, बाम्हनी आया, आन बाँट ही क्यों नहीं आया।
जो तू तुरकी, तुरकनी आया, भीतर खतना क्यों न कराया।।
राम-रहीम को एक बताते हुए कबीरदास कहते हैं:-
राम-रहीम एक है, नाम धराया दोय।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय।।
इसी प्रकार ईश्वर भेद के लिए कबीर कहते हैं:-
दुई जगदीश कहाँ से आया, कहुँ कौन भरमाया।।14
सुन्दरदास जी भी कहते हैं:-
और देवी-देवता उपसना अनैक करे, अंबन की होसै कैसे, अकडोडे ज्ञात है।
सुन्दर कहत रवि परकास बिन, जेंगना की जोति कहा, रजनी विलात है।।15
(4)समन्वित भक्ति भावना पर बल:- संत साहित्य में अभिव्यक्त भक्ति भावना पर नाथों की योग साधना, वैष्णवों की भक्ति महिमा, सूफियों के प्रेम तत्व का प्रभाव है। इसमें कर्म, ज्ञान और योग का समन्वय है। संतों की भक्ति साधना पर योग मार्ग का प्रभाव है, लेकिन उसका अंधानुकरण नहीं है। उनकी नजर में प्रेम के बिना ज्ञान और योग व्यर्थ है। इस संदर्भ में कबीरदास की मान्यता है:-
मैं जान्यौ पढ़िबौ भलौ, पढ़िबा तै भला जोग।
रामनाम सूँ प्रित करि, भल-भल नींदो लोग।।
इससे भी आगे आकर कबीरदास कहते हैं:-
प्रेम बराबर जोग नहीं, प्रेम बराबर ज्ञान।
प्रेम भगति बिन साधिबो, सब ही थोथा ज्ञान।।16
इस प्रकार संत साहित्य का काव्य भक्ति साधना एक प्रकार की प्रेम साधना ही है। प्रेम साधना में वासनाओं के लिए अनुमान का भी अवकाश नहीं।
(5) नाम-स्मरण की गरिमा:- नाम तत्व संत काव्य की रचना का एक विशेष अंग है। संत काव्य में वर्णित राम-नाम की साधना एक प्रकार की मंत्र साधना है, लेकिन केवल नाम उच्चारण या परंपरागत जाप राम-नाम साधक नहीं है। उसका सम्बंध जीवन की रागात्मक वृत्ति से है। जब तक राम-नाम का परमतत्व हमारी प्राण शक्ति के साथ घुल-मिल नहीं जाता है, तब तक वह शब्द ज्ञान मात्र ही बना रहता है। इसलिए नाम-स्मरण तन मन से एकाग्र होकर किया जा सकता है:-
सुमिरन ऐसा कीजिये, दूजा लखै न कोय।
होंठ न फरकत देखिए, प्रेम राखिये गोय।।
अनमने ढंग से किया गया नाम-स्मरण आडम्बर मात्र है। इसीलिए संतांे ने इसकी निंदा की है:-
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहि।
मनुवा तो चुहदिस फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं।।17
(6) संसार की क्षणभंगुरता:- यह संसार और यहाँ के निवास करने वाले मानव पशु-पक्षी, जीव-जन्तु सभी नश्वर है। अतः जो पैदा हुआ है उसे एक दिन जाना ही होगा। चाहे वह राजा हो या रंक, अमीर हो या गरीब, चाहे धर्म, वर्ग, जाति का क्यों न हो उसका मृत्यु निश्चित है। अतः इसकी चिन्ता करने के बजाय बुद्धिमान व्यक्ति को अनहोनी को रोकने के बारे में सोचना चाहिए। सत्य के मार्ग को अपनाना चाहिए यही संत काव्य में सार है:-
होनी तो होके रहै, अनहोनी न होय।
इसी तरह कबीरदास संसार की क्षणभंगुरता को इस तरह बतलाते हैं:-
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुष की जात।
देखत ही छिप जायेगा, ज्यो तारा परभात।।
मेरा-मेरा क्यों करता है, कुछ भी नहीं है तेरा।
ना घर तेरा ना घर मेरा, चिड़िया रैन बसेरा।।18
(7) रहस्य भावना:- डॉ0 गोविंद त्रिगुणायत के अनुसार:- ‘‘जब साधक भावना के सहारे आध्यात्मिक सत्ता की रहस्यमयी अनुभूतियों की वाणी के द्वारा शब्दमय चित्रों में सजाकर रखने लगता है, तभी साहित्य में रहस्यवाद की सृष्टि होती है।’’ संत साहित्य में भावात्मक, साधनात्मक और अभिव्यक्तिमुलक, रहस्याभिव्यक्ति के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। सभी संतों में कबीरदास की रहस्याभिव्यक्ति अद्वैत दर्शन, सूफी दर्शन और नाथों के योग से प्रभावित होकर भी मौलिक है। यथा:-
प्रेम मूलक:-
बहुत दिनव में प्रीतम आये, भाग बड़े धरि बैठे पार।
यौगिक रहस्याभिव्यक्ति:-
तलि कर शाखा ऊपरि करि मूल, बहुत भाँति जड़ लागे फूल।।
अभिव्यक्तिमुलक रहस्याभिव्यक्ति:-
फिलु खादी वलदु परवावज, कउआ ताल बजावै।
पहिन चोलना गद्हा चाचै, भैसा भगति करावै।।19
निष्कर्ष:-
प्रायः सभी निर्गुण संत साधक, विचारक, धार्मिक प्रवक्ता और सुधारक पहले थे, साहित्यकार बाद में। वास्तव में साहित्य रचना उनका उद्देश्य नहीं था। साहित्य उनके उद्देश्य पूर्ति का माध्यम था। उन्होंने शासक और शासित के भेदभाव को समाप्त कर उन्हें एक गुरु की सेवा में सम स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया। सामाजिक आडम्बरांे, रूढ़ीवादी परम्पराओं को दूर किया। राम-रहीम, हिन्दू-मुस्लिम को एक करने का प्रयास कबीर एवं समकालीन संतांे ने पूरा किया। नाम-स्मरण, भक्ति-भावना का समन्वय समाज में आडम्बरों को छोड़कर एक ऐसी भक्ति जो निःस्वार्थ हो, को आगे बढ़ाने का कार्य संतों ने किया। उन्होंने अंधविश्वास को तोड़कर समाज को पुनः संगठित किया, जिसमें ईष्र्या, द्वेष, भेदभाव का कोई भी स्थान नहीं है। संत संप्रदाय ने जो धार्मिक, सामाजिक उत्थान का कार्य किया, उसे भुलाया नहीं जा सकता। समाज को संगठित, आडम्बररहित, कुप्रथाओं से मुक्त कराने में संतों का योगदान अविस्मरणीय है। यही विशेषता इस युग को स्वर्ण युग बनाती है।
संदर्भ सूची:-
1. प्राचीन हिन्दी साहित्य- यज्ञदत्त, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1975, पृष्ठ- 88
2. हिन्दी साहित्य का इतिहास- डॉ0 नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा, 1973, पृष्ठ- 143
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ0 माधव सोनटक्के, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2009, पृष्ठ-179
4. हिन्दी साहित्य कोश (भाग-2), वाराणसी ज्ञान लिमिटेड, धीरेंद्र वर्मा, ब्रजेश्वर वर्मा, धर्मवीर भारती, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रघुवंश, 1985, पृष्ठ- 854
5. हिन्दी साहित्य का इतिहास – राममूर्ति त्रिपाठी, भूमिका लेखक आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, मानकचन्द बुक डिपो, उज्जैन, 1967, पृष्ठ- 69
6. प्राचीन हिन्दी साहित्य- यज्ञदत्त, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1975, पृष्ठ- 90
7. वही पृष्ठ- 90,91
8. हिन्दी साहित्य (द्वितीय खण्ड) प्रारंभ से 1850 ई0 तक, भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग, सं0- धीरेंद्र वर्मा, ब्रजेश्वर वर्मा, पृष्ठ- 209
9. प्राचीन हिन्दी साहित्य- यज्ञदत्त, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1975, पृष्ठ- 74
10. हिन्दी साहित्य (द्वितीय खण्ड) प्रारंभ से 1850 ई0 तक, भारतीय हिन्दी परिषद, प्रयाग, सं0 – धीरेंद्र वर्मा, ब्रजेश्वर वर्मा, पृष्ठ- 226
11. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ0 माधव सोनटक्के, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2009, पृष्ठ- 191
12. वही पृष्ठ- 192
13. प्राचीन हिन्दी साहित्य- यज्ञदत्त, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, 1975, पृष्ठ- 96
14. प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य- सालिगराम द्विवेदी ‘कवि’, भार्गव प्रकाशन, मध्यप्रदेश, पृष्ठ-24
15. वही पृष्ठ- 24,25
16. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ0 माधव सोनटक्के, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2009, पृष्ठ- 191
17. वही पृष्ठ- 192
18. सतनाम दर्शन – डॉ. टी. आर. खूँटे, सतनाम कल्याण एवं गुरू घासीदास चेतना संस्थान, रायपुर, पृष्ठ- 134
19. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ0 माधव सोनटक्के, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2009, पृष्ठ- 193