सत्ता, साम्प्रदायिकता और ध्रुवीकरण की राजनीति बनाम समकालीन हिंदी कविता

डॉ.गंगाधर चाटे

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग,

अंबिकाबाई जाधव महिला महाविद्यालय,

वज्रेश्वरी(महाराष्ट्र) मोबाईल 9822740020

ईमेल- gangadharchate20@gmail.com

सारांश

‘सत्ता’ यह एक ऐसी शक्ति जिसे हर कोई पाकर शक्तिशाली बन जाता है और जो जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करती है। सत्ता प्राप्ति के लिए साम,दाम दंड,भेद आदि का प्रयोग करना जायज माना जाता है। दरअसल, वह ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति से अपने आप को बनाये रखने की नापाक कोशिश करती है। इन दिनों तो सत्ता एक व्यवसायमें तब्दील होती जा रही है, जिसमें इन्वेस्टमेंट करके अनगिनत मुनाफाखोरी की जाती है। इसीलिए इसमें जनहित की संभावना का नितांत अभाव रहा है। समकालीन हिंदी कविता सत्ता के चेहरे और चरित्र की असलियत को उजागर करते हुए उसकी तीखी आलोचना करती है। समकालीन कवि सत्ता, साम्प्रदायिक और ध्रुवीकरण की राजनीति से भलीभांति परिचित है और उसका निर्भीकता से भंडाफोड़ करते हुए दिखाई देते है। वे कविताओं में सत्ता की मनमानी या तानाशाही प्रवृत्ति की कड़ी निंदा करते है और उसकी भ्रष्टाचारी व्यवस्था का पर्दाफाश भी। साथ ही वे सत्ता के अन्यायकारी, अत्याचारी और अराजकतावादी नीतियों का प्ररिरोध करते हुए जनहित की वकालत करते है।

बीज शब्द: सत्ता, सांप्रदायिकता, ध्रुवीकरण, राजनीति, चेहरा, चरित्र, मनमानी, तानाशाही, दमन, शोषण, समकालीन, कविता, कवि, भंडाफोड़,

भूमिका:

सत्ता से तात्पर्य उस सर्वोच्च शक्ति से है जो सभी क्षेत्रों पर न केवल अपना वर्चस्व, एकाधिकार और नियंत्रण स्थापित करती है, बल्कि वह उन सभी क्षेत्रों को बुरी तरह से प्रभावित भी करती है। यहाँ बुरी तरह से प्रभावित करने से अभिप्राय- सत्ता के अनचाहे हस्तक्षेपों, उसकी स्वार्थी, स्वहिताकारी, अहंकारी प्रवृतियों एवं उसकी मनमानी, तानाशाही, दमनकारी, शोषणकारी नीतियों आदि से हैं। इन दिनों ये सारे उपमान सत्ता के चरित्र के आभूषण से बन गये हैं। सत्ता के सिंहसान पर जो भी विराजमान हो जाता है, वह इन आभूषणों को धारण कर अपने आप को सुशोभित करता है। वह जमाना नहीं रहा जिसमें सत्ता का अर्थ अवाम की सेवा, सुरक्षा और सम्पोषण हुआ करता था। आजकल सत्ता तो केवल व्यक्ति के लिए धन की कमाई का एक राजमार्ग, उपभोग का एक साधन और खुद को ताकतवर बनाने का एक जरिया मात्र बनकर रह गई है। सत्ताधारी हमेशा ही अपने आप को अधिक ताकतवर बनाने में और अपने विरोधियों को कमज़ोर बनाने में लगा रहता है। यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि वह अपने विरोधियों का नामोनिशान तक मिटाने की नापाक कोशिश में लगा रहता है। अपनी सत्ता को अजेय, अपराजित और सार्वकालिक बनाना की उसका पहला और अंतिम लक्ष्य बन जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि सत्ता चाहे जो भी हो, वह कभी भी लोकतांत्रिक नहीं हो सकती। उसमें ‘लोक कल्याण’ की भावना नहीं होती है, अपितु वह ‘लोक कल्याण’ के नाम पर लोक विरोधी गतिविधियों में हमेशा शामिल रहती है। विडम्बना तो यह है कि वह लोकतंत्र का नकाब पहनकर चारों ओर घुमती – फिरती है। दरअसल, सत्ता के इसी नकाब को उतारकर उसके असली चेहरे और चरित्र को उजागर करके जनता के सामने लाने की जद्दोजहद समकालीन हिंदी कविता कर रही है।

समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर कवि एकान्त श्रीवास्तव ने अपनी कविता में सत्ता की मनमानी, तानाशाही और दमन का पर्दाफाश किया है। इस दृष्टि से उनका प्रसिद्ध कविता संकलन ‘बीज से फूल तक’ विशेष उल्लेखनीय है। प्रस्तुत संग्रह की ‘मृत्युदण्ड’, ‘विरूद्ध कथा’ और ‘ताजमहल’ कविताओं में सत्ता की तानाशाही को देखा जा सकता है। आजकल ऐसे व्यक्ति को मृत्युदण्ड दिया जाता है, जो जनतन्त्र का सपना देख रहा है। कवि लिखते है कि यहाँ जनतन्त्र सपना देखना अपराध है। इस अपराध की सजा फँसी है जो मुझे दी जा रही है। कवि कहते है कि इस धरती पहले भाव, शब्द, कंठ पैदा हुए। इसके बाद सूर्य, धरती पैदा हुई। धरती को बसानेवाले जन भी पैदा हुई हुए और फिर इस जन को सताने वाले तंत्र पैदा हुए। कवि ने ‘ताजमहल’ कविता मे सत्ता के दमनकारी रूप को उजागर किया है, “यों भी इतिहास गवाह है/ कि जो ताजमहल बनाता है/ उसके दोनों हाथ काट दिये जाते हैं”।[1] इसतरह कवि ने सत्ता के अन्याय, अत्याचार और अराजकता का अंकन किया है।

कवि कश्यप अपनी कविताओं में सत्ता की अराजकता, मनमानी, तानाशाही और भ्रष्टाचार को रेखांकित करते हैं। कवि ने अपनी कविता ‘पुलिस अधिकारी’ में पुलिस प्रशासन की असलियत को उजागर किया है। दरअसल, इधर के दिनों में पुलिस अधिकारियों के गुंडों के साथ खुले आम रिश्तें होते हैं। गुंडे के अड्डे पर पुलिस अधिकारी दारू पीते हुए दिखाई देते हैं। उनके चरित्र के दोहरे का पर्दाफाश करते हुए कवि कहते हैं कि एक ओर वे पत्रकार परिषद में हत्यारों को पकड़ने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर उनकी पत्नी अपराधियों को चाय पिलाती नजर आती हैं। पुलिस प्रशासन के अन्यायकारी व्यवहार पर टिप्पणी करते हुए कवि लिखते हैं, “बलात्कार के बाद मार दी गयी/ शहर की सबसे सुंदर लड़की को/ एक पुलिस अधिकारी जल्दी-जल्दी जला रहा था/ और दूसरा गाड़ी तथा बचे कपड़ों पर से/ रक्त वीर्य और हथेलियों के निशान मिटा रहा था/ ताकि कोई सबूत न बचे/ महाबली बलात्कारियों के खिलाफ”।[2] यह एक क्रूर यथार्थ है कि पुलिस अधिकारी पीड़ित महिला की रपट लिखने से इनकार करते हैं। कवि यह भी कहना नहीं भूलते कि कुछ अच्छे पुलिस अधिकारी भी हैं, किन्तु बाकी सर्वत्र प्रशासनिक अँधेरा है। कवि ने मदन कश्यप ने ‘छवि की चिंता’ कविता में देश की दुर्गति के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। कवि के अनुसार देश की छवि भ्रष्टाचार, जातिवाद, अपहरण, ग़रीबी, अपराध आदि के कारण खराब हो रही हैं। इसीलिए सरकार सोचने पर मजबूर थी और छवि को सुधारने के लिए योजना बना रही थी। जनता को अपनी छवि की चिंता नहीं थी। उन्हें तो दो वक़्त की रोटी जरूरी थी। सरकार ने सामाजिक न्याय का आश्वासन दिया था, लेकिन उसकी गति काफ़ी धीमी थी। दुनिया तेज दौड़ रही थी, लेकिन हमारे देश में बहुत कुछ बरसों से रुका पड़ा था। कवि लिखते हैं, “इस बेहद तेज भागती दुनिया में/ यहाँ बहुत कुछ बरसों से रुका पड़ा था/ और जो थोड़ा कुछ गतिशील था/ उसकी भी चाल ऐसी लँगड़ी थी/ कि देखते ही हँसी आ जाती थी/ जाहिरन इससे भी छवि खराब हो रही थी”।[3] यहाँ कवि ने सरकारी व्यवस्था पर सटीक टिप्पणी की है। इसी तरह मदन की ‘थोड़ा-थोड़ा’ कविता भी वर्तमान राजनीति की तीखी आलोचना करती है। इधर की राजनीति में ऐसे धूर्त लोग भी है जो अपने स्वार्थ को साधने के लिए देश में ध्रुवीकरण करते हैं। वे थोड़ा-थोड़ा हिंदुत्व और थोड़ी-थोड़ी धर्मनिरपेक्षता दिखाकर सत्ता हासिल करना चाहते हैं। कवि ने ‘भारत उदय’ कविता में देश में व्याप्त अराजकता का चित्रण किया है। कवि व्यंग्यात्मक भाषा में कहते हैं कि एक नये भारत का उदय हो रहा है जिसमें भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। उसमें भ्रष्टाचारी खुले आम घूम रहे हैं। धर्मांध होकर लोग दंगे – फ़साद कर रहे हैं। गुंडों को कोई नहीं रोक पा रहा है। इसमें चोर, दलाल और हत्यारे खुश हैं। इसी कड़ी में मदन कश्यप की ‘राहत पैकेज’ कविता सरकारी पैकेज की वास्तविकता को उजागर कर रही है। सरकार बाढ़ पीड़ित लोगों की सहायता के लिए हेलीकॉप्टर भेजती है। हेलीकॉप्टर की आवाज सुनकर लोग सचेत होते हैं और उसकी ओर भागते हैं, भले ही पंखें की तेज हवा उन्हें लाख रोकती रहे सरकारी पैकेज में चिउरा, सत्तू, चने, माचिस, मोमबत्ती, नमक आदि जरूरी चीजें होती हैं। सभी लोग भूख से बचने के लिए पैकेज लेने भागते हैं। इसमें नई दुल्हन भी है जो आसमान से गिरते पैकेटों को लपकने के लिए आँचल फैलाकर दौड़ रही है। इससे पहले उसने कभी घर की दहलीज पार नहीं की है। इसमें वह लड़की भी है जो अपने दुपट्टे को सँभालना भूल जाती है। वे बूढ़े भी है जिनके बस की बात नहीं पैकेज पकड़ना। बाढ़ हर साल आती है, लेकिन हमारी सरकार उस पर ठोस प्रबंध नहीं कर रही है। कवि के शब्दों में, “हर साल आती यह बाढ़/ और हर बार हमें अपनी नजरों में/ कुछ और गिरा जाती है/ कुछ और छोटा बना जाती है”।[4] यहाँ कवि ने सरकारी आपत्ति व्यवस्थापन प्रणाली पर टिप्पणी की है। इसतरह कवि ने वर्तमान सरकार को सवालों के कटघरे में खड़ा किया है।

सत्ता ने न्यायपालिका को काफ़ी प्रभावित किया है। न्याय को भी अपने पक्ष में कर लिया है। न्यायपालिका के जज, वकील आदि क़ानून के दायरे में काम करने के लिए मजबूर हैं। सत्ता संसद में कानून बनाती हैं। वरिष्ठ कवयित्री कात्यायनी ने ‘वकील की कविता’ में न्यायव्यवस्था की विसंगतियों को उजागर किया है। प्रस्तुत कविता में वकील अपनी मजबूरी बताते हुए कहते हैं कि हम नदी में गिरी लाश को हम न्याय नहीं दिला सकते, क्योंकि वह लावारिस होती है। हमें फीस लेकर मुकदमा लड़ना है। जज जी तो इससे भी बड़ी विडंबना है कि उसे धारा अनुच्छेद से जिंदगी तोलनी होती है। उसके हाथ न जाने कितने बेगुनाहों को सजा देकर रक्तरंजित हुए हैं। उसे अपना काम कसाई के काम जैसा लगता है। जज कहता है, “ जजी में क्या रखा है! सोचता हूँ होटलों में मुर्गे की सप्लाई करूँ/ या चमड़े के कारखाने में सुपरवाइजर हो जाऊं”।[5] इस तरह कवयित्री ने न्यायव्यवस्था को प्रश्नांकित किया है। इस दुष्समय में बुध्दिजीवी की स्थिति भी घुटन भरी है। उन्हें विखंडन का शिकार होना पड़ा है। वे चीजों को टुकड़ों – टुकड़ों में जानने को मजबूर हुए हैं।

नब्बे के बाद साम्प्रदायिकता एक प्रमुख समस्या बनकर उभरी है। देश में बाबरी मस्जिद ध्वंस की साम्प्रदायिक घटना ने समकालीन कवियों की चेतना को झकझोर दिया। कई सारे सजग कवि साम्प्रदायिकता के मुद्दें पर कविताएँ लिखने लगें। साम्प्रदायिकता के मुद्दें से ध्रुवीकरण की राजनीति ही सत्ता की असलियत रही है। सत्ता ने हमेशा से ही साम्प्रदायिकता का सबसे कारगर हाथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। साम्प्रदायिकता की भावना को भड़काकर सत्ता समाज में विभाजन करती रही है। साम्प्रदायिक सरकारें दंगें – फसाद करके समाज में अशांति फैलाती हैं। ऐसी सरकारें आस्था को बचाये रखते हैं, क्योंकि आस्था में तर्क को कोई स्थान नहीं होता। कात्यायनी की ‘आस्था का प्रश्न’ यह कविता आस्था की राजनीति का पर्दाफाश कर रही है। ऐसी राजनीतिक सरकारें लोगों से कह रही हैं कि यदि इस देश में रहना चाहते हो, तो आस्थावान बनों। ऐसे अतिरेकी विचार उनके राजनीतिक हितों से प्रेरित होते हैं। कात्यायनी रामराज्य की राजनीति का भी भंडाफोड़ करती हैं। रामराज्य में वोट की राजनीति हैं। साम्प्रदायिक सरकारें अपने वोट बैंक को ही इस देश में रखना चाहती है। जो उनके साथ नहीं है, उनके साथ वह कैसे व्यवहार कर रही है देखें – “संदेह करने वालों को उम्रकैद/ तर्क करने वालों को फाँसी/ अल्पमत पर बहुमत का धर्मराज्य/ नास्तिकों को सूली”।[6] जाहिर है कि ऐसी फांसीवादी ताकतें लोकतंत्र के लिए घातक है। धर्म के ठेकेदार भी धर्म का उपयोग अपने स्वार्थसिद्धि के लिए खुले आम कर रहे हैं। कात्यायनी ने अपनी कविता ‘क्या स्थगित कर दे’ कविता में इन स्थितियों पर प्रकाश डाला है। प्रस्तुत कविता में साध्वियों के उन्मुक्त भाषणों का और शंकराचार्य के ध्वजधारी बनने का संदर्भ मिलता है। इसतरह साम्प्रदायिकता के दुष्प्रभाव को कवयित्री अपनी कविताओं में रेखांकित करती हैं।

कवि लीलाधर मंडलोई साम्प्रदायिक ताकतों की विभाजनकरी रणनीति से अच्छी तरह से वाकिफ़ है। कवि के अनुसार ऐसी ताकतें देश का सबसे बड़ा नुकसान कर रही है। कवि ने अपनी कविता ‘सोते में जागते हुए’ में साम्प्रदायिकता का बीभत्स चेहरा उजागर किया है। साम्प्रदायिकता कवि के लेखन पर आक्रमण कर रहा है। मंडलोई ने ‘ईश्वर की शिकस्त’ कविता में धर्मांधता पर कड़ा प्रहार किया है। कवि के अनुसार साम्प्रदायिकता रामराज्य के प्रचार- प्रसार में लगी है, जबकि देश में बच्चे भूखे है। वे रोटी के लिए तरस रहे है। यह इस देश की विड़म्बना है कि यहाँ धर्म की दहशत फैल रही है। इसी तरह कवि ‘अनुपस्थिति’ शीर्षक कविता में धर्म और राजनीति के अपराधीकरण का पर्दाफाश किया है; “मुझे होना चाहिए था संसद में/ मेरी अनुपस्थिति से अब वहाँ अपराधी/ अनुपस्थिति का शाप इतना भयानक/ मन्दिर में इन दोनों कब्जा शैतानों का”।[7] कवि धर्म और राजनीति की मिलीभगत को प्रकाशित करते है। इसीलिए कवि को कबीर का स्मरण हुआ है। कबीर ने ऐसी साम्प्रदायिक शक्तियों के मनसूबे जान लिये थे। उन्होंने साम्प्रदायिकता का डटकर विरोध किया। कवि कहते है कि हमें कबीर की बातों को सूनना चाहिए। हमें आस्था को साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों से निकालना चाहिए। आस्था पर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए। यही भावना कवि ने अपनी कविताओं में प्रकट की है।

भगवत रावत जी जानते है कि समाज में विभाजन करनेवाली कुछ ताकतें मौजूद है। ऐसी ताकतें धर्म एवं जाति के नाम पर समाज का विघटन कर रही है। इसलिए कवि ने साम्प्रदायिकता को अपनी कविता की वस्तु बनाया है। उनकी ‘सुनहू पवनसुत रहिन हमारी’, आपने भी तो, मैं सन सैंतालिस या उसके बाद पैदा नहीं हुआ, इन दिनों आदि कविता में साम्प्रदायिकता पर टिप्पणी की गई है। कवि के अनुसार गुजरात दंगे के बाद हमारे देश में मंदिरों की संख्या बढ़ती गई है। कवि के घर के सामने – पीछे, दाएँ – बायें मोड पर मंदिर ही मंदिर बन गए है। मंदिर पर सुबह से लेकर देर रात तक लाऊडस्पीकर बजता रहता है। कवि को यह धर्मांधता लगती है। बाबरी मस्जिद का ठहाना धर्मांधता का उदाहरण है। कवि ने आयोध्या शहर को हिन्दुत्व का प्रतीक माना है। कवि ने भारत और पाकिस्तान के विभाजन को भी अपनी कविता में संदर्भित किया है। यह सभी विघटन साम्प्रदायिकता की देन है। कवि साम्प्रदायिकता पर व्यंग्य करते हुए कहते है, “मैं मुसलमान नहीं हूँ/ इन दिनों खुश होने के लिए/ यह क्या/ कोई कम बात है”।[8] जाहिर है कि साप्रदायिकता ने हमारे देश का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। समाज में कुछ कट्टर संगठन अपने स्वार्थ के लिए धर्म का गलत इस्तेमाल करते है। लोगों में धर्म के नाम से नफरत फैलाते है। इससे समाज में साम्प्रदायिक दंगे होते है। कवि इससे अच्छी तरह वाकिफ है। इसीलिए वह मानव धर्म का समर्थन करता है। भगवत रावत ने समाज में फैली अशांतता के प्रति भी चिंता व्यक्त की है। कवि के अनुसार पहले दुनिया शांत थी, लेकिन अब यहाँ लाऊडस्पीकर, आवाजाही, धौंस – धपर बढ़ रही है। वे अपनी ‘इसके पहले’ कविता में लिखते है: “इतने-इतने संत इतने उपदेश/ इतनी कथा वार्ताएँ, इतने गौरव गान/ इतना गाली-गलौज/ इतना धरम-ईमान/ इससे पहले तो कभी हुआ नहीं”।[9] प्रस्तुत कविता में धर्म में बढ़़ते आडम्बर का चित्रण है। धर्म ने बाहरी दिखावटी रूप धारण किया है। इसमें भक्ति कम और शोर – शराबा ज्यादा है। बौद्ध धर्म को शांति का प्रतीक माना जाता है, लेकिन उसका पतन हो रहा है। कवि रावत जी ‘हुआ तो वही’ कविता में शांति के प्रतीक बौद्ध धर्म के पतन की व्यथा प्रकट की है। कवि कहते है कि मुझे पता नहीं है कि महात्मा बुद्ध ने कभी कहा होगा संघ के जीवन की यह विडम्बना होगी कि उसमें धर्म के विनाशक के हाथ में धर्म का ध्वज होगा। निश्चित ही कवि शांति में सेंध लगानेवालों की तीखी आलोचना करते है। धर्म का विनाश, सांप्रदायिकता बढ़ना, समाज में अशांति आदि समाज के विकास में बाधक है।

कवि अरूण कमल ने साम्प्रदायिकता के दुष्परिणाम को अपनी कविताओं में अधोरेखित किया है। कवि ने पाकिस्तान की धरती पर खड़े होकर अनुभव किया कि साम्प्रदायिता ने दोनों देशों का कितना नुकसान किया है। उनकी ‘दूसरा आँगन’ कविता साम्प्रदायिकता के जन विरोधी चेहरे की परिचय कराती है। प्रस्तुत कविता में कवि ने आठ उपशीर्षकों के अंतर्गत साम्प्रदायिता के परिणामों का चित्रण किया है। ‘जब तुम किसी के करीब आते हो’ उपशीर्षक में कवि नफ़रत फैलानेवाले व्यक्ति को संबोधित कर रहे है। कवि कहते है कि यदि तुम लोगों को धर्म, जाति या देश से जानते हो तो उनमे आसानी से नफ़रत फैला सकते हो। लेकिन तुम्हने यदि उनके करब जाकर देखा तो पता चलेगा कि वे कितने दीन है। तुम्हारे लिए चाय बनाने के लिए उन्हें कितनी मशक्कत करनी पड़ती है। वे कर्ज में दुबे हुए है। इस वास्तविकता को देखकर तुम अपना चाक़ू आस्तीन में खोंसकर वापस आते हो। साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा उदाहरण भारत – पाकिस्तान का विभाजन रहा है। कवि ने ‘दोस्ती’ उपशीर्षक में देश विभाजन की त्रासदी को व्यक्त किया है। भारत – पाक विभाजन के समय कई लोगों को जेल जाना पड़ा था। कवि कहते है कि जिस मुल्क ने आपको पंद्रह साल तक जेल में रखा ,उस मुल्क के आदमी से मिलकर तुम्हें कैसा लगेगा? कवि पाकिस्तान में बशीर भाई से मिले और उनके साथ कई शामें बिताई। उनसे मिलकर कवि को अपराध बोध हुआ। कवि को लगा कि कहीं जेल में कैद मछुआरे,चरवाहे,बंजारे नौजवान के लिए वह तो जिम्मेदार नहीं है? जाहिर है कि साम्प्रदायिकता के शिकार न जाने कितने निर्दोष लोग होते रहे है। ‘शाम को इंतजार’ उपशीर्षक में बिदेस में शाम वर्णन किया है। ‘अनारकली’ उपशीर्षक में शाम के समय सड़क को दस्तरख्वान में बदलते देखा है। कवि को लगता है कि कितना अच्छा होता अगर दुनिया की हर सड़क हर चौक शाम ढलते दस्तरख्वान बन जाए। ‘मैंने लाहौर में एक तोता देखा’ उपशीर्षक में लाहौर के तोते का चित्रण है। कवि को यहाँ के तोते और वहाँ के तोते में समानधर्मिता दिखाई देती है।वह दिखने में एक जैसा था।कवि कहते है कि तोते की कोई जाति या धर्म नहीं होता। “ पर एक बात जो खास लगी वो ये कि/ यहाँ भी वह लोहे के पिंजड़े में बंद था जैसे वहाँ/ और यहाँ भी वो पिंजड़ा काटने की मुहीम में जुदा था जैसे वहाँ”।[10] अरूण कमल ने ‘बिदेस’ उपशीर्षक में देस – बिदेस की तुलना की है। कवि कहते है कि ये कैसा बिदेस है जो देस जैसा लग रहा है कवि को वहाँ कोई भी अजनबी की तरह नहीं देखता। ‘मातृभूमि पर प्यार’ उपशीर्षक में कवि को मातृभूमि पर प्यार उस समय आया जब उसने बाघा सीमा पर झंडे उतरते की परेड में इधर के स्टैंड से अपनी धरती देखी। ‘ जिसने लाहौर देखा’ उपशीर्षक में कवि ने लाहौर शहर का गुणगान किया है। ‘जिंदाबाद’ उपशीर्षक में कवि कहते है कि लोग शहीद भगतसिंह को लाहौर में भूल गये। कवि को दर लगता है कि कल अपने देश में भी ऐसा हो! इसतरह कवि ने जहाँ एक ओर साम्प्रदायिकता का घिनौना चेहरा उजागर किया है, वहीं दूसरी और विश्व मानवता का पुरस्कार किया है।

कवि चेतनक्रान्ति ने भी 2002 ई.में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगे को अपनी कविता की अंतर्वस्तु बनाया है। ‘शोकनाच’ काव्य संग्रह में ‘हत्यारे साधु जाएँ हत्या करने मेरा यह शाप लेकर’ कविता उन साधुओं पर चेतन ने लिखी है जो तथाकथित दंगे के लिए जिम्मेदार थे। ऐसे धर्म के कट्टर साधुओं को कवि अभिशाप देता है। इन साधुओं ने नरसंहार करके अपने धर्म को खो दिया। ऐसे साधुओं का क्षय हो ये पाताल में जाए , इनकी आत्माओं को कष्ट मिले। इन साधुओं को लाशें दिखाते हुए कवि कहते है कि इनका तुम भोग करो। फिलहाल यह जनतन्त्र तुम्हारा है। शक्ति, सत्ता और पूँजी तुम्हारे पास है । उसका तुम मनचाहा उपयोग करो। राम को छोडकर सबकुछ तुम्हारा है। इस तरह अमानवीय, हिंसा, अत्याचार, हत्या आदि करने का शाप कवि साधुओं को देते है। चेतन की ‘कविता के अंधेरे वक्तों की बानगी’ कविता में भी धर्मान्ध युवकों का चित्रण हुआ है। इन युवाओं के मन में हिंदू धर्म का दंभ है। वह अपने आपको हिन्दू होने का गर्व करते है।उनके लिए धर्म सबसे पहले है, बाद में सब कुछ ,”हमारे मुहल्ले की पास वाली बस्ती में/ एक दिन उन्होंने कसम खाई थी/ कि सबसे पहले धर्म /उसके बाद राष्ट्र उसके बाद/ सेहत और उसके बाद कुछ नहीं।”।[11] इस तरह की प्रवृत्ति देश की अखण्डता को बाधक है। भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है। इसमें सभी धर्म समान है। चेतन ने श्रद्धा, ईर्ष्या, भक्त,ईश्वर आदि धार्मिक शब्दों पर भी कविताएँ लिखी है। कवि के अनुसार श्रद्धा का अनुकरण हो रहा है। हमारे पूर्वजों ने हमें श्रद्धा का जो रूप दिया था,उसका अनुकरण हम आनेवाली पीढ़ी को देंगे। हम अपने उत्तराधिकारी को कम मेहनत में सुविधा देंगे। उन्हें अनुकरण का घोर अनुकरण सिखाएँगें। इस तरह हम श्रद्धा को खोते से जा रहे है। धर्म का अस्तित्त्व डर पर आधारित है।  इसका प्रतिपादन चेतन की ‘भगवान का भक्त’ कविता करती है। इसीलिए कवि ने ईश्वर से डरने का फैसला किया। बिल्ली के अँगडाई लेने से, तीसरी आँख के कैमरो से और डरवानी आवाजों से कवि को कुछ नहीं होता, तो वह भगवान का आभार व्यक्त करता है। इसतरह चेतन ने धर्म,संप्रदाय और आस्था के यथार्थ को अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है।

कवि राजेश जोशी की कविता में साम्प्रदायिकता के शिकार बने लोगों का मार्मिक चित्रण है।उनकी ‘रफ़ीक मास्टर साहब’ कविता में मास्टर जी का भावनिक स्मरण है। रफ़ीक मास्टर साहब बानवे के दंगे में मारे गये।वे कवि को बिरजीसिया मीडिल स्कूल में गणित पढ़ाते थे।उनकी एक कागज के फूलों की दुकान थी।उन्होंने कवि को कागज के फूल बनाने की तरकीबें के बारे में सिखाया। कवि को आज भी लोहा बाज़ार में रफ़ीक मास्टर साहब और कागज के फूलों की दुकान दिखाई देती है। राजेश की ‘टॉमस मोर’ कविता भी साम्प्रदायिक क्रूरता और निर्दयता का चित्रण करती है।प्रस्तुत कविता में टॉमस मोर का आत्मवृत्त है। टॉमस मोर को धर्मान्ध ताकतों ने मृत्युदण्ड देकर उनका सिर काटकर उन्हें लंदन ब्रिज पर लटका दिया। उनका अपराध देखिए – ”उन्होंने कहा कि मैं राजसत्ता और धर्म के सम्बन्धों का/ विरोध करना बंद कर दूँ/ मैंने इंकार कर दिया/ वो चाहते थे कि मैं राजा को धर्मसभा का अध्यक्ष मान लूँ/ मैंने इंकार कर दिया”।[12] इस तरह टॉमस मोर को अधीनता न स्वीकार करने की सजा मिली। साम्प्रदायिक कट्टरता के इस दुष्यचरित्र कवि ‘पागल’ कविता में उजागर किया है। ऐसे कट्टर लोग सभी को धर्म में बाँटकर देखते है। तभी तो वह एक पागल लड़की से उनका धर्म पूछते है। किसी के बताने पर कि वह पागल है, क्यों वे नहीं मानते। वे बार-बार उसे हिंदू हो या मुसलमान पूछते रहते है। इस पर लड़की जोर-जोर हँस पड़ती है। कवि के अनुसार वे नहीं सोचते कि हर व्यक्ति पहले मनुष्य है। धर्म के ठेकेदार लोगों में साम्प्रदायिक नफरत फैलाकर अपना उल्लू ठीक करवाते है। लोगों को बांटकर दंगे करने में उनका हित छिपा है। इसका पर्दाफाश राजेश की कविता में किया गया है।

समकालीन हिंदी कविता उन तमाम सत्ता, साम्प्रदायिकता और ध्रुवीकरण की राजनीति का प्रतिरोध करती है, जो लोक की दुर्गति, दुर्दशा और अविकास के लिए कारण बनी हुई है। कवि बद्रीनारायण के ‘शब्दपदीयम्’ कविता संकलन की अधिकांश कविताओं में सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज किया गया है। कवि के कहते है कि मौजूदा समय में सत्ता ने प्रतिरोध को खत्म करने का बीड़ा उड़ाया है। कवि ने ‘सोचनेवाला आदमी’ कविता में लिखा है, “बात राज्य के गुप्तचर विभाग तक पहुँच गई है/ उन्हें सख्त आदेश है कि पता लगाये/ कौन ऐसे लोगों को ऐसे शब्द/ सप्लाई कर रहा है/ जिससे सृष्टि का जोड़ गड़बड़ा रहा है”।[13] इतना ही नहीं सत्ता प्रतिरोध को दबाने के लिए क्या करना चाहती है; “शब्दों पर लागू हो कोटा – परमिट/ कितना शब्द किसको और कहाँ मिले/ यह राज्य तय करें”।[14] कवि ने ऐसी राज्य संस्था का धिक्कार किया है जो लोगों के खिलाफ़ षडयन्त्र रच रही है। कवि बद्री नारायण की ‘धत् तेरी दिल्ली की’ कविता में यह स्वर सुनाई देता है। आज़ादी के कई सालों बाद भी आम आदमी की स्थिति में सुधार नहीं हुआ। दिल्ली केवल कुछ पूँजीपतियों के विकास का केंद्र बन गई। इसलिए कवि ने दिल्ली को नकारा है। जीतेन्द्र गुप्ता के शब्दों में, “राजनीतिक तौर पर भी स्वतंत्र भारत के 60 वर्षों का अनुभव कहीं से भी कोई सुखद नहीं रहा है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि तो होते है, लेकिन जनता के नहीं। देश की सर्वोच्च संस्था, जिसकी स्वतन्त्रता व स्वायत्त्तता के लिए न जाने कितना खून बहा, कितना परिश्रम किया – उसके गौरव को भी नष्ट कर दिया गया। राजनीतिक नेताओं के कुख्यात षडयन्त्रों के सामने आने के बाद संसद की गरिमा ही क्या रह गई है? संसद  दलालों की खरीद – फरोद मंडी हो गई है”।[15] इसीलिए कवि बद्री नारायण जैसा कवि संसद को धिक्कार रहा है- “बड़ा नाज है/ लो धत् तेरी संसद की”।[16] राजनीति का इससे बड़ा और क्या प्रतिरोध हो सकता है! कवि ने विकास की अवधारणा पर भी हल्ला बोल दिया है। इसीलिए वे विकास के खिलाफ करूणा पाठ कर रहे है, “आधी रात में मैं करना चाहता हूँ/ एक रुलाई का पाठ/ जो शहर की सड़क पर/ उसके वैभव के खिलाफ रोई जा रही हो”।[17] यहाँ रूलाई का निहितार्थ प्रतिरोध है। उपर्युक्त पंक्ति को जीतेन्द्र गुप्ता ने एक आरंभ बिंदु माना है। यहाँ कवि ने सभ्यता के विकास की आलोचना की है। ‘”कवि का रूदन उस सारी अभिजात परंपरा के खिलाफ है, जिसमें स्वार्थगत आधारों पर एक खास वर्ण के सदस्यों ने समाज के बहुसंख्यक हिस्से का निरंतर शोषण किया है और इस शोषण की भौतिक अभिव्यक्ति ‘शहर का वैभव’ है”।[18] कवि ने असफल प्रतिरोध को भी अपनी कविता में स्थान दिया है । उन्होंने ‘कोई ऋषि नहीं,यह कुत्ता लिख रहा है’ कविता में एक बेसहारा औरत के संघर्ष को रेखांकित किया। इस औरत का परिवार दंगे का शिकार हुआ है। वह अपने परिवार को लेकर कलकत्ता भाग जाना चाहता है, लेकिन उसका परिवार इस दुनिया में नहीं है।उसकी चिल्लाहट कोई नहीं सुन रहा। उसे लाइटमैन डाटता है। तभी एक कुत्ते की आँख में आँसू आते है। यहाँ जानवरों में संवेदना बची है, आदमियों में नहीं। कवि बद्री नारायण ने छोटे – छोटे प्रतिरोध को कमजोर कहा है। उन्हें किसी बड़े प्रतिरोध की अपेक्षा है। कवि ने ‘छोटी छोटी इच्छाएँ ‘ कविता में कहा है कि मैंने कुछ कविता लिखकर प्रतिरोध करने की इच्छा को साध लिया है, लेकिन ऐसे प्रतिरोध से मुझे धिक्कार है। कवि को लगता है कि मौजूदा समय में प्रतिरोध का विजय होना मुश्किल है। इस तरह कवि बद्री नारायण ने ‘प्रतिरोध’ अपनी कविता में सर्वाधिक स्पेस दिया है। प्रतिरोध के दोनों पक्षों को विस्तार से प्रतिपादित किया है। इसमें मौजूदा समय की सत्ता और व्यवस्था की निर्ममता, क्रूरता और भयावहता का दर्शन होता है। ऐसे में सामूहिक प्रतिरोध की जरूरत होती है। सामूहिक प्रतिरोध से ही हम बहुसंख्यक लोक जीवन को बचा सकते है।

कुलमिलाकर कहा जा सकता है कि सत्ता के चेहरे और चरित्र में दोगुलापन मौजूद रहा है। बाहर से भले ही उसका चेहरा जनहितकारी दीखता हो, किन्तु भीतर से वह निजी स्वार्थों में लिप्त रहती है। उसके चरित्र में अनैतिकता, भ्रष्टाचार और शोषण का दाग लगा हुआ है। वह अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किसी भी हद नीचे गिर सकती है और साम्प्रदायिकता और ध्रुवीकरण की राजनीति से समाज को विखंडित करके राज करती है। विडंबना यह है है कि वह जनता से शक्ति प्राप्त करके उसी शक्ति का इस्तेमाल जन विरोधी गतिविधियों में बड़ी चालाखी से करती है। जरूरत है कि ऐसी सत्ता के चेहरे और चरित्र पहचान करके उसे उखाड़ फेंककर सार्वजनिक लोकतंत्र की स्थापना करने की।

निष्कर्ष:

1 ‘सत्ता’ शब्द अपने निहितार्थ में सर्वोच्च शक्ति को समाहित करता है। वह जीवन के सभी क्षेत्रों को नियंत्रित एवं संचालित करता है।

2 समकालीन हिंदी कविता सत्ता की दमनकारी नीतियों का पर्दाफाश करती है। इन कविताओं में सत्ता की मनमानी और तानाशाही सटीक चित्रण मिलता है।

3 समकालीन कविता वर्तमान राजनीति की तीखी आलोचना करती है। आजकल राजनीति में लोग अपने स्वार्थ को साध्य करने के लिए समाज का ध्रुवीकरण करते है।

4 सत्ता ने न्यायपालिका को बहुत प्रभावित किया है और न्याय को अपने पक्ष में कर लिया है। समकालीन कविता न्यायव्यवस्था की मज़बूरी, कमजोरी और विसंगतियों को उजागर करती है।

5 समकालीन कविता सांप्रदायिकता की समस्या को प्रमुखता से उठाती है। सांप्रदायिकता के दुष्परिणामों चित्रण समकालीन कवियों ने अपनी कविताओं में विशेष रूप में किया है।

6 समकालीन हिंदी कविता ऐसी सत्ता का प्रतिरोध करती है, जो सांप्रदायिकता का इस्तेमाल ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए करती है।

7 समकालीन कविता ‘कल्याणकारी राज्य’ की मनोकामना करती है।

संदर्भ

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कात्यायनी, इस पौरुषपूर्ण समय में, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 1999

लीलाधर मंडलोई, काल बाँका तिरछा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2004

भगवत रावत, ऐसी कैसी नींद, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2004

अरुण कमल, मैं वह शंख महाशंख, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली,प्रथम संस्करण 2012

आर.चेतनक्रान्ति, शोकनाच, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2004

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पक्षधर,पृ. 135, वर्ष- 3, अंक -8

 

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