समय की रोशनी में खिलता जीवन का चेहरा
समीक्षक: राहुल देव
‘पीठ पर रोशनी’ युवा कवि नीरज नीर का दूसरा कविता संग्रह है जिसे मुंबई के प्रलेक प्रकाशन ने सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया है। संग्रह की शुरुआत में ही कवि अपनी काव्यप्रक्रिया के बारे में स्पष्ट कर देता है, ‘मेरी कवितायेँ मेरे नितांत निजी अनुभवों, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हैं, जो व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख होने का प्रयत्न करती है।’ वह ईमानदारी के साथ आगे कहता है, ‘मेरे लिए मेरी कवितायेँ उदासियों के अँधेरे घेरे से बाहर उजाले में निकलने की जीवंत कोशिश है।’ कवि की यह साफगोई आगे उसकी कविताओं में भी साफ़ झलकती है।
इस कविता संग्रह की कविताओं को पांच भागों में बांटा गया है- आग की कवितायेँ, पानी की कवितायेँ, वायु की कवितायेँ, आकाश की कवितायेँ, क्षितिज की कवितायेँ जोकि कहीं न कहीं जीवन के लिए आवश्यक पंच महाभूतों- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा को प्रदर्शित करती हैं। यह सारे खंड कहीं न कहीं एक दूसरे से माला के मोतियों जैसे जुड़े हुए से प्रतीत होते हैं। कवि ने बड़ी कुशलता से इन्हें कविता की शक्ल दे दी है।
नीरज नीर के इस नए संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए अक्सर स्मृतियों के बियाबान का सन्नाटा अपना मौन तोड़ता नज़र आता है। उसकी चिंताओं में मनुष्य की मनुष्यता को बचाया जाना हरदम शामिल रहा है। जैसे वर्ग वैषम्य को दर्शाती ‘अलग-अलग चिंताएं’ शीर्षक कविता। प्रेम, मानवीय रिश्ते और भावनाएं, जीवन जगत और प्रकृति जगत के कुछ सुलगते हुए प्रश्न हमारे समकालीन सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने का सहज विश्लेषण करते हैं। अपनी ‘बाज़ार’ शीर्षक कविता में कवि बाजारवाद की भयावहता को लक्ष्य करते हुए मानो हमें चेतावनी देते हुए सा कहता है, ‘बाज़ार ने पैदा की है/ नई नस्ल/ जो स्वयं बाज़ार से दूर रहकर/ बाज़ार को पहुंचा रहा है/ हमारे घरों के अन्दर’। आगे संग्रह की ‘भूख और युद्ध’ शीर्षक कविता में नीरज लिखते हैं, ‘हम जिस दिन समझ जायेंगें/ भूख, युद्ध से बड़ी चुनौती है/ समाप्त हो जायेगा/ युद्ध का भय’।
संग्रह में स्त्री को लेकर कुछ बेहतरीन कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं। हालाँकि इसके बावजूद संग्रह में कुछ औसत कविताएँ भी शामिल हैं। आदिवासी विमर्श की अधिकांश कविताओं को पढ़ते हुए एक सामान्य विसंगति मुझे अक्सर देखने को मिलती है वह है विकास की दुहाई देते हुए विकास कार्यो को कोसने की प्रवृत्ति। इस कंट्राडिक्शन से नीरज भी नही बच सके हैं। संग्रह की ‘जंगल का विकास वाया सड़क’ तथा ‘पीठ पर रोशनी’ शीर्षक कविता ऐसी ही है। ‘पीठ पर रोशनी’ के पहले पैरा और अंतिम पैरा पढ़कर मेरी बात की पुष्टि की जा सकती है। शायद नक्सल समस्या को क्रांतिकारिता की इकहरी दृष्टि से देखने के कारण हमारे साहित्यकार इसके दूसरे पक्ष से सर्वथा अनभिज्ञ नज़र आते हैं।
इसके बावजूद कवि नीर की काव्य कहन-शैली बिलकुल भी कठिन नही है। कविता में भाषा की कूट रचना कवि को कतई पसंद नही। अपने भाव-भाषा-शिल्प में वे स्वयंसिद्ध होती हैं। विचार और भाव का सुन्दर समन्वय इन कविताओं की विशेषता है। अपनी ‘चिड़ियाँ और शिकारी’ शीर्षक कविता में कवि कहता है- ‘तोप से नही बरसेंगें फूल/ तोप के मुँह में घोंसला बना लेने से,/ तोप नहीं समझता है/ प्रेम की भाषा…’। संग्रह की अन्य उल्लेखनीय कविताओं की बात करूँ तो उनमे ‘बन्दर हांक रहा शेरों को’, ‘मीडिया’, ‘सीखना आदमी से’, ‘खून का स्वाद’, ‘मतलब’, ‘महानगर’, ‘आज़ादी’, ‘भक्ति’, ‘हत्यारे’ का नाम लिया जा सकता है।
अपनी ‘शह के बात मात’ शीर्षक कविता में कवि मनुष्यद्रोहियों को चेतावनी देते हुए कहता है, ‘शहर में आग लगाने से पूर्व/ देख लीजिये/ आपका घर शहर के बीचो-बीच तो नही।’ यह पंक्तियाँ पढ़कर राहत इन्दौरी का चर्चित शेर याद आता है कि, ‘लगेगी आग तो आयेंगें सभी ज़द में/ यहाँ पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।’ तो वहीँ रोने की कला नामक कविता में वह तल्ख होकर कह उठता है, ‘हत्यारे रोने की कला में/ माहिर होते हैं’।
नीरज नीर हिंदी कविता के उन युवा हस्ताक्षरों में हैं जिन्हें अभी लम्बी यात्रा तय करनी है। उनके कविता संग्रह की इन कविताओं में हमारा समकालीन समय सांस लेता हुआ हमेशा जिंदा मिलता है। इस कविता संग्रह का हिंदी के कविता प्रान्त में खुलकर स्वागत किया जाना चाहिए।
पीठ पर रोशनी/ कविता संग्रह/ नीरज नीर/ प्रलेक प्रकाशन, मुंबई/ 2021/ पृष्ठ 152/ मूल्य 200/-