नाच्यो बहुत गोपाल
‘नाच्यो बहुत गोपाल’ साहित्यकार अमृतलाल नागर द्वारा लिखित उपन्यास है। इसे राजपाल एंड सन्स, दिल्ली द्वारा सन् 2010 में प्रकाशित किया गया है। इसमें एक मेहतर (अछूत जाति) या ब्राह्मणी के मेहतर बनने के जीवन की सम्पूर्ण कथा को चित्रित किया गया है। इसमें समाज के संरचनागत ढांचे से सामाजिक-आर्थिक-मनोवैज्ञानिक और न-जाने कितने पक्षों में मिले यातनाओं व उपेक्षाओं का वर्णन किया गया है। अमृतलाल नागर के इस उपन्यास को पढ़ने से निःसन्देह यह कहा जा सकता है कि वे साहित्य जगत के मूर्धन्य व यशस्वी साहित्यकारों में से एक हैं। उनकी लेखन शैली इतनी प्रभावी है मानो लगता है कि यह पूरा घटनाक्रम आँखों के सामने ही घटित हो रहा हो। अमृतलाल नागर के अन्य उपन्यास भी अपने-आप में एक अनूठी लिए हुये हैं। ‘बूँद और समुद्र’, ‘अमृत और विष’, ‘मानस का हंस’ तथा ‘खंजन नयन’ ने उन्हें हिन्दी-साहित्य जगत का महत्वपूर्ण स्तम्भ बना दिया।
इस उपन्यास की रूप-रेखा तैयार होने में ढाई से तीन सालों का समय लग गया। इसमें उन्होने उपन्यास लिखने की प्रेरणा के बारे में भी लिखा है। उन्होने एक कथा सुनी थी कि एक धनी ब्राह्मण की पत्नी एक मेहतर युवक के साथ भाग गयी थी और वह अपने साथ काफी सारे गहने-जेवरात भी लेकर भागी थी। दो दिन बाद ही वह अपने प्रेमी सहित पकड़ी भी गयी थी। इस संबंध में उपन्यासकार को कोई अन्य जानकारी प्राप्त न हो सकी और उसकी जिज्ञासा व कल्पना इस उपन्यास के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत हुई। इसके लिए अमृतलाल नागर ने कई मेहतरों के इंटरव्यू भी लिए और इसमें उनके प्रति आभार भी प्रकट किया गया है।
यूं तो ये कहानी निर्गुण की है, उसकी संवेदनाओं की है, उसके यातनाओं की है जो की उसके महिला मात्र होने पर अमानवीय अत्याचारों को बखूबी बयान करती है पर साथ ही साथ एक और पक्ष भी रहता है जो कि जाति और उसके संस्तरण से संबन्धित है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसी संस्तरण के आधार पर नायिका के जीवन में बदलाव लगातार होते रहे और उसकी प्रस्थिति भी समाज में परिवर्तित होती रही। वह कैसे ब्राह्मण से मेहतर तक के सफर को तय करती है और उसके इस सफर के दौरान यह खोखली जाति व्यवस्था भी अपने रूप को बदलते रहती है।
यह कहानी कई खण्डों में चलती रहती है। कभी साहित्यकार और निर्गुण के संवाद तो कभी निर्गुण के अतीत के जीवन से संबन्धित संवाद चलते रहते हैं। साहित्यकार की लेखन शैली के प्रवाह ने इन किरदारों व उनके भाव-आवेश को जीवंत कर देने सा प्रयास किया है। इस कहानी के मूल में है निर्गुण जो की एक ब्राह्मणी हैं। निर्गुण का जन्म संवत् 1962 में एक ऊंचे ब्राह्मण कुल में हुआ था। निर्गुण का पालन-पोषण उनके नाना-नानी के यहाँ हुआ। नाना-नानी के गुजर जाने के बाद निर्गुण के पिता उसे अपने साथ हवेली ले गए जहां वे मालकिन के रखैल थे। यहीं से निर्गुण के जीवन के उतार-चढ़ाव का सिलसिला जारी होता है। उस हवेली का माहौल बहुत गंदा था वहाँ रहने वाले सभी अपने-अपने स्तर पर अश्लीलता में लिप्त रहते थे। इस अश्लीलता ने निर्गुण को भी अपने आगोश में ले लिया। उसका जीवन एक पहेली बन चुका था जिसे सुलझाने के लिए तो सभी तैयार थे लिकिन वे उसे और भी उलझा ही जाते थे, चाहे वह अम्मां (हवेली की मालकिन) हों या नौकर खड़गबहादुर हो या बबुआ सरकार हों या मास्टर बसन्तलाल हों। सभी ने उसके साथ अपने-अपने स्वार्थ साध रखे थे। इनमें से बसन्तलाल मास्टर ही एक ऐसा किरदार था जो कि उसके प्रति कुछ सचेत था पर आगे चलकर वह भी पतित ही हो गया। इसी बीच वह बबुआ सरकार से गर्भवती होती है और उसके गर्भ को नष्ट किया जाता है। बबुआ सरकार के साथ प्रेम-प्रसंग में निकटता देखकर मालकिन ने उसका विवाह 75 साल के बूढ़े मसुरियादिन ब्राह्मण से करा दिया। वह निर्गुण को चारदीवारी में कैद रखता था और बूढ़े हो जाने के कारण निर्गुण की यौन-इच्छाओं को तृप्त भी करने में असंतुष्ट था। एक मेहतरानी आती थी जो मल-मूत्र साफ करती थी और उसी से निर्गुण बात किया करती थी। निर्गुण और बाहरी समाज के बीच वह एक माध्यम के रूप में थी। फिर मेहतरानी के छुट्टी पर जाने के एवज में उसका बेटा मोहन घर साफ-सफाई के लिए आने लगा। जिसे देखकर निर्गुण का यौवन जाग उठा। उसने जात-पात के बंधनों को तोड़ दिया और उसके साथ भाग गई। मोहन की माँ के दुत्कार देने के बाद वे मोहन के मामा-मामी के पास गए। वहाँ उसके मामा ने तो किसी तरह उसे स्वीकार लिया पर मामी के मन में उसके प्रति द्वेष की भावना सदा ही बनी रही। उससे जितना बन सका उसने निर्गुण (जो अब निरगुनिया बन चुकी थी) को सताया, कष्ट दिये, उत्पीड़न किए। शुरू-शुरू में तो मोहन ने भी मामी का साथ दिया और उसके कुकृत्यों में बराबर का भागी बना रहा। बाद में उसने इसका विरोध किया और अपनी मामी को खरी-खोटी भी सुनाई। निरगुनिया के मस्तिष्क में एक अलग ही द्वंद चल रहा था ब्राह्मणी और मेहतरानी का। वह मोहन के साथ रहकर मेहतरानी तो बन चुकी थी पर अन्तर्मन से अभी भी ब्राह्मणी ही थी। पर कब तक? लेखक के पुछने पर निरगुनिया बोलती हैं “मार से भूत भाग जाता है। फिर मन के ब्राह्मणपन की भला क्या विसात?” (नागर, 2010, 89)
मोहना कप्तान जैक्सन के बैंड में काम करता था और दोनों का संबंध भी घनिष्ठ था। बैंड में एक नया लड़का आता है-माशूक हुसैन। जो पहले वहीदा डाकू के गिरोह में था। वह एक भरे पूरे बदन का आकर्षक लड़का था। जैक्सन ने हुसैन को ईसाई बनाया और उसे नया नाम दिया डेविड। डेविड के प्रति जैक्सन को अपार प्रेम था परंतु यह प्रेम मोहना से उसके संबंध को भेद नहीं पाया। यद्यपि इसका प्रयास तो डेविड ने बहुत किया। जैक्सन ईसाई बनाने का काम भी किया करता था और उसने मोहना और उसकी बीवी (निरगुनिया) को भी यह सलाह दी। निरगुनिया इसके बिलकुल खिलाफ थी। वह तो वैसे भी किसी जात कि नहीं बची (ब्राह्मणी, नौकरानी, ठाकुरानी, मेहतरानी) तो धर्म परिवर्तन का आखिर क्या प्रयोजन। निरगुनिया के निवेदन पर मोहना जैक्सन से बैंड खरीदना चाहता है। तभी वहीदा डाकू मोहना से मिलता है और उसे बताता है कि माशूक ने उसके एक बेशकीमती हार की चोरी की है और उसे लेकर भाग गया है। तुम्हें यह पता लगाना है कि वह हार कहाँ है? मोहन ने वही किया और वहीदा को बताया की हार जैक्सन के घर में है। वहीदा डाकू वहां आता और जैक्सन को मार देता है और हार की खोज-बिन में लग जाता है। मोहना डेविड को मार-मार कर हार का पता लगता है और हार को वहीदा डाकू को सौप देता है। इसी बीच डेविड को मरा हुआ देखकर मोहना हड़बड़ा जाता है। वहीदा डाकू जाते-जाते मोहना को भी अपने साथ लिए जाता है। वहां पुलिस आती है। बसन्तलाल, जो अब दरोगा बन चुका है, निरगुनिया को पहचान लेता है और उसे थाने ले जाता है। दरोगा बसन्तलाल, निरगुनिया के गहने-जेवर ले लेता है और उसके साथ छेड़खानी करता है। निरगुनिया उससे मींठी-मींठी बातें करके वह से बच के निकल जाती है और बीमार होने के कारण सड़क पर ही कहीं बेहोश होकर गिर जाती है। मसीताराम, जो कि मोहन का नातेदारी में चाचा लगता है, उसे उठाकर अपने घर ले जाता है। निरगुनिया का इलाज करवाने के बाद वह 3-4 दिन में स्वस्थ्य हो गई। मसीताराम के साथ उसकी दोस्त गुल्लन चाची भी वही रहती थी और उसने भी निरगुनिया के इलाज में मदद की थी। निरगुनिया वहीं रहने लगी और कुछ महीने बाद पता चला कि मोहना डाकू बन गया है। उधर बसन्तलाल दरोगा, निरगुनिया को परेशान किया करता था। इस पर मसीताराम व गुल्लन ने उसे स्वामी वेद प्रकाशानन्द जी के वेद मंदिर चले जाने का सुझाव दिया और स्वामी जी से उसे मिलवाया। सारी व्यथा सुनाने के बाद वह मंदिर में रहने चली गयी। वेद मंदिर में ऋषिदेवी और वेदवती दो बहने रहती थी जिनसे निरगुनिया को काफी स्नेह और अपनापन मिला। वे दोनों ही यतनाओं व उत्पीड़न की मार से गुजर चुकी थीं। कुछ समय बीतने के बाद मोहना डाकू, निरगुनिया से मिलने आता है और उसके प्रति अपने प्रेम के दीपक को पुनः प्रज्वलित करता है। मोहना डाकू द्वरा मिले पैसे से निरगुनिया अपने अर्थात मसीताराम के घर व आर्थिक अस्त-व्यस्तता को नियोजित करती है। फिर एक किताब ‘रंगीला रसूल’ के कारण शहर में दंगा हो जाता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य पुस्तक ‘तलकीने मजहब’ ने भी दंगे में अत्यंत वेग उत्पन्न कर दिया। इसके पृष्ठ 21 पर लिखा है, ‘सीता चौदह बरस रावन के कब्ज़े में रहने की वजह से उसकी गर्वीदा हो गई थी, इस वजह से सीता के रावन का कत्ल होना सख्त सदमे का वाइस हुआ। सीता अपने आशिके कद्रदान की मूरत बनाकर रोजाना पूजा करती थी।” (वही, 2010, 246) वहीं योगेश्वर श्रीकृष्ण के संबन्ध में 49वें पृष्ठ पर यह लिखा है, “नतीजा यह हुआ कि जिस तरह उसने बेशुमार बेगुनाहों का कत्ल किया था, उसका भी कत्ल हुआ और द्वारका की जमीन पर मुफ़्सिद-पर्दाज़ जानी से पाकोसाफ हो गई।” (वही, 2010, 246) इसके कारण हिन्दू लोगों का खून खौल उठा और प्रत्युत्तर के रूप में भीषण दंगा बन के उभरा। उसमें मोहना के मामा-मामी मारे जाते हैं। इसी बीच निरगुनिया को एक बेटी होती है जिसका नाम शकुंतला रखा गया। मोहना डाकू बेटी के पैदा होने के चार महीने बाद निरगुनिया और अपनी बेटी से मिलता है। मोहना हमेशा उसे आर्थिक सहायता देता रहता था। गुल्लन के बेटे नब्बू को मोहना डाकू द्वारा पीते जाने के कारण गुल्लन में मोहना व निरगुनिया के प्रति रोष व्याप्त हो रहा था। बसन्तलाल ने दरोगा की नौकरी छोड़ कर प्राइवेट जासूस का धन्धा खोल लिया पर वो मोहना डाकू की तलाश में लगा रहा। डेढ़ साल बाद मोहना डाकू, निरगुनिया से मिलने आया और अपने चाचा, बेटी शकुन्तला के लिए पैसे भी दिये। मोहना डाकू पर 5 हजार का इनाम भी सरकार ने रखवा दिया है। रिपुदमन सिंह चौहान वहां के नए दरोगा थे। इसके लालच और द्वेष में गुल्लन ने उसके ठिकाने को पुलिस में जा कर बता दिया। परिणामस्वरूप मोहना डाकू मारा गया और निरगुनिया की रही-सही आस भी इसी के साथ खत्म हो गयी।
अगर इस उपन्यास के पूरे विमर्श को देखें तो यह जाति, वर्ग, लिंग और उसकी शक्ति (सत्ता) के आस-पास घूमता रहता है। वास्तव में ये सभी विमर्श, एक मसलें के रूप में उनके लिए हैं जो स्वयं तो एक ऐसे स्तर पर विराजमान हैं जिन्हे न तो इस विमर्श के परिणाम से कोई फर्क है और न ही इसकी कोई आवश्यकता। क्योंकि जो स्वयं सत्ता-संरचना में है उसके लिए क्या नियमावली और क्या मान्यता? वे तो स्वयं में ही कानून हैं। जो कोई इस सत्ता-संरचना को चुनौती देता है वो या तो मिटा दिया जाता है या तो सत्ता-संरचना उसे अपने में मिला लेती है। (वेबर, 1905) जिसके कारण न तो नियमों में बदलाव आता है और न ही इसके लिए प्रयास ही हो पता है। इस विमर्श और उसकी समस्या से दिक्कत तो उन लोगों को होगी जो कि हाशिये पर के लोग हैं। इस साहित्य के माध्यम से कई गंभीर मसलों पर विचार किया गया है। किस प्रकार का जीवन निर्गुण (ब्राह्मण) का था? किस प्रकार की जीवन-शैली निरगुनिया (मेहतरानी) का था? इस संबंध में समाज का रवैया किस प्रकार का था? महिलाओं के प्रति समाज का रूप कैसा था? इत्यादि प्रकार के गंभीर सवालों का जवाब साहित्यकार ने बड़ी ही स्वच्छता व सफलता से दिया है। अमृतलाल नागर ने उपन्यास के माध्यम से आजादी से पहले के समाज में हो रही घटनाओं का अच्छा परिवेश प्रस्तुत किया है। उन्होने उस समय में जाति के वर्चस्व के साथ-साथ शक्ति के अस्तित्व को भी सूचित किया है। जब निरगुनिया का पति मोहना, डाकू बन जाता है तो स्वतः समाज में उसकी स्थिति में परिवर्तन होता है। यह उसके लिए एक बेंचमार्क जैसे प्रयोग होता है।
साहित्यकार के अनुसार निरगुनिया का जीवन एक ऐसे बेपेंदी के लोटे के समान बन चुका था कि जो बस यहाँ से वहाँ नाचता ही रहे और अपने स्थिर होने की कल्पना मात्र ही कर सके। पर या संभव होना भी अपने-आप में एक संशय का मसला है।
अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल।
काम क्रोध को पहिर चोलना कण्ठ विषै की माल।।
अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल।…
अनुराग कुमार पाण्डेय पी-एच.डी. समाजशास्त्र काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी