राजभाषा हिन्दी : समृद्ध इतिहास और भावी चुनौतियाँ

2.डॉ विमलेश शर्मा
सहायक आचार्य,हिन्दी
राजकीय कन्या महाविद्यालय,
अजमेर,राजस्थान

1.डॉ के.आर.महिया
सहायक आचार्य, संस्कृत
राजकीय कन्या महाविद्यालय
अजमेर,राजस्थान

भारतीय ऋषियों, चिंतकों,महर्षियों व मनीषियों ने शब्द को ब्रह्म कहा है। उसे नित्य, शाश्वत व सनातन माना है; वाक् को देवी कहा , सरस्वती कहा तथा उसकी उपासना की बात इन शब्दों में कही-

“वाचमुपास्व”1

वस्तुतः भाषा(शब्द) ही वह माध्यम है जिसके कारण अल्प आयास से विशालतम व्यापार की सिद्धि हो जाती है-

“अणीयस्तवाच्च शब्देन संज्ञाकरणं व्यवहारार्थ लोके।”2

मनुष्य जाति की समस्त लोकयात्रा इसी भाषा रूपी प्रासाद पर अवलम्बित है, आश्रित है। भाषा ही इस लोकयात्रा में शाब्दिक अभिव्यक्ति हेतु एकमात्र सशक्त आधार है।

“इहशिष्टानुशिष्टानां

शिष्टानामपि सर्वथा

वाचामेव प्रसादेन

लोकयात्रा प्रवर्तते।।”3

कल्पना कीजिए हमारी जिन्दगी से एक दिवस के लिए भी भाषिक अवकाश हो जाए तो, कैसा होगा हमारा जीवन? हजारों सूर्य मिलकर भी इस भुवन को दीप्त नहीं कर पाएँगें, कितनी भयावह है यह कल्पना ही, कि विचार अभिव्यक्त ही ना हो। इसी तथ्य को उद्घाटित करते हुए संस्कृत साहित्यशास्त्र के सुप्रसिद्ध आलंकारिक आचार्य दण्डी ने भाषा के अभाव से जन्मी उस विभीषिका की ओर संकेत करते हुए कहा है कि शब्द रूपी ज्योति के अभाव में यह समस्त भुवनत्रय अंधकार में निमग्न रहता-

“इदमन्धतमः कृतस्नं जायेत भुवनत्रयम्।

यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं दीप्यते।।” 4

भाषा संजीवनी है, प्राण शक्ति का आधार है, साथ ही हमारे अस्तित्व व अस्मिता की पहचान और अभिधान भी। भाषा प्रवहमान निर्झर है अतः इसका सतत् प्रवाहमान होना आवश्यक है। हमारे समग्र विकास को , संस्कृति और चिंतन परंपरा की विरासत को यदि किसी माध्यम से प्रतिबिंबित किया जा सकता है तो वह भाषा है । आज हमारी अस्मिता पर जितने भी प्रश्नचिन्ह लगे हैं वे सब भाषा को नकारने और उसे सामान्य भाव से व हल्के रूप में लेने के कारण ही है । विचारणीय है कि हिन्दी को कभी संस्कृत, पाली, अरबी, फारसी या अंग्रेजी की तरह राज्याश्रय नहीं मिला। इसके पीछे कारण भी यही हैं कि “ तमगा बनने की उसकी इच्छा कभी रही ही नहीं, अलबत्ता वह देश की बाँसुरी, तलवार और ढाल ज़रूर बनी है। जब भी देश को एक सूत्र में पिरोने की ज़रूरत पड़ी, जब भी उसके विद्रोह को वाणी देने की आवश्यकता हुई ; हिन्दी ने पहल की है।”5

हालांकि स्थितियाँ सुखद भी हैं, आज हिन्दी विश्व की भाषा है, वैश्विक बाज़ार की भाषा है औऱ इसका कारण यहाँ का विशाल जन समूह है। सार्क देशों में तो व्यापार परिवर्धन के लिए हिन्दी को सम्पर्क भाषा बनाए जाने की माँग भी उठने लगी है। परन्तु इसी के साथ ही अनेक चुनौतियाँ है जिसका सामना व्यक्ति मात्र के प्रयोग और सहयोग से ही हिन्दी कर सकती है। “आज भी हिन्दीभाषी दूसरे नम्बर का नागरिक है। दफ्तरों में, रेलवे में, बैकों में, व्यापार-व्यवसाय में अंग्रेजीभाषी विशिष्ट और सभ्य माना जाता है और उसका काम त्वरित होता है। इसीलिए हिन्दी तथा अन्य भाषा-भाषी भी अपनी भाषा में अंग्रेजी की खिचड़ी पकाकर सभ्य औऱ पढ़े-लिखे होने का बोध करना चाहते हैं।”6 बचपन से ही भाषायी श्रेष्ठता का बीज हम बालमन में रोप देते हैं, इसके पीछे बाजारवादी मानसिकता है , जिसमें हम सदैव आगे रहना चाहते हैं। हिन्दी लोकप्रियता और प्रयोग की दृष्टि से श्रेष्ठ होने के बाद भी इस दृष्टि से दोयम क्यों है, इस पर हमें मिल बैठकर ही विचार करना होगा।

भारत विश्व में सर्वाधिक विविधताओं वाला देश है। यह बात भाषाई दृष्टि से भी स्वतः सिद्ध है। यहाँ 22 बोलियाँ (संविधान की आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट) अपने-अपने भाषायी सौष्ठव के साथ मौजूद है, हाँ! पर हिन्दी अपने वर्चस्व के कारण राष्ट्रभाषा और एकांगी रूप से राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है । इसका एक कारण यह भी है कि भारत में हिन्दी सम्पर्क भाषा भी रही है । सम्पर्क भाषा होने के कारण ही यह लोकप्रियता के उन सोपानों को छू सकी जिसे छूने में अन्य लोक भाषाएँ असमर्थ रही। इस लोकप्रियता के पीछे अनेक संत, महात्मा, कवि व लेखकों का अप्रतिम योगदान दृष्टिगोचर होता है। निःसंदेह यह हिन्दी की जन्मकुंडली के राजयोग व अन्यान्य सुयोगों का ही प्रतिफल है कि हिन्दी भाषा को इतने सशक्त व आत्मोन्नत श्रेष्ठ पुरुषों की संगति प्राप्त हुई।

हिन्दी का जो स्वरूप आज हम देख रहें हैं वह वस्तुतः आठवीं शताब्दी में प्रस्फुटित हुआ और कालांतर में पल्लवित हुआ।हिंदी की विकासयात्रा की चर्चा किए बिना हिंदी की बात करना बेमानी होगी। वस्तुतः हिन्दी का जो स्वरूप हम आज देख रहे हैं इसे अपना यह स्वरूप प्राप्त करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है । लम्बी पराधीनता के बाद जो भी देश आज़ाद हुए हैं उनमें राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर प्रायः विवाद हुए हैं। जन-जन की भाषा कही जाने वाली हिंदी का वास्तविक संघर्ष 1850 के पश्चात् दिखाई देता है । तात्कालिक हिंदी साहित्य इस बात का साक्षी है; जिसने अपने अथक प्रयासों से इस भाषा का परचम दिग्दिगंतमेंलहरानेकी ठान ली थी। अंग्रेजों ने जब हिन्दी के स्थान पर उर्दू को राजभाषा के पद पर आसीन करवाने की चाल चली तो देश के हिन्दू औऱ मुसलमान दोनों भ्रमित हुए। “1857 के बाद तो इस विषय पर बाकायदा खुलकर संघर्ष होने लगा। अंग्रेजों की फूट डालो और राज्य करो वाली नीति काम कर गई। भाषा की कटुता जातियों में फैल गई। भाषा जातीयता तथा धार्मिकता का सशक्त प्रतीक बन गई। अंग्रेजों ने इसका भरपूर लाभ उठाया। इसी संघर्ष के दौरान अंग्रेजों ने चालाकी से रोमन लिपि को भी न्यायालयों में प्रचलित करके अंग्रेजी भाषा के लिए सशक्त राह खोल दी। ”7 इस चाल का व्यवहार आज तक चला आ रहा है। आज भी कई बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि हिन्दी के लिए रोमन लिपि रहे तो बेहतर होगा। यह ठीक वैसा ही होगा; जैसे भारतीय आत्मा को पाश्चात्य देह में लपेट दिया गया हो ऐसे में हमारी व हमारी भाषा की क्या दशा होगी सुधिजन विचार कर लें।

स्वाधीनता आंदोलन के साथ-साथ हिंदी भी पली- बढ़ी। पहली लड़ाई इसकी लिपि के लिए थी । जिसके लिए भी कैथी लिपि,मुड़िया लिपि और नागरी लिपि में संघर्ष छिड़ा । परन्तु उन्नीस सौ में तमाम विरोधो के बाद भी इसकी लिपि देवनागरी स्वीकार की गई। स्वतंत्रता पूर्व की परिस्थतियों में राजभाषा हिन्दी के लिए जितना काम स्व.सेठ गोविंददास ने किया है; उतना शायद ही किसी अन्य ने किया हो। “ सन् 1927 से ही उन्होंने कौंसिल ऑफ स्टेट में भारतीय विधान मंडल में हिन्दी या उर्दू में भाषण करने(देने)की अनुमति पाने के लिए जोरदार माँग की। आगे चलकर स्व. सेठ ने स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाने वाली संविधान सभा की कार्रवाई हिन्दी में कराने पर ज़ोर दिया। परंतु उनकी आवाज़ सुनी नहीं गई थी।”8

नागरी लिपि के उत्थान और इसे वर्तमान स्वरूप(परिष्कृत) में पहुँचाने के लिए अनेक भाषाविज्ञों और साहित्यकारों का महनीय योगदान रहा है। इन्हीं तपोनिष्ठ विद्वानों के पवित्र श्रम के कारण आज हिन्दी हमारी संपर्क भाषा , संचार भाषा , तकनीकी भाषा , व्यापार की भाषा व विज्ञापन और राजभाषा तथा राष्ट्रभाषा बनी हुई है । इसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि भारतीयों की आत्मिक व मानसिक अनुभूतियों के प्रकटीकरण हेतु यही संपर्क भाषा सशक्त उपादान है। हिन्दी को एक सर्व सम्मत औऱ मानक रूप देने में इसकी सहयोगी भाषाओँ ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उर्दू हो फारसी, मैथिली हो या भोजपूरी , बांग्ला हो या कन्नड़, बिहारी हो या राजस्थानी सभी भाषाओँ के प्रभाव ने हिन्दी को एक गरिमामय सौष्ठव प्रदान किया है। हमारे संविधान के अनुच्छेद 351 में कहा गया है कि – “ संघ का कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे , जिससे भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में निर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली औऱ पदों को आत्मसात् करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।” भारत की सामासिक संस्कृति वह संस्कृति है, जो न हिन्दू है, ना मुसलमान, ना सिख ना इसाई। “ जिस प्रकार अमरीका में विभिन्न संम्प्रदायों जातियों को मिलाकर अमेरीकन संस्कृति बनी ठीक उसी प्रकार भारत की बहुरंगी भेद सहित अभेदमयी संस्कृति को समष्टि रूप में भारतीय संस्कृति कह सकते हैं; और उस सतरंगी संस्कृति की भाषा को भारती।” 9 “शायद यह नाम देश हित में भी होता क्योंकि हिन्दी नाम से न केवल हिंदी भाषियों में एक व्यर्थ का अहं भाव उत्पन्न होता है वरन् अहिंदीभाषियों में भी ग़लतफ़हमी पैदा होती है।” 10 तमाम वैपरीत्य के बाद भी अनुच्छेद 351 में उल्लिखित हिंदी भारत की सामासिक संस्कृति की संपर्क भाषा ही है जो भारतीयों के बीच सशक्त भावनात्मक व सामाजिक संपर्क स्थापित करती है।

भारत के संविधान निर्माण से पूर्व प्रश्न राष्ट्रभाषा को लेकर था, संविधान ने ही पहले-पहल राजभाषा नाम दिया। जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया वैसे-वैसे हिन्दी के रचनाकार एवं भाषाविज्ञ राजभाषा शब्द व उसकी परिभाषा से परिचित होते गए। राजभाषा की अनेक एकपक्षीय परिभाषाएँ हैं परन्तु इसके व्यापक अर्थ ग्रहण की दृष्टि से रामबाबू शर्मा की परिभाषा महत्त्वपूर्ण है। डॉ रामबाबू शर्मा ने ‘हिन्दी भाषा का राजकाज में प्रयोग ’ में उल्लिखित किया है -“ राजभाषा वह व्यापक भाषा होती है जिसका प्रयोग केन्द्र सरकार द्वारा समन्वय की दृष्टि से अंतर प्रांतीय स्तर पर होता है। यह भाषा इतनी समृद्ध , व्यापक और समन्वयकारी होती है कि संपूर्ण देश तथा उसकी विभिन्न प्रांतीय भाषाओं को सांस्कृतिक, साहित्यिक राजनीतिक, प्रशासनात्मक शब्दावली, वाक्य योजना एवं लिपि आदि की दृष्टि से एक सूत्र में आबद्ध कर राज्य एवं उसकी नीतियों के अनुसार उस देश को सुदृढ़ बनाती है। यह भाषा इतनी व्यापक होती है कि इसके माध्यम से देश के विभिन्न भाषा-भाषी लोगों से संपर्क स्थापित होता है इसलिए इसे संपर्क भाषा भी कहते हैं। अंग्रेजी में इसे लिंगुआ फ्रेंका, केंद्र, राज्य और देश के विभिन्न निकायों के संपर्क के माध्यम के कारण राजभाषा, एकतंत्रात्मक शासन में इसे राजा की भाषा, प्रजातंत्र प्रणाली में इसे राज्य की भाषा (राजभाषा) या संघभाषा भी कहते हैं। … भारत जैसे बड़े देशों में केन्द्रीय स्तर पर प्रयुक्त होने वाली मुख्य राजभाषा के अंतर्गत विभिन्न राज्यों में प्रयुक्त होने वाली क्षेत्रीय भाषाओं को भी राजभाषा की संज्ञा के नाम से अभिहित करते हैं। वास्तव में क्षेत्रीय राजभाषाएँ केन्द्रीय भाषा की पूरक होती हैं। इससे राजभाषा के विशाल रूप का उद्घाटन होता है।” 11 इसके इतर अगर संक्षेप में हम राष्ट्रभाषा की बात करें तो चूँकि हिन्दी भारत में छोटे-बड़े पैमाने में बोली समझी जाती है , इसलिए महात्मा गाँधी ने उसे राष्ट्रभाषा कहा और देश में उसका प्रचार करने की प्रेरणा दी। सुखद आश्चर्य यह भी है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा बनाने का स्वप्न भी हिन्दीभाषियों का नहीं था, इसकी आवश्यकता भी पहले-पहल अहिन्दीभाषियों ने ही महसूस की। राष्ट्रभाषा कहें या राजभाषा अगर हम उसे खारिज करते हैं तो अपनी पहचान खोने लगते हैं, अपने अस्तित्व से इनकार करने लगते हैं।

हिन्दी आज समस्त नकारात्मक प्रचार के बावजूद प्रत्येक क्षेत्र मे अपना निर्विकल्प वर्चस्व स्थापित कर चुकी है । भाषिक दृष्टि से हिन्दी अशक्त नहीं है। इसका व्याकरण निर्दोष, ग्रहणशील और परिवर्द्धिमान है। लेखन औऱ उच्चारण में साम्य होने के कारण यह विश्व की सर्वाधिक सरल भाषाओं में से एक है। संस्कृत की समृद्ध विरासत के बावजूद इसने विगत एक शती में ही अन्य भाषाओं, उपभाषाओं, बोलियों के असंख्य शब्दों को आत्मसात् करते हुए अपने शब्दकोश को परिवर्द्धित किया है; अभिव्यक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। सभी प्रांतों में कमोबेश बोली जाने के कारण हिन्दी भारत को एक सूत्र में बाँधने की क्षमता रखती है। या यूँ कहें कि हिन्दी भारतीयों की सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विरासत की अक्षुण्ण एकता की संवाहक भाषा है ; आवश्यकता इसको परिष्कृत, परिमार्जित व परिशोधित करने की है।

संचार माध्यमों के हर तेवर व फ़न में अपना सहज विस्तार पाने के कारण हिन्दी ने सशक्त लोकतांत्रिक हैसियत जो पूर्व से ही थी उसमें औऱ इज़ाफा कर लिया है। कहना होगा कि आज हिन्दी जनभाषा है , संसदीय भाषा है और इससे बढ़कर हर मन की भाषा है; तो कहीं ना कहीं अन्य सहयोगी भाषाओं के आत्मोत्सर्ग से, नहीं तो हजारों वर्षों की बोलियों के स्थान पर खड़ी बोली का बहुजन की भाषा औऱ आज वैश्विक भाषा बन पाना लगभग असम्भव था। यही बात केन्द्र में रखते हुए डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं- “हिन्दी को केन्द्रीय भाषा’ बनाने का यह अर्थ नहीं है कि प्रादेशिक भाषाओं के अर्थ मारे जाएं।”12

तमाम विकसनशील तत्त्वों के होते हुए आज भी कुछ सवाल अनुत्तरित हैं । ये सवाल दरअसल निहित स्वार्थों और उनसे उत्पन्न पूर्वाग्रहों के कारण हैं   । आज संचार माध्यमों में हिन्दी का जो रूप है वह पूर्णतः बाजारसापेक्ष है, जिसे बहुत अधिक तोड़ मरोड़ दिया गया है; यही कारण है कि वह कहीं ना कहीं अपनी मूल संस्कृति से विमुख हो गई है। यह सही है कि आज हिन्दी इतनी सक्षम है कि सूचना विस्फोट से उत्पन्न हुई अफ़रातफ़री को संभाल सकती है, संवरण कर सकती है परन्तु स्वयं हिन्दी को संभालने के लिए अनेक सबल हाथों की आवश्यकता है। हिन्दी का भविष्य अन्य देश भाषाओं के भविष्य से जुड़ा है। उनका अविकसित रहना हिन्दी का कमजोर होना है। हिन्दी की जड़ें संस्कृत में है। नई पीढ़ी को उस भाषा की और लौटाना होगा जिसमें हमारी संस्कृति फली- फूली है। यह सुकृत्य सामूहिक उत्तरदायित्व से ही संभव है। यदि हमने (भाषाविज्ञों) नई पीढ़ी की वैचारिकता को भाषा का माहात्म्य का पाठ पढ़ा दिया, तो निश्चय ही हिन्दी का स्वर्णिम भविष्य भाषाप्रेमियों को आह्लादित तो करेगा ही साथ ही दृष्टिगत भी होगा।

हिन्दी अपनी वैज्ञानिकता के कारण ही स्वयंसिद्ध भाषा है जो त्वरित गति से जीवन के हर क्षेत्र में छा रही है । संचार माघ्यमों की त्वरा के अनुरूप इसके शब्दकोश में भी नए शब्दों का तथा व्याकरण में नवीन वाक्यों , अभिव्यक्तियों और वाक्य संयोजन की विधियों का समावेश हुआ है। इस सबसे हिन्दी भाषा के सामर्थ्य में अभिवृद्धि हुई है; फलत: हिन्दी सहज रूप से ज्ञान विज्ञान और आधुनिक विषयों से जुड़ रही है। यही कारण है कि वह वर्तमान वैज्ञानिक युग में हिन्दी की उपादेयता को विकसित कर रही है। यद्यपि भारत के कुछ प्रान्तों में हिन्दी व्यवहार की भाषा है, लेकिन 872 भाषाओं औऱ बोलियों के इस देश में वह ऐसी अकेली भाषा है जिसके सहारे आप पूरे देश में यात्राएँ कर सकते हैं। अनिवासी भारतीय सम्पूर्ण विश्व में फैले हुए हैं। विदेशों में 40 से अधिक देशों के 600 से अधिक विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिन्दी पढाई जाती है।

हिन्दी खाड़ी देशों (पाकिस्तान, नेपाल, भूटान,बांग्लादेश, म्यांमार, श्री लंका और मालदीव) के साथ-साथ अनेक देशों में भी बोली जा रही है। इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, चीन, मंगोलिया, कोरिया तथा जापान भारतीय संस्कृति की सराहना करते हैं, यही कारण है कि वहाँ हिन्दी बोली औऱ समझी जाती है। अनेक देशों यथा-अमेरिका, आस्ट्रेलिया,कनाडा और यूरोप के अनेक देशों में हिन्दी को आधुनिक भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है। अरब और अन्य इस्लामी देशों में भी हिन्दी बोली व समझी जाती है । इस तरह स्पष्ट है हिन्दी अपने अप्रवासी जनसमूह के साथ विश्वजनमत का निर्माण करने में सक्षम है ; इस भाषा का सामर्थ्य बेलाग है, फिर भी जो प्रश्न अनुत्तरित हैं वे इसके अस्तित्व हेतु ज़रूरी जान पड़ते हैं ।

हिन्दी को आज भारतेन्दु सरीखे क्रांतिकारियों की जरूरत है जो उसी तरह कह सके कि- ‘भीतर तत्व न झूठी तेजी। क्यों सखि सज्जन ! को अंग्रेजी?’ वस्तुतः हिन्दी को संगोष्ठियों और दिन विशेष पर दिए जाने वाले वक्तव्यों और शोक प्रस्तावों की आवश्यकता नहीं है बल्कि ऐसे कामों की ज़रूरत है जिससे वह समृद्ध होती है और उसका माथा ऊँचा होता है। शिक्षा संस्थान इस दिशा में सार्थक पहल कर सकते हैं। अनेक गतिविधियों व दैनिक प्रयोग के माध्यम से शिक्षक छात्रों को मातृभाषा, राजभाषा से जोड़ सकते हैं। शिक्षा संस्थानों को विद्यार्थियों में पढ़ने की आदत उन पुस्तकों के माध्यम से विकसित करनी होगी जो भारतीय संस्कृति की थाती रही हैं। भाषा की प्रामाणिकता, शुद्धिकरण और मानकीकरण के लिए भाषाविज्ञों को श्रम करना होगा क्योंकि हिन्दी में मानक आदर्श पुस्तकों का अभाव है। अनेक देशों में ( मिसाल के तौर पर इटली) सार्वजनिक स्थानों पर अशुद्ध भाषा लिखना दण्डनीय अपराध है, लेकिन हम हमारी भाषा से खिलवाड़ करना नहीं छोड़ते हैं। हिन्दी के शुद्ध प्रयोग के लिए हर व्यक्ति को सजग होना पड़ेगा और ऐसे में शिक्षाविदों की जिम्मेदारी कुछ औऱ बढ़ जाती है। हिन्दी में आज साहित्य तो बहुत लिखा जा रहा है परंतु मानविकी, विज्ञान, चिकित्सा,मनोविज्ञान, इतिहास,समाजशास्त्र आदि की उच्च स्तरीय मौलिक पुस्तकें नगण्य हैं। इसके मूल में प्रकाशन और क्रय करने वाली संस्थाओं की मानसिकता भी है। इसके उपचार के लिए ज्ञान के इन क्षेत्रों में हिन्दी के मौलिक साहित्य के प्रकाशन को बढ़ावा देना होगा।

हिन्दी के विकास में अनुवाद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है अतः अनुवाद को सर्वोच्च महत्त्व का काम समझते हुए, अनुवादकों का सही चयन और प्रशिक्षण देकर भाषायी श्रेष्ठ साहित्य को प्रकाश में लाकर सर्वसुलभ बनाना होगा। हिन्दी की प्रकृति जनवादी है, जबकि ज्यादातर अनुवाद क्लिष्ट और दूभर है अतः अनुवाद की इस भ्रांति को दूर करना होगा। इसके साथ ही सभी विषयों की मानक शब्दावली का संस्कार और एकमात्र शब्द का निर्धारण करना होगा, जिससे भाषागत एकरूपता का निर्माण होगा। हिन्दीभाषी प्रदेशों में आज भी हिन्दी वह वास्तविक सम्मान प्राप्त नहीं कर पाई है , जिसकी वह अधिकारिणी है अतः इन क्षेत्रों में राज-काज, शिक्षा आदि सभी स्तरों पर ईमानदारी व प्रतिबद्धता के साथ हिन्दी की वास्तविक प्रतिष्ठा करनी होगी। हिन्दी ग्रंथ अकादमियों को अधिकाधिक गतिशील बनाना होगा जिससे श्रेष्ठ ग्रंथों का प्रकाशन व अनुवाद संभव हो सके। इन उपायों से न केवल हिन्दी को व्यावहारिक प्रतिष्ठा मिलेगी वरन् अहिन्दीभाषियों में भी भाषा के प्रति गहरा सम्मान और विश्वास पैदा होगा। हिन्दी को राष्ट्रव्यापी भाषा बनाने और उसमें श्रेष्ठ साहित्य औऱ ज्ञान को संजोने के लिए जिस अध्यवसाय की ज़रूरत है उसका अभाव विश्वविद्यालयों में दिखता है। उल्लेखनीय है कि कई विश्वविद्यालय ऐसे भी हैं जहाँ हिन्दी विषय ही स्वीकृत नहीं है। हिन्दी में हो रहे शोध गुणवत्ता को खो रहे हैं। इन सभी दिशाओं में सोचकर सार्थक कदम उठाने होंगे जिससे हिन्दी की उन्नति व्यावहारिक धरातल पर हो सके।

आज यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि हिन्दी रोज़गार देने में सक्षम नहीं है और इसलिए यह जीवन की विविध अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती है ।संभवतः यही कारण है कि हमारी नई पीढ़ी युवा हिन्दी माध्यम से पढ़ने औऱ जुड़ने को लालायित नही रहते और जो हिन्दी से उच्चशिक्षा प्राप्त करते हैं, उनमें भी सबल आत्मविश्वास उत्पन्न नहीं हो पाता। वे स्वयं को कम आंक कर हीन महसूस करते हैं । दरअसल यह एक भ्रांति है कि हिन्दी रोजगार सुलभ नहीं है। आज हिन्दी में रोजगार के अनेक अवसर उपलब्ध हैं। अनुवाद, प्रिंट व सोशल मीडिया, भाषा विशेषज्ञ तथा प्रशासनिक सेवाओं जैसे प्रतिष्ठित अवसर हिन्दी सुलभ कराती है। अब तो कम्प्युटर के लिए भी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ और वैज्ञानिक लिपि देवनागरी मानी जाती है। जो लिपि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य होने लगी है उस पर अपने मूल स्थान पर ही प्रश्नचिह्न लगाना चौंकाता है। विडम्बना यह है कि हम अपनी स्वयंसिद्धा व सर्वसमावेशी भाषा की शक्ति को नकारते हैं, उसकी महत्ता व उपादेयता का ठीक ढंग से आकलन नहीं कर पाते हैं। जिसके कारण अपने ही घर में हमारी सांस्कृतिक विरासत व मूल्यों को सहेजने वाली हिन्दी हेय होती जा रही है। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हिन्दी की अहमियत को समझ रही है । भले ही हिंग्लिश के प्रयोग के साथ ही परन्तु वे हिन्दी को अपना रही हैं क्योंकि हिन्दी का एक बहुत बड़ा वैश्विक बाज़ार है औऱ इसी बाज़ार के कारण एक और प्रश्न समानान्तर खड़ा हो गया है कि क्या हिन्दी बाज़ार की भाषा है औऱ अगर हिन्दी बाज़ार की भाषा बन रही है तो यह बात निःसंदेह चौकाने वाली है और अतिरिक्त सतर्कता के प्रति आगाह करने वाली है क्योंकि तब हमें इसके मानकीकरण की तरफ ठोस कदम उठाने होंगें। क्योंकि बाज़ार भाषा के प्रति जवाबदेही तय नहीं करता वह केवल भाषा का अपने हिसाब से प्रयोग करता है। वहाँ महज़ व्यावसायिकता का बोलबाला होता है। कई बार लचीलेपन की ओट में उस के शब्दों और व्याकरण के साथ भी खिलवाड़ करने की कोशिश करता है। वर्तमान में प्रिंट मीडिया इसका सजग उदाहरण है। अतः यह निःसंदेह खुशी और सम्मान की बात है कि हिन्दी वैश्विक धरातल पर अपनी पहचान बना रही है परन्तु साथ ही इस पहचान को कायम रखने और हिन्दी के वास्तविक स्वरूप को सहेजने की जिम्मेदारी भी हमें ही वहन करनी है। अगर हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनानी है तो अपनी मौलिकता को बरकरार रखना होगा और इसके लिए हिन्दी के प्रति नव पीढ़ी का रूझान भी उतना ही मायने रखता है। यह तय है कि इस दुर्निवार भूमंडलीकरण के युग में भाषा में बदलाव आएँगें; परन्तु तकनीक के भँवरजाल में कुछ सहजताओं और लचीलेपन को अपनाते हुए अगर हम हिन्दी के वास्तविक स्वरूप को अक्षुण्ण रख पाते हैं तो यह निःसंदेह हमारे लिए औऱ हमारी भाषा के सहेजन के लिए एक उपलब्धि होगी। हम जानते हैं कि हिन्दी को अभी भी एक लम्बी दूरी, सफर तय करना है, लेकिन दूरियाँ चलने से ही तय होंगी,यह विश्वास कायम रखना होगा। भाषा को लेकर हमारे पूर्वजो में एक जुनून रहा है , उस संघर्ष की लाज हिन्दी के अधिकाधिक एवं शुद्ध प्रयोग से करनी होगी। हिन्दी के लिए उत्सर्ग और संघर्ष करने वालों को सलाम करते हुए ही संभवतः निराला ने लिखा होगा-

‘मेरी राख को हिन्दुस्तान के कोने-कोने में बिखेर दिया जाए

ताकि लोग उसे रौंदे, लेकिन हिन्दी को गलत न समझे।’

संदर्भ सूची-

  1. छांदोग्यपनिषद्-729
  2. यास्क – निरूक्त, प्रथम अध्याय, प्रथम पाद
  3. दण्डी-काव्यादर्श-113
  4. दण्डी-काव्यादर्श- प्रथम अध्याय, चतुर्थ श्लोक)
  5. हिन्दी दशा और दिशा- प्रभाकर श्रोत्रिय- हिमाचल पुस्तक भंडार, दिल्ली-पृ.13, प्रथम संस्करण-1995
  6. यथोपरि- पृ.34
  7. राजभाषा के संदर्भ में हिंदी आंदोलन का इतिहास- उदयनारायण दुबे-पृ.-100
  8. राजभाषा हिन्दी-डॉ सेठ गोविंद दास – हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग,(1965)( कौन सभा में संविधान की कार्रवाई चलेगी- शीर्षक से अध्याय)
  9. रिपोर्ट ऑफ द ऑफिशियल लैंग्वेज कमीशन ( 1956) भारत सरकार, पृ.286
  10. राजभाषा भारती- अप्रेल-जून-1979, अंक-5, दीक्षांत भाषण कृपानारायण सचिव, राजभाषा विभाग, पृ.11
  11. हिन्दी भाषा का राजकाज में प्रयोग,डॉ रामबाबू शर्मा शोध ग्रंथ(आगरा विश्वविद्यालय),पृ.11-12
  12. डॉ. रामविलास शर्मा, भाषा और समाज,पृ.457