स्त्री-विमर्श और निराला के स्त्री विषयक निबंध

पम्पी शर्मा, शोधार्थी 
(एम.फिल हिन्दी)
विश्व-भारती शांतिनिकेतन
जगद्दल, उत्तर 24 परगना 
पश्चिम बंगाल 
मो.8961833734/9831490172

आधुनिक काल में जो विमर्श हाशिये पर थे, उन्हें उत्तर आधुनिकतावाद ने केन्द्र में स्थापित कर दिया है। चाहे दलित विमर्श हो या स्त्री-विमर्श, दोनों ने ही न केवल अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है, अपितु अपनी प्रासंगिकता और अनिवार्यता भी सिद्द की है। स्त्री अपने अधिकारों के प्रति न केवल सचेत हुई है, बल्कि अपने अधिकारों के, अपनी अस्मिता की पहचान के लिए जो लड़ाई शुरू की है वह अब आंदोलन में परिवर्तित हो चुका है। आज स्त्री-विमर्श‍ के फलस्वरूप न केवल स्त्री की पहचान निर्मित हुई है बल्कि हर क्षेत्र में उसकी एक स्वतंत्र और स्वाभिमानी छवि भी निर्मित हुई है। एक ओर जहाँ स्त्री-विमर्श पुरुष सत्ता या अस्मिता के समक्ष चुनौती के रूप में उभर रहा है, वहीं दलित विमर्श के रथ को रोकने के लिए भुमिहर महासभा और न जाने कितनी महासभाएँ खड़ी हो रही हैं। तब मन में एक सवाल उठता है की जिस तरह स्त्री-पुरुष दोनों मनुष्य हैं और सवर्ण और अवर्ण भी दोनों मनुष्य है तो क्यों न अस्मिताओं के इस महाघमासान में मनुष्य अस्मिता या मानव अस्मिता का निर्माण करने वाले बिन्दुओं की तलाश की जाए एवं दलित महासभा, भुमिहर महासभा, ब्राह्मण महासभा के बजाए मानव महासभा की बात की जाए। 21वी सदी की इन्ही सारी चुनौतियों के बीच से चिंतन करते हुए विमर्शों के इस घमासान में शमशेर की तरह अगर मैं कहूँ ‘भूलकर राह जब-जब राह भटका मैं, तुम्ही याद आए हे महाकवि’- हाँ महामानव निराला की मुझे भी याद आए मैंने सोचा क्यों न निराला के स्त्री-विषयक निबंधों को आज के स्त्री-विमर्श के आईने में देखा जाए ! यह ठीक है कि आज का स्त्री-विमर्श निराला के दौर से काफी आगे बढ़ गया है। स्त्री शिक्षा के बुनियादी अधिकार से शुरू हुआ यह विमर्श आज देह-मुक्ति के सवालों तक पहुँच गया है।

नवजागरणकालीन दौर में समाज सुधार आंदोलनों के परिणामस्वरूप शुरू हुए इस स्त्री अभियान को अभी कई मोकाम हासिल करने है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद व्दिवेदी एवं निराला के स्त्री विषयक निबन्ध, इसी नवजागरणकालीन समाज सुधारों के परिणाम हैं। स्त्री-अस्मिता की लड़ाई स्त्री की अपनी लड़ाई है। स्त्री के स्वत्वाधिकार की बात तो भारतेन्दु-युग में ही शुरू हो जाती है, मगर स्त्री-विमर्श और स्त्री-अस्मिता की लड़ाई उत्तर आधुनिक युग की देन है। भारतेन्‍दु-युग से शुरू हुई स्त्री चेतना क्रमश: विकसित होती हुई स्त्री-अस्मिता की लड़ाई और आंदोलन में रूपांतरित होती गई है। इसमें आधुनिक युग के प्रत्येक कवियों एवं साहित्यकारों का योगदान रहा है। छायावाद युग में महादेवी ने स्त्री-मुक्ति के सवाल को अनेक कोणों से उठाया है। उसी युग में निराला ने भी स्त्री-विषयक कई निबंध लिखे हैं। आज का स्त्री-विमर्श जिन मुद्दों पर संघर्ष कर रहा है उसे निराला ने बहुत पहले ही पहचान लिया था हालाँकि उसमें वह प्रखरता और तीव्रता नहीं है जो मौजूद स्त्री-विमर्श में है। किन्तु मुद्दे कमोवेश वही हैं। निराला ने स्त्री के अधिकार के सवाल पर गंभीरता से सोचा है। चाहे स्त्री शिक्षा का सवाल हो या स्त्री-अस्मिता का, चाहे स्त्री स्वतंत्रता का सवाल हो, चाहे देह मुक्ति और बहु-विवाह का विधवा विवाह, बाल-विवाह आदि पर तो उन्होने लिखा ही है साथ ही विदेशी विचारों के आलोक में स्त्री विवाह और तलाक और पुनर्विवाह को लेकर जो विमर्श चल रहा है उस पर लिखने वाले वे हिन्दी में संभवत: प्रथम व्यक्ति हैं। स्त्री विवाह के बंधन से किन परिस्थितियों में मुक्त हो सकती है, पुनर्विवाह कर सकती है या नहीं, बिना विवाह किए पुरुष की सहचारिणी बन कर रह सकती है या नहीँ अविवाहित रहकर अपना जीवन यापन कर सकती है या नहीं इन सब पर निराला ने विचार किया है।

स्त्री-विमर्श में स्त्री शिक्षा प्रस्थान बिन्दु है निराला के यहाँ इस पर काफी सुचिन्तित चिंतन है। निराला यह जानते थे कि बिना स्त्री शिक्षा के स्त्री को उसका हक नहीं मिल सकता। स्त्री-विमर्श का प्रस्थान बिन्दु स्त्री शिक्षा ही है। स्त्री जीवन की तमाम विडंबनाएं इसी के अभाव में दृस्टिगोचर होती हैं। बिना इसके स्त्री जीवन में किसी भी तरह का डिपार्चर संभव नहीं है। उन्होंने लिखा है – “अशिक्षित, अनपढ़ होने के कारण ही हमारी स्त्रियों को संसार में नरक-यातनाएँ भोगनी पड़ती है – उनके दुखों का अंत नहीं होता ।”1 स्त्रियों की दुर्गति का प्रमुख कारण है उनकी परनिर्भरता। ऐसा शिक्षा के अभाव में हुआ। निराला ने 1930 की ‘सुधा’ में अपने लेख ‘बाहरी स्वतन्त्रता एवं स्त्रियाँ’ में लिखा है – “अब दोनों के लिए एक ही धर्म होना चाहिए, पुरुष के अभाव में स्त्री हाथ समेटकर निश्चेष्ट बैठी न रहे। उपार्जन से लेकर संतान पालन गृह कार्य आदि वह संभाल सके, ऐसा रूप, ऐसी शिक्षा उसे मिलनी चाहिए ।”2 गौरतलब है की यहाँ निराला ने स्त्री पुरुष के लिए एक समान शिक्षा की वकालत की है। जिन तीन बातों का उन्होंने इसमें उल्लेख किया है,उसमें पहला है उपार्जन। बाकी संतान पालन एवं गृह कार्य तो वह शिक्षा के अभाव में भी कर रही थी। प्रमुख बात थी की वह आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भर होने के कारण दुःख भोग रही थी। शिक्षा ही उसे उपार्जन से जोड़ेगी जिस ओर निराला ने सन् 30 में ही बहस छेड़ दी थी। शिक्षा के अभाव में स्त्रियों का जीवन किस तरह सिमटा हुआ है इसका वर्णन करते हुए वे लिखते हैं –“घर की छोटी सी सीमा में बंधी हुई स्त्रियाँ आज अपने अधिकार, अपना गौरव, देश तथा समाज के प्रति अपना कर्तव्य, सब कुछ भूली हुई है। उनके साथ जो पाश्विक अत्याचार किए जाते हैं, उनका कोई प्रतीकार नहीं होता। वे चुपचाप आँसुओं को पीकर रह जाती है। उनका जीवन एक अभिशप्त जीवन बन रहा है |”3 स्त्री शिक्षा के अभाव में स्त्री चेतना की कल्पना करना व्यर्थ है। स्त्रियाँ नाना तरह के पाशविक अत्याचार सहती थी, पर मुँह न खोलती थी। आज बलात्कार से लेकर घरेलू एवं बाहरी हिंसा के खिलाफ जितनी आवाजें उठने लगी हैं, यह सब स्त्री शिक्षा का ही परिणाम है। निराला ने इसलिए प्राय: अपने हर निबंध में स्त्री शिक्षा और पुरुष के समान शिक्षा पर ज़ोर दिया है। इस शिक्षा के अभाव में ही स्त्री को जिस तिस के गले मढ़ दिया जाता था और यह शिक्षा दी जाती थी कि पति ही परमेश्वर है, वह चाहे जैसा है, उसके चरणों में ही तेरी गति है। इस पर आक्षेप करते हुए निराला ने लिखा – “उन्हें जो यह शिक्षा दी जाती है की तुम्हें अपने पुरुष के सिवा किसी दूसरे का मुख नहीं देखना चाहिए, यह उनके अंधकार जीवन में टार-पेंटिंग है – सिर झुकाए हुए ही उन्हें तमाम जीवन पार कर देना पड़ता है |”4 आज हम देख रहे हैं कि स्त्री स्वातंत्र्य में इस तरह के प्रारम्भिक विरोधों का कितना महत्व है। निराला के स्त्री विषयक निबंध इन सभी सूत्रों के कारण आज भी प्रासंगिक है।

स्त्री सशक्तिकरणएवं स्त्री-विमर्श में आज भी सर्वाधिक ज़ोर स्त्री शिक्षा पर ही है क्योंकि आज भी हमारे देश में स्त्री-शिक्षा बहुत पीछे है और बिना स्त्री शिक्षा के स्त्री सशक्तिकरण की कल्पना निरर्थक सिद्ध होगी। स्त्री शिक्षा पर भारतेन्दु का काफी ज़ोर था। उन्होंने 3 नवंबर 1873 की ‘कवि वचन ‘सुधा’’ में लिखा है- “यह बात तो सिद्ध है की पश्चिमोत्तर देश की कदापि उन्नति नहीं होगी जब तक की यहाँ की स्त्रियों की भी शिक्षा न होगी क्योंकि यदि पुरुष विद्वान और पंडित होवेंगे और उनकी स्त्रियाँ मूर्ख रहेगी| तो उनमें आपस में कभी स्नेह नहीं होगा और नित्य कलह ही होगा ।”5 डॉ.जगदीश्वरचतुर्वेदी का मानना है की “19 वी शताब्दी में शुरू हुए समाज सुधार आंदोलनों के कारण ही स्त्री मुक्ति के प्रश्न केंद्र में आए । ”6

नवजागरण काल में जो स्त्री-मुक्ति का संघर्ष हुआ उसका परिणाम यह निकला कि जहाँ स्त्री को पहले दासी समझा जाता था, वहाँ अब उसे सहभागिनी समझा जाने लगा। उसमें स्वत्व बोध पैदा हुआ। स्त्री-विमर्श में स्त्री शिक्षा को प्राथमिक एवं सर्वप्रमुख पहलू मानते हुए डॉ. जगदीश्वरचतुर्वेदी मानते है –“स्त्री समानता की धारणा स्त्री शिक्षा के बगैर निर्मित नहीं हो सकती, उसी तरह स्त्री की पहचान एवं आत्मनिर्भर छवि भी स्त्री शिक्षा के विकास की धुरी है, इसे समाज सुधारकों ने सही रेखांकित किया था। आज हम गौर से देखें तो पाएंगे कि स्त्री शिक्षा के बगैर संविधान प्रदत्त समस्त स्त्री अधिकार बेमानी हैं। हिन्दी भाषा क्षेत्रों में नवजागरण के असफल हो जाने का बड़ा कारण है स्त्री शिक्षा के प्रसार का अभाव ।”7 स्त्री शिक्षा पर विचार करते हुए समय, समाज के हिसाब से निराला कहीं-कहीं चुके भी हैं जो कि उस समय को ध्यान में रखकर स्वाभाविक ही लगता है। उन्होने लिखा है कि – “स्त्रियों की वृत्ति के अनुसार ही शिक्षा भी हो, तो समाज की प्रगति कुछ और सरल तथा क्षिप्रगामी हो जाए ।’’8 मगर स्त्री को कैसी शिक्षा चाहिए यह पुरुष क्यों तय करे? स्त्री स्वंय निर्णय ले कि वह किस तरह का विकास चाहती है और किस तरह का शिक्षा। इसीलिए निराला लिखते भी है कि “पर जहाँ यह सवाल होता है कि पुरूषों को स्त्रियों के संबंध में बोलने का क्या अधिकार है, वहाँ हम अवश्य मौन को ही अधिक महत्वपूर्ण समझते है ।”9

निराला जी का मानना है कि “महान विप्लव ही हर एक सुधार का मूल है ।”10 उस समय स्त्री जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए महान विप्लव की ही जरूरत महसूस की जा रही थी। यह विप्लव वैज्ञानिक विकास द्वारा संभव हुआ और उसी की प्रगति के साथ-साथ स्त्री चिंतन के धरातल लगातार विकसित होते गए। इस बात को लक्षित करते हुए निराला ने सन 1929 की ‘सुधा’ में लिखा –“इस समय संसार में वैज्ञानिक ज्ञानलोक का जितना ही विस्तार बढ़ता जा रहा है, सभ्यता तथा स्त्रियों से संबंध रखने वाले विचार क्रमश: उतने ही बदलते जा रहे हैं| समाज जाति तथा व्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ ही ऊंची सुनाई दे रही है।”11 यह निराला की चिंतन प्रखरता एवं मेधा का ही कमाल है जहाँ स्त्रियाँ अभी घूँघट की ओट से बाहर नहीं निकल पा रही थी, वही समय एवं समाज पर वैज्ञानिक उन्नति के माध्यम से जो दबाव बन रहा था और उसके फलस्वरूप स्त्री जीवन एवं चिंतन का जो मार्ग प्रशस्त हो रहा था, उसके झंडावाहकों में वे भी अपनी भूमिका निभा रहे थे। स्त्री अविवाहित रहकर या ‘लिव इन रिलेशनसिप’ रहकर या विवाह व्यवस्था से मुक्त रहकर अपना जीवन जी सकती है कि नहीं, यही स्त्री विमर्श का अहम हिस्सा है। विवाह व्यवस्था स्त्री पर अत्याचार है या स्त्री इच्छा के विरुद्ध है या पुरुषवादी समाज का स्त्री को बंधनों में जकड़ने का षडयंत्र है आदि नाना रूपों में यह बहस चलती रही है। स्त्री पुरुष का फर्क शारीरिक है, किन्तु इन दोनों की अस्मिता का निर्माण, क्षमताओं अक्षमताओं की पहचान एवं सांस्कृतिक रूपों की पहचान का आधार शरीर नहीँ है। मगर निराला के विमर्श शारीरिक बनावट के फायदे एवं नियति को महत्व देते हैं। उसकी बनावट के अनुरूप उसे काम काज एवं शिक्षा पहनावा की बात उनके यहाँ भी है एवं भारतेन्दु के यहाँ भी है यह उस समय के समाज सुधार की सीमा है।

निराला यूरोप के स्त्री चिंतन एवं भारतीय स्त्री-चिंतन में कुछ मौलिक अंतर रखना चाहते थे उनका मानना था कि उनके यहाँ भौगोलिक एवं सांस्कृतिक वातावरण और हमारे यहाँ के भौगोलिक एवं सांस्कृतिक वातावरण और हमारे यहाँ के भौगोलिक एवं सांस्कृतिक वातावरण में अन्तर है फलत: दोनों के चिंतन का विकास एकरेखीय नहीं हो सकता। परिवर्तन एवं स्त्री स्वतन्त्रता अनिवार्य है क्योंकि “परिवर्तन जिस तरह संसार की सभी वस्तुओं के लिए है, उसी तरह स्त्री स्वभाव के लिए भी।”12 मगर उन्हें क्षोभ इस बात का है की आज की अधिकांश स्त्रियाँ पश्चिम का नकल कर रही है। फलस्वरूप पुरुष-स्त्री चिंतन में सामंजस्य की जगह टकराहट पैदा हो रही है जो कहीं न कहीं दो संस्कृतियों की टकराहटहै। नवजागरणकालीन स्त्री विमर्श स्त्री को पारंपरिक भूमिका में ही देखता है। इस भूमिका का अतिक्रमण करना उस समय एवं समाज के लिए संभव भी नहीँ था। यह निराला समेत सभी की सीमा थी। हालांकि निराला ने स्त्री को वायु की तरह मुक्त रखने की बात जरूर कही है मगर उन्हें भी बहु-बेटी, प्रेमिका वाला रूप ही मान्य है। स्त्री जीवन को बंधनों में जकड़ने में पंडितों एवं मुल्लाओं की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए निराला लिखते हैं – “हाँ, मुल्लाओं और पंडितों की कृपा से पद दलित हिंदोस्तानी नारी अवश्य अबला काही जा सकती है। उसके सब अधिकारों को इन्हीं दोनों जन्तु विशेषों ने राहु के समान अपना सर्वग्रासी मुंह खोलकर हड़प लिया। शास्त्रों की दुहाई देकर हमारे पणडाज्जियों ने उनकी शिक्षा एवं दीक्षा का कचूमर बहुत पहले ही निकाल डाला है, कुलटाप्व का दोषारोपण करके उनकी स्वतन्त्रता का नाश कर दिया है, और फिर उस पर तुर्रा यह की मितांक्षरा आदि सत्यानाशी टीकाओं द्वारा उनके खाने-पीने की सामग्री पर भी छापा मारने की कोशिश की है ।”13

स्त्री-विमर्श का एक मुद्दा यह भी रहा कि हिन्दू शास्त्र में विधवा स्त्री को कोई अधिकार नहीं दिया गया। उसे नाते रिश्तेदारों की दया पर ही जीना पड़ता था, जीना क्या निकृष्ट और तुच्छ जीवन को कोई जीना भी कैसे मान सकता है । स्त्री-विमर्श के आंदोलन स्वरूप आज उसे सम्मान-जनक अधिकार प्राप्त है। 1930 की ‘सुधा’ के सम्पादकीय में उन्होने ‘हिन्दू अबला ’ शीर्षक से इस पर चिंतन किया है। हिन्दू धर्म के ठेकेदार पंडितों ने शास्त्र के नियमों का न जाने कैसा उल्टा-पुल्टा विधान गढ़करकम उम्र की बालाओंकी शादी बड़े-बूढ़ों से करा दी। निराला ने इसे “हिन्दू-धर्म ” का नृशंस पापाचार कहा है, जिसमे स्त्री की इच्छा का कोई सम्मान नहीं ।”14 बूढ़े पति के साथ उसकी किसी इच्छा की पूर्ति की कल्पना करना बेकार है। विधवा हो जाने पर न घर में आश्रय है न जीविका का साधन, क्योंकि स्त्रियों को तो शिक्षा से भी दूर रखा जाता था। तब एक ही रास्ता बचता है- कोठा। वे लिखते हैं – “हिन्दू शास्त्र के आज्ञा न होने के कारण वह पढ़ लिख भी नहीं सकती, जिसमे वह अपना पेट तो भर सके। बस, चकलखाना या ठीकरा ये ही दो जीविका साधन उसके लिए खुले हैं।”15 मैं यह पढ़कर सोचने को विवश हुई कि कहीं खूब सोच-समझकर तो शास्त्रों में ये विधान नहीं बनाया गया की विधवाओं का पिता या पति की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा ? ऐसी अवस्था में अगर जवान विधवा रिश्तेदारों की दया पर पलेगी तो वे उसका शोषण करेंगे और अगर घर से निकाल दी जाएगी तो या तो चकला पहुंचेगी या अगर भीख माँगकर गुजर करेगी तो भी भेड़िये उसका शोषण करेंगे। तीनों अवस्थाओं में बात पुरुषों के पक्ष में है। निराला जी साफ कहते हैं कि ऐसे पापाचारों के विरुद्ध इन नारियों की शिक्षित पुत्रियाँ आंदोलन करेंगी। “सदियों से शास्त्रीय अत्याचारों को चुपचाप सहन करने वाली हिन्दू नारियों की वर्तमान शिक्षित पुत्रियाँ धर्म के नाम पर होने वाले इस भयंकर पापाचार के विरुद्ध आंदोलन न करेंगी?”16 आगे चलकर हम देखते हैं कि स्त्री अधिकारों के आंदोलन में यह एक प्रमुख मुद्दा रहा। स्त्री-विमर्श स्त्री को पुरुष के समान अधिकार दिलाने का संघर्ष है। वह स्त्री पुरुष को अधिकारों की समान भूमि पर लाने का संघर्ष है। मनुष्य समाज उस दिन सभ्यता के शिखर पर पहुँचेगा जिस दिन वह स्वेच्छा से दोनों के पूर्णतम अधिकारों को स्वीकार कर लेगा। निराला का स्त्री-विमर्श हमें इसी दिशा में जाने की प्रेरणा देता है।

निराला के पूरे स्त्री चिंतन में एक बात जो खटकती है यह है कि उसमें दलित स्त्री के शिक्षा संबंधी एवं अधिकारों संबंधी कठिनाइयों पर विचार नहीं किया गया है। लेकिन निराला ने अपनी कविता ‘जल्द जल्द पैर बढ़ाओ’ में दलित वर्ग की शिक्षा की बात है, उसमें दलित स्त्री वर्ग की शिक्षा की बात है, परंतु उसमे दलित स्त्री वर्ग का उस रूप में चित्रण नहीं है जितना होना चाहिए, हाँ महादेवी के यहाँ यह बात है, लेकिन निराला ने स्त्री पर इतने निबंध लिखे हैं अगर उनकी दृष्टि दलित स्त्री पर गई होती तो निराला के स्त्री विषयक निबंध में स्त्री के अधिकारों की बात और स्पष्ट हुई होती।

इस प्रकार हम देखते हैं कि निराला का स्त्री-विमर्श अपनी समय की सोच की सीमाओं के बावजूद स्त्री-पुरूष की समानता एवं समान अधिकार की बात करता है। उसमें किसी के वर्चस्व की बात नहीं है। वह विमर्शों के घमासान से ऊपर स्त्री की अलग एवं पुरुष की अलग सत्ता के रूप में विवेचित करने के बजाए दोनों को एक मानवी सत्ता के एक समान अंग के रूप में मानने एवं एक समान अधिकार देने की हिमायत करता है हालांकि उसमें युगानुरूप उतनी प्रखरता नहीं है और आज के स्त्री-विमर्श जितने मुद्दे नहीं है। विमल थोरात ने अपनी पुस्तक ‘दलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर’ में दलित स्त्री की शिक्षा एवं अधिकारों संबंधी उपेक्षाओं पर काफी विस्तार से लिखा है। वे कहती है – “दलित स्त्री आत्म कथनों में अभिव्यक्त संदर्भ, परिवेश समस्या और संघर्ष का स्वरूप बहुस्तरीय है ।”17 दलित स्त्री के जीवन में शिक्षित होने के लिए संघर्ष, जातिगत पहचान की वजह से जूझना, आर्थिक सबलता के लिए कठिन प्रयास, भूख से लड़ाई, स्त्री होने के कारण घर और बाहर होने वाली अवहेलना, अपमान और शोषण की तिहरी मार को झेलने के प्रसंगों, घटनाओं संघर्षों का चित्रण उन्होनें किया है।

निराला का स्त्री चिंतन व्यापक है, उसमें स्त्री-विमर्श का प्रस्थान बिन्दु स्त्री-शिक्षा को मानकर उस पर गंभीर बहस की गई है। स्त्री शिक्षा को ही स्त्री-मुक्ति का प्रस्थान माना गया है। स्त्री अधिकारों की उसमेंआवाजेंहैं, समाज के पोंगा-पंथियों का विरोध है। विधवाओं के हक की बात है, स्त्री पुरुष के विवाह एवं मुक्त संबंधो पर भी वहाँ समयानुसार विचार किया गया है।

संदर्भ ग्रंथ सूचि :

  1. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.120
  2. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.119
  3. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.119
  4. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.119
  5. चतुर्वेदी जगदीश्वर ‘स्त्रीवादी साहित्य विमर्श’ अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, संस्करण 2011
  6. चतुर्वेदी जगदीश्वर ‘स्त्रीवादी साहित्य विमर्श’ अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, संस्करण 2011
  7. चतुर्वेदी जगदीश्वर ‘स्त्रीवादी साहित्य विमर्श’ अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, संस्करण 2011
  8. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.243
  9. नवल नन्द किशोर (सं.)’निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.257
  10. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.261
  11. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.255
  12. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.242
  13. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.259
  14. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.275
  15. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.276
  16. नवल नन्द किशोर (सं.) ‘निराला रचनावली खंड-6’ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1983 पृ.261
  17. थोरात विमल ‘दलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर’ अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली, संस्करण 2010.