नाट्यशास्त्रोक्त लक्षण एवं नाटक में उसकी उपादेयता
आशुतोष कुमार
पी. एच. डी., शोधार्थी
संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली – 110007
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सारांश
नाट्य में वाचिक अभिनय का महत्त्वपूर्ण स्थान है इसे नाट्य का शरीर कहा गया है, क्योंकि नाटककार इसी के माध्यम से अपनी कथावस्तु को दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। नाट्यशास्त्र में वाचिक अभिनय के अन्तर्गत ही षट्त्रिंशत् लक्षण वर्णित है। इनकी संयोजना से वाणी में वैचित्र्य की सृष्टि होती है, जिससे प्रेक्षागृह में बैठे दर्शक विस्मित तथा आनन्द विभोर हो जाते हैं। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र के 16 वें अध्याय में 36 लक्षण बताया है। इन्हीं लक्षणों से परवर्ती काल में अलंकारों का भी विकास हुआ। अलंकार काव्य के बाह्य सौन्दर्य को बढाता है तो लक्षण उसके आन्तरिक सौन्दर्य में वृद्धि करता है। प्रस्तुत शोध प्रपत्र के माध्यम से नाट्यशास्स्त्र में निरूपित लक्षण एवं इसके स्वरूप तथा नाट्य में इसकी उपयोगीता को बताया गया है।
कूटशब्द
वाचिकाभिनय, लक्षण, काव्यबन्ध, भूषणसम्मित, भावार्थगत।
आमुख
नाट्यशास्त्र काव्य एवं कला कला का विश्वकोश है साथ ही सिद्धान्त एवं व्यवहार दोनों पक्षों की विराट चेतना का अप्रतिम संग्रह है। नाट्यशास्त्र को ‘पंचम वेद’ भी कहा जाता है।[1] इसमें नाट्य सम्बन्धी ज्ञान के अतिरिक्त प्राचीन भारत की कला एवं संस्कृति का विस्तृत परिचय प्राप्त होता है। नाट्य में प्रयुक्त अभिनय , संगीत, नृत्य, वाद्य, वास्तु, मूर्ति, चित्र, पुस्तक आदि विविध कलाओं एवं अनेक प्रकार के शिल्पों का भी परिनिष्ठित एवं व्यापक विवेचन नाट्यशास्त्र में हुआ है। साथ ही प्रसंगानुसार नाट्याभिनय एवं नाट्यलेखन के साधनभूत, सौन्दर्यशास्त्र, काव्य तथा व्याकरण इन विषयों पर भी विचार हुआ है। भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र में चार प्रकार के अभिनय[2] बताये गये हैं- (i) आङ्गिक, (ii) वाचिक, (iii) सात्त्विक तथा (iv) आहार्य।[3] इनमें वाचिक अभिनय के प्रसङ्ग में ३६ लक्षण वर्णित हैं। नाट्य में वाणी के माध्यम से संवादों का कथन और काव्य की प्रस्तुति को वाचिक अभिनय कहते हैं। यह अभिनय पूरी अभिनय कला का प्राण है। वाचिक अभिनय काव्यार्थ या नाट्यार्थ की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में सहायक होता है। आचार्य भरतमुनि का कथन है कि कवि के द्वारा काव्यादि निर्माण तथा अभिनेता के द्वारा प्रयोग के अवसर पर शब्दों पर विशेष प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि यही सम्पूर्ण नाट्य प्रदर्शन का कलेवर है। अंग, नेपथ्य रचना तथा सत्वाभिनय वाक्यार्थों को ही अभिव्यक्त करते हैं। वाचिक अभिनय में रस और भावों के अनुरूप वाणी का अनुकरण किया जाता है। भरतमुनि ने वाचिक अभिनय के सन्दर्भ में पाठ्य पर विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने वाचिक अभिनय के आरम्भ में दो प्रकार के पाठ्य बताया है- i) संस्कृत पाठ्य एवं ii) प्राकृत पाठ्य। संस्कृत पाठ्य के अन्तर्गत वर्ण निरूपण, व्यञ्जन और उनके स्थान स्वर तथा उनका परिमाण, शब्दों के विभेद, छन्द, अलङ्कार, नाट्य रचना के अङ्गीभूत छत्तीस लक्षण और काव्य के गुण, दोष का विस्तृत विवेचन किया गया है। वाचिक अभिनय के प्रसंग में ही काव्यबन्ध के स्वरूप का विवेचन किया है। काव्यबन्ध का तात्पर्य नाट्यकृति से है, जिसे पाठ्य नाम से भी अभिहित किया जाता है। यह पाठ्य (नाट्यकृति) वस्तुत: कविकृत एक प्रसिद्ध या कल्पित वर्णन होता है, जिसे संवाद के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। दर्शकदीर्घा (Auditorium) में बैठे हुए प्रेक्षकवर्ग (Audience) का इस पाठ्य (नाटक) के प्रति अनुराग हो, अथवा पाठ्य के माध्यम से उनके हृदय में आनन्दातिरेक की सृष्टि की जा सके, उसके लिए पाठ्य का सुसज्जित एवं सुसंगठित होना अत्यावश्यक है। पाठ्य को सुसज्जित एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए काव्य के उत्कर्षक तत्त्वों का निर्देश दिया गया है। ये संख्या में मुख्यत: तीन बताये गये हैं- (i) लक्षण, (ii) अलंकार एवं (iii)गुण।
नाट्यशास्त्रकार आचार्य भरतमुनि की दृष्टि में काव्यलक्षण काव्यबन्ध के अति महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। काव्यबन्ध अर्थात् नाटक को लक्षणों से युक्त होना ही चाहिए।[4] उन्होंने काव्यलक्षण की कोई निश्चित परिभाषा प्रदान नहीं की, किन्तु नाट्यशास्त्र के 16 वें अध्याय के आरम्भ में षट्त्रिंशत् लक्षणों के नाम परिगणना के पश्चात् इसे “भूषणसम्मित” एवं “भावार्थगत” कहकर इसके रसानुकूल प्रयोग का प्रतिपादन किया है।[5] अर्थात् ये लक्षण नाटक में रस मे बाधक न हों अपितु रसनिष्पत्ति में सहायक हों।
नाट्यशास्त्र के टीकाकार आचार्य अभिनवगुप्त काव्यलक्षण की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि- “लक्षण काव्यरूपी भवन की भित्तियां हैं। छन्दोयोजना इस भवन की आधार भूमि है, गुण और अलंकार इस भित्ति के चित्र हैं तथा दशरूपक इसकी खिडकियां हैं।”[6] उनके अनुसार लक्षण काव्यभवन के भित्तिस्वरूप हैं। इस पर गुण एवं अलंकार भित्तिचित्र की भांति हैं। स्पष्ट है कि लक्षण का अलंकार से पूर्व वर्णन किया जाना, लक्षण की प्रमुखता को प्रदर्शित करता है। आधुनिक संस्कृत विद्वान प्रो० रेवाप्रसाद द्विवेदी ने अभिनवगुप्त के विचार की समीक्षा करते हुए कहा है कि “लक्षण को भित्ति न मानकर भित्ति पर किया गया सुधालेप मानना चाहिए। यह लेप ही चित्र का मूल आधार होता है। इसके बिना चित्र फलक चित्र रचना के योग्य नहीं बन पाता है”।[7]
जिस प्रकार अलंकार से सुसज्जित रमणी सुन्दर एवं आकर्षक होती है उसी प्रकार इन लक्षणों से युक्त काव्य सुन्दर एवं रोचक होता है। इनकी संयोजना से वाणी में वैचित्र्य की सृष्टि होती है, जो सामाजिक को विस्मित और आनन्द विभोर कर देता है। नाट्यशास्त्रकार ने वाचिक अभिनय के इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखकर नाट्यशास्त्र के 14 से 19 वें अध्याय तक वाचिक अभिनय का वर्णन किया है। पूरे 16वें (कतिपय संस्करणों में 17 वें) अध्याय में सिर्फ लक्षण ही वर्णित है। नाट्यशास्त्र में वर्णित षट्त्रिंशत् लक्षण निम्नलिखित हैं[8]–
1.विभूषण, 2.अक्षरसंघात, 3.शोभा, 4.अभिधान, 5.गुणकीर्तन, 6.प्रोत्साहन, 7.उदाहरण, 8.निरुक्त, 9.गुणानुवाद, 10.अतिशय, 11.हेतु, 12.सारूप्य, 13.मिथ्याध्यवसाय, 14.सिद्धि, 15.पदोच्चय, 16.आक्रन्द, 17.मनोरथ, 18.आख्यान, 19.याञ्चा, 20.प्रतिषेध, 21.पृच्छा, 22.दृष्टांत, 23.निर्भासन, 24.संशय, 25.आशी:, 26.प्रियवचन, 27.कपटसंघात, 28.क्षमा, 29.प्राप्ति, 30.पश्चाताप, 31.अनुवृत्ति, 32.उपपत्ति, 33.युक्ति, 34.कार्य अर्थापत्ति, 35.अनुनीति तथा 36.परिवेदन।
‘शोभा’ नामक लक्षण –
“सिद्धैरर्थै: समं कृत्वा ह्यसिद्धोऽर्थ: प्रसाध्यते।
यत्र श्लक्ष्णविचित्रार्था: सा शोभेत्यभिधीयते॥[9]”
अर्थात् जहां सिद्ध पदार्थों से तुलना कर असिद्ध पदार्थ को भी सिद्ध किया जाता है, तदनन्तर उससे जो आह्लादक व विचित्र अर्थ निकलता है वह शोभा नामक लक्षण है। जैसे अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक के द्वितीय अङ्क में मृगयाविहार के अवसर पर सेनापति राजा दुष्यन्त से कहता है-
“मेदश्छेदकृशोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपु:,
सत्त्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चितं भयक्रोधयो:।
उत्कर्ष: स च धन्विनां यदिषव: सिध्यन्ति लक्ष्ये चले,
मिथ्यैव व्यसनं वदन्ति मृगयामीदृग्विनोद: कुत:॥[10]”
अर्थात् (मृगया के श्रम से) व्यक्ति चर्बी कम हो जाने के कारण पतले उदर वाला शरीर हल्का और फुर्तीला होकर उद्योग करने योग्य हो जाता है। जीवों के भय और क्रोध में विकृत हुये मन का भी परिज्ञान हो जाता है(अर्थात् निरन्तर देखते रहने से जीवों की चेष्टाओं को देखकर उनकी भय युक्त अथवा क्रोध युक्त अवस्था का ज्ञान हो जाता है)। धनुर्धारियों के लिये यह उत्कर्ष की बात है कि उनके बाण चल लक्ष्य पर भी सफल होते हैं अर्थात् चुकते नहीं (और यह निपुणता मृगया के अभ्यास से ही आती है)। अत: लोग व्यर्थ ही मृगया को व्यसन कहते हैं; भला ऐसा मनोरञ्जन अन्यत्र कहां। परिश्रम से लाभ सिद्ध है, उसके योग से मृगया रूप व्यसन को भी सिद्ध रूप में दिखलाया गया है। इस प्रकार यहां परिश्रम सिद्ध कर्म से मृगया (शिकार करना) असिद्ध (त्याज्य) कर्म की तुलना करके असिद्ध को भी सिद्ध किया गया है। यहां किसी अलंकार के कारण नहीं अपितु कवि ने शब्द-व्यापार योजना इस प्रकार की है जिससे मनोरम हृदय आह्लादक अर्थ निष्पन्न हो रहा है।[11] अतएव स्पष्ट है कि उक्त पद्य में शोभा नामक लक्षण के अनुप्रयोग से ही चारूता उत्पन्न हुई हैं।
आचार्य भरतमुनि के उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लक्षण काव्य और नाट्य दोनों के महत्त्वपूर्ण अङ्ग थे। ये काव्यलक्षण प्रारम्भ में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे किन्तु शनै: – शनै: अलंकार, गुण, रीति, वृत्ति आदि के प्रभाव में धूमिल होते चले गये। अभिनवगुप्त के अनुसार रीति, वृत्ति, गुण, अलंकार आदि जिस रूप में काव्य के अंग है लक्षण उस रूप में नहीं आते हैं। भोज, शारदातनय, शिंगभूपाल, विश्वनाथ, और राघवभट्ट जैसे अनेक प्रमुख काव्याचार्यों ने भी इन लक्षणों के महत्त्व को स्वीकार किया है, इनसे भरतोक्त छत्तीस काव्य लक्षणों का महत्त्व और अधिक बढ जाता है। आचार्य अभिनवगुप्त ने अपने पूर्ववर्त्ती दस आचार्यों का मत इस सम्बन्ध में उद्धृत किया है[12], जो संक्षेप में इस प्रकार हैं-
- लक्षण काव्य का शरीर है। इनके द्वारा कथावस्तु के शरीर में वैचित्र्य का प्रादुर्भाव होता है। ये लक्षण गुण और अलंकार के बिना ही अपने सौभाग्य से सुशोभित होते हैं। यह अलंकार के समान सौन्दर्य के अधायक तत्त्व है। यही काव्य शरीर की निसर्ग सुन्दरता है। लक्षण अलंकार की निरपेक्ष सौन्दर्य का प्रसार करते हैं।
- नाट्यकथा के संध्यंग रूप अंश ही ये काव्यलक्षण हैं। लक्षण का संबन्ध नाटकादि के इतिवृत्त से है, काव्य मात्र से नहीं।
- अभिधा का त्रिविध व्यापार ही लक्षण का विषय होता है। कवि किसी विशिष्ट विचार और कल्पना को दृष्टि में रखकर काव्य की रचना करता है। यह आवश्यक नहीं कि काव्य का भरत सम्मत प्रत्येक लक्षण प्रत्येक दशा में या प्रत्येक काव्य रचना का लक्षण बने। क्योंकि नारी के स्तनों की स्थूलता उसका सौन्दर्यधायक लक्षण है, किन्तु जब यही मोटाई कटि में हो तो वह कुलक्षणा हो जाती है।
आगे इन छत्तीस लक्षणों पर विचार करते हुए अभिनवगुप्त ने कहा है कि ये लक्षण काव्य या नाट्य के अंगभूत हैं। जैसे महापुरुष के अंगों में महानता के लक्षण होते हैं उनसे पुरुष का स्वाभाविक सौन्दर्य निखरता है, जो पुष्पमाला आभूषणादि से भिन्न होते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि नाट्यशास्त्र मे बताये गये 36 लक्षण काव्य या नाट्य के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इसी के द्वारा काव्य में सौन्दर्य की वृद्धि होती है जो नाटक को सहृदय आह्लादकारी बनाती है। वर्तमान नाट्ककार या काव्यकार के लिए भी आज उतना ही प्रासङ्गिक है यदि इन ३६ लक्षणों को ध्यान में रखकर नाटकादि लिखा जाए तो अवश्य ही विशिष्ट रचना होगी जिससे पाठक अथवा दर्श आनन्द-विभोर होंगे। अतएव भरतमुनि द्वारा प्रतिपादित ३६ लक्षण वर्तमान में भी अत्यन्त उपयोगी है।
सन्दर्भ ग्रन्थ–सूची–
- कुमार, कृष्ण. अलंकारशास्त्र का इतिहास. मेरठ: साहित्य भण्डार, 2010
- द्विवेदी, दशरथ, संस्कृत काव्यशास्त्र में अलंकारों का विकास. नई दिल्ली: राधा पब्लिकेशन्स, 2003
- दीक्षित, सुरेन्द्रनाथ. भरत और भारतीय नाट्य परम्परा. दिल्ली: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1973
- नारायण, जयप्रकाश. नाट्यशास्त्र में काव्यलक्षण. दिल्ली: अमर ग्रन्थ पब्लिकेशन्स, 2014
- भरतमुनि, नाट्यशास्त्र. सम्पा. रविशंकर नागर, दिल्ली: परिमल पब्लिकेशन्स, 1984
- भरतमुनि, नाट्यशास्त्र. सम्पा. बाबुलालशुक्ल शास्त्री, वाराणसी: चौखम्बा संस्कृत सीरिज, 1978
- भरतमुनि, नाट्यशास्त्र. अभिनवभारती टीका सहित. सम्पा. पारसनाथ द्विवेदी, वाराणसी: सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, 2001
- विश्वनाथ, साहित्यदर्पण. हिन्दी व्या. शालिग्राम शास्त्री, दिल्ली: मोतीलाल बनारसी दास, 1977
[1] न वेद व्यवहारोऽयं संश्राव्य: शूद्रजातिषु।
तस्मात् सृजापरं वेदं पञ्चमं सार्ववर्णिकम्॥ नाट्यशास्त्र, १.९२
[2] अभिपूर्वस्य णीञ् धातुराभिमुख्यार्थनिर्णये।
यस्मात् प्रयोगं नयति तस्मादभिनय: स्मृत:॥ नाट्यशास्त्र, 8.6
[3] आङ्गिको वाचिकश्चैव ह्याहार्य: सात्विकस्तथा।
चत्वारोऽभिनया ह्येते विज्ञेया नाट्यसंश्रया:॥ वही, 6.24
[4] काव्यबन्धास्तु कर्त्तव्या: षट्त्रिंशल्लक्षणान्विता:।
[5] षट्त्रिंशदेतानि तु लक्षणानि प्रोक्तानि भूषणसम्मितानि।
काव्येषु भावार्थगतानि तज्ज्ञै: सम्यक् प्रयोज्यानि यथारसं तु॥ नाट्यशास्त्र, 16.42
[6] नाट्यशास्त्र, अभिनवभारती टीका, 15.227
[7] नारायण, जयप्रकाश, नाट्यशास्त्र में काव्यलक्षण, पृ० 54
[8] विभूषणञ्चाक्षरसंहितश्च शोभाभिमानौ गुणकीर्तनञ्च।
प्रोत्साहनोदाहरणे निरुक्तं गुणानुवादोऽतिशय: सहेतु:॥१॥
सारूप्य-मिथ्याध्यवसायसिद्धि-पदोच्चयाक्रन्दमनोरथाश्च।
आख्यानयाञ्चाप्रतिषेधपृच्छादृष्टान्तनिर्भासनसंशयाश्च॥२॥
आशी: प्रियोक्ति: कपट: क्षमा च प्राप्तिश्च पश्चात्तपनं तथैव।
अथानुवृत्तिर्ह्युपपत्तियुक्ती कार्योऽनुनीति: परिवेदनञ्च॥३॥
षट्त्रिंशदेतानि तु लक्षणानि प्रोक्तानि वै भूषणसम्मितानि।
काव्येषु भावार्थगतानि तज्ज्ञै: सम्यक्प्रयोज्यानि यथारसं तु॥४॥नाट्यशास्र् १६.१-४
[9] नाट्यशास्त्र, 16.6
[10] अभिज्ञानशाकुन्तलम्, 2.5
[11] न चात्रालङ्कार: कश्चिदपि तु कविव्यापारेण य: शब्दार्थव्यापारादेवार्थघटनात्मा तत्कृतं हृद्यं लक्षणमेव। अशोभनोऽप्यर्थोऽमुना न्येन शोभेत इति शोभेयमुक्ता। अभिनवभारती, 16.7
[12] नाट्यशास्त्र, अभिनवभारती टीका- 16.1
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