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राष्ट्र ,आख्यान एवं राष्ट्रवाद की परिधि में जेंडर के प्रश्न
सुप्रिया पाठक 
साहयक प्रोफ़ेसर, स्त्री अध्ययन विभाग
म.गां.अं.हिं.वि.वर्धा, महाराष्ट्र  
पिछले दिनों एक अकादमिक कार्यक्रम में अपने विचार रखने का अवसर प्राप्त हुआ जिसका विषय था “ राष्ट्र बनाम आख्यान” यह विषय अत्यंत दिलचस्प था जिसके तीन अति महत्वपूर्ण पक्षों : राष्ट्र , उसका आख्यान और राष्ट्रवाद पर विमर्श की पर्याप्त संभावनाएं मौजूद थीं। हालांकि यह शब्द बहुत हद तक समान होते हुए भी अपनी प्रवृति में भिन्न हैं । खासतौर पर जब बात स्त्रियों की हो , तब यह बहस कई नए आयामों से सोचने पर भी प्रेरित करती है कि हम राष्ट्र की परिकल्पना में स्त्रियों को कैसे देखते हैं ? राष्ट्र के आख्यान को रचने के क्रम में स्त्रियों की कोई भूमिका रही है ? राष्ट्रवाद की शक्ल में उभरी प्रवृति ने राष्ट्र को व्याख्यायित करते हुए स्त्रियों को किस रूप में ‘एजेण्डे’ में शामिल किया तथा 21 वीं सदी में राष्ट्रवादी विमर्शों के समक्ष जो चुनौतियां आई हैं उन्होनें स्त्रियों से जुडे प्रश्नों तथा उनकी अपेक्षित भूमिकाओं का कैसा खाका खींचा है ? ऐसे कई महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जिसे राष्ट्र के आख्यान को समझने एवं उसपर कोई राय कायम करने के क्रम में प्रस्थान बिंदू के रूप में देखा जाना प्रासंगिक होगा । प्रस्तुत आलेख इन समस्त विमर्शजन्य प्रश्नों पर नारीवादी हस्तक्षेप का प्रयास मात्र है । 
राष्ट्र : एक संकल्पना के रूप में हाल के कुछ वर्षों में भारत राष्ट्र के विचार को लेकर कई महत्वपूर्ण आलोचनाएं सामने आई हैं जिसमें दो पुस्तकें ‘नेशनलिश्म विदाउट ए नेशन इन इंडिया’ (एलॉयसियस, 1999)[1] तथा ‘ डीब्राहमनाजिंग हिस्ट्री’ ((ब्रज रंजन मणि, 2006)[2] प्रासंगिक हैं क्योंकि ये दोनों ही उत्पीडितों की दृष्टी से राष्ट्र के विचार को नए सिरे से प्रस्तुत करते हैं । एलॉयसियस अन्य विद्वानों की अपेक्षा जो भारत राष्ट्र को एक बहुराष्ट्रीय राज्य के रूप में समझते हैं , के बरक्स इसकी संकल्पना को अधिक व्यापक बनाते हुए उन सभी समूहों को भी शामिल करते हैं जो किसी ना किसी रूप में अवधारणा के स्तर पर भारत राष्ट्र की कल्पना कर रहे थे । उनकी दृष्टी में राष्ट्र दरअसल उन चंद लोगों का समूह था जिसमें बुर्जुआ ,अंग्रेजींदा लोग , सरकारी अधिकारी एवं नये व्यापारी थे जिनका राष्ट्रवाद निहायत परंपरागत, सांप्रदायिक एवं उनके सीमित हितों की पूर्ति के साथ जुडा हुआ मसला था। जिसमें समाज की आम जनता (स्त्रियां,दलित समुदाय तथा अल्पसंख्यक समूह) की भागीदारी लगभग अदृश्य थी। हालांकि एलॉयसियस उस संकीर्ण सबल्टर्न समझ की भी आलोचना करते हैं जो राष्ट्र और राष्ट्रवाद को सत्ता एवं संस्कृति सापेक्ष समझने की बजाए सिर्फ ब्राहम्णवादी रूप में देख रहा था । बावजूद इसके उनकी आलोचना नए विमर्शों के लिए एक पुख्ता जमीन उपलब्ध कराती है । अब यदि हम पुनः राष्ट्र की अवधारणा पर विचार करें कि राष्ट्र क्या है? यह राष्ट्र – राज्य की संकल्पना के साथ कैसे जुडता है तो हम पाते हैं कि वस्तुतः प्रारंभिक दौर से ही राष्ट्र – राज्य की बहस में राष्ट्र की अवधारणा हमेशा बदलती रही है । साहित्य तथा समाज शास्त्र की अन्य विधाओं ने राष्ट्र को एक अनिवार्य हिंसक ईकाइ के रूप में परिभाषित किया है । यूरोपीयन तथा अफ्रीकन समाजों में हुए अध्ययन यह बताते है कि राष्ट्र की निर्मिति दरअसल समाज के कई समूहों के हाशियाकरण,उनकी आवाजों,उनकी तकलीफों और उनके संघर्षों को दरकिनार करते हुए होती है जो हिंसक ,असमानतामूलक है ।[3]
राष्ट्रवाद एवं राष्ट्र राज्य की अवधारणाओं पर बहस का इतिहास हमें गेल्नर तथा हॉब्सबॉम के लेखन में भी देखने को मिलता है जिसमें वे बताते हैं हि आरंभिक दौर में राष्ट्रवाद अपने मूल से जुडे रहने की कवायद था जो उस समूह विशेष के इतिहास ,संस्कृति तथा उसके भौगौलिक अस्तित्व से गहरे रूप में गुंथा हुआ था । यह भावनात्मक स्तर पर तो स्वीकार्य था परंतु राष्ट्र की यथार्थपरक निर्मिति में असफल था। इस शब्द की उत्त्पति लैटिन शब्द ‘Natio’ से हुई थी जिसका अर्थ था “जो पैदा हुआ हो” । खासतौर पर यह शब्द अपने प्रारंभिक दौर में उन विदेशियों के लिए प्रयुक्त किया जा रहा था जो रोमन लोगों से निम्न श्रेणी के माने जा रहे थे।[4] ग्रीनफिल्ड ने इस राष्ट्र की अवधारणा को उन विद्यार्थियों के समूह के साथ भी जोड कर देखा है जो सुदूर देशों से उच्च शिक्षा के लिए पाश्चात्य देशों के महान विश्वविद्यालयों में जा रहे थे । ये विश्वविद्यालय ही विद्यार्थियों के लिए राष्ट्र का पर्याय थे जिसके कारण राष्ट्र की संकल्पना में और इजाफा हुआ और अब राष्ट्र किसी समूह विशेष में जन्म के अस्तित्व से जुडा ना होकर वैचारिक एवं उद्देश्यगत रूप से समान समुदाय का द्योतक था जो सीमित दायरे में था । जिस राष्ट्र के हम नागरिक हैं, वह ‘भारत’ अपने भौगौलिक , राज्नीतिक , सामाजिक तथा अवधारणात्मक रूप में हमेशा से एक ही रूप में मौजूद नहीं था । अन्य देशों की तरह भारत के राष्ट्रनिर्माण कार्य में भी विभिन्न प्रवृतियां , कामनाएं और प्रयास आपस में टकराए कुछ विजयी हुए तो कुछ पराजित लेकिन हमारे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया पर इस द्वदं की छप हमेशा बनी रही । 
भारत में आधुनिक अर्थों में राष्ट्र की अवधारणा का विकास 19वीं सदी के आरंभ में होना आरंभ हुआ । अंग्रेजों के अधीन जब राष्ट्र निर्माण की कोशिशें शुरु हुई तब जिस चीज की सर्वाधिक आवश्यकता थी वह थी राष्ट्र निर्माण के प्रतीक तथा उसके इतिहास की । इस काल में धर्मनिरपेक्ष या वर्गीय दायरे में सीमित ना रह कर एक विशुद्ध हिंदूवादी तथा मुस्लिम विरोधी छवि की आवश्यकता थी इसलिए प्रतीकों का चुनाव भी अत्यंत सावधानीपूर्वक किया गया । इस समय पृथ्वीराज ,महाराणा प्रताप ,शिवाजी , रत्नसेन ,पद्मावती,हम्मीर समेत कई ऐतिहासिक एवं कल्पित हिंदू राजाओं को हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए आदर्श प्रतीकों के रूप में खडा किया गया । इन हिंदू राजाओं को ब्राह्मण्वादी विश्वासों का संरक्षक दिखाकर जिस प्रकार उनका महिमामंडन किया गया उससे यह जाहिर होता है कि इस अपार विविधता से भरे भारतीय राष्ट्र का प्रतीक बनाने के प्रयास कितने स्वार्थ केंद्रित थे जिसमें समाज के एक छोटे हिस्से को ही संतुष्ट किया जा सकता था । [5]
किसी भी समुदाय या समाज के गठन में जिसमें राष्ट्र भी शामिल है ,केवल अभिजात्य या कोई सांप्रदायिक वर्ग ही शामिल नहीं होता और ना ही किसी राष्ट्र का इतिहास सिर्फ उसके अभिजात्य वर्ग का इतिहास होता है । परंतु दुर्भाग्यवश, इतिहास लेखन की अपनी परंपरा भी निहायत सत्ता केन्द्रित ,ब्राहमणवादी और पौरुषपूर्ण रही जिसने समाज के अन्य तबके (गरीब किसान , मजदूर, दलित जातियां एवं विशेषतौर पर स्त्रियां ) कभी उस बनते हुए राष्ट्र की परिकल्पना का भी हिस्सा नहीं बनने दिया । हाँ, यह जरूर हुआ कि इस राष्ट्र के प्रति वफादार बने रहने और आनेवाली पीढियों को सामाजिक- सांस्कृतिक तौर पर राष्ट्र एवं उसके गौरवगान से लागातार परिचित कराते रहने की अनिवार्य जिम्मेवारी इस तबके के लोगों खासतौर पर माताओं को दी गई । जो बेशक राष्ट्र की निर्माता नहीं थी और ना ही उसके लिए पैदा किए जा रहे उन्माद का नेतृत्व कर रही थी परंतु संस्कृति की रक्षक एवं सामाजिक मूल्यों के पुनरुत्पादक के रूप में अपनी प्रदत्त भूमिकाओं में वे में बच्चों में रीति रिवाजों तथा मिथकीय कथाओं के माध्यम से राष्ट्रीय अस्मिता बोध पैदा कर रही थीं ।[6] दूसरे शब्दों में कहें तो गीतों, कहानियों,चित्रों और किंवदंतियों के माध्यम से बच्चे अपने नायकों के शौर्य और पराक्रम की गाथाएं सीख रहे थे और उनमें अपने राष्ट्र के प्रति हमेशा वफादार बने रहने का विचार भी विकसित हो रहा था । जो आगे चल कर मातृभूमि या देश जो स्त्री का ही पर्याय था, के रक्षा निर्भीक योद्धाओं और नागरिकों के रूप में करने वाले थे। 
उदाहरण के लिए ,कई राष्ट्रवादियों ने ‘मातृभूमि ‘अथवा ‘भारतमाता’ की रक्षा के विचार को ही आम लोगों के बीच सर्वाधिक जोर शोर से उठाया । जिसके फलस्वरूप राष्ट्र के सम्मान की रक्षा का प्रश्न माता के सम्मान की रक्षा के साथ इस कदर जुड गया कि जाने अनजाने स्त्रियां राष्ट्रवादी विमर्श के केंद्र में आ गईं । जहां वे स्वयं महत्वपूर्ण नहीं थी जितना जेंडरगत अवधारणा में लिपटा हुआ उनका ‘सम्मान’ महत्वपूर्ण हो गया । इसलिए स्त्री शरीर के प्रति हिंसा को एक राजनीतिक हथियार के रूप में देखा गया जो शत्रु राष्ट्र को पराजित करने का अचूक हथियार था। इस प्रकार यह एक दिलचस्प प्रस्थान बिंदू है जिसके जरीए जेंडर को एक सामाजिक सांस्कृतिक निर्मिति समझते हुए यह देखा जा सकता है कि स्त्रियां किस प्रकार माँ, पत्नी, सेविका तथा प्रेमिका के रूप में पौरुषपूर्ण राष्ट्र के विचार की वाहक बनीं।[7] तनिका सरकार ने अपनी पुस्तक ‘ हिन्दू वाइफ हिंदू नेशन’[8] तथा उर्वशी बुटलिया ने ‘वुमेन एंड हिंदू राइटस’ में इस प्रक्रिया तथा इसमें अंतर्निहित प्रवृति पर विशद चर्चा की है। एंडरसन ने (1983) हालांकि राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता को बहुत हद तक आधुनिक समय में सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भों में देखने की कोशिश की परंतु उनकी इस संकल्पना में लैंगिक पूर्वाग्रह निहित हैं । वे जिस ‘कल्पित समुदाय’ को व्याख्यायित कर रहे थे उनमें महिलाओं को कभी भी इस एक रेखीय भाईचारे में शामिल ही नहीं किया गया(राय,1994)। हालांकि तब भी वे महिलाओं के सांकेतिक प्रतिनिधित्व(चित्रण)[9] के रूप में ही राष्ट्र की कल्पना कर रहे थे । उदाहरण के लिए नेहरु ने भी अपने कई वक्तव्यों में भारत को ‘भारतमाता’ के रूप में देखा बावजूद इसके कि राष्ट्र के अंदर स्त्रियों की अपनी कोई स्वायतत्ता नहीं थी। कुमकुम संगारी और सुदेश वैद्य ने अपनी पुस्तक ‘रिकास्टींग वुमेन’ में स्त्रीत्व के इन्हीं पक्षों की चर्चा करते हुए लिखा है:“Womanhood is often part of an asserted or desired, not an actual cultural continuity”[10]
आख्यानों की दुनिया : आखिर किसका राष्ट्र ?
“It is imagined because the members of even the smallest nation will never know most of their fellow members, meet them, or even hear of them, yet in the minds of each lives the image of their communion” (Anderson, 1983, p. 63)
उपरोक्त पंक्तियां किसी भी राष्ट्र के निवासियों के संदर्भ में बिल्कुल सटीक प्रतीत होती हैं कि आखिरकार राष्ट्र की अनुभूति को महसूस करते हुए समाज का हर वर्ग स्वयं को उसके साथ कैसे जोडता है ? मुझे बचपन की एक घटना याद आती है जब मैं अपनी दादी से देश की आजादी के बारे में कोई सवाल कर रही थी और उन्होंने जो जबाब दिया वो अब तक मेरे जेहन में बना रहा। उन्होंने अपनी बोली में मुझे समझाते हुए कहा: ज्यादा कुछ तो याद नहीं बचिया बाकि ई याद बा कि सब लोगे ‘बामदेब बातरम(वंदे मातरम ) बोलत रहत रहे आउर परभात फेरी निकलत रहे , देखे में बडा नीक लगत रहे आ एगो बाबा रहले गान्ही उनका कहला में सबे लोग रहे मरद,मेहरानू, लइका ,बच्चा रहे । आ उनके लइअकिया(इंदिरा गांधी ) बाद में परधान मन्तरी बनल”। 
मैं आज भी सोचती हूँ कि आखिर क्यों उनकी बातें मेरे दिमाग में बसी रह गई ? ऐसा क्या खास था उनकी कहानी में ? तो पाती हूँ कि शायद मेरा खुद का भी स्त्री मन इस बात से आश्चर्यचकित था कि कैसे एक अति साधारण ,घूंघट डाले हुई ,अनपढ एवं गांव की स्त्री इतनी सहजता से देश की आजादी के बारे में इतनी बातें कैसे कर रही थी ? जिसके जीवन का दायरा सिर्फ घर के आंगन तक सिमटा हुआ था उसके अनुभव का वितान इतना वृहद कैसे था ? कहने का तात्पर्य यह कि राष्ट्र ,उसका आख्यान तथा उसके प्रति लगाव (भक्ति?) की अभिव्यक्ति समाज के हर तबके के पास होती है जो उसके सामाजिक सांस्कृतिक पदानुक्रमों (जाति, वर्गीय स्थिति, लैंगिक पहचान ,धर्म इत्यादि ) की स्थिति के अनुरूप अभिव्यक्त होती है । 
राष्ट्रवादी विमर्श एवं जेंडर के प्रश्न : 
राष्ट्रवादी विमर्श एवं जेन्डर के अंतर्संबधों पर चिंतन कर रहे लगभग सभी विद्वानों पार्थ चटर्जी, तनिका सरकार, कुमकुम संगारी, एवं सुदेश वैद्य इत्यादि ने यह स्थापित किया है कि महिला प्रश्नों का उदय राष्ट्रवाद की अपनी परिकल्पना के साथ ही हुआ। 19वीं सदी में भारत में उभरे राष्ट्रवाद के केंद्र में ‘स्त्री प्रश्न’ थे । हालांकि ऐसा नहीं था कि उसके पूर्व भारत में महिला प्रश्नों पर चर्चा नहीं हो रही थी ।भारत में स्त्री विमर्श का इतिहास बहुत पुराना है । इसकी झलक हमें बुद्ध और उनके शिष्य आनंद के उस वैचारिक बहस में देखने को मिलती है जिसमें वो गौतम बुद्द से संघ में स्त्रियों को प्रवेश देने की अनुमति मांगते हैं और बुद्ध उन्हें इसके लिए चेतावनी देते हुए कह्ते हैं कि जो संघ 5000 साल चल सकता था वो इस निर्णय से 500 साल तक सीमित हो सकता है । इसके बाद संघ में महिलाओं का प्रवेश गौतमी के रूप में होता है। इस लिहाज से आनंद को भारत का पहला स्त्रीवादी कहा जा सकता है। अर्थात स्त्री विमर्श कोई नई अवधारणा नहीं है बल्कि इसकी जडें हमारे सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास में छुपी हुई हैं ,लेकिन एक निर्धारित ‘ एजेण्डे’ के रूप में स्त्री प्रश्न पहली बार राष्ट्र्वादी विमर्श में आकार ग्रहण करता है। 
पार्थ चटर्जी ने भी अपने कई आलेखों में इसका उल्लेख किया है कि 19वीं सदी के प्रारंभ से ही स्त्रियों की सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति बहस के केंद्र में थी। राष्ट्रवादी विमर्श के प्रथम चरण में, महिला प्रश्नों का उद्भव नए शिक्षित मध्यम वर्ग के बीच एक प्रकार के पहचान की संकट के तौर पर हुआ। यह वो मध्यम वर्ग था जो औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था का प्रथम उत्पाद था । भारत की पराधीन एवं पीडित महिला छवि के प्रति सहानुभूति का छद्म रचकर औपनिवेशिक सत्ता भारत की सांस्कृतिक परंपरा को दमनकारी एवं बर्बर रूप में प्रस्तुत करने के लिए लगातार नये तर्कों का सहारा ले रही थी । इसी सदी में जेम्स मिल की हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया (1817) प्रकाशित हुई जिसमें मिल ने समूचे भारतीय इतिहास का हिंदू काल, मुस्लिम काल और अंग्रेजी काल में विभाजन कर भारत की एक संप्रदायिक छवि भी निर्मित की ।[11] मिल ने भारतीय अतीत की कटु आलोचना के आधार पर भारत के अंग्रेजों के हाथों पराधीन होने के तर्कसंगत बताने के प्रयास किया। साथ ही, उसने हिंदुओं को उनके अतीत या वर्तमान में सभ्य मानने से इंकार कर दिया। यह एक औपनिवेशिक दृष्टी थी जो अपनी सत्ता को जायज ठहराने के लिए उन समस्त पहलूओं पर प्रहार कर रही थी जो भारतीय समाज की विकृत छवि बना रही थी। आलोचना के बिंदू का सबसे बडा आधार सती प्रथा के रूप में मिला जो 1829 में इस प्रथा के उन्मूलन के लिए कानून बनाने वाले गवर्नर जेनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक के शब्दों में ‘ उनकी प्रथाओं में सर्वाधिक अपराधपूर्ण प्रथा ‘ थी। [12] 19 वीं सदी में भारत और इंग्लैंड के बीच सांस्कृतिक टकराव के केंद्र में भारतीय एवं पाश्चात्य स्त्रियां थीं जिनकी तुलना के माध्यम से भारत को निकृष्टतम बताया जा रहा था । यह औपनिवेशवादी दृष्टीकोण पूरे भारत के पौरुषवादी राष्ट्रवादी मानसिकता को बेहद आहत करने वाला था । यह स्थिति किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं थी कि कोई बाहरी व्यक्ति या सत्ता भारतीयों के आंतरिक मसलों में हस्तक्षेप करे यहीं से शुरुआत होती है स्त्री प्रश्नों पर अपनी अलग अलग प्रतिक्रिया देने की। 
राष्ट्रवाद के बैनर तले विभिन्न राष्ट्रवादी प्रवृतियां जिस प्रकार स्त्री प्रश्नों को व्याख्यायित कर रही थीं उन सभी प्रवृतियों में स्त्रियों के प्रश्न तो थे पर स्वंय महिलाएं नहीं थीं,उन प्रश्नों को उठाने वाले भी पुरुष थे और समाधान प्रस्तुतकरने वाले भी पुरुष थे । ऐसे कई समाज सुधारक थे जैसे राजा राममोहनराय, ईश्वरचंद विद्यासागर, माइकल मधुसूदन दत्त ने जिन्होंने सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह ,बेमेल विवाह इत्यादि स्त्री विषयक मुद्दों को उठायाऔर इसे स्त्रियों की स्थिति में सुधार के दृष्टी से देखा गया। परंतु इसका प्रतिनिधित्व महिलाएं नहीं कर रहीं थीं । एक और तबका भी था स्त्री प्रश्नों के साथ ताल से ताल मिला रहा था जिसे आमतौर पर बंगाली बुर्जुआ भद्रलोक के नाम से जाना जाता था ये वो तबका था जिसे स्त्री प्रश्नों को हल करने में इसलिए रुचि नहीं थी क्योकिं इस समाज स्त्रियां वास्तव में अत्यंत कठिन दौर से गुजर रहींथीं,बल्कि इसलिए था क्योंकि विक्टोरियन सभ्यता जहाँ पति पत्नी पार्टनर के रूप में रहते थे उसके बरक्स भारतीय समाज बहुत हद तक पिछडा हुआ था क्योकि यहाँ पत्नियां पार्टनर नहीं बल्कि धर्मपत्नी के रूप में थीं । ऐसी स्त्रियों को क्लब या सोसाइटी में साथ ले जाना संभव नहींथा । अतः उनका ‘आधुनिक’होना आवश्यक था । इसलिए शासक वर्ग की जीवन शैली, पहनावा, भाषा इन्यादि का अनुकरण कर एक ऐसी भारतीय स्त्री गढने की कोशिश की गई जो मूलतः भारतीय नहीं थी बल्कि पाश्चात्य स्त्री का मुखौटा थी। यह दोनों ही प्रवृतिया स्त्रियों की इच्छा या दृष्टी से तय की जा रही यात्रएं नहीं थीं बल्कि यह राष्ट्रवाद की अपनी जरुरत थी और उन जरुरतों के परिपेक्ष्य में स्त्री प्रश्नों को देखा जा रहा था । शिक्षित मध्यम वर्ग विभिन्न कुरीतियों को जैसे विधवाओं के साथ किया जाने वाला व्यवहार, बाल-विवाह, महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखना, सती-प्रथा, आदि को समाज में एक धब्बे के रूप में देख रहा था । इन आलोचनाओं की वजह से इन मुद्दों को काफी गंभीरता से लिया गया समाज सुधारकों की प्रथम पीढ़ी ने इन कुप्रथाओं को मिटाने के आम जन के बीच लगातार प्रयत्न जारी रखा | हालाँकि इनमे से कुछ सुधारक ही ऐसे थे जो पाश्चात्य संस्कृति की नक़ल से परे जाकर महिलाओं की अधीनता, गुलामी को अलग नजरिए से व्याख्यायित कर रहे थे। 19व़ी शताब्दी की अंतिम दशकों में महिलाओ से जुडे प्रश्न सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पुनरुत्थानवादी रंग में भी रंगे नज़र आये, जो पश्चिम के प्रभाव और उनके मूल्यों का जवाब देने के लिए तैयार किये गये थे ।[13]
राष्ट्रवादी सोच में भौतिक / आध्यात्मिक ; बाहरी/ भीतरी दुनिया के भेद ने एक विशेष स्थान ग्रहण किया । [14] राष्ट्रीय संस्कृति के आध्यात्मिक गुणों का स्थान घर था अतः उसकी रक्षा और पोषण का दायित्व महिलाओं को वहन करना था । बाहरी परिस्थिति में पुरुषों को दुनिया के दबाव का सामना करना था इसलिए महिलाओं की चारित्रिक आध्यात्मिकता पर खास जोर दिया गया। इस प्रकार बाहरी दुनिया भले ही औपनिवेशिक राज्य के सुपूर्द हो पर ‘भीतरी क्षेत्र’ राष्ट्रवादियों की जीत का प्रतीक बना । पुरुष राष्ट्रवादियों ने घर तथा स्त्री की घरेलू भूमिकाओं का महिमामंडन किया । इसने यह स्पष्ट किया कि राष्ट्रवादी प्रवृति ने औपनिवेशिक सत्ता से वैचारिक लडाई के दरम्यान महिलाओं की भूमिका को रणनीति के तौर पर तो इस्तेमाल किया लेकिन उसने अपनी स्त्रियों को घरों के अंदर रहने का संदेश भी दिया। उसे महिलाओं की अधीनस्थ भूमिका ही स्वीकार्य थी । इसी दृष्टीकोण ने स्त्रियों को पुरुषों के साथ ही समाहित माना जिसके कारण उनका कोई स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व नहीं बन पाया। इस परिभाषा में नई स्त्री को एक नए किस्म की पितृसत्तात्मक प्रवृति का सामना करना था जिसकी मुक्ति इस बात में निहित थी कि वे अपनी कोशिशों से राष्ट्र की संस्कृति और आध्यात्मिक अक्षुण्ता को बरकरार रखें। वस्तुतः समाज में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने की आवश्यकता इसलिए नहीं हुई कि वे बहुत कठिन दौर से गुजर रही थी बल्कि उनकी स्थिति में सुधार उनके पति एवं बच्चों के लिए आवश्यक था । स्त्रियों की माँ की भूमिका को ही सर्वाधिक स्वीकार्य थी । इसके महत्व को रेखांकित करते हुए कहा गया कि: 
“जिन स्थितियों में स्त्रियां शिशुओं को जन्म देती हैं और जिन परिस्थिति में बच्चे पलते हैं ,वे इतने दयनीय हैं कि ‘भारतीय मूल’ पूरी तरह विकृत हो जाता है। माताओं द्वारा बच्चों की उपेक्षा तथा कंजूसी से भारतीयों की एक पूरी पीढी अपनी ‘उद्यमशीलता ’खो चुकी है अतः भारतीय राष्ट्र के लिए यह आवश्यक है कि उसके बच्चे उत्तम परिस्थितियों में पलें बढें।“ [15]
इस प्रकार सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों द्वारा एक नये प्रकार की अवधारणा की शुरुआत की गयी और महिलाओं के प्रश्नों को सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षक की अवधारणा से जोड़ दिया गया। 
सुधारवादी स्वदेशी परम्पराओं को बचाने के लिए महिला शिक्षा को भी समर्थन दे रहे थे | वे रुढ़िवादियो की खिलाफत कर रहे थे उनका मानना था की महिला शिक्षा के माध्यम से हम हम स्वदेशी संस्कृति को बढ़ावा दे सकते हैं जिसमें परिवार जैसी संस्थाएं उपयोगी साबित होगी और महिलाओं की भूमिका बेहद महत्तवपूर्ण होगी । उनका मानना था कि महिलाओं की शिक्षा परिवार में संवादहीनता को समाप्त करने का काम करेगी ।शिक्षा के माध्यम से परिवार में महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा और वे युवाओं के मन से पाश्चत्य प्रभाव को हटाने का काम करेगी | दूसरे चरण में ही, 1890 के दौरान जयोतिबा फुले ने अपने लेखन के माध्यम से ये बताया कैसे उच्च वर्ग के वर्चस्व और भारतीय समाज में ब्राह्मण प्रभुत्व को स्थापित रखने में महिला की अधीनता को साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है | इसी समय बी.एम.मालाबारी ने सामाजिक अभियान में प्रेस की वृहद् भूमिका को रेखांकित करने का काम किया। सर्वप्रथम टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पाठकों ने उन महिलाओं की सच्ची घटनाओं और उनकी आपबीती को पढ़ा जो अपने पतियों के हाथों यातना का शिकार हुई |
भारतीय साहित्यकारों और पश्चिमी साहित्यकारों द्वारा भारतीय महिलाएं चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लिम, की दबी-कुचली छवि को प्रस्तुत किया गया, लेकिन उन लाखों महिलाओं के बारे कोई चिंता नही व्यक्त की गयी जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी की तरह थी और उन पर औपनिवेशिक व्यवस्था का अत्यंत बुरा प्रभाव पड़ा और यह प्रभाव पुरषों की तुलना में महलों पर ज्यादा पड़ा । सिर्फ बंगाल में ही सूत कातने के व्यवसाय में लगी 30 लाख महिलाएं बुरी तरीके से प्रभावित हुईं। ये पूरी जनसंख्या की 1/5 भाग थीं । 19व़ी शताब्दी तक इनकी संख्या में और बढोतरी हुई |[16] यही स्थिति भारत में विभिन क्षेत्रों में कार्यरत उन महिलाओं की भी थी जो सिल्क व्यवसाय एवं कुटीर उद्योगों में कार्यरत थीं । 1920 के आरम्भ में सूरत में एक स्थानीय संगठन ने ग्रामद्योगों महिलाओं की गिरती आर्थिक और सामान्य स्थिति का पता लगाने का प्रयास किया | जूट उद्योग में कार्यरत 50% महिलाएं अपने उद्योगों को छोड़कर गांवों से आजीविका की तलाश में शहर की तरफ पलायन कर गयीं । यही स्थिति उन आदिवासी महिलाओं की भी देखी गयी जो चाय बागानों एवं कोयला खाद्यानों में श्रमिक के रूप में काम कर रही थीं , उनको भी पलायन का शिकार होना पड़ा । 
वस्तुतः स्त्रियां पहली बार सार्वजनिक जीवन में राजनीतिक रूप से गांधी जी के प्रयासों के कारण सक्रिय हुईं ।यह स्त्री आंदोलन एवं स्वंय स्त्री की चेतना के विकास के लिए भी प्रस्थान बिंदू की तरह था । नारीवादी विमर्श भी गांधी जी को महिलाओं को राजनीतिक रूप से इतना सक्रिय करने का श्रेय देता है। गांधी जी के बनते हुए राष्ट्र की परिकल्पना जो संकीर्ण ना होकर विश्वव्यापी था जिसमें सैद्धांतिक स्तर पर वे सबको शामिल करने के हिमायती थे । उस राष्ट्रवाद की परिकल्पना में देश को स्वाधीनता दिलाने के आंदोलन का नेतृत्व किसके हाथ में हो ,इसे लेकर उनकी राय बिल्कुल स्पष्ट थी । उन्होंने इस आंदोलन के लिए जिन दो मूल्यों को अपनाया वे थे ‘सत्य’एवं ‘अहिंसा’ । बकौल गांधी जी ये दोनोंही मूल्य पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ज्यादा बेहतर ढंग आगे बढा सकती थीं । उन्होंने भारतीय स्त्रियों को संबोधित करते हुए कहा था कि उन्हें विक्टोरियन स्त्री की तरह बनने की आवश्यकता नहीं थी बल्कि पूरे विश्व की स्त्रियों को भारतीय स्त्रियां बहुत कुछ सीखा सकती थीं । लता सिंह ने अपने आलेख ‘राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाएं’ में राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न चरणों में महिलाओं की भागीदारी का वर्णन करते हुए लिखा है कि : 
“ गांधी जी की व्यक्तिगत छवि संत महात्मा की होने के कारण उनके नेतृत्व में शुरु हुए देशभक्ति आंदोलन की राजनीतिक और धार्मिक ,मिली जुली छवि बनी। उसका क्षेत्र राजनीति से ऊपर उठकर धार्मिक हो गया। देशभक्ति को धर्म माना गया और देश को देवी मां की उपाधि दी गई। इन सबका असर यह हुआ कि महिलाओं को शक्ति मांकर उनका एक नए ढंग से शोषण शुरु हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं को बार बार यह कहके जोडा गया कि जबतक भीतरी शक्ति बाहर नहीं आयेगी ,बलिदान अधूरा रहेगा।“ [17]
यह तथ्य गांधी जी के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उन्होंने रणनीतिक रूप से भी “ राष्ट्रीय आंदोलन का स्त्रीकरण(Feminization of National movement) कर दिया । उन्होंने आंदोलन का धार्मिक रूप कायम रखते हुए उसे अहिंसात्मक आंदोलन बनाया जिसमें धैर्य ,त्याग, पीडा, सत्य और अहिंसा इत्यादि सर्वोपरि थे ,जो महिलाओं के गुण माने जाते हैं । उन्होंने महिलाओं को यह विश्वास दिलाया कि देश को उनके नेतृत्व की आवश्यकता है एवं उनकी भागीदारी के बिना देश की आज़ादी संभव नहीं। गांधी जी ने समाज सुधारकों एवं पुनरुथांवादियों की स्त्री विषयक चिंता की दिशा बदलते हुए भारतीय स्त्री की एक नई परिभाषा दी जो अबला, शोषित,सुधार किए जाने योग्य की समझ से विपरीत एक आत्म्बल से भरपूर नैतिक व्यक्तित्व थी । मधु किश्वर ने गांधी जी के विचारों की सराहना करते हुए लिखा है कि उन्होंने सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के अंदर एक नया आत्मसम्मान ,एक नया विश्वास और एक नई आत्मछवि दिलाई । वे निष्क्रीय से सक्रिय नागरिक बनीं ।[18] उन्होंने स्त्री मुद्दों को समर्थन दिलाया । राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं को बडी संख्या में शामिल करने के गांधीजी के ऐतिहासिक कृत्य से इंकार नहीं किया जा सकता बावजूद इसके, महिलाओं के जिन गुणों की सराहना करते हुए उन्होंने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कराया उससे महिला आंदोलनों का अपना दायरा सीमित हुआ । यह भी विडंबनापूर्ण बात है कि इतिहासकारों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान महिलाओं की भागीदारी की प्रंशसा तो की लेकिन इसको महात्मा गाँधी के चमत्कारिक व्यक्तित्व के साथ जोड़ कर ही देखा । उनसे परे जाकर महिलाओं की भागीदारी को रेखांकित नही किया गया । 
एक बनते हुए राष्ट्र में स्त्रियों की भूमिका क्या थी इसकी पडताल यदि हम शुरुआती दौर से करें तो पाते हैं कि एक बहुत अलग अलग तस्वीर सामने आती है। जहाँ राष्ट्रवाद के प्रारंभिक दौर में स्त्रीप्रश्न केंद्र में होते हुए भी महिलाओं कीअपनी भूमिका सिर्फ संस्कृति की वाहक,एक आदर्श माता के रूप में ,एक आदर्श पत्नी के रूप में और राष्ट्र की बेटी के रूप में और राष्ट्रमाता की संकल्पना को आगे ले जाने वाली संस्कृति की एक वाहक के रूप में देखा गया जिसकी चर्चा उस दौर के कई महत्व्पूर्ण लेखकों ने अपनी रचनाओं में की । रवींद्रनाथ टैगोर के बंगला उपन्यास ‘घरे बायरे ‘ की बिमला हो या बंकिंमचंद्र चटर्जी की आनंदमठ या दुर्गेशनंदिनी सभी उपन्यासों की स्त्री पात्र अपनी प्रदत्त भूमिकाओं का निर्वाह कर रही थीं। उसके समक्ष दूसरी प्रवृति जो गांधी दृष्टी थी उसमें महिलाएं आंदोलन का नेतृत्व कर रहीं थीं । इस दूसरी प्रवृति ने स्त्रियों में राजनीतिक रूप से जबर्दस्त चेतना पैदा की । ये वह दौर नहीं था जब स्त्री प्रश्नों को पुरुष उठा रहे थे बल्कि यह वो दौर था जब महिलाएं धीरे धीरे ही सही पर अपने मुद्दों को स्वयं उठा रही थीं । जैसे रक्माबाई का केस। रक्माबाई एक ऐसी महिला थीं जो ‘सहमति की आयु’ की बहस को सार्वजनिक बहस के केद्र में लाईं । उन्होंने एक बेमेल विवाह को अस्वीकार करते हुए अपने पति भीकाजी दादाजी के साथ जाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि बौद्धिक तौर पर वे उनसे मेल नहीं खाते । चूकिं यह विवाह मेरी मर्जी से नहीं हुआ इसलिएमैं इस विवाह को अस्वीकार करती हूँ[19]। 
रक्माबाई की असहमति ने सिर्फ एक आम धारणा को चुनौती ही नहीं दी थी बल्कि हिंदू स्त्री धर्म और हिंदू विवाह के मान्यआधार पर ही सवाल उठा दिए । इसकेसाथही’स्त्री शिक्षा कैसी हो ‘ औरत क्यों पढें ‘ उनके दिए जा रहे शिक्षा का नतीजा क्या होगा’ इस तरह के प्रश्नों पर भी सुधारवादी पुरुषों एवं राष्ट्रवादी गुटों के बीच बहस छिड गई। उस दौर की कट्टर राष्ट्रवादी प्रवृतियों ने इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए बहुत आक्रमक रुख अपनाया। बाल गंगाधर तिलक ने इसे स्त्री शिक्षा के दुष्परिणाम के रूप में देखा । उनकी दृष्टी में ये सारे स्त्री विषयक मुद्दे उस समय बहस के केंद्र में थे जब सारे राष्ट्र के लोगों को एकजुट होकर देश को आजाद कराना था। ऐसे में निहायत व्यक्तिगत और घरेलू समझे जाने वाले मुद्दों को भारतीय स्त्रियां उठा रही थीं । यह राष्ट्रहित में नहीं था । उन्होंने लिखा: 
‘स्त्री शिक्षा के बहाने हमारे प्राचीन धर्म पर हमला बोला जा रहा है और रक्माबाई के नेतृत्व में चलने वाला शिक्षा अभियान दरअसल हमारे शाश्वत धर्म को जड से मिटाने का षडयंत्र है।[20]
‘ यही वह दौर था जब न्यूयार्क में विवेकानंद से यह सवाल किया गया कि जिस भारत देश की सर्वश्रेठ संस्कृति और सभ्यता का आप महिमामंडन कर रहे हैं उसी देश से आई एक महिला पंडिता रमाबाई अपनी पुस्तक ‘हाई कास्ट हिंदू वुमेन’ के जरीए अपने देश की बेसहारा विधवा महिलाओं के लिए चंदा एकत्र कर रही हैं । विवेकानंद के लिए रमाबाई का यह कृत्य अत्यंत निंदनीय था । उनकी दृष्टी में रमाबाई ‘हिंदूधर्म’ के प्रचारक के रूप में ज्यादा बेहतर कार्य कर सकती थीं।[21] यह हस्तक्षेप राष्ट्रवादियों को कतई स्वीकार्य नहीं था कि एक पराधीन राष्ट्र में अंग्रेजों के हस्तक्षेप को घर के अंदरुनी मामलों में प्रवेश करने दिया जाए ।
इस प्रकार स्त्री प्रश्न हर बार राष्ट्रीय आन्दोलन से गुंथे हुए स्वरूप में हमारे सामने प्रस्तुत हुए । स्वंत्रता आन्दोलन में शामिल महिलाओं ने धीरे धीरे ही सही पर अपनी उपस्थित का आभास करा दिया था । अब सभी किस्म के आंदोलनों में बड़े पैमाने पर महिलाओं की लामबंदी और भागीदारी देखी गयी एवं महिलाओं से जुड़े बुनियादी प्रश्नों को भी को उठाया जाने लगा ।इस अवधि में कई महिला संगठन एवं उनके नेटवर्क भी बने ताकि आंदोलन में महिलाओं की भूमिका सुनिश्चित की जा सके । 1927 में आयोजित हुए ऑल इंडिया वुमेन कॉफ्रेंस में भी महिलाओं की भरपूर उपस्थिति देखने को मिली जिसमें महिलाओं के जीवन स्तर एवं घरेलू जीवन में उनकी जिम्मेवारियों पर व्यापक चर्चा हुई। यह भी गौरतलब है कि जहां एक तरह महिलाएं सविनय अवग्या और असहयोग आंदोलनों में सक्रिय हो रहीं थीं वहीं दूसरी तरफ काफी संख्या में क्रांतिकारी आंदोलनों से भी जुड रही थीं । 1930 के अंतिम वर्षों में कई कम्युनिस्ट महिलाएं नारीवादी विमर्श का भी हिस्सा बनने लगी थीं । 
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी, भारत के सामाजिक सांस्कृतिक ,आर्थिक एवं राजनीतिक ढांचे पर पितृसत्तात्मक प्रवृति का ही प्रभुत्व था। हालांकि संविधान निर्माण के बाद काफी सारी समस्याओं का समाधान हो गया जैसे महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला जिससे उन्हें राजनीतिक समानता की प्राप्ति हुई ,सार्वजनिक सेवाओं में प्रवेश मिला, व्यवसायों आदि में भी महिलाओं को अधिकार मिला | इस दृष्टीकोण से यह समय मध्यम वर्ग की महिलाओं के लिए अत्यंत सफल समय रहा जिसमें महिलाएं बड़ी संख्या में लाभान्वित हुई | इस दौरान महिला संगठनों ने भी महिलाओं की समनाता और अधिकार के लिए युद्ध स्तर पर जुझारू तरीके से कार्य किया और सरकार ने भी सामाजिक कल्याण के लिए अनुदान आदि दिए । 
1971-74 में गठित ‘भारत में महिलाओं की स्थिति’ का पता लगाने वाली समिति ने अपने रिपोर्ट (Towards equality) में यह निष्कर्ष दिया कि अर्थव्यवस्था में महिलाओं की स्थिति हाशिये पर हैं । आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं की यह स्थिति आज़ादी से पहले भी थी, इन परेशान करने वाला तथ्यों को कुछ अधिकारी एवं समाज वैज्ञानिकों के द्वारा भी पहचाना गया लेकिन वे इस मुद्दे की तरफ सबका ध्यान आकर्षित करने में असफल रहे। 70 के दशक में ,भारत में नियोजित विकास कार्यक्रम की वजह से भारत परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था । तमाम समाज वैज्ञानिक विभिन्न आयामों से और इन जटिल प्रक्रियाओं विशलेषण करने की कोशिश कर रहे थे | समिति ने अपने जनसांख्यिकीय रुझानों में पाया कि पुरुषों और महिलाओं के जीवन प्रत्याशा और मृत्यु दर में असमानता की खाई बहुत ज्यादा हो गयी । ये सारी स्थितियां उन मूल्यों के विपरीत थीं जिन मूल्यों और आदर्शों के साथ हमारे सविंधान निर्माताओं ने संविधान का निर्माण किया था जिस राजनीतिक अधिकार, , क़ानूनी समानता और शिक्षा को विश्वसनीय साधन माना गया वे सिर्फ कुछ महिलाओं तक ही सिमट कर रह गए और हाशिये पर मौजूद महिलाओं की पहुँच से बाहर ही रहे | साथ ही पितृसत्ता ने भी पहले की अपेक्षा ज्यादा मजबूती से अपनी पकड़ बनाई । इसी दौरान समिति ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सवाल भी पेश किये इसी दौरान महिला आन्दोलन की नयी लहर ने भी समाज को प्रभावित किया । यह एक प्रकार से स्त्री प्रश्नों का विकास था जो महिला आंदोलन का रुप धारण करते हुए स्त्री अध्ययन जैसी गंभीर अकादमिक विधा तक का सफर तय कर चुका है । 
लेकिन अगर हम आज के दौर की बात करें जिस दौर में हम इक्कीसवीं सदी के राष्ट्रवाद की चुनौतियों पर चर्चा कर रहे हैं तो पाते हैं कि विगत कुछ वर्षों में फिर नये किस्म की कुछ राष्ट्रवादी प्रवृतियां पैदा हुईं जिन्होंने एक बार फिर से हमें यह सोचने पर मजबूर किया है कि आज से 250 साल पहले का समय जिस समय में स्त्रियां स्वयं को अभिव्यक्त कर पाने की स्थिति में नहीं थीं,जस समय में महिलाएं घरों के अंदर कैद थीं ,जिस समय में स्त्री प्रश्नों को पुरुष वर्ग उठा रहा था उस समय और वर्तमान समय जिसमें साध्वी प्राची जैसी राष्ट्रवादियों का यह बयान देना कि देश को कितने बच्चों की आवश्यकता है और इस नए पुनर्व्याख्यायित नये राष्ट्र में महिलाओं कीअब नई भूमिका क्या होगी । एक वह दौर जिसमें हमरे जेंडर प्रश्नों पर बाहर के हस्तक्षेप हो रहे थे अंग्रेजी सत्ता के माध्यम से और दूसरा यह दौर जिसमें आंतरिक तत्वों द्वारा हस्तक्षेप किया जा रहा है। जिसके जरीए महिलाओं की यौनिकता,यौनिक शुचिता , उनकी प्रजनन क्षमता, राष्ट्र में उनकी भूमिका, उनको क्याअधिकार दिए जाएंगे इन सारे मुद्दों पर नये सिरे से चर्चा शुरु हुई ।इस बार भी सिर्फ एक ही प्रवृति नहीं है जिसे हम हिंदुत्व कह दें बल्कि बहुत सारी अलग अलग प्रवृतियां उभार ले रहीं हैं जो महिलाओं को एक बार फिर उसी जकडबंदी में कसने की कोशिश कर रही हैं जिससे निकलने में उन्हें 200 साल लगे । यह प्रवृतियां कभी हमें साध्वी प्राची के उस बयान में दिखती हैं जिसमें वे राष्ट्र की महिलाओं को संबोधित करते हुए कहती हैं: 
“If there is one child, where all will you send him? To protect the border… or make him a scientist or he will take care of business…. So, we need four children. One can go to protect the borders, one can serve the society, give one to the saints and one to VHP to serve the nation and protect the culture. This is very important”[22]
अब इस तरह की विचारधाराओं और 19वीं सदी में उभरे कट्टर हिंदू राष्ट्रवाद के मध्य एक समानता दिखती है । विचारधाराओं की यात्रा लगभग एक जैसी ही दिखती है जब लव ज़िहाद जैसी परिकल्पना हमारे सामने आती है । जिसके बारे में कहा जा रहा है कि : 
“ लव जिहाद या रोमियो जिहाद एक अभिकथित षड्यंत्र है जिसके तहत युवा मुस्लिम लड़के और पुरुष गैर-मुस्लिम लड़कियोंके साथ प्यार का ढोंग करके उनका धर्म-परिवर्तन करते हैं” । यहां बड़ा सवाल यह भी उठता है कि आखिर मुस्लिम लड़कों में ऐसा क्या होता है जो हिन्दू लड़कियां उसके मोहपाश में फंस जाती हैं और शादी करने व धर्म परिवर्तन तक का फैसला कर लेती हैं। कुछ समाज विज्ञानियों का मानना है कि हिन्दू लड़कियां जानती हैं कि दुनिया में सिर्फ मुस्लिम कौम ही ऐसी है जो सबसे कम शराब पीती हैं क्योंकि धार्मिक रूप से उनपर सख्त पाबन्दी है, वे जानती हैं कि मुस्लिम कौम ही ऐसी कौम है जो सबसे कम मक्कारी करती है क्योंकि धार्मिक रूप से उन पर सख्त पाबन्दी है, वे यह भी जानती हैं कि मुस्लिम कौम ही ऐसी कौम है जो सच्चाई की खातिर अपनी जान भी कुर्बान कर सकती है। कहने का मतलब यह कि मुस्लिमों में धार्मिक कट्टरता ज्यादा होती है और धर्म के प्रति निष्ठा भी। हिन्दू धर्म उसके मुकाबले उदार है और हिन्दुओं में धर्म के प्रति निष्ठा भी उतनी नहीं होती जितना मुस्लिमों में। इसलिए मेरी दृष्टि में दुनियाभर में फैले हिन्दू संगठनों को हिन्दुओं में धर्म के प्रति कट्टरता का भाव जगाना होगा। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि हिन्दुत्व जीवन जीने का एक तरीका है।[23]
केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने बकायदा इस पर सदन में एक रिपोर्ट रखी। उन्होंने लव जिहाद को लेकर चिंता भीजताई । 25 जून 2014 को मुख्यमंत्री चांडी ने विधानसभा में जानकारी दी थी कि 2667 युवतियां 2006 से लेकर अब तक प्रेम विवाह के बाद इस्लाम कबूल कर चुकी हैं। वहीं केरला कैथोलिक बिशप काउंसिल ने इससे पहले 2009 में ये आंकड़ा 4500 बताया था। इसके अलावा एक अन्य संस्था ने कर्नाटक में 30 हजार लड़कियों के लव जिहाद की शिकार होने की बात कही थी। श्री नारायण धर्म परिपालन समिति के महासचिव वेलापल्ली नतेसन ने कहा था कि उनकी संस्था को पाकिस्तान और यूके में भी इसी तरह की कोशिशों की कई शिकायतें परिवारों की तरफ से आई । चारु गुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘ स्त्रीत्व से हिंदुत्व तक’ में औपनिवेशिक काल से ही मुसलमानों के प्रति भडकाई जा रही धार्मिक भावना का उल्लेख करते हुए बताया है कि : 
“ इस दौर में हिंदू प्रचारक हिंदू पुरुषार्थ साबित करने की कोशिशें तो कर ही रहे थे ,पर वो इसके साथ एक ‘कमुक’मुस्लिम की तस्वीर भी मजबूत कर रहे थे । हिंदू पुरुषत्व का निर्माण ‘दूसरे’ के बरक्स करना था। इसलिए वासना से भरपूर ,कामुक मुसलमान पुरुष का हौवा आक्रमक रूप से खडा किया गया। इस प्रक्रिया में मुस्लिम पुरुष को विशेष रूप से एक अपहरणकर्ता के रूप में पेश किया गया । साथ ही, हिंदू प्रचारकों ने एक सामूहिक ‘शत्रु’ के भय को पहचानने और बढावा देने के लिए पीडित और अपहृत हिंदू महिला की छवि का इस्तेमाल किया” ।[24]
विभिन्न लेखों, कहानियों एवं पत्रिकाओं के जरीए एक आम धारणा सामने आई कि पर्दा प्रथा, सत्ती प्रथा, बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं के लिए मुस्लिमों का व्याभिचारी चरित्र जिम्मेवार है। यह कहा जाने लगा कि लडकी को किसी हिंदू को सौंप देना बेहतर है ,न कि उसके उसके युवती बनने का इंतजार किया जाए जब उनके रूप की झलक देखकर बुरे और क्रूर यवन उसे अपना शिकार बना सकें।हिंदू युवकों से बार बार यह अपील की गई कि वे हिंदू स्त्रियों की रक्षा के लिए आगे आयें। उनके पुरुषत्व को ललकारते हुए यह अह्वान किया गया कि : 
“ हम देखते हैं कि सैकडों हिंदू स्त्रियां गुंडो द्वारा बहकाई और भगाई जाती हैं परंतु हिंदू चीखने और चिल्लाने के सिवाय कुछ भी नहीं करते! क्या यह सब देखते रहना मर्दानगी है? क्या पुरुष का पौरुष इसी में है कि उसकी स्त्रियां बलात छीनी जाएं और जाकर दूसरे के शरीरों का आलिंगन करें……” ।[25]
आज का यह दौर जिसमें ‘बहू लाओ बेटी बचाओ’ का नारा दिया जा रहा है जिसका का मुख्य मकसद लव जिहाद के खिलाफ मुहिम शुरु करना है। इस तरह के प्रयासों के जरीए लगातार इस मिथक को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि आज भी भारत को सर्वाधिक खतरा उन मुसलमानों पुरुषों से है जो हमारी लडकियों से प्रेम कर रहे हैं, उनके साथ विवाह कर रहे हैं ,अपहरण कर रहे हैं । अतः फिर से देश को मुसलमानों से बचाने की आवश्यकता है। यह अत्यंत चिंताजनक स्थिति है जो अंततः इस देश के मुसलमानों को ‘अन्य’और ‘ शत्रु’ के रूप में ही प्रचारित करती है और स्त्रियों को सदैव ‘ रक्षण’ किए जाने योग्य । विगत 200 सालों में स्त्रियों की स्थिति में कोई परिवर्तन हुआ हो ,ऐसा कत्तई प्रतीत नहीं होता । तब इस नई सदी में राष्ट्र की परिकल्पना क्या है? उसके वैध नागरिक कौन हैं ? समाज का शत्रु माना जाने वाला मुस्लिम समुदाय तथा रक्षण योग्य स्त्रियां राष्ट्र के आख्यान में स्वयं को कैसे परिभाषित करते हैं तथा राष्ट्र्वाद पुनः स्त्री प्रश्नों को कैसे गढ रहा है ? यह समस्त प्रश्न ज्यों के त्यों बने हुए हैं । 
[1] G Aloysius , Nationalism without a Nation in India Dehli: Oxford University Press, 1998) 265pp. Index. Bibl. ISBN 019564104 3 
[2] Braj Ranjan Mani , Debrahmanising History: Dominance and Resistance in Indian Society, Manohar Publishers & Distributors, 2005 
[3] Shiv Visvanathan Interrogating the Nation Author(s): Economic and Political Weekly, Vol. 38, No. 23 (Jun. 7-13, 2003) 
[4] E Hobsbawm ‘The Nations and Nationalism since 1870 
[5] वैभव सिंह , इतिहास और राष्ट्रवाद , आधार प्रकाशन , 2007, पृ. 248 
[6] Sikata Banerjee, GENDER AND NATIONALISM: THE MASCULINIZATION OF HINDUISM AND FEMALE POLITICAL PARTICIPATION IN INDIA Women’s Studies International Forum, Vol. 26, No. 2, pp. 167 – 179, 2003 
[7] Tanika Sarkar, & Urvashi Butalia (Eds.), Women and the Hindu Right (pp. 58– 81). New Delhi: Kali for Women. 
[8] Sarkar Tanika, Hindu wife Hindu Nation ,Parmanent black , 2001 
[9] यहां प्रतिनिधित्व का अर्थ राजनीतिक हैं जिसकी चर्चा गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक अपने लेख ‘ कैन सबल्टर्न स्पीक?’में करती हैं । 
[10] Kumkum sangari ,Sudesh Vaidya, Recasting Women: Essays in colonial History , kali for women , 1989 
[11] वैभव सिंह , इतिहास और राष्ट्रवाद , आधार प्रकाशन , 2007, पृ. 226 
[12] शाहिद अमीन एवं ग्यानेंद्र पाण्देय,निम्नवर्गीय प्रसंग भाग 2, राजकमल प्रकाशन , 2002 
[14] शाहिद अमीन एवं ग्यानेंद्र पाण्देय,पार्थ चटर्जी, राष्ट्र एवं उसकी महिलाएं निम्नवर्गीय प्रसंग भाग 2, राजकमल प्रकाशन , 2002 
[15] दयाराम गिडुमल, ‘द स्टेट्स ऑफ वुमेन इन इंडिका, बंबई ,1889
[16] Mazumdaar Veena , Emergence of the Women’s Question in India and the Role of Women’s Studies, RePEc:ess:wpaper:id:2861, Institutional Papers, Sep 2010
[17] नारीवादी राजनीति: संघर्ष एवं मुद्दे , संपा. जिनी लोकनीता, निवेदिता मेनन, साधना आर्या , हिंदी माध्यम कार्यांवयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2001,पृष्ठ संख्या, 156 
[18] नारीवादी राजनीति: संघर्ष एवं मुद्दे , संपा. जिनी लोकनीता, निवेदिता मेनन, साधना आर्या , हिंदी माध्यम कार्यांवयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2001,पृष्ठ संख्या, 156 
[19] Janaki nair, Women and law in colonial India, 
[20] बाल गंगाधर तिलक ,कर्नाटक प्रकाशन, 4 अप्रैल ,1887 
[21] पूर्वा भारद्वाज, भय नाही खेद नाही, निरंतर , 2014 
[22] Saumya Dadoo ,Sour Milk: Women and the Hindu Nationalist Movement in India Annandale-on-Hudson, New ork May 2015 
[23] प्रवीण कुमार लव-जिहाद : समझो तो अमृत वरना जहर , जी न्यूज ,,24 अगस्त ,2014 
[24] चारु गुप्ता, स्त्रीत्व से हिंदुत्व तक , राजकमल प्रकाशन, 2012 
[25] चारु गुप्ता, स्त्रीत्व से हिंदुत्व तक , राजकमल प्रकाशन, 2012 कृष्णानंद, हिंदुओं की उन्नति का उपाय अर्थात शुद्धि एवं संगठन संबंधी उपदेश , शाहजहांपुर 1927 ,पृष्ठ 198 ,42
[साभार: युवा संवाद पत्रिका में प्रकाशित लेख]
[चित्र: गूगल साभार]