मराठी रंगमंच का पूर्वार्ध; स्त्रियॉं के सर्जनात्मक प्रतिरोध के विशेष संदर्भ में
*डॉ. सतीश पावड़े
नारीवाद की परिकल्पना 1975 के पश्चात भारत में अवतरित हुई है। किन्तु नारी प्रश्नों को लेकर एक गंभीर पहल सुधारणाओं के परिप्रेक्ष्य में 1848 में ही की गयी। नारी शिक्षा को लेकर यह पहल की गयी थी। महात्मा ज्योतिबाराव फुले ने लड़कियों के लिए इसी वर्ष पहली पाठशाला शुरू की। 1852 के करीब फुले दाम्पत्य द्वारा यूने जिले में 18 पाठशालाए शुरू की गयी। जिसमें 250 लड़कियों को दाखिला दिया गया। इस समय तक सावित्री बाई फुले अध्यापिका, मुख्य अध्यापिका से भारत को प्रशिक्षित शिक्षिका बन गयी थी।
इस काल के पश्चात बाल विवाह,सती प्रथा,विधवाओं का विवाह,परिष्कृत स्त्रियॉं का पुनर्वसन,आदि प्रश्न हासिए पर आए। स्त्री शिक्षा,स्त्री अधिकार,नारी सम्मान के विषय सामाजिक आंदोलनों के मुख्य प्रश्न बनते गए। जिसका प्रभाव रंगमंच के व्यवहार पर भी पड़ता गया। रंगमंच पर स्त्रियॉं को प्रवेश या उनके भारीदारी का प्रश्न भी चर्चा का विषय बनता गया। अगले 25 वर्ष तक यह चर्चा निरंतर चलती रही किन्तु सामंतवादी, पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा उसका पुरजोर विरोध होता रहा। सामाजिक सांस्कृतिक मान्यताएं उन्हे रंगमंच पर जाने से रोकती रही।
इस परिस्थिति में भी रंगमंच को लेकर स्त्री वर्ग द्वारा प्रतिरोधी स्वर बुलंद करने का साहस स्त्रियॉं द्वारा किया गया। मराठी रंगमंच का पूर्वार्ध कुछ विद्रोही स्त्रियॉं के सर्जनात्मक प्रतिरोधी स्वर से दीप्तिमान हुआ है। किन्तु इस इतिहास को मुख्य धारा के इतिहास ने कभी प्रकाश में ही नहीं आने दिया । स्त्री नाटक कार,कलाकारों को 65 वर्ष से भी अधिक वर्ष रंगमंच की दुनियाँ में आने से रोका गया। माध्यम वर्गीय मानसिकता इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा रोड़ा बनी थी। किन्तु क्षुद्रति शूद्र,दलित,अस्पर्श और बहुजन वर्ग के स्त्रियॉं ने अपने विद्रोह से न की रंगमंच पर प्रवेश किया अलकि अपने कर्तव्य से एक सुनहरा इतिहास भी लिखा।
इतिहास के पन्नों मेंहस्ताक्षर बने यह संदर्भ मुख्य धारा के इतिहासकारों ने कभी प्रकाश में आने ही नहीं दिये,किन्तु शनै शनै … यह इतिहास अब काल की परतों को चीर कर सामने आने लगा है।
1856 को इनहि शूद्र वर्ग के स्त्री कलाकारों ने स्वतंत्र तमाशा कंपनी स्थापित की थी, इस प्रकार का संदर्भ प्राप्त हुआ है । 1867 में महिलाओं द्वारा एक और मिश्र नाटक मंडलीकी स्थापना की गयी थी। विभूजन चित चातक स्वाति वर्षा पुणेकर हिन्दू स्त्री नाटक मंडली यह और एक मंडली का नाम था । यह पहली स्त्री नाटक मंडली थी,जिसकी स्थापना म्हालसा नमक नाती द्वारा किया गया। इस मंडली में सिर्फ महिलाएं ही थी । मनोरंजन के साथ यह मंडली बाल विवाह का विरोध,विधवा,परित्यक्ताओं के विवाह का समर्थन,अमानवीय धार्मिक रूढ़ियों का विरोध,और सामाजिक सुधारनाओं पर बल देती थी। इसी नाटक मंडली का सर्वाधिक चर्चित नाटक पद्मावती था जिसमें एक समबल और विद्रोही स्त्री का चरित्र मुखीन किया गया था।
1867 में मनोरंजन मुंबई हिन्दू स्त्री मिश्रित नाटक मंडली,यह और एक नाटक मंडली नीरबाई, टैबई,विठाबाई,म्हालसा बाई आदि स्त्रियॉं ने सहकारी तत्वों पर स्थापित किया । इसके पश्चात माणिक प्रभु प्रसादिक पूर्ण चंदर्योदय सनलिकार मंडली,सोनी पुणेकरीन तथा कृष्णबाई द्वारा संचालित की जाती रही। 1908 तक यह सारी महिला नाटक मंडली धूम ढलल्ले से चलती रही। खास तौर पर यह सारी महिलाए शूद्र दलित बहुजन (वारंगना,कलवंतीन तवायफ,कोलहटीन, नटी) समाज से थी। क्योकि सवर्ण समाज में मंच पर आना पापकर्म समझा जाता था । फिर अभिनय अथवा अन्य रंगकर्म तो बहुत दूर की बात थी। 1908 से 1925,इस काल में बेलगांवकर स्त्री नाटक मंडली,सटरकर स्त्री नाटक मंडली तथा मनोहर स्त्री नाटक मंडली जो केवल महिलाओं को नाटक मंडलियां थी,उन्होने पुरुषों द्वारा स्थापित नाटक मंडलियों को टक्कर दी। अपने आप में यह गतिविधि प्रतिरोध के सर्जनात्मक स्वर थे। जिसे भविष्य में लिखे गए इतिहास से गायब कर दिया गया।
जिस समय में महिलाएं घर की दहलीज़ के अंदर ही अपना जीवन का प्रारम्भ और अंत कर लेती,उस समय में मंच पर केवल अभिनय ही नहीं अपितु नाटक मंडली स्थापित करना विविध नाटकों का संचालन और निर्माण करना,सक्षम आर्थिक स्थाईट प्राप्त करना था यह अपने आप में बड़ी बात थी। गणिका,वारांगना समाज से आई,हाशिये पर स्थित समाज की यह महिलाएं अपने प्रतिरोध का सर्जनात्मक स्वर अपने अपने नाटकों में प्रस्तुत कर रही थी । सामाजिक सांस्कृतिक समस्याए उनके मुख्य विषय थे।
बड़ी हिम्मत के साथ यह प्रयास किए जाते रहे । बेलगांवकर नाटक मंडली एकांबबाई द्वारा,सादुबई सतारकर,द्वारा सतारकर नाटक मंडली स्थापित की गयी थी । यह तीनों स्त्री नाटक मंडली ने प्रसिद्धि और पैसा दोनों कमाया पर सम्मान और प्रतिष्ठा उन्हे नहीं दी गयी।
1914 में पहली बार सवर्ण में से पहली स्त्री कमला बाई गोखले को इस रंगमंचीय व्यवहार में शामिल किया गया पर सह व्यवष्ठापक के रूप में। उनके पति द्वारा स्थापित इस नाटक मंडली में उनके पति ने उनकी सह व्यवस्थापक के रूप में नियुक्ति की थी । इसी समय प्रसिद्ध गायिका तथा नाटककर हीराबाई पेडनेकर ने नूतन संगीत नाटक मंडली की स्थापना की जो मिश्रा स्वरूप की थी । 1929 तक अर्थात 1865 से 1929 तक इन 64 वर्षों में अभिजन,सवर्ण वर्ग के स्त्रियॉं को रंगमंच पर नहीं आने दिया गया। जबकि समाज से तिरस्कृत तबके से आई महिलाओं में विद्रोह की लंबी लड़ाई लड़ी । बेलगांवकर नाटक मंडली ने इस विद्रोह का परचम सबसे पहले हाथा मे उठाया । इस कंपनी में पुरुषों की भूमिकाएँ भी स्त्रियॉं द्वारा अभिनीत की जाती थी । जिसमें शिवाजी आगरकर,लोकमान्य तिलक, जैसे किरदार शामिल थे। इस संदर्भ में मॉडर्न मराठी थियेटर में नीरा आडरकर लिखती है कि,”dandhari the play,which was produce by womens thetre company,founded by prostitute,almost all this plays on social reforms dealing with womens education,chaild marriage,love marrigemarrige of widows,divorse women,also dowery marriage,they were enact by totally mail cast.this contribution is never mention in any of the debates about women and thetre.”
दंदधारी नाटक बाल गंगाधर तिलक के कार्यो पर आधारित था। उनकी भूमिका तथा इस प्रकार का नाटक करने पर इस कंपनी को प्रताड़ित भी किया गया। वेश्या गणिकाओं को ऐसे नाटक करने का अधिकार किसने दिया। ऐसे सवाल पूछकर तत्कालीन नाट्य आलोचकों द्वारा ऐसे प्रयासों को घिनौना,अप्राकतिक बाजारू,भयानक निचले दर्जे की हरकत कहा गया। उसे पापकर्म भी कहा गया।
1912 में मथुरा बाई द्रविड़ द्वारा इन आक्षेपों को जोरदार उत्तर दिया गया । महाराष्ट्र के अमरावती में इस वर्ष अखिल भारतीय नाट्य सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमे मथुराबाई ने कहा की ‘the way the actors wore low necked blouses and the mans in which the sari was stretched over the front emphasizing the breast in a vulgar fashion. They used seductive gestures all the time in companision of that act of these women was very moral respective and prestigious.’मथुराबाई ने इस प्रकार पुरुष सत्ता,सामंतवादी दृष्टि को कडा जवाब दिया ।
1930 तक आभिजात्य वर्ग के किसी भी महिला को रंगमंच पर नहीं आने दिया गया। जबकि 1915 मेन रन्गभूमि मासिक पत्रिका द्वारा ‘रंगमंच पर स्त्रियॉं के प्रवेश’ को लेकर एक चर्चा आयोजित की गयी थी। इस चर्चा में काशी बाई हिरलेकर इस महिला द्वारा सर्व प्रथम जाहीर तौर पर इस प्रवेश का समर्थन किया गया था । 1933 में भी संजीवन नामक साप्ताहिक द्वारा इसी प्रकार की चर्चा आयोजित की गयी जिसमें 8 महिलाओं में से 6 महिलाओं ने स्त्रियॉं को रंगमंच पर प्रवेश करने की हिमायत की गयी थी। इसके संदर्भ में जो भूमिका इन महिलाओं ने रखी वह बहुत विशेष है।
- रंगमंच पर काम करना इसे व्यक्तिगत चुनाव के रूप में स्वीकारा जाए ।
- जैसे शिक्षक डाक्टर व्यवसाय है,वैसा ही दर्जा इसे भी दिया जाए।अर्थात व्यावसायिक रूप में मान्यता दी जाए ।
- कला का संबंध कुलीनता अथवा नैतिकता से न जोड़ा जाए ।
- स्त्रियॉं रंगमंच पर प्रवेश करने के लिए हिचकिचाहट न करने। पर पुरुषों को गैर फायदा लेने से रोके,और चरित्र आदि की रक्षा स्वयं करें।
- स्त्रियॉं ने समाज के अनुमति की राह नहीं देखनी चाहिए। बल्कि अपने कार्य से, कर्तव्य से उनके पूर्वाग्रह दूर करने चाहिए।
- सहकारी पुरुषों में मुक्कता पूर्वक संबंध रखें और अपनी सकारात्मक परंतु कठोर भूमिका निर्माण करें।
एक प्रकार से इसे नारीवादी चिंतन भी कहा जा सकता है । पर मराठी रंगमंच पर स्त्रियॉं के प्रवेश को लेकर यह किया गया,यह यथार्थ है । एक अन्य लेखिका,यमुना बाई द्रविड़ द्वारा अपने समर्थन में प्रतिरोध के स्वर को बुलंद करती है । स्त्री के सकारात्मक चरित्र, भूमिका निर्माण करने में मराठी के अधिकतम नाटककारों ने न्याय नहीं किया गया है। खाडिलकर जैसे बड़े नाटककार भी अपवाद नहीं है। जबकि इनहि खाडिलकर द्वारा ‘कीचक वहा’ जैसा नाटक लिखा गया । किन्तु रंगमंच पर अभिजन,सवर्ण वर्ग की स्त्रियॉं के प्रवेश को लेकर अंत तक विरोध जारी रहा। यह समाज कई शर्ते नियमों के आधार पर स्त्रियॉं को रंगमंच पर आने से इन स्त्रियॉं को रोकती रही । जिसमें श. बा. मजूमदार, न्यायमूर्ति महाबल, श्री म. माटे, गणपतराव बोडस,बालगंधर्व आदि महामनाओं का नाम शामिल है। जबकि कमला बाई किबे,विमल लाल जी,बेबी कुलकर्णी,यमुनाबाई द्रविड़,मथुराताई द्रविड़ आदि महिलाओं ने उसका जोरदार समर्थन किया। अंतत; 1933 में ‘नाट्यमंतर’संस्था द्वारा पहली बार सवर्ण,अभिजन महिलाओं को रंगमंच पर प्रवेश दिया गया। नाटक का नाम था ‘आन्ध्यांची शाझ’ (अन्धो की पाठशाला) । तह नाटक व्योनर्सन आयर्स के ‘गंतलेटनाटक’ का रूपान्तरण था । इस नाटक में ज्योत्सना भोले नायिका तथा पद्माटाई वर्तक सह नायिका के रूप में थी । नायक और निर्देशक थे ज्योत्सना भोले के पति केशवराव भोले। और निर्माता और अनुवादक थे पद्माटाई वर्तक के पति श्री वा. वर्तक।
रंगमंच पर स्त्रियॉं के र्पवेश का एक और महत्वपूर्ण कारण ‘अर्थकारण’ भी था। नाटक मंडलियों द्वारा इसके पूर्व अन्य वर्ग के स्त्रियॉं को 1000 रुपये माह वेतन देना पड़ता था, कुलीन स्त्रियॉं को केवल 150 रुपए माह दिये जाते थे । इस कारण भी नाटक मंडली के मालिक भी सवर्ण,अभिजन महिलाओं के रंगमंच में प्रवेश हेतु उत्तरार्ध में प्रयत्न करते दिखाईदेते थे।अंततः यह एक लंबी लड़ाई जीती तो गयी पर मराठी रंगमंच के इस पूर्वार्ध में दलित शूद्र,बहुजन तथा हाशिये पर आसीन महिलाओं दारा जो भूमिका अदा की गयी उसका महत्व सर्जनात्मक प्रतिरोध स्वर के परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है।
*डॉ. सतीश पावड़े
सहायक प्रोफेसर
प्रदर्शनकारी कला विभाग (नाटक और फ़िल्म)
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा
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