लोक साहित्य में प्रकृति वर्णन की शिष्ट साहित्य से तुलना
अनुक्रम
पूनम देवी
शोधार्थी, पी-एच.डी. हिन्दी
हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला-176215
मो. 9816447031
ई-मेल – sharma9poonam@gmail.com
यह बात सर्वविदित है कि साहित्य समाज का दर्पण व प्रतिछाया होती है। इस दर्पण में समाज के विभिन्न रूपों के दर्शन स्वाभाविक रूप से किये जा सकते हैं। साहित्य का एक विशेष अंग ‘लोकसाहित्य’ के रूप में हम सबके मध्य उपस्थित रहता है। ‘लोकसाहित्य’ समाज की आत्मा का वह उज्जवल प्रतिरूप माना जा सकता है जिसमें सृजन और मानवीय विकास का चिंतन संगठित होने के कारण आनंद एवं मनोरंजन विद्यमान है । ‘लोक’ शब्द के कई अर्थ होते हैं – एक ‘लोक’ का सम्बन्ध समाज एवं भौतिक संसार से है। दूसरे ‘लोक’ का सम्बन्ध आलौकिक सत्ता से है। ‘लोक’ का एक अन्य अर्थ जनसामान्य से है। ‘लोक’ का अभिप्राय उस आम आदमी से है जो दिन-रात मेहनत करके पत्थर में भी ईश्वर का रूप उकेर देता है तो कभी खेत में हल चलाते वक्त उन खेतों को अपना शिशु समझकर माँ के समान सहलाने, संवारने एवं प्यार से दुलारने का कार्य भी करता है । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ के सम्बन्ध में अपने विचार को कुछ इस प्रकार परिभाषित किया है – ‘लोक’ शब्द का अर्थ जन-पद या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं । ये लोग नगर में परिष्कृत, रूचि संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएँ आवश्यक होती हैं उनको उत्पन्न करते हैं।”[1]
डॉ० कृष्ण देव उपाध्याय के अनुसार ‘लोक’ की परिभाषा इस प्रकार है- ‘‘आधुनिक सभ्यता से दूर अपने प्राकृतिक परिवेश में निवास करने वाली तथा कथित अशिक्षित एवं असंस्कृत जनता को ‘लोक’ कहते हैं जिनका आचार-विचार एवं जीवन परम्परायुक्त नियमों से नियंत्रित होता है।’’[2] लोकसाहित्य में नगर, शहर और ग्रामीण जीवन का वह समस्त साहित्य आ जाता है जिनमें अंचल विशेष की परम्परा का निर्वाह होता है। ‘लोकसाहित्य’ की विधाओं में गहनता व व्यापकता उसे नगरीय साहित्य जैसे तनाव एवं जटिलता से विमुक्त रखती है। ‘लोकसाहित्य’ के अंतर्गत ग्रामीण परिवेश, स्थानीय भाषा के लोकगीत, पर्वोत्सव, ग्रामगीत, प्रकृति चित्रण, देवी-देवता के गीत आदि आते हैं। ‘लोकसाहित्य’ शब्द कहने से ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित साहित्य की रूढ़िवादी धारणा का आभास होता है और यह लगता है कि ‘लोकसाहित्य’ अनपढ़ एवं सभ्यता से दूर किसी व्यक्तिसमुदाय का साहित्य होगा। इसके विपरीत वास्तविकता यह है कि गांव के लोकजीवन में ही जिंदगी की वास्तविक सच्चाई, अनुभवों तथा जटिलताओं का आभास होता है। ‘लोकसाहित्य’ मूलतः श्रवण एवं वाचिक परम्परा अर्थात कहने-सुनने की परम्परा का साहित्य है। ऐसा कहा गया है कि अगर किसी राष्ट्र के इतिहास, समाज तथा धार्मिक स्थिति की सही व सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करनी हो तो उस राष्ट्र के ‘लोकसाहित्य’ को जानना बहुत आवश्यक है। ‘लोकसाहित्य’ का अध्य्यन मुख्यतः पाँच रूपों में किया जा सकता है – ‘लोकगीत’, ‘लोकगाथा’, ‘लोकवार्ता, ‘लोकनाट्य’ और प्रकीर्ण साहित्य। लोकोक्तियाँ, मुहावरे, सूक्तियाँ या अन्यान्य प्रकार के उन गीतों का अध्ययन जिनका व्यवहार ग्रामीण बोली में ग्रामीण जनता प्रतिदिन करती है वह प्रकीर्ण साहित्य की श्रेणी में सम्मिलित किये जाते हैं। लोकगीतों के आधार पर लोकसाहित्य व शिष्ट साहित्य में समानता को स्पष्ट देखा जा सकता है। ‘लोकसाहित्य’ की समस्त विधाओं में लोकगीतों की धुन एवं परम्परा भाषाई सीमाओं को लांघती हुई निश्चय ही श्रोता के मन को आकर्षित कर लेती है। लोकमानस एवं सामान्य जीवन की प्रत्येक अनुभूति लोकगीतों के साथ इस प्रकार सम्बद्ध रहती है जैसे कि मानो ‘लोकगीत’ व लोकजीवन एक दूसरे के पूरक हैं। लोकगीतों में प्रकृति वर्णन के विविध रूप देखने को मिलते हैं। ऋतु-वर्णन, ग्रामीण जनजीवन से सम्बधिन्त खेत-खलिहान एवं अन्य-अनेक क्रियाओं में प्रकृति-वर्णन के दर्शन होते हैं। लोकसाहित्य और विशेषकर लोकगीतों में प्रकृति वर्णन के समस्त रूप देखने को मिलते हैं। यह लोकगीत चाहे संस्कार गीत हों, व्रत सम्बन्धी गीत, श्रम सम्बन्धी या फिर ऋतु-वर्णन सम्बन्धी गीत हों । लोकजीवन को जितना प्रभावित प्रकृति एवं पर्यावरण ने किया उतना अन्य किसी बात ने नहीं किया है। वास्तव में ‘लोकसाहित्य’ की पृष्ठभूमि प्रकृति की गोद में ही निर्मित हुई है और लोकगीतकार लोकसाहित्य के इस रूप के माध्यम से प्रकृति की सुन्दरता को ओर अधिक जीवंत कर देता है। प्रकृति के आलम्बन-उद्दीपक रूप को आधार बनाकर कजरी, फगुआ, चैता, बारहमासा आदि लोकगीत रचे व गाये गए हैं। ‘लोकसाहित्य’ मूलतः वाचिक परम्परा का साहित्य है। यह अपने स्वरुप में अनगढ़ होता है क्योंकि इसमें लोकपरम्परा और लोकजीवन की अभिव्यक्ति कलात्मक ढंग से होने की अपेक्षा अपने अनगढ़पन में होती है। ‘‘किसी देश की संस्कृति का परिचय उस देश के लोकसाहित्य में पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है, लोकसाहित्य जनजीवन का आईना है। इस र्दपण में अनपढ़ जनता की भावनाओं का, सुख-दुःख भरी विविध मनोवृतियों का प्रतिफलन होता है।”[3] ‘लोकसाहित्य’ भी जनमानस के मन का उद्गार है, विचार है। समय एवं परिस्थितियों में परिवर्तन का प्रभाव ‘लोकसाहित्य’ पर भी अवश्य हुआ है परन्तु ‘लोकसाहित्य’ के मूलरूप में परिवर्तन नहीं हुआ है। वाचिक परम्परा होने के कारण ‘लोकगीतों’ का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की ओर स्थानान्तरण होता है। इस स्थानान्तरण में लोकगीतों के स्वरुप में परिवर्तन आना स्वाभाविक है। मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने आज लोकगीतों के परम्परागत रूप को बदला है। लोकगीतों का आधार अब केवल ग्रामीण पृष्ठभूमि ही नहीं है बल्कि इसके वर्ण्य-विषय में परिवर्तन व्यापकता के साथ आया है। औद्योगिकीकरण, प्रदूषण, मंहगाई, सामाजिक विसंगतियाँ जैसे तमाम विषय लोकगीतों का आधार बनने लगे हैं। लोकगीतों में किसान जीवन से सम्बन्धित गीत भी देखने को मिलते हैं। इन्हें प्रायः खेत वगैरह में कार्य करते समय गाया जाता है। रोपनी, सोहनी, जंतसार, कोहलू आदि के गीत ऐसे ही हैं जिन्हें किसान समुदाय खेतों में काम करते वक्त गाता है। लोकगीतों की महत्ता इनकी गेयता के कारण है। लोककगीतों में समग्र समाज का उल्लास, सुख-दुःख की भावनायें, कर्ममय एवं संघर्षमय जीवन गेय शैली में लोकाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन जाता है। लोकजीवन की अभिव्यक्ति का इतना सशक्त माध्यम शायद ही अन्य लोकविधा हो। ‘लोकसाहित्य’ की विशिष्टता उसमें लोकतत्त्व का होना है। यह लोकतत्त्व ही ‘लोक’ तथा ‘शिष्ट’ दोनों प्रकार के साहित्य को जनसामान्य के मध्य स्मरणीय एवं लोकप्रिय बनाता है। तुलसी अगर रामचरितमानस में मर्यादा पुरुषोतम राम की बात करते हैं और राम को लोकनायक के रूप में दिखाते हैं तो उसका मुख्य कारण राम के चरित्र में लोकसम्मत गुणों का होना ही है। यही लोकसम्मत गुण राम को राजा होते हुए भी एक ‘लोक’ एवं ‘जन’ नायक के रूप में प्रतिष्ठापित करते हैं। जनक-नंदिनी सीता को महलों की सुख-सुविधा त्याग कर पर्णकुटीर में अपना जीवन व्यतीत करते हुए जब तुलसीदास के मानस में दिखाया जाता है तो वह एक सामान्य स्त्री की पीड़ा, दर्द, वेदना व उसके जीवन में आने वाले परिवर्तनों की द्योतक बन जाती है। ‘लोक’ के हृदय व मानस में प्रकृति के साथ गहरा सम्बन्ध एवं तालमेल रहा है। ऋतु परिवर्तन होने पर प्रकृति भी स्वयं में परिवर्तन करती हुई अपना रंग-रूप परिवर्तित करती है। प्रकृति व ऋतुओं में यही परिवर्तन लोकजीवन में भी परिवर्तन लाता है। भारतीय ‘शिष्ट’ साहित्य में प्रायः छः ऋतुओं- शिशिर, बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद तथा हेमंत का वर्णन देखने को मिलता है। संस्कृत साहित्य में इसे ‘षड्ऋतु-वर्णन’ कहा जाता है। ‘लोकसाहित्य’ में इस ‘षड्ऋतु-वर्णन’ की अपेक्षा अधिकतर बारहमासा पद्धति को अपनाया जाता है। यह बारह मास पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक व मार्गशीर्ष हैं। ग्रामीण समाज इन ऋतुओं के प्रभावस्वरुप अपनी भावनाओं को गीतों के रूप में बांधकर अपनी तान छेड़ता है- कजरी, चैत, फगुआ या होरी, बारहमासा, चौमासा आदि इन ऋतुओं के प्रभाव के कारण ही लोकजीवन में अपना व्यापक स्थान बना पाये हैं। ग्रीष्म की भयानक लू से लेकर वर्षा ऋतु की काली अँधेरी रात का आकाश, जनसामान्य के हृदय को उद्वेलित करता है और यही हृदय की उद्वेलना ऋतुओं के गीत में परिणत होते दिखाई देती हैं। ‘लोकसाहित्य’ में प्रकृति-वर्णन विभिन्न रूपों में इस प्रकार देखा जा सकता है –
1. कजरी –
सावन के महीने में भोजपुरी प्रदेश में जो गीत गाये जाते हैं वह कजरी गीत हैं। श्रावण में आसमान में घिरने वाले काजल जैसे बादलों की कालिमा के कारण कजरी का नामकरण हुआ है। कजरी के मूल में बादलों की श्यामलता एक बड़ा कारण रही है। मूलतः कजरी का वर्ण्य-विषय प्रेम है। इसके अंतर्गत श्रृंगार के उभय पक्ष- संयोग तथा वियोग दोनों का रूप देखने को मिलता है। पति को शीघ्र घर लौट आने की सलाह, जुआ खेलने से रोकना, गरीबी का उपालंभ, वस्त्राभूषण की मांग, पीहर जाने का अनुरोध, प्रणय-निवेदन, दम्पति परिहास आदि कजरी के मुख्य विषय हैं। लोकगीतों के अंतर्गत कजरी में मनोविनोद का सुन्दर चित्रण किया है। पति अपनी प्रियतमा से कहता है – फागुन में नेहर अर्थात् मायके जाकर तुमने मेरा फागुन फीका किया तो सावन में परदेस जाकर मैं भी तुम्हारी कजरी नीरस कर दूँगा-
“फागुन मास धनि हमरो फगुनवाँ त्त्
तू हमें छोड़ि गइलू नैहरवा
सावन मास धनि तोहरी कजरियां
त तोहें छोड़ि जावै हो विदेसवा।”[4]
वर्षा काल में सखियों के उल्लास को देखकर विरहिणी अपने भाग्य को कोसती हुई करुण स्वर में बोल उठती है- “दल गरजे बिजुरी चमके / जियरा लरजे मोर सखिया / सैयां गहरे ना अइले / पानी बरसन लागे मोर सखिना।”[5]
शिष्ट साहित्य में भक्तकवि सूरदास ने वर्षा की इसी श्यामछटा का वर्णन किया है। सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ में गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना सम्पूर्ण वृन्दावन दुःखप्रदाता प्रतीत होता है-
“बिनु गोपाल बैरिनी भई कुंजें।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुजैं।”[6]
2. होरी तथा फगुआ –
होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों को फाग, फगुआ, होली या होरी कहते हैं। यह बसंत ऋतु का विशेष उल्लेखनीय गीत है। इस महीने में मानव के अन्तर का उल्लास होली की धुन में गूंज उठता है-
“फागुन आया मोद बढ़ाया, फरक उठे अंग-अंग / होरी गाओ फाग मनाओ और बजाओ चंग।”[7]
‘बिहारी सतसई’ में मान किये बैठी नायिका को उसकी सखी समझाते हुए कहती है कि बसंत ऋतु में मान करना उचित नहीं है –
“छकि रसाल-सौरभ, सने मधुर माधुरी-गंध
ठौर-ठौर झौरंत झंपत् भौर-भौर मधु गंध।”[8]
3. चैती –
बसंत ऋतु में गाये जाने वाले गीतों में चैती विशेष उल्लेखनीय है। चैत्र के महीने में गाये जाने के कारण इन गीतों का नाम चैती पड़ा। चैत से पहले चैती गीतों को गाने की प्रथा लगभग नहीं है। चैत मास की हवा को प्राणीमात्र में आलस्य से भर देने वाली कहा गया है –
‘‘सुतला में काहेला जगैल हो रामा, भोरे ही भोरे
रस के सपनमा में हलइ अंखिया डूबन
अंग ही अंग अलसाये हो रामा।”[9]
कवि जायसी ने पद्मावत के ‘नागमती वियोग खंड’ में चैत्र मास का वर्णन विरहिणी नागमती के मुख से इस प्रकार करवाया है-
“चैत बसन्ता हाये धमारी
मोहि लेखे संसार उजारी
पंचम विरह पंच सरमारै
रकत रोइ सगरो वन ठारै
बूड़ि उठे सब तरुबर पाता
भीज मजीठ टेसू वनराता।”[10]
4. बारहमासा –
इन गीतों में बारह महीनों का वर्णन किया जाता है। ऋतु सम्बन्धी गीतों में बारहमासा अत्यंत लोकप्रिय है। कालिदास का ‘ऋतुसंहार’ ऋतुओं पर आधारित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। लोकगीतों के अंतर्गत संस्कार गीतों में ऋतुवर्णन दृष्टव्य है –
“सुरग पुरी ते दो बैल आये,
हल जूंगडा मंगाया,
सुचया बी बुआया।
चैत्र महीने कपाह बी बुआई,
बैशाख महीने जम्मिया कपाई,
जेठ महीने निंदियां कपाई,
आषाढ़ महीने छोड़े दो-दो पत्रू,
सोण महीने बड़ियां जे होइयां ,
काले महीने सैह टीडे जे आए,
सूज महीने सैह खिड़ी गईयां,
काती महीने सैह सब छुंगी लेईयां,
मघैर महीने सैह लोढी कपाई,
पोह महीने सैह कत्तियां कपाई,
माघ महीने सैह बट्टियां कपाई
फगण महीने एह बणया जनेऊ।”[11]
प्रकृति-वर्णन का यही रूप शिष्ट साहित्य अर्थात् अभिजन साहित्य में भी देखने को मिलता है। शिष्ट साहित्य में प्रेममार्गी कवि जायसी ने ‘पदमावत’ महाकाव्य में नागमती का विरह-वर्णन बारहमासा की परिपाटी के आधार पर किया है। जायसी ने नागमती के विरह का वर्णन आषाढ़ से आरम्भ करके ज्येष्ठ मास में समाप्त किया है। विरह में नागमती को कोई भी परिवर्तन ऋतुओं में दिखाई नही देता है, उसे केवल विरह की अग्नि ही हर ऋतु में प्राप्त होती है। इसी प्रकार कालिदास के मेघदूत में भी मेघ के माध्यम से सन्देश भेजने की बात की गई है।
निष्कर्ष : सार रूप में यह कहा जा सकता है कि लोकसाहित्य की पृष्ठभूमि पर शिष्ट साहित्य की रचना मुख्य आधार है और जब शिष्ट साहित्य लोकसाहित्य से अपनी आधारभूमि ग्रहण करता है तो वह न केवल साहित्यिकता, संगीतात्मकता तथा शैली की अदभूत छटा से लोकसाहित्य के अंश को शिष्ट साहित्य में सम्मिलित करता है बल्कि लोकसाहित्य को विश्व में एक नई पहचान भी देता है। लोकसाहित्य के क्षेत्र को ओर अधिक विस्तारित करने में सहायता भी करता है। साहित्य, संगीत और कलाओं का मूल उत्स और प्रेरक स्रोत लोकसाहित्य और लोकगीतों में ही निहित है। अतः लोकसाहित्य व शिष्ट साहित्य निश्चय ही एक दूसरे के पूरक हैं व एक दूसरे की उन्नति में सहायक हैं।
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- वर्मा, आर. पी. (डॉ.) : आधुनिक व्रज और अवधी काव्य में लोकतत्त्व : निर्मल पब्लिकेशन, संस्करण : 2009 दिल्ली, पृष्ठ- 98-99 पर उद्धृत।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
- वर्मा, आर. पी. (डॉ.) : आधुनिक व्रज और अवधी काव्य में लोकतत्त्व : निर्मल पब्लिकेशन, संस्करण : 2009 दिल्ली, पृष्ठ- 99 पर उद्धृत।
- शर्मा, रंजना (डॉ.) : लोकसाहित्य चिंतन के विविध आयाम : आनंद प्रकाशन कोलकाता, संस्करण : 2005, पृष्ठ-33 पर उद्धृत |
- वही, पृष्ठ-44.
- वही, पृष्ठ-44.
- प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य : रेखा प्रकाशन, दिल्ली : नवीन संस्करण : 2009, पृष्ठ-64
- शर्मा, रंजना (डॉ.) : लोकसाहित्य चिंतन के विविध आयाम : आनंद प्रकाशन कोलकाता, संस्करण 2005, पृष्ठ-45.
- गुप्ता, चमन लाल (डॉ.) : काव्य-संचयन : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली : संस्करण 2000 , पृष्ठ -80.
- शर्मा, रंजना (डॉ.) : लोकसाहित्य चिंतन के विविध आयाम : आनंद प्रकाशन कोलकाता, संस्करण : 2005 पृष्ठ-47.
- वही पृष्ठ-47.
- जसवाल, बी.आर.(सं.) : हिमाचल प्रदेश के संस्कार गीत : भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, शिमला, पृष्ठ – 5.
- वर्मा, आर. पी. (डॉ.) : आधुनिक व्रज और अवधी काव्य में लोकतत्त्व : निर्मल पब्लिकेशन, संस्करण : 2009 दिल्ली, पृष्ठ- 98-99 पर उद्धृत।
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