लोक साहित्य एवं संस्कृति

हरियाणवी लोक साहित्य में अंबेडकरवाद के प्रवर्तक महाशय छज्जूलाल सिलाणा

दीपक मेवाती

पीएच. डी. शोधार्थी (IGNOU)

नूंह (मेवात) हरियाणा

सम्पर्क – 9718385204  

ईमेल – dipakluhera@gmail.com

मानव जीवन के हर काल में सामाजिक कुरीतियों को दूर करने,  आमजन को इन कुरीतियों के प्रति जागृत करने का बीड़ा जिस भी शख्स ने उठाया आज उनकी गिनती महान व्यक्तित्व के रूप में होती है। संत कबीर दास, संत रविदास, बिरसा मुंडा, शियाजी राव गायकवाड, ज्योति राव फूले, सावित्रीबाई फूले, बीबी फातिमा शेख,डॉ. भीमराव अंबेडकर, मान्यवर कांशीराम आदि ऐसे ही व्यक्ति हुए जिन्होंने समाज में शोषित,  दलित,  पीड़ित जनता की आवाज उठाई एवं स्वयं के जीवन को भी इनके उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। समय-समय पर देश के कोने-कोने में ऐसे अन्य व्यक्ति भी जन्म लेते रहे जिन्होंने समाज को जागृत करने की कोई नहीं बात बताई या फिर ऊपर वर्णित महान लोगों के विचारों का ही प्रचार प्रसार किया।

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     हरियाणा के झज्जर जिले के छोटे से गांव सिलाणा में 14 अप्रैल, 1922 को एक ऐसे ही महान व्यक्ति छज्जूलाल  का जन्म हुआ। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समाज की बुराइयों पर लिखते हुए आमजन के बीच बदलाव की बात करते हुए एवं अंबेडकरवाद का प्रचार-प्रसार करते हुए व्यतीत किया। छज्जूलाल जी के पिता का नाम महंत रिछपाल और माता का नाम दाखां देवी था। इनके पिता सन्त प्रवृति के व्यक्ति थे। वे हिंदी, संस्कृत व उर्दू भाषाओं के भी अच्छे जानकार थे। समाज में इनके परिवार की गिनती शिक्षित परिवारों में होती थी। इनकी पत्नी का नाम नथिया देवी था। इनके चाचा मान्य धूलाराम उत्कृष्ट सारंगी वादक थे। महाशय जी कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। छज्जू लाल ने मास्टर प्यारेलाल के सहयोग से उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत और हिंदी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। महाशय जी ने 15 वर्ष की अल्पायु में ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। इनकी कविताओं पर हरियाणा के एकमात्र राष्ट्र कवि महाशय दयाचंद मायना की शब्दावली का भी प्रभाव पड़ा। छज्जूलाल जी ने महाशय दयाचंद जी को अपना गुरु माना और स्वयं को उनके चरणों का दास मानते हुए लिखा  –

तू ही तू ही तेरा नाम हरदम तेरी आस

गुरु दयाचंद कृपा कीजियो मैं नित रहूँ चरण को दास।

महाशय जी 1942 तक ब्रिटिश आर्मी में रहे हैं किंतु इनका ध्यान संगीत की तरफ था तो इन्होंने आर्मी से त्यागपत्र देकर घर पर ही अपनी संगीत मंडली तैयार कर ली और निकृष्टतम जीवन जीने वाले समाज को जागृत करने के काम में लग गए। उन्होंने ऐसी लोक रागणियों की रचना की जो व्यवस्था परिवर्तन और समाज सुधार की बात  करती हो। महाशय जी 1988 के दौरान आकाशवाणी रोहतक के ग्रुप ‘ए’ के गायक रहे यहां पर उन्होंने लगातार 12 वर्ष गायन कार्य किया। महाशय जी का देहांत 16 दिसम्बर 2005 को हुआ। महाशय छज्जू लाल सिलाणा एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी लोक कवि थे। उन्होंने अपने जीवन काल में 21 किस्सों  और एक सौ से अधिक फुटकल रागणियों की रचना की। इनके किस्सों में डॉ. भीमराव अम्बेडकर, वेदवती-रतन सिंह, धर्मपाल-शांति, राजा हरिश्चंद्र, ध्रुव भगत,  नौटंकी, सरवर-नीर, बालावंती, विद्यावती, बणदेवी चंद्रकिरण, राजा कर्ण,  रैदास भक्त शीला-हीरालाल जुलाहा, शहीद भूप सिंह, एकलव्य आदि किस्सों की रचना की। महाशय जी ने सामाजिक बुराइयों जैसे दहेज प्रथा, जनसंख्या, अशिक्षा, महिला-उत्पीड़न, जाति-प्रथा, नशाखोरी,  भ्रूण हत्या आदि पर भी रागणियों की रचना की।

            महाशय जी को जिस ऐतिहासिक किस्से के लिए याद किया जाता है वह डॉ. भीमराव अंबेडकर का किस्सा है। इस किस्से के द्वारा इन्होंने हरियाणा के उस जनमानस तक अपनी बात पहुंचाई जो देश-दुनिया की चकाचौंध से दूर था और जिसके पास जानकारी का एकमात्र साधन आपसी चर्चा और रागणियां ही थी। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने आजीवन संघर्ष किया जिस कारण ही करोड़ों भारतीयों के जीवन में खुशियाँ आई। बाबा साहब के मूल मंत्र ‘शिक्षित बनो’, संगठित रहो व संघर्ष करो आज लाखों लोगों के जीवन में स्वाभिमान की ज्योति जला रहे हैं। हजारों वर्षों  से दुत्कारे लोग अपने अधिकार मांग रहे हैं। अब उन्हें मानव जीवन की गरिमा का एहसास हुआ है। दलित समाज के अंदर तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जागृत हो रहा है। भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहब ने संविधान के माध्यम से अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन जातियों के कल्याण के उपबन्ध ही संविधान में नहीं लिखे अपितु किसानों, महिलाओं, संगठित और असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी मजदूरों के हितों से सम्बंधित उपबन्ध भी संविधान में जोड़े।  महाशय जी ने बाबा साहब के जन्म से लेकर उनके अंतिम क्षणों तक को काव्य बद्ध किया। बाबा साहब के जीवन को इन्होंने 31 रागनियों में समाहित किया। इन रागणियों को ये समाज को जागृत करने के लिए गाया करते थे। वे रागनीयां बहुत अधिक ह्रदय स्पर्शी हैं, जिनमें बाबा साहब के बचपन में जातिगत उत्पीड़न को दर्शाया गया है। जब इन रागणियों को सांग के माध्यम से दिखाया जाता है तब दर्शक की आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

भीमराव के बचपन की घटना को महाशय जी लिखते हैं जब महारों के बच्चों को स्वयं नल खोल कर पानी पीने की इजाजत नहीं थी तो भीमराव अंबेडकर प्यास से व्याकुल हो उठते हैं, उसका चित्रण महाशय जी अपने शब्दों में करते हैं :-

बहोत दे लिए बोल मनै कौए पाणी ना प्याता

घणा हो लिया कायल इब ना और सह्या जाता।

म्हारै संग पशुवां ते बुरा व्यवहार गरीब की ना सुणता कौए पुकार

ढएं कितने अत्याचार सुणेगा कद म्हारी दाता।

विद्यालय में जिस समय भीमराव पढ़ते थे तो अध्यापक उनकी कॉपी नहीं जांचता था, अध्यापक भी उनसे जातिगत भेदभाव करता था। इस वाकये को सिलाणा जी लिखते हैं :-

हो मास्टर जी मेरी तख्ती जरूर देख ले

लिख राखे सै साफ सबक पढ़के भरपूर देख ले…..

एक बार भीमराव बाल कटाने नाई के पास जाता है तो नाई उसके बाल काटने से मना कर देता है और कहता है :-

एक बात पूछता हूं अरे ओ नादान अछूत

मेरे पास बाल कटाने आया कहां से ऊत

चला जा बदमाश बता क्यूं रोजी मारे नाई की

करें जात ते बाहर सजा मिले तेरे बाल कटाई की।

इस घटना में नाई भी इसीलिए बाल काटने से मना करता है क्योंकि उसे समाज की अन्य जातियों का डर है।

भीमराव अपने साथ घटित इस घटना को अपनी बहन तुलसी को बताते हैं :-

इस वर्ण व्यवस्था के चक्कर में मुलजिम बिना कसूर हुए

बेरा ना कद लिकड़ा ज्यागा सब तरिया मजबूर हुए।

एक बार भीम सार्वजनिक कुएं से स्वयं पानी खींचकर पी लेता है स्वर्ण हिंदू इससे नाराज होकर भीम को सजा देते हैं उसका चित्रण महाशय जी करते हैं:-

लिखी थी या मार भीम के भाग म्ह

भीड़ भरी थी घणी आग म्ह

ज्यूं कुम्हलावे जहर नाग म्ह ना गौण कुएं पै…..

करा ना बालक का भी ख्याल पीट-पीटकर करया बुरा हाल।

भीम और उनका परिवार जब मुंबई रहता था तो भीम स्कूल से छुट्टी के बाद चरनी रोड गार्डन में जाकर बड़े-बड़े महानुभाव पर किताबें पढ़ते थे। भीम को इस प्रकार पढ़ते देखकर सिटी गार्डन हाई स्कूल के हेड मास्टर केलुस्कर जो कि समाज सुधारक और मराठी लेखक भी थे, वे आश्चर्यचकित हुए उन्होंने भीम को शिक्षा का महत्व समझाया।

महाशय जी ने निम्नलिखित शब्दों के द्वारा इस घटना को बांधा है:-

मूर्ख मनुष्य मतिमंद पागल लिख पढ़ के विद्वान बणज्या

बोलण की तहजीब और रसीली जुबान बणज्या

अप टू डेट आदमी बढ़िया फैशन और डिजान बणज्या

जिस तै रकम कमाई जा उस गुण विद्या की खान बणज्या

थाणेदार कलेक्टर डिप्टी मेजर और कप्तान बणज्या

बैरिस्टर वकील मनिस्टर अकलमंद इंसान बणज्या

निचरली पैड़ी तै ऊंचे ओहदे पै चढज्या सै

उसका जन्म सुधर जा जो नर लिख पढ़ ज्या सै।

1907 में भीमराव ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। कैलुस्कर ने भीमराव की आगे की शिक्षा के लिए भीमराव के पिता रामजी सूबेदार को आर्थिक सहायता का आश्वासन दिया। भीमराव का विवाह रमाबाई के साथ निश्चित हुआ। उस समय भीम की आयु 16 और रमा की 9 वर्ष थी। विवाह का चित्रण छज्जू लाल जी ने निम्न शब्दों में किया है:-

सूरज कैसा तेज भीम का, रमी चांदनी सी खिली,

दोनों की हो उमर हजारी, जोड़ी सोहणी खूब मिली।

भीमराव ने बी.ए. के लिए एल्फिन्स्टन कोलेज में प्रवेश ले लिया। घरेलू परिस्थितियों के कारण रामजी की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई। ऐसी स्थिति में श्री केलुस्कर भीमराव अम्बेडकर को लेकर बडौदा के शिक्षाप्रेमी महाराज सियाजिराव गायकवाड़ के पास गए। महराज ने भीमराव से कुछ सवाल किये, जिनका उत्तर भीम ने सुंदर ढंग से दिया। महाराज ने प्रसन्न होकर भीम को पच्चीस रूपये मासिक छात्रवृति देना स्वीकार किया। सन 1912 में भीमराव अम्बेडकर ने कड़ी मेहनत करके बी.ए. की परीक्षा पास कर ली। बी.ए. के बाद आर्थिक तंगी से उभरने के लिए उन्होंने बड़ौदा में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति पायी। भीमराव के बडौदा जाने के बाद उनके पिता रामजी सूबेदार बहुत बीमार हो गए। भीमराव बीमारी के दौरान आते हैं तब रामजी द्वारा भीमराव को सम्बोधित करने के वाकये को कवि लिखते हैं:-

आखिरी अभिलाषा बेटा कहणा मेरा मान लिए

गरीबां का उद्धार करना हृदय के म्ह़ा ठाण लिए

पीड़ित और पतितों का सहारा बण बेटा

असंख्य तारों में चांद उजियारा बण बेटा

अछूतों का प्यारा बण बेटा, कर तन-मन-धन कुर्बान लिए

इनके हित म्ह गोळी खातर सीना अपणा ताण लिए।

2 फरवरी 1913 को रामजी सकपाल जी का देहांत हो गया। पिता की मृत्यु के पश्चात भीमराव महाराज सियाजिराव से मिले एवं उन्हें अपनी पीड़ा सुनाई। महाराज भीमराव की अंग्रेजी से प्रसन्न हुए एवं तीन वर्ष के लिए भीमराव की छात्रवृत्ति स्वीकृत इस शर्त पर की कि अमेरिका में तीन वर्ष अध्ययन के बाद 10 वर्ष बडौदा रियासत में नौकरी करनी पड़ेगी। अमेरीका जाने की बात सुनकर रमा बहुत उदास हुई, लेकिन भीमराव ने बड़े सूझ-बूझ से रमाबाई को समझा दिया। 15 जून 1913 को भीमराव बोम्बे से रवाना होकर न्यूयार्क पहुंचे। यहाँ पर उन्होंने कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बड़ी लगन से अध्ययन में जुट गए। इस घटना को कवि ने निम्न पंक्तियों के माध्यम से उकेरा है:-

एकाग्र एकचित लगा के पढ़ण लाग्या दिन और रात

लेट जाग के पुस्तक पढे जल्दी उठे बखत प्रभात

हरदम ध्यान रहै पढण म्ह सच्चे मन से करे खुबात

निंद्रा काबू करी भीम ने मन डाटा और साध्या गात

निश्चय दृढ़ करया मन म्ह लागी लगन यत्न एक साथ

विषय वासना मार साध नै, काम क्रोध को दे दी मात

मंजिल दिखी साफ़ आप होगी घट म्ह रुश्नाई।

भीम अमरीका जाकै लाग्या करण पढ़ाई।

कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में सफलता प्राप्ति के पश्चात भीमराव का ध्यान लन्दन की ओर मुड़ा क्योंकि उनके ज्ञान की पीपासा शांत नहीं हुई थी। अम्बेडकर के आग्रह पर महाराज बडौदा ने उनकी छात्रवृति की अवधि दो वर्ष के लिए और बढ़ा दी। जिससे भीमराव लंदन से शिक्षा ग्रहण कर सकें। लंदन में उन्होंने एम.एससी. (अर्थशास्त्र) में दाखिला लिया और यहाँ के विशाल पुस्तकालयों में जाकर पढ़ाई शुरू कर दी। लेकिन इसी बीच भीमराव को समाचार मिला कि उनकी छात्रवृति की अवधि समाप्त हो गई है। इससे अम्बेडकर बहुत निराश हुए। लेकिन उन्होंने प्रो. एडविन कैनन की सहायता से लन्दन यूनिवर्सिटी में अध्ययन की इजाजत ले ली। भीम बडौदा के दीवान के बुलावे पर अगस्त 1917 में अपनी प्रतिज्ञा अनुसार दस वर्ष बडौदा रियासत की सेवा करने के लिए बडौदा पहुँच गए। लेकिन वहां पर कोई भी होटल भीमराव को ठहराने के लिए राजी नहीं हुआ और न ही कोई कमरा किराए पर मिला। भीमराव ने अपना नाम बदलकर एक पारसी सराय में शरण ली। इस सराय में बिजली का प्रबंध नहीं था। इसमें चूहे और चमगादड़ भी बहुत अधिक थे। अम्बेडकर को मजबूरीवश वहीं पर रुकना पड़ा। इस प्रकार बडौदा में भीम को बड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। महाशय जी ने इस घटना को कुछ इस प्रकार लिखा है-

इस जात-पात के भेदभाव ने बडौदा म्ह घणा सताया

ढूंढ-ढूंढ लिया टूट भीम ठहरण नै नहीं ठिकाणा पाया

हार के लिया झूठ तै काम, भीम नै बदल्या अपणा नाम

एक सराह म्ह लिया थाम, जब पारसी धर्म बतलाया।

बडौदा के कटु अनुभवों से डॉ. अम्बेडकर को बहुत दुःख हुआ। उनके मन में विचार आया कि जब उन जैसे शिक्षित एवं सुसंस्कृत व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार होता है तो उन अछूत भाइयों का क्या होगा जो अनपढ़ हैं। लाचारी और विवशता के कारण अम्बेडकर वापिस मुंबई लौट आये। बम्बई आकार भीमराव कैलुस्कर से मिले। तब कैलुस्कर ने अपने मित्र प्रोफेसर जोशी को पत्र लिखा जो उस समय बडौदा में रहते थे। श्री कैलुस्कर ने भीम के उनके घर में ठहरने की व्यवस्था के लिए कहा। प्रोफेसर जोशी ने सहमति दे दी। किन्तु जब भीमराव प्रोफेसर जोशी के घर पर पहुंचे तब पति-पत्नी को उनके विषय में झगड़ते हुए पाया। इस वाकये को महाशय जी ने लिखा है-

पत्नी : नीची जात अछूत आदमी नै घर मेरे म्ह लाया क्यूं

पति  : यो लिख्या-पढ़ा विद्वान मनुष्य तनै नीच अछूत बताया क्यूं

पत्नी : नीच अछूत आदमी के दर्शन म्ह टोटा हो से

पति  :  जो दूसरे नै नीच कहे वो माणस छोटा हो से

पत्नी :  वेद शास्त्र कहें नीच का संग घणा खोटा हो से

पति  :  कर्म बताया प्रधान जगत म्ह मरहम लोटा हो से।

इस अपमान को भीमराव अम्बेडकर आजीवन नहीं भूले। हालांकि प्रोफेसर जोशी अपने प्रगतिशील विचारों के कारण जाने जाते थे। लेकिन अपनी पत्नी के सामने मजबूर थे। भीमराव निराश होकर बोम्बे लौट आए। अब उनके सामने आर्थिक समस्या भी आन पड़ी। क्योंकि आजीविका का कोई साधन नहीं रह गया था। साल दो साल भीमराव यूंही कष्टों में जीवन व्यतीत करते रहे। एक दिन भीमराव को सूचना मिली कि बोम्बे के सरकारी सिडनेहम कोलेज ऑफ़ कोमर्स एंड इकोनोमिक्स में एक प्रोफेसर की जगह रिक्त है। डॉ. भीमराव का इंटरव्यू के बाद इस कोलेज में चयन हो गया। पहले ही दिन के लेक्चर से छात्र बहुत अधिक प्रभावित हुए। भीमराव के लेक्चर की जो चर्चा छात्रों ने आपस में की उसको महाशय जी लिखते हैं-

सुणों दोस्तों अमरीका तै विद्वान आया से

सिडनेहम म्ह प्रोफेसर भीमराव बताया से

करी कोलम्बिया तै पीएच.डी. जो चार कूट म्ह नामी से

अर्थशास्त्र और राजनैतिक विज्ञान का स्वामी से

आळकस सुस्ती ना धौरे मेहनती और कामी से

वो लैक्चर म्ह हद करदे ज्ञान म्ह चट्या-चटाया से।

भीमराव ने कुछ पैसे अपने वेतन से बचाए व छत्रपति साहूजी महाराज ने भी उनकी आर्थिक मदद की। जिससे ही भीम दोबारा अपनी पढ़ाई पूरी करने लन्दन जा सके। अप्रैल 1923 में भीमराव शिक्षा पूरी करने के पश्चात भारत लौट आए। जून 1923 उन्होंने एक वकील के तौर पर काम शुरू किया। जिसमें उन्होंने अपनी योग्यता का लौहा मनवाया। भीमराव को अभी तक भारत में एक दलित नेता के रूप में भी प्रसिद्धि प्राप्त हो चुकी थी। इसी कड़ी में भीमराव अम्बेडकर ने महाड़ के चावदार तालाब से पानी पीने के लिए आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन में शामिल होने आए लोगों को अध्यक्षीय भाषण के दौरान जिस प्रकार समाज की कुटिलता का परिचय भीमराव ने कराया उसको महाशय जी लिखते हैं-

देख-देख के मौका धोखा धुर तै करते आए

घने पोलसीबाज, पोप, पक्के बदमाश बताए…

त्रेता युग म्ह शम्बूक संग घणा मोटा जुल्म कमाया था

रैदास कबीर भक्त चेता पे जाति आरोप लगाया था

गुरु वाल्मीकि, सबरी भीलनी नै चमत्कार दिखलाया था

काशी म्ह कालिया भंगी नै हरिचंद का धर्म बचाया था

हिन्दुओं के पोथी-पुस्तक म्ह वे भी चंडाल कहाए।

19 मार्च 1927 की रात को कांफ्रेस के पश्चात सब्जेक्ट कमेटी की बैठक हुई। जिसमें निर्णय लिया गया कि सामूहिक रूप में चावदार तालाब पर पानी लेने के लिए जाएं। 20 मार्च को बाबा साहब ने कुछ इस प्रकार लोगों का उत्साहवर्धन किया-

चलो शूरमा आज तुम्हें शुभ काम पे जाणा से

महाड़ के चावदार तालाब का पाणी लाणा से

वर्ण व्यवस्था भस्म करण ने आग बन जाओ

मतना रहो गिजाई जहरी नाग बन जाओ

कदे तक ना बुझे वो चिराग बन जाओ

सोलह करोड़ अछूतों के तुम भाग बण जाओ

ए मरदानों हंस के बीड़ा तुमने ठाना से।

भीमराव अम्बेडकर की भरपूर कोशिशों के बाद जब कम्युनल अवार्ड के द्वारा दलित वर्गों को भी मुसलमाओं, इसाइयों और सिखों की भांति अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया गया तब गांधी जी इसके विरोध में मरणव्रत पर बैठ गए। बाबासाहब और गांधी जी के बीच 24 सितम्बर 1932 को पूना में समझौता हुआ। जिसके बाद गांधी जी ने मरणव्रत तो तोड़ा। बाबा साहब ने गांधीजी के सम्मुख समझौते की शर्तें कुछ इस प्रकार रखी थी-

गांधी जी मेरे सवाल का उत्तर दे सही बोल के

गरीबां का हकूक इब तै बिलकुल परमानेंट लिख दो

हर वास्तु म्ह साझा बाधा पूरा एग्रीमेंट लिख दो

नौकरी सर्विस म्ह हक ट्वंटी वन परसेंट लिख दो

वायसराय, गवर्नर, डिप्टी, मेजर, लेफ्टीनेंट लिख दो

बी.ए., एम.ए. डिग्री सारी ईब तै ग्रेजुएट लिख दो

लेंडलार्ड करो इन्हीं को सख्त हुकम अर्जेंट लिख दो

इस भारत के धनमाल का हिस्सा दे तोल-मोल के।

बाबा साहब अब हर पीड़ित, दुखी जन की आवाज बनने लगे। किसानों के पश्चात बाबा साहब ने रेल मजदूरों के हकों की आवाज उठाई। एक सभा में पिछड़े वर्ग के नौजवानों को सम्बोधित करते हुए बाबा साहब कहते हैं –

अ नौजवान उठ क्या करता आराम है

इस देश का सुधार करना तेरा काम है….

खुद आप जागज्या और दुनियां को जगा दे

लड़ अहिंसा का युद्ध सत की तोप दगा दे

छुआछूत का भूत इस भारत से भगा दे

बढ़ज्या वतन की शान अपनी जान लगा दे

ये अस्पृश्यता देश के लिए इल्जाम है।

जनवरी 1945 में डॉ. अम्बेडकर कलकत्ता गए। वहां पर गरीब, मजदूर व किसानों की एकता व संघर्ष पर बल दिया। उन्होंने कहा की अपनी पार्टी ‘शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन’ को मजबूत बनाओ। बाबा साहब ने लोगों को इस प्रकार आश्वस्त किया-

अभिमान करण आलां के आदर घट के रहेंगे

धन और धरती भारत के म्ह बंट के रहेंगे….

कानूनों के जरिये जुल्म कमाल मिटाया जागा

बैर द्वेष देश से तुरंत फिलहाल मिटाया जागा

बेईमान माणस का गंदा ख्याल मिटाया जागा

गरीब अमीरों का भी कतई सवाल मिटाया जागा

ईब सब इंसान एक दर्जे पे डट के रहेंगे।

14 अक्तूबर 1956 को जब बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार किया। उस समय दलित जनता जिस प्रकार के जोश से लबालब होकर नागपुर की ओर बढ़ रही थी, उसका चित्रण महाशय जी करते हैं-

लाखों की तादाद चली बन भीमराव की अनुगामी

बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि

संघम शरणम गच्छामि…..

जो बतलाया भीमराव ने सबने उसपे गौर किया

बुद्ध धर्म ग्रहण करेंगे संकल्प कठोर किया

कूच नागपुर की ओर किया निश्चय लेकर आयामी

बुद्धं शरणम्……

6 दिसम्बर 1956 जिस दिन महामानव भीमराव अम्बेडकर की मृत्यु हुई। उस दिन बाबासाहब के निजि सचिव नानक चंद रत्तू जी रोते-रोते जो कुछ कहते हैं उसको सिलाणा जी लिखते हैं –

आशाओं के दीप जला, आज बाबा हमको छोड़ चले

दीन दुखी का करके भला, आज बाबा हमको छोड़ चले…

पीड़ित और पतित जनों के तुम ही एक सहारे थे

च्यारूं कूट म्ह मातम छा गया, दलितों के घने प्यारे थे

नम आखों से अश्रु ढला, आज बाबा हमको छोड़ चले।

इस प्रकार महाशय छज्जूलाल सिलाणा ने बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के पूरे जीवन को हरियाणवी लोक साहित्य की विधा रागनी में काव्य बद्ध किया। जिससे आमजन को भी बाबा साहब के विचारों से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ। महाशय जी का हरियाणवी लोक साहित्य के लिए भी ये अतुलनीय योगदान है। क्योंकि अभी तक इस प्रकार का किस्सा किसी भी हरियाणवी लोक रचनाकर ने नहीं रचा है। महाशय जी ने भोली दलित जनता के हृदय में स्वाभिमान, मौलिकता और आत्मविश्वास पैदा करने की कोशिश की है। अंत में कहा जा सकता है कि महाशय छज्जूलाल सिलाणा हरियाणवी लोक साहित्य में अम्बेडकरवाद के प्रवर्तक हैं।

संदर्भित पुस्तक :- महाशय छज्जूलाल सिलाणा ग्रन्थावली (2013), सं. डॉ. राजेन्द्र बड़गूजर, गौतम बुक सैंटर दिल्ली।