मुझे कहना नहीं आता
और शायद इसी वजह से
मैं हर बार पूछ लेने की ग़लती कर बैठती हूँ
मुझे नहीं पता कि समर्थन क्या होता है
पर मैं जानती हूँ
अपने पिता के साथ खेतों में
बहाये ख़ून और पसीने का समर्पण
मुझे नहीं पता कि विरोध करना
मेरा हक़ है या मेरी मजबूरी
पर मैं समझती हूँ
किसी दंगे में
एक माँ का अपना बेटा, बेटे का बाप
और किसी औरत का सुहाग का उजड़ना
मुझे गणित के उलझे फॉर्मूले
भले ही याद न रहते हों
पर पत्रकारों द्वारा
किसी मज़हब का रंग, किसी इंसान की उसकी जात
किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह
मैं कभी नहीं भूलती
आज जब सड़क सुनसान पड़े हैं
दुनिया त्राहिमाम कर रही है
मजदूर पलायन को मजबूर हैं
लोग अपने ही बनाये पिंजरे में कैद हैं
तो मैं समझ सकती हूँ
किसी लोकतंत्र में नागरिक बने रहने की मजबूरी है ।