चाहता हूं ऐसी कविता लिखना
जिसमें लहरें न हों,
उनका अथक दोहराव
बड़ा उबाऊ है
प्रेरक तो कतई नहीं,
चांद को भी कविता में
कैसे दूं स्थान
भाता नहीं उसका
घटता बढ़़ता आकार,
और फिर
सदियों से बना रक्खी है
हमसे दूरी
ओह इतना अहंकार,
पास आने की
बिल्कुल चाह नहीं,
कविता में क्यों जिक्र हो
फूलों का
उनकी सुगंध का
`भंवरों की गुंजन का
नदियों की कलकल का
हवाओं पर्वतों का
इन सबके जीवन में तो
अभाव है
मानवीय जीवन की
विकटता औ’ विविधता का,
समर्पण इनका स्वभाव है ,
चाहता हूं
कविता में जिक्र न हो
तारों का
सपनों और बहारों का
चाह इतनी सी है
कि कविता जीवन के पास हो
पर कविता इसके लिये
शायद अभी तैयार नहीं
और जिनसे इसका रिश्ता है
उनसे भूख का सरोकार नहीं !!
-ओम प्रकाश नौटियाल
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