समकालीन युग बोध के कवि कुँवर बेचैन

गीता पंडित

एक ऐसे समय में जब चारों तरफ गहन चुप्पी हो, सन्नाटा बोलता हो, सुनने सुनाने की व्याकुलता समाप्त हो गयी हो | दो कमरों के फ्लैट में सिमटे हुए लोग आस पडौस को भी भूल चुके हों | घर परिवार से भी केवल इमेल के द्वारा या फोन पर बात होती हो तब अगर कुँवर बेचैन की लेखनी यह कहती है कि

‘आप बस इतना ध्यान रखिएगा

अपने मुँह में ज़ुबान रखियेगा..!’

तब वह महत्वपूर्ण हो जाती है और बरबस अपनी ओर केवल ध्यान आकर्षित ही नहीं करती बल्कि गंभीरता से हमारे जहन में बैठकर इस समय को बांचने के लिए उकसाती भी है |

यह एक ऐसा समय है जिसकी बात करते हुए हाथ काँपने लगते हैं | ज़ुबान लडखडाने लगती है और देह समन्दर बन जाती है | आँखों में सूखा हुआ नमक आखें ज़ख्मी कर देता है जिनसे रक्त की बहती धारा किसी को दिखाई नहीं देती | अगर देती भी है तो अनदेखा करके हर व्यक्ति अपने आपमें तल्लीन हो जाता है | कानों में लगे ईयर फोन और आँखों पर चढ़े काले चश्मे समय की कालिख नहीं देख पाते |

मगर कवि सम्वेदनशील होता है | उसकी तीखी दृष्टि समय को बेधती हुई आर-पार निकल जाती है | वह न केवल समय को पढ़ता है अपितु भोगता है | उसके दर्द को अपनी नस नाड़ियों में महसूस करता है और दिन रात लहूलुहान होकर हर लम्हा मरता और जीता है |

और कुँवर बेचैन जैसा कवि खुद से कह उठता है –

ज़िन्दगी ही है हर सवाल का हल

मौत तो आखिरी सवाल का है

इस ज़िन्दगी के घूंट घूंट पीने के लिए वह हर पल जीना और जिलाना चाहता है | ज़िन्दगी से प्यार करना और कराना चाहता है |

देखिये –

जिस भी क़दम पे अमरित मिल जाय छक के पी लो

वरना तो हर सफ़र में विषपान दूर तक है

कवि की आँख पर दूरबीन लगी होती है जो दूर तक का भांप लेती है | वह इस समय की जांच पड़ताल के साथ साथ भविष्य का अनुमान भी सहजता से करता हुआ समाज के सामने शब्द चित्र खींच देता है |

सूर्य को तुम बुझा न पाओगे

ये दिया आसमाँ के थाल का है

१ जुलाई १९४२ को ग्राम उमरी ज़िला मुरादाबाद में जन्मे कुँवर बेचैन एम. काम., एम. ए., पीएच. डी. हैं जो पेशे से प्रोफ़ेसर हैं | वह ग़ज़ल और गीत लिखने वालों में ताज़े और सजग रचनाकारों में गिने जाते हैं। उन्होंने आधुनिक ग़ज़ल को समकालीनता का जामा पहनाते हुए आम आदमी के दैनिक जीवन से न केवल जोड़ा अपितु जन मानस की पीड़ा उसके सुख दुःख को विषय के रूप में चुना | यही कारण है कि मंच पर सराहे जाने वाले कवियों में कुँवर बेचैन का नाम नीरज के बाद बड़े गौरव से लिया जाता है |

कुंवर बेचैन ने समय को केवल परखा ही नहीं तराशा भी है | बेहतरीन गीतकार तो वह हैं ही बेहतरीन ग़ज़लकार के रूप में उन्होने पाठकों को हिन्दी ग़ज़ल के रूप में खूबसूरत सौगात भेंट की है | प्रेम मोहब्बत जहां अतीत के विषय होकर रह गए हैं वहीं कवि के ये शब्द नई ऊर्जा का कार्य करते हैं _

दिल में महब्बतों के फिर भी दिये जलेंगे

माना हर एक दिल में तूफ़ान दूर तक है

हर जिस्म एक लौ’ है बुझते हुए दिए की

इस बात का मुझे भी अनुमान दूर तक है |

ग़ज़ल जिसकी शुरुवात प्यार मोहब्बत से हुई थी, वह आज तक आते-आते जन सरोकारों से जुड़ गयी | जन की पीड़ा, उनकी चीखें, उनका आर्तनाद उसमें स्पष्ट सुना जा सकता है |

कुँवर जी की निम्न ग़ज़ल समय पर बेबाक टिप्पणी ही नहीं अपितु उसमें यथार्थ किस तरह मुखर होकर आया है | आप भी देखें –

मत पूछिए कि कैसे सफ़र काट रहे हैं

हर साँस एक सज़ा है मगर काट रहे हैं

आधी हमारी जीभ तो दाँतों ने काट ली

बाकी बची को मौन अधर काट रहे हैं

दो चार हादसों से ही अख़बार भर गए

हम अपनी उदासी की ख़बर काट रहे हैं

हर गाँव पूछता है मुसाफ़िर को रोक कर

हमने सुना है हमको नगर काट रहे हैं

इतनी ज़हर से दोस्ती गहरी हुई कि हम

ओझा के मंत्र का ही असर काट रहे हैं

कुछ इस तरह के हमको मिले हैं बहेलिये

जो हमको उड़ाते हैं न पर काट रहे हैं |

रात इतनी गहन हो गयी है की हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता लेकिन कवि हमेशा उजास की बात करता है | आशा की बात करता है | निराश होकर थककर बैठ जाना उसके स्वभाव में नहीं –

बीती नहीं है रात ज़रा और बात कर

होगा नया प्रभात ज़रा और बात कर

चर्खे पै बर्फ़ कात रहे हैं यहाँ के लोग

तू इंकलाब कात ज़रा और बात कर

आज समय प्रश्न बनकर सामने खड़ा है | पल की श्वासें अटकी हुई हैं जन मानस त्रिशंकु की तरह अधर में लटका हुआ महसूस करता है | ऐसे में लेखनी चुप कैसे रह सकती है | कुवर बेचैन बेचैन होकर कह उठते हैं –

द्वार पर कब आएगा दीपावली का जन्म दिन

हर कलैंडर से यही पूछा अंधेरे कक्ष ने

खून का कतरा कोई दिल में न बच पाएगा कल

इस कदर चोटें सही हैं इस सदी के वक्ष ने

साहित्य सदैव प्रतिपक्ष का कार्य करता है | सत्ता के विरोध में खड़ा हुआ सत्ता को आईना दिखाना उसका मकसद रहा है | जैसे –

वाह री अपनी सियासत, तेरी जय हो , तूने

जिंनको होना था गिरफ्तार छुपाकर रक्खे

यह भी –

बाग़ में आये थे हम क्या क्या बहारें देखकर

और अब हैरत में हैं खूनी कटारें देखकर

सिर्फ़ नफ़रत का धुआँ देंगे सियासत के चिराग़

आप इनकी लौ’ पे अब काजल को पारें देखकर

साहित्य में फैले मायाजाल पर सटीक –

जिन पे लफ़्ज़ों की नुमाइश के सिवा कुछ भी नहीं,

उनको फ़नकार बनाने पे तुली है दुनिया ।

दोस्ती पर –

क्या मुझे ज़ख़्म नए दे के अभी जी न भरा,

क्यों मुझे यार बनाने पे तुली है दुनिया ।

आज शैशव के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है उस पर तीखी टिप्पणी-

नन्हे बच्चों से ‘कुँअर ‘ छीन के भोला बचपन,

उनको हुशियार बनाने पे तुली है दुनिया ।

कुँवर बेचैन की ग़ज़ल के विषय में जितना कहा जाए उतना कम होगा | यह तो बानगी भर है | ऐसा शायद ही कोई विषय शेष हो जिस पर कुँवर बेचैन की लेखनी न चली हो | आज हिन्दी कविता में हिन्दी ग़ज़ल अच्छा-खासा मुक़ाम हासिल कर चुकी है | दुष्यंत से शुरू हुई आज सैकड़ों की लेखनी का हिस्सा बनकर मंचों पर शोभित हो रही है जिसकी आँखों से जनमानस की पीड़ा झलकती है | जिसके अधर उनके दुःख में काँपते हैं, जो कभी राज दरबार की शोभा हुआ करती थी आज आज जन-जन की आँख का आंसू बन गयी है |

गीत कविता –

आज गीत कविता को छायावादी कहकर कविता से बाहर करने की कोशिश लगातार की जा रही है और नई कविता को पूर्णत: अकविता बनाकर लघुकथा परोसी जा रही है उस पर यह तुर्रा कि कविता मर रही है | तब यह प्रश्न उठना लाज़िमी है कि

कविता किसे कहते हैं?

कविता सायास या अनायास ?

कौन से हैं वो कविता के मूलभूत तत्व जो रचना को कविता बनाते हैं ?

आज इन प्रश्नों के उत्तर जानना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है |

जहां तक कविता का प्रश्न है वह तो जीवन है | डरने की कोइ बात नहीं है | जब तक जीवन है कविता भी जीवित रहेगी |

जहां तक गेयता का प्रश्न है तो वह जीवन की लय है | लोक संगीत पर थिरकते पाँव अभी भी इस और इशारा करते हैं कि गीत जीवन का अभिन्न हिस्सा है और रहेगा | अमेरिका में बॉब डिलेन’ को नॉबल पुरस्कार का दिए जाना यह साबित करता है कि गीत साहित्य की अमिट और अभिन्न विधा है जो आज खूब फलफूल रही है |

इसलिए एक दृष्टि कुँवर बेचैन के गीत और नवगीत पर भी डाली जाए | किस तरह से समय उनके गीत और नवगीत में बोल रहा है यह निम्न गीत के अंश में देखा जा सकता है –

जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने

छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती

तबसे लिपे आँगनों से, दीवारों से

बंद नाक को सोंधी गंध नहीं आती

यह भी –

आँखों में सिर्फ़ बादल, सुनसान बिजलियाँ हैं,

अंगार है अधर पर सब साँस आँधियाँ हैं

रग-रग में तैरती-सी इस आग की नदी है।

यह बीसवीं सदी है।

हर सत्य का युद्धिष्ठिर, बैठा है मौन पहने

ये पार्थ, भीम सारे आए हैं, जुल्म सहने

आँसू हैं चीर जैसे हर आँख द्रौपदी है।

यह बीसवीं सदी है।

आज गीत नवगीत बनकर नई कविता की ही तरह आज के सरोकारों को न केवल व्यक्त कर रहा है अपितु यथार्थ से बराबर टकरा भी रहा है और कविता के आंतरिक सौन्दर्य को बखूबी दर्शाता भी है | इस नवगीत को पढकर स्वयं सोचिये –

गलियों में

चौराहों पर

घर-घर में मचे तुफ़ैल-सी।

बाल बिखेरे फिरती है

महँगाई किसी चुड़ैल सी।

सूखा पेटों के खेतों को

वर्षा नयनाकाश को

शीत- हडि्डयों की ठठरी को

जीवन दिया विनाश को

भूखी है हर साँस

जुती लेकिन कोल्हू के बैल-सी।

सुरसा-सा मुँह फाड़ रही है

बाजारों में कीमतें

बारूदी दीवारों पर

बैठी हैं जीवन की छतें

टूट रही है आज ज़िंदगी

इक टूटी खपरैल-सी।

आज जहां आम आदमी के लिए श्वास लेना भी दूभर हो गया है | ऐसे में –

जीवन’

उखड़ा-सा नाखून

समय की

चोट लगी उंगली का।

समय की क्रूरता, सत्ता का दोगलापन और जीवन की लाचारी पर जब लेखनी चलती है तो कवि स्वयं में समुद्र बन जाता है तब शब्दों में पीड़ा को इस प्रकार कह पाता है |

नन्हें-नन्हें हाथों में

लंबे-लंबे हथकंडे ।

चौड़े-चौड़े चौराहे सिमटे-सिमटे-से आँगन

खोटे सिक्कों में बिकते उजले-उजले वृंदावन

अपने अपने घाटों पर

हम सब काशी के पंडे ।

प्यासे-प्यासे होठों को देकर ह्विस्की की बोतल

ढाल प्राण के प्यालों में कलयुग का नव गंगाजल

इस दुनिया के होटल में

मौज उड़ाते मुस्टंडे।

चमचों को बादामगिरी ख़ाली पेटों की थाली

अब भी ख़ाली-ख़ाली है कल भी थी ख़ाली-ख़ाली

भ्रष्टाचारों के कर में

हैं सच्चाई के झंडे ।

समय की क्रूरता ने सम्वेदनाओं को निगल लिया है | रिश्ते नाते बेमानी होकर छीज रहे हैं और जीवन रेत की तरह हाथों से फिसलता जा रहा है |

माँ की साँस पिता की खाँसी

सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

छोड़ चेतना को जड़ता तक

आना जीवन का

पत्थर में परिवर्तित पानी मन के आँगन का-

यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।

सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

संबंधों को पढ़ती है

केवल व्यापारिकता

बंद कोठरी से बोली शुभचिंतक भाव-लता-

‘रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।’

सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।

ऐसे ही घर जो अब मकान में तब्दील हो गये हैं | जहां दीवारों पर टंगी है चुप्पी | खिड़कियाँ व्यथित और दरवाजे आँख बिछाए ड्योढ़ी पर बैठे रहते हैं | ऐसे में घर का होने में न होना खलता है | यही चिंता कुँवर जी से यह लिखवा देती है –

दरवाज़े तोड़-तोड़ कर

घुस न जाएँ आंधियाँ मकान में,

आँगन की अल्पना सँभालिए ।

समकालीनता, समसामयिकता क्या है आख़िर ? यह बड़ा भारी प्रश्न है जो मन को हमेशा से मथता रहा है | क्या केवल उस समय के यथार्थ को लिख देना भर समकालीनता है या उस समय के यथार्थ के साथ अतीत के मूल्यों को भी साथ में लेकर चलना समकालीनता है ?

दोनों तरह के लेखक आज हमारे सामने हैं | कुँवरजी उन कवियों में से हैं जो अपनी सांस्कृतिक विरासत को कभी नहीं भूलते और न ही पाठक को भूलने देते हैं | उनके साहित्य में इस समय का यथार्थ तो बोलता ही है साथ ही जीवन मूल्य जो अतीत की देन हैं, साथ-साथ चलते हैं परम्पराएं नया चोला पहनकर नृत्य करती हैं और रूढ़ियों पर कोड़े बरसाती हैं जो समाज के लिए मार्गदर्शन का कार्य करते हैं | जीवन को नई उचाईयों पर पहुँचाने में सहायक होते हैं |

सम्पादक ‘शलभ प्रकाशन’ (दिल्ली)

199 / गंगा लेन /से.5 / वैशाली

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