कोश विज्ञान की उपादेयता
अनुक्रम
शोध निर्देशकः- डॅा. गीता नायक
शोधार्थीः- श्रीमती अंजू श्रीवास्तव
भाषा विज्ञान किसी भी ज्ञान में सबसे अधिक भूमिका निभाता है । दरअसल शिक्षण, अध्यापन या ज्ञान प्राप्ति का माध्यम ही भाषा है। बिना भाषा के मानव समाज कभी वर्तमान स्वरूप तक नहीं पहुंच सकता था और नहीं वह अपने संचित अनुभव को परंपराओं तक संजो सकता था। इसीलिये किसी भी भाषा में रचा गया ज्ञान जानने के लिये भाषा का ज्ञान होना बहुत जरूरी होता है । और यह ज्ञान भाषा विज्ञान के माध्यम से ही समझा जा सकता है। जैसा कि स्पष्ट है कि भाषा का ज्ञान भी अपने आप में विज्ञान है अर्थात् उसको समझने के लिये विशेष तरीको पद्धतियों एवं नियमों का पालन करना होता है। इस अध्ययन के अंतर्गत भाषा नामक इकाई की परिभाषा पहचान ] उसके अस्तित्व में आने और विस्तार के तथा उसके घटक तत्वों के बारे में अध्ययन किया जाता है।
भाषा यद्यपि ध्वनि के रूप में नैसर्गिक रूप से विद्यमान रही किंतु उसे अभिव्यक्ति का नियमित माध्यम बनाने के लिये ध्वनि विशेष को संचित करके वर्ण और फिर सभी को संज्ञा देने के लिये शब्दों का निर्माण किया गया है। अतः भाषा के संपूर्ण विस्तार में शब्दों का अत्याधिक महत्व है और किसी भाषा में सेंकडों वर्षो के प्रयोग के बाद जितने भी शब्दों का निर्माण किया गया हैं उसे जानने के लिये शब्दकोश का निर्माण बहुत जरूरी है। अन्यथा कम उपयोग या उपयोग न होने के कारण शब्द भाषा से गायब हो सकता है जो कि भाषा के लिये अमूल्य संपत्ति होता है।
इसी कोश निर्माण और उसके अध्ययन को कोश विज्ञान के रूप में जाना जाता है। कोश विज्ञान सिर्फ शब्दों का बेतरतीब भंडार या संग्रह नहीं है बल्कि उसे व्यवस्थित बनाकर ही संपूर्ण भाषा को जाना जा सकता है। अतः कोश निर्माण भी अपने आप में अत्यंत श्रमसाध्य प्रक्रिया है अंग्रेजी में केाश विज्ञान को (lexicology) कहा जाता है । कुछ विद्धान इसे (lexicography) भी कहते है। जिसका हिन्दी पर्याय कोश कला है । वास्तव में ये दोनो एक दूसरे के पूरक हैं। एक सैद्धतिक रूप है दूसरा व्यवहारिक या प्रायोगिक रूप है।
कोश विज्ञान तो कोश बनाने का विज्ञान है। इस में उन सिद्धांतों का विवेचन करते है जिनके आधार पर कोश बनते है दूसरी ओर कोश कला उसके प्रयोग को अधिक सुंदरता से प्रयोग करने का तरीका हैं। भाषा विज्ञान के सभी विद्वानां ने दोनो को एक दूसरे का पूरक माना है।
कोश विज्ञान की उत्पत्तिः-
भाषा के जन्म और उसके ज्ञान के विभिन्न घटकों के ज्ञान की भी उत्पत्ति भारत में हुई । वैदिक साहित्य में शब्द कोश या कोश विज्ञान के लिये निघण्टु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इतिहासकारों ने उसे 1000 ई- पू- का माना है यद्यपि वेदिक काल की कल्पना को इतिहास के काल खंड में नहीं बांटा जा सकता है क्योंकि यह वस्तुतः साहित्य में वार्णित सभ्यता के आधार पर माना गया है। तथापि 1000 ई-पू- से 1000 ई- के दो हजार वर्षो में भारत में अनके कोशों का निर्माण किया गया जिनमें से कई आज भी उपलब्ध हैं। यूरोप में कोश विज्ञान का आरभ सन 1000 ई- के बाद हुआ परंतु अंग्रेजी भाषा के उल्लेखनीय कोश सोलहवी सदी में ही निर्मित हुऐ जो आज भी काफी प्रचलित है। इन कोशो के अंतर्गत उस भाषा में अब तक प्रयुक्त हुऐ लगभग सभी शब्दों का संग्रह किया गया है किन्तु फिर भी उन्हें अंग्रिम या पूर्ण संग्रह नहीं कहा जा सकता है। इतना अवश्य है कि कोश के ज्ञान के बाद भाषा का लगभग संपूर्ण स्वरूप जाना जा सकता है। किसी भी भाषा को अगर सीखना या समझना है तो उसके तीन घटकों को सीखना पड़ता है। तभी हम उसके विद्वान बन सकते हैं ।
1 व्याकरणः- इसके अंतर्गत उस भाषा के कर्ता ] कर्म] क्रिया और कारकों को लिखने] बोलने का उचित अनुक्रम और विभिन्न कालों और वाक्यों में उसके भीतर परिवर्तन की सीखा जाता है।
2 शब्द कोशः- व्याकरण से भली भांति परिचित होकर शब्द कोश का ज्ञान किया जाता है। यह एक अत्यंत कठिन प्रक्रिया है। शब्द का ज्ञान ] शब्दों के अर्थ] वर्तनी का प्रयोग आदि इस में सीखे जाते हैं।
3- शब्दों के विभिन्न प्रयोग या प्रयोग कलाः- इसके माध्यम से हम भाषा के विभिन्न प्रयोग] प्रभावी प्रयोग और विभिन्न भावों को दर्शाने के लिये जो विभिन्न तरीके जैसे पर्यायवाची] मुहावरे ] गूढ प्रयोग या रहस्यपरक चमत्कारी प्रयोग आदि आते है। इन तीनों प्रकारों को हम प्रतिभा] व्युत्पत्ति और अभ्यास में भी रख सकते है। प्रतिभा अर्थात भाषा संरचना का ज्ञान] व्युत्पत्ति अर्थात शब्द कोश का ज्ञान एवं अभ्यास अर्थात भाषा के विभिन्न प्रयोग के अंतर्गत रख सकते हैं।
कोश निर्माण विधिः-
कोश निर्माण के लिये डॅा. भोलानाथ तिवारी और डॅा. द्वारिका प्रसाद सक्सैना दोनों ने 10 बातों को महत्वपूर्ण माना है।
1- शब्द संग्रह- शब्द संग्रह का आशय भाषा के शब्दों को एकत्रित करके प्रस्तुत करना है। कोशकार का प्रयत्न यह रहता है कि सभी शब्दों का वह संग्रह कर सके किन्तु यह पूर्णतः संभव नहीं है। प्रत्येक भाषा में कई विषयों के शब्द होते हैं जिन्हें एकत्र करने के लिये कोशकार को उस भाषा के विभिन्न विषयों के विद्वानों से भी सहायता लेना हेाता है । शब्द संग्रह काफी श्रम साध्य प्रक्रिया है और इसके लिये काफी शोध और मूल्यांकन की आवश्यकता रहती है। एक ही तरीके से उच्चारित होने वाले शब्द विभिन्न भाषाओं में हो सकते हैं ऐसे में उन्हें अलग करना और सभी अर्थों को बताना भी आवश्यक है कुल मिलाकर कोश निर्माण के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण शब्द संग्रह ही है।
2- वर्तनीः- कोश निर्माण में वर्तनी अर्थात् शब्द को किस प्रकार लिखने से प्रचलित अर्थ प्रकट होता है। वर्तनी में जितनी स्पष्टता होगी] भाषा उतनी ही उपयोगी होगी। देवनागरी लिपि में हर ध्वनि के लिये लिपिचिन्ह की पूर्णता है परंतु अंगे्जी में वर्तनी की समस्या काफी है जिसमें उच्चारण भिन्न हैं किन्तु वर्तनी भिन्न हो जाती है । शब्द कोश में वर्तनी का जो रूप शुद्ध माना है उसका कारण भी बताना चाहिये ताकि उसका शुद्ध रूप ही प्रयुक्त हो। चूंकि कोश प्रमाणित ग्रंथ है। अतः वर्तनी पर विशेष ध्यान होना चाहिये ताकि शब्दों में स्पष्टता बनी रहे।
3- शब्द निर्णय: शब्द निर्णय भी एक आवश्यक प्रक्रिया है । कई बार एक ही तरीके से उच्चरित होने वाले शब्द या सूक्ष्म अंतर रखने वाले शब्द या एक ही भाषा में या भिन्न भाषाओं में प्रयुक्त शब्द होते हैं। ऐसे में किस शब्द को प्राथमिक रखा जाये यह भी आवश्यक है । प्रायः उसी भाषा के शब्द को प्रथम रखा जाता है। यदि एक ही भाषा का शब्द हो तो प्रचलित अर्थ वाले शब्द को ही रखा जाता है।
4- व्युत्पत्ति : – शब्द कोश मे प्रमाणिकता रखने के लिये शब्द की मूल उत्पत्ति] उसका रूप तत्सम] तदभव] देशज या विदेशी को भी बताना चाहिये । हिन्दी की उत्पत्ति संस्कृत से है संस्कृत शब्द धातुओं से बनते हैं जिनमें उपसर्ग प्रत्यय द्वारा कई शब्द बन जाते है । शब्द का प्रयोग करने के लिये व्युत्पत्ति का ज्ञान आवश्यक है।
5- व्याकरण : शब्द कोश में एक ही शब्द शब्दकोश में एक ही शब्द संज्ञा] सर्वनाम] विशेषण आदि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। कोश में शब्द की प्रकृति के आधार पर स्पष्ट करना होता है कि यह एक सर्वनाम] क्रिया आदि किस में आता है और उसका भिन्न प्रयोग किन परिस्थितियों में होता है, यह भी बताना चाहिये; साथ ही व्याकरण तत्व के लिये भिन्न रूपों का भी वर्णन होना चाहिये ।
6- उच्चारण : कोश में उच्चारण भी स्पष्ट किया जाना चाहिये ताकि उसका व्यवहार उचित रूप में हो । अंग्रेजी में भिन्न अक्षर के भिन्न उच्चारण किये जाते हैं कभी ध्वनि शांत भी रहती है हिन्दी में भी अ ऐ औ ऋ श ज्ञ श्र आदि के संबंध में उच्चारण स्पष्ट किया जाना चाहिये । मिलती जुलती बनावट वाले वर्णों में भी स्पष्टता के लिये उच्चारण करना आवश्यक हैं ।
7- अर्थः- शब्दकोश में शब्द का संचय भिन्न अर्थ को दर्शाने के लिये ही होता है। डॅा. भोलानाथ तिवारी ने वर्णनात्मक कोश में दो प्रकार के अर्थ माने हैं। पर्यायवाची और ऐतिहासिक l डॅा. द्वारिका प्रसाद सक्सैना ने ऐतिहासिक आधार पर शब्द के परिवर्तित रूप के भिन्न अर्थ के आधार पर भी कोश में उसे बताना आवश्यक माना है। प्रत्येक शब्द का अर्थ शब्दकोश में बताना अत्यंत आवश्यक है।
8- प्रयोग : – जहा शब्द के अर्थ में प्रयोग के आधार पर अस्पष्टता हो वहा उस शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुऐ वाक्यों में प्रयोग करके उस शब्द का प्रयोग स्पष्ट करना चाहिये । जहां आवश्यक हो संदर्भों का प्रयोग भी करना चाहिये साथ ही प्रयोग में कालक्रम का संयोजन भी रखना चाहिये ।
9- चित्र : कई शब्दो के लिये उदाहरण देना भी कठिन होता है ऐसे में चित्र के रूप में पहचान करने के लिये चित्र का प्रयोग किया जाना चाहिये । अच्छे शब्दकोश में आवश्यकता रूप से चित्र होना चाहिये ।
10- शब्द क्रमः- शब्दकोश में शब्दों की संख्या काफी अधिक होती है। अतः आवश्यक होने पर उस शब्द को खोजने के लिये शब्दों का संयोजन पद्धति अनुसार होना चाहिये । ताकि शब्द को खोजने वाला अध्येता उसे आसानी से खोज सके ।
डॅा. भीलानाथ तिवारी और द्वारिका प्रसाद सक्सैना ने पाच प्रकार के शब्द क्रम माने है।
1- वर्णानुक्रमः- जिस भाषा में कोश का निर्माण किया जाना है उस भाषा में वर्णमाला के अनुसार ही शब्दों का संचयन किया जाता है । इसमें न सिर्फ प्रथम अक्षर को क्रम से रखा जाता है अपितु शब्द में प्रथम वर्ण के बाद आने वाले शब्दों को भी वर्णमाला के अनुसार रखा जाता है हिंदी में मात्राओं की व्यवस्था है अतः मात्रा के अनुसार भी शब्दों को वर्णक्रम से रखा जाता है। इससे स्वर के साथ ही व्यंजनों को भी सुगमता से खोजा जा सकता है । यह पद्धति काफी सुविधा जनक है और सामान्यतः भाषा के वृहत् कोश में इसी प्रयोग होता है।
2- अक्षर संख्या : इस पद्धति में शब्द में आने वाले वर्ण की संख्या के आधार पर रखा जाता है प्राचीन भारत में इस प्रकार के कोश मिलते हैं। अक्षर संख्या वाली पद्धति में वर्णानुक्रम का प्रयोग किया जाता है। यह पद्धति काफी जटिल है और तकनीकी पद्धति में समस्या भी आती है।
3- विषयक्रमः- कुछ कोशों में विषय के अनुसार शब्दों को रखा जाता है। संस्कृत का अमर कोश इसी श्रेणी का है। इस पद्धति में शब्दों की पुनरावृत्ति हो सकती है क्योंकि कई शब्द विभिन्न विषयों में आ सकते हैं। इस प्रकार के कोश विषय विशेष के लिये उपयुक्त हैं। बृहद्कोश में यह पद्धति त्रुटिपूर्ण है।
4- सुरक्रम : जो भाषाये सुर प्रधान होती है उनके कोशों की रचना इसी प्रकार होती है । इस प्रकार के कोश में एक ही शब्द जो कई प्रकार से बोला जाता है क्रम अनुसार रख दिया जाता है।
5- व्युत्पत्ति के आधार पर-: इस कोश में व्युत्पत्ति के अनुसार शब्दों का क्रम रखा जाता है । अरवी भाषा के कोशों ये यह पद्धति है।
कोश के भेद :
डॅा. द्वारिका प्रसाद सक्सैना ने कोश के चार भेद माने है।
1- व्यक्ति कोश: व्यक्ति कोश में किसी व्यक्ति विशेष के संपूर्ण साहित्य या पुस्तकों में प्रयुक्त शब्दों को रखा जाता है प्रत्येक शब्द का पुस्तक] स्थान] पृष्ठ पर उल्लेख और प्रयुक्त अर्थ रखा जाता है इससे व्यक्ति विशेष के साहित्य और व्यक्तित्व दोनों का ही ज्ञान होता है ।
2- पुस्तक कोशः- इस कोश में किसी पुस्तक में प्रयुक्त सभी शब्दों का संदर्भानुसार उल्लेख किया जाता है।
3- विषयकोशः- इस कोश में किसी विषय के अध्ययन में प्रयुक्त होने वाले सभी शब्दों को संकलित किया जाता है। प्रायः इनमें पारिभाषिक शब्दों का विस्तृत कोश होता है और विषय के अध्ययन में यह काफी महत्वपूर्ण होता है।
4- भाषा कोश: भाषा कोश में संपूर्ण भाषा कोश का संकलन किया जाता है। यह एक भाषा] दो भाषा या अनेक भाषाओं का हो सकता है । प्रायः दूसरी भाषा सीखने सिखाने के लिये द्विभाषा या बहुभाषा कोश ही बनाये जाते है इससे दोनो भाषा का विस्तृत ज्ञान गहन रूप से किया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त सुविधा के लिये विभिन्न प्रकार के कोश भी निर्मित होते हैं या किये जा सकते हैं यथा शब्द परिवार कोश] पर्यायवाची कोश] लोकोक्ति मुहावरा कोश] प्रयोगकोश] लोक भाषा कोश ]पारिभाषिक कोश ] विश्व कोश आदि ।
डॅा. भोलानाथ तिवारी ने भी व्यक्ति कोश, पुस्तक कोश, भाषा कोश, के अतिरिक्त वर्णनात्मक कोश, ऐतिहासिक कोश, तुलनात्मक कोश को भी स्थान दिया है ।
उक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि शब्द कोश का अध्ययन और निर्माण एक कठिन और तकनीकी कार्य है जो काफी श्रमसाध्य एवं महत्वपूर्ण है।
भाषा वि़ज्ञान का महत्व
भाषा विज्ञान के क्षेत्र में हम पूरी तरह शब्द कोश पर ही निर्भर हैं। बिना उसके भाषा का प्रयोग असंभव है। भाषा विज्ञान के अध्ययन के तहत कोश विज्ञान का भी अध्ययन किया जाता है बल्कि देखा जाये तो शब्दकोश का ज्ञान भाषाविज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है।
- किसी भाषा का निर्माण] संरचना] परिवर्तन और उसके महत्व आदि का अध्ययन भाषाविज्ञान में किया जाता है किन्तु उस भाषा के विस्तार ] संपूर्ण रचनात्मक प्रयोग का ज्ञान कोश के माध्यम से ही किया जाता है । वस्तुतः आदर्श कोश में भाषाविज्ञान के सभी तत्वों के आधार पर ही उसका निर्माण किया जाता है अर्थात देखा जाये तो कोश के अंतर्गत भाषा विज्ञान के सभी का अध्ययन किया जा सकता है ।
- साहित्य में तो सदा ही नवीन शब्द या पर्याय शब्दों का प्रयोग किया जाता है। आवश्यकता के अनुसार शब्द की व्यवस्था तुकान्तता भाव विशेष की अभिव्यक्ति और व्यक्त करने की शैली आदि विभिन्न कारकों के लिये विभिन्न शब्दों की आवश्यकता होती है जो भले ही एक अर्थ प्रस्तुत करते हैं। ऐसे में समृद्ध भाषा में शब्दों का असीम संसार होना आवश्यक है।
- कोश विज्ञान का भाषा के साथ साथ संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में भी अपरिहार्य योगदान है। कोश के माध्यम से कोई भी व्यक्ति अपने अभिव्यक्ति के संसार को विस्तार प्रदान कर सकता है। शिक्षा व्यवस्था] ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों को प्राप्त करना बहुविध कलाओं, शिक्षाओं ओैर विषयों के ज्ञान के लिये उसके शब्दों को जानना आवश्यक है । विभिन्न भाषायें] विभिन्न अनुभव] ज्ञान के साथ ही अपनी पृथक विशेषता भी रखती है ऐसे में भाषाओं की सीमा से परे जाने के लिये विभिन्न भाषाओं को जानना भी जरूरी होता है । विभिन्न प्रकार का ज्ञान संपूर्ण रूप से लेने के लिये सही व स्पष्ट शब्दों का ज्ञान जरूरी है।
- प्रायः शब्द का गलत प्रयोग या उच्चारण] अर्थ को पूरी तरह बदल देता है। अतः शब्द के उच्चारण के संबंध में ज्ञान होना अनिवार्य है।
- कई बार व्यक्ति को अपनी सुविधा अनुसार शब्दों का निर्माण करना होता है। ऐसे में शब्दों का ज्ञान आवश्यक हो जाता है।
- कई बार ऐसी संज्ञाओं] वस्तु का ज्ञान करने के लिये जो देखी नहीं गई हो किन्तु उसका प्रयोग करना हो या सुना हो तब चित्र के माध्यम से अपने ज्ञान को स्पष्ट किया जा सकता है।
- किसी भाषा में कई शब्द सुगम होते हैं या अभिव्यक्ति के लिये उपयुक्त होते हैं किंतु प्रयोग न होने के कारण अप्रचलित हो जाते हैं। साथ ही एक ही अर्थ को दर्शाने वाले विभिन्न शब्दों का ज्ञान रखने और कथन विशेष को दर्शाने के लिये विशेषोक्ति के लिये पर्यायवाची और मुहावरा कहावतों का प्रयोग अत्यंत आवश्यक हो जाता है।
उपर्युक्त सभी परिस्थितियों में शब्दकोश की अत्यंत आश्यकता होती है और बिना किसी बृहद् कोश के हम अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकते अतः शब्दकोश की ज्ञान प्राप्ति ]व्यक्त्वि निर्माण और सभी क्षेत्रों में सफल होने के लिये या सामान्य से हट कर विशेष स्थान पाने के लिये महती आवश्यकता होती है ।
अंततः विस्तृत विवेचन से समझा जा सकता है कि कोश विज्ञान न सिर्फ भाषा विज्ञान में अपितु ज्ञान के समस्त क्षेत्रों में महत्वपूर्ण स्थान और उपादेयता है।
लेखिका
शोध निर्देशकः- डॅा. गीता नायक। शोधार्थीः- श्रीमती अंजू श्रीवास्तव
हिन्दी अध्ययनशाला विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन म-प्र-
C/O LIG/53 शिवानगर शिवपुरी म-प्र- 473551 7566605253