पुस्तक समीक्षा

प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय रचित ‘जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम’ की विश्वमानवता की भूमिका रचती सूक्तियाँ

-डॉ. सुशीलकुमार पाण्डेय ‘साहित्येन्दु’

ग्रन्थ-जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम

ग्रन्थकार-प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय

प्रकाशक-राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।

संस्करण-प्रथम, 2022

मूल्य– रु0 1495/-

पृष्ठ-463 (सजिल्द)

सूक्ति का आशय है अच्छी उक्ति, बढ़िया बात। अच्छी उक्ति प्रसन्नता प्रदायक होती है, बढ़िया बात दिल में घर कर जाती है। सूक्तियाँ ‘रस’ का स्रोत तथा ‘आनन्द’ की स्रोतस्विनी होती हैं। किसी ग्रन्थ की उत्तमता और लोकप्रियता में उसकी सूक्तियों का विशेष योगदान होता है। कालिदास तुलसीदास और जयशंकर प्रसाद की सूक्तियों ने ही उन्हें जन-जन का कण्ठहार बना दिया है। मुम्बई विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो0 करुणाशंकर उपाध्याय ने एकतीस वर्षों तक निरन्तर प्रसाद साहित्य सागर का तपोनिष्ठ आलोडन विलोडन कर ‘‘जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम’’ नामक 463 पृष्ठों का ग्रन्थ रचा है, जिसकी सूक्तिसुधा में ज्ञान का उन्मेष, प्रज्ञा का प्रकाश तथा मेधा का माहात्म्य समाहित है। इन सूक्तियों के पारायण से चिन्तन के नवीन गवाक्ष और मनन के नूतन परिसर परिलक्षित होते हैं। भारतीय साहित्य में सूक्तियों की महत्ता प्राचीनकाल से ही रही है। योगवाशिष्ठ का कथन है कि-‘महान व्यक्तियों की सूक्तियां अपूर्व आनन्द को देने वाली, उत्कृष्टतर पद पर पहुँचाने वाली और मोह को पूर्णतया दूर करने वाली होती हैं।1’’

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            प्रो0 उपाध्याय के पास शब्दसम्पदा तथा अर्थगौरव का अमेय भण्डार है। वे बहुश्रुत तथा बहुपठित हैं। उनका स्वाध्याय संसार विपुल है। वे लिखते हैं कि- ‘यदि जयशंकर प्रसाद का संवेदनात्मक व्यक्तित्व कालिदास, भारवि और भवभूति का समन्वित रूप है तो उनका बौद्धिक व्यक्तित्व बृहस्पति की मेधा, शुक्राचार्य की कुशाग्रता, बुद्ध की करुणा, चाणक्य की तेजस्विता, शंकराचार्य की तर्कशक्ति एवं दार्शनिकता का संश्लेषण है’ (पृ0-99)। इस वाक्य में भारतीय सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा ऐतिहासिक जगत् का लेखा-जोखा है। इस कथन में वर्णित विषय अपूर्व आनन्ददायक, ज्ञानपिपासा को तीव्र करने वाला तथा व्यर्थ के सांसारिक प्रपंचों के मोह से मुक्ति दिलाने वाला है। सूक्तियों का रस पान करने के लिए सहृदयता की आवश्यकता होती है। विष्णु के समान हृदय को कोमल एवं विशाल बनाना पड़ता है। बाणभट्ट ने कहा है कि-‘‘जैसे अमृत भी राहु के कंठ से नीचे नहीं उतर पाता, वैसे ही निर्मल मनोहर सूक्तियाँ भी दुष्टों के गले नहीं उतर पाती, किन्तु हृदय पर निर्मल कौस्तुभमणि धारण करने वाले भगवान विष्णु के समान सज्जन उन्हें ही अपने हृदय में धारण कर लेते हैं।2

            प्रो0 उपाध्याय ने प्रसादसाहित्यसागर में डूब उतरा कर उसके सूक्तिरत्नों का अन्वेषण किया है। प्रसाद का साहित्य तो स्वयं में सूक्तियों का  अनन्त आकाश है पर प्रो0 उपाध्याय की लेखनी जब प्रसाद साहित्य की समीक्षा करती है तो वह स्वयं सूक्तिपरक हो जाती है। यह सूक्ति प्रसादसाहित्य के लिए उपयोगी परन्तु ग्रन्थ की महत्ता संवर्धन में परम उपयोगी हैं। कुछ सूक्तियाँ तो सीधे हृदय में उतर जाती है जैसे- ‘प्रतिभाएँ विरल होती हैं। और प्रतिभा को सराहना सबसे कठिन कार्य है’ (पृ0-1)। प्रतिभा को पहचानने वाला भी विरल होता है। मणि विरल होता है पर पारखी जौहरी भी अति विरल होते हैं। प्रसाद की बहुज्ञता पर प्रो0 उपाध्याय लिखते हैं कि ‘इनका (प्रसाद का) सृजन और चिन्तन, दोनों ही बृहदफलकीय और गहनस्तरीय है’ (पृ0-19)। यहाँ सृजन और चिन्तन शब्द अपने साधारण अर्थों से आगे के अर्थ, अर्थात उनकी विलक्षणता के द्योतक हैं। प्रो0 उपाध्याय की मान्यता है कि ‘स्वप्न देखना बड़े मनुष्य और व्यक्तित्व का लक्षण है’। (पृ0-21) ‘जयशंकर प्रसाद भारतीय मनीषा के रससिद्ध मनीषी हैं’। (पृ0-22)

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            स्वप्न को यथार्थ में बदलने वाला ही ‘पुरुष’ है। मनीषा से युक्त को मनीषी कहते हैं। प्रो0 उपाध्याय ने मनीषा और मनीषी के माध्यम से ज्ञान और ऋषि तत्व में नूतन गरिमा का संचार किया है। सूक्तियों से रचना का स्थायीत्व संवर्धित होता है। सूक्तियाँ पाठक पर जादू का असर डालती हैं, सम्मोहित कर लेती है। नीलकंठ दीक्षित ने लिखा है कि- ‘जिस प्रकार बालू में पड़ा हुआ पानी वहीं सूख जाता है, उसी प्रकार संगीत भी केवल कान तक पहुँच कर सूख जाता है। परन्तु कवि की सूक्ति में ही ऐसी शक्ति है कि वह सुगन्धयुक्त अमृत के समान हृदय के अन्तस्तल तक पहुँच कर मन को सदैव आनन्दित करती रहती है।’3

            प्रो0 उपाध्याय ने प्रसाद साहित्य का मनोयोग पूर्वक पारायण, भक्तिपूर्वक पाठ, विवेकपूर्वक नीरक्षीर विवेचन तथा गहन समीक्षण किया है। यही कारण है कि उनकी सूक्तियाँ सीधे पाठक के हृदय में उतर जाती हैं। वे लिखते हैं कि ‘प्रसाद का व्यक्तित्व निरन्तर विकासमान-सुसंगठित और गत्यात्मक है’ (पृ0 103)। ‘प्रसाद जी अन्तर्दृष्टि और विश्व संदृष्टि सम्पन्न कवि हैं जिनका काव्य-विकास समूचे आधुनिक हिन्दी काव्य की विकास-यात्रा का सार-संक्षेप जैसा है’ (पृ0 113)। प्रसाद की संवेदना इतनी तीव्र थी कि वह स्वयं उनके लिए एक समस्या हो उठती थी’ (पृ0-119)।

            इन वाक्यों में आचार्य का चिन्तन है, जिज्ञासु की जिज्ञासा का समाधान है। ‘गत्यात्मक’, ‘अन्तर्दृष्टि’ तथा ‘संवेदना’ ऐसे शब्द हैं जो सरस्वती की वीणाध्वनि की ओर संकेत करते हैं। नपे-तुले शब्दों में अथाह भावभरित सूक्तियों की रचना करना प्रो0 उपाध्याय की मेधा की पहचान है। सूक्तियाँ एक ओर ज्ञान गरिमा गागर हैं तो दूसरी ओर आनन्द का अगाध सागर भी। चाणक्य का कथन है कि – संसार रूपी कटु वृक्ष के यह दो फल अमृत के समान हैं-एक तो सुभाषित का रसास्वादन और दूसरा सज्जनों का समागम।4 आचार्य उपाध्याय ने जब इस ग्रन्थ को लिखने को सोचा होगा तब उन्हें प्रसाद साहित्य परिसर के अगाध विस्तार का अनुमान हुआ ही होगा पर प्रशंसनीय है उनका धैर्य जो उन्हें निरन्तर बल संबल देता रहा और पथ विचलन से बचाता रहा। जब लेखक समर्पित भाव से ‘तदाकाराकारित’ होकर लिखता है तब उसकी लेखनी कालजयी बन जाती है। इतिहास की समीक्षा और वर्तमान की परीक्षा कर स्वर्णिम भविष्य की पृष्ठभूमि रचती है।

प्रो0 उपाध्याय लिखते हैं कि- ‘प्रसाद की विश्वदृष्टि अपने वैश्विक परिदृश्य के प्रति अतिशय सचेष्ट थी’ (पृ0-26)। ‘प्रसाद का सम्पूर्ण साहित्य गहन सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार और अंग्रेजी सत्ता के प्रति दाहक विद्रोह का समुच्चय है’ (पृ0-31)। जयशंकर प्रसाद का संपूर्ण साहित्य-भारतीयता के संधान और निर्माणक तत्त्वों से परिपूर्ण है (पृ0-39)। विश्व दृष्टि वैश्विक परिदृश्य’ ‘दाहक विद्रोह’ आदि शब्द सूक्तियों को प्राणवंत कर देते हैं। ये वाक्य प्रसाद के साहित्यप्रसाद के आधार स्तम्भ है।

सूक्तियों की रसवत्ता से लोकमन सिचिंत हो जाता है। एक परम्परागत कथन है कि- ‘सुभाषित के रस के आगे द्राक्षा म्लानमुखी हो गई, शर्करा सूख कर पत्थर जैसी या किरकिरी हो गई और सुधा भयभीत होकर स्वर्ग को चली गयी’।5 भले ही उक्त कथन में किसी को अतिरंजना लगे परन्तु उसमें यथार्थता का पूर्ण समावेश है। सूक्तियों से जो परमानन्द की अनुभूति होती हैं, वह अवर्णनीय है। इसी परिप्रेक्ष्य में काव्य के उद्देश्य के प्रकरण में आचार्य मम्मट ने ‘‘सद्यः परनिर्वृत्तये’’ शब्द का प्रयोग किया है। काव्य तत्काल आनन्द देने वाला होता है। अंगूर और शर्करा की मधुरता तात्कालिक होती है। सुधा कब मिले, न मिले कौन जानता है ? सुधा प्राप्ति के लिए सागर मंथन करना पड़ेगा पर सूक्ति तो तत्काल आनंद देती है। प्रो0 उपाध्याय के शब्दों में ‘इनके (प्रसाद के) काव्य के सभी रूपों में उसके अन्तरंग और बहिरंग का जो सर्वांगपूर्ण ऐश्वर्य प्रस्तुत हुआ है वह हिन्दी साहित्य की अनमोल निधि है’ (पृ0-43)। ‘प्रसाद का संपूर्ण लेखन विश्वस्तरीय एवं सार्वभौम शाश्वत महत्त्व का है’ (पृ0-44)। ‘प्रसाद जी राष्ट्र प्रेम, मानवीय प्रेम, नारी सौन्दर्य और पलपल परिवर्तित प्रकृति वेश के अप्रतिम चित्रकार हैं’ (पृ0-48)।

            प्रो0 उपाध्याय ने ‘अनमोल निधि’ कह कर प्रसाद साहित्य की जो गुरुता स्थापित कर दी वह बस अनुभव के योग्य है। ‘विश्वस्तरीय’ तथा ‘अप्रतिम चित्रकार’ शब्द तो सूक्ति सागर के मोती हैं। प्रो0 उपाध्याय जब समालोचना लिखते हैं तब अनुकूल शब्द स्वयमेव उपस्थित जाते हैं, यही भावयित्री प्रतिभा का चरमोत्कर्ष है। अमेय शब्दसम्पदा लेखक को तपोनिष्ठ सतत सारस्वत श्रम से मिलती है। लोकोक्ति है कि ‘‘इहे मुँह पान खिलावे और इहे पनही’’ अर्थात यदि वाणी में मधुरता है, सूक्ति है तो पान (सम्मान) मिलेगा और यदि नहीं तो पनही (जूता-अपमान) मिलेगा। सूक्तियों के आनंद को रेखांकित करते हुए लोककथन है कि‘ मधुर सूक्तियाँ प्रिया के अधर-सुधा-रस के समान आस्वाद में मधुर होती हैं। आम्रमंजरी का आस्वाद लिये बिना कोयल मधुर ध्वनि में नहीं गाती।6

प्रसादसाहित्य आम्रमंजरी है और प्रो0 उपाध्याय की लेखनी कोकिल की मधुर ध्वनि। यहाँ कुमारसंभव का एक श्लोक उद्धरणीय है ‘आम की मंजरियाँ खा लेने से जिस कोकिल का कंठ स्वर मीठा हो गया था, जब वह मीठे स्वर में कूकता था तो उसे सुनकर रूठी हुई स्त्रियों को रूठना भूल जाता था।’ कामायनी के स्वप्न स्वर्ग में ‘कोकिल की काकली’ का प्रयोग किया गया है। प्रो0 उपाध्याय की सूक्तियों में अधर-सुधा-रस इस तरह व्याप्त है कि वे पाठकों के अधरों पर मानों छायी रहती है। कुछ उदाहरण है- ‘मानव के भौतिक विकास के साथ साथ उसके हृदय का विकास नहीं हो सका’ (पृ0-189)। ‘कामायनी में आह्लादक लीला भाव समारोह पूर्वक उपस्थित है’ (पृ0-206)। कामायनी भावनात्मक गहराई और संवेदनात्मक औदात्य की दृष्टि से महाकाव्य माना जा सकता है। ‘आह्लादक लीला’ में कोकिल की काकली का रस है, अधरसुधारस की ध्वनि है, सौन्दर्य की मीमांसा और आकर्षण का मनोविज्ञान है।

किसी के पास शब्द है तो भाव नहीं। किसी के पास भाव है पर उसे व्यक्त करने को उपयुक्त शब्द नहीं है। जिनके पास शब्द और अर्थ का भण्डार हो, विवेक तथा हृदय का उचित समन्वय हो उन्हीं की उक्तियाँ सूक्तियाँ बनती हैं कहा जाता है कि ‘किन्हीं लोगों की वाणी में सूक्तियाँ तोते की तरह रटी हुई होती हैं और किन्हीं का हृदय सूक्तिमय होता है किन्तु उनकी वाणी प्रस्फुटित नहीं होती। ऐसे कोई विरले ही होते हैं जिनके हृदय से वाणी तक सरस सूक्तियों की परम्परा प्रवाहित होती है’।7

जिस प्रकार प्रसाद जी ने गम्भीर स्वाध्याय किया था कुछ उसी प्रकार प्रो0 उपाध्याय जी ने भी किया है। साथ ही उनकी मेधा में चमत्कृति और प्रतिभा में अलंकृति है। यही कारण है कि प्रो0 उपाध्याय की भाषा शैली में उसकी सूक्तियों ने चारचाँद लगा दिये हैं। उदाहरण के लिए ‘प्रसाद जी प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति के अनन्त रमणीय चित्रकार बनकर उभरते हैं’ (पृ0-50)। ‘प्रसाद जी का प्रेम-दर्शन अत्यन्त व्यापक है’ (पृ0-48)। ‘प्रसाद के सम्पूर्ण साहित्य में आन्तरिक सामंजस्य और एकाग्रचित्त मस्तिष्क की तीव्र संवेदनात्मक प्रतिक्रिया दिखायी पड़ती है’ (पृ0-62) आदि।

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प्रसाद के प्रेम की मीमांसा, सौन्दर्य का विश्लेषण और प्रकृति की अतुलित शोभा का उपस्थापन सरल नहीं है। प्रसाद ने जिस मनायोग से साहित्य सर्जना की है, उसी मनोयोग और निष्ठा से प्रो0 उपाध्याय ने उसकी अन्तरात्मा के दर्शन का सफल प्रयत्न भी किया है। सूक्तियाँ मात्र सुन्दर शब्दों का संजाल नहीं होती है प्रत्युत् उनमें ज्ञान का भण्डार भरा होता है। हमारी परम्परा कहती है कि- ‘सूक्तियाँ उचित विचार से सुन्दर बनती हैं जैसे जानने योग्य तत्त्व के ज्ञान से मनीषियों की विद्या’।8

प्रकृत पुस्तक की सूक्तियों की गुणवत्ता का अनुमान निम्न सूक्तियों से सरलता से किया जा सकता है- ‘प्रसाद इतिहास के माध्यम से भारतीय अस्मिता और जीवन मूल्यों का अन्वेषण करते हैं’ (पृ0-321)। ‘प्रसाद जी अतीन्द्रिय जगत् के द्रष्टा कलाकार हैं’ (पृ0-349)। ‘प्रसाद का लेखन अपने दार्शनिक विचारों के कारण विशेष महत्त्व का अधिकारी हैं’ (पृ0-353)। भारतीय अस्मिता का अन्वेषण मनीषी से ही सम्भव है। अतीन्द्रिय जगत् के द्रष्टा की कला को कोई पराप्रतिभा सम्पन्न महाप्राण ही समझ सकता है। सुभाषित ज्ञान के, नूतन क्षितिजों के सुप्रकाशक होते हैं। सृष्टि के रहस्यों के उद्गाता होते हैं। सुत्तनिपात का मत है कि ‘सुभाषित ज्ञान का सार होते हैं।’9

जब हम विवेच्य ग्रन्थ की सूक्तियों के रहस्यों का अनावरण करते हैं तब उसमें दर्शन की मीमांसा, सौन्दर्य का सार और प्रेम की पराकाष्ठा के दर्शन होते हैं, जैसा कि प्रसाद ने कामायनी के लज्जा और काम सर्ग में किया है। अग्रलिखित पंक्तियाँ मात्र सूक्तियाँ नहीं है ये ज्ञान के समास की रूपरेखाएँ हैं। कामायनी दार्शनिक गरिमा, भावनात्मक गहराई और संवेदनात्मक औदात्य की दृष्टि से भी अप्रतिम कलाकृति है’ (पृ0-247)। ‘कामायनी स्वर-लिपियों का अभिसार करने वाला महाकाव्य है’ (पृ0-253)। ‘प्रसाद का सम्पूर्ण साहित्य भारत-भूमि, यहाँ की सभ्यता, गौरव, मर्यादा और भारतीय मनुष्यता की पहचान कराने वाला एक व्यापक प्रलेख है’ (पृ0-383)। ‘प्रसाद की कथा-भाषा अपनी बिम्बधर्मी काव्यात्मकता के कारण अपना प्रतिमान आप ही है’ (पृ0-378)।

भावनात्मक गहराई, संवेदनात्मक औदात्य स्वर ‘लिपियों का अभिसार’ ‘भारतीय मनुष्यता’ आदि शब्द संयोजन वाणी की पराभावभूमि को व्यक्त करते हैं जहाँ गोस्वामी जी के शब्दों में ‘‘गिरा अनयन नयन बिनु बानी’’10 चरितार्थ होने लगती है। जब कालिदास पार्वती की सुन्दरता का वर्णन कर चुके तब भी उनका मन नहीं भरा तो वे लिखते हैं कि ‘मानो विधाता ने सारे उपमानों को एक साथ देखने के लिए ही पार्वती का निर्माण किया है।’11 उपमानों की दुनियाँ कितनी अनन्त है कौन कह सकता है ? जो पाठक ग्रन्थ को मनोयोग से पढ़ता है और आत्मसात् करता है उसे सूक्तियाँ स्मरण हो जाती है। वह ग्रन्थ को बारबार पढ़ना चाहता है। जातक में ठीक कहा गया है कि- जिस प्रकार अग्नि तृण-काष्ठ को जलाती हुई कभी सुप्त नहीं होती और सागर नदियों को पाकर कभी तृप्त नहीं होता, उसी प्रकार हे राजश्रेष्ठ! पंडितजन सुभाषितों से कभी तृप्त नहीं होते।12

‘आँसू कवि संवेदनाओं की आत्यंतिक तीव्रता का काव्य है’ (पृ0-120)। ‘जयशंकर प्रसाद राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण के कवि हैं’ (पृ0-137)। ‘प्रसाद जी का यह अनन्त रमणीय सौन्दर्य बोध उनके सम्पूर्ण कृतित्व का मेरुदण्ड है’ (पृ0-152 उर्वशी)। ‘कामायनी का प्रलयवर्णन प्रकृति के भीषण रुप का स्तवन है’ (पृ0-164)। ‘प्रसादजी नारी मनोविज्ञान के गहन अध्येता रहे हैं’ (पृ0-179)। ‘प्रसादजी रुपकों में सोचने वाले कवि हैं’ (पृ0-180)।

इन सूक्तियों की गुणवत्ता की इयत्ता पर कौन सारस्वत मुग्ध नहीं होगा ? किस विद्वान् को ये पंक्तियाँ आनन्द नहीं देंगी ? कौन विद्यार्थी इन्हें बार बार पढ़ना नहीं चाहेगा ? ये वाक्य तृप्त ही नहीं करते, इस ग्रन्थ को बार बार पढ़ने की इच्छा जाग्रत करते रहते हैं। सूक्तियों का संसार वाक् सौन्दर्य का समास होता है। सुभाषितों की गुणवत्ता के विषय में मुंशी प्रेमचन्द लिखते हैं कि-‘सैकड़ों दलीलें एक तरफ और एक चुटैल सुभाषित एक तरफ। वह प्रतिद्वन्द्वी को निरुत्तर कर देता है, उसके जबाब में उसकी जबान नहीं खुलती। उसका पक्ष कितना ही प्रबल हो, पर सुभाषितों में कुछ ऐसा जादू होता है कि मानो वह एक फूँक से दलीलों को उड़ा देता है।13 

प्रसाद साहित्य की मीमांसा अनेक दृष्टियों से विद्वानों ने की है। कुछ को प्रसादजी का साहित्य ‘गड़े मुर्दे का उत्खनन’ प्रतीत होता है तो किसी को ‘ब्राह्मणवाद’ का पोषक और किसी को वे सांसारिक दायित्व से विलग होते हुए प्रतीत होते हैं। इन प्रकरणों का उत्तर प्रकृत व ग्रन्थ की ये सूक्तियाँ देती हैं। ‘कहानीकार जयशंकर प्रसाद हिन्दी कहानी के आकाशदीप हैं’ (पृ0-71)। ‘कामायनी महाकाव्य यूनेस्को के विश्वविरासत की सूची में सम्मिलित है’ (पृ0-80)। ‘कामायनी अपने जटिल अन्तर्विधान और बहुस्तरीय गतिशील अर्थवत्ता के कारण अपने युग का ही नहीं युग-युगान्तर का महाकाव्य है’ (पृ0-89)।

‘आकाशदीप’ सबके लिए होता है। सूर्य, चंद्र तथा नक्षत्रादि सबका मार्ग दर्शन करते हैं। आकाश सबको समान रूप से लाभान्वित करता है। जब कामायनी यूनेस्को की विश्वविरासत में सम्मिलित है तब वह ‘विश्वनिधि’ बन गयी है। इस बहाने यूनेस्को ने प्रसाद को विश्वकवि स्वीकार ही कर लिया। बाकी रही कोर कसर तो प्रो0 उपाध्याय ने अपने सटीक तर्कों से सिद्ध कर दिया है कि प्रसाद विश्व कवि के रूप में अग्रगण्य हैं।

सूक्तियों की अर्थवत्ता पर विचार करते हुए माधव स0 गोलवलकर लिखते हैं कि- ‘लालित्य, चमत्कृति तथा शब्द एवं अर्थ के अलंकारों से रुचिपूर्ण और साथ ही जीवन में मार्गदर्शन करने वाले तत्त्व को व्यक्त करने से ‘सुभाषित’ कहना उचित होगा’।14 विवेचनीय ग्रन्थ की सूक्तियों में अक्षर लालित्य, विचित्रचमत्कृति तथा अलंकार आकर्षण का समन्वित रूप दर्शनीय है। ये मात्र बुद्वि को ही संतुष्ट नहीं करते प्रत्युत् हृदय को तृप्त करते हैं। यथा ‘प्रसाद भारतीय-ज्ञान परम्परा के सबल प्रतीकों को उभारकर उसे पाश्चात्य सिद्धान्तों की समकक्षता में उपस्थित करते हैं। इस कार्य में भारत का स्वर्णिम इतिहास उनका सहयोगी था’ (पृ0-359)। ‘कामायनी का जीवन-दर्शन प्रसाद को कवि से ऋषि बना देता है’ (पृ0-385)। ‘प्रसादजी ऐसे विरले रचनाकारों में से एक हैं, जिन्होंने कारयित्री प्रतिभा सम्पन्न होने के साथ-साथ भावयित्री प्रतिभा के क्षेत्र में भी अपनी विलक्षण गति का परिचय दिया है’ (पृ0-387)।

इन सूक्तियों में भारतीय ज्ञान परम्परा का संतुलित निदर्शन है, भारत के स्वर्णिम इतिहास पुनरावतरण है, जीवन दर्शन के कवि की ऋषि कोटि में स्थापना की मान्यता है। ये पंक्तियाँ अनायास ही नहीं जन्म लेती है जब किसी पराशक्ति की कृपा होती है तभी ऐसी पंक्तियाँ मानस को सूझती हैं। सूक्तियाँ अनुभव कोश तथा ज्ञान का आकर होती हैं। ये सांस्कृतिक इतिहास की धरोहर होती हैं। काका कालेलकर ने ठीक ही कहा है कि ‘शास्त्र-वचनों के पीछे ऋषि-मुनियों के धर्मानुभव का प्रभाव होता है। सुभाषितोें के पीछे जातीय हृदय की मान्यता होती है।’15

प्रो0 उपाध्याय जब प्रसाद साहित्य का पठन करते हैं तब उनमें विद्यार्थी भाव और जब पाठन करते हैं तब उनमें गुरुत्व भाव अनायास आ ही जाता है पर जब वे प्रसाद साहित्य की समीक्षा-टीका करते हैं तब उनमें मल्लिनाथ, सायण आदि की समीक्षात्मा प्रवेश कर जाती है जिससे वे अमूल लिखते नहीं और मूल छोड़ते नहीं। इन पंक्तियों की अर्थवत्ता मौलिक चिन्तन आयामों की सर्जना करती हैं। ‘कामायनी भी आधुनिक भारतीय एवं विश्व सभ्यता का सांस्कृतिक महाकाव्य है’ (पृ0-455)। ‘कामायनी विश्व का ऐसा कलात्मक और आलंकारिक महाकाव्य है जो महाकाव्यात्मक उदात्तता और भव्यता के साथ उसे सर्वोच्च कला के चरम उत्कर्ष तक ले जाता है। (पृ0-455)। ‘प्रसाद का सम्पूर्ण साहित्य भारत भूमि, यहाँ की सभ्यता, संस्कृति, गौरव, मर्यादा और भारतीय मनुष्यता की पहचान कराने वाला एक व्यापक प्रलेख है’ (पृ0-415)।

‘विश्वसभ्यता का सांस्कृतिक महाकाव्य’, ‘सर्वोच्च कला का चरम उत्कर्ष’ आदि शब्द सूक्तिकार के ऋषित्व के प्रमाण हैं। उसके हस्तलेख सारस्वत काल के भाल के शिलालेख हैं। सूक्तियों से नूतन ज्ञान की जानकारी मिलती है। इसलिए विंस्टन चर्चिल का विचार है कि-‘अशिक्षित व्यक्ति के लिए सूक्तियों का अध्ययन अच्छी बात है।’16

प्रकृत ग्रन्थ की सूक्तियों के विषय में यह कहना पर्याप्त है कि जिन्हे अभी प्रसादसाहित्य का अध्ययन प्रारम्भ करना है उनके लिए पथ प्रदर्शिकाएँ हैं और बहुपठित के लिए चिन्तन के नवीन आयामों की सर्जिकाएँ हैं। ‘प्रसाद ने कालिदास को आत्मसात कर लिया है’ (पृ0-436)। ‘यदि कवितापन को भी कसौटी माना जाय तो जो स्थान संस्कृत साहित्य में कालिदास का है, हिन्दी साहित्य में वही स्थान प्रसादजी का हो जाएगा’ (पृ0-417)।

कालिदास और प्रसाद की काव्यात्मा भारतीय साहित्य चिन्तन परम्परा का सत्यं शिवं सुन्दरम् है तथा ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ और ‘‘सर्वेभवन्तु सुखिनः’’ का प्रमाणपत्र है। मेरी पुस्तक है ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम् एवं कामायनी के तुलनात्मक संदर्भ’। इसकी भूमिका प्रो0 उपाध्याय ने लिखी है। मैंने इन दोनों ग्रन्थों के अनेक संदर्भों की तुलना कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि दोनों महाकवियों की मेधा प्रतिभा, योग्यता एवं क्षमता में विलक्षण समता है।

निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि प्रो0 उपाध्याय की सुदीर्घ विलक्षण सारस्वत तपस्या का सुफल ‘जयशंकर प्रसाद: महानता के आयाम’ की सूक्तियों में ऋषिवत् संस्कार झलकता है जो प्रसाद को महान् विश्वकवि की पंक्ति में अग्रगण्य प्रमाणित करते                    हैं साथ ही मानव जीवन को सुसंस्कृत बनाने के गुणसूत्र परिलक्षित होते हैं। ये सूक्तियाँ प्रसाद साहित्य पर पुनर्चिन्तन की रुपरेखा प्रस्तुत करती हैं तथा विश्वमानवता की भूमिका रचती हैं।

निवास-पटेलनगर, कादीपुर, सुलतानपुर उ0प्र0-228145

पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष

संत तुलसीदास स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कादीपुर, सुलतानपुर उ0प्र0-228145

मो0-9532006900

सन्दर्भ सूची

  1. योगवाशिष्ठ 5-45।
  2. बाणभट्ट-कादम्बरी कथामुख।
  3. नीलकंठ दीक्षित-शिवलीलापर्व।
  4. चाणक्य नीति।
  5. अज्ञात।
  6. अज्ञात।
  7. अज्ञात।
  8. अज्ञात।
  9. सूत्रनिपात -21-6 (पालि)।
  10. रामचरितमानस।
  11. सर्वोपमाद्रव्यसमुच्चयेन। कुमारसंभव प्रथम सर्ग।
  12. जातक (महासुत सोम जातक पालि)।
  13. प्रेमचन्द विविध प्रसंग पृ0-487।
  14. माधव स0 गोलवलकर (पत्र रुप श्री गुरुजी पृ0-320।
  15. काका कलेलकर मंगल देव शास्त्री कृत सुभाषित सप्तशती की भूमिका।
  16. It is a good thing for an uneducated to read books of quotations विंस्टन चर्चिल (माई अर्ली लाइफ, अध्याय-2)

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सद्य: प्रकाशित ग्रंथ ‘जयशंकर प्रसाद : महानता के आयाम’ आमेजान, फ्लिप कार्ट और राजकमल प्रकाशन के संलग्न लिंक पर उपलब्ध है।