कलमवीर धर्मवीर भारती
डॉ. उपेंद्र कुमार ‘सत्यार्थी’,
सहायक प्रोफेसर,
हिंदी विभाग, झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय
कुछ लेखक ऐसे होते हैं जो सबकुछ लिखकर भी किसी एक विधा में सिद्धहस्त नहीं हो पाते, तो कुछ लेखक बस एक ही विधा को साध पाते हैं या सिर्फ़ एक रचना से शोहरत हासिल कर लेते हैं. परन्तु, वैसे लेखक विरले होते हैं, जिनका सबकुछ अतिउत्तम हो, उत्कृष्ट हो, या हर रचना नई बुलंदियों को छूकर आए. कलमवीर धर्मवीर भारती का नाम ऐसे ही रचनाकरों की सूची में शामिल है, जहाँ से भी उनको देखिये, उनके साहित्यिक कद की ऊंचाई एक समान ही दिखाई पड़ती है. यही बात उनके पत्रकारीय लेखन में भी दिखाई पड़ेगी.
सबसे बड़ी विचित्र बात यह है कि स्वयं धर्मवीर भारती अपनी जिस लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों के देवता’ को ‘कलात्मक रूप से कमजोर’ मानते थे, वही बरसों तक हिंदी की सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों की सूची में शामिल रही. अब तक इसके सौ से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. जब ‘गुनाहों के देवता’ उपन्यास प्रकाशित हुआ था तब हिंदी के ही प्रसिद्ध साहित्याकर उपेन्द्रनाथ अश्क ने इसकी खूब आलोचना की थी. उन्होंने इस रचना को ‘बकवास’ और ‘कोरा भावोच्छवास’ तक बताया था. लेकिन, कुछ दिन ही बाद उन्हें भी मानना पड़ा कि ‘इत्ती मोटी यह किताब एक साँस में खुद को पढ़ा ले जाती है. यह भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं.’
धर्मवीर भारती सिद्धहस्त उपन्यासकार तो थे ही साथ ही प्रसिद्ध कवि, नाटककार, संपादक, पत्रकार, लेखक और लोकप्रिय अध्यापक भी थे. इलाहबाद विश्वविद्यालय में रहते हुए हरिवंश राय बच्चन, फ़िराक गोरखपुरी, इलाचंद्र जोशी, रामकुमार वर्मा, धीरेन्द्र वर्मा, विजयदेव नारायण साही, मैथिली शरण गुप्त आदि साहित्यकारों की शोहबत में रहकर खूब नाम कमाया. यहाँ तक कि इन्हें प्रेम और रोमांस का लेखक माना जाने लगा. धर्मवीर भारती विशुद्ध रूप से ‘हिंदी’ के थे. उन्होंने अपनी बी.ए से लेकर पीएचडी की पढ़ाई ‘हिंदी साहित्य’ में की थी. उनकी पीएचडी ‘सिद्ध साहित्य’ पर है.
‘गुनाहों के देवता’ के अलावा ‘सूरज का सातवां घोडा’ (उपन्यास), ‘अंधायुग’(नाटक), ‘कनुप्रिया’(काव्य-संग्रह), ‘ठेले पर हिमालय’(निबंध संग्रह’), ‘नदी प्यासी थी’(एकांकी), ‘मानव मूल्य और साहित्य’(आलोचना), ‘गुलकी बन्नो’(कहानी) आदि रचनाएँ उच्चकोटि की हैं. उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोडा’ को कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम से फ़िल्म बनाई. ‘अंधायुग’ नाटक को अबतक सैकड़ों भारतीय रंगमंच निर्देशकों द्वारा मंचन किया जा चूका है, जिनमें इब्राहीम अलकाजी, रामगोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम.के रैना, मोहन महर्षि, सुरेंद्र शर्मा आदि प्रमुख हैं.
धर्मवीर भारती ख्यातिलब्ध साहित्यकार के साथ ही अवलदर्जे के सफल संपादक भी थे. उनके यश और कीर्ति का आधार ‘धर्मयुग’ जैसी अवलदर्जे की बेहतरीन हिंदी साप्ताहिक पत्रिका थी. 1960ई. में ‘धर्मयुग’ के प्रधान संपादक बनते ही इस पत्रिका में आमूलचूल परिवर्तन किया. अपने संपादन काल में वे सिर्फ नई प्रतिभाओं को ही नहीं गढ़ा, हर एक विषय को अपनी पत्रिका के सांचे में ढाला, जैसे- धर्म, राजनीति, साहित्य, सिनेमा, कला, फैशन, समीक्षा, ज्योतिष, मनोरंजन,विज्ञान आदि कोई भी विषय उनसे अछूता नहीं था. घरेलू स्त्रियों, बुजुर्गों और बच्चों के लिए भी धर्मयुग में बहुत कुछ रहता था. मतलब यह कि धर्मयुग में उस वक़्त परिवार के हर सदस्य के लिए कुछ न कुछ होता था. संयुक्त परिवारों में इस पत्रिका को खूब पसंद किया जाता था. यही कारण है कि कुछ ही समय में कुछ हज़ार से बढ़कर इसकी प्रतियाँ लाखों में छपने लगी. उस ज़माने किसी भी पत्रिका के लिए चार लाख प्रतियों का छपना बहुत बड़ी बात थी। इस प्रकार माना यह जाता था कि धर्मयुग के लगभग चालीस लाख पाठक रहे होंगे। प्रसिद्ध संपादक हरिवंश नारायण के अनुसार, ‘यह एक ऐसी पत्रिका थी जिसे हर कोई पढ़ता था, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर पूर्वोत्तर तक।’
धर्मवीर भारती ने ‘कार्टून’ जैसी सी विधा को भी इतना सम्मान दिया कि 25 वर्षों तक धर्मयुग में लगातार छपने के बाद आबिद सुरती द्वारा रचा गया कार्टून कोना ‘ढब्बूजी’ अमर हो गया. और आबिद सुरति जी कथाकार, व्यंग्यकार, नाटककार आदि से प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट बन गये. इससे पता चलता है कि किस तरह धर्मयुग उस समय साहित्य की विधाओं के साथ रचनाकारों को स्थापित कर रही थी.
हालांकि बतौर प्रधान संपादक धर्मवीर भारती ने धर्मयुग से जो चाहा उन्हें सब मिला लेकिन, उनकी आलोचना भी कम नहीं हुई. उन्हें शीघ्र ही एक तानाशाह संपादक माना जाने लगा. एक ऐसा संपादक जो न तो अपने सहकर्मियों के साथ उठता-बैठता था और न ही उनसे आसानी से मिल सकता था. जिससे मिलने के लिए पर्ची भेजनी पड़ती थी और उनके बुलाने पर ही कोई भीतर जा सकता था. रचना के लिए मौलिकता के स्वीकृति पत्र को संलग्न करने का नियम और न जाने कितने नियम पत्रिका प्रकाशन जगत में उनके द्वारा प्रचलित किये गए हैं. हालांकि ये सभी नियम धर्मयुग को उच्चकोटि की पत्रिका बनाने के लिए गढ़े गए थे. परन्तु, इसने सबसे ज्यादा नुकसान धर्मवीर भारती की लोकतांत्रिक छवि का ही किया. हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और संपादक रहे रवीन्द्र कालिया ने तो धर्मवीर भारती को केंद्र में रखते हुए एक बेहतरीन कहानी भी लिखी थी- ‘काला रजिस्टर’. यह कहानी संपादक धर्मवीर भारती और उनके बनाए नए तौर-तरीकों का मखौल उड़ाती थी. उनकी इस छवि ने उनकी पुरानी इलाहाबादी मौजमस्ती वाली छवि को लोगों के दिल से उतर दिया था. मजाकिया, खुशमिजाज़ और सबसे घुलमिलकर रहने वाले भारती अब कहीं नहीं थे. कार्यालय में हाजिरी दर्ज करने के लिए एक काला मोटा रजिस्टर घूमता रहता था और समय से न आने वाले का नाम लाल रजिस्टर दर्ज हो जाता था.
संपादक के रूप में भारती जी की आलोचना चाहे जितनी हो रही हो लेकिन पाठक समाज में उनका जलवा तब भी कायम था. भारती जी अपने पाठक समाज के मनोविज्ञान से जितना वाकिफ थे उतना शायद ही कोई और. उनके ऊपर उस दौर की अन्य पत्रिकाएं, जैसे-कल्पना, दिनमान, रविवार, सारिका आदि से भी अधिक उच्चकोटि की सामग्री रखने का दबाव था. इस प्रकार उन्होंने हिंदी समाज को बेहतरीन रचनाओं के साथ बेहतरीन रचनाकार भी दिए. रवीन्द्र कालिया, कमलेश्वर, गणेश मंत्री, कन्हैया लाल नंदन, एस.पी. सिंह, दुष्यंत कुमार, अखिलेश, राजेश जोशी, शिवानी, मृणाल पाण्डेय, हरिवंश आदि न जाने कितने लेखक-संपादक-पत्रकार धर्मयुग ने दिये. धर्मयुग का होली, दीपावली और आजादी विशेषांक को आज भी उस दौर के पाठक समाज नहीं भूलता.
धर्मयुग में उस दौर के सभी प्रमुख कवियों, कहानीकारों, उपन्यासकारों एवं नाटककारों की रचनाओं को स्थान दिया गया. इसका दायरा हिंदी तक ही सीमित नहीं था. हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियां भी अनूदित कर इसमें प्रकाशित की जाती थीं. अनुवाद के बावजूद उसकी भाषा में सहजता थी. कहीं-कहीं भाषा को व्याकरण के बोझिल बंधन से भी मुक्त किया जाता था. रोचक, सरस और कौतूहलमयी शैलियों के प्रयोग ने भाषा को सुगम बनाया. नए मुहावरें, लोकोक्तियों, उर्दू और अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों के प्रयोग ने ‘धर्मयुग’ को संप्रेषण के स्तर पर सशक्त बनाया. भारती के काल में धर्मयुग ने हिंदी के प्रचार-प्रसार, उसकी अस्मिता और गौरव की रक्षा के संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. 70 और 80 के दशक में धर्मयुग ने एक ओर जहाँ दक्षिण में शुरू हुए हिंदी विरोधी आन्दोलन के विरुद्ध हिंदी भाषियों की ओर से लड़ाई लड़ी, वहीं विश्व हिंदी सम्मेलनों को नैतिक और वैचारिक रूप से सहयोग देकर विश्व भर के हिंदी भाषी और हिंदी प्रेमियों को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया.
आलेख संकलन- विश्वहिंदीजन
स्रोत- जनकृति