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रामजी महाराज  या आज की सीता” (भारत आज भी वाल्मीकि
से गुरू व सीता सी नारियों से विहीन नहीं !)

-डॉ. सरस्वती जोशी, पैरिस
     उनका असली नाम केवल
नीना को ही नहीं अधिकतर लोगों को या तो याद नहीं या ज्ञात नहीं
, पर वे एक महिला थीं, और पुरुषों में कम, स्त्रियों में, विशेष तौर से परंपरावादी स्त्रियों में
अत्यंत लोकप्रिय थीं । उन्हें रामजी महाराज के नाम से पुकारा जाता था । नीना के
मामा एक पढ़ेलिखे उच्च पदाधिकारी थे और उनके आधुनिकवाद से प्रभावित मामी गुरुओं
आदि में विश्वास नहीं किया करती थीं । अपने पिता के गाँव में स्कूल की कमी होने से
नीना ननिहाल में रहकर पढ़ाई कर रही थी और नीना की सही परवरिश की चिंता में मग्न
मामी उसके सामने विभिन्न सामाजिक समस्याओं का वर्णन करती रहती थीं । वही अक्सर
गुरुओं-साधुओं के नकारात्मक किस्से सुनाने वाली मामी अचानक उसे जल्दी-जल्दी होमवर्क
करा पास के मंदिर में कथा-कीर्तन सुनने ले जाने लगीं । जब पहली बार सुना :
“रामजी महाराज की कथा में चलना है
,” तो नीना ने कल्पना
की : कोई पंडितजी होंगे
, पर मंदिर पहुँचने पर
उसे मंच पर एक करीब ३५-३६ वर्ष की परम सुंदरी महिला दिखाई दी
, गहरे गुलाबी वस्त्रों में, जिसके चेहरे पर
अद्वितीय ओज था । उसे उसकी सूरत में पुस्तकों में पढ़ी मीराबाई का आभास होने लगा ।
उसकी वाणी के माधुर्य भरे आकर्षण को नीना जीवन भर नहीं भूल पाई । उन भजनों को वह
आज ५० साल बाद भी गुनगुनाती है भावुक सी हो कर । उसे मोहित सा कर लिया रामजी
महाराज की सौम्यता
, सुंदरता व चेहरे के ओज ने । वह अक्सर
मामी से आग्रह करने लगी मंदिर जाने का ।
 

     उस दिन निर्जला
एकादशी का व्रत था । नीना मंदिर में बैठी थी
, कीर्तन चल रहा था ।
“नटनागर तुम्हारे चरणों में
, भगवान तुम्हारे
चरणों में नित ध्यान मैं अपना लगाया करूँ… ” का भजन गा रहे थे सब । कुछ
मैले से कपड़े पहने एक व्यक्ति जो लुहार था और प्रथम पंक्ति में बैठा था अचानक
फूट- फूट कर रोने लगा । सब लोग चुप हो गये और रामजी महाराज की व उसकी ओर देखने लगे
। कुछ ही क्षणों में सब ने देखा कि रामजी की आँखों से भी धाराएँ बह रही हैं ।
उनहोंने अपनी एक शिष्या को संकेत किया कि उनका उस दिन का सारा चढ़ावा उस व्यक्ति
को दे दिया जाए । वे अक्सर अपना सारा चढ़ावा गरीबों में बाँट दिया करती थीं
, यह कोई नई बात नहीं थी पर वह व्यक्ति गिड़गिड़ाता सा बोला : “मुझे धन
की नहीं आप की ज़रूरत है
, मैं आपको लेने आया
हूँ
, आप मेरी सब चूकें माफ कर दो, मैं आप के लायक नहीं
पर मुझे और इसको क्षमा कर घर चलो… ” उसके पास बैठी एक लुहारिन उठ कर रामजी
के पैरों में पड़ने लगी । रामजी उसे क्षमा प्रदान कर देने जैसी मुद्रा में उठ
, मंच से उतर उन दोनों को शांत करने लगीं । उस समय उनके चेहरे पर अनेकों
विभिन्न रंग एक साथ दिखाई दे रहे थे । मंदिर में सन्नाटा छा गया । सैंकड़ों आँखे
नम हो गईं । रामजी महाराज जो सदा अपना परिचय स्वयं को “परदेसी फकीर” कह
कर दिया करती थीं
, उनका असली परिचय सब को मिल गया था ।
अचानक सब को १५ वर्ष पहले की घूँघट में लिपटी
, नित्य मार खा, फूट-फूट कर रोती पड़ोस की लुहारिन याद आ गई । हाँ यह वही थी ! वही अनपढ़
गँवार सी अबला ! जिसके पति के खड़ूस स्वभाव के कारण कोई उसे छुड़ाने भी नहीं जाता
था । जिसका पति : “अब तेरी छाती पर सौत लाऊँगा
,” कह सच में एक दिन एक
लुहारन को ले आया था । उस रात दोनों ने उसे खूब पीटा था । सर्दी की ठिठुरती रात
में उसका विलाप दूर तक सुनाई दे रहा था । फिर अक्सर ऐसा होने लगा । लोग आदी से हो
गये । पर एक सुबह अचानक सुनने में आया : “पड़ोस की लुहारिन कहीं भाग गई
, घर में नहीं है…” ससुराल वालों ने लांछन लगाए । मैके वालों ने कभी
सफाई दी
, कभी चार गालियाँ । लुहारों में नाता होना आम बात है लोगों ने महत्व नहीं
दिया और धीरे-धीरे सब उसे भूल गये पर सब ने यह मान लिया कि अवश्य उसने दुखी हो
दूसरा घर कर लिया
, उसे कोई मिल गया ।

      रामूड़ी लुहारन उस
रात आत्महत्या करने निकली
, नदी तक गई भी पर
डूबने का साहस नहीं कर पाई । कहाँ जाऊँ
, कहीं भी जाऊँ, पर इस पति के घर अब नहीं जाऊँगी… सोचती-सोचती वह अनायास ही रेलवे स्टेशन
पहुँच गई । टिकिट के पैसे पास में नहीं थे सो बिना टिकिट ही गाड़ी में चढ़ गई । वह
डिब्बा उज्जैन का था । थकान से चूर रामूड़ी को रोते रोते नींद आ गई
, लोगों ने सोचा : “शायद कोई रिश्तेदार मर गया है ।” जब नींद जगी
तो गाड़ी उज्जैन पहुँच चुकी थी । गाड़ी से उतर स्टेशन से बाहर कैसे निकली
, पता नहीं । कहते हैं : कानों के बुंदे टिकिट चेकर को दे दिये थे । पर
प्रश्न था अब
? अब कहाँ जाए ? एक भिखारिन से पूछा कि कुछ खाने की
जुगत कैसे बैठ पाएगी । बातों-बातों में भिखारिन ने एक रामसनेही महाराज के आश्रम का
पता बता दिया । रामुड़ी भूखी-प्यासी आश्रम में पहुँची । वहाँ के महाराज उसकी दुखद
कथा सुन भाव विभोर हो गये । उसकी सुंदर आभा में उन्हें सीता रोती दिखी या शकुंतला
यह तो नहीं पता पर उन्होंने उसे बेटी मान लिया । उस दिन से वह आश्रम में ही रह
ज्ञानार्जन करने लगी । वह आश्रम का सारा काम करती
, और बाकी समय में
गुरूजी के और शिष्यों के साथ बैठ अध्ययन करने लगी । उसकी वेशभूषा
, रहन सहन सब बदल गये, वह वहाँ के साधुओं
से गुलाबी वस्त्र पहनने लगी और अब उसका नाम “रामजी महाराज” हो गया । वह
बहुत प्रतिभाशालिनी थी । कुछ ही वर्षों में शास्त्रों का काफी ज्ञान अर्जित कर
लिया । लोग उसे महाराज की बेटी मानने लगे । धीरे-धीरे वह प्रवचन देने लगी । उसके
व्यक्तित्व व ज्ञान ने लोगों प्रभावित कर लिया और वह एक लोकप्रिय संत की श्रेणी
में गिनी जाने लगी । लोग उसके स्वरचित भजन सुनते समय मंत्रमुग्ध से हो जाते थे ।
पर उसके अपने मुहल्ले में वह आज भी थी : “एक लुहारिन
, कहीं किसी अनजाने के
साथ भागी हुई लुहारिन !” उसके समाज को शिकायत थी कि : “दुखी थी तो
माता-पिता से कह
, उनकी मार्फत दूसरा घर यानी नाता क्यों
नहीं कर लिया
? इस तरह भाग कर पीहर-सासरे की नाक क्यों कटवाई ?” परिवार में उसका
ज़िक्र करना एक प्रकार से मना सा था । वह परिवार के लिये घर की आन या शान नहीं शरम
की वस्तु थी
, एक पापणी-दुष्टणी, कलंकणी…

     उसे आश्रम में रहते
१३ वर्ष बीत चुके थे । एक दिन उसके गुरूजी ने अपनी शिष्या या समझो अपनी दत्तक
पुत्री को आदेश दिया : “अब समय आ गया है तुमको अमुक शहर में जाकर भगवद्
प्रचार करना है ।” यह तो उसके अपने शहर का नाम था । उसने बहुत टालना चाहा पर आदेश
तो आदेश था । रामजी महाराज अपने एक दो आश्रम वासियों के साथ अपने शहर में पहुँच एक
मंदिर में ठहरीं और भगवान की भक्ति का प्रचार करने लगीं । शीघ्र ही लोकप्रिय हो
गईं और हज़ारों लोग उनके प्रवचन व भजन सुनने आने लगे ।

    उनका यश फैलने लगा ।
उनका पति भी आने लगा
, उसने उनहें पहचान लिया । वह अपने मन पर
पड़े बोझ को सह नहीं पाया और उन्हें वापस घर लेजाने का आग्रह कर रहा था ।
 बड़ी विचित्र स्थिति थी । अब तो कई लोगों को ध्यान आ गया । “हाँ हाँ !
यह तो वही लुहारिन है
, अरे यह तो किसी के साथ नहीं भागी !…
पर यह ऐसी विदुषी कैसे बन गई ! आदि आदि
,” पर रामजी ने वापस उस
गृहस्थाश्रम को स्वीकार नहीं किया । वे वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति से मिलीं
, अपने पुराने परिचय को स्वीकार कर लिया, उस दिन का चढ़ावा
अपने पति के घर भिजवा दिया
, और उसी रात वापस
उज्जैन लौट गईं । कहते हैं कि रात में शहर छोड़ने से पहले अपनी ससुराल के मकान के
बाहर जा कर उसे प्रणाम किया था और आगे बढ़ते समय उनकी आँखे झर रही थीं ।
 

    अक्सर सुनते हैं कि
: “अब कलियुग है
, वाल्मीकि का युग अलग था, अब वह युग कहाँ ?” पर हम देखते हैं कि
भारत माता आज भी वाल्मीकि व सीता को जन्म देती है और देती रहेगी पर उनको
 ढूँढ पाना सरल नही !
 

     जय हो उन गुरुओं की ! जिन्होंने अनाथ
की तरह भिक्षा माँगते रामबोला को तुलसी दास बना दिया
, एक मूढ़ से व्यक्ति
को महा कवि काली दास बना दिया
, एक लुहार पीड़ित
अबला को रामजी महाराज बना दिया ।