भाषा और जनविसर्जन के संदर्भ में हिंदी के व्यावहारिक और मानक रूपों की
सीमाएं और संभावनाएं

(डॉ. अशोक कुमार मिश्र)
डीन एडमिनिस्ट्रेशन, रूड़की इंजीनियरिंग एंड मैनेजमेंट टेक्नोलाजी इंस्टीट्यूट, शामली-247774 (उत्तर प्रदेश)
ई-मेल- ashokpranjan@gmail.com



भाषा सभी प्रकार के ज्ञान का आधार, संप्रेषणीयता का माध्यम और परस्पर भावों और विचारों को अभिव्यक्ति करने का साधन है। डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव की मान्यता है कि ‘भाषा का व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान है। एक ओर वह व्यक्तित्व के विकास और अभिव्यक्ति का माध्यम है तो दूसरी ओर उसके सामाजीकरण का साधन। एक ओर वह समाज में संप्रेषण व्यवस्था का उपकरण बनती है तो दूसरी ओर व्यक्तियों को सामाजिक वर्गों में बांधने और उनसे बिलगाव करने का हेतु; एक ओर वह राष्ट्रीय भावना का संवाहक बनती है तो दूसरी ओर एक ही राष्ट्र केविभिन्न भाषा समुदायों में विषम भाव उत्पन्न करने वाली चेतना।-इसीलिए भाषा संबंधी विमर्श पर सदैव चिंतन किया जाता रहा है। इस संदर्भ में डॉ. विनोद कुमार प्रसाद का मत है कि, ‘वास्तव में मानव जीवन के विविध कार्यकलापों मे अपनी महत्वपूर्ण और केंद्रीय भूमिका के कारण भाषा से जुड़े प्रश्नों ने सदैव ही मनुष्य को अपनी ओर आकृष्ट किया है। उल्लेखनीय है कि यदि भाषा का विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग किया जाए तो यह न केवल रुढिय़ों, कुसंस्कारों और आपसी मतभेदों को नष्ट करने में सक्षम है अपितु राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सद्भावना पैदा करने का भी एक सशक्त माध्यम बन सकती है। वस्तुत:, ‘भाषिक विविधता ने ही सांस्कृतिक विविधता को जन्म दिया है।


भाषिक और सांस्कृतिक रूप से विभाजित विश्व के विभिन्न देशों में सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास में आने वाली अनेकानेक व्यावहारिक बाधाओं में भाषा की समस्या एक महत्वपूर्ण और ज्वलंत समस्या है। भारत जैसे विविधता प्रधान देश में यह समस्या चरम सीमा पर है। अत: भारत के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास से सरोकार रखने वाले इस ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकते हैं। हिंदी भाषा के विकास में जनविसर्जन की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारतीय संस्कृति, सभ्यता और भाषा के विकास में जनविर्सजन के प्रसंग संपूर्ण गरिमा के साथ उपस्थित हैं जिन्होंने न केवल इतिहास के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला बल्कि हिंदी केभाषिक पक्ष को भी गहराई से प्रभावित किया। ‘विकासक्रम में जैसे-जैसे संसार के विभिन्न क्षेत्रों और भूखंडों केबीच आवागमन और संचार बढ़ता गया, विभिन्न मानवीय भाषाएं भी राष्ट्र और देश की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए आपस में घुलने-मिलने लगीं और अपनी अभिव्यक्त क्षमता, सहजता-सरलता, अन्य भाषाओं से शब्दावली केअभिग्रहण, अनुकूलन तथा शब्दावली की सम्पन्नता के आधार पर एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र तक अपना दायरा विस्तार करती रही और अपनी उपयोगिता के आधार पर समाज में अपना स्थान ग्रहण करती चली गईं। कुछ भाषाओं को राज्याश्रय प्राप्त होने के कारण राजकाज में उनका प्रयोग बढ़ता गया और कालांतर में उन्हें ज्ञान-विज्ञान की भाषा होने का गौरव मिला तो कुछ भाषाओं को जनाश्रय प्राप्त हुआ और कालांतर में उनमें विविधता आती रही। हिंदी भाषा की विभिन्न बोलियों को बोलने वाले अनेक लोग जीवन संघर्ष और विकास के क्रम की प्रक्रिया में स्थान परिवर्तन करते रहे, भारतीय संस्कृति के साथ समंजन की प्रक्रिया से गुजरते रहे जिसकेफलस्वरूप एक नई भाषा जन्म लेती रही। इसी प्रकार दूसरे देशों से विविध कारणों से लोग भारत आए और उनके द्वारा प्रयुक्त विदेशी भाषा भाषी शब्दों को हिंदी ने आत्मसात कर लिया जिससे भाषा में विकास की प्रक्रिया संचलित होती रही। इस संदर्भ में डॉ. मुकेश अग्रवाल की मान्यता है कि, ‘राजनीतिकरण से भी भाषा प्रभावित होती है। यदि कोई राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को जीतकर वहां अपनी सत्ता स्थापित कर लेता है तो उसकी भाषा विजित देश की भाषा पर अपना प्रभाव जमाकर उसे परिवर्तित कर देती है, यद्यपि इस क्रम में वह स्वयं भी थोड़ी बहुत अवश्य प्रभावित होती है। संस्कृत काल में कुषाण, आभीर, हूण, शक आदि जातियों ने भारत पर अपना शासन स्थापित किया जिसके परिणामस्वरूप उनकी भाषाओं के अनेक शब्द हिंदी में आ गए। मुसलमानों ने भारत पर अपना आधिपत्य जमाया तो अरबी-फारसी केहजारों शब्द हिंदी में शामिल हो गए। यहां तक कि हिंदी शब्दों में भी ध्वनि परिवर्तन हो गया। फारसी में संयुक्त अक्षर न होने से हिंदी के प्रसाद, प्रकाश, रत्न, कृष्ण क्रमश: परसाद, परकाश, रतन
और किरशन के रूप में परिवर्तित हो गए। अंग्रेजों केभारत में आने से हिंदी में हजारों अंग्रेजी शब्द तो आए ही, अनेक हिंदी शब्दों, विशेषत: नामों का रूप विकृत हो गया। उदाहरणार्थ, डेल्ही (दिल्ली), कैलकटा (कलकत्ता), बॉम्बे (बंबई), आसाम (असम), कृष्णा (कृष्ण), रामा (राम) आदि।

हिंदी भाषा आज तीव्र गति से विकास की ओर अग्रसर है। समाज, साहित्य, अर्थजगत, संस्कृति और जीवन संबंधी मूल्य परिवर्तित हो रहे हैं। पुरातन संकल्पनाओं के स्थान पर नवीनता स्थापित हो रही है। इस नवीनता से उपजे शब्द भाषा के लिए चुनौती है। यदि कोई भाषा इस चुनौती को स्वीकार नहीं करती तो उसका विकास रुक जाएगा। भाषा का विकास अनिवार्यत: समाज के विकास से संबद्ध है। अत: यदि मनुष्य को अपने समाज और राष्ट्र को आगे बढ़ाना है
तो भाषा के विकास के प्रति भी सजग रहना होगा। व्यावहारिक रूप से समाज में भाषा के विविध रूप प्रचलित होते हैं जिनका आधार इतिहास, भूगोल, प्रयोग, समाज अथवा प्रयोक्ता होते हैं। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, ‘हिंदी राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश तथा बिहार की सामान्य भाषा और राजभाषा तो है ही, पूरे भारत की घोषित राजभाषा है। शिक्षा का माध्यम, राजकाज, आदि के अतिरिक्त राजनय के स्तर पर
भी अपनी भाषा के रूप में भारत इसी का प्रयोग कर रहा है। ऐसी स्थिति में इसका एक सर्वस्वीकृत मानक रूप अनिवार्यत: आवश्यक है। किसी भाषा के मानक रूप का अर्थ है, उस भाषा का वह रूप जो उच्चारण, रूप-रचनास वाक्य रचना, शब्द और शब्द रचना, अर्थ, मुहावरे, लोकोक्तियों, प्रयोग तथा लेखन आदि की दृष्टि से उस भाषा के सभी नहीं तो अधिकांश सुशिक्षित लोगों द्वारा शुद्ध माना जाता है। मानकता अनेकता में एकता की खोज है।

‘यह मानक वस्तुत: भाषा का व्याकरण सम्मत, शुद्ध, परिनिष्ठित, परिमार्जित रूप होता है। इस स्थान पर पहुंचने केलिए भाषा को कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। पहले स्तर पर भाषा का मूल रूप बोली होता है। इसका क्षेत्र सीमित होता है। इसकी कोई व्याकरणिक संरचना निश्चित नहीं होती। इसका प्रयोग प्राय: बातचीत में ही किया जाता है। ज्ञान-विज्ञान का साहित्य इसमें नहीं रचा जाता। साहित्य की रचना अवश्य ही बोली में की जा सकती है। अवधी, ब्रज, मैथिली का साहित्य इसका उदाहरण है।

डॉ. भोलानाथा तिवारी के अनुसार, ‘हिंदी प्रदेश बहुत बड़ा है, अत: इसके मानक स्वरूप के निर्धारण में सबसे बड़ी समस्या  ‘शब्द  और  ‘अर्थ  की है। एक क्षेत्र में चिट्ठी गेरी (मेरठ आदि) जाती है, एक में छोड़ी (पूरब
में)जाती है तो एक में डाली (पश्चिम में) जाती है। कहीं ‘कीडी सामान्य शब्द है तो कहीं इसका अर्थ ‘चींटी (हरियाणा) है। हिंदी के बहुप्रचलित शब्द ‘चींटा केलिए हरियाणवी में ‘मकौड़ा चलता है। दिल्ली की ‘तोरी इलाहाबाद बनारस में ‘नेंनुवा हो तो बलिया में ‘घेवड़ा। ‘कद्दू का दिल्ली में एक अर्थ है तो पूरब में दूसरा। इस प्रकार के शब्द और अर्थ के
अंतर क्षेत्र बड़ा होने केकारण हिंदी में बहुत हैं, किंतु विश्व की हर विशालक्षेत्री भाषा में ऐसा ही होता है। उदाहरणार्थ, अमरीका का ‘बिल इंग्लैंड में ‘चेक है। चीनी भाषा में भी ऐसे अंतर खूब हैं। ऐसी स्थिति में इस प्रकार के अंतर भी मानकता की दृष्टि से चिंताजनक नहीं कहे जा सकते। हां, पारिभाषिक शब्दावली की दृष्टि से हिंदी में बहुत अव्यवस्था
है। एक ही शब्द के लिए दो-दो, तीन-तीन शब्दों का चलना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ है कि कभी-कभी हिंदी में कही गई कुछ बातों को न समझने के कारण सुशिक्षित व्यक्ति भी अशिक्षित की कोटि में आ जाता है। सच पूछा जाए तो पारिभाषिक शब्दावली में एकरूपता लाने की दिशा में ही हिंदी को सबसे अधिक प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है।

जनविसर्जन की स्थिति में दूसरे भाषा भाषी क्षेत्रों में गए लोगों को सर्वाधिक इसी प्रकार की समस्या का सामना करना
पड़ता है। भाषा के मानकीकरण में लचीलापन विद्यमान रहता है। ‘भाषा का मानकीकरण का प्रश्न सामाजिक स्वीकृति से जुड़ा है, अत: हिंदी के व्यावहारिक रूप की सीमा और संभावनाएं शिक्षित और शिष्ट समाज भाषा के जिन रूपों का औपचारिक प्रसंगों में प्रयोग नहीं कर पाता, उन्हें अमानक रूप कहा जाता है। इस दृष्टि से बोलचाल की भाषा के अनेक शब्द, रूप, वाक्य आदि, स्थानीय बोली, उपबोली, अपभाषा को मानकेतर अथवा अमानक कहा जा सकता है।

वस्तुत: हिंदी भाषा का यही रूप देश में व्यावहारिक भाषा के रूप में स्थापित है। व्यावहारिक भाषा में व्याकरण के नियमों की उपेक्षा सर्वाधिक गंभीर समस्या है। जनविर्सजन केपरिणामस्वरूप हिंदी भाषा की व्याकरणिक दृष्टिकोण से अपरिपक्व व्यक्ति रूप रचना और वाक्य रचना के स्तर पर व्याकरणिक नियमों की उपेक्षा कर मेरे को, एकर (इसका), ओकर (उसका), करा (किया) जैसे अव्याकरणिक रूपों का प्रयोग करने लगते हैं। शिष्ट समाज में प्रयोग हेतु अनुपयुक्त माने जाने वाले शब्दों अथवा वर्जित शब्दों का प्रयोग भी किया जाने लगता है। इससे भाषा में अमानक शब्दों का प्रचलन होने लगता है।


सरकारी स्तर पर हिंदी के मानक स्वरूप के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग निरंतर काम कर रहा है। पारिभाषिक शब्दावली को छोड़ दें तो हिंदी केसामने कोई गंभीर समस्या नहीं है। हिंदी भाषियों में भाषा के प्रति उत्पन्न सजगता के कारण अनेकरूपताएं मिटती जाएंगी। हिंदी के मानक स्वरूप का प्रयोग जहां भाषाई त्रुटियों को दूर करेगा वहीं शब्दों को लेकर कई बार उत्पन्न होने वाले भ्रम को भी खत्म कर देगा। इससे भाषाई विकास की संभावनाएं प्रबल होगी तथा भाषा की तार्किकता में वृद्धि होगी। निश्चित रूप से भाषा की दृष्टि से मानक रूप की अलग महत्ता है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है जो एक सीमा रेखा का निर्धारण कर देता है। हिंदी के मानक रूप में व्यावहारिकता और लोकप्रियता की कमी सदैव अनुभव की जाती रही है। इसलिए भाषा के इस पक्ष पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए तभी भाषाई विकास की परिकल्पना पूर्ण होगी। आधुनिक काल में हिंदी शब्द भंडार को समृद्ध करने में जनविर्सजन की महत्वपूर्ण भूमिका है। पाश्चात्य देशों में आवागमन के चलते अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार तो बढ़ा ही है, फलत: अनेक अंग्रेजी शब्द तेजी से हिंदी शब्द भंडार का अंग बनते जा रहे हैं। कोट, पैंट, रेडियो, टेलीफोन, रेल जैसे शब्दों का प्रयोग अशिक्षित हिंदी भाषी भी निस्संकोच करता है। शब्द रचना की दृष्टि से भी नई प्रवृत्तियां सामने आई हैं। अंग्रेजी, अरबी, फारसी के उपसर्गों और प्रत्ययों यथा रेलगाडी, अजायबघर, दलबंदी, देशनिकाला और पावरोटी आदि का भी निर्बाध रूप से हिंदी में प्रयोग किया जा रहा है। अंग्रेजी भाषा के ज्ञान और उपयोग का सर्वाधिक लाभ यह हुआ कि हिंदी में भी विज्ञान और प्रौद्योगिकी का साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो गया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जनविसर्जन से हिंदी भाषा निरंतर समृद्ध होती जा रही है और भविष्य की अनेक संभावनाओं को आत्मसात किए हुए है।


संदर्भ
१-डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, भाषा शिक्षण, पृष्ठ ३८, वाणी प्रकाशन,
२१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२, संस्करण १९९२
२-डॉ. विनोद कुमार प्रसाद, भाषा और प्रौद्योगिकी, पृष्ठ १५, वाणी
प्रकाशन, २१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२, संस्करण १९९९
३-डॉ. विनोद कुमार प्रसाद, भाषा और प्रौद्योगिकी, पृष्ठ ७, वाणी प्रकाशन,
२१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२, संस्करण १९९९
४- उपरोक्त, पृष्ठ २३३
५-डॉ. मुकेश अग्रवाल, भाषा, साहित्य और संस्कृति, पृष्ठ १६६, के. एल.
पचौरी प्रकाशन, ८/डी-ब्लाक एक्सेटेंशन, इन्द्रापुरी, लोनी,
गाजियाबाद-२०११०२, प्रथम संस्करण २००६
६-डॉ. भोलानाथा तिवारी, हिंदी भाषा, पृष्ठ २९३, किताब महल, २२-ए, सरोजनी
नायडू मार्ग, इलाहाबाद, संस्करण २००५
७-डॉ. मुकेश अग्रवाल, भाषा, साहित्य और संस्कृति, पृष्ठ १६३, के. एल.
पचौरी प्रकाशन, ८/डी-ब्लाक एक्सेटेंशन, इन्द्रापुरी, लोनी,
गाजियाबाद-२०११०२, प्रथम संस्करण २००६
८-५-डॉ. भोलानाथा तिवारी, हिंदी भाषा, पृष्ठ २९५, किताब महल, २२-ए,
सरोजनी नायडू मार्ग, इलाहाबाद, संस्करण २००५
९-डॉ. मुकेश अग्रवाल, भाषा, साहित्य और संस्कृति, पृष्ठ १७३, के. एल.
पचौरी प्रकाशन, ८/डी-ब्लाक एक्सेटेंशन, इन्द्रापुरी, लोनी,
गाजियाबाद-२०११०२, प्रथम संस्करण २००६

–डॉ. अशोक कुमार मिश्र
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