जो कल तक थे अपने,
वे लावारिश लाश हो गए।
कुछ नदी के किनारे पड़े,
तो कुछ नदी में तैर रहे।।

मरघट लाशों से पट गया और,
किसी को ना हुई चिता भी नसीब।
कुछ हुए बेबस लाचार मजबूर,
तो किसी का मर गया जमीर।।

धर्म के ठेकेदार बैठे हैं चुप्पी साधकर,
आज नही पड़ता कोई भी फर्क ,
किसे जलाया?किसे किया दफन?
और किसे नोच रहे चील-श्वान?

प्रियंका पांडेय त्रिपाठी
स्वरचित एवं मौलिक