गोदान और मैला आँचल
शोध आलेख
किसी भी कृति का तुलनात्मक अध्ययन उसके सही और सटीक मूल्यांकन का एक जरूरी पहलू है। यह तुलना किसी कृतिकार के समकालीन परिवेश, युगबोध, परिस्थितियों और कृति की विधागत विशिष्टताओं के संदर्भ में होनी चाहिए। जब हम किसी रचना की आलोचना भी कर रहे होते हैं तो साथ साथ कहीं न कहीं और बहुत हद तक हम उसे अच्छी या बुरी भी साबित कर रहे होते हैं। उस समय निश्चित रूप से उसमें न कहने के बावजूद भी एक तुलनात्मक दृष्टि तो रहती ही है। यहीं तुलना आलोचना कर्म के लिए भी एक विशेष दृष्टि बन जाती है।
तुलनात्मक पद्धति में आलोचना एक विस्तृत साहित्यिक क्षेत्र को अपने में समेट लेती है और साथ ही ज्ञान के अन्य क्षेत्रों और शाखाओं को भी स्वीकार करती चलती है। “मूल्यांकन के बिन्दु पर तुलनात्मक अध्ययन इस बात का भी किया जाता है कि कोई कृति अपनी विधापरक परंपरा में कहाँ पर अवस्थित है। इसमें भी तीन स्थितियाँ हो सकती हैं- कोई कृति केवल परंपरा का अनुवर्तन ही कर रही है,कोई कृति चलती हुई परंपरा में एक प्रस्थान भेद उपस्थित कर रही है या कोई कृति अतीत में प्रत्यावर्तन कर रही है।”1 मेरे विचार से गोदान और मैला आँचल के तुलनात्मक अध्ययन को परंपरा में प्रस्थान भेद या प्रस्थान बिन्दु के अंतर्गत रखा जा सकता है।
गोदान और मैला आँचल की तुलना करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि प्रेमचंद और रेणु के अपने अपने युग संदर्भ रहे। प्रेमचंद के किसान-मजदूर खासकर किसान, साम्राज्यवादी और सामंती दोनों ताकतों से पीड़ित होने की वजह से दोहरे शोषण का शिकार हैं तो वहीं रेणु के किसान-मजदूरों को साम्राज्यवादी शक्तियों का शिकार नहीं होना पड़ता। लेकिन उससे भी भयंकर सामंती ताक़तें उभर कर आती हैं। स्वतन्त्रता से पहले जो जमींदार एक तरह से ब्रिटिश शासन व्यवस्था के निचले पायदान पर था और ब्रिटिशों से प्राप्त अधिकारों के बल पर जनता का शोषण करता था वही जमींदार अब आज़ादी मिलने के बाद सोशल हायरार्की के शीर्ष पर आ गया। वह नयी व्यवस्था का अंग बना और शक्तिशाली होता गया।तभी मैला आँचल में- “जमींदारी प्रथा खतम हुई लेकिन जमींदार जमीन से बेदखल कर रहा है।”2
शोषण करने वाले वही पुराने थे। प्रेमचंद के ही शब्दों में ‘गद्दी पर जॉन की जगह गोविंद आ बैठा था’ लेकिन शोषण के नए हथियारों और नए तरीकों के साथ। गोदान का किसान गुलाम देश के शोषण तंत्र का शिकार था और इस तंत्र से बाहर निकालने के साधन उसके पास नहीं थे। किसान उसे ही अपनी नियति मान बैठा था। होरी अपनी पूरी शक्ति, अपनी पूरे साधन झोंककर संघर्ष करता है लेकिन उस व्यवस्था में पराजित ही होता जाता है तभी तो कहता है- “सब तरफ से किफायत कर के देख लिया भैया, कुछ नहीं होता। हमारा जन्म ही इसलिए हुआ है की अपना रक्त बहाएँ और बड़ों का घर भरें।” होरी का यह कथन पूरे उत्तर भारतीय सामंती परिवेश और उसमें पिसते भारतीय किसानों के घुटन को बयान करता है।
गोदान के टेक्स्ट में प्रत्यक्ष रूप से कोई किसान आंदोलन तो नहीं पर किसान जीवन के हृदयस्पर्शी चित्र के पीछे आंदोलनों का प्रभाव अवश्य है। प्रेमचंद के पास किसानों की दुर्दशा के चित्र मौजूद थे।9 फरवरी 1920 को ‘प्रताप’ में अवध के एक किसान जगदत्त सिंह की चिट्ठी प्रकाशित हुई थी। अपनी चिट्ठी में जगदत्त सिंह ने लिखा था- “अवध की भोली जनता यह पुकार कर कहती है कि काश्तकारान से जमींदार खेत छीन लेते हैं। किसान जब खेती के लिए जमींदार के पास जाते हैं तो जमींदारान किसानों से पूछते हैं कि कितने रुपये नजर दोगे? किसान कहता है कि जो आप फरमावें। इस प्रकार अधिक रुपये लेकर किसी दूसरे किसान पर बेदखली लगकार जमीन छीन कर जमींदार उस किसान को जमीन दे देते हैं और नजर तथा मालगुजारी उससे और अधिक तय कर लेते हैं।…किसान की मृत्यु के बाद जमीन का किसान के लड़के बच्चों से छीन लिया जाना भी अधर्म है। इस प्रकार का अन्याय बाराबंकी, लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली आदि में बहुतायत में दिखलाई पड़ता है”।4 कहने की आवश्यकता नहीं कि जगदत्त सिंह जैसे किसानों की यह आवाज़ प्रेमचंद के गोदान तक सुनाई देती रहती है और सर्वोपरि रहती है।
भूस्वामी वर्ग द्वारा किए जा रहे दमन को मैला आँचल में भी देखा जा सकता है। जहां तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद, रामकिरपाल सिंह, खिलावन यादव जैसे भूस्वामी गाँव और किसान की तकदीर का फैसला करते हैं। तहसीलदार छल से ज़मीनों का संग्रह तो करता ही है, उसे और बढ़ाता भी जाता है। जमींदारी उन्मूलन से अपनी जमीन भी बचा ले जाता है। रेणु ने जमींदारी उन्मूलन आंदोलन और बिहार भूमि सुधार आंदोलन की असफलता, कानून की विसंगतियाँ, सत्ताधीन पार्टी और इनसे उत्पन्न जमींदार-किसान संघर्ष और प्रभावों को दिखाने का प्रयास किया है। “1950 के दशक में ही बटाईदारों के बड़े बड़े संघर्ष हुये। कोशी क्षेत्र के जमींदार दियारा क्षेत्र की विशाल भूमि को हथियाकर उसे पास के दूसरे जिलों से लाये गए पट्टेदारों को लगान पर चढ़ा देते थे। फिर जब वह जमीन उपजाऊ बन जाती तो इन पट्टेदारों को बेदखल कर के उसी भूमि को पहले से अधिक लगान पर दूसरे पट्टेदारों को दे देते थे”।5
प्रेमचंद के समय की स्थितियाँ रेणु के आज़ाद भारत में भी लगभग वही की वही थीं। बिहार टेनेन्सी एक्ट के दफा 40 के तहत आशान्वित होकर बटाईदारों ने कचहरी में अपील की लेकिन उनकी दरख्वास्त खारिज हो गई। “कल गाँव के सभी रैयत आए थे,फैसला सुनकर सभी रोने लगे”।6 उन्हें जमीन नहीं मिली थी। गोदान और मैला आँचल में किसानों की स्थितियों में अंतर सिर्फ इतना है कि गोदान में परतंत्र भारत के किसान हैं तो मैला आँचल में स्वतंत्र भारत के।
गोदान तक आते आते प्रेमचंद पूंजीपति-सामंतों के गठजोड़ को समझ चुके थे। उनके ढोंगी राष्ट्रवादी रूप को पहचान चुके थे। राय साहब के चरित्र के माध्यम से प्रेमचंद तथाकथित राष्ट्रवादियों की पोल खोलते हैं। वहीं मैला आँचल में रेणु नए आर्थिक और सामाजिक सम्बन्धों को उजागर करने के क्रम में ‘संस्कृतिकरण की प्रक्रिया’ की भी झलक देते हैं। आर्थिक स्थितियाँ कैसे पूरे जन जीवन को प्रभावित करती हैं यह दोनों में ही देखा जा सकता है किन्तु यहाँ एक अंतर यह दिखाई देता है कि जहां गोदान में ग्रामीण किसानों की आर्थिक समस्या ही मुख्य रूप से उभरकर सामने आती है वहीं मैला आँचल में रेणु का अंचल अपने पूरे परिवेश के साथ उभर कर सामने आया है। यद्यपि गोदान और मैला आँचल दोनों में ही हम छोटे किसानों को भूमिहीन मजदूर बनने की प्रक्रिया में देखते हैं पर चूंकि रेणु ने आज़ादी के बाद के गाँव का चित्रण किया है इसलिए उनके यहाँ एक सकारात्मक रुख या यूं कहें कि उम्मीद सी दिखाई देती है और वे स्वाधीन भारत में प्रगति,योजना और बदलाव भी देखते हैं। गाँव में मलेरिया सेंटर की स्थापना और डॉक्टर प्रशांत का आगमन उसी परिवर्तन की बयार है।
देश काल की भिन्नता ही रेणु के गांवों को प्रेमचंद के गाँव से अलग करती है। गोदान और मैला आँचल की रचना के बीच का दौर कोई स्थिर दौर था भी नहीं बल्कि भारी राजनीतिक और आर्थिक उथल पुथल से भरा था इसलिए यह अलगाव स्वाभाविक ही है। “रेणु के चित्रित गाँव प्रेमचंद द्वारा चित्रित गाँव से कहीं अलग और कहीं अधिक जटिल हैं।… रेणु का साहित्य वह गुमशुदा कड़ी है जिससे हम प्रेमचंद के गाँवों को आज के गाँवों के साथ मिलाकर समझ सकते हैं”।7 विचारधारा के स्तर पर भी दोनों रचनाकारों की कड़ियाँ कहीं न कहीं जुड़ती दिखाई देती हैं। यह ठीक है कि दोनों के विचारधाराओं के अपने कुछ अंतर्द्वंद्व, कुछ अंतर्विरोध और कुछ सीमाएं भी रही हैं फिर भी दोनों एक स्तर पर पास जरूर आते हैं। प्रेमचंद की विचारधारा क्या थी निर्धारण करना कठिन लगता है। “प्रेमचंद के शुरू के लेखन में तोलस्तोय, गांधी और आर्यसमाज की आदर्शवादी छाप स्पष्ट है लेकिन ज्यों ज्यों अहिंसाधर्मी राष्ट्रीय आंदोलन की कसौटी पर वे जन जीवन के यथार्थ की परख करते गए त्यों त्यों सामंती महाजनी सभ्यता के प्रति उनकी कटुता बढ़ती गई”।8 यही वजह रही कि गोदान तक आते आते ‘हृदय परिवर्तन’ और ‘आश्रम’ से उनका मोहभंग हो जाता है।
रेणु के मैला आँचल में हृदय परिवर्तन होता है और वह भी चामत्कारिक रूप से। उस चमत्कार को देखकर पाठक चौंक सा जाता है। “एक दिन अकस्मात तहसीलदार का हृदय परिवर्तन हो जाता है।हर परिवार को पाँच बीघे जमीन मिल जाएगी….इस हृदय परिवर्तन के लिए किसी सर्वोदयवादी ने प्रयास नहीं किया, स्वयं तहसीलदार ने भी नहीं। पीते काफी थे अचानक एक दिन ज्ञान नेत्र खुल गए”।9 इस ‘ज्ञान नेत्र खुलने’ को लेकर हिन्दी जगत में काफी विवाद रहे हैं। कुछ आलोचक इसे गांधीवादी परिवर्तन मानते रहे हैं तो कुछ तहसीलदार की चालाकी।
जो भी हो दोनों की कोई ना कोई दृष्टि तो है ही। रेणु समाजवादी आंदोलन से जुड़े थे और अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद वह प्रेमचंद के विचारों का ही एक रूप है। रेणु और प्रेमचंद दोनों ने ग्रामीण जीवन को, किसान और मजदूर की इच्छाओं, उनकी आकांक्षाओं और विपन्नताओं को देखा। गोदान में प्रेमचंद जहां एक गंभीर समस्या की ओर इंगित करते हैं वहीं रेणु मैला आँचल में तदयुगीन राजनीतिक परिवेश के कारण शीघ्र निदान बताते हैं। गोदान में प्रेमचंद जहां गांधीवादी आदर्शों से उबरते हैं वहीं मैला आँचल में भी रेणु के मोहभंग को देखा जा सकता है। एक समय के सक्रिय समाजवादी रहे रेणु का सभी राजनीतिक पार्टियों से मोहभंग हो गया लगता है। इसके कारण भी रहे। किसान-मजदूरों (socialist-communist) का संयुक्त मोर्चा तथा किसान आंदोलन का जो उभार 1934-36 में दिखाई देता है, वह 1947-48 में नहीं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की असंगत स्थितियाँ, गांधी हत्या, वामपंथी दलों के अंतर्विरोध- ऐसे कई कारण रहे हैं जो रेणु की विचारधारा को आहत करते हैं। आखिर उस समय कौन सी ऐसी पार्टी थी जो शोषितों की पार्टी थी? रेणु मैला आँचल में बावनदास के माध्यम से सोशलिस्टों के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं तो साथ साथ गांधीवादी सिद्धांतों को भी बिखरता हुआ दिखाते हैं।
रेणु ने लिखा है- “पानी मैला आँचल के समय अगर मेरी कमर तक था तो मेरी दूसरी किताब के खत्म होने तक सिर के ऊपर से गुजरने लगा। यह कहाँ आकार फंस गया मैं? मैं पसोपेश में था। यह लोकतन्त्र है भी या नहीं, इसमें मुझे संदेह होने लगा।”10 आगे नक्सलबाड़ी से जुड़े लोगों की चर्चा करते हुए कहते हैं- “उन लोगों ने कहा कि यह डेमोक्रेसी-फेमोक्रेसी कुछ नहीं है। उस पर भी मुझे विश्वास होने लगा। वे कहने लगे कि बैलेट के जरिये नहीं बुलेट के जरिये परिवर्तन होगा, वह भी मान लेने का मन करने लगा। लेकिन एक बार मन में हुआ कि नहीं जूता कहाँ काटता है, यह एक बार खुद पहन कर देखना चाहिए।” तभी रेणु 1972 में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ते हैं, चाहे वो हार ही जाते हैं लेकिन जूते का परीक्षण कर लेते हैं। इन सारी बातों के बावजूद यह कहना गलत नहीं होगा कि रेणु सदा समाजवादी विचारों के प्रभाव में रहे।
गोदान के समय गांवों में राजनीतिक दलों का उदय नहीं हुआ था जबकि मैला आँचल में सक्रिय राजनीतिक दलों की गतिविधियां दिखाई पड़ने लगी थीं। इन पार्टियों के संदर्भों के माध्यम से रेणु स्वातंत्रयोत्तर भारत की वास्तविक स्थिति और राजनीतिक भ्रष्टाचार का वर्णन करते हैं। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय दलों एवं शक्तियों के वर्ग-चरित्र व आज़ादी या स्वराज के स्वरूप को रेणु ने बहुत विश्वसनीय ढंग से उकेरा है। दोनों ने ही सोशयो-पोलिटिकल, सोशयो-इकोनोमिकल क्रियाओं प्रतिक्रियाओं का विशद और गंभीर चित्रण किया है। वास्तव में आर्थिक परिस्थितियाँ ही पूरे समाज और राजनीति का निर्माण करती दिखाई देती हैं।
मैला आँचल में समाज में जाति-धर्म और उनके गठजोड़ से चल रही राजनीति का प्रभावी चित्रण है। आर्थिक-राजनीतिक कारणों से धर्म को उपयोग में लाया जाता रहा है। राजनीति में जाति का महत्व और उसके आधार पर हो रही ‘सामाजिक ध्रुवीकरण’ की प्रक्रिया मैला आँचल के आज़ाद भारत से प्रारम्भ हो चुकी थी। जब बलदेव ‘जाति को बड़ी चीज’ मानता है तब जाति का महत्व स्पष्ट दिखाई देता है। मैला आँचल में जातिगत संघर्ष खुल कर सामने आता है। यह जातिगत संघर्ष इस हद तक उभरता है कि वर्ग-संघर्ष का कहीं कोई नामोनिशान नहीं रह जाता और वह महज संथालों का संघर्ष बन कर रह जाता है।
गोदान में किसानों में स्थितियों की समझ तो है लेकिन वर्गीय-चेतना जैसा कुछ भी दिखाई नहीं देता। भोला अपने समाज के रहस्य को समझने का प्रयास कर रहा है- “कौन कहता है,हम तुम आदमी हैं। हममे आदमीयत कहाँ? आदमी वह है जिसके पास धन है अख़्तियार है, इलम है। हम लोग तो बैल हैं और जुटने के लिए पैदा हुए हैं।”11 भोला का यह कथन रोंगटे खड़े कर देने वाला है। शोषण सहते सहते इनकी हिम्मत जवाब दे गई हो जैसे। गोदान के सीलिया-मातादीन प्रसंग को स्त्री-दलित दोनों महत्वपूर्ण प्रश्नों से जोड़कर देखा जा सकता है। प्रेमचंद जब अछूतों की स्थिति दिखाते हैं उस समय अंबेडकर का खयाल आना स्वाभाविक लगता है। मंदिर प्रवेश बिल पर अंबेडकर गांधी जी को पूरी तरह समर्थन नहीं दे रहे थे। उनका मानना था- “पददलित बराबरी और नागरिक अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। यदि तुम कहते हो कि आपका धर्म हमारा धर्म है तब आपके अधिकार और हमारे अधिकार बराबर होने चाहिए।क्या यह ऐसा ही है?”12 गोदान में मातादीन के मुंह में हड्डी डालने वाले प्रकरण को इस संदर्भ में व्याख्यायित किया जा सकता है। मैला आँचल में भी अछूतों की समस्या उठाई गई है लेकिन वहाँ गोदान जैसी गंभीरता नहीं।
भाषा और शिल्प के स्तर पर बात करें तो गोदान में किसी स्थानीय या ग्रामीण बोली का प्रयोग तो नहीं लेकिन भाषा की सहजता ही उसकी शक्ति है वहीं मैला आँचल में रेणु पूरी तरह साहित्यिक हिन्दी का भी प्रयोग नहीं करते तो सिर्फ स्थानीय भाषा का भी नहीं। उनकी भाषा जनता की सांस्कृतिक स्मृतियों का नेतृत्व करती लगती हैं। गोदान और मैला आँचल दोनों की अपनी शिल्पगत विशेषताएँ हैं। उनमें अंतर भी हैं। मैला आँचल के गीतों की अपनी विशिष्टता है ये गीत उपन्यास में यथार्थ का एक हिस्सा हैं तो गोदान में गोबर और उसके साथियों द्वारा गयी जाने वाली ‘होली’ और स्वांग सामंती शोषण व्यवस्था का सच बताते हैं।
प्रेमचंद और रेणु के समय की शोषण मूलक व्यवस्था नई शोषण प्रक्रिया के साथ आज भी मौजूद है। बढ़ती महंगाई, कर्ज के बोझ और इसके फलस्वरूप किसानों की आत्महत्या, किसानों के मजदूर बनने की प्रक्रिया और फिर शहरों की ओर पलायन के तथ्यों और आंकड़ों की रौशनी में इस नई और पूंजी आधारित शोषण प्रक्रिया को देखा-समझा जा सकता है। अब भी “किसान कर्ज के बोझ तले ही नहीं दबा है। उसे कई और संकटों से जूझना पड़ रहा है। वह कर्ज के कारण उदासी, विषाद और निराशा का शिकार हो रहा है। वह आत्महत्या कर रहा है”।13 आज पूंजीवादी-सामंती-बाजारवादी शक्तियों ने मिलकर ऐसे हालात पैदा कर दिये हैं- “छोटे उत्पादक, मसलन किसान, दस्तकार, मछुआरे, शिल्पी आदि और छोटे व्यापारी भी शोषण की मार झेलने के लिए छोड़ दिये जाते हैं।…अपनी आजीविका के साधनों से वंचित ये लोग काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं”।14 साथ ही धर्म, संस्कृति के नाम पर जनता को बेवकूफ बनाकर अब भी कुछ ‘तथाकथित राष्ट्रवादी’ राष्ट्रवाद को फासीवाद के करीब पहुंचाने में जुटे हैं। लेकिन इन बिगड़े हुए हालातों के बीच उम्मीद फिर भी बाकी है। गोदान के अंत में होरी की मृत्यु हो जाती लेकिन गोबर नहीं मरता। “वह नए जमाने की रोशनी देख चुका है। चाहे गाँव में खेती करे या शहर में मजदूरी, वह दूसरों का अन्याय बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। होरी के मरने के बाद गोबर मानो पिता के हत्यारों के लिए एक चुनौती की तरह जीवित रहता है।”15 वह संघर्ष करने के लिए,लड़ने के लिए जीवित रहता है क्योंकि ‘लड़ने के बगैर कुछ भी नहीं मिलता’16 इसी नयी चेतना से लैस गोदान का गोबर मानो प्रौढ़ होकर मैला आँचल के कालीचरण में दिखाई देता है।
संदर्भ सूची
- तुलनात्मक साहित्य- भारतीय परिप्रेक्ष्य- इन्द्रनाथ चौधुरी, पृ.सं.-10, वाणी प्रकाशन
- मैला आँचल- फणीश्वरनाथ रेणु, पृ.सं.-150, राजकमल प्रकाशन
- गोदान- प्रेमचंद, पृ.सं.-100, प्रकाशन संस्थान
- किसान राष्ट्रीय आंदोलन और प्रेमचंद : 1918-22 (प्रेमाश्रम और अवध के किसान आंदोलन का विशेष अध्ययन)- वीर भारत तलवार, पृ.सं.- 258-59, वाणी प्रकाशन
- बिहार के धधकते खेत खलिहानों की दास्तान- पृ.सं.- 23, पीपीएच प्रकाशन
- मैला आँचल- फणीश्वरनाथ रेणु, पृ.सं.-250, राजकमल प्रकाशन
- रेणु : संस्मरण और श्रद्धांजलि- (सं) रामबचन राय, पृ.सं.- 26,
- साहित्य और संस्कृति- मोहन राकेश, पृ.सं.- 44, राधाकृष्ण प्रकाशन
- आस्था और सौन्दर्य- रामविलास शर्मा, पृ.सं.- 122, राजकमल प्रकाशन
- रेणु रचनावली-5, पृ.सं.- 249, राजकमल प्रकाशन
- गोदान- प्रेमचंद, पृ.सं.-10, प्रकाशन संस्थान
- डॉ अंबेडकर : लाइफ एंड मिशन- धनंजय कीर, पृ.सं.- 30, पॉपुलर प्रकाशन
- जनसत्ता- धर्मेन्द्र पाल सिंह का ‘विदेशी निवेश में कितनी हकीकत’ शीर्षक आलेख, संपादकीय पृष्ठ, 16/10/2015
- जनसत्ता- प्रभात पटनायक का ‘नव उदारवाद से उपजी चुनौतियाँ’ शीर्षक आलेख, संपादकीय पृष्ठ, 22/2/2014
- प्रेमचंद और उनका युग- रामविलास शर्मा, पृ.सं.- 112, राजकमल प्रकाशन
- लहू है कि तब भी गाता है- पाश, पृ.सं.- 111, जनचेतना प्रकाशन
शिप्रा किरण,
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