महात्मा गांधी की दृष्टि में स्त्री
-आशीष कुमार
आदमी जितनी बुराइयों के लिए जिम्मेदार है उनमें सबसे ज्यादा घटिया, बीभत्स और पाशविक बुराई उसके द्वारा मानवता के अर्धांग अर्थात नारी जाति का दुरुपयोग है। वह अबला नहीं, नारी है। नारी जाति निश्चित रूप से पुरुष जाति की अपेक्षा अधिक उदात्त है; आज भी नारी त्याग, मूक दुख-सहन, विनम्रता, आस्था और ज्ञान की प्रतिमूर्ति है। (यंग, 15-9-1921, पृ. 292)
स्त्री को चाहिए कि वह स्वयं को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दे। इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा स्वयं स्त्री के हाथों में ज्यादा है। उसे पुरुष की खातिर, जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इंकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबर की साझीदार बन सकेगी। मैं इसकी कल्पना नहीं कर सकता कि सीता ने राम को अपने रूप-सौंदर्य से रिझाने पर एक क्षण भी नष्ट किया होगा। ( यंग, 21-7-1921, पृ. 229)
यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो मैं पुरुष के इस दावे के विरुद्ध विद्रोह कर देता कि स्त्री उसके मनबहलाव के लिए ही पैदा हुई है। स्त्री के हृदय में स्थान पाने के लिए मुझे मानसिक रूप से स्त्री बन जाना पडा है। मैं तब तक अपनी पत्नी के हृदय में स्थान नहीं पा सका जब तक कि मैंने उसके प्रति अपने पहले के व्यवहार को बिलकुल बदल डालने का निश्चय नहीं कर लिया। इसके लिए मैंने उसके पति की हैसियत से प्राप्त सभी तथाकथित अधिकारों को छोड दिया और ये अधिकार उसी को लौटा दिए। आप देखेंगे कि आज वह वैसा ही सादा जीवन जीती है जैसा कि मैं। गाँधी पुत्र और पुत्री के साथ एक समान व्यवहार करने में विश्वास करते थे। महिलाओं से संबंधित मुद्दों को उठाने वाले महात्मा गाँधी पहले व्यक्ति नहीं थे। उनसे पहले अनेक समाज – सुधारकों ने समाज में स्त्रियों की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। सांस्कृतिक पुनर्जागरण और भारत में स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक आंदोलन सदी के अंत में ही शुरू हो गया था। गाँधी के पर्दापण से पहले महिलाओं के प्रति समाज – सुधारकों का रवैया सहानुभूतिपूर्ण होने के साथ-साथ संरक्षणात्मक था। भारतीय राजनीति में गाँधी के पर्दापण के साथ महिलाओं के विषय में एक नए नजरिये की शुरूआत हुई। नारी के संबंध में गाँधी की समन्वित सोच व सम्मानपूर्ण भाव का आधार उनकी माँ और बहन रही। गाँधी ने अपनी रचनाओं में अपनी माँ का सर्वाधिक जिक्र किया है। बारबर साउथर्ड के अनुसार गाँधी की नारीवादी सोच में दो तत्वों की सर्वाधिक भूमिका है – पहला, “हर स्तर पर तथा हर मायने में स्त्री-पुरूष समानता तथा दोनों के विशिष्ट लैंगिक भिन्नता के मद्देनजर उनके सामाजिक दायित्वों में भिन्नता”
धर्मग्रंथों में स्त्रियों की स्वतंत्रता से संबंधित बातों का गाँधी विरोध करते है। उनके अनुसार इन ग्रन्थों में कही गई बातें देवताओं की नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे ग्रंथ भी एक पुरूष द्वारा ही लिखे गए है। धर्मग्रन्थों पर टिप्पणी करते हुए गाँधी ने कहा कि स्मृतियों में लिखी सारी चीजे दैव वाणी नहीं है तथा उनमें भटकाव व त्रुटियों का होना सहज संभाव्य है। गाँधी के अनुसार पुरूषों ने स्त्री को अपनी कठपुतली के रूप में इस्तेमाल किया है। निस्संदेह इसके लिए पुरूष ही जिम्मेदार है लेकिन अंतत: महिलाओं को यह स्वयं निर्धारित करना होगा कि वह किस प्रकार रहना चाहती है उनका मानना है कि ‘यदि महिलाओं को विश्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है तो उन्हें पुरूषों को आकर्षित एवं खुश करने के लिए सजना-संवरना बंद कर देना चाहिए और आभूषणों से दूर रहना चाहिए। भारतीय स्त्रियों का पुनरुत्थान’ लेख में गांधी जी ने महिलाओं के अधिकारों की वकालत करते हुए लिखा है कि अहिंसा की नींव पर रचे गये जीवन की रचना में जितना और जैसा अधिकार पुरुष को अपने भविष्य की रचना का है, उतना और वैसा ही अधिकार स्त्री को भी अपने भविष्य तय करने का है।”
ग्रामीण महिलाओं के बारे में उन्होंने लिखा – “मैं भली भंति जानता हूं कि गांवों में औरतें अपने मर्दों के साथ बराबरी से टक्कर लेती हैं। कुछ मामलों में उनसे बढ़ी-चढ़ी हैं और हुकूमत भी चलाती हैं। लेकिन हमें बाहर से देखने वाला कोई भी तटस्थ आदमी यह कहेगा कि हमारे समूचे समाज में कानून और रूढ़ी की रू से औरतों को जो दर्जा मिला है, उसमें कई खामियां हैं और उन्हें जड़मूल से सुधारने की जरूरत है।”
स्त्रियों के अधिकारों के बारे में गांधी जी के विचार इस प्रकार थे – “स्त्रियों के अधिकारों के सवाल पर मैं किसी तरह का समझौता स्वीकार नहीं कर सकता। मेरी राय में उन पर ऐसा कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए जो पुरुषों पर न लगाया गया हो। पुत्रों और कन्याओं में किसी तरह का कोई भेद नहीं होना चाहिए। उनके साथ पूरी समानता का व्यवहार होना चाहिए।”
महिला शिक्षा के वे प्रबल समर्थक थे और उन्होंने अपने इस विचार को रेखांकित करते हुए कहा कि मैं स्त्रियों की समुचित शिक्षा का हिमायती हूं, लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि स्त्री दुनिया की प्रगति में अपना योग पुरुष की नकल करके या उसकी प्रतिस्पर्धा करके नहीं दे सकती। गांधी जी का यह स्पष्ट मत रहा है कि स्त्री को पुरुष की पूरक बनना चाहिए। स्त्री का सबसे बड़ा अस्त्र उसकी अहिंसा, पीड़ा सहने की क्षमता, उसकी पवित्रता और उसका त्याग तथा सेवा-भाव है। स्त्री को अपने साहस का परिचय देने के लिए झाँसी की रानी बनने की आवश्यकता नहीं है। अर्थात आत्मिक शक्ति उसका अमोघ अस्त्र है, उन्होने कांग्रेस कर्मियों का आवाहन किया और कहा कि यदि उसका विश्वास है कि स्वतंत्रता हर राष्ट्र तथा व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है, तो उन्हें अपने घरों से शुरुवात करनी चाहिए। स्त्री को शिक्षित करें और युगों से चली आ रही उन रूढ़ियों तथा परम्पराओं का अंत करें, जो महिलाओं के सम्पूर्ण विकास में बाधक हैं।
अब तक महिलाओं को पुरूष अपना खिलौना समझते रहें हैं और महिला भी इस भूमिका में संतुष्ट रही है। उन्होने जेवरात कि हथकड़ियों और बेड़ियों कि संज्ञा दी तथा कन्या-विवाह के प्रतिरोध के लिए महिलाओं को आगे आने के लिए कहा। महिलाओं कि भूमिका में गांधी जी कहते हैं- महिलाएं पुरूषों के भोग की वस्तु नहीं हैं, जीवन पाठ पर वे कर्तव्य निर्वाह के लिए संगिनी हैं, मेरा मानना है कि स्त्री आत्मत्याग की मूर्ति है, लेकिन दुर्भाग्य से आज वह यह नहीं समझ पा रही कि वह पुरुष से कितनी श्रेष्ठ है। जैसा कि टाल्सटॉय ने कहा है, वे पुरुष के सम्मोहक प्रभाव से आक्रांत है। यदि वे अहिंसा की शक्ति पहचान लें तो वे अपने को अबला कहे जाने के लिए हरगिज राजी नहीं होंगी। ( यंग इंडिया, 14-1-1932, पृ.19)
भारतीय समाज में आज भी पुत्रियों से ज्यादा पुत्रों को महत्व दिया जाता है। आज भी कन्या – शिशु की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। यह सामाजिक विषमता महात्मा गाँधी को बहुत कष्ट पहुँचाती थी। उनके अनुसार पारिवारिक संपत्ति में बेटा और बेटी दोनों का एक समान हक होना चाहिए। उसी प्रकार, पति की आमदनी को पति और पत्नी की सामूहिक संपत्ति समझा जाना क्योंकि इस आमदनी के अर्जन में स्त्री का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से योगदान रहता है। भारतीय समाज में विवाह के समय लड़कियों का कन्यादान यानी दान किया जाता है। गाँधी ने इस विचारधारा की काफी आलोचना की है। उनके अनुसार एक बेटी को किसी की संपत्ति समझा जाना सही नहीं है।
एक समाज-सुधारक के रूप में, गाँधी ने स्त्री – उत्थान के लिए भरसक प्रयत्न किए। उन्होंने बार-बार यही स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि स्त्रियाँ किसी भी दृष्टि में पुरूषों से हीन नहीं है। और ‘यह झूठी अफवाह प्राचीन रचनाओं द्वारा उड़ाई गई है जिसके लेखक भी पुरूष ही थे। गाँधी जी दहेज – प्रथा के खिलाफ थे, बाल विवाह के खिलाफ थे, विधवा पुनर्विवाह के समर्थक थे गांधी जी का कहना था अगर कोई महिला पुनर्विवाह करना चाहती है तो उसे करने की आजादी होनी चाहिए, उसका बहिष्कार नहीं किया जाना चाहिए। शायद इसीलिए गांधी जी के एक बार कहने पर कुछ महिलाओं ने चरखा को अपनी जीविका का साधन बना लिया था। परंतु गांधी जी इन महिलाओं को कांग्रेस में शामिल करने के विरोध में थे। उनके अनुसार पहले महिलाओं की स्थिति में सुधार ज्यादा आवश्यक था। भारत की महिलाओं के प्रति गाँधी का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उन्होंने भारतीय – महिलाओं को राजनीतिक आंदोलन का एक मुख्य हिस्सा बनाया।1921 के असहयोग आंदोलन में गाँधी ने महिलाओं को अपने साथ जोड़ा। गाँधी के अनुसार चूँकि महिलाएँ त्याग और अहिंसा की अवधारणा है इसलिए वे खादी काटने जैसे शांत और धीमी गति के कार्य के लिए ज्यादा उपयुक्त है।
निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि गाँधी स्त्री – पुरूष के आपसी संबंधों, समानता पर सूक्ष्म दृष्टि रखते है। गाँधी ने महिलाओं की राजनीतिक, सामाजिक स्वतंत्रता पर अपने विचार प्रकट किए है। गाँधी के अनुसार स्त्री और पुरूषों में कर्मों का विभाजन पुराने समय से चल रहा है। उनके अनुसार महिलाओं का काम है घर संभालना और पुरूषों का काम है कमाना। आज के समय स्त्रियाँ उनके इस विचार से सहमत नहीं होंगी। महिलाओं के अधिकारों के बारे में संवेदनशील होने के बावजूद गाँधी ने महिलाओं की समस्याओं को राजनीतिक मंच प्रदान नहीं किया। कोई संगठन नहीं बनाया। परन्तु गाँधी ने महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए जो प्रयास किए थे, उनका कभी महत्व कम नहीं हो सकता। उन्होंने भारत में महिलाओं को एक नई दिशा दिखाई। हमें उसी दिशा में चलते हुए बदलते समय में उनके विचारों को अपनाना आर समझना होगा।
संदर्भ-ग्रंथ
- अहमद, डॉ. राजी. (सं). महात्मा गांधी की स्वदेश वापसी के 100 वर्ष. नई दिल्ली, प्रभात प्रकाशन. पृ. सं. 195
- गाँधी, एम. के.. (1946). रचनात्मक कार्यक्रम. अहमदाबाद, नवजीवन पब्लिकेशन हाउस. पृ. सं. 33,34
- गाँधी, एम. के.. (1947). मेरे सपनों का भारत. अहमदाबाद, नवजीवन पब्लिकेशन हाउस. पृ. सं. 125
- गुजरात नवजीवन, 12 अक्टूबर, 1919
- जोशी, पुष्पा. (1988). गाँधी ऑन वूमन, अहमदाबाद, नवजीवन पब्लिकेशन हाउस. पृ. सं. 30-311
- यंग इंडिया, 21/07/1921,15/09/1921, 14/01/1932,.
- सर्वेद, सुरेश. (सं) 2017. विचार वीथी. (सुमन जी का आलेख: गांधी : नारी विषयक दृष्टिकोण).
- सिन्हा, मनोज. (2008). गाँधी अध्ययन. दिल्ली, Orient Black Swan. पृ. सं. 120
- http://zameense.blogspot.in/2013/03/blog-post_4823.html महात्मा गांधी जी की नजर में….. नारी आलेख
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के विकास एवं शांति अध्ययन विभाग में पी-एच.डी. शोधार्थी हैं ।
संपर्क – 09604454556, 7020185580 ई-मेल – shanpatel501@gmail.com
बहुत ही उपयोगी जानकारी । धन्यवाद
धन्यवाद
अत्यंत उपयोगी ….