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साहित्यिक विमर्श

लेखन और साहित्य

लिखना और पढ़ना दोनों एक ही सिक्का के दो भाग है एक ही पन्ना के दो पेज है, अगर एक भाग कमजोर हुआ तो...

वैश्विक महामारी कोरोना के संदर्भ में: साहित्य की भूमिका- सारिका ठाकुर

वर्तमान समय में फैली वैश्विक महामारी(कोरोना) ने न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य को भी प्रभावित किया है,  इसके प्रभाव का ही परिणाम है कि आज देश-विदेश की आर्थिक,  सामाजिक,  राजनीतिक,  धार्मिक,  पारिवारिक व शैक्षिक स्थिति चरमरा गई है| दो कदम आगे बढ़ने की बजाय दो सौ कदम पीछे जा चुके हैं हम| ऐसे में जब हर वर्ग, हर समुदाय अपने स्तर पर इस समस्या के समाधान हेतु निरंतर प्रयासरत हैं, ऐसे में साहित्य भी  प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा है।

महामृत्युंजयी कविताएं

हिमकर श्याम की कविताएं /लक्ष्मीकांत मुकुल "युद्धरत हूँ मैं" युवा कवि हिमकर श्याम का एक बहुरंगी कविता संकलन है, जिसमें कविता लेखन की विविध...

डॉ. रामविलास शर्मा के पत्रों में विविध सामाजिक पक्ष -राहुल श्रीवास्तव

हिन्दी साहित्य के विकास की एक समृद्ध परम्परा रही है, जिसमें विविध विधाओं का विकास समयानुसार होता रहा है और उन साहित्यिक विधाओं में विभिन्न सामाजिक पक्षों का वर्णन किया गया है, जो साहित्यकार की लेखनी को सामाजिक दृष्टि से समृद्ध करता है। इसी क्रम में पत्र विधा भी हिन्दी साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान रखती है, जिसमें लेखक और उसके मित्रों के मध्य हुऐ सम्वाद जो विभिन्न विषयों से सम्बन्धित होते हैं, समाहित रहते हैं। हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत डॉ. रामविलास शर्मा का पत्र-साहित्य अपना एक विशेष स्थान रखता है। उनके पत्रों में वे अपने मित्रों के साथ विभिन्न साहित्यिक विषयों के साथ-साथ सामाजिक और समसामयिक विषयों पर भी मंत्रणाएँ करते नजर आते हैं और इस आलेख के माध्यम से उन सामाजिक विषयों पर डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि को समझने और उस विषय के सम्बन्ध में उनके सरोकार को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर डॉ. रामविलास शर्मा की बेबाक राय उनके पत्र-साहित्य में देखने को मिलती है।

नव वैश्विक युवाओं की संघर्ष गाथा ‘डार्क हार्स’ – धर्मेन्द्र प्रताप सिंह

नीलोत्पल मृणाल का यह उपन्यास आज के युवाओं की अंतरगाथा है। पारिवारिक और सामाजिक दबाव में युवा किस तरह जकड़ा है, यह उपन्यास में बखूबी स्पष्ट किया गया है।  आज वैश्वीकरण के युग में आने वाली पीढ़ी की जरूरतें रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित न रहकर एक एलीट वर्ग की जीवन शैली अपना रही है जिसे उपन्यास में दिखाया गया है। एक नौकरी की आकांक्षा में आज का युवा अपने परिवार सहित सर्वस्व कुर्बान करने के लिए तत्पर है। इन्हीं समस्याओं को विवेच्य उपन्यास स्वर प्रदान करता है।

हिंदी की आरम्भिक आलोचना का विकास (तुलनात्मक आलोचना के विशेष संदर्भ में )-रवि कुमार

आधुनिक युग का उदय साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ है। जिसमें भारतेंदु और उनके युग के लेखकों ने विशेष भूमिका निभाई हैं। हिंदी आलोचना का उदय इसी साहित्यिक भूमिका की देन है। वैसे तो हिंदी आलोचना का आरंभ बाल्मीकि के कंठ से निकले पहले पद्य से ही हो जाता है परन्तु आधुनिक युग में गद्य के विकास से हिंदी आलोचना को गति प्रदान होती है। आरंभिक हिंदी आलोचना का विकास पत्र-पत्रिकाओं से आरंभ होता है। इन्हीं आरंभिक पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना की बहसों के साथ तुलनात्मक आलोचना भी विकसित होती है। वैसे तो तुलनात्मक आलोचना के सूत्र हमें संस्कृत साहित्य में सूक्तियों के रूप में मिलते है और ये सूक्तियां ही आगे चल कर हिंदी आलोचना में भी विकसित होती हैं। इस लेख में हिंदी की इसी आरम्भिक तुलनात्मक आलोचना के स्वरूप, बहसों, एक-दूसरे रचनाकार को बड़ा दिखने की प्रतिस्पर्धा और तुलनात्मक आलोचना के विकसित होने के कारण हिंदी आलोचना में आयी गिरावट को दिखाया गया है।

हिन्दी कविता की परम्परा में ग़ज़ल-डा. जियाउर रहमान जाफरी

गजल हिंदी की बेहद लोकप्रिय विधा है. यह जब उर्दू से हिंदी में आई तो इसने अपना अलग लहजा अख्तियार किया. उर्दू का यह प्रेम काव्य हिंदी में जन समस्याओं से जुड़ गया. ग़ज़ल की परंपरा भले खुसरो कबीर या भारतेंदु होते हुए आगे बढ़ी हो, लेकिन ग़ज़ल को एक विधा के तौर पर स्थापित करने का काम दुष्यंत ने किया. आलोचना के स्तर पर भी आज ग़ज़ल को स्वीकारा जा रहा है. हिंदी के कई गजलगो दुष्यंत के बाद की इस परंपरा को संभाले हुए हैं.

विभिन्न कविता आंदोलनों की अनिवार्यता और अवधारणात्मकता-ऋषिकेश सिंह

आधुनिक काल में भारतेंदु, द्विवेद्वी, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, अकविता, तथा समकालीन कविता जैसे काव्यान्दोलनों का उभार हुआ जिसे स्वतंत्रता पूर्व और पश्यात दो भागों में भी बाँट सकते हैं। इन काव्यान्दोलनों के उद्भव में सबसे प्रमुख भूमिका नवजागरण एवं आधुनिकता के विचारधारा की उत्पत्ति का है।

इक्कीसवीं सदी की पहले दशक की कहानियाँ और मुस्लिम जीवन

हिन्दी साहित्य में बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध का समय विमर्शों के उभरने का समय रहा है, जिसमें क्रमशः स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि प्रमुख हैं । इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ होते ही एक नए विमर्श के रूप में अल्पसंख्यक विमर्श भी सामने आता है । अल्पसंख्यक विमर्श में विशेष रूप से मुस्लिम-समुदाय की बात की जाती है ।

२१ वीं सदी की कवयित्रियों के काव्य में स्त्री विमर्श –  हरकीरत हीर 

२१ वीं सदी  में सबसे ज्यादा चर्चित विषय रहा है स्त्री विमर्श।  समाजशास्त्रियों के लिए, राजनीतिज्ञों के लिए और साहित्य के लिए पिछले ५०-६० वर्षों से यह स्त्री विमर्श, ‘नारी मुक्ति आन्दोलन’ के नाम पर एक नए रूप में सार्वजानिक रूप से एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है. सामान्य रूप से ' विमर्श ' अंग्रेजी के ' डिस्कोर्स ' शब्द के पर्याय के रूप में प्रचलित है , जिसका अर्थ उक्त विषय पर दीर्घ एवं गंभीर चिंतन करना है।  नारी विमर्श पश्चिमी देशों से आयातित एक संकल्पना (सामान्य विचार) है. इंग्लॅण्ड और अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में फेमिनिस्ट मूवमेंट से इसकी शुरुआत हुई.
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