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साहित्यिक विमर्श

प्रसाद का आरंभिक काव्य: विराट संभावना का उन्मेष-डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय

प्रसादजी के रचनात्मक जीवन का आरंभ काव्य-लेखन से ही हुआ । आपकी आरंभिक कविताएं ' चित्राधार' में संकलित हैं।आपने 'कलाधर 'उपनाम से ब्रजभाषा में काव्यारंभ किया।यद्यपि यहां रीतिकाल का पूर्ण रूप से अतिक्रमण नहीं हो सका है परन्तु नयी उद्भावनाओं का संकेत बड़े ही स्पष्ट तरीके से व्यक्त हुआ है।

प्रेमचंद के आलोचक और आलोचकों के प्रेमचंद-सुशील द्विवेदी

प्रेमचंद पर विचार करते हुए इस बात पर भी बहस जरुरी है कि आलोचकों ने प्रेमचंद को किस रूप में पढ़ा है | उनके प्रेमचंदीय –पाठ ने हिन्दी आलोचना के संवर्धन में कितनी श्रीवृद्धि की है | हमें उनके मूल्यों पर भी विचार करना होगा |

कविता

हिंदी साहित्यकार प्रेमचंदजी कर सुर है, कि साहित्य केवल मन (दिल) बह्लानेकी चीज नहीं है मनोरंजन के सिवा उसका और भी उदेश्य है | जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है, चाहे वो व्यक्ति को या समूह उसकी वकालत करना ही साहित्य का कर्म है |

सत्ता के दाँव –पेंच से रूबरू कराती रघुवीर की कविताएँ

रघुवीर सहाय की कविताओं में लोकतंत्र के बचाव की गहरी चिंता है। उन्होंने लोकतंत्र को महज सत्ता से जुड़े संदर्भ में ही नहीं देखा बल्कि वे लगातार सामाजिक संरचना और आपसी संबंधों के विविध स्तरों के बीच भी इसकी स्थापना के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे। अलोकतांत्रिक व्यवस्था और संबंधों को अपनी कविता का विषय बनाते रहे।

गोदान और मैला आँचल

गोदान और मैला आँचल की तुलना करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि प्रेमचंद और रेणु के अपने अपने युग संदर्भ रहे। प्रेमचंद के किसान-मजदूर खासकर किसान, साम्राज्यवादी और सामंती दोनों ताकतों से पीड़ित होने की वजह से दोहरे शोषण का शिकार हैं तो वहीं रेणु के किसान-मजदूरों को साम्राज्यवादी शक्तियों का शिकार नहीं होना पड़ता।

कोश विज्ञान की उपादेयता

कोश विज्ञान सिर्फ शब्दों का बेतरतीब भंडार या संग्रह नहीं है बल्कि उसे व्यवस्थित बनाकर ही संपूर्ण भाषा को जाना जा सकता है। अतः कोश निर्माण भी अपने आप में अत्यंत श्रमसाध्य प्रक्रिया है अंग्रेजी में केाश विज्ञान को (lexicology) कहा जाता है । कुछ विद्धान इसे (lexicography) भी कहते है।

आत्मकथा : हिंदी साहित्य लेखन की गद्य विधा- डॉ. प्रमोद पाण्डेय

आत्मकथा हिंदी साहित्य लेखन की गद्य विधाओं में से एक है। आत्मकथा यह व्यक्ति के द्वारा अनुभव किए गए जीवन के सत्य तथा यथार्थ का चित्रण है। आत्मकथा के केंद्र में आत्मकथाकार या किसी भी व्यक्ति विशेष के जीवन के विविध पहलुओं तथा क्रिया-कलापों का विवरण होता है। आत्मकथा का हर एक भाग मानव की जिजीविषा तथा हर एक शब्द मनुष्य के कर्म व क्रिया-कलापों से जुड़ा हुआ होता है। "न मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित्" अर्थात मनुष्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है। आत्मकथा के अंतर्गत आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण, आत्मविश्लेषण, आत्माभिव्यक्ति यह आत्मकथा के द्वारा की जाती है।

२१वी सदी की ‘सुशीला’ को चाहिए ‘अनंत असीम दिगंत…..’-प्रो. डॉ. सौ. रमा प्र. नवले

मेहतर समाज की एक छोटी सी लड़की ‘सुशीला’ का अदम्य साहस अचंभित करता है| अत्यंत दरिद्र और सात भाई-बहनों के साथ एक बड़े परिवार में जीनेवाली यह लड़की, पिता के पढ़ाई बंद करने के निर्णय के विरुद्ध उपोषण करती है| एक ओर दरिद्रता और दूसरी ओर निम्न जाति में भी निम्न समझी जानेवाली मेहतर जाति के दंश की पीड़ा लगातार वह भुगतती रही है | ना वह अपनी सहेलियों के साथ बैठ पाई न खेल पाई और ना ही पीएच. डी. जैसी उच्चतम उपाधि पाने के बाद भी ‘झाडूवाली’ शब्द से छुटकारा पा सकी; पर ताज्जुब यह है कि जाति और लिंग भेद के अंधे कुँए के अँधेरे को चीरकर सतरंगी सपने बराबर वह देखती रही है|

लोकप्रिय साहित्‍य की अवधारणा- सुशील कुमार

साहित्‍य के दो रूप मिलते हैं- एक, लोकप्रिय साहित्‍य और दूसरा, कलात्‍मक साहित्‍य। कलात्‍मक साहित्‍य को गंभीर साहित्‍य माना जाता है, जबकि लोकप्रिय साहित्‍य को सतही साहित्‍य। साधारणत: माना जाता है कि जो साहित्‍य व्‍यापक जनसमुदाय के बीच सहज रूप में स्‍वीकृत और ग्राह्य हो, वह लोकप्रिय साहित्‍य है। सहजता, सरलता और सुबोधता ऐसे साहित्‍य के अनिवार्य गुण माने जाते हैं। लेकिन कोई साहित्‍य व्‍यापक जनसमुदाय के बीच सिर्फ सहजता, सरलता और सुबोधता के कारण लोकप्रिय नहीं होता। वह साहित्‍य व्‍यापक जनसमुदाय के बीच लोकप्रिय तभी होगा, जब उसका जुड़ाव आम जन से होगा।

तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों का विशिष्ट एवं नवीन अनुभव संसार

समकालीन हिन्दी लेखको में तेजेन्द्र शर्मा अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रहे है। उनकी कहानियों की विशिष्टता का कारण सिर्फ उनका प्रवासी परिवेश से युक्त होना ही नहीं, बल्कि विदेश प्रवासरत आम लोगों के जीवन को नए दृष्टिकोण से देखना है।
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